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त  : देवनागरी वर्णमाला का १६ वाँ और तवर्ग का पहला व्यंजन जो उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दंत्य, स्पर्शी, अल्पप्राण तथा अघोष होता है। छन्दशास्त्र में यह तगण का संक्षिप्त रूप माना जाता है और कविता में यह तो का अर्थ देता है। उदाहरण–नाहित मौन रहब दिन राती।–तुलसी। पुं० [सं०√तक् (हँसना)+ड] १. पुण्य। २. रत्न। ३. अमृत। ४. एक बुद्ध का नाम। ५. स्तन ६. गोद। ७. गर्भाशय। ८. नाव। ९. योद्धा। १॰. बर्बर। ११. शठ। १२. म्लेच्छ। १३. चोर। १४. झूठ। १५. दुम। पूँछ। क्रि० वि०=तो।
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त-गण  : पुं० [मध्य० स०] छंद शास्त्र में, उन तीन वर्णों का समूह जिसके पहले दो वर्ण गुरु हों और अंतिम लघु हो। (ऽऽ।)।
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तअज्जुब  : पुं० [अ०] किसी अनोखी, अप्रत्याशित या विलक्षण घटना, बात, व्यवहार आदि का मूल या रहस्यपूर्ण कारण समझ में न आने पर उत्पन्न होनेवाला मनोविकार। आश्चर्य।
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तअम्मुल  : पुं० [अ०] १. सोच-विचार। २. सोच-विचार के कारण किसी काम में लगनेवाली देर। विलम्ब। ३. धैर्य। सब्र।
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तअल्लुक  : पुं० [अ०] लगाव। संबंध।
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तअल्लुका  : पुं० [अ०] वह बहुत से गाँव जो किसी एक जमींदार के अधिकार में होते थे। पद–अतल्लुकेदार।
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तअल्लुकेदार  : पुं० [अ० तअलुल्क+फा० दार] वह जो किसी बड़े तअलुल्के या इलाके का अधिकारी या स्वामी हो।
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तअल्लुकेदारी  : स्त्री० [अ० तअल्लुक+फा० दारी] १. तअल्लुकेदार होने की अवस्था या भाव। २. वह सारी भूमि या क्षेत्र जो किसी तअल्लुकेदार के अधिकार में हो।
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तअस्सुब  : पुं० [अ०] [वि० तअस्सुबी] वह असहनशील और पक्षपातपूर्ण मनोवृत्ति जो पराई जातियों, धर्मों, व्यक्तियों अथवा उनके आचार, विचारो आदि के साथ उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करने देती और जिसके फलस्वरूप मनुष्य उन्हें उपेक्षा, घृणा, भय, संदेह आदि की दृष्टि से देखता है।
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तइँ  : सर्व०=तै। (तू)।
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तइनात  : वि=तैनात।
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तइसा  : वि०=तैसा।
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तँई  : अव्य=तई। पुं० [सं०√तंक् (कष्ट से जीना)+अच्] १. दुःखी जीवन। २. प्रिय के वियोग से होनेवाला कष्ट या दुःख। ३. डर। भय। ४. पत्थर की टाँकी। ५. पहनने का कपड़े।
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तई  : अव्य० [सं० तनु] १. एक अव्यय जिसका प्रयोग व्यक्तियों के सम्बन्ध में को प्रति या सम्बन्ध में के अर्थ में होता है। जैसे–आपके तई-आपकों या आपके प्रति अथवा सम्बन्ध में। अपने तई-अपने प्रति या अपने सम्बन्ध में। २. लिए। वास्ते।
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तई  : स्त्री० [हिं० तवा या तया का स्त्री] थाली के आकार की एक प्रकार की छिछली कड़ाही जिसमें प्रायः जलेबी और माल-पुआ बनाया जाता है। अव्य० [सं० तदा] उस समय। तब। (राज०) उदाहरण–कहौ तई करूणा मैं केसव।–प्रिथीराज।
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तउ  : अव्य० [सं० ततः] १. उस समय। तब। २. उस प्रकार। त्यों। ३. से। प्रति। उदाहरण–-तुम्ह तउ भरत मोर मत एहू।–तुलसी। ४. तो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तऊ  : अव्य० [हिं० तब+ऊ (प्रत्यय)] तिस पर भी। तोभी। तथापि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तक  : अव्य० [सं० अंत+क] संज्ञाओं अथवा संज्ञाओं के समान प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के साथ लगकर अवधि, सीमा आदि का अन्तिम या अधिकतम छोर सूचित करनेवाला एक संबंध सूचक अव्यय। जैसे–(क) खिर आप कहाँ तक (सीमा) जायँगें। (ख) आप कब तक (अवधि) आयँगें। स्त्री० [पं० तकड़ी] १. तराजू। २. तराजू का पल्ला। हिं० स्त्री० [हिं० ताकना] १. ताकने की क्रिया या भाव। २. टकटकी। टक।
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तक-कूर्चिका  : स्त्री० [सं०मध्य०स०] १.फटा हुआ दूध। २.फटे हुए दूध में से निकलनेवाला पदार्थ। छेना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकड़ा  : वि०=तगड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकड़ी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की बारहमासी घास जो रेतीली जमीन में होती है। इसे घोड़े चाव से खाते हैं। चरमरा। हैन। स्त्री=तराजू (पंजाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकदमा  : पुं० [अ० तकद्दुम] अटकल। अनुमान। कूत।
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तकदीर  : स्त्री० [अ०] [वि० तकदीरी] वह प्राकृतिक या लोकोत्तर शक्ति जो घटित होनेवाली बातों को पहले ही निश्चित कर देती है। किस्मत। भाग्य। उदाहरण–-तकदीर में लिखा था पिंडरे का आवोदाना।–इकबाल। पद–तकदीरवर।
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तकदीरवर  : वि० [अं० तकदीर+फा० वर] जिसकी तकदीर या भाग्य बहुत अच्छा हो। भाग्यवान्।
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तकदीरी  : वि० [अ०] तकदीरी या भाग्य संबंधी। जैसे–यह सब तकदीरी खेल या मामला है। स्त्री० [हिं० ताकना] तकने ताकने या तकन की क्रिया या भाव।
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तंकन  : पुं० [सं०√तंक्+ल्युट-अन] कष्टमय जीवन व्यतीत करना।
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तकना  : स० [हिं० ताकना] १. ताकना। देखना। २. आश्रय, सहायता आदि पाने के लिए किसी की ओर देखना। जैसे–अकाल में प्रजा राजा की ओर ताकती है। ३. किसी की ओर बुरी दृष्टि या भाव से देखना। जैसे–किसी की बहू-बेटी को तकना अच्छा नहीं है। ५. आसरा। देखना। प्रतीक्षा करना। शरण लेना। पुं० वह व्यक्ति जो बुरी दृष्टि से दूसरों विशेषतः पराई स्त्रियों की ओर ताकता रहता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकफीफ  : स्त्री० [अ०] खफीफ अर्थात् कम या हल्का करने की क्रिया या भाव। कमी। न्यूनता।
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तकबीर  : स्त्री० [अ०] ईश्वर और उसके कार्यों तथा देनों की हार्दिक प्रशंसा या स्तुति।
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तकब्बुर  : पुं० [अ०] [वि० तकब्बरी] अभिमान। घमंड।
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तकमा  : पुं० १. दे० तुकमा। २. दे० ‘तमगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकमील  : स्त्री० [अ०] किसी काम के पूरे होने की अवस्था या भाव। पूर्णता।
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तकर-मल्ही  : स्त्री० [देश०] भेड़ों के शरीर से ऊन काटने की एक तरह की हँसिया। (गढ़वाल)।
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तकररी  : स्त्री० [अ०] किसी पद या स्थान पर नियुक्त या मुकर्रर होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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तकरार  : स्त्री० [अ०] १. ऐसी कहा-सुनी जो अपना अपना पक्ष ठीक सिद्ध करने के लिए उग्रता या कटुतापूर्वक हो। विवाद। हुज्जत। २. साधारण झगड़ा या लड़ाई। पुं० १. धान का वह खेत जो फसल काटने के बाद फिर खाद देकर जोता गया हो। २. वह खेत जिसमें गेहूँ, चना, जौ आदि एक साथ बोये गये हों।
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तकरारी  : वि० [अ०] १. तकरार संबंधी। २. तकरार करने वाला। झगड़ालू।
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तकरीब  : स्त्री० [अ०] १. पास होने की अवस्था या भाव। समीपता। २. किसी कार्य या विषय का उपलक्ष्य। ३. विवाह आदि शुभ अवसरों पर होनेवाला उत्सव।
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तकरीबन्  : अव्य० [अ०] करीब-करीब। प्रायः। लगभग। जैसे–कचहरी यहाँ से तकरीबन् दो मील है।
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तकरीर  : स्त्री० [अ०] [वि० तकरीरी] १. बातें करना या कहना। बात-चीत। २. भाषण। वक्तृता।
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तकरीरी  : वि० [अ० तकरीर] १. तकरीर के रूप में होनेवाला। तकरीर संबंधी। २. जिसमें कुछ कहने-सुनने की जगह हो। विवाद-ग्रस्त। ३. जवानी। मौखिक।
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तकला  : पुं० [सं० तर्कु] [स्त्री० अल्पा० तकली] १. लोहे की वह सलाई जो सूत कातने के चरखे में लगी होती है और जिस पर कता हुआ सूत लिपटता चलता है। टेकुआ। २. टेकुरी की वह सलाई जिस पर बटा हुआ कलाबत्तू लपेटा जाता है। ३. वह सलाई जिसकी की सहायता से सुनार सिकड़ी के गोल दाने बनातें हैं। ४. रस्सी बटने की टेकुरी। मुहावरा–(किसी के) तकले का बल निकालना=किसी की अकड़ पाजीपन या शेखी दूर करना।
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तकली  : स्त्री० [हिं० तकला] सूत कातने का एक प्रकार का छोटा यंत्र जिसमें काठ के एक लट्टू में छोटा सा सूजा लगा रहता है।
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तकलीफ  : स्त्री० [अ०] १. कष्ट। दुःख। पीड़ा। जैसे–(क) उनकी ऐसी बातों से हमें तकलीफ होती है। (ख) इस तरह उठाने से बच्चे को तकलीफ होती होगी। २. विपत्ति। संकट। जैसे–सब पर कभी न कभी तकलीफ आती ही है। ३. बीमारी। रोग। जैसे–खाँसी या बुखार की तकलीफ। विशेष–औपचारिक रूप से इस शब्द का प्रयोग ऐसे अवसरों पर भी होता है जहाँ किसी को किसी दूसरे के अनुरोध-स्वरूप कोई कार्य या पश्रिम करना पड़ता है। जैसे–आप ही तकलीफ करके यहाँ आ जायँ।
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तकल्लुफ  : पुं० [अ०] ऐसा शिष्टाचार जो केवल सौजन्य का परिचय देने के लिए किया जाय। पद–तल्लुफ का-बहुत अच्छा या बढिया।
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तकवाना  : स० [हिं० ताकना का प्रे०] [भाव० तकवाही] किसी को ताकने में प्रवृत्त करना।
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तकसना  : अ=ताकना (देखना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकसी  : स्त्री० [?] १. नाश। २. दुर्दशा।
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तकसीम  : स्त्री० [अ०] १. बाँटने की क्रिया या भाव। बँटाई। जैसे–बच्चों मे पुस्तकें या मिठाइयाँ तकसीम करना। २. संगीत में किसी संख्या को भाग देने की क्रिया। भाग। क्रि० प्र०–करना।
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तकसीर  : स्त्री० [अ०] १. अपराध। कसूर। २. चूक। भूल।
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तकाई  : स्त्री० [हिं० ताकना+ई० (प्रत्यय)] १. तकने या ताकने की क्रिया ढंग या भाव। २. दूसरों को कुछ दिखलाने की क्रिया या भाव।
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तकाजा  : पुं० [अ० तकाजः=इच्छास, कामना] १. किसी आवश्यकता प्रवृत्ति, स्थिति आदि के फलस्वरूप प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से होनेवाला कोई कार्य या परिणाम अथवा आन्तरिक प्रेरणा। जैसे–लड़कों का बहुत अधिक उछल-कूद या पाजीपन करना उनकी उमर का तकाजा हैं। २. वह बात जो किसी से कोई काम करने, कराने या अपना प्राप्य प्राप्त करने के उद्देश्य से उसे स्मरण कराने और जल्दी करने के लिए कही या कहलाई जाती है। तगादा। जैसे–उनकी किताब दे आओं, कई बार उनका तकाजा आ चुका है।
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तकान  : स्त्री० १.=तकाई। २.=थकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकाना  : स० [हिं० ताकना का प्रे०] किसी को कुछ तकने या ताकने में प्रवृत्त करना। दिखाना।
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तंकारी  : स्त्री०=टँगारी (कुल्हाड़ी)।
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तकाव  : पुं० [हिं० तकना+आव (प्रत्य०)] तकने या ताकने की क्रिया ढंग या भाव।
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तकावी  : स्त्री० [अ०] वह धन जो जमीदार, राजा या सरकार की ओर से गरीब खेतिहरों को खेती के औजार बनवाने, बीज खरीदने या कुएँ आदि बनवाने के लिए अथवा किसी विशिष्ट संकट से पार पाने के लिए ऋण के रूप में दिया जाता है।
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तकिया  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की बड़ी मुँह बंद थैली जिसमें रूई आदि भरी हुई होती है और जिसे सोते समय सिर के नीचे लगाया जाता है। बालिश। २. पत्थर की वह पटिया जो छज्जे में रोक या सहारे के लिए लगाई जाती है। मुतक्का। ३. आश्रय या विश्राम स्थान। ४. कब्रिस्तान के पास का वह स्थान जहाँ कोई फकीर रहता हो। ५. आश्रय। सहारा। ६. चारजामा। (क्व०)।
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तकिया कलाम  : पुं० दे० ‘सखुम तकिया’।
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तकियादार  : पुं० [फा०] मुसलमानी कब्रिस्तान अथवा किसी पीर या फकीर की समाधि पर रहनेवाला प्रधान अधिकारी।
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तकिल  : पुं० [सं०√तक् (हँसना)+इलच्] १. धूर्त। २. ओषध। दवा।
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तकिला  : स्त्री० [सं० तकिल+टाप्] औषध। दवा।
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तकुआ  : पुं०१.=तकला। २=तकना (ताकनेवाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकैया  : वि० [हिं० ताकना+ऐया(प्रत्यय)] ताकनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तकोली  : स्त्री० [देश०] शीशम की जाति का एक तरह का बड़ा वृक्ष। वि० दे० ‘पस्सी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तक्कर  : वि० दे० ‘तगड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तक्की  : स्त्री० [हिं० ताकना] किसी ओर ताकने रहने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०–लगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तक्मा(क्मन्)  : स्त्री० [सं०√तक्+मनिन्] बसंत या शीतला नामक रोग। पुं० १. दे० तुकमा। २. दे० ‘तमगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तक्र  : पुं० [सं०√तंच् (संकुचित करना)+रक्] १. छाछ। मट्ठा। २. शहतूत के पेड़ का एक रोग।
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तक्र-पिंड  : पुं० [सं० मध्य० स०] छेना।
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तक्र-प्रमेह  : पुं० [मध्य० स०] एक रोग जिसमें मूत्र छाछ की तरह गाढ़ा और सफेद होता है।
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तक्र-मांस  : पुं० [मध्य० स०] मांस का रसा। यखनी।
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तक्र-संधान  : पुं० [सं० मध्य० स०] सौ टके भर छाछ में एक एक टके भर सांबर नमक, राई और हल्दी का चूर्ण डालकर बनाई जानेवाली काँजी (वैद्यक)।
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तक्र-सार  : पुं० [सं० ष० त०] मट्ठे में से निकलनेवाला सार तत्व। नवनीत। मक्खन।
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तक्रभिद्  : पुं० [सं० तक्र√भिद् (फाड़ना)+क्विप्] एक तरह का कँटीला पेड़। कैथ।
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तक्रवामन  : पुं० [सं० तक्र√वम् (वमन करना)+णिच्+ल्युट्-अन] नागरंग।
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तक्राट  : पुं० [सं० तक्र√अट् (चलना)+अच्] मथानी।
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तक्रार  : स्त्री०=तकरार।
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तक्रारिष्ट  : पुं० [सं० तक्र-अरिष्ट, मध्य० स०] एक प्रकार का अरिष्ट जो मट्ठे में हड़ और आँवले आदि का चूर्ण मिलाकर बनाया जाता है। (वैद्यक)।
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तक्राह्वा  : स्त्री० [सं० तक्र-आह्व, ब० स०] एक प्रकार का क्षुप।
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तक्वा(क्वन्)  : पुं० [सं०√तक् (गति)+वनिप्] १. चोर। २. शिकारी। चिड़िया।
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तक्ष  : पुं० [सं०√तक्ष् (काटना, छीलना)+घञ्] १. पतला करने की क्रिया या भाव। २. रामचन्द्र के भाई भरत का बड़ा पुत्र जिसने तक्षशिला नामकी नगरी बसाई थी।
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तक्ष-शिला  : स्त्री० [ब० स०] भरत के पुत्र तक्ष की बसाई हुई नगरी और बाद में पूर्वी गान्धार की राजधानी जिसके खँडहर रावलपिंडी के पास खोदकर निकाले गये हैं।
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तक्षक  : पुं० [सं०√तक्ष+ण्वुल्-अक] १. पुराणानुसार पाताल के आठ नागों में से एक जो कश्यप का पुत्र था और कद्रु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। राजा परीक्षित की मृत्यु इसी के काटने से हुई थी। २. सर्प। साँप। ३. विश्वकर्मा। ४. बढ़ई। ५. सूत्रधार। ६. नाग नामक वायु जो दस वायुओं में से एक है। ७. एक प्रकार का पेड़। ८. प्राचीन काल की एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति सूत्रिक पिता और ब्रह्मणी माता से कही गई है। वि० १. तक्षण करनेवाला। २. काटने या छेदनेवाला।
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तक्षण  : पुं० [सं०√तक्ष्+ल्युट–अन] १. लकड़ी काट, छील या रँदकर ठीक और सुडौल करने का काम। २. उक्त काम करनेवाला कारीगर। बढई। ३. पत्थर, लकड़ी आदि में बेल-बूटे या उनसे मूर्तियाँ बनाने का काम।
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तक्षणी  : स्त्री० [सं० तक्षण+ङीप्] बढ़इयो का रंदा नाम का औजार।
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तक्षा(क्षन्)  : पुं० [सं०√तक्ष्+कनिन्] बढ़ई।
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तखड़ी  : स्त्री=तकड़ी (तराजू)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तखता  : पुं०=तख्ता।
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तखमीनन  : क्रि० वि० [अ०] अंदाज से० अटकल से। अनुमानतः।
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तखमीना  : पु० [अ० तरख्मीनः] मात्रा, मान आदि की कल्पना करने के लिए अंकों संख्याओं आदि के संबंध में किया जानेवाला अनुमान या लगाई जानेवाली अटकल। अंदाज। क्रि० प्र०–करना।–लगाना।
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तखरी  : स्त्री०=तकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तखलिया  : पुं० [अ० तख्लियः] एकांत या निर्जन स्थान।
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तखल्लुस  : पुं० [अ०] वह उपनाम जिसका प्रयोग कोई कवि या लेखक अपनी रचनाओं में अपने नाम के स्थान पर करता है।
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तखान  : पुं० [सं० तक्षण] बढई।
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तखिहा  : पुं० [अ० ताक] ऐसा बैल जिसकी एक आँख एक रंग की और दूसरी आँख दूसरे रंग की हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तखीत  : स्त्री० [अ० तहकीक] १. तलाशी। २. जाँच। तहकीकात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तखैयुल  : पुं० [अ०] खयाल करने की क्रिया, भाव या शक्ति। ध्यान।
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तख्त  : पुं० [फा०] १. राजसिंहासन। मुहावरा–तख्त उलटना=एकराजा या शासक को गद्दी से बटाकर उसके स्थान पर दूसरे को बैठना। २. तख्तों की बनी हुई बड़ी चौकी। पद–तख्त की रात-वधू की सुहाग-रात।
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तख्त ताऊस  : पुं० [फा+अ०] एक प्रसिद्ध बहूमूल्य और जड़ाऊ सिंहासन जो भारत के मुगल सम्राट शाहजहाँ ने बनवाया था और जिसे सन् १७३९ में नादिरशाह लूट ले गया था।
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तख्त-नशीन  : वि० [फा०] जो राजसिंहासन पर बैठा हो। सिंहासनारूढ़।
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तख्त-नशीनी  : स्त्री० [फा०] राजा का पहले-पहल अधिकार पाकर राज-सिंहासन पर बैठना। राज्यारोहण।
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तख्तगाह  : स्त्री० [फा०] राजधानी।
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तख्तपोश  : पुं० [फा०] १. तख्त या चौकी पर बिछाने की चादर। २. काठ की बड़ी चौकी। तख्त।
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तख्तंबंदी  : स्त्री० [फा+अ०] १. तख्तों की बनी हुई दीवार जो प्रायः कमरों में आड़, विभाग आदि के लिए खड़ी की जाती है। २. उक्त प्रकार की दीवार खड़ी करने की क्रिया।
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तख्तरवाँ  : पुं० [फा०] १. वह तख्त जिस पर बादशाह सवार होकर निकला करते थे। हवादार। २. वह बड़ी चौकी जिस पर जुलूस बरात आदि के चलने के समय नाच-गाना होता चलता था। ३. उड़न-खटोला।
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तख्ता  : पुं० [फा० तख्तः] १. लकड़ी का आयताकार या चौकोर बड़ा तथा समतल टुकड़ा। मुहावरा–तख्ता हो जाना=अकड़, ऐंठ या सूखकर काठ के समान कड़ा, जड़ या निश्चेष्ट हो जाना। २. लकड़ी का उक्त आकार का वह टुकड़ा जिस पर कुछ लिखा जाता है अथवा सूचनाएँ आदि चिपकाई जाती है। ३. बैठने, सोने आदि के लिए बनी हुई काठ की बड़ी चौकी। तख्त। मुहावरा–किसी का तख्ता उलटना=(क) बना बनाया हुआ काम बिगाड़ना। (ख) किसी प्रकार का प्रबन्ध या व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट करना। ४. शव ले जाने की अरथी। टिकटी। ५. खेतों में, बगीचों आदि में की क्यारी। ६. कागज का बड़ा और लंबा-चौडा टुकड़ा। ताव।
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तख्ता-गरदन  : पुं० [फा०] वह घोड़ा जिसकी गरदन बहुत मोटी हो, और इसी लिए लगाम खींचने पर भी जल्दी मुड़ती न हो।
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तख्ता-पुल  : पुं० [फा० तख्ता+पुल] लकड़ी का वह पुल जो काठ की पटरियाँ जड़कर या बिछाकर बनाया जाता है।
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तख्ती  : स्त्री० [फा० तख्तः] १. छोटा। तख्ता। पटरी। २. काठ की वह छोटी पटरी जिसपर बच्चे अक्षर लिखने का अभ्यास करते हैं। पटिया।
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तख्मीना  : पुं०=तखमीना।
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तंग  : वि० [फा०] १. जिसमें आवश्यक या उचित चौड़ाई या विस्तार का अभाव या कमी हो। सँकरा। संकीर्ण। जैसे–तंग कमरा, तंग गली। २. (पहनने की चीज) जिसमें कष्टदायक कसावट या संकीर्णता हो। आवश्यकता से अधिक कसा हुआ और कुछ छोटा। जैसे–तंग कुरता, तंग जूता। ३. (व्यक्ति) जो किसी बात से बहुत चिन्तित और दुःखी या पीड़ित हो रहा हो। परेशान। हैरान। जैसे–(क) लड़का सब को बहुत तंग करता है। (ख) महीनों से उसे बुखार ने तंग कर रखा है। ४. (काम या बात) जिसमें आवश्यक या उचित विस्तार के लिए यथेष्ट अवकाश न हो जैसे–आज-कल उनका हाथ बहुत तंग है अर्थात् उनके हाथ में काम चलाने योग्य धन नहीं हैं। ५. (मन या हृदय) जिसमें उदारता, सहृदयता आदि का अभाव हो। जैसे–वह बहुत तंग दिल का आदमी है, उससे सहायता की कोई आशा नही रखनी चाहिए। पुं० वह तस्मा जिससे घोड़ों की पीठ पर जीन या साज कसकर (उसके पेट के नीचे से) बाँधा जाता है। पुं० [?] १. टाट का बोरा। २. धन-संपत्ति। ३. ज्ञान। उदाहरण–आवत जात दोऊ विधि लूटै सर्व तंगहरि लीन्हो हो।–कबीर।
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तग-पहनी  : स्त्री० [हिं० तागा+पहनना] जुलाहों का एक औजार जिससे टूटा हुआ सूत जोड़ा जाता है।
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तगड़ा  : वि० [सं० त्वक्ष, तृक्ष, प्रा० तर्ग, तग्ग, पा० तज्जे] [स्त्री० तगड़ी] १. जो शारीरिक दृष्टि से बलवान और हष्ट-पुष्ट हो। मजबूत और हट्टा-कट्ठा। २. अच्छा बड़ा और भारी। ३. (पक्ष) जो किसी दृष्टि से दूसरे से अधिक प्रबल या सशक्त हो।
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तगड़ी  : स्त्री० हिं० तगड़ा का स्त्री० रूप। स्त्री०=तगड़ी।
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तगदमा  : पुं०=तकदमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंगदस्त  : वि० [फा०] [भाव० तंग-दस्ती] १. कृपण। २. धनहीन। ३. जिसके हाथ में अपनी अवश्यताएँ पूरी करने के लिए यथेष्ट धन न हो।
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तंगदस्ती  : स्त्री० [फा०] १. कृपणता। कंजूसी। २. आर्धिक कष्ट या संकट।
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तगना  : अ० [हिं० तागना का अ०] तागों से भरा जाना या युक्त होना। तागा जाना।
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तगनी  : स्त्री० [हिं० तागना] (रुईदार कपड़े) तागने की क्रिया या भाव। तगाई।
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तगमा  : पुं० दे०=‘तमगा’।
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तगर  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्रायः नदियों के किनारे होनेवाला एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी सुगंधित लकड़ी से तेल निकाला जाता है। २. इस वृक्ष की जड़ जिसकी गिनती गंध-द्रव्यों में होती है। ३. मदन नामक वृक्ष। मैनफल। ४. एक प्रकार की शहद की मक्खी।
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तगला  : पुं० [हिं० तकला] तकला। २. सरकंडे का वह छड़ जिससे जुलाहे ताने के सूत ठीक करते या मिलाते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तगसा  : पुं० [देश०] वह लकड़ी जिससे ऊन पीटकर मुलायम और साफ किया जाता है।
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तंगहाल  : वि० [फा०+अ०] [भाव० तंग-हाली] १. कष्ट विपत्ति या संकट में पड़ा हुआ। २. आर्थिक कष्ट या संकट में पड़ा हुआ। ३. रोग-ग्रस्त। बीमार।
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तंगहाली  : स्त्री० [फा०+अ०] तंगहाल होने की अवस्था या भाव।
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तंगा  : पुं० [?] १. एक प्रकार का पेड़। २. ताँबे का एक छोटा सिक्का जो प्रायः दो पैसे मूल्य का होता था। टका।
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तगा  : पुं० [?] एक जाति जो रुहेलखंड में बसती है। इस जाति के लोग अपने आपकों ब्राह्मण कहते हैं। पुं०=तगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तगाई  : स्त्री० [हिं० तागना] १. तागने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. तागों से भरे जाने या युक्त होने की अवस्था या भाव। जैसे–रजाई या लिहाफ की तगाई।
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तगाड़  : पुं०=तगार।
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तगाड़ा  : पुं०=तगारा।
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तगादा  : पुं० [अ० तकाजः] वह कथन या बात जो किसी से कोई काम करने या कराने या उससे अपना प्राप्य धन अथवा पदार्थ प्राप्त करने के उद्देश्य से उसे याद दिलाने और जल्दी करने के लिए कही या कहलाई जाती है। तकाजा। जैसे–(क) किरायेदार से किराये के रुपयों का तगादा करना। (ख) छापेखाने से किताब जल्दी छापने का तगादा करना।
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तगाना  : स० [हिं० तागना का प्रे०] तागने का काम कराना। तागने में किसी को प्रवृत्त करना।
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तगाफुल  : पुं० [अ०] ध्यान न देना। उपेक्षा। गफलत।
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तगार  : पुं० [फा०] [स्त्री० अल्पा० तगारी] १. मिट्टी का बड़ा कूँड़ा या नाँद। २. वह गड्ढा या छोटा घेरा जिससे इमारत के काम के लिए ईंटें भिगोई जाती हैं अथवा चूने, सुरखी आदि का दारा बनाया जाता है। ३. वह तसला जिसमें गारा या मसाला भरकर राज मिस्तरियों के पास ईटों की जोड़ाई आदि करने के लिए पहुँचाया जाता है। ४. दे० ‘तगारा’।
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तगारा  : पुं० [फा० तगार=बड़ा कूआँ या नाँद] [स्त्री० अल्पा० तगारी] १. मिट्टी की वह नाँद जिसका उपयोग, हलवाई लोग मिठाइयाँ आदि बनाने में करते हैं। २. तरकारी, दाल आदि पकाने का पीतल का एक प्रकार का बड़ा बरतन।
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तँगिया  : स्त्री० [फा० तंग] १. छोटा तंग या तस्मा। २. पहनने के कपड़ों में लगाई जानेवाली तनी। बन्द। जैसे अंगिया या मिरजई की तंगिया।
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तगियाना  : स०=तागना।
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तंगी  : स्त्री० [फा०] १. तंग होने की अवस्था या भाव। संकीर्णता। २. विपत्ति या संकट में पड़कर चिंतित और दुःखी होने की अवस्था या भाव। ३. आर्थिक संकट। धन आदि का अभाव। ४. ऐसी अवस्था जिसमें किसी चीज की पूर्ति की अपेक्षा माँग अधिक होने के कारण उसका यथेष्ट मात्रा में उपलब्ध होना संभव न हो। जैसे–शहर में वर्षों से पानी की तंगी है।
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तगीर  : पुं० [अ० तगय्युर] बदलने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिवर्तन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तगीरी  : स्त्री० [अ० तगैयुर]=तगीर। (परिवर्तन)।
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तग्य  : पुं०=तज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तघार  : पुं०=तगार।
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तचना  : अ० [हिं० तपना] १. तप्त होना। तपना। २. मन ही मन बहुत दुःखी या संतप्त होना। जलना। उदाहरण–-तरफराति तमकति तचति सुसुकति सूखत जाति।–पद्माकर। स० दे० ‘तचाना’।
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तचा  : स्त्री०=त्वचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तचाना  : स० [हिं० तपाना] १. तप्त करना। तपाना। २. बहुत अधिक मानसिक कष्ट देना। संतप्त करना। जलाना।
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तचित  : वि० [हिं० तचना] १. तपा हुआ। तप्त। २. जिसे बहुत अधिक मानसिक कष्ट पहुँचा या पहँचाया गया हो। संतप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तच्छ  : पुं०=तक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तच्छक  : पुं=तक्षक।
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तच्छना  : स० [सं० तक्षण] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। उदाहरण–-तीर तुपक तरवारि तच्छि निकरै उर औरणि।–चन्दवरदाई। २. नष्ट करना। ३. काटकर टुकडे करना।
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तच्छप  : पुं०=तक्षक।
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तच्छिन  : क्रि० वि० [सं० तत्क्षण] उसी समय। तत्काल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तीक्ष्ण। (क्व०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तज  : पुं० [सं० त्वच्] १. तमाल और दारचीनी की जाति का मझोले कद का एक सदाबहार पेड़ जिसके पत्ते तेज पत्ता कहलाते हैं। २. इस पेड़ की सुगंधित छाल जो औषध के काम आती है।
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तजकिरा  : पुं० [अ० तज़किरः] चर्चा। जिक्र। क्रि० वि०–करना।–चलाना।–छेड़ना।
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तजगिरी  : स्त्री० [फा० तेजगरी] सिकलीगरों की दो अंगुल चौड़ी और प्रायः डेढ़ बालिश्त लंबी लोहे की पटरी जिसपर तेल गिराकर रंदा तेज करते है।
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तजन  : पुं० [सं० त्यजन√त्यज् (त्यागना)+ल्युट्–अन०] तजने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा० ताज़ियानः] आघात करने का कोड़ा या चाबुक।
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तजना  : सं० [सं० त्यजन] सदा के लिए त्याग या छोड़ देना। परित्याग करना।
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तजबीज  : स्त्री० [अ० तज्वीज़] १. किसी कार्य के संपादन के संबंध में सोचकर सम्मति के रूप में कही जानेवाली बात। २. निर्णय। फैसला। ३. प्रबंध। व्यवस्था। ४. तरकीब। युक्ति।
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तजम्मुल  : पुं० [अ०] १. श्रृंगार। सजावट। २. शोभा। शान-शौकत।
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तजरबा  : पुं० [अ० तज्जिब्रः] १. अनुभव। २. परीक्षण। प्रयोग।
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तजरबाकार  : पुं० [अ० तज्जिब्र+फा० कारी] तजरबे से होनेवाली जानकारी या ज्ञान अनुभव।
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तजरुबा  : पुं०=तजरबा।
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तजरुबाकार  : पुं०=तरजबाकार।
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तजरुबाकारी  : स्त्री०=तजरबाकारी।
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तजिया  : स्त्री० [?] बहुत छोटा तराजू। काँटा।
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तजीबज-सानी  : स्त्री० [अ०] १. किसी अदालत से स्वंय उसके निर्णय पर फिर से विचार करने के लिए की जानेवाली प्रार्थना या दिया जानेवाला आवेदन-पत्र। २. उक्त प्रकार से की हुई प्रार्थना पर फिर से होनेवाला विचार।
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तंजेब  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार की बढिया महीन मलमल।
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तज्जनित  : वि० [सं० तद्-जनित, तृ० त०] उसके द्वारा उत्पन्न किया हुआ।
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तज्जीतीय  : वि० [सं० तद्-जाति, कर्म० स० तज्जति+छ–ईय] उस जाति से संबंध रखनेवाला।
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तज्ञ  : वि० [सं० त√ज्ञा (जानना)+क] १. तत्त्व जाननेवाला। तत्त्वज्ञ। २. ज्ञानी। ३. अच्छा जानकार।
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तज्वी  : स्त्री० [सं० त√जु (गति)+क्विप्+ङीष्] हिंगुपत्री।
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तट  : पुं० [सं०√तट् (ऊंचा होना)+अच्] १. ढालुई जमीन। ढाल। २. आकाश। ३. क्षितिज। ४. खेत। ५. भूमिखंड। प्रांत। ६. स्थल का वह भाग जो जलाशय के किसी पार्श्व से ठीक मिला या सटा हो। ७. शिव का एक नाम। क्रि० वि० निकट। पास।
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तटंक  : पुं० [सं० ताटंक] कर्णफूल नामक कान का आभूषण।
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तटक  : पुं० [सं० तट+कन्] नदी आदि का किनारा। तट।
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तटका  : वि=टटका।
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तटग  : पुं० [सं०=तड़ाग, पृषो० सिद्धि] तड़ाग।
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तटनी  : स्त्री०=तटिनी (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तटवर्ती  : वि० [सं०] जलाशय झील नदी आदि के तट के संबंध रखने या उस पर होनेवाला। (राइपेरिन)।
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तटस्थ  : वि० [सं० तट√स्था (ठहरना)+क] [भाव० तटस्थता] १. तीर पर रहनेवाला। किनारे पर रहनेवाला। २. पास रहनेवाला। समीपवर्ती। ३. विरोध, विवाद आदि के प्रसंगों में दोनों दलों से अलग और दूर रहनेवाला। किसी का पक्ष न लेनेवाला। उदासीन। निरेपक्ष। पुं० किसी वस्त का वह लक्षण जो उसके स्वरूप के आधार पर नहीं, बल्कि उसके गुण और धर्म के आधार पर बतलाया जाता है।
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तटस्थता  : स्त्री० [सं०] १. तटस्थ रहने या होने की अवस्था या भाव। २. लड़ने-झगड़ने या वैर-विरोध रखनेवाले पक्षों से अलग रहने की अवस्था या भाव। ३. आधुनिक राजनीति में (क) किसी देश या राज्य की वह स्थिति जिसमें वह दूसरे राज्यों के युद्ध में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित नहीं होता, बल्कि बिलकुल अलग रहता है। (ख) किसी प्रदेश या स्थान के संबंध में संधि के द्वारा निश्चित वह स्थिति जिससे संधि करनेवाले राज्य आपस मे युद्ध छिड़ने पर भी उस प्रदेश या स्थान का न तो उपयोग ही कर सकते हैं और न उस पर आक्रमण ही कर सकते हैं। (न्यूट्रैलिटी)।
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तटाक  : पुं० [सं० तट√अक (गति)+अण्] तड़ाग। तालाब।
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तटाकिनी  : स्त्री० [सं० तटाक+इनि-ङीप्] बड़ा तालाब।
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तटाघात  : पुं० [सं० तट-आघात, स० त०] पशुओं का अपने सींगों या दांतों से जमीन खोदना। खूँद।
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तटिनी  : स्त्री० [सं० तट+इनि+ङीप्] नदी। दरिया।
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तटी  : स्त्री० [सं० तट+ङीष्] १. नदी का किनारा। कूल। तट। तीर। २. नदी। ३. घाटी। ४. तराई।
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तट्य  : वि० [सं० तट+यत्] १. तट-संबंधी। २. तट पर बसने, रहने या होनेवाला। पुं० =शिव।
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तठ  : अव्य० [सं० तत्र०] उस जगह या स्थान पर। वहाँ। उदाहरण–-काढ़ काढ़ तलवार तरल ताछन तठ आवे।–केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंड  : पुं० [सं०√तंड् (मारण)+अच्] एक प्राचीन ऋषि का नाम। पुं० [सं० तांडव] नाच। नृत्य।
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तड़  : पुं० [सं० तट] १. किसी बिरादरी या वर्ग में से निकला हुआ कोई दल, वर्ग या विभाग। जैसे–आज-कल हमारी बिरादरी में दो तड़ हो गये हैं। पद–तड़-बंदी। २. सूखी भूमि। स्थल। (लश०)। पुं० [अनु०] किसी चीज के टूटने, फटने, फूटने अथवा उस पर आघात लगने से होनेवाला शब्द। जैसे–भूनते समय भुट्टे के दानों का तड़-तड़ शब्द करना। पद–तड़ातड़। (दे०)। ३. थप्पड़। (दलाल)। क्रि० प्र०–जड़ना।–जमाना।–देना।–लगाना। ४. आमदनी या लाभ का आयोजन या उपक्रम। (दलाल)। क्रि० प्र०–जमाना।–बैठाना।
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तंडक  : पुं० [सं०√तंड् (नृत्य)+ण्वुल्-अक] १. खंजन पक्षी। २. फेन। ३. वृक्ष का तना या धड़। ४.साहित्य में,ऐसी पदावली जिसमें समासों की अधिकता हो। ५.बहुरूपिया।
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तड़क  : स्त्री० [हिं० तड़कना] १. तड़कने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज के तड़कने के कारण उस पर पड़ा हुआ चिन्ह जो प्रायः सीधी धारी के रूप में होता है। ३. चमकने की क्रिया या भाव। पद–तड़क-तड़क। ४. घरों की छाजन में वह बड़ी लकड़ी जो दीवार और बँडेर पर रखी जाती है और जिसपर दासे रखकर छप्पर या छाजन डालते हैं।
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तड़क-भड़क  : स्त्री० [अनु०] अपना बल, योग्यता, वैभव आदि दिखाने के लिए की जानेवाली ऊपरी बाहरी सजावट। (पांप) जैसे–तड़क-भड़क से सवारी निकालना०
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तड़कना  : अ० [सं०√त्रुट् या अनु० तड़०] १. किसी चीज का तड़ शब्द करते हुए टूटना, फटना या फूटना। चटकना। जैसे–(क) चिमनी या शीशा तड़कना। (ख) भूनते समय मक्के के दाने तडकना। २. किसी चीज के सूखने आदि के कारण उसका ऊपरी तल फटना। दरार पड़ना। ३. जोर का तड़ शब्द होना। ४. क्रोधपूर्ण व्यवहार करना। बिगड़ना। ५. दे० तड़पना (उछलना)। स० [हिं० तड़का-छौंक] दाल, तरकारी आदि को सुगंधित करने के लिए उसमें तडका देना या लगाना। छौंकना। बघारना।
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तड़का  : पुं० [हिं० तड़कना] १. दिन निकलने का समय, जिसमें रात्रि का अन्धकार घटने लगता है और कुछ-कुछ प्रकाश होने लगता है। मुहावरा–(किसी बात का) तड़का होना= (क) पूर्ण रूप से अभाव होना। जैसे–पूँजी निकल जाने से घर में तड़का हो गया। (किसी व्यक्ति का) तड़का देना-आघात, प्रहार आदि के कारण होश-हवास गुम हो जाना० २. खाने-पीने की चीजों को तड़कने या छौंकने की क्रिया या भाव। बघार। ३. वह मसाला जिसमें दाल आदि तड़की जाती है। क्रि० प्र०–देना।–लगाना।
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तड़काना  : स० [हिं० तड़कना का स० रूप०] १. किसी वस्तु को इस तरह से तोड़ना जिससे ‘तड़’ शब्द हो। २. सुखाकर बीच में फाड़ना। ३. जोर का शब्द उत्पन्न करना। ४. क्रोध दिलाना या खिजाना। चटकाना।
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तड़कीला  : वि० [हिं० तड़कना+ईला (प्रत्य)] १. तड़क-भड़क वाला। भड़कीला। २. चमकीला। ३. फुरतीला। ४. सहज में तड़क या टूट जानेवाला।
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तड़क्का  : पुं० [अनु० तड़] जोर से होनेवाला तड़ शब्द। क्रि० वि० चटपट। तुरंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तड़ग  : पुं० [सं०] तड़ाग। तालाब।
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तड़तड़ाना  : अ० [अनु० तड़-तड़] [भाव० तड़तड़ाहट] तड़-तड़ शब्द करते हुए किसी चीज का चटकना, टूटना, फटना या फूटना। स० इस प्रकार आघात करना कि तड़-तड़ शब्द हो। जैसे–दस-पाँच थप्पड़ तड़तड़ाना।
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तड़तड़ाहट  : स्त्री० [हिं० तड़तड़ाना] तड़-तड़ शब्द होने की क्रिया या भाव। २. तड़-तड़ होनेवाला शब्द।
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तड़ता  : स्त्री० [सं० तडित्] बिजली। विद्युत। (डि०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तड़प  : स्त्री० [हिं० तड़पना] १. तपड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। छटपटाहट। २. सहसा कुछ समय के लिए उत्पन्न होनेवाली चमक। भड़क। जैसे–पन्ने या हीरे की तड़प।
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तड़पदार  : वि० [हिं० तड़प+फा० दार] चमकीला। भड़कीला।
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तड़पन  : स्त्री०=तड़प।
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तड़पना  : अ० [सं० तप] १. असह्य शारीरिक पीड़ा होने पर छटपटाना। जैसे–दरद के मारे तड़पना। २. कोई काम करने के लिए आवश्यकता के अधिक अधीर या बेचैन होना। जैसे–किसी से मिलने या कुछ कहने के लिए तड़पना। ३. आवेश के कारण सहसा जोरों से बोलने लगना। ४. जोर से उछलना। जैसे–शेर का तड़पना।
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तड़पाना  : स० [हिं० तड़पना का स० रूप] [प्रे० क्रि० तड़पवाना] १. किसी को बहुत अधिक मानसिक या शारीरिक कष्ट देकर तड़पने में प्रवृत्त करना। २. किसी को दिखाने के लिए बार-बार चमकाना। जैसे–अंगूठी या उसका हीरा तड़पाना। ३. तड़पने या उछलने में प्रवृत्त करना। जैसे–पटाके की आवाज करके सेर को तड़पाना।
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तड़फड़  : स्त्री०=तड़प।
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तड़फड़ाना  : अ०=तड़पना। स०=तड़पाना।
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तड़फना  : अ०=तड़पना।
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तड़बन्दी  : स्त्री० [हिं० तड़+फा० बंदी] १. किसी बिरादरी, समाज आदि के अंतर्गत कोई दूसरा दल या गुट बनाना। २. गुटबंदी।
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तंडव  : पुं०=तांडव।
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तंडा  : स्त्री० [सं०√तंड्+अच्-टाप्] वध। हत्या।
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तड़ाक  : पुं० [सं०√तड्+आक] तड़ाग। तालाब। स्त्री०=तट (शब्द)। क्रि० वि० १. तड़तड़ शब्द करते हुए। २. जल्दी-जल्दी। चटपट। ३. निरंतर। लगातार।
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तड़ाका  : पुं० [अनु०] किसी चीज के चिटकने, टूटने फटने या फूटने से होनेवाला तड़ शब्द। क्रि० वि० चट-पट। तुरंत।
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तड़ाग  : पुं० [सं०√तड़+आग] १. तालाब। २. हिरन फँसाने का फंदा।
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तड़ागना  : अ० [अनु०] १. डींग मारना। २. उछल-कूद मचाना। ३. प्रयत्न करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तड़ागी  : स्त्री० [सं० तड़ाग] १. करधनी। २. कटि। कमर।
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तड़ाघात  : पुं०=तटाघात।
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तड़ातड़  : कि० वि० [अनु०] १. तड़-तड़ शब्द करते हुए। जैसे–तड़ातड़ थप्पड़ लगाना। २. जल्दी-जल्दी और निरंतर। लगातार। जैसे–तड़ातड़ जबाव देना।
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तड़ातड़ी  : स्त्री० [हिं० तड़, तड़] १. किसी काम के लिए मचाई जानेवाली जल्दी। २. उतावलापन। व्यग्रता।
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तड़ाना  : स्त्री० [हिं० तड़ना का प्रे० रूप] किसी को कुछ ताड़ने में प्रवृत्त करना।
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तड़ावा  : स्त्री० [हिं० तड़ना=दिखाना] १. वह रूप जो किसी को अपना बल, वैभव आदि ताड़ने के लिए बनाया या धारण किया जाता है। २. धोखा।
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तंडि  : पुं० [सं०√तंड्+इन (बा०)] एक वैदिक ऋषि।
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तड़ि  : स्त्री० [सं०√+इन्] १. आघात। २. वह चीज जिससे आघात किया जाय।
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तड़िता  : स्त्री०=तडित। स्त्री०=तड़ित् (बिजली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तडित्  : स्त्री० [सं०√तड़+णिच्+इत्, णिलुक्] आकाश में बादलों के टकराने से होनेवाला क्षणिक परन्तु चकाचौंध उत्पन्न करनेवाला प्रकाश बिजली।
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तडित्-रक्षक  : पुं० [पं० त०] ऊँचे मकानों आदि पर लगाया जानेवाला एक उपकरण जो बिजली के गिरने पर उसके प्रभाव को नष्ट करता है तथा मकानों आदि की सुरक्षा (उसके कु-परिणाम से) करता है। (लाइटनिंग एरेस्टर)।
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तडित्कुमार  : पुं० [सं० ष० त०] जैनों के एक देवता जो भुवनपति देवगण में से हैं।
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तड़ित्गर्भ  : पं० [सं० ब० स०] बादल। मेघ।
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तड़ित्पति  : पुं० [सं० ष० त०] बादल। मेघ।
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तड़ित्प्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] कार्तिकेय की एक मातृका।
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तड़ित्वान् (त्वन्)  : पुं० [सं० तडित्+मतुप्] १. नागरमोथा। २. बादल। मेघ।
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तड़िन्मय  : वि० [सं० तडित्+मयट्] जो बिजली के समान कौंधता हो।
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तड़िपाना  : अ०=तड़पना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=तड़पाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तड़िल्लता  : स्त्री० [सं० तडित्-लता, ष० त०] बिजली के वह रेखा जो लता के समान टेढ़ी तिरछी हो तथा जिसमें बहुत सी रेखाएँ हों। विद्युल्लता।
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तडिल्लेखा  : स्त्री० [सं० तडित्-लेखा] बिजली की रेखा।
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तड़ी  : स्त्री० [तड़ शब्द से अनु०] १. चपत। थप्पड़। क्रि० प्र०–जड़ना।–जमाना।–देना।–लगाना। २. किसी को ठगने के लिए किया जानेवाला छल। धोखा। (दलाल)। क्रि० प्र०–देना।–बताना। ३. बहाना। ४. तड़ातड़ी।
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तड़ीत  : स्त्री=तडित् (बिजली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तंडु  : पुं० [सं०√तंड्+उन्] महादेव जी के नंदिकेश्वर।
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तंडुरण  : पुं० [सं०] १. चावल का पानी। २. कीड़ा-मकोड़ा।
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तंडुरोण  : पुं० [सं० तंडा+उरच्+ख-ईन] १. चावल की धोवन। २. छोटे-मोटे कीड़े या पतिंगे। ३. बर्बर व्यक्ति। ४. वज्र मूर्ख।
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तंडुल  : पुं० [सं०√तंड्+उलच्] १. चावल। २. बायविडंग। ३. चौलाई का साग। ४. हीरे की एक पुरानी तौल जो सरसों के बराबर होती थी।
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तंडुल-जल  : पुं० [मध्य० स०] वह पानी जिसमें चावल भिगोया अथवा पकाया गया हो। वैद्यक में यह बल-वर्द्धक तथा सहज में पचनेवाला माना जाता है।
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तंडुला  : स्त्री० [सं०√तंड्+उलच्-टाप्] १. बायबिंडग। २. ककही या कंघी नाम का पौधा।
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तंडुलांबु  : पुं० [सं० तंडुल-अंबु, मध्य० स०] १. तंडुल-जल। २. पके हुए चावल की माँड। पीच।
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तंडुलिया  : स्त्री० [सं० तडुली] चौलाई (साग)।
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तंडुली  : स्त्री० [सं० तंडुल+ङीष्] १. एक प्रकार की ककड़ी। २. चौलाई का साग। ३. यव-तिक्ता लता।
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तंडुलीक  : पुं० [सं० तंडुली√कै (प्रतीत होना)+क] चौलाई का साग।
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तंडुलीय  : पुं० [सं० तंडुल+छ-ईय] चौलाई का साग। वि० तंडुल संबंधी।
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तंडुलीयक  : स्त्री० [सं० तंडुलीय+क(स्वार्थ)] १. बायबिंडग। २. चौलाई का साग।
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तंडुलीयिका  : स्त्री० [सं० तंडुलीय+कन्-टाप्, इत्व] बायबिंडग।
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तंडुलु  : पुं० [सं०=तंडुल; पृषो० उत्व] बायबिडंग।
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तंडुलेर(रक)  : पुं० [सं० तंडुल+ढ-एय]=चौलाई का साग।
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तंडुलोत्थ  : पुं० [सं० तंडुल-उद√स्था (ठहरना)+क]=तंडुल-जल।
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तंडुलोदक  : पुं० [सं० तंडुल-उदक, ष० त०]=तंडुल-जल।
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तंडुलौव  : पुं० [सं० तंडुल-ओध, ष० त०] एक प्रकार का बाँस।
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तण  : अव्य, [सं० तनु] की ओर। की तरफ।
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तणई  : स्त्री० [सं० तनया] कन्या। उदाहरण–-भोज तणई नउँतई मील्यौ।–नरपति नाल्ह।
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तणक्कना  : अ० [अनु०] तण तण शब्द होना। स० तण तण शब्द उत्पन्न करना।
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तणतु  : पुं० १.=तंतु। २.=तंत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तणमीट  : पुं० [?] मुसलमान। (डिं०)।
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तणी  : स्त्री०–तनी। अव्य० [सं० तनु] १. की ओर। की तरफ। २. प्रति। सम्मुख। अव्य०-तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तणु  : पुं=तनु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तणौ  : अव्य० [सं० तनु] की ओर। तरफ।
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तंत  : पुं० [सं० तंतु] १. तंतु। ताँत। २. निरन्तर चलता रहनेवाला क्रम। ३. सूत्र। ४. किसी बात के लिए मन में होनेवाली ऐसी उतावली जो लगन या लौ की सूचक हो। ५. प्रबल इच्छा या कामना। ६. अधीनत। वश। क्रि० प्र०–लगना। ७. दे० तंतु। पुं० [सं० तंत्र] १.ऐसा बाजा जिसमें बजाने के लिए ताल लगे होते हैं। जैसे–बीन, सितार आदि। २. क्रिया। ३. तंत्र-शास्त्र। ४. किसी के अधीन या वशवर्ती होना। वि० जो तौल में ठीक या बराबर हो। पुं०=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तत  : पुं० [सं०√तन्+क्त] १. वायु। हवा। २. लंबाई। चौड़ाई। फैलाव। विस्तार। ३. पिता। बाप। ४. पुत्र। बेटा। ५. [√तन्+तन्] वे बाजे जिनमें बजाने के लिए तार लगे होते हैं। तंत्री। जैसे–बीन, सितार आदि। पुं०=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सर्व० [सं० तत्] वह। जैसे–तत् छन=उस समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तत-पत्री  : पुं० [सं० ब० स० ङीष्] केले का पेड़।
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तंत-मंत  : पुं०=तंत्र-मंत्र।
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ततकार  : स्त्री० [हिं० तत+कार] तत्ताथई। (दे०)। अव्य०=तत्काल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ततकाल  : अव्य०=तत्काल।
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ततखन  : अव्य=तत्क्षण।
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ततछन  : अव्य०=तत्क्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततताथेई  : स्त्री० [अनु०]=तत्ताथेई। (नाच के बोल)।
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ततपर  : वि०=तत्पर।
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ततबाउ  : पुं०=तंतुवाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततबीर  : स्त्री०=तदबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंतरी  : पुं० वि०=तंत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततरी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का पेड़।
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ततसार  : स्त्री० [सं० तप्तशाला] वह स्थान जहाँ कोई चीज तपाई जाती है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततहँड़ा  : पुं० [सं० तप्त+हिं० हाँड़ी] [स्त्री० अल्पा० ततहँड़ी] मिट्टी की बड़ी हाँड़ी जिसमें नहाने आदि के लिए पानी गरम किया जाता है।
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तताई  : स्त्री० [हिं० तत्ता] १. तत्ते अर्थात् गरम होने की अवस्था या भाव। २. उग्रता प्रचंडता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततामह  : पुं० [सं० तत+डामह] पितामह।
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ततारना  : स० [हिं० तत्ता=गरम] १. गरम जल से धोना। २. किसी चीज पर जल आदि की धार गिराना या छोड़ना।
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तंति  : स्त्री० [सं०√तंन् (विस्तार)+क्तिन्] १. डोरी। तांत। अथवा इसी तरह की कोई और वस्तु। २. कतार। पंक्ति। ३. विस्तार। ४. गाय। गौ। ५. बुनकर। जुलाहा।
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तति  : स्त्री० [सं०√तन् (विस्तार)+क्तिन्] १. श्रेणी। ताँता। २. समूह। ३. लंबाई-चौडा़ई। फैलाव। विस्तार। वि० लंबाचौड़ा या फैला हुआ। विस्तृत।
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तंतिपाल  : पुं० [सं० तंति√पाल् (पालन)+णिच्+अण्] १. सहदेव का वह नाम जिससे वह अज्ञातवास के समय विराट के यहाँ प्रसिद्ध थे। २. गौओं का पालन और रक्षा करनेवाला व्यक्ति।
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तंतिसर  : पुं० [सं० तंत्री स्वर] ऐसे बाजे जिसमें बजाने के लिए तार लगे हों। जैसे–सारंगी सितार आदि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंतु  : पुं० [सं०√तंन् (विस्तार)+तुन्] १. ऊन, रेशम, सूत आदि का बटा हुआ डोरा। तागा। २. सूत की तरह के वे पतले लंबे रेशे जिनके योग से प्राणियों, वनस्पतियों आदि के भिन्न-भिन्न अंग बने होते हैं। ३. धातु का वह विशिष्ट प्रकार का बहुत ही महीन तार जो बिजली के लट्टुओं, निर्वात नलियों आदि में लगा रहता है और जो विद्युतधारा से तपकर चमकने और प्रकाश देने लगता है। (फिलामेन्ट) ४. पौधों का वह पतला अंग जो आस-पास की टहनियों आदि से अगकर चक्कर खाता हुआ उनका आश्रय लेता रहे। ५. मकड़ी का छाता पद–तंतु कीट।(दे०) ६. चमडे की बटी हुई डोरी। ताँत। ७. अष्ट-पाद जाति की मछली जो बहुत ही घातक और हिंसक होती है। ८. फैलाव। विस्तार। ९. बाल-बच्चे। औलाद। संतान। १॰. किसी प्रकार की परम्परा। निरंतर चलनेवाला क्रम। जैसे–वंश या यज्ञ का तंतु। पुं०-तंत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ततु  : पुं=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंतु-जाल  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्दर जाल के रूप में फैली हुई नसें। (वैद्यक)।
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तंतु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] मगर नामक जल-जंतु।
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तंतु-नाभ  : पुं० [ब० स० अच्] मकड़ा।
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तंतु-निर्यास  : पुं० [ब० स०] ताड़ का वृक्ष।
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तंतु-पर्व(न्)  : पुं० [ब० स०] तागा अर्थात् राखी बाँधने का पर्व। रक्षा-बंधन।
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तंतु-शाला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह स्थान जहाँ तंतु बनाये जाते हों। २. वह स्थान जहाँ कपड़े बुने जाते हों।
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तंतु-सार  : पुं० [ब० स०] सुपारी का पेड़।
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तंतुक  : पुं० [सं० तंतु√कै (प्रतीत होना)+क] १. सरसों। २. रस्सी।
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तंतुका  : स्त्री० [सं० तंतुक+टाप्] नाड़ी।
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तंतुकाष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] जुलाहों की एक प्रकार की लकड़ी या ब्रुश जिससे ताना साफ किया जाता है। तूली।
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तंतुकी  : स्त्री० [सं० तंतुक+ङीष्] नाड़ी।
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तंतुकीट  : पुं० [मध्य० स०] १. मकड़ी। २. रेशम का कीड़ा।
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तंतुण, तंतुन  : पुं० [सं०√तंन्+तुनन्] मगर नामक जल-जंतु।
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ततुबाऊ  : पुं०=तंतुवाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंतुभ  : पुं० [सं० तंतु√भा (प्रकाशित होना)+क] १. सरसों। २. गौ का बच्चा। बछड़ा।
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तंतुमत्  : पुं०=तंतुमान्।
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तंतुमान्(मत्)  : पुं० [सं० तंतु+मतुप्] अग्नि। आग।
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तंतुर  : पुं० [सं० तंतु+र] कमल की जड़। भसीड़। मृणाल।
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ततुरि  : वि० [सं०√तर्वु (मारना)+कि, पृषो० सिद्धि] १. हिंसा करनेवाला। हिंसक। २. उबारने या तारनेवाला। उद्धारक।
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तंतुल  : पुं० [सं० तंतु√लच्] मृणाल। कमलनाल।
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तंतुवादक  : पुं० [सं० ष० त०] वह व्यक्ति जो तार वाले बाजे (जैसे–सारंगी, सितार आदि) बजाता हो।
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तंतुवाप  : पुं० [सं० तंतु√वप् (बुनना)+अण्] दे० ‘तंतुवाक्य’।
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तंतुवाय  : पुं० [सं० तंतु√वेञ् (बुनना)+अण्] १. कपड़े बुननेवाला। जुलाहा। ताँती। बुनकर। २. मकड़ी।
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तंतुविग्रह  : स्त्री० [ब० स०] केले का पेड़।
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ततैया  : स्त्री० [सं० तिक्त] १. बर्रे। भिड़। २. एक प्रकार की छोटी पतली मिर्च जो बहुत कड़वी होती है। वि० १. बहुत तेज या तीखा। तीक्ष्ण। २. बहुत अधिक चपल और तीव्र बुद्धिवाला।
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ततोधिक  : वि० [सं० ततस्-अधिक, पं० त०] १. उससे अधिक। २. उससे बढ़कर।
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तत्  : पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+क्विप्] १. ब्रह्मा या परमात्मा का एक नाम। २. वायु। हवा। सर्व० १. वही या वह। २. उस या उसी। जैसे–तत्संबंधी, तत्काल, तत्क्षण।
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तत्काल  : अव्य० [सं० कर्म० स०] फौरन। उसी समय। उसी क्षण।
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तत्कालीन  : वि० [सं० तत्काल+ख-ईन] १. उस समय का। २. उन दिनों का।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तत्क्षण  : अव्य,० [सं० कर्म० स०] उसी क्षण। तुरन्त।
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तत्त  : पुं=तत्त्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तत्तत्  : सर्व० [सं० द्व० स०] उन उन। जैसे–इनमें से कुछ शब्दों की व्याख्या तत्तत् सास्त्रों में की गई है।
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तत्ता  : वि० [सं० तप्त] [स्त्री० तत्ती] १. जो छूने में अधिक गरम लगे। अधिक तपा हुआ। गरम। जैसे–तत्ता दूध या तत्ती कड़ाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पद–तत्ता तवा-गरम मिजाजवाला व्यक्ति। २. तेजगतिवाला। उदाहरण–-दिन महि तत्ते हयनि तजि महि मंडे अति घाइ।–चंदवरादाई।
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तत्ताथेई  : स्त्री० [अनु०] नाच के समय जमीन पर पैर पड़ने के शब्द जो नाच के बोल कहे जाते हैं।
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तत्तिम्मा  : पुं० [अ० तत्तिम] १. परिशिष्ट। २. क्रोड़ पत्र।
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तत्तोथंबो  : पुं० [हिं० तत्ता=गरम+थामना] १. लड़ाई-झगड़ा रोकने के लिए दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर शान्त करने की क्रिया या भाव। बीच-बचाव। २. बार-बार आशा दिलाते हुए किसी को उग्र रूप धारण करने से रोक रखने की क्रिया या भाव। बहलावा। जैसे–पावनेदारों को तत्तों-थंबो करके टाल चलना।
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तत्त्व  : पुं० [सं० तन्+त्व] १. आकश, अग्नि, जल, थल और पवन ये पाँच गुण (अथवा इनमें से हर एक) जो प्राचीन भारतीय विचारधारा के अनुसार किसी पदार्थ को अस्तित्व में लाते है और जो जगत् या सृष्टि के मूल कारण कहे जाते हैं। विशेष–सांख्य में तत्त्वों की संख्या २५ मानी गई है। २. आधुनिक रसायन शास्त्र के अनुसार कोई ऐसा पदार्थ जिसमें दूसरें पदार्थों का कुछ भी अंश या मेल न पाया जाता हो, अर्थात् जो सब प्रकार से अमिश्र और विशुद्ध हो। (एलिमेन्ट)। विशेष–पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अब तक १॰॰. से ऊपर ऐसे तत्त्व ढूँढ़ निकाले हैं जो अमिश्र और विशुद्ध रूप से मिलते हैं। ३. कोई मूल, मौलिक या वास्तविक आधार, गुण या बात। सार वस्तु। ४. ईश्वर। ५. यथार्थता।
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तत्त्व-दृष्टि  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह दृष्टि जो किसी बात के मूलकारण या गुण का पता लगाती या उस पर तक पहुँचती हो। २. दिव्य दृष्टि।
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तत्त्व-न्यास  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र के अनुसार विष्णु पूजा में एक अंग न्यास जो सिद्धि प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
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तत्त्व-भाव  : पुं० [ष० त०] प्रकृति। स्वभाव।
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तत्त्व-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] दर्शन शास्त्र।
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तत्त्व-वेत्ता-(त्तृ)  : पुं० [ष० त०] १. जिसे तत्त्व का ज्ञान हो। तत्त्वविद्। २. दार्शनिक।
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तत्त्व-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] दर्शन शास्त्र।
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तत्त्वज्ञ  : पुं० [सं० तत्त्व√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो ईश्वर या ब्रह्म को जानता हो। तत्वज्ञानी। ब्रह्मज्ञानी। २. किसी बात या विषय का तत्त्व जानने या समझने वाला व्यक्ति। ३. दार्शनिक।
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तत्त्वज्ञान  : पुं० [ष० त०] आत्मा, परमात्मा तथा उसकी दृष्टि के संबंध में होनेवाला सच्चा या यथार्थ ज्ञान जो मोक्ष का कारण माना गया है। ब्रह्मज्ञान।
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तत्त्वज्ञानी(निन्)  : पुं० [सं० तत्त्वज्ञान+इनि] तत्त्वज्ञ (दे०)।
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तत्त्वतः  : अव्य० [सं०] तत्त्व या सार-भूत गुण के विचार से। यथार्थतः वस्तुतः।
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तत्त्वता  : स्त्री० [सं० तत्त्व+तल्-टाप्] तत्त्व होने की अवस्था, गुण या भाव। २. यथार्थता। वास्तविकता।
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तत्त्वदर्श  : पुं० [सं० तत्त्व√दृश् (देखना)+अण्] १. तत्त्वज्ञ। २. सावर्णि मन्यवन्तर के एक ऋषि का नाम।
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तत्त्वदर्शी(र्शिन्)  : पुं० [सं० तत्त्व√दृश्+णिनि] १. तत्त्वज्ञ। २. रैवत मनु के एक पुत्र का नाम।
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तत्त्वभाषी(षिन्)  : पुं० [सं० तत्त्व√भाष् (कहना)+णिनि] वह व्यक्ति जो यथार्थ या सच्ची बात कहता हो। यथार्थ भाषी।
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तत्त्वमसि  : पद–[सं० तत्-त्वग-असि, व्यस्त पद] वेदान्त का एक प्रसिद्ध वाक्य जिसका अर्थ है तू बही अर्थात् ब्रह्म है।
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तत्त्वावधान  : पुं० [सं० तत्व-अवधान, ष० त०] किसी काम के ऊपर होनेवाली देख-रेख या निरीक्षण।
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तत्त्वावधायक  : पुं० [सं० तत्त्व-अवधायक, ष० त०] देख-रेख या निरीक्षण करनेवाला।
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तत्थ  : वि० [सं० तत्त्व] मुख्य। प्रधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तथ्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तत्पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. केले का पेड़। २. वंशपत्री नाम की घास।
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तत्पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] परमपद। निर्वाण।
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तत्पदार्थ  : पुं० [सं० तत्पद-अर्थ, ष० त०] सृष्टि-कर्त्ता। परमात्मा।
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तत्पर  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० तत्परता] १. जो कोई काम करने के लिए तैयार हो। उद्यत। मुस्तैद। २. जो किसी काम में मनोयोगपूर्वक लगा हुआ हो या लगने को हो। ३. दक्ष। निपुण। होशियार। ४. चतुर। चालाक। पुं० समय का एक बहुत छोटा मान जो एक निमेष का तीसवाँ भाग होता है।
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तत्परता  : स्त्री० [सं० तत्पर+तल्-टाप्] १. तत्पर होने की अवस्था, गुण या भाव। सन्नद्धता। मुस्तैदी। २. मनोयोगपूर्वक काम करने का भाव। जैसे–उन्होंने यह काम पूरी तत्परता के किया है। ३. दक्षता। निपुणता। ४. चालाकी।
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तत्पश्चात्  : अव्य० [सं० ष० त०] उसके बाद। अनंतर।
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तत्पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. ईश्वर। परमेश्वर। २. एक रुद्र का नाम। ३. एक कल्प या बड़े काल विभाग का नाम। ४. संस्कृत व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसके अनुसार दो संज्ञाओं के बीच की विभक्ति लुप्त हो जाती है, और जिसमें दूसरा पद प्रधान होकर यह सूचित करता है कि वह पहले पद का कार्य या परिणाम है अथवा उस पहले पद से ही सम्बन्ध रखता अथवा उस में ही होता है। जैसे–ईश्वर दत्त-ईश्वर का दिया हुआ, देश-भक्ति-देश की भक्ति, ऋण-मुक्त-ऋण से मुक्त, निशाचर-निशा में विचरण करनेवाला। विशेष–व्याकरण में यह समास दो प्रकार का माना गया है–व्यधिकरण और समानाधिकरण और इसके विग्रह में कर्त्ता तथा संबोधन कारकों को छोड़कर सभी कारकों की विभक्तियाँ लगती है।
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तत्प्रतिरूपक व्यवहार  : पुं० [सं० तत्-प्रतिरूपक, ष० तत्प्रतिंरूपक व्यवहार, कर्म० स०] जैनियों के मत से एक अतिवाचर जो बेची जानेवाली खालिस वस्तुओं में मिलावट करने से होता है।
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तत्फल  : पुं० [सं० तत्√फल् (फलना)+अच्] १. कूट नामक औषध। कुट। २. बेर का फल। ३. नीला कमल। ४. चोर नामक गंध-द्रव्य।
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तंत्र  : पुं० [सं०√तंन् (विस्तार)+ष्ट्रन] १. डोरा या सूत। तंतु। २. चमड़े की डोरी। ताँत। ३. जुलाहा। ४. कपड़े बुनने की सामग्री। ५. कपड़ा। वस्त्र। ६. काम। कार्य। ७. प्रबंध। व्यवस्था। ८. कारण। वजह। ९. उपाय। युक्ति। १॰. दल। समूह। ११. आनन्द। प्रसन्नता। १२. घर। मकान। १३. धन-संपत्ति। १४. कोटि। वर्ग। श्रेणी। १५. उद्देश्य। १६. कुल। वंश। १७. कसम। शपथ। १८. कायदा। नियम। १९. सजावट। २॰. औषध। दवा। २१. प्रमाण सबूत। २२. अधिकार। स्वत्व। २३. अधीनता। परवशता। २४. निश्चित सिद्धान्त। २५. वह पद जिस पर रहकर किसी कर्त्तव्य का पालन किया जाता है। २६. ऐसा प्रबन्ध या व्यवस्था जिसके अनुसार घर-गृहस्थी, राज्य, समाज आदि का नियंत्रण और संचालन किया जाता है। २७. राज्य और उसके अंतर्गत काम करने वाले सभी राजकीय कर्मचारी। २८. व्यवस्था, शासन आदि करने की कोई निश्चित या विशिष्ट प्रणाली या रीति। जैसे–हिन्दू राज-तंत्र, पाश्चात्य समाज तंत्र। ३॰. हिन्दुओं का प्रसिद्ध शास्त्र जो शिव-प्रोक्त कहा जाता है और जिसमें शिव तथा शक्ति की उपासना, पूजन आदि के द्वारा कुछ प्रकार की क्रियाओं और मंत्रों से अनेक प्रकार के लौकिक तथा पारलौकिक उद्देश्य सिद्ध करने के विधान है। विशेष–इस शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त यह है कि कलियुग में वैदिक मंत्रों, यज्ञों आदि का नहीं बल्कि तांत्रिक उपासना, विधि और यंत्र-मंत्रों का ही अनुष्ठान होना चाहिए। सब प्रकार के अभिचार, झाड-फूँक पुरश्चरण, भैरवी चक्र-पूजन, उच्चाटन, मारण, मोहन आदि षटकर्म इसी तंत्रसास्त्र के अन्तर्गत आते हैं। यह मुख्यतः शाक्तों का प्रधान शास्त्र है और उसके मंत्र प्रायः एकाक्षरी और अर्थहीन होते हैं। बौद्धों ने हिन्दुओं से यह शास्त्र लेकर चीन तथा तिब्बत में इसका विशेष प्रचार तथा विकास किया था। आधुनिक विद्वान इसे डेढ़ दो हजार वर्षों से अधिक पुराना नहीं मानते।
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तत्र  : अव्य० [सं० तत्+त्रल्] उस स्थान पर। उस जगह। वहाँ।
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तंत्र युक्ति  : स्त्री० [ष० त०] सुश्रुत संहिता के अनुसार वह युक्ति जिसके द्वारा किसी वाक्य का आशय समझा जाय। ये २८ प्रकार की कही गई हैं।
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तंत्र-मंत्र  : पुं० [द्व० स०] तंत्र शास्त्र के विधानों के अनुसार किये जानेवाले अभिचार, पुरचरण आदि कृत्य।
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तंत्र-होम  : पुं० [तृ० त०] तंत्र शास्त्र के अनुसार होनेवाला होम।
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तंत्रक  : पुं० [सं० तंत्र+कन्] नया कपड़ा।
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तत्रक  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़ जिसकी पत्तियों आदि से चमड़ा सिझाया जाता है।
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तंत्रकार  : पुं० [सं०] बाजा बजानेवाला।
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तंत्रण  : पुं० [सं०√तंत्र् (शासन करना)+ल्युट-अन] १. किसी को अपने तंत्र या शासन में रखना। २. तंत्र के अनुसार चलना या चलाना।
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तंत्रता  : स्त्री० [सं० तंत्र+तल्-टाप्] १. किसी तंत्र के अनुसार होनेवाली व्यवस्था। २. ऐसी योग्यता या स्थिति जिसमें एक काम करने पर उसके साथ और भी कई काम आसरे आप हो जायँ।
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तत्रत्य  : वि० [सं० तत्र+त्यप्] वहाँ रहनेवाला।
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तंत्रधारक  : पुं० [ष० त०] यज्ञ आदि कार्यों में वह व्यक्ति जो कर्म-कांड की पुस्तक लेकर याज्ञिक आदि के साथ बैठता हो।
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तत्रभवान्(वत्)  : पुं० [सं० पूज्य अर्थ में नित्य० स०] माननीय। पूज्य। श्रेष्ठ।
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तंत्रवाय  : पुं० [सं० तंत्र√वप् (बुनना)+अण्] १. तंतुवाय। ताँती। जुलाहा। २. मकड़ी। ३. ताँत।
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तंत्रसंस्था  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह संस्था जो तंत्र अर्थात् शासन करती हो।
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तंत्रस्कंद  : पुं० [सं०] ज्योतिष सास्त्र का वह अंग जिसमें गणित के द्वारा ग्रहों की गति आदि का निरूपण होता है। गणित ज्योतिष।
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तंत्रस्थिति  : स्त्री० [ष० त०] राज्य के शासन की प्रणाली।
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तंत्रा  : स्त्री० [सं०√तंत्र+अ+टाप्] तंद्रा।
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तत्रापि  : अव्य० [सं० तत्र-अपि, द्व० स०] तथापि। तो भी।
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तंत्रायी(यिन्)  : पुं० [सं० तंत्र√इ (गति)+णिनि] सूर्य।
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तंत्रि  : स्त्री० [सं०√तंत्र+इ] १. तंत्री। २. तंद्रा।
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तंत्रि-पालक  : पुं० [सं० ष० त०] जयद्रथ का एक नाम।
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तंत्रिका  : स्त्री० [सं० तंत्री+कन्-टाप्, हृस्व] १. गुडूची। गुरुच। २. ताँत।
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तंत्रिपाल  : पुं० [सं० तत्रि√पाल्+णिच्+अण्] तंतिपाल (दे०)।
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तंत्री  : पुं० [सं० तंत्र+ङीष्] १. वह जो बाजों आदि की सहायता से गाने-बजाने का काम करता हो। २. गवैया। संगीतज्ञ। ३. सैनिक। वि० १. तंत्र-संबंधी। २. जिसमें पतार लगे हों। ३. तंत्र-शास्त्र का अनुयायी। ४. जो किसी तंत्र के अधीन हो। ५. परवश। पराधीन। स्त्री० [सं०√तंन्त्र+ई] १. बीन, सितार आदि बाजों में लगा हुआ तार। २. ऐसे बाजे जिनमें बजाने के लिए तार लगे हो। ३. ताँत। ४. डोरी। रस्सी। ५. शरीर के अन्दर की नस। ६. वीणा। बीन। ७. एक प्राचीन नदी का नाम। ८. गुड्ची। गुरूच।
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तंत्री-मुख  : पुं० [ब० स०] तंत्र में हाथ की एक मुद्रा।
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तत्व-रश्मि  : पुं० [ष० त०] तंत्र के अनुसार स्त्री देवता का बीज। वधू बीज।
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तत्ववाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. दर्शन-शास्त्र संबंधी विचार। २. किसी प्रकार की दार्शनिक विचार-प्रणाली या मत-विरूपण का ढंग। (फिलासिफिकल सिस्टम)।
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तत्ववादी(दिन्)  : पुं० [सं० तत्त्व√वद्+णिनि] जो तत्ववाद का ज्ञाता और समर्थक हो। वि० १. तत्त्ववाद संबंधी। तत्त्वकी। २. सच्ची और साफ बात कहनेवाला।
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तत्वविद्  : पुं० [सं० तत्त्व√विद् (जानना)+क्विप्] १. तत्वज्ञ। (दे०) २. परमात्मा।
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तत्संबंधी(धिन्)  : वि० [सं० ष० त०] उससे संबंध रखनेवाला।
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तत्सम  : पुं० [सं० तृ० त०] किसी भाषा का वह शब्द जो किसी दूसरी भाषा में अपने मूल रूप में (बिना विकृत हुए) चलता हो, ‘तद्भव’ से भिन्न। जैसे–हिन्दी में प्रयुक्त होनेवाले कृपा, महत्व, सेवा आदि संस्कृत के और खराब मिजाज, हाजिर आदि अरबी-फारसी के शब्द तत्सम रूप में ही चलते हैं।
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तत्सामयिक  : वि० [सं० ष० त०] उस समय का।
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तथा  : अव्य० [सं० तद्+थाल] १. दो चीजों बातों आदि में योग या संगति स्थापित करनेवाला एक योजक अव्यय। और। जैसे–कृष्ण तथा राम दोनों गये। २. किसी के अनुरूप या अनुसार। वैसा ही। जैसे–यथा राम, तथा गुण। पुं० १. सत्य। २. निश्चय। ३. समता। समानता। ४. सीमा। हद। स्त्री०=तत्थ या तथ्य। (क्व०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तथा-कथित  : वि० [सं० तृ० त०] जो इस नाम से अथवा इस रूप में कहा जाता हो अथवा प्रसिद्ध हो, परन्तु जिसका ऐसा होना विवादास्पद अथवा संदिग्ध हो। जैसे–देश के तथा कथित नेता-ऐसे लोग जो अपने आपकों नेता कहते हैं अथवा जिन्हें लोग ‘नेता’ कहते हैं फिर भी वक्ता को जिनके नेता होने में संदेह है।
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तथा-कथ्य  : वि० दे० ‘तथा-कथित’।
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तथागत  : पुं० [सं० तथा-सत्य+गत-ज्ञान, ब० स०] बुद्ध का एक नाम।
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तथाता  : स्त्री० [सं० तथा+तल्-टाप्] १. तथा का भाव। २. दार्शनिक क्षेत्रों में जो वस्तु वास्तव में जैसी हो उसका ठीक वैसा ही निरूपण (विश्व के समस्त धर्मों का यही नित्य और स्थायी तत्त्व या मूल धर्म है।)।
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तथापि  : अव्य० [सं० तथा-अपि, द्व० स०] तो भी। तिस पर भी। फिर भी।
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तथाराज  : पुं० [सं० तथा√राज् (शोभित होना)+अच्] बुद्ध का एक नाम।
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तथावस्तु  : पद० [सं०तथा अस्तु-व्यस्त पद] (जैसा कहते हो) वैसा ही हो। एवमस्तु (आर्शीवाद शुभ-कामना आदि का सूचक)।
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तथैव  : अव्य० [सं० तथा-एव, द्व० स०] उसी प्रकार का। वैसा ही। यथैव का नित्य-संबंधी। उदाहरण–-तथैव मैं हूँ मलिन, यथैव तू।–हरिऔध। २. उसी प्रकार। वैसे ही।
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तथोक्त  : वि० [सं० तथा-उक्त, तृ० त०] १. उस प्रकार कहा हुआ। २. तथा-कथित। (दे०)।
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तथ्य  : पुं० [सं० तथ्य] १. यथार्थ बात। २. तथ्य। ३. रहस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० [सं० तत्त] उस जगह। वहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तथ्य  : पुं० [सं० तथा+यत्] १. यथार्थता। सत्यता। २. वास्तविकता या मूल कारण। ३. कोई ऐसी घटना या संबंध जो वस्तुतः अस्तित्व में हो।
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तथ्यक  : वि० [सं० ताथ्यिक] तथ्य-संबंधी।
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तथ्यभाषी(षिन्)  : वि० [सं० तथ्य√भाष् (बोलना)+णिनि] तथ्यपूर्ण और वास्तविक बात कहनेवाला।
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तथ्यवादी(दिन्)  : वि० [सं० तथ्य√वद् (बोलना)+णिनि]=तथ्यभाषी।
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तथ्यु  : अव्य० [सं० तथापि] तो भी। तथापि। (राज०)।
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तथ्ये  : वि०=तथैव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तदगुण  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु के अपने समीप की किसी दूसरी वस्तु के कोई गुण ग्रहण करने का वर्णन होता है।
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तदंतर  : अव्य० [सं० तदनंतर] उसके बाद।
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तदनंत  : अव्य०=तदनंतर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तदनंतर  : अव्य० [सं० तद्-अनंतर, ष० त०] उसके उपरान्त। उसके पीछे या बाद।
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तदनन्यत्व  : पुं० [सं० तद्-अनन्यत्व, ष० त०] वेदांत के अनुसार कार्य और कारण में होनेवाली एकता।
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तदनु  : अव्य० [सं० तद्-अनु, ष० त०] १. उसके पीछे। उसके अनुसार। ३. उसी तरह। उसी प्रकार।
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तदनुकूल  : वि० [सं० तद्-अनुकूल, ष० त०] उसके अनुकूल।
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तदनुकूलतः  : अव्य० [सं० तदनुकूल+तस्] उसके अनुकूल भाव या विचार से।
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तदनुरूप  : वि० [सं० तद्-अनुरूप, ष० त०] उसी के रूप का। उसी के जैसा या समान।
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तदनुसार  : अव्य० [सं० तद्-अनुसार, ष० त०] उसी के अनुसार। वि० उसके अनुसार होनेवाला।
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तदन्यवाधितार्थ  : पुं० [सं० तदन्य पं० त०, बाधितार्थ, कर्म० स०, तदन्य-बाधितार्थ, कर्म० स०] नव्य न्याय में तर्क के पाँच प्रकारों में से एक।
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तदपि  : अव्य० [सं० तद्-अपि, द्व० स०] तो भी। तिस पर भी। तथापि।
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तदबीर  : स्त्री० [अ०] १. विचारपूर्वक निकाली या सोची हुई युक्ति। २. काम करने या निकालने का कोई ढंग। उपाय।
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तंदरा  : स्त्री०=तंद्रा।
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तदर्थ  : अव्य० [सं० तद-अर्थ, ष० त०] उसके वास्ते।
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तदर्थ-समिति  : स्त्री० [तद्-अर्थ, ब० स० तदर्थ-समिति, कर्म० स०] किसी विशिष्ट कार्य के संपादन के लिए बनी हुई समिति। (एड-हाँक कमिटी)।
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तदर्थी  : वि=तदर्थीय।
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तदर्थीय  : वि० [सं० तदर्थ+छ-ईय] उसके अर्थ जैसा अर्थ रखनेवाला समानार्थक। समानक।
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तदा  : अव्य० [सं० तद्+दा] उस समय। तब।
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तदाकार  : वि० [सं० तद्-आकार, ब० स०] १. उसी के आकार का। २. जो किसी के आकार या रूप में मिलकर उसी के समान हो गया हो। ३. तन्मय। तल्लीन।
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तंदान  : पुं० [पश्तो] क्वेटा। (पाकिस्तान) के आस-पास के प्रदेशों में होनेवाला एक तरह का अंगूर।
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तदारुक  : पुं० [अ०] १. खोई हुई चीज या बागे हुए अपराधी आदि की खोज या किसी दुर्घटना आदि के संबंध में की जानेवाली जाँच। २. किसी दुर्घटना को रोकने या उससे बचने के लिए पहले से किया जानेवाला उपाय या प्रबन्ध। ३. दंड। सजा।
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तदि  : अव्य० [सं० तदा] तब। उदाहरण–-किरि नी पापौ तदि निकुटी।–प्रिथीराज।
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तंदिही  : स्त्री०=तंदेही।
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तदीय  : सर्व० [सं० तद्+छ-ईय] १. उसका। २. उससे संबंधित।
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तंदुआ  : पुं० [देश०] ऊसर जमीन में होनेवाली एक तरह की घास।
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तदुपरांत  : अव्य० [सं० तद्-उपरांत, ष० त०] उसके उपरांत। उसके पीछे या बाद।
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तंदुरुस्त  : वि० [फा०] १. जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ हो। नीरोग। २. जिसका स्वास्थ्य अच्छा हो।
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तंदुरुस्ती  : स्त्री० [फा०] १. तंदुरुस्त या स्वस्थ होने की अवस्था या भाव। २. शारीरिक स्थिति। स्वास्थ्य।
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तंदुल  : पुं०=तंडुल।
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तंदुलीयक  : पुं० [सं० तण्डुलीयक] चौलाई का साग।
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तंदूर  : पुं० [फा० तनूर] मिट्टी में घास, मूँज आदि मिलाकर बनाई हुई रोटियाँ पकाने की एक प्रकार की भट्टी जिसकी ऊँची गोलाकार दीवार के भीतरी भाग में आटे की लोई को हाथ से चिपटाकर के चिपकाया जाता है।
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तंदूरी  : पुं० [हिं० तंदूर] छोटा तंदूर। वि० १. तंदूर संबंधी। २. तंदूर में पका हुआ। जैसे–तंदूरी रोटी। पुं० [देश०] एक तरह का बढ़िया रेशम जिसका रंग पीला होता है।
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तंदेही  : स्त्री० [फा० तनदिही] १. कोई काम करने के लिए खूब मन लगाकर किया जानेवाला परिश्रम या प्रयत्न। २. ताकीद। ३. तल्लीनता।
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तद्  : वि० [सं०√तन् (फैलना)+क्विप्] वह। क्रि० वि० [सं० तदा] उस समय। तब। (पश्चिम)।
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तद्गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. उससे संबंध रखनेवाला। उसके संबंध का। २. उसमें अन्तर्युक्त या व्याप्त।
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तद्देशीय  : वि० [सं० तद्देश, कर्म० स०+छ-ईय] उस देश का।
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तद्धन  : पुं० [सं० ब० स०] कंजूस। कृपण।
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तद्धर्म(न्)  : वि० [सं० ब० स०] उस धर्म का।
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तद्धित  : पुं० [सं० च० त०] १. व्याकरण में, वे प्रत्यय जो विशेषण शब्दों में लगकर उन्हें संज्ञाएँ और संज्ञाओं में लगकर उन्हें विशेषण का रूप देते है। २. उक्त प्रकार के प्रत्यय लगने से बननेवाले शब्द रूप या उनके रूप।
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तद्बल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बाण।
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तद्भव  : पुं० [सं० ब० स०] किसी भाषा में चलानेवाला वह शब्द जो किसी दूसरी भाषा के किसी शब्द का विकृत रूप हो। जैसे–काम सं० के ‘कर्म्म’ शब्द का तद्भव है।
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तद्यपि  : अव्य,० [सं० तदापि] तथापि।
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तद्रप  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० तद्रूपता] उसी के रूप का। वैसा ही। पुं० साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय को उपमान से पृथक् मानते हुए भी उसे उपमान का दूसरा रूप और उसके कार्य का कर्ता बतलाया जाता है।
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तंद्रवाप, तंद्रवाय  : पुं० [सं० तन्त्रवाप, तन्त्रवाय, पृषो० सिद्धि] तंतुवाय। बुनकर।
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तंद्रा  : स्त्री० [सं०√तंन्द्र (अवसाद)+अ-टाप्] १. हलकी नींद। २. दुर्बलता, रोग, विष आदि के प्रभाव के कारण होनेवाली वह स्थिति जिसमें मनुष्य या पशु-पक्षी को हलकी नींद सी आ जाती है और वह प्रायः निश्चेतन अवस्था में कुछ समय तक पड़ा रहता है।
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तंद्राल  : वि० [सं०] १. जो तंद्रा में पड़ा हुआ हो। २=चंद्रालु।
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तंद्रालस  : पुं० [सं० तंद्रा-आलस्य] वह आलस्य या शिथिलता जो तंद्रा के फलस्वरूप होती है। उदाहरण–-निस्तब्ध मौन था अखिल लोपक तंद्रालस की वह विजन प्रान्त।–प्रसाद।
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तंद्रालु  : वि० [सं० तत्√द्रा (निन्दित गति)+आलुच्] जिसे तंद्रा आ रही हो।
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तंद्रि  : स्त्री० [सं०√तंद्+क्रिन]=तंद्रा।
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तंद्रिक  : वि० [सं० तंद्रा+ठन्-इक] १. तंद्रा संबंधी। २. (रोग) जिसमें तंद्रा भी आती हो। पुं०=तंद्रिक ज्वर।
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तंद्रिक-ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह का संक्रामक ज्वर जिसमे रोगी प्रायः तंद्रा की अवस्था में पड़ा रहता है। (टाइफस)।
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तंद्रिक-सन्निपात  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में, एक तरह सन्निपात जिसमें ज्वर बहुत तेजी से बढ़ता है, दम फूलने लगता, दस्त आने लगते हैं, प्यास अधिक लगने लगती है तथा जीभ काली पड़ जाती हैं। इसकी अवधि साधारणतः २५ दिनों की कही गई है।
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तंद्रिका  : स्त्री० [सं० तंद्रि+कन्-टाप्] तंद्रा।
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तंद्रिता  : स्त्री० [सं० तंद्रिन्+तल्-टाप्] तंद्रा में पड़े हुए होने की अवस्था या भाव।
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तंद्रिल  : वि० [सं० तंद्रा+इलच्] १. तंद्रा संबंधी। २. तंद्रालु।
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तंद्री  : स्त्री० [सं० तंद्रि+ङीष्] १. तंद्रा। २. भुकुटी। भौंह। वि० [तंद्रा+इनि] १. थका हुआ। शिथिल। २. मट्ठर। सुस्त।
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तद्रूत्  : वि० [सं० तद्+वति०] उसके समान। उसी के जैसा। अव्य० उसी की तरह।
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तद्रूपता  : स्त्री० [सं० तद्रूप+तल्-टाप्] तद्रूप होने की अवस्था या भाव।
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तधी  : अव्य० [सं० तदा] तभी (क्व०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तन  : पुं० [सं० तनु] १. जीव का स्थूल ढाँचा। देह। शरीर। मुहावरा–तन कसना=तपस्या के द्वारा अपने आपको सहनशील बनाना। तन तोड़ना=(क) अँगड़ाई लेना। (ख) बहुत अधिक परिश्रम कराना। तन देना=ध्यान देना। तन मन मारना=इंद्रियों को वश में रखना। (किसी के) तन लगाना=(क किसी के उपयोग में आना। (ख) किसी के प्रति परिणाम होना या प्रभाव पड़ना। जैसे–जिसके तन लगती है वही जानता है। २. स्त्री की मूत्रेंद्रिय। भग। मुहावरा–(किसी को) तन दिखाना=किसी के साथ प्रसंग या संभोग करना। जैसे–वेश्याएँ सौ आदमियों को तन दिखाती है। अव्य० [सं० तनु] ओर। तरफ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तन-तनहा  : अव्य० [हिं० तन+फा० तनहा] केवल अपना शरीर लेकर। अकेले ही। जैसे–वह तन-तनहा ही घर से निकल पड़ा।
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तनक  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की रागिनी जिसे कोई मेघ राग की रागिनी मानते हैं। स्त्री० [हिं० तिनगना] १. तनने या रुष्ट होने की क्रिया या भाव। वि०=तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनकना  : अ०=तिनकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनकीद  : स्त्री० [अ०] आलोचना। समीक्षा। २. परख। पहचान।
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तनकीह  : स्त्री० [अ०] १. कोई मूल कारण या तथ्य जानने या निकलने के लिए किसी से की जानेवाली पूछ-ताछ। २. आज-कल विधिक क्षेत्रों में, दीवानी मुकदमों आदि के सम्बन्ध में दोनों पक्षों के कथन और उत्तर के आधार पर न्यायालय का यह निश्चित करना कि मुख्यतः कौन-कौन सी बातें विचारणीय हैं।
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तनखाह  : स्त्री० [फा० तनख्वाह] वेतन। (दे०)।
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तनखाहदार  : पुं० [फा] वेतन लेकर काम करनेवाला व्यक्ति। वेतनभोगी।
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तनख्वाह  : स्त्री०=तनखाह (वेतन)।
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तनगना  : अ०=तिनकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनज़ीम  : स्त्री० [अ० तन्जीम] अपने दल, वर्ग समाज आदि के लोगों को एकत्र तथा संघटित करना। संघटन।
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तनतना  : पुं० [अ० तनुतनः] १. रोब-दाब। दबदबा। २. आतंक। ३. आवेश में आकर प्रकट किया जानेवाला क्रोध गुस्सा। क्रि० प्र०–दिखाना।
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तनतनाना  : अ० [हिं० तनना] बहुत तन या खिंचकर अपनी शान दिखाते हुए क्रो प्रकट करना।
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तनत्राण  : पुं०=तनुत्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनदिही  : स्त्री०=तंदेही।
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तनधर  : वि० [हिं० तन+सं० धर] शरीरधारी। शरीरवाला।
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तनना  : अ० [हिं० तानना का अ० रूप] १. ताना जाना। २. किसी चीज का इस प्रकार खींचा जाना या ऐसी स्थिति में होना कि उसमें पडे हुए झोल, बल, सिकुड़ने आदि निकल जायँ। जैसे–रस्सी तनना। ३. किसी स्थान को आच्छाजित करने के लिए उसके ऊपर किसी चीज का खींचकर फैलाया जाना। जैसे–चँदोआ या चाँदनी तनना। ४. किसी रचना या रस्सियों आदि की सहायता से खींचकर खड़ी किया या बाँधा जाना। जैसे–खेमा तनना। ५. खिंचाव से युक्त होकर किसी एक पार्श्व में होना। जैसे–भौंहे तनना। ६. लाक्षणिक अर्थ में व्यक्ति का क्रोध या हठपूर्वक अपने पक्ष या बात पर अड़े रहना और किसी की ओर उन्मुख या प्रवृत्त न होना। ७. आघात करने के लिए किसी चीज का उठाया जाना। जैसे–दोनों ओर से लाठियाँ तन गईं।
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तनपात  : पुं०=तनुपात (मृत्यु)।
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तनपोषक  : वि० [हिं० तन+सं० पोषक] जो अपने ही तन या शरीर का ध्यान रखे अर्थात् स्वार्थी।
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तनबाल  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। (महाभारत) २. उक्त देश का निवासी।
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तनमय  : वि०=तन्मय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनमात्रा  : स्त्री० दे० ‘तन्मात्रा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनमानसा  : स्त्री० [सं०?] ज्ञान की सात भूमिकाओं में तीसरी भूमिका।
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तनय  : पुं० [सं०√तन् (फैलाना)+कयन्] [स्त्री० तनया] १. पुत्र। बेटा। २. ज्योतिष में जन्म लग्न से पाँचवाँ स्थान जिसके आधार पर यह जाना जाता है कि कितने पुत्र या लड़के-बाले होंगे।
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तनया  : स्त्री० [सं० तनय+टाप्] १. पुत्री। बेटी। लड़की। २. पिण्वन नाम की लता।
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तनराग  : पुं=तनुराग।
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तनरुह  : पुं०=तनुरुह (रोआं)।
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तनवाना  : स० [हिं० ‘तानना’ का प्रे० रूप] किसी को कुछ तानने में प्रवृत्त करना। तानने का काम किसी और से कराना।
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तनवाल  : पुं० [देश०] वैश्यों की एक उपजाति।
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तनसल  : पुं० [देश०] स्फटिक पत्थर। बिल्लौर।
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तनसीख  : स्त्री० [अ०] १. नष्ट करना। मिटाना। २. निरर्थक रद्द या व्यर्थ करना। मिटाना।
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तनसुख  : पुं० [हिं० तन+सुख] एक प्रकार की फूलदार बढिया महीन मलमल।
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तनहा  : वि० [फा०] [भाव० तनहाई] (व्यक्ति) जिसके साथ और कोई व्यक्ति न हो। अव्य० बिना किसी संगी या साथी के।
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तनहाई  : स्त्री० [फा०] १. तनहा अर्थात् अकेले होने की अवस्था। २. एकान्त या निर्जन स्थान।
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तना  : पुं० [फा०] पेड़-पौधों का जमीन से ऊपर निकला हुआ वह मोटा भाग जिसके ऊपरी सिरे पर डालियाँ निकली होती है। धड़। अव्य० वि० दे० ‘तनु’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनाई  : स्त्री० [हिं० तानना] तानने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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तनाऊ  : पुं०=तनाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनाकु  : क्रि० वि०=तनिक।
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तनाजा  : पुं० [अ० तनाजः] १. दो० पक्षों में कुछ समय तक बराबर चलता रहनेवाला झगड़ा। २. वैर। शत्रुता।
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तनाना  : स० [हिं० तानना का प्रे०] कोई चीज किसी को तानने में प्रवृत्त करना। तनवाना।
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तनाब  : स्त्री० [अ० तिनाब] १. वह डोरी या रस्सी जिससे खेमे या तंबू के बाँस आदि खींचकर खूँटों से बाँधे जाते हैं। २. बाजीगरों का वह रस्सा जिसपर चलकर वे तरह-तरह के करतब दिखाते हैं। ३. वह डोरी या रस्सी जिसपर धोबी कपड़े सुखाने के लिए टाँगते हैं। ४. डोरी। रस्सी।
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तनाय  : पुं०=तनाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनाव  : पुं० [हिं० तनना] १. तने अर्थात् कसे या खिचें हुए होने की अवस्था या भाव। २. राग-द्वेष आदि के कारण उत्पन्न होनेवाली वह स्थिति जिसमे दोनों पक्ष एक दूसरे की ओर प्रवृत्त नहीं होते। स्त्री० दे० ‘तनाब’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनासुख  : पुं० [अ०] इस लोक में आत्मा का होनेवाला आवा गमन या बार-बार शरीर धारण।
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तनि  : अव्य० [सं० तनु] ओर। तरफ। पुं० [सं० तनु] शरीर। देह। उदाहरण–-वधिया तनि सरवरि वेस वधंती।–प्रिथीराज। क्रि० वि=तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनिक  : वि० [सं० तनु=अल्प] १. जो अल्प मात्रा या मान में हो। जरा सा। थोडा। २. छोटा सा। अव्य० कुछ। जरा। टुक। जैसे–तनिक देर हो गई।
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तनिका  : स्त्री० [सं०√तन्(विस्तार)+इन्+कन्-टाप्, इत्व] किसी वस्त्र, पात्र आदि में लगी हुई वह डोरी जिससे कोई चीज कसकर बाँधी जाती है। तनी। बंद।
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तनिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० तनु+इमानिच्] १. शारीरिक कृशता। दुबलापन। २. सुकुमारता। नजाकत। पुं० जिगर। यकृत।
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तनिया  : स्त्री० [सं० तनी] १. कोपीन। लँगोटी। २. काछा। जाँघिया। ३. चोली। ४. दे० तनी।
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तनिष्ठ  : वि० [सं० तनु+इष्ठन्] जो सारीरिक दृष्टि से दुबला हो। कृश।
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तनिस  : पुं० [सं० तृष या हिं० तिनका] पुआल। उदाहरण–-तनिस बिछा के जब हम सोथन गाती बाँध चार हाथ ओ।–लोकगीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनी  : स्त्री० [सं० तनिका] १. कुरती, चोली, मिरजई आदि में लगी हुई वह डोरी जिससे पहनी हुई कुरती या चोली या मिरजई कसी जाती है। २. कोई चीज कसने या बाँधने के लिए किसी चीज में लगी हुई डोरी। जैसे–तकिये या थैली की तनी। ३. दे० तनिया। वि०–अव्य०=तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनीदार  : वि० [हिं० तनी+फा० दार] जिसमें तनी या बंद लगे हों।
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तनु  : वि० [सं०√तन (विस्तार)+उन्] १. दुबला-पतला। कृश। २. अल्प। थोड़ा। ३. कोमल। सुकुमार। ४. अच्छा। बढ़िया। ५. तुच्छ। ६. छिछला। पुं० १. देह। शरीर। २. शरीर की खाल या चमड़ा। त्वचा। ३. ज्योतष में जन्म-कुंडली में का जन्म-स्थान। स्त्री० १. औरत। स्त्री। २. केंचुली। ३. योग में अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन चारों क्लेशों का एक भेद जिसमें चित्त में क्लेश की अवस्थिति तो होती है परसाधन या सामग्री आदि के कारण उसकी अनुभूति या परिणाम नहीं होता। क्रि० वि० [सं० तनु] ओर। तरफ। उदाहरण–-बिहंसे करना ऐन चितै जानकी लखन तनु।–तुलसी।
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तनु-कूप  : पुं० [सं० ष० त०] त्वचा में होनेवाला सूक्ष्म छेद (जिसमें से पसीना आदि निकलता है।
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तनु-क्षीर  : पुं० [सं० ब० स०] आमड़े का वृक्ष।
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तनु-गृह  : पुं० [सं०] अश्विनी नक्षत्र।
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तनु-ताप  : पुं० [ष०त०] १.शारीरिक ताप। २.मन को कष्ट देनेवाली बात०। दुःख। व्यथा।
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तनु-त्राण  : पुं० [ष० त०] १. वह चीज जो शरीर की रक्षा करे। २. कवच। बकतर।
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तनु-त्वच्  : वि० [ब० स०] जिसकी त्वचा पतली हो। स्त्री० छोटी अरणी।
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तनु-पत्र  : पुं० [ब० स०] गोंदी का पेड़। इंगुदी।
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तनु-पात  : पुं० [ष० त०] शरीर का गिर अर्थात् मर जाना। मृत्यु।
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तनु-प्रकाश  : वि० [कर्म० स०] धुँधले या मंद प्रकाशवाला।
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तनु-बीज  : वि० [ब० स०] जिसके बीज छोटे हों। पुं० राजबेर।
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तनु-भूमि  : स्त्री० [कर्म० स०] बौद्ध श्रावकों के जीवन की एक अवस्था।
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तनु-मध्य  : वि० [ब० स०] [स्त्री० तनुमध्या] पतली कमर वाला।
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तनु-मध्या  : स्त्री० [ब० स० टाप्] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक एक तगण और एक एक यगण होता है।
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तनु-रस  : पुं० [ष० त०] पसीना। स्वदे।
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तनु-राग  : पुं० [ब० स०] १. केसर, कस्तूरी, चंदन, कपूर आदि को मिलाकर बनाया हुआ एक सुंगधित उबटन। बटना। २. केसर, कस्तूरी, चंदन कपूर आदि सुगंधित द्रव्य।
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तनु-वीज  : पुं०=तनुबीज।
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तनु-व्रण  : पुं० [ब० स०] वल्मीक रोग। फील-पाँव।
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तनु-शिरा(रस्)  : वि० [ब० स०] छोटे सिरवाला। पुं० एक प्रकार का छंद।
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तनु-संचारिणी  : स्त्री० [सं० तनु-सम√चर् (गति)+णिनि-ङीप्] १. युवा स्त्री। २. दस वर्ष की बालिका।
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तनु-सर  : पुं० [सं० तनु√सृ (गति)+अच्] पसीना। स्वेद।
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तनु-ह्वद  : पुं० [ष० त०] गुदा।
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तनुक  : क्रि० वि०=तनिक। पुं०=तनु।
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तनुकेशी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] सुन्दर बालोंवाली स्त्री।
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तनुच्छद  : पुं० [सं० तनु√छद् (ढकना)+णिच्+घ,हृस्व] १.कवच। २.वस्त्र।
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तनुच्छाय  : पुं० [सं० ब० स०] बबूल का पेड़।
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तनुज  : पुं० [सं० तनु√जन् (पैदा होना)+ड] [स्त्री० तनुजा] १. बेटा। पुत्र। २. रोआँ। ३. जन्म-कुंडली में लग्न से पचलाँ स्थान जहाँ से पुत्र भाव देखा जाता है।
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तनुजा  : स्त्री० [सं० तनुज+टाप्] कन्या। पुत्री। बेटी।
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तनुता  : स्त्री० [सं० तनु+तल्-टाप्] १. तनु अर्थात् दुबले-पतले होने की अवस्था या भाव। २. सुकुमारता। ३. छोटाई। ४. तुच्छता। ५. अल्पता। ६. छिछलापन।
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तनुत्र  : पुं० [सं० तनु√त्रै (रक्षा करना)+क]=तनुत्राण।
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तनुत्राण  : पुं०=तनुत्राण।
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तनुधारी(रिन्)  : वि० [सं० तनु√धृ (धारण करना)+णिनि] तनु अर्थात् शरीर धारण करनेवाला। शरीरधारी।
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तनुभव  : पुं० [सं० तनु√भृ (होना)+अच्०] [स्त्री० तनुभवा] पुत्र। बेटा।
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तनुभृत  : वि० [सं० तनु√भृ (धारण)+क्विप्] देहधारी।
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तनुरुह  : पुं० [सं० तनु√रुह (उगना)+क] १. रोआँ। २. पंख। पर। ३. पुत्र। बेटा।
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तनुल  : वि० [सं०√तन् (विस्तार)+उलच्] फैला या फैलाया हुआ।
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तनुवात  : पुं० [ब० स०]१. ऊँचे स्थानों पर की वह पतली हवा जिसमें श्वास लेना कठिन होता है। २. ऐसा स्थान जहाँ उक्त प्रकार की वायु हो। ३. जैनियों के अनुसार एक प्रकार का नरक।
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तनुवार  : पुं० [सं० तनु√वृ (ढकना)+अण्] कवच।
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तनू  : पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+ऊ] १. शरीर। २. व्यक्ति। ३. शरीर का कोई अवयव। ४. पुत्र। बेटा। ५. प्रजापति। स्त्री० गाय। गौ।
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तनू-पान  : पुं० [ष० त०] अंगरक्षक।
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तनू-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] एक तरह का सोमयज्ञ जिसमें सोमपान किया जाता था।
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तनूकरण  : पुं० [सं० तनु+च्वि, दीर्घ√कृ+ल्युट-अन] [भू० कृ० तनूकृत] किसी चीज को जल में घोलकर या मिलाकर उसकी घनता, तीव्रता आदि कम करना। (डाइल्यूशन)।
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तनूज  : वि० [सं० तनू√जन् (पैदा होना)+ड] [स्त्री० तनूजा] तन से उत्पन्न। शरीर से उद्भूत। पुं० १. बेटा। पुत्र। २. पंख। पर।
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तनूजा  : स्त्री० [सं० तनूज+टाप्] बेटी। पुत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनूताप  : पुं०=तनुताप।
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तनूनप  : पुं० [सं० तनु-ऊन, ष० त० तनून√पा (रक्षा)+क] घी। घृत।
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तनूनपात्, तनूनपाद्  : पुं० [सं० तनून√पत् (गिरना)+णिच्+क्विप्] १. चीते का वृक्ष। चीता। चित्रक। २. अग्नि। आग। ३. घी। घृत। ४. नवनीत। मक्खन।
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तनूपा  : पुं० [सं० तनू√पा+क्विप्] जठराग्नि।
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तनूर  : पुं०=तंदूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनूरूह  : पुं० [सं० तनू√रुह(उगना)+क]=तनुरुह।
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तने  : अव्य० [सं० तन] की ओर। की तरफ। उदाहरण–-राम तने रंग राची...।-मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनेना  : वि० [हिं० तनना+एना(प्रत्यय)] [स्त्री० तनेनी] १. तना या खिंचा हुआ। २. टेढ़ा। तिरछा। ३.(व्यक्ति) जो तनकर क्रोधपूर्वक बातें करता हो। ४.रूष्ट।
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तनै  : पुं० =तनय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० =तने(की ओर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तनैना  : वि=तनेना।
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तनैया  : वि० [हिं० तानना+ऐया (प्रत्यय)] ताननेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० तनया] कन्या। बेटी। पुत्री। स्त्री०=तनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनैला  : पुं० [देश०] एक तरह के सफेद रंग के सुगंधित फूलवाला छोटा वृक्ष।
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तनोआ  : पुं० [हिं० तानना] १. वह कपड़ा जो छाया आदि के लिए ताना जाता है। २. चँदोआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनोज  : वि० पुं०=तनूज।
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तनोरुह  : पुं०=तनुरुह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तनोवा  : पुं०=तनोआ।
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तन्दुरुस्त  : वि० [फा०]=तंदुरुस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तन्दुरुस्ती  : स्त्री०=तंदूरुस्ती।
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तन्ना  : पुं० [हिं० तानना] १. बुनाई करते समय लंबे बल में ताना हुआ सूत। २. वह जिससे कोई चीज तानी जाय।
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तन्नाना  : अ० १.=तनना। २.=तनकना।
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तन्नि  : स्त्री० [सं० तत्√नी (ले जाना)+डि (वा०)] १. पिठवन। २. कश्मीर की चन्द्र-कुल्या नदी का एक नाम।
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तन्नी  : स्त्री० [सं० तनिका, हिं० तनी] १. तनी विशेषतः वह डोरी जिससे तराजू की डंडी में पलड़ा लटकाया जाता है। २. लोहे की मैल खुरचने की एक तरह की अँकुसी। ३. वह रस्सी जिसकी सहायता से पाल चढ़ाया जाता है। ४. व्यापारी जहाज का एक अधिकारी जो व्यापार संबंधी कार्य करता है। पुं० दे० ‘तरनी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तन्मनस्क  : वि० [सं० तत्-मनस्, ब० स० कप्] तन्मय। तल्लीन।
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तन्मय  : वि० [सं० तद्+मयट्] [भाव० तन्मयता] १. उस (पूर्वोक्त) से बना हुआ। २. जो दत्तचित होकर कोई काम कर रहा हो। किसी कार्य या व्यापार में खोया हुआ। मग्न। लवलीन।
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तन्मयता  : स्त्री० [सं० तन्मय+तल्-टाप्] तन्मय होने की अवस्था, गुण या भाव।
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तन्मयासक्ति  : स्त्री० [सं० तन्मयी-आसक्ति, कर्म० स०] भगवान के प्रति होनेवाला वह दिव्य प्रेम जिसमें मनुष्य अपनी सत्ता भूल जाता है।
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तन्मात्र  : वि० [सं० तद्+मात्रच्] बहुत थोड़ी मात्रा का। पुं० पंचभूतों का मूल सूक्ष्म रूप।
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तन्मात्रा  : स्त्री०=तन्मात्र।
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तन्मूलक  : वि० [सं० तद्-मूल, ब० स०, कप्] उस (पूर्वोक्त) से निकला हुआ। तज्जन्य।
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तन्य  : वि० [सं० तान्य] [भाव० तन्यता] १. जो खींचा या ताना जा सके। २.(पदार्थ) जो खींच, तान या पीटकर बढ़ाया या लंबा किया जा सके, और ऐसा करने पर भी बीच में से कहीं टूटे-फूटे नहीं। जैसे–धातुएँ तन्य होती है और उनके तार या पत्तर बनाये जा सकते हैं। (डक्टाइल)।
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तन्यक  : वि० तन्य। (दे०)।
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तन्यता  : स्त्री० [सं० तान्यता०] १. तन्य होने की अवस्था या भाव। २. वस्तुओं का वह गुण जिससे वे खींचने तानने या पीटने पर बिना बीच में से टूटे, बढ़कर लंबी हो सकती है। (डक्टिलिटी)।
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तन्यतु  : पुं० [सं०√तन् (फैलाना)+यतुच्] १. वायु। हवा। २. रात। रात्रि। ३. गर्जन। ४. एक प्रकार का पुराना बाजा।
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तन्वंग  : वि० [सं० तनु-अंग, ब० स०] [स्त्री० तन्वंगी] सुकुमार अंगोवाला। कोमलांग।
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तन्वंगी  : स्त्री० [सं० तन्वंग+ङीष्] सुकुमार अंगोवाली स्त्री।
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तन्वि  : स्त्री० [सं०] १. चन्द्रकुल्या नदी का एक नाम जो कश्मीर में है। २. तन्वंगी।
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तन्विनी  : स्त्री०=तन्वंगी।
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तन्वी  : वि० [सं० तन्+ङीष्] दुबले-पतले शरीर या कोमल अंगोवाली। स्त्री० १. सुकुमार अंगोवाली स्त्री। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक-एक भगण, नगण और अंत में यगण होता है।
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तप(स्)  : पुं० [सं०√तप् (सरीर को कष्ट देना)+असुन्] १. स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहते हुए इंद्रियों तथा मन को वश में रखना औरयम, नियम आदि का पालन करना। शरीर को तपाना। तपस्या। २. किये हुए अपराध या पाप के प्रायश्चित स्वरूप स्वेच्छा से किया जानेवाला ऐसा कठोर आचरण जिससे शरीर को कष्ट होता हो। तपस्या। ३. अग्नि। आग। ४. गरमी। ताप। ५. गरमी के दिन। ग्रीष्म ऋतु। ६. ज्वर। बुखार। ७. एक कल्प का नाम। ८. माघ नाम का महीना। ९. ज्योतिष में लग्न का नवाँ स्थान। १॰. दे० ‘तपोलोक’।
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तपकना  : अ० [हिं० टपकना या तमकना] १. (छाती या हृदय का) रह-रहकर धड़कना। २. चमकना। ३. दे० ‘टपकना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तपःकर  : पुं० [सं० तपस्√कृ (करना)+ट] तपस्वी।
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तपःकृश  : वि० [सं० तृ० त०] तपस्या के फलस्वरूप जिसका शरीर क्षीण या कृश हो गया हो।
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तपचाक  : पुं० [देश०] तुर्की (देश) का एक तरह का घोड़ा।
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तपड़ी  : स्त्री० [देश०] १. छोटा टीला। ढूह २. एक प्रकार का वृक्ष। जिसमें जाड़े में लाल रंग के फल लगते हैं। ३. उक्त वृक्ष का फल।
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तपत  : स्त्री०=तपन। उदाहरण–-मेरे मन की तपन बुझाई।–कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपती  : स्त्री० [सं०] छाया के गर्भ से उत्पन्न सूर्य की कन्या। (महाभारत)।
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तपन  : वि० [सं०√तप्+ल्यु-अन] १. तपनेवाला। २. कष्ट या दुःख देनेवाला। पुं० १. सूर्य। २. सूर्यकांतमणि। ३. एक प्रकार की अग्नि। ४. धूप। ५. साहित्य में वे कष्टसूचक शारीरिक व्यापार जो प्रिय के वियोग में स्वाभाविक रूप से होते हैं। ६. एक नरक जिसमें ताप की बहुत अदिकता कही गई है। ७. अरनी,बिलावाँ मंदार आदि वृक्षों की संज्ञा। स्त्री० [हिं० तपना] १. तपे होने की अवस्था या भाव। २. किसी चीज के तपे हुए होने की वह स्थिति जिसमें अधिक ताप की अनुभूति होती है। तपिश। जैसे–कमरे में तपन है।
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तपन-कर  : पुं० [ष० त०] सूर्य की किरण। रश्मि।
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तपन-तनय  : पुं० [ष० त०] सूर्य का पुत्र। विशेष–कर्ण, यम, शनि, सुग्रीव, आदि सूर्य के पुत्र माने गये हैं।
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तपन-तनया  : स्त्री० [ष० त०] १. सूर्य की पुत्री, यमुना नदी। २. शमी वृक्ष।
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तपन-मणि  : पुं० [मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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तपनच्छद  : पुं० [ब० स०] मदार का पेड़।
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तपना  : अ० [सं० तपन०] १. अधिक ताप से युक्त होना। तप्त होना। जैसे–तंदूर या तवा तपना। २. तप या तपस्या करना। ३. मन ही मन बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना। संतप्त होना। उदाहरण–निरखि सहचरी को अति तपनौ, कहा लगी तब अपनौ सपनौ।–नंददास। ४. लोगों पर आतंक फैलाते हुए अपने तेज या प्रभुत्व का सिक्का जमाना। जैसे–वह कोतवाल अपने समय में बहुत तपा हुआ था। ५. केवल शान दिखाने के लिए आवश्यकता से अधिक प्रायः व्यर्थ के कामों में धन व्यय करना। जैसे–बाप के मरने पर कंजूस रईसों से लड़के खूब तपते हैं। ६. किसी काम में निरंतर लगे रहकर उसके लिए बहुत कष्ट भोगना। जैसे–आप तपे हुए देश-सेवी हैं। अ० [सं० तप] तपस्या करना। उदाहरण–-पहुँचे आनि तुरंत तपति भूपति जिहिं कानन।–रत्नाकर।
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तपनाराधन  : पुं० [सं० तपन-आराधन] तपस्या।
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तपनांशु  : पुं० [सं० तपन-अंशु० ष० त०] सूर्य की किरण। रश्मि।
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तपनि  : स्त्री=तपन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तपनी  : स्त्री० [हिं० तपना] १. वह स्थान जहाँ आग जलाकर तापी जाती है। कौड़ा। अलाव। क्रि० वि०–तापना। २. तप। तपस्या। ३. तपन। स्त्री० [सं० तपन+ङीष्] १. गोदावरी नदी। २. पाठा लता।
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तपनीय  : पुं० [सं०√तप्+अनीयर०] सोना। वि० तपने या तपाने के योग्य।
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तपनीयक  : पुं० [सं० तपनीय+कन्]–तपनीय।
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तपनेष्ट  : पुं० [तपन-इष्ट,ष०त०] ताँबा।
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तपनोपल  : पुं० [तपन-उपल, मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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तपःभूत  : वि० [सं० तृ० त०] जिसने तपस्या के द्वारा आत्मशुद्धि कर ली हो
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तपभूमि  : स्त्री०=तपोभूमि।
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तपराशि  : पुं=तपोराशि।
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तपरितु  : स्त्री० [हिं० तपना+सं० ऋतु] गरमी का मौसम।
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तपलोक  : पुं०=तपोलोक।
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तपवाना  : स० [हिं० तपाना का प्रे०] १. तपने या तपाने का काम दूसरे से कराना। २. किसी को बहुत अधिक और व्यर्थ करने में प्रवृत्त करना।
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तपवृद्ध  : वि=तपोवृद्ध।
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तपशील  : वि० [सं० तपःशील] तपस्या करनेवाला।
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तपश्चरण  : पुं० [सं० तपस्-चरम, ष० त०] तप। तपस्या।
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तपश्चर्या  : स्त्री० [सं० तपस्-चर्या, ष० त०] तपस्या। तप।
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तपस  : पुं० [सं०√तप्+असच्] १. चंद्रमा। २. सूर्य। ३. चिड़िया। पक्षी। पुं०=तपस्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री=तपस्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपसा  : स्त्री० [सं० तपस्या] १. तपस्या। तप। २. ताप्ती नदी का दूसरा नाम।
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तपःसाध्य  : वि० [सं० तृ० त०] जिसका साधन तपस्या से होता या हो सकता हो।
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तपसाली  : पुं० [सं० तपःशालिन्] तपस्वी।
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तपसी  : पुं० [तपस्वी] तपस्वी। स्त्री० [सं० तपस्या मत्स्य] बंगाल की खाड़ी में होनेवाली एक प्रकार की छोटी मछली।
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तपःसुत  : पुं० [सं०] युधिष्ठिर।
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तपसोमूर्ति  : पुं० [सं० अलुक्० स०] बारहवें मन्वंतर के चौथे सावर्णि के सप्तर्षियों में से एक। (हरिवंश)।
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तपस्तक्ष  : पुं० [सं० तपस्√तक्ष् (क्षीण करना)+अण्] इंद्र।
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तपःस्थल  : पुं० [सं० ष० त०] तप करने का स्थान। तपोवन।
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तपःस्थली  : स्त्री० [सं० ष० त०] काशी।
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तपस्पति  : पुं० [सं०, ष० त०] विष्णु।
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तपस्य  : पुं० [सं० तपस्+यत्] १. तप। तपस्या। २. तापस मनु के दस पुत्रों में से एक। ३. फाल्गुन का महीना। ४. कुंद का फूल।
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तपस्या  : स्त्री० [सं० तपस्+क्यङ+अ-टाप्] १. मन की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जानेवाले वे कठोर और कष्टदायक आचरण तथा नियम पालन जो एकांत में रहकर किए जाते हैं। तप। २. ब्रह्मचर्य। ३. अपराध, पाप आदि के प्रायश्चित स्वरूप किया जानेवाला ऐसा आचरण जिससे शरीर को कष्ट हो। ४. इंतजार या प्रतीक्षा। स्त्री०=तपसी (मछली)।
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तपस्वत्  : पुं० [सं० तपस्+मतुप्, वत्व] तपस्वी।
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तपस्वि-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] दौने का पौधा। दमनक।
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तपस्विता  : स्त्री० [सं० तपस्विन+तल्-टाप्] तपस्वी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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तपस्विनी  : स्त्री० [सं० तपस्विन+ङीष्] १. तपस्या करने वाली स्त्री। २. तपस्वी का स्त्री। ३. पतिव्रता और सती स्त्री। ४. वह स्त्री जो पति के मरने पर केवल सन्तान के पालन-पोषण के विचार से सती न हो और ब्रह्मचर्यपूर्वक शेष जीवन बितावे। ५. गोरखमुंडी। ६. कुकी नाम का वनस्पति। ७. जटामासी।
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तपस्वी (स्विन्)  : पुं० [सं० तपस्+विनि] [स्त्री० तपस्विनी] १. वह जो बराबर तपस्या करता रहता हो। तपी। २. तपसी (मछली)। ३. कपसोमूर्ति। का एक नाम। ४. घीकुआँर वि० दीन-हीन और दया का पात्र।
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तपा  : पुं० [हिं० तप] तपस्वी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तपाक  : पुं० [फा०] १. आवेश। जोश। २. व्यावहारिक क्षेत्र मे किसी के प्रति दिखाया जानेवाला उत्साह और प्रेम। जैसे–वे बहुत तपास से मुझसे मिले थे। मुहावरा–तपाक बदलना=आवेश में कार क्रोधपूर्वक व्यवहार करना। ३. तेजी। वेग।
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तपात्यय  : पुं० [सं० तप-अत्यय, ब० स०] (ग्रीष्म ऋतु के अन्त में आनेवाला) वर्षाकाल। बरसात।
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तपानल  : पुं० [सं० तपस्-अनल, मध्य० स०] १. तप की अग्नि अर्थात् तपस्या करने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला कष्ट। २. उक्त प्रकार से प्राप्त होनेवाला तेज।
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तपाना  : स० [हिं० तपना] १. ताप से युक्त करके खूब गरम करना। जैसे–आग में रखकर लोहा तपाना। विशेष–कुछ विशिष्ट धातुओं को तपाकर उनकी शुद्धता भी परखी जाती है। जैसे–सोना या चांदी तपाना। २. आग पर रखकर पकाना या पिघलाना। जैसे–घी तपाना। ३. तप करने पर शरीर को अनेक प्रकार के कष्ट देना। ४. किसी को दुःखी या संतप्त करना।
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तपारी  : पुं०=तपस्वी। उदाहरण–-दीर्घ तपारी देषि श्राप दीनो कुपि तामं।–चंदवरदाई।
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तपाव  : पुं० [हिं० तपना+आव (प्रत्यय)०] १. तपने या तपे हुए होने की अवस्था या भाव। २. तपाने की क्रिया या भाव। ३. ताप। गरमी।
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तपावंत  : पुं० [हिं० ताप+वंत (प्रत्यय)] तपस्वी।
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तपित  : भू० कृ०, [सं० तप्त] १. ताप से युक्त किया हुआ। तपाया हुआ। २. तपा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपिया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी पत्तियाँ औषध के काम में आती है। पुं० =तपस्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपिश  : स्त्री० [सं० तप से फा०] १. किसी चीज के तपने के फलस्वरूप फैलने वाला ताप। जैसे–जमीन की तपिश। २. बहुत बढ़ा हुआ ताप। ३. ग्रीष्म ऋतु में होनेवाली तपन।
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तपी  : पुं० [हिं० तप+ई (प्रत्यय)] १. तपस्वी। २. सूर्य।
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तपुरग्र  : वि० [सं० तपुस्-अग्र, ब० स०] [स्त्री० तपुरग्रा] जिसका अगला भाग तपा या तपाया हुआ हो।
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तपुरग्रा  : स्त्री० [सं० तपुरग्र+टाप्] बरछी या भाला।
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तपेदिक  : पुं० [फा० तप+अं० दिक] एक प्रसिद्ध संक्रामक रोग जिसमें रोगी को खाँसी और बुखार दीर्घकाल तक बना रहता है और जिसके फल-स्वरूप उसके फेंफड़े सड़ जाते है। क्षव। यक्ष्मा।
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तपेला  : पुं० [हिं० तपाना] [स्त्री० अल्पा० तपेली] १. पानी गरम करने का एक प्रकार का बड़ा पात्र। उदाहरण–तन मन कीन्हें बिरगाहि के तपेला है।–रत्नाकर। २. बड़ी भट्ठी। भट्ठा।
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तपेस्सा  : स्त्री०=तपस्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तपोज  : वि० [सं० तपस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. जो तप के फलस्वरूप या प्रभाव से उत्पन्न हुआ हो। २. अग्नि से उत्पन्न।
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तपोजा  : स्त्री० [सं० तपोज+टाप्] जल। पानी।
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तपोड़ी  : स्त्री० [देश०] काठ का एक प्रकार का बरतन। (लश०)। स्त्री० [पं० थपोड़ी] करतल-ध्वनि। ताली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपोदान  : पुं० [सं० तपस्-दान, ब० स०] महाभारत में वर्णित एक तीर्थ स्थल।
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तपोद्युति  : पुं० [सं० तपस्-द्युति, ब० स०] बारहवें मन्वंतर के एक ऋषि।
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तपोधन  : पुं० [सं० तपस्-धन, ब० स०] १. वह जिसका सारा धन या सर्वस्य तप या तपस्या ही हो, अर्थात् बहुत बड़ा तपस्वी। २. दौने का पौधा।
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तपोधना  : स्त्री० [सं० तपोधन+टाप्] गोरखमुंडी।
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तपोधर्म  : पुं० [सं० तपस्-धर्म, ब० स०] तपस्वी।
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तपोधाम(न्)  : पुं० [सं० तपस्-धामन्, ष० त०] १. तप या तपस्या करने के लिए उपयुक्त स्थान। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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तपोधृति  : पुं० [सं० तपस्-धृति, ब० स०] बारहवें मन्वन्तर के चौथे सावर्णि के सप्तऋर्षियों में से एक ऋषि।
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तपोनिधि  : पुं० [सं० तपस्-निधि, ब० स०] १. तप की निधि अर्थात् बहुत बड़ा तपस्वी। २. वह जो उक्त निधि का स्वामी हो, अर्थात् बहुत बड़ा तपस्वी।
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तपोनिष्ठ  : वि० [सं० तपस्-निष्ठा, ब० स०] सदा तप या तपस्या पर निष्ठा रखकर उसमें लगा रहनेवाला। पुं०=तपस्वी।
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तपोबन  : पुं०=तपोवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तपोबल  : पुं० [सं० तपस्-बल, मध्य, स] तप या तपस्या करने के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाला तेज या शक्ति
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तपोभंग  : पुं० [सं० तपस्-भंग, ष० त०] बाधा, विघ्न आदि के फलस्वरूप तप या तपस्या का बीच में ही भंग होना।
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तपोभूमि  : स्त्री० [सं० तपस्-भूमि, ष० त०] १. ऐसी भूमि या स्थान जहाँ तपस्या होती हो, अथवा जो तपस्या के लिए सब प्रकार से उपयुक्त हो। २. वह भूमि या देश जिसमें बहुत से तपस्वियों ने तपस्या की हो।
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तपोमय  : पुं० [सं० तपस्+मयट्]=ईश्वर।
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तपोमूर्ति  : पुं० [सं० तपस्-मूर्ति, ष० त०] १. वह जो मूर्तिमान् तप या तपस्वी हो अर्थात् बहुत बड़ा तपस्वी। २. परमात्मा। परमेश्वर। ३. बारहवें मन्वंतरके चौथे सावर्णि के सप्तऋर्षियों में से एक। (पुराण)।
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तपोमूल  : पुं० [सं० तपस्-मूल-ब० स०] तापस मनु के पुत्र का नाम।
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तपोरति  : पुं० [सं० तपस्-रति, ब० स०] १. तपस्वी। २. तापस मनु के एक पुत्र का नाम।
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तपोरवि  : पुं० [सं० तपस्-रवि, तृ० त०] बारहवें मन्वंतर के चौथे सावर्णि के समय सप्तऋर्षियों में से एक। (पुराण)।
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तपोराज  : पुं० [सं० तपस्-राजन्, ष० त०] चंद्रमा।
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तपोराशि  : पुं० [सं० तपस्-राशि, ष० त०] बहुत बड़ा तपस्वी।
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तपोलोक  : पुं० [सं० तपस्-लोक, मध्य० स०] पुराणानुसार ऊपर के सात लोकों में से छठा लोक जो जन-लोक के बाद और सत्य लोक के पहले पड़ता है।
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तपोवट  : पुं० [सं० तपस्-वट, ष० त०] प्राचीन भारत के मध्य में स्थित एक देश। ब्रह्मावर्त्त देश।
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तपोवन  : पुं० [सं० तपस्-वन, ष० त०] वह वन या आश्रम जिसमें बहुत से तपस्वी तपस्या करते हों।
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तपोवरणा  : वि० [सं० तपोवारणी] तप से च्युत करनेवाली। उदाहरण–-रे असुन्दर सुधर, घर तू एक तेरी तपोवरणा–निराला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तपोवृद्ध  : वि० [सं० तपस्-वृद्ध, तृ० त०] तपस्या में बढ़ा-चढ़ा। पुं० बढ़ा-चढ़ा। तपस्वी।
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तपोव्रत  : पुं० [सं० तपस्-वर्त, ष० त०] १. तपस्या संबंधी व्रत। २. [ब० स०] वह जिसने उक्त व्रत धारण किया हो।
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तपोऽश्न  : पुं० [सं० तपस्-आशन्, ब० स०] तापस मनु के पुत्र तपस्य।
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तपौनी  : स्त्री० [हिं० तपाना] १. तपाकर ठीक करने या उपयुक्त बनाने की क्रिया या भाव। २. मध्ययुग में ठगों की एक रसम जिसमें लूट-मार, हत्या आदि कर चुकने के बाद देवी की पूजा करके सब ठगों को प्रसाद रूप में गुड़ बाँटा जाता था। मुहावरा–(किसी को) तपौनी का गुड़ खिलाना=किसी नये आदमी को दीक्षित करके अथवा और कोई रसम करके अपनी मंडली या वर्ग में मिलाना। (परिहास)। ३. दे० ‘तपनी’।
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तप्त  : वि० [सं०√तप्(दाह)+क्त] १. (पदार्थ) जो तपा या तपाया हुआ हो। गरम। २. (व्यक्ति) जिसने खूब तपस्या की हो। ३. जिसे बहुत अधिक मानसिक कष्ट पहुँचा हो। परम दुःखी। ४. आवेश आदि के कारण विकल।
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तप्त-कच्छ्  : पुं० [ब० स०] एक व्रत जिसमें बराबर तीन दिन तक गरम पानी, गरम दूध, या गरम घी पीया जाता है और गरम श्वास बराबर निकाला जाता है।
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तप्त-पाषाण  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक।
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तप्त-बालुक  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक।
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तप्त-मुद्रा  : पुं० [कर्म० स०] वह चिन्ह जो वैष्णव संप्रदाय के लोग धातुओं के गरम ठप्पे से शरीर पर दगवाते है।
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तप्त-रूपक  : पुं० [कर्म० स०] तपाई हुई (और फलतः साफ) चाँदी।
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तप्त-शूर्मी  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक जिसमें जीवों को लोहे के गरम खंभों का आलिंगन करना पड़ता है।
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तप्त-सुरा-कुंड  : पुं० [सं० तप्त-सुरा,कर्म०स०तप्त-सुरा-कुंड,ब०स०] पुराणानुसार एक नरक।
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तप्तक  : पुं० [सं० तप्त+कन्] कड़ाही।
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तप्तकुंड  : पुं० [कर्म० स०] वह जलाशय जिसका जल प्राकृतिक रूप से ही गरम रहता हो।
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तप्तकुंभ  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक जिसमें जीवों को तपे हुए तेल के कड़ाहों में फेंका जाता है।
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तप्तमाष  : पुं० [ब० स०] प्राचीन काल की एक परीक्षा जिसमें तपे हुए तेल में अभियुक्त के हाथ के उँगलियों डलवाकर यह देखा जाता था कि वह अपरधी या दोषी है या नही। यदि उसकी उँगलियाँ जल जाती थी, तो वह अपराधी समझा जाता था और यदि उँगलियाँ नहीं जलती थी तो वह निर्दोष माना जाता था।
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तप्ता(प्तृ)  : वि० [सं०√तप्(दाह)+तृच्] तप्त करनेवाला।
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तप्तायन  : पुं=तप्तायनी।
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तप्तायनी  : स्त्री० [सं० तप्त-अयनी,ष०त०] पृथ्वी,जो दुःखी प्राणियों का निवास-स्थान मानी गयी है।
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तप्ति  : स्त्री० [सं०√तप्+क्तिन्] तप्त होने की अवस्था,गुण या भाव। तपा। गरमी।
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तप्प  : पुं० =तप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तप्य  : वि० [सं०√तप्+यत्] १. तपाने योग्य। २. जो तपा करके शुद्ध किया जा सके। ३. तप करनेवाला। पुं० शिव।
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तफ़ज्जुल  : पुं० [अ०] श्रेष्ठता। बड़प्पन
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तफतीश  : स्त्री० [अ०] छान-बीन, जाँच-पड़ताल या पूछ-ताछकर किसी भेद या रहस्यपूर्ण बात अथवा उसके मूल कारण का पता लगाना।
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तफरका  : पुं० [अ० तफर्फः] आपस में होनेवाला वैर-विरोध मूलक अन्तर। मन-मुटाव। क्रि० प्र०–डालना।–पड़ना।
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तफरीक  : स्त्री० [अ०] १. फरक होने की अवस्था या भाव। अन्तर। २. भिन्नता। ३ अलग होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य। ४. बँटवारा। विभाजन। ५. गणित में घटाने या बाकी निकालने की क्रिया। क्रि० प्र०–निकालना।
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तफरीह  : स्त्री० [अ०] १. मन-बहलाव। मनोविनोद। २. मन बहलाने के लिए इधर-उधर घूमना-फिरना। सैर। ३. मन में होनेवाली प्रफुल्लता। ४. आपस में होनेवाला हास परिहास। हँसी-दिल्लगी।
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तफ़रीहन  : अव्य० [अ०] १. मन बहलाने की निमित्त। २. हँसी-दिल्लगी के लिए।
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तफ़सीर  : स्त्री० [अ०] १. किसी क्लिष्ट गहन या दुरूह पद या वाक्य का सरल शब्दों में किया हुआ विवेचन या स्पष्टीकरण। टीका। २. कुरान की आयतों की व्याख्या।
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तफसील  : स्त्री० [अ०] १. विस्तृत वर्णन। २. कैफियत। विवरण। ३. कठिन पदों, वाक्यों आदि की टीका या स्पष्टीकरण। ४. ब्योरेवार बनाई हुई तालिका। सूची।
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तफावत  : पुं० [अ०] १. अन्तर। फरक। २. दूरी। फासला। ३. वैर-विरोध आदि के कारण आपस में होनेवाला अन्तर। मन-मुटाव।
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तब  : अव्य० [सं० तदा] १. किसी उल्लिखित या विशिष्ट परिस्थिति या समय में। जैसे–(क) तब हम वहाँ रहते थे। (ख) इतना हो जाय, तब तुम्हारा काम करूँगा। २. इसके पश्चात् या तुंरत बाद। जैसे–वहाँ तब निस्तब्धता छा गई। ३. इस कारण या वजह से। जैसे–मुझे जरूरत थी, तब तो मैंने माँगा था।
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तबक  : पुं० [अ०] १. परत। तह। २. चाँदी, सोने आदि धातुओं को खूब कूटकर बनाया हुआ बहुत पतला पत्तर जो औषधों आदि में मिलाया और शोभा के लिए मिठाइयों आदि पर लगाया जाता है। वरक। ३. एक प्रकार की चौड़ी और छिछली थाली। ४. वह उपचार जो मुसलमान स्त्रियाँ भूत-प्रेत और परियों की बाधा से बचने के लिए करती है। क्रि० प्र०–छोड़ना। ४. इस्लामी, पौराणिक कथाओं के अनुसार पृथ्वी के ऊपर और नीचे के तल या लोक। ५. रक्त-विकार आदि के कारण शरीर पर पड़नेवाला चकत्ता। ६. घोड़ो का एक रोग जिसमें उनके शरीर के किसी भाग में सूजन हो जाती और चकता पड़ जाता है।
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तबक-फाड़  : पुं० [अ० तबक+हिं० फाड़] कुश्ती का एक पेंच।
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तबकगर  : पुं० [अ० तबक+फा० गर] वह व्यक्ति जो सोने-चाँदी आदि के वरक बनाता हो। तबकिया।
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तबकड़ी  : स्त्री० [अ० तबक+डी (प्रत्यय)] छोटी रिकाबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तबका  : पुं० [अ० तबकः] १. पृथ्वी या भूमि का कोई बड़ा खंड या विभाग। भू-खंड। २. पृथ्वी के ऊपर और नीचे के तल या लोक। ३. परत। तह। ४. मनुष्यों का वर्ग या समूह।
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तबकिया  : वि० [हिं० तबक] तबक संबंधी। जिसमें तबक या परतें हों। जैसे–तबकिया हरताल। पुं०=तबकगर। (देखें)।
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तबकिया-हरताल  : पुं० [हिं० तबकिया+सं० हरताल] एक प्रकार की हरताल जिसके टुकड़ों में तबक या परतें होती हैं।
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तबदील  : वि० [अ०] [भाव० दबदीली] १. (पदार्थ) जिसे परिवर्तित कर या बदल दिया गया हो। २. (व्यक्ति) जो एक स्थान या पद से दूसरे स्थान या पद पर भेजा गया हो।
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तबदीली  : स्त्री० [अ०] १. तबदील होने की अवस्था या भाव। परिवर्तन। २. एक स्थान या पद से दूसरे स्थान या पद पर जाना दबादला।
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तबद्दल  : पुं=तबदीली।
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तबर  : पुं० [फा०] १. कुल्हाड़ी। टाँगी। २. कुल्हाड़ी के आकार का लड़ाई का एक हथियार। परशु। पुं० [देश०] मस्तूल के ऊपरी भाग में लगाया जानेवाला पाल (लश०)।
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तबरदार  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिसके पास तबर (कुल्हाड़ी) हो या जो तबर चलाना जानता हो।
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तबरदारी  : स्त्री० [फा०] तबर या कुल्हाड़ी चलाने की क्रिया या भाव।
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तबर्रा  : पुं० [अ०] १. घृणा। नफरत। २. वे घृणा सूचक दुर्वचन जो शीया लोग मुहम्मद साहब के कुछ मित्रों के संबंध में (सुन्नियों की ‘यदहे सहाबा’ के उत्तर में) कहते हैं। ३. उक्त दुर्वचनों के पद या गीत।
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तबल  : पुं० [फा०] १. बड़ा ढोल। २. डंका। नगाड़ा। उदाहरण–तबल बाज तिण ही समै, निथ से सुभट अपार।-जटमल।
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तबलची  : पुं० [अ० तबलः+ची (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो तबला बजाने का काम करता हो। तबलिया।
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तबला  : पुं० [अ० तबलः] १. ताल देने का एक प्रसिद्ध बाजा जिस पर चमड़ा मढ़ा होता है, और जो साधारणतः डुग्गी या बायाँ नामक दूसरे बाजे के साथ बजाया जाता है। विशेष–तबला और बा० याँ दोनों पास-पास रखेजाते हैं, और तबला दाहिने हाथ से और बायां बाएँ हाथ से बजाया जाता है। मुहावरा–तबला खनकना या ठनकना=ऐसा नाच-गाना होना जिसके साथ तबला भी बजता हो। तबला मिलाना-तबले का बंधन या बद्धी आवश्यकतानुसार कसकर या ढीली करके ऐसी स्थिति उत्पन्न करना जिसमें तबले के ठीक स्वर निकलें।
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तबलिया  : पुं० [अ० तबलः+इया (प्रत्यय)] दे० ‘तबलची’।
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तबलीग  : पुं० [अ०] १. किसी के पास कुछ पहुँचाना। २. अपने धर्म का प्रचार करना। ३. दूसरों को दीक्षित करके अपने धर्म का अनुयायी बनाना।
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तबस्सुम  : पुं० [अ०] मधुर या हलकी हंसी। मुस्कराहट।
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तंबा  : स्त्री० [सं०√तम्बू (जाना)+अच्-टाप्] गौ। गाय। पुं० [फा० तंबान] [स्त्री० अल्पा० तंबी] ढीली मोहरोवाला एक तरह का पाजामा।
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तंबाकू  : पुं०=तमाकू।
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तबाख  : पुं० [अ० तबाक] बड़ी काली परात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तबाखी  : पुं० [हिं० तबाख] थाल या परात में रखकर सौदा बेचनेवाला।
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तबाखी-कुत्ता  : पुं० [हिं०] ऐसा साथी जो अपना स्वार्थ सिद्ध होने के समय तक साथ दे और दुर्दिन में साथ छोड़ दे।
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तबादला  : पुं० [अ० तबादलः] १. लेन-देन के क्षेत्र में होनेवाला चीजों का विनिमय। २. रूप आदि में होनेवाला परिवर्तन ३. व्यक्ति को एक स्थान या पद से दूसरे स्थान या पद पर भेजा जाना। अंतरण। बदली।
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तबाबत  : स्त्री० [अ०] तबीब अर्थात् चिकित्सक काम या पेशा। चिकित्सा का व्यवसाय।
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तंबार  : स्त्री० [हिं० ताव] १. थकावट, रोग आदि के कारण सिर में आनेवाला चक्कर। घमटा। २. ज्वरांश। हरारत।
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तबाशीर  : पुं० [सं० तवक्षीर] बंसलोचन।
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तबाह  : वि० [फा०] [भाव० तबाही] १. जो बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट या ध्वस्त हो गया हो। जैसे–भूकंप ने नगरी को तबाह कर डाला। २. (व्यक्ति) जिसकी बहुत बड़ी हानि हुई हो अथवा जिसका सर्वस्य लुट गया हो।
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तबाही  : स्त्री० [फा०] १. तबाह करने या होने की अवस्था या भाव। २. बरबादी। विनाश। मुहावरा–तबाही खाना=जहाज का टूट-फूट कर रद्दी होना। (लश०)।
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तबिअत  : स्त्री०=तबियत।
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तंबिया  : वि० [हिं० ताँबा+इया (प्रत्यय)] ताँबे का बना हुआ। पुं० १. ताँबे या पीतल का बना हुआ तरकारी आदि बनाने का चौड़े मुँहवाला एक तरह का पात्र। तांबिया। २. तसला।
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तँबियाना  : अ० [हिं० ताँबा] १. किसी पदार्थ का ताँबे के रंग का हो जाना। पीला पड़ना। जैसे–आँखें तांबियाना। २. खाद्य पदार्थ का कुछ समय तक ताँबे के बरतन में रखे रहने पर ताँबे की गंध और स्वाद से युक्त होना। जैसे–तरकारी या दही तांबियाना।
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तबीअत  : स्त्री० [अ०] १. स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी की शारीरिक या मानसिक स्थिति। मिजाज। मुहावरा–तबीअत खराब होना=शरीर अस्वथ्य या रोगी होना। बीमार होना। जैसे–इधर महीनों से उनकी तबीयत खराब है। तबीअत बिगड़ना=(क) कै या मिचली मालूम होना। (ख) अस्वस्थता या रोग का आक्रमण होता हुआ जान पड़ना। २. आचरण या व्यवहार की दृष्टि से किसी की प्रवृत्ति या मनोवृत्ति। मन की रूझान। ३. जी। मन। हृदय। मुहावरा–(किसी पर) तबीअत आना=मन में किसी के प्रति अनुराग या प्रेम उत्पन्न होना। (किसी चीज पर) तबीअत आना=मन में कोई चीज पाने या लेने की इच्छा होना। तबीअत फड़क उठना या जाना=कोई अच्छी चीज या बात देखकर चित्त या मन बहुत अधिक प्रसन्न होना। तबीयत पाना-अच्छे स्वभाववाला होना। जैसे–उन्होंने अच्छी तबीअत पाई है। (किसी काम या बात से) तबीअत भर जाना=मन में अनुराग, कामना आदि न रह जाना और विरक्ति सी उत्पन्न होना। (अपनी) तबीअत भरना=अपनी तसल्ली या समाधान करना। जैसे–पहले मकान देखकर अपनी तबीअत भर लो, तब उसे लेने का विचार करना। (किसी की) तबीयत भरना=किसी का पूरा संतोष या समाधान करना। (किसी काम में) तबीयत लगाना=कोई काम करने में चित्त, ध्यान या मन लगना। जैसे–लिखने-पढ़ने में तो उसकी तबीअत ही नहीं लगती। (किसी से) तबीअत लगाना=अनुराग या प्रेम करना। ४. बुद्धि। समझ। मुहावरा–तबीअत पर जोर डालना या देना=अच्छी तरह मन लगाते हुए समझादारी से काम लेना। जैसे–जरा तबीयत पर जोर डालोगे तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आवेगा। तबीअत लड़ाना-तबीअत पर जोर डालना।
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तबीअतदार  : वि० [अ० तबीयत+फा० दार] [भाव० तबीअतदारी] १. अच्छी तबीयत या बुद्धिवाला। २. सहज में औरों से मेल-मिलाप करने और रसपूर्ण कामों या बातों में सम्मिलित होनेवाला। भावुक। रसिक।
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तबीअतदारी  : स्त्री० [अ०तबीअत+फा०दारी] १.तबीअतदार होने की अवस्था या भाव। २. समझदारी। ३. भावुकता। रसिकता।
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तबीब  : पुं० [अ०] १. यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार जड़ी-बूटियों आदि के द्वारा इलाज कनरे वाला चिकित्सक। हकीम। २. चिकित्सक। वैद्य।
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तबीयत  : स्त्री=तबीअत।
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तंबीर  : पुं० [सं०√तंबू (जाना)+ईरन् (बा०)] ज्योतिष का एक योग।
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तंबीह  : स्त्री० [अ०] १. किसी की भलाई के लिए अथवा भविष्य में होनेवाले किसी अपकार या अहित में सावधान रहने के लिए उसे कही जानेवाली बात या दी जानेवाली सूचना। २. दंड। सजा।
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तंबू  : पुं० [सं० तनना] १. मोटे कपड़े, टाट आदि को बाँसों, खूँटी, रस्सियों आदि की सहायता से तानकर बनाया हुआ अस्थायी आश्रय स्थान। खेमा। क्रि० प्र०–खड़ा करना। तानना। २. एक तरह की मछली।
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तंबूर  : पुं० [फा०] एक तरह का छोटा ढोल। पुं०=तंबूरा।
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तंबूरची  : पुं० [फा० तंबूर+ची (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो तंबूरा बजाता हो।
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तंबूरा  : पुं० [हिं० तानपूरा] सितार की तरह का तीन तारोंवाला एक बाजा जो स्वर में सहायता देने के लिए बजाया जाता है। तानपूरा।
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तंबूरातोप  : स्त्री० [हिं० तंबूरा+तोप] एक तरह की तंबूरे के आकार की बड़ी तोप।
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तंबूल  : पुं०=तांबूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तबेला  : पुं० [अ० तवेलः] वह घिरा हुआ स्थान जहाँ पशु बाँधे जाते हों। अस्तबल। मुहावरा–तबेले में लत्ती चलना=कोई विशिष्ट काम करनेवाले व्यक्तियों मे आपस में लड़ाई-झगड़ा होना। पुं० [हिं० ताँबा] ताँबे का बना हुआ एक प्रकार का बड़ा पात्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंबोरा  : पुं० १. दे० तँबोली। २. दे० ‘तंबूरा’।
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तबोरी  : स्त्री० [सं० तांबोल या हिं० तंबूल] लगाया हुआ पान। उदाहरण–-अधर अधर सों बीज तबोरी।–जायसी।
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तंबोल  : पुं० [सं० ताम्बूल] पान। उदाहरण–मुख तंबोल रँग धारहिं रसा।-जायसी। पुं० =तमोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तंबोलिन  : स्त्री० ‘तँबोली’ का स्त्री० रूप।
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तँबोलिया  : स्त्री० [सं० तंबूल+हिं० इया (प्रत्यय)] एक तरह की पान के आकार की मछली। पुं=तंबोली।
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तँबोली  : पुं० [हिं० तंबोल+ई (प्रत्यय)] वह जो पान लगाकर बेचता हो। पान का व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति। तमोली।
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तब्बर  : पुं० १.=तबर। २.=टावर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तंभ  : पुं=स्तंभ।
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तंभ-कर  : वि० [सं०] १. रोकने वाला। रोधक। २. जड़ता उत्पन्न करने वाला। जड़ बनाने वाला।
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तंभन  : पुं०=स्तंभन।
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तंभावती  : स्त्री० [सं०] रात के दूसरे पहर में गाई जानेवाली संपूर्ण जाति की एक रागिनी।
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तभी  : अव्य० [हिं० तब+ही] १. उसी वक्त। उसी समय। २. किसी उल्लिखित या विशिष्ट अवस्था या स्थिति में। जैसे–तभी तो आप भी आये हैं। ३. उसी कारण या वजह से।
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तंभोर  : पुं० [सं० तांबूल] पान।
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तम  : पुं० [सं०√तम (विकल होना)+क] १. अधंकार। अँधेरा। २. कालिख। कालिमा। ३. पाप। ४. नरक। ५. अज्ञान। अविद्या। ६. माया। मोह। ७. राहु का एक नाम। ८. क्रोध। गुस्सा। ९. पैर का अगला भाग। १॰. तमाल वृक्ष। ११. वराह। सूअर। १२. प्रकृति के तीन गुणों मे से अंतिम गुणों (शेष दो गुण सत्त्व और रज हैं)। विशेष–इसी गुण की प्रबलता के काम, क्रोध, हिंसा आदि की प्रवृत्ति मानी गई है। वि० १. काला। २. दूषित। ३. बुरा। प्रत्यय-एक प्रत्यय जो संस्कृत विशेषणों के अंत में लगकर सबसे बढ़कर का अर्थ देता है। जैसे–अधिकतम, श्रेष्ठतम।
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तम-प्रभ  : पुं० [सं० ब० स] पुराणानुसार के नरक।
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तमअ  : स्त्री० [अ०] १. लालच। लोभ। २. इच्छा। चाह।
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तमक  : स्त्री० [हिं० तमकना] १. तमकने की क्रिया या भाव। २. आवेश। जोश। ३. तीव्रता। तेजी। ४. क्रोध। गुस्सा। पुं० दे० ‘तमक श्वास’ (रोग)।
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तमक-श्वास  : पुं० [सं०√तम्+बुन्-अक, तमक-श्वास, कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार श्वास रोग का एक भेद जिसमें दम फूलने के साथ-साथ बहुत प्यास लगती है, पसीना आता है और मतली तथा घबराहट होती है।
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तमकनत  : स्त्री० [अ०] १. अधिकार। जोर। वश। २. गौरव। प्रतिष्ठा। ३. गौरव या प्रतिष्ठा का अनुचित प्रदर्शन। ४. आडंबर। टीम-टाम। ५. अभिमान। घमंड।
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तमकना  : अ० [अ०] १. आवेश या क्रोधपूर्वक बोलने को उद्यत होना। उदाहरण–-सो सुनि तमक उठी कैकेई।–तुलसी। २. क्रोध के कारण चेहरा लाल होना। तमतमाना।
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तमकाना  : स० [हिं० तमकना का स०] १. किसी को तमकने में प्रवृत्त करना। २. क्रोध के आवेश में कुछ (हाथ आदि) उठाना। उदाहरण–दोउ भुजदंड उद्दंड तोलि ताने तमकाए।–रत्नाकर।
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तमंग  : पुं० [सं०] १. रंग-मंच। २. मंच।
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तमंगक  : पुं० [सं०] छत या छाजन का बाहर निकला हुआ भाग। छज्जा।
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तमगा  : पुं० [तृ तमग] पदक। (मेडल)।
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तमगुन  : पुं=तमोगुण।
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तमगेही  : वि० [सं० तम+हिं० गेही] अंधकार रूपी घर में रहनेवाला। पुं० पतंगा। उदाहरण–-दीपक कहाँ कहाँ तमगेही।–नूरमुहम्द।
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तमचर  : पुं० [सं० तमीचर] १. राक्षस। निशाचर। २. उल्लू। ३. पक्षी। वि० तम या अँधेरे में विचरण करनेवाला।
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तमंचा  : पुं० [फा० तबानच्] १. पुरानी चाल की एक प्रकार का छोटी बन्दूक। (आज-कल की पिस्तौल इसी का विकसित रूप है) २. वे लंबे पत्थर जो दरवाजे के दोनों ओर मजबूती के लिए खड़े बल में लगाये जाते हैं।
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तमचुर  : पुं० [सं० ताम्रचूड] मुरगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमचोर  : पुं०=तमचुर।
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तमच्छन्न  : वि० =तमाच्छन्न।
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तमजित्  : वि० [सं०तम√जि(जीतना)+क्विप्] अंधकार को जीतनेवाला। उदाहरण–तेजस्वी हे तमजिज्जीवन।–निराला।
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तमतमाना  : अ० [सं० ताम्र हिं, ताँबा] [भाव० तमतमाहट] १. अधिक ताप के कारण किसी चीज का लाल होना। २. आवेश या क्रोध में चेहरा लाल होना। ३. चमकना।
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तमतमाहट  : स्त्री० [हिं० तमतमाना] तमतमाने की अवस्था या भाव।
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तमता  : स्त्री० [सं० तम+तल्-टाप्] १. तम का भाव। २. अंधकार। अँधेरा। ३. कालापन।
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तमद्दुन  : पुं० [अ०] १. नगर में रहना। नगर-निवास। २. नागरिकता। ३. सभ्यता। संस्कृति।
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तमन  : पुं० [सं०√तम+ल्युट्-अन] ऐसी स्थिति जिसमें सांस लेना कठिन हो जाता हो। दम घुटने की अवस्था।
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तमना  : अ०=तमकना।
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तमन्ना  : स्त्री० [अ०] आकंक्षा। कामना।
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तमःप्रभ  : पुं० [सं० तमस्-प्रवेश, स० त०] एक नरक।
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तमःप्रभा  : स्त्री०=तमः प्रभ।
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तमप्रवेश  : पुं० [सं० तमस्-प्रवेश, स० त०] १. अंधकारपूर्ण स्थिति में प्रवेश करना या होना। २. ऐसी मानसिक स्थिति जिसमें बुद्धि कुछ काम न करती हो।
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तमयी  : स्त्री० [सं० तममयी] रात।
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तमर  : पुं० [सं० तम√रा (दान)+क] बंग। पुं० [सं० तम] अन्धकार। अँधेरा।
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तमरंग  : पुं० [देश०] एक प्रकार का नीबू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमराज  : पुं० [सं० तम√राज् (चमकना)+अच्] एक तरह का खाँड़।
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तमलूक  : पुं०=तामलूक।
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तमलेट  : पुं० [अ० टम्बलर] १. लुक फेरा हुआ टीन या लोहे का बरतन। २. फौजी सिपाहियों का लोटा।
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तमसा  : स्त्री० [सं० तमस्+अच्-टाप्] इस नाम की तीन नदियाँ एक जो बलिया के पास गंगा में मिलती है, दूसरी जो अरमकंटक से निकल कर इलाहाबाद में सिरसा के पास गंगा में मिलती है और तीसरी जो हिमालय के पहाड़ी प्रदेशों में बहती है टौस।
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तमस्  : पुं० [सं०√तम् (विकल होना)+असच्] १. अंधकार। अँधेरा। २. अज्ञान। अविद्या। ३. प्रकृति का तम नामक तीसरा गुण। ४. नगर। शहर। ५. कूआँ। ६. तमसा नदी।
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तमस्क  : पुं० [सं० तमस्+कन्] अंधकार।
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तमस्कांड  : पुं० [ष० त०] घोर अंधकार।
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तमस्तति  : स्त्री० [ष० त०] घोर अंधकार।
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तमस्तूर्य  : पुं० [ष० त०] तम का सूर्य। अँधेरे कू तुरही। उदाहरण–अस्तमिन आजरे तमस्तूर्य दिङ मंडल।–निराला।
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तमस्वती  : स्त्री० [सं० तमस्+मतुप्+ङीप्] अँधेरी रात।
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तमस्विनी  : स्त्री० [सं० तमस्विन्+ङीष्] १. अँधेरी रात। २. रात्रि। ३. हल्दी।
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तमस्वी(स्विन्)  : वि० [सं० तमस्+विनि] अंधकारपूर्ण।
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तमस्सुक  : पुं० [अ०] १. वह लेख्य जो ऋण लेने वाला महाजन को लिखकर देता है। २. किसी प्रकार का विधिक लेख्य। दस्तावेज।
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तमहँड़ी  : स्त्री० [हिं० ताँबा+हाँड़ी] तांबे की बनी हुई एक तरह की छोटी हाँड़ी।
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तमहर  : पुं० [सं० तमोहर] तम अर्था्त अंधकार रहने या दूर करनेवाला।
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तमहाया  : वि० [सं० तम+हि० हाया (प्रत्यय)] १. अंधकारपूर्ण। २. तमोगुण से युक्त।
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तमहीद  : स्त्री० [अ०] १. प्राक्कथन। प्रस्तावना। क्रि० प्र०–बाँधना। २. ग्रंथ आदि की भूमिका।
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तमा  : स्त्री० [सं० तम+अच–टाप्] रात। रात्रि। रजनी। पुं० [सं० तामाः तमस्] राहु। स्त्री० [अ० तमअ] लालच। लोभ।
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तमाई  : स्त्री० [सं० तम+हिं० आई (प्रत्यय)] तम। अंधकार। अँधेरा। उदाहरण–कहै रत्नाकर औं कंचन बनाई काम ज्ञान अबिमान की तमाई बिनसाई कै।–रत्नातकर। स्त्री० [देश०] खेत जोतने के पूर्व उसकी घास आदि साफ करना।
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तमाकू  : पुं० [पुर्त्त, टबैको, सं० ताम्रकूट] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके पत्ते अनेक रूपों में नशे के लिए काम में लाये जाते हैं। २. उक्त पौधे का पत्ता। ३. उक्त पत्तों से तैयार की हुई एक प्रकार की गीली पिंडी जिसे चिलम पर रख और सुलगाकर उसका धूआँ पीते हैं। ४. दे० ‘सुरती’।
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तमाँचा  : पुं०=तमाचा।
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तमाचा  : पुं० [फा० तवनचः या तबानुचः] हथेली विशेषतः उसकी पाँचों सटी हुई उगलियों से किसी के गाल पर किया जानेवाला जोर का आघात। थप्पड़। क्रि० प्र०–जड़ना।–देना।–मारना-लगाना।
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तमाचारी(रिन्)  : वि० [तमा√चर् (चलना)+णिनि] अंधकार में विचरण करनेवाला। पुं० राक्षस।
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तमादी  : वि० [अ०] जिसकी अवधि समाप्त हो चुकी हो। अवधि-बाधित। (बार्ड बाइ लिमिटेशन)। स्त्री० १. किसी काम या बात की मीयाद अर्थात् अवधि का बीत जाना। २. विधिक क्षेत्रों में वह अवधि बीत जाना या मीयाद गुजर जाना जिसके अन्दर दीवानी न्यायालय में कोई अभियोग उपस्थित किया जाना चाहिए।
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तमान  : पुं० [१] तंग मोहरीवाला एक प्रकार का पाजामा।
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तमाम  : वि० [अ०] १. कुल। सब। समस्त। २. पूरा। सारा। ३. खतम। समाप्त। मुहावरा–(किसी का) काम तमाम करना=किसी को जान से मार डालना
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तमामी  : स्त्री० [फा०] एक तरह का देशी रेशमी कपड़ा जिस पर कलाबत्तू की धारियाँ बनी होती हैं।
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तमारि  : पुं० [तम-अरि, ष० त०] सूर्य। स्त्री० दे० ‘तँवारि’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमाल  : पुं० [सं०√तम्+कालन्] १. एक प्रकार का बड़ा सदाबहार पेड़, जिसके दो भेद है-साधारण तमाल और श्याम तमाल। २. एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिससे गोंद निकलता है। इस गोंद से कहीं-कहीं सिरका भी बनता है। उनवेल। मन्होला। ३. काले खैर का पेड़। ४. वरुण नामक वृक्ष। ५. तिलक का पेड़। ६. तेजपत्ता। ७. बाँस की छाल। ८. पुरानी चाल की एक प्रकार की तलवार।
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तमालक  : पुं० [सं० तमाल+कन्] १. तेजपत्ता। २. तमाल।
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तमालिका  : स्त्री० [सं० तमाली+कन्-टाप् हृस्व] १. भुँईआवला। २. ताम्रवल्ली लता। ३. काले खैर का पेड़। ४. ताम्रलिप्त देश।
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तमाली  : स्त्री० [सं० तमाल+ङीष्] १. वरुण वृक्ष। २. ताम्रावल्ली लता।
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तमाशगीर  : पुं० [अ० तमाशः+फा० गीर] [भाव तमाशागीरी] १. वह जो तमाशा देखना पसंद करता हो। २. दे० ‘तमाशबीन’।
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तमाशबीन  : पुं० [अ० तमाशः+फा० बीन (देखनेवाला)] [भाव० तमाशबीनी] १. तमाशा देखनेवाला व्यक्ति। २. वेश्यागामी। रंडीबाज।
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तमाशबीनी  : स्त्री० [हिं० तमाशबीन+ई (प्रत्यय)] १. तमाशा देखने की क्रिया या भाव। २. रंडीबाजी।
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तमाशा  : पुं० [अ० तमाशः] १. कोई ऐसा अनोखा विलक्षण या मनोरंजक काम या बात जिसे देखने में लोगों का जी रमे। चित्त को प्रसन्न करनेवाला दृश्य। २. इस प्रकार दिखाया जानेवाला खेल या प्रदर्शित की जानेवाली घटना या दृश्य। ३. ऐसा कार्य जिसका संपादन सरलता या सुगमता से किया जा सके। जैस–लेख लिखना कोई तमाशा नही हैं। ४.बहुत बढ़िया या हास्यास्पद बात या वस्तु। जैसे–सभ क्या है, तमाशा है। ५. पुरानी चाल की एक तरह का तलवार।
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तमाशाई  : पुं० [अ०] १. वह जो तमाशा देख रहा हो। तमाशा देखनेवाला। २. तमाशा दिखलाने वाला व्यक्ति।
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तमासा  : पुं=तमाशा।
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तमाहृय  : पुं० [सं० तम-आहृग, ब० स] तालीश-पत्र।
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तमि  : पुं० [सं०√तम् (खेद)+इन्] १. रात। रात्रि। २. हल्दी।
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तमिनाथ  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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तमिल  : पुं० [?] १. दक्षिण भारत का प्रसिद्ध देश। २. उक्त देश में बसनेवाली एक जाति जो द्रविड़ जो जातियों के अंतर्गत हैं। स्त्री० उक्त जाति (और देश) की बोली या भाषा।
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तमिस्र  : वि० [सं० तमस्+र, नि, सिद्धि] [स्त्री० तमिस्रा] अंधकारपूर्ण। पुं० १. अंधकार। अँधेरा। २. क्रोध। गुस्सा। ३. पुराणानुसार एक नरक।
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तमिस्र-पक्ष  : पुं० [मध्य० स०] चांद्र मास का अँधेरा पक्ष। कृष्ण-पक्ष।
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तमिस्रा  : स्त्री० [सं० तमिस्र+टाप्] अँधेरी रात।
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तमी  : स्त्री० [सं० तमि+ङीष्] १. रात। २. हल्दी। पुं० [सं० तमीचर] राक्षस।
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तमी-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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तमीचर  : वि० [सं० तमी√चर्+(गति)+ट] १. जो अंधाकर में चलता हो। २. रात के समय विचरण करनेवाला। पु० राक्षस।
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तमीज  : स्त्री० [अ० तमीज] १. भले-बुरे की पहचान। विवेक। २. किसी चीज या बात को परखने की बुद्दि या योग्यता। ३. कोई काम अच्छी तरह से करने की जानकारी या योग्यता। ४. आचार, व्यवहार आदि के पालन का उचित ज्ञान या बोध।
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तमीश  : पुं० [सं० तमी-ईश, ष० त०] चंद्रमा।
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तमु  : पुं०=तम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमूरा  : पुं०=तंबूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमूल  : पुं०=तांबूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमेड़ा  : पुं० [सं० ताम्र+भांड] [स्त्री० अल्पा० तमेड़ी] ताँबे का एक प्रकार का बड़ा गोलाकार बरतन।
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तमेरा  : पुं० [हिं० ताँबा+एरा (प्रत्यय)] वह जो ताँबे के बरतन आदि बनाने के काम करता हो।
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तमोगुण  : पुं० [सं० तमस्-गुण, ष० त०] सृष्टि को अस्तित्व में लाने वाले तीन गुणों या अवयकों में से एक (अन्य दो गुण, सतोगुण और रजोगुण है) जो अंधकार, अज्ञान, भ्रम, क्रोध, दुःख आदि का कारण होता है।
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तमोगुणी(णिन्)  : वि० [सं० तमोगुण+इनि] जिसमें सतोगुण तथा रजोगुण की अपेक्षा तमोगुण की अधिकता हो। फलतः अज्ञानी या अभिमानी।
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तमोघ्न  : वि० [सं० तमस्√हन् (मारना)+टक्] तम अर्थात् अन्धकार नाश करनेवाला। पुं० १. सूर्य। २. चंद्रमा। ३. दीपक। दीआ। ४. अग्नि। आग। ५. ज्ञान। ६. विष्णु। ७. शिव। ८. गौतम बुद्ध। ९. बौद्ध धर्म के आचार और नियम।
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तमोज्योति(स्)  : पुं० [सं० तमस्-ज्योतिस्, ब० स०] जुगनूँ।
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तमोदर्शन  : पुं० [सं० तमस्-दर्शन, ब० स०] वैद्यक में पित्त के प्रकोप से होनेवाला ज्वर।
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तमोनुद  : पुं० [सं० तमस्√नुद् (प्रेरणा)+क्विप्] १. ईश्वर। २. चंद्रमा। ३. अग्नि। आग।
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तमोमणि  : पुं० [सं० तमस्-मणि, स० त०] १. जुगनूँ। २. गोमेद नामक मणि।
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तमोमय  : वि० [सं० तमस्-मयट्] १. अंधकारपूर्ण। २. तमोगुणी। (दे०)। पुं० राहु।
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तंमोर  : पुं०=तंभोर। (पान)।
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तमोर  : पुं० [सं० ताम्बूल] पान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तमोरि  : पुं० [सं० तमस्-अरि, ष० त०] सूर्य।
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तमोरी  : पुं०=तमोरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तमोल  : पुं० [सं० ताम्बूल] १. पान की बीड़ा। २. विवाह के समय, बरात चलने से पहले वर को लगाया जानेवाला टीका या दिया जानेवाला धन। (पश्चिम)। ३. इस प्रकार का टीकालगाकर धन देने की रीति।
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तमोलिन  : स्त्री० [सं० तमोली का स्त्री० रूप] १. तमोली की स्त्री। २. पान बेचनेवाली स्त्री।
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तमोलिप्ती  : स्त्री० दे० ‘ताम्रलिप्त’।
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तमोली  : पुं० [सं० तांबूलिक] १. एक जाति जो पान पकाने और बेचने का काम करती है। २. वह जो पान बेचता हो।
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तमोविकार  : पुं० [सं० तमस्-विकार, ष० त०] तमोगुण की अधिकता के कारण होनेवाला विकार। जैसे–अज्ञानक्रोध आदि।
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तमोहंत  : पुं० [सं०] ग्रहण के दस भेदों में से एक। वि० १. तम या अन्धकार दूर करनेवाला। २. सासारिक मोहमाया का नाश करनेवाला
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तमोहर  : वि० [सं० तमस्√हृ (हरना)+अच्] १. तम या अंधकार का नाश करनेवाला। २. अज्ञान, अविद्या, मोह, माया आदि का नाश करनेवाला। पुं० १. सूर्य। २. चंद्रमा। ३. अग्नि। आग। ४. ज्ञान।
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तमोहरि  : पुं० [सं० तमस्-हरि, ष० त०]=तमोहर।
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तमोऽन्त्य  : वि० [सं०] ग्रहण के दस भेदों मे से एक जिसमें चंद्रमंडल की पिछली सीमा में राहु की छाया बहुत अधिक और बीच के भाग में थोड़ी-सी जान पड़ती है। फलित ज्योतिष के अनुसार ऐसे ग्रहण से फसल को हानि पहुँचती है और चोरी का भय होता है।
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तमोऽन्ध  : वि० [सं० तमस्-अन्ध, तृ० त०] १. अज्ञानी। २. क्रोधी।
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तमोऽपह  : पुं० [सं० तमस्-अप√हन् (विदारण)+क्विप्] अंधकार को भेदने अर्थात् उसका नाश करनेवाला। पुं० जुगनूँ (कीड़ा)।
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तय  : वि०=तै।
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तयना  : अ०=तपना। स०=तपाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तयनात  : वि०=तैनात।
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तया  : पुं=तवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तयार  : वि० [भाव० तैयारी]=तैयार।
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तयु(पुस्)  : वि० [सं०√तप् (दाह)+अस्] १. तपा हुआ। उष्ण। गरम। २. तपाने या गरम करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. सूर्य। ३. दुश्मन। शत्रु।
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तय्यार  : वि० [भाव० तय्यारी]=तैयार।
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तर  : वि० [फा०] १. किसी तरल पदार्थ में भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। नम। जैसे–तर कपड़ा, तर जमीन। २. जिसमें यथेष्ट आर्द्रता या नमी हो। जैसे–तर हवा। ३. ठंढा। शीतल। जैसे–तर पानी। ४. जो शरीर मे ठढक पैदा करता हो। जैसे–कोई तर दवा खाओ। ५. चित्त को प्रफुल्लित या प्रसन्न करनेवाला। बहुत अच्छा और बढिया। जैसे–तर माल। ६. खूब हरा-भरा। ७. तरह-तरह से भरा-पूरा। यथेष्ट रूप में वांछनीय गुणों या बातों से युक्त। जैसे–तर असामी-धनवान व्यक्ति। पुं० [सं०√तृ(पार करना)+अप्] १. नदी आदि पार करने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. अग्नि। आग। ३. पेड़। वृक्ष। ४. मार्ग। रास्ता। ५. गति। चाल। प्रत्यय० [सं०] एक संस्कृत प्रत्यय जो गुणवाचक विशेषणों में लगकर उनकी विशेषता अपेक्षाकृत कुछ अधिक बढ़ा देता है। जैसे–अधिकतर, गुरुतर, श्रेष्ठतर। पुं० [सं० तल] तल। अव्य० १. तले। नीचे उदाहरण–प्रभु तरू तर कवि डार पर।–तुलसी। २. तो। उदाहरण–नहिं तरहोती हाणि।–कबीर। पुं०–तरु (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तर-पर  : अ० व्य० [हिं० तर-तले+पर=ऊपर] १. एक दूसरे के ऊसर तथा नीचे। जैसे–पहलवान कुश्ती में तर-पर होते ही रहते हैं। २. एक के ऊपर एक-एक करके। जैसे–साड़ियों का तर-पर थाक लगा हुआ था। ३. एक के बाद एक-एक करके। जैसे–ये घटनाएँ तर-पर होती रहीं। ४. बिना क्रम भंग किये हुए। निरंतर। जैसे–वह सावल-जवाब तर-पर पूछे तथा दिये जाते थे।
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तर-बतर  : वि० [फा०] जल या किसी तरल पदार्थ से बहुत अधिक भींगा हुआ। जैसे–खून या पसीने से तर-बतर।
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तर-बहाना  : पुं० [हिं० तर=तले+बहना] वह छोटा कटोरा जिसमें छोटी देव-मूर्तियों की पूजा के समय स्नान कराया जाता है।
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तरई  : स्त्री० [सं० तारा] नक्षत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरक  : पुं० [सं० तर्क] १. सोच-विचार। २. उक्ति। कथन। ३. अड़चन। बाधा। ४. गड़बड़ी। व्यतिक्रम। ५. भूल। चूक। ६. दे० तर्क। पुं० [हिं० तर-नीचे] लेख आदि का कोई पृष्ठ समाप्त होने पर उसके नीचे लिखा जानेवाला वह शब्द जिससे बादवाला पृष्ठ आरंभ होता है। स्त्री० =तड़क।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरकना  : अ० [सं० तर्क] १. तर्क करना। २. सोच-विचार करना। ३. बहस या विवाद करना। ४. झगड़ना। ५. अनुमान या कल्पना करना। [?] उछलना-कूदना। अ० दे० तड़कना। वि० जल्दी चौंकने या भड़कनेवाला। (बैल) उदाहरम-बैल तरकना टूटी नाव, या काहू दिन दै हैदांव।–कहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरकश  : पुं० [फा०] कंधे पर लटकाया जानेवाला वह आधान जिसमें तीर रखे जाते हैं। तूणीर।
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तरकश-बंद  : पुं० [फा०] वह जो तरकश रखता हो।
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तरकस  : पुं० [स्त्री० अल्पा० तरकशी]=तरकश।
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तरका  : पुं० [सं० तर्कः] १. वह संपत्ति जो कोई व्यक्ति छोड़कर मरा हो। २. उत्तराधिकारी या वारिस को मिलनेवाली संपत्ति। ३. उत्तराधिकार। पुं०=तड़का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरकारी  : स्त्री० [फा० तर=सब्जी, शाक+कारी] १. वे हरे और विशेषतः कच्चे फल आदि जिन्हें आग पर भून या पकाकर रोटी आदि के साथ खाया जाता है। हरी सब्जी। २. आग पर भून या पकाकर खाने के योग्य बनाई हुई सब्जी। ३. पकाया हुआ गोस्त या मांस।
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तरकी  : स्त्री० [सं० तांडकी] कान में पहनने का एक तरह का गहना।
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तरकीब  : स्त्री० [अ०] १. मिलान। मेल। २. बनावट। रचना। ३. रचना का प्रकार या शैली। ४. सोच-समझकर निकाला हुआ उपाय या युक्ति।
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तरकुल  : पुं० [सं० ताल+कुल] ताड़ का पेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरकुला  : पुं० [हिं०] कान में पहनने की बड़ी तरकी।
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तरकुली  : स्त्री०=तरकी (कान में पहनने की)।
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तरक्की  : स्त्री० [अ०] १. शारीरिक अवस्था में होनेवाली अभिवृद्धि तथा सुधार। जैसे–यह पौधा तरक्की कर रहा है। २. किसी कार्य या व्यापार का बराबर उन्नत दशा प्राप्त करना। जैसे–लड़का हिसाब में तरक्की कर रहा है। ३. पदोउन्नति। जैसे–पिछले वर्ष उनकी तरक्की हुई थी।
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तरक्षु  : पुं० [सं० तर√क्षि (हिंसा करना)+डु] एक प्रकार का छोटा बध। लकड़बग्घा।
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तरखा  : पुं० [सं० तरंग] नदी आदि के पानी का तेज बहाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरखान  : पुं० [सं० तक्षण] लकड़ी का काम करनेवाला। बढ़ई। (पश्चिम)।
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तरंग  : स्त्री० [सं०√तृ (तैरना)+अंगच्] १. पानी की लहर। हिलोर। क्रि० प्र०–उठना। २. किसी चीज या बात का ऐसा सामंजस्यपूर्ण उतार-चढ़ाव जो लहरों के समान जान पड़े। जैसे–संगीत में तान की तरंग। ३. उक्त के आधार पर कुछ विशिष्ट प्रकार के बाजों के नाम के साथ लगकर, उत्पन्न की जानेवाली स्वर-लहरी। जैसे–जल-तरंग, तबला-तरंग। ४. सहसा मन में उठनेवाली कोई उमंग या भावना। जैसे–जब मन में तरंग आई, तब उठकर चल पड़े। ५. हाथ में पहनने की एक प्रकार की चूड़ी जिसके ऊपर की बनावट लहरियेदार होती है। ६. घोड़े की उछाल या फलाँग। ७. कपड़ा। वस्त्र।
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तरंगक  : पुं० [सं० तरङ+कन्] [स्त्री० तरंगिका] १. पानी की लहर। हिलोर। २. स्वरलहरी।
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तरंगभीरु  : पुं० [ष० त०] चौदहवें मनु के एक पुत्र।
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तरंगवती  : स्त्री० [सं० तरंग+मतुप्+ङीष्] नदी।
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तरंगायति  : वि० [सं० तरंगित] १. जिसमें तरंग या तरंगें उठ रही हों। २. तरंगों की तरह का। लहरियेदार। लहरदार।
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तरंगालि  : स्त्री० [सं० तरंग+इनि+ङीप्] जिसमें तरंगे या लहरें उठती हों। स्त्री० नदी। सरिता।
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तरंगित  : वि० [सं० तरंग+इतच्] [स्त्री० तरंगिता] १. (जलाशय) जिसमें तरंगें या लहरें उठ रही हों। २. (हृदय) जो तरंग या उमंग से प्रफुल्लित या मग्न हो रहा हो। ३. जो बार-बार कुछ नीचे गिरकर फिर ऊपर उठता हो।
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तरंगी(गिन्)  : वि० [सं० तरंग+इनि] [स्त्री० तरंगिणी] १. जिसमें तरंगें या लहरें उठती हों। २. जो मन की तरंग या मौज आकस्मिक भावावेश या स्फूर्ति) के अनुसार सब काम करता हो। ३. भावुक। रसिक। पुं० बहुत बड़ी नदी। नद।
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तरगुलिया  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का छोटा छिछला पात्र जिसमें अक्षत रखे जाते हैं।
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तरचखी  : स्त्री० [देश०] सजावट के लिए बगीचों में लगाया जानेवाला एक तरह का पौधा।
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तरछट  : स्त्री०=तलछट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरछत  : क्रि० वि० [हिं० तर] १. नीचे। तले। २. नीचे की ओर से। नीचे से। स्त्री=तलछट।
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तरछन  : स्त्री०=तलछट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरछा  : पुं० [हिं०तर-नीचे] वह स्थान जहाँ गोबर इकट्ठा किया जाता है। (तेली)।
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तरछाना  : अ० [हिं० तिरछा] १. तिरछी नजर से किसी की ओर देखना। २. आँखों से संकेत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरज  : पुं०=तर्ज।
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तरजना  : अ० [सं० तर्जन] १. क्रोधपूर्वक या बिगड़ते हुए कोई बात कहना। भला-बुरा कहते हुए डाँटना। २. भविष्य में सचेत रहने के लिए कुछ धमकी देते हुए कोई बात कहना।
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तरजनी  : स्त्री० [सं० तर्जन] डर। भय। स्त्री०=तर्जनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरजीला  : वि० [सं० तर्तन] १. तर्जन करनेवाला। २. क्रोधपूर्ण। ३. उग्र। प्रचंड।
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तरजीह  : स्त्री० [अ] दे० ‘वरीयता’।
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तरजीहाँ  : वि०=तरजीला।
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तरजुई  : स्त्री० [फा० तराजू] छोटा तराजू।
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तरजुमा  : पुं० [अ०] १. एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार किया हुआ अनुवाद। उलथा। भाषान्तर।
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तरजुमान  : पुं० [अ०] अनुवाद करनेवाला व्यक्ति। अनुवादक।
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तरंड  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+अंडच्] १. नाव। नौका। २. नाव खेने का डाँड़। ३. मछलियाँ मारने की बंसी में बँधी हुई वह छोटी लकड़ी जो पानी के ऊपर तैरती रहती हो।
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तरंडा  : स्त्री० [सं० तरंड+टाप्]=नौका।
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तरंडी  : स्त्री० [सं० तरंड+ङीष्]=तरंडा।
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तरण  : पुं० [सं०√तृ (पार करना)+ल्युट्-अन] १. नदी आदि पार करना। पार जाना। २. जलाशय आदि पार करने का साधन। जैसे–नाव, बेड़ा आदि। ३. छुटकारा। निस्तार। ४. उबारने की क्रिया या भाव। उद्धार। ५. स्वर्ग।
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तरणि  : पुं० [सं०√तृ+अग्नि] १. सूर्य। २. सूर्य की किरण। ३. आक। मदार। ४. ताँबा। स्त्री० =तरणी।
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तरणि-कुमार  : पुं० [ष० त०] तरणिसुत। (दे०)।
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तरणि-तनय  : पुं० [ष० त०] तरणिसुत। (दे०)।
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तरणि-तनूजा  : स्त्री० [ष० त०] सूर्य की पुत्री। यमुना।
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तरणि-सुता  : स्त्री० [ष० त०] सूर्य की पुत्री। यमुना।
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तरणिजा  : स्त्री० [सं० तरणि√जन्+ड-टाप्] १. सूर्य की कन्या। यमुना। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरम में क्रमशः एक नगण और एक गुरु होता है।
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तरणिसुत  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य का पुत्र। २. यमराज। ३. शनि। ४. कर्ण।
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तरणी  : स्त्री० [सं० तरण+ङीष्] १. नाव। नौका। २. घीकुँआर। ३. स्थल-कमलिनी।
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तंरत  : पु० [सं०√त+इच्-अन्त] १. समुद्र। २. मंडूक। मेंढक। ३. राक्षस।
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तरतराता  : वि० [हिं० तरतराना-तड़तड़ाना] तड़ तड़ शब्द करता हुआ। वि० [हिं० तर] घी में अच्छी तरह डूबा हुआ (पकवान) जिसमें से घी निकलता या बहता हो। (खाद्य पदार्थ)।
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तरतराना  : अ० स=तड़तड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरंती  : स्त्री० [सं० तरन्त+ङीष्] नाव। नौका।
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तरतीब  : स्त्री० [अ०] विशेष प्रकार से वस्तुएँ रखने या लगाने का क्रम। सिलसिला। क्रि० प्र०–देना।–लगाना।
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तरदी  : स्त्री० [सं० तर√दो (खंडनकरना)+क+ङीष्] एक प्रकार का कँटीला पेड़।
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तरदीद  : पुं० [अ०] १. काटने या रद्द करने की क्रिया। मंसूखी। २. किसी की उक्ति या कथन का किया जानेवला खंडन।
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तरद्दुद  : पुं० [अ०] १. किसी काम या बात के संबंध में होनेवाली चिंता। परेशानी। २. झंझट। बखेड़ा।
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तरद्वती  : स्त्री० [सं०√तृ+मतुप्+ङीष्] आटे को घी, दही आदि में सानकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान।
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तरन  : पुं० १. दे० तरण। २. दे० ‘तरौना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरन-तारन  : पुं० [सं० तरण, हिं० तरना] १. उद्धार। २. वह जो भव सागर से किसी को पार उतारता हो। ईश्वर। वि० १. डूबते हुए को तारने या उबारनेवाला। २. भवसागर से पार करनेवाला।
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तरनतार  : पुं० [सं० तरण] निस्तार। मोक्ष। वि०=तरन-तारन।
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तरना  : अ० [सं० तरण] १. पानी के तल के ऊपर रहना। ड़ूबना का विपर्याय २. अंगो के संचालन अथवा किसी अन्य शारीरिक व्यापार के द्वारा जल को चीरते हुए आगे बढ़ना। तैरना। ३. आवागमन या सांसारिक बंधनों से मुक्त होना। सदगति प्राप्त करना। ४. व्यापारिक क्षेत्रों में, ऐसी रकम का वसूल होना या वसूल हो सकने के योग्य होना जो प्रायः डूबी हुई समक्ष ली गई हो। जैसे–वे मुकदमा जीत गये हैं, इसलिए हमारी रकम भी तर गई। स० माल ढोनेवाले जहाजों का वह अधिकारी जो रास्ते में व्यापारिक कार्यों की देख-रेख और व्यवस्था करता है। अ० दे० ‘तलना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरनाग  : पुं० [देश०] एक तरह की चिड़िया।
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तरनाल  : पुं० [?] पुरानी चाल के जहाजों में लगा रहनेवाला वह रस्सा जिससे पाल को धरन में बाँधते थे (लश०)।
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तरनि  : स्त्री० [सं० तरणि] नदी। सरिता।
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तरनिजा  : स्त्री०=तरणिजा (यमुना)।
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तरनी  : स्त्री० [सं० तरणी] नाव। नौका। पुं० [सं० तरणि] सूर्य। उदाहरण–डमरू के आकार की वह लंबी रचना जिसपर खोमचेवाले अपना थाल रखकर सौदा बेचते हैं।
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तरन्नि  : स्त्री०=तरनी। (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरप  : स्त्री०=तड़प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरपट  : वि० [हिं० तिरपट ?] (चारपाई) जिसमें टेढ़ापन हों। जिसमें कनेव पड़ी हो। पुं० १. टेढ़ापन। २. अंतर। भेद।
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तरपत  : पुं० [सं० तृप्ति] १. सुभीता। २. आराम। चैन। सुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरपन  : पुं०=तर्पण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरपना  : अ०=तड़पना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरपरिया  : वि० [हिं० तर-पर] १. क्रम या स्थिति के विचार से ऊपर और नीचे का। २. जो एक के बाद दूसरे के क्रम से हो। जो क्रम के विचार से दूसरे से ठीक बाद पड़ता हो। ३.(बच्चे) जो ठीक आगे-पीछे के क्रम से एक के बाद हुए हों। जैसे–तर-परिया भाई-बहन
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तरपीला  : वि० [हिं० तड़प+ईला(प्रत्यय)] तड़पदार। चमकीला।
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तरपू  : पुं० [देश०] एक तरह का वृक्ष जिसकी लकड़ी कुछ भूरे रंग की होती और इमारत के काम आती है।
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तरफ  : स्त्री० [अ०] १. ओर। दिशा। जैसे–आप किस तरफ जाएँगे। २. दो या अधिक दलोंपक्षों आदि में से हर एक। जैसे–इस तरफ राम थे और उस तरफ रावण। ३. किसी वस्तु के दो या अधिक तलों में से कोई तल। जैसे–पत्र की दूसरी तरफ भी तो देखों। ४. किनारा। तट। (क्व०)।
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तरफदार  : वि० [अ० तरफ+फा० दार] [भाव० तरफदारी] जो किसी तरफ अर्थात् पक्ष में हो। किसी का पक्ष लेने या समर्थन करनेवाला।
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तरफदारी  : स्त्री० [अ० तरफ़+फा०दारी] १. तरफदार होने की अवस्था या भाव। २. पक्ष-पात।
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तरफराना  : अ०=तड़फड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरब  : पुं० [हिं० तरपना, तड़पना] सारंगी में ताँत के नीचे एक विशेष क्रम से लगे हुए तार जो बजने के समय एक प्रकार की गूँज उत्पन्न करते हैं।
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तरबियत  : स्त्री० [अ०] १. पालने-पोसने का काम। पालन-पोषण। २. देख-रेख करके जीवित रखने और बढ़ाने का काम। संवर्धन। ३. शिक्षा।
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तरंबुज  : पुं० [सं० तर-अम्बु, कर्म० स०, तरंबु√जन्+ड] तरबूज।
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तरबूज  : पुं० [फा० तर्बुज] १. एक प्रसिद्ध गोल बड़ा फल जिसका ऊपरी छिलका, मोटा कड़ा तथा गहरे रंग का होता है और जिसमें गुलाबी रंग का गूदा होता है जो खाया जाता है। २. वह लता जिसमें उक्त फल लगता है।
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तरबूजई  : वि० [हिं० तरबूज+ई (प्रत्यय)] तरबूज की तरह गहरे हरे रंग का। पुं० गहरा हरा रंग।
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तरबूजा  : पुं=तरबूज।
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तरबूजिया  : वि० [हिं० तरबूज] तरबूजे के छिलके के रंग का गहरा हरा। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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तरबोना  : स० [फा० तर+हिं० बोरना] अच्छी तरह तर या गीला करना। भिगोना। अ० तर होना। भींगना। उदाहरण–पर-निद्रा रसना के रस में अपने पर तरबोरी।–सूर।
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तरमाची  : स्त्री० [हिं० तर+माचा] बैलों के जुए में नीचे लगी हुई लकड़ी। मचेरी।
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तरमाना  : अ० [?] नाराज होना। बिगड़ना। उदाहरण–सूर रोम अति लोचन देत्यौ बिधना पर तरमात।–सूर। स० किसी को क्रुद्ध या नाराज करना। अ० [फा० तर+हिं० माना (प्रत्य)] तर होना। तरी से युक्त होना। स० गीला या तर करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरमानी  : स्त्री० [हिं० तरमाना] जोती हुई भूमि में होनेवाली तरी। क्रि० प्र०–आना।
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तरमिरा  : पुं०=तरामीरा।
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तरमीम  : स्त्री० [अ०] १. किसी कार्य या बात में किया जानेवाला सुधार। २. प्रस्तावों लेखों आदि में होनेवाला संशोधन।
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तरराना  : अ० [अनु०] ऐंठ या ऐंड़ दिखाना। गर्व-सूचक चेष्ठा करना। स०–ऐंठना। मरोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरल  : वि० [सं०√तृ+कलच्] [भाव० तरलता] १. तेल, पानी आदि की तरह पतला और बहनेवाला। द्रव। २. हिलता-डोलता हुआ। चलायमान। ३. अस्थिर। चंचल। ४. जल्दी नष्ट हो जानेवाला। ५. चमकीला। कांतिवान्। ६. खोखला पोला। ७. अबाध रूप से बराबर चलता रहनेवाला। उदाहरण–-स्मित बन जाती है तरल हँसी।–प्रसाद। पुं० १. गले में पहनने का हार। २. हार के बीच में लगा हुआ लटकन। लोलक। ३. हीरा। ४. लोहा। ५. तल। पेंदा। ६. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश। ७. उक्त देश के निवासी। ८. घोड़ा।
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तरल-नयन  : पुं० [ब० स०] एक तरह का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार नगण होते हैं।
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तरल-भाव  : पुं० [ष० त०] १. तरलता। द्रवता। २. चंचलता।
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तरलता  : स्त्री० [सं० तरल+टाप्] १. तरल होने की अवस्था या भाव। द्रवता। २. चंचलता। चपलता।
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तरला  : स्त्री० [सं० तरल+टाप्] १. जौ का माँड़। यवागू। २. मदिरा। शराब। ३. शहद की मक्खी। मधु-मक्खी। ४. छाजन के नीचे लगे हुए बाँस।
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तरलाई  : स्त्री०=तरलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरलायित  : वि० [सं० तरल+क्यङ+क्त] लहर की तरह काँपता या हिलता हुआ। स्त्री० बड़ी तरंग। हिलोर।
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तरलित  : भू० कृ० [सं० तरल+णिच्+क्त] १. तरल किया या बनाया हुआ। द्रव रूप में लाया हुआ। २. उदारता, दया प्रेम आदि से युक्त। जिसका चित्त कोमल हो।
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तरवंछ  : स्त्री० दे० ‘तरमाची’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरवड़ी  : स्त्री० [सं० तुला+ड़ी (प्रत्यय)] १. छोटा तराजू। २. तराजू का पल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरवन  : पुं० [हिं० तरौना] १. कान में पहनने का तरकी नाम का गहना। २. करन-फूल।
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तरवर  : पुं० [सं० तरुवर] १. पेड़। वृक्ष। २. एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी छाल से चमड़ा सिझाया जाता है। तरोता।
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तरवरा  : पुं०=तिरमिरा। (दे०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरवरिया  : पुं० [हिं० तरवर] १. वह जो तलवार चलाता हो। २. तलवार से युद्ध करनेवाली एक जाति।
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तरवरिहा  : पुं०=तरवरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरवा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया मुलायम चारा जो बारहों महीने अधिकता से उत्पन्न होता है। कहीं-कहीं यह गौओं भैसों को उनके दूध बढ़ाने के लिए दिया जाता है। धम्मन।
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तरवा  : पुं=तलवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरवाई-सिरवाई  : स्त्री० [हिं० तर+सिर] १. किसी चीज के ऊपरी और नीचेवाले भाग। २. ऊंची और नीची जमीन। ३. पहाड़ और घाटी।
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तरवाँची  : स्त्री=तरमाची।
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तरवाना  : स० [हिं० तारना का प्रे०] तारने का काम किसी से कराना। स०=तलवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) [हिं० तलवा] पैर के तलवे का घिसना। विशेषतः बैल का पैरों के तलवों को घिसना।
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तरवार  : स्त्री०=तलवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तरुवर (वृक्ष)।
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तरवारि  : स्त्री० [सं० तर√धृ+णिच् (रोकना)+इन्]=तलवार।
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तरवारी  : पुं०=तरवारिया।
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तरवाँसी  : स्त्री=तरवाँची (तरमाची)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरस  : पुं० [सं०√त्रस्-डरना] अभागे, दंडित, दुःखी या पीड़ित के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाली करुणा या दया। क्रि० प्र०–आना। मुहावरा–(किसी पर) तरस खाना=किसी के प्रति करुणा या दया दिखलाना और फलतः उसका कष्ट या दुःख दूर करने का प्रयत्न करना।
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तरसान  : अ० [सं० तर्षण] अभीष्ट तथा प्रिय वस्तु के अभाव के कारण दुःखी या निराश व्यक्ति का उसके दर्शन या प्राप्ति के लिए लालायित या विकल होना। जैसे–(क) किसी को मिलने के लिए अथवा कुछ खाने के लिए मन तरसना। (ख) प्रिय को मिलने के लिए आँखें तरसना [सं० त्रसन] त्रस्त या पीड़ित होना। स० त्रस्त या पीड़ित करना।
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तरसान  : पुं० [सं०] नौका।
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तरसाना  : स० [हिं० तरसना का प्रे०] १. ऐसा काम करना जिससे कोई तरसे। २. किसी प्रकार के अभाव का अनुभव कराते हुए किसी को ललचाना। आसा दिलाकर या प्रवृत्ति उत्पन्न करके खिन्न या दुःखी करना। संयो० क्रि०–डालना।–मारना।
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तरसौंहाँ  : वि० [हिं० तरसना+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० तरसौंही] जो तरस रहा हो। तरसनेवाला। जैसे–तरसौंहें नेत्र।
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तरस्  : पुं० [सं०√तृ (तरना)+असुन्] १. बल। शक्ति। २. तेजी। वेग। ३. बीमारी। रोग। ४. तट। किनारा। ५. वानर। बन्दर।
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तरस्वान्(स्वत्)  : वि० [सं० तरस+मतुप्] १. जिसकी गति बहुत अधिक या तीव्र हो। २. वीर। बहादुर। साहसी। पुं० १. वायु। २. गरुड़। ३. शिव।
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तरस्वी(स्विन्)  : वि० [सं० तरस+विनि]=तरस्वान्।
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तरह  : स्त्री० [फा०] १. आकार-प्रकार, गुण, धर्म, बनावट, रूप आदि के विचार से वस्तुओं, व्यक्तियों आदि का कोई विशिष्ट और स्वतन्त्र वर्ग। जैसे–(क) इसी तरह का कोई कपड़ा लेना चाहिए। (ख) यहाँ तरह-तरह के आदमी आते रहते हैं। २. ढंग। प्रकार। जैसे–तुम यह भी नहीं जानते कि किस तरह किसी से बात की जाती है। मुहावरा–तरह देना=किसी की त्रुटि, भूल आदि पर ध्यान न देना। जाने देना।
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तरहटी  : स्त्री०=तलहटी।
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तरहदार  : वि० [फा०] [भाव० तरहदारी] १. अच्छे ढंग या प्रकार का। २. अनोखी और सुन्दर बनावटवाला। ३. सज-धज से युक्त। सजीला।
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तरहदारी  : स्त्री० [फा०] तरहदार होने की अवस्था या भाव।
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तरहर  : क्रि० वि० [हिं० तर+हर (प्रत्यय)] तले। नीचे। पुं० नीचे का भाग। तला। पेंदा। वि० १. जो सब के नीचे का हो। २. निकृष्ट। बुरा।
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तरहरि  : स्त्री=तलहटी।
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तरहा  : पुं० [हिं० तर] १. कूएँ की खुदाई में एक माप जो प्रायः एक हाथ की होती है। २. वह कपड़ा जिस पर मिट्टी फैलाकर चीजें ढालने के लिए साँचा बनाते हैं।
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तरहेल  : वि० [हिं० तर, हल (प्रत्यय)] १. अधीन। निम्नस्थ। २. वश में किया हुआ। ३. हारा या हराया हुआ। पराजित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरा  : पुं० १.=तला। २.=तलवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तराइन  : स्त्री० [सं० तारक] तारों का समूह। तारावली।
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तराई  : स्त्री० [सं० तर-नीचे] १. पहाड़ के नीचे का समतल मैदानी भू-भाग। २. दे० घाटी। ३. मूँज के वे मुट्ठे जो छाजन में खपरैल के नीचे लगाये जाते हैं। स्त्री० [हि० तारा+ई] तारों का समूह। तारागण।
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तराजू  : पुं० [फा०] वस्तुएँ तौलने का एक प्रसिद्ध उपकरण जिसमें दोनों ओर वे दो पल्ले रहते हैं जिनमें से एक पर बटखरा या बाट और दूसरे पर तौली जानेवाली चीज रखी जाती है। तुला। मुहावरा–(किसी से) तराजू होना=किसी की बराबरी या सामना करने अथवा उसके समान बनने के लिए मुकाबले पर या सामने आना।
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तरात्यय  : पुं० [सं० तर-अत्यय, ष० त०] प्राचीन काल में वह दंड जो बिना आज्ञा के नदी पार करने वाले पर लगाया जाता था।
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तरांधु  : पुं० [सं० तर-अंधु, च० त०] एक तरह की चौड़े पेंदेवाली नाव। तरालु। पुं० [देश०] पटुआ। पटसन। पाट।
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तराना  : पुं० [फा० तरानः] १. अच्छे ढंग में गाया जानेवाला सुन्दर गीत। २. एक प्रकार का गाना जिसके बोल इस प्रकार होते हैं–तानूम तानूम ता दारा दारा, दिर दिर दारा आदि। (इसमें प्रायः सितार और तबले के बोल मिले हुए होते हैं)। स०=तैराना। (तैरने में प्रवृत्त करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तराप  : [अनु] तड़ाक (शब्द)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरापा  : पुं० [हिं० तरना] पानी में तैरता हुआ वह शहतीर जिस पर बैठकर नदी आदि पार करते हैं। (लश०)। पुं० [हिं० त्राहि से स्यापा का अनु०] त्राहि त्राहि की पुकार। हाहाकार। क्रि० प्र०–पड़ना।–मचना।
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तराबोर  : वि० [फा० तर+हिं० बोरना] पानी या और किसी तरल पदार्थ मे अच्छी तरह डूबा या भींगा हुआ। शराबोर।
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तरामल  : पुं० [हिं० तर-नीचे] १. मूँज के वे मुट्ठे जो छाजन में खपरैल के नीचे लगे होते हैं। २. बैलों के गले में जूए में की नीचेवाली लकड़ी।
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तरामीरा  : पुं० [देश० पं० तारामीरा] एक तरह का पौधा जिसके बीजों से तेल निकाला जाता है।
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तरायला  : वि० [?] १. तेज। २. चंचल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरारा  : पुं० [?] १. उछाल। कुलाँच। छलांग। मुहावरा–तरारे भरना या मारना=(क) खूब उछल-कूद करना। (ख) किसी काम में बहुत जल्दी-जल्दी आगे बढ़ते चलना। (ग) बहुत बढ़-बढ़कर बातें करना। खूब डींग हाँकना। २. किसी चीज पर गिराई जानेवली पानी की पतली धार। क्रि० प्र०–देना।
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तरालु  : पुं० [सं० तर√अल् (पर्याप्त होना)+उण्] चौड़े पेंदेवाली एक तरह की नाव। तरांधु।
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तरावट  : स्त्री० [फा० तर+आवट (प्रत्यय)] १. तर अर्थात् आर्द्र नम होने की अवस्था या भाव। तरी। जैसे–वातावरण में आज तरावट है। २. प्रिय और वांछित ठंढक या शीतलता। ३. ऐसा पदार्थ जिसके सेवन से शारीरिक गरमी शांत होती हों और प्रिय और सुखद ठंढक मिलती हो। ४. स्निग्ध भोजन।
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तराश  : स्त्री० [फा०] १. तराशने अर्थात् धारदार उपकरण से किसी चीज के टुकड़े करने की क्रिया, ढंग या भाव। २. किसी रचना में की वह काट-छाँट या बनावट जिससे उसका रूप प्रस्तुत हुआ हो। ३. ढंग। तर्ज।
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तराश खराश  : स्त्री० [फा०] किसी प्रकार की रचना में की जानेवाली काट-छाँट।
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तराशना  : स० [फा०] १. धारदार उपकरण से किसी चीज विशेषत किसी फल को कई टुकडो़ में विभाजित करना। काटना। जैसे–अमरूद या सेब तराशना। २. कतरना। (कपड़े आदि का)।
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तरास  : पुं०=त्रास। स्त्री०=तराश।
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तरासना  : स० [सं०त्रास+ना(प्रत्यय)] १.त्रास या कष्ट देना। त्रस्त करना। २.भयभीत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=तराशना
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तरासा  : वि० [सं०तृषित] प्यासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०-तृषा (प्यास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तराहि  : अव्य०=त्राहि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तराहीं  : क्रि० वि० [हिं० तले] नीचे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरि  : स्त्री० [सं०√तृ (तरना)+इ] १. नाव। नौका। २. बड़ी पिटारी। पिटारा। ३. कपड़े का छोर या सिरा।
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तरिक  : पुं० [सं० तर+ठन्-इक] १. लकड़ियों का वह ढाँचा जो जलाशय पार करने के लिए बनाया जाता है। बेड़ा। २. वह जो नदी आदि पार करने का पारिश्रमिक लेता हो। ३. केवट। मल्लाह।
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तरिका  : स्त्री० [सं० तरिक+टाप्] नाव० नौका। स्त्री० [सं० तडित्] बिजली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरिकी(किन्)  : पुं० [सं० तरिका+इनि] नदी आदि के पार उतारने वाला। माँझी। मल्लाह।
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तरिको  : पुं० दे० ‘तरौना’।
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तरिणी  : स्त्री० [सं० तर+इनि-ङीष्]=तरणी।
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तरिता  : स्त्री० [सं० तर+इतच्-टाप्] १. तर्जनी उंगली। २. भाँग। भंग। ३. गांजा। स्त्री० =तडित् (बिजली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरित्र  : पुं० [सं०√तृ+ष्ट्रन] बड़ी नाव। पोत।
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तरित्री  : स्त्री० [सं० तरित्र+ङीष्] छोटा तरित्र।
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तरिंदा  : पुं० [हिं० तरना+इंद्रा (प्रत्यय)] नदी, समुद्र आदि में तैरता हुआ वह पीपा जो किसी लंगर से बँधा होता है। तरेंदा।
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तरिया  : पुं० [हिं० तरना] तैराक। वि० तैरनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरियाना  : स० [हिं० तरे-नीचे] १. किसी चीज को तले या नीचे रखना। २. किसी चीज को झुकाकर नीची कर देना। ३. बटुए के पेंदे में इसलिए मिट्टी लगाना कि आग पर चढ़ाने से उसका पेंदा जलने न पावे। लेवा लगाना। ४. धन-संपत्ति आदि अथवा और कोई चीज चुपचाप अपने अधिकार में करते जाना या छिपाकर रखते चलना। अ० तले या तल में बैठ जाना या जमना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [फा० तर] पानी आदि के छींटे देकर तर या गीला करना। जैसे–चुनाई करने से पहले ईंटे तरियाना।
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तरिवन  : पुं०=तरवन। (तरौना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरिवर  : पुं०=तरुवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरिहँत  : क्रि० वि० [हिं० तर+अंत, हँत(प्रत्यय)] नीचे। तले।
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तरी  : स्त्री० [सं० तरि+ङीष्] १. नाव। नौका। २. गदा। ३. धूआँ। धूम। ४. कपड़े रखने का पिटारा। ५. कपड़े का छोर या सिरा। स्त्री० [फा० तर] १. तर होने की अवस्था या भाव। आर्द्रता। गीलापन। २. वातावरण में होनेवाली आर्द्रता। ३. प्रिय और सुखद। ठंढक। शीतलता। ४. तलहटी। तराई। ५. तलछट। तलौंछ। ६. वह नीची भूमि जहाँ बरसात का पानी इकट्ठा होता हो। स्त्री०=तरकी (कान का गहना)। स्त्री०=तल्ला (जूते का) उदाहरण– जो पहिरी तन त्राण को माणिक तरी बनाय।–केशव।
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तरीका  : पुं० [अ० तरीकः] १. काम करने का कोई उपयुक्त मान्य या विशेष ढंग। २. आचार या व्यवहार की चाल-ढाल। ३. उपाय। युक्ति।
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तरीनि  : स्त्री० [हिं० तर-तले] पहाड़ के नीचे का भाग। तलहटी। (बुंदेल) उदाहरण–-फूटे हैं सुगंध घट श्रवन तरिनि में।–केशव।
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तरीष  : पुं० [सं०√तृ (तरना)+ईषन्] १. सूखा गोबर। २. नाव। ३. जलाशय पार करने का बेड़ा। ४. समुद्र। सागर। ५. स्वर्ग। ६. रोजगार। व्यवसाय।
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तरीषी  : स्त्री० [सं० तरीष+ङीष्] इंद्र की एक कन्या।
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तरु  : पुं० [सं०√तृ+उन्] १. पेड। वृक्ष। २. पूर्वी भारत में होनेवाला एक प्रकार का चीड़ जिससे तारपीन का बढ़िया तेल निकलता है।
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तरु-तलिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स] चमगादर।
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तरु-राग  : पुं० [ब० स०] नया कोमल पत्ता। किशलय।
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तरु-राज  : पुं० [ष० त०] १. कल्पवृक्ष। २. ताड़ का पेड़।
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तरु-रोपण  : पुं० [ष० त०] १. वृक्ष उगाने की क्रिया। २. वह विद्या जिसमें वृक्ष लगाने, बढ़ाने और उनकी रक्षा करने की कला सिखाई जाती है। (आरबोरी कलचर)।
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तरु-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] जतुका लता। पानड़ी।
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तरुआ  : पुं० [हिं० तरना-तलना] उबाले हुए धान का चावल। भुजिया चावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० तलवा (पैर का)।
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तरुण  : वि० [सं०√तृ+उनन्] १. जो बाल्यावस्था पार करके सांसारिक जीवन की आरंभिक अवस्था में प्रवेश कर रहा हो। जवान। जैसे–तरुण व्यक्ति। २. जो जीवन की आरंभिक अवस्था में हो। जैसे–तरुण पौधा। ३. जिसमें ओज, नवजीवन या शक्ति हो। जैसे–तरुण हँसी ४. नया। नवीन। पुं० १. बड़ा जीरा। २. मोतिया। (पौधा और उसका फूल)। ३. रेंड़।
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तरुण-ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा ज्वर जो सात दिन पार करके और आगे चल रहा हो।
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तरुण-तरणी  : पुं० [कर्म० स०] मध्याह्र का सूर्य।
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तरुण-दधि  : पुं० [कर्म० स०] पाँच या अधिक दिन से पड़ा हुआ। बासी दही जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। (वैद्यक)।
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तरुण-पीतिका  : स्त्री० [कर्म० स०] मैनसिल।
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तरुण-सूर्य  : पुं० [कर्म० स०] मध्याह्र का सूर्य।
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तरुणक  : पुं० [सं० तरुण+कन्] अंकुर।
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तरुणता  : स्त्री० [सं० तरूण+तल्-टाप्] तरुण होने की अवस्था या भाव।
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तरुणाई  : स्त्री० [सं० तरुण+हिं० आई (प्रत्यय)] तरुण होने की अवस्था या भाव। जवानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुणाना  : अ० [सं० तरुण+हिं० आना (प्रत्यय)] तरुण होना। जवानी पर आना।
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तरुणास्थि  : स्त्री० [सं० तरुण-अस्थि, कर्म० स०] पतली लचीली हड्डी।
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तरुणिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० तरुण+इमानिच्] तरुण होने की अवस्था या भाव। तरुणाई।
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तरुणी  : वि० स्त्री० [सं० तरुण+ङीष्] जवान। युवा। स्त्री० १.जवान स्त्री। युवती। २.चीड़ नामक वृक्ष। ३. घीकुंआर। ४. जमाल गोटा। दंती। ५. मोतिया नाम का पौधा और उसका फूल। ६.संगीत में मेघ राग की एक रागिनी।
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तरुन  : वि० पुं०=तरुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुनई  : स्त्री०=तरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुनाई  : स्त्री०=तरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुनापन  : पुं० [हिं० तरुन+पन (प्रत्यय)] तारुण्य। जवानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुनापा  : पुं० [हिं० तरुन+पन (प्रत्य०)] युवावस्था। जवानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुबाँही  : पुं० [सं० तर+हिं० बाँह] वृक्ष की बाँह अर्थात् शाखा।
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तरुभुक्  : पुं० [सं० तरु√भुज् (खाना)+क्विप्] बाँदा। बंदाक।
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तरुभुज  : पुं० [सं० तरु√भुज्+क] दे० ‘तरुभुक्’।
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तरुरुहा  : स्त्री० [सं० तरु√रुह् (उगना)+रु–टाप्] बाँदा।
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तरुरोहिणी  : स्त्री० [सं० तरु√रुह्+णिनि-ङीप्] बाँदा।
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तरुवर  : पुं० [स० त०] १. श्रेष्ठ या बड़ा वृक्ष। २. रहस्य संप्रदाय में, (क) प्राण। (ख) परमात्मा या ब्रह्म।
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तरुवरिया  : स्त्री० [हिं० तरवारि] तलवार। उदाहरण–लिहलन ढाल तरुवरिया त अवरु कटरिया नु हो।–गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरुसार  : पुं० [ष० त०] कपूर।
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तरुस्था  : स्त्री० [सं० तरु√स्था (ठहरना)+क–टाप्] बाँदा।
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तरूट  : पुं० [सं० तरु+उट, ष० त०] भसींड। कमल की जड़।
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तरे  : क्रि० वि०=तले (नीचे)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरेट  : पुं० [हिं० तर+एट (प्रत्यय)] पेड़ू।
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तरेटी  : स्त्री०=तलहटी। (तराई)।
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तरेड़ा  : पुं०=तरेरा।
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तरेंदा  : पुं० [सं० तरंड] जलाशय पार करने का लकड़ियों आदि का ढाँचा। बेड़ा।
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तरेरना  : स० [सं० तर्ज-डाटना+हिं० हेरना-देखना] रोषपूर्वक या तिरछी आँखों से घूरते हुए किसी की ओर अथवा इधर-उधर देखना।
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तरेरा  : पुं० [अ० तरारः] १. लगातार डाली जानेवाली पानी की धार। २. जल की लहरों का आघात। थपेड़ा। पुं० रोष-भरी दृष्टि।
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तरेहुत  : क्रि० वि० [सं० तल या हिं० तले] १. नीचे। २. नीचे की ओर। वि० १. नीचे की ओर का। नीचेवाला। २. नीचा।
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तरैनी  : स्त्री० [हिं० तर=नीचे] हरिस और हल को मिलाने के लिए दिया जानेवाला पच्चर।
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तरैया  : स्त्री० [हिं० तारा] तारा। वि० [तरना] १. तरनेवाला। २. तारनेवाला।
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तरैला  : पुं० [हिं० तरे] [स्त्री० तरैली] १. किसी स्त्री० के दूसरे पति का वह पुत्र जो उसकी पहली पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हो। २. किसी पुरुष की दूसरी स्त्री० का वह पुत्र जो उसके पहले पति के वीर्य से उत्पन्न हो।
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तरैली  : स्त्री०=तरैनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरोई  : स्त्री०=तोरी। (तरकारी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरोंच  : स्त्री० [हिं० तर-नीचे] १. कंघी के नीचे की लकड़ी। २. दे० ‘तलौंछ’।
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तरोंचा  : पुं० [हिं० तर=नीचे] [स्त्री० तरोंची] जूए की निचली लकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरोंड़ा  : पुं० [देश०] फसल का वह अंश जो हलवाहों, मजदूरों आदि को देने के लिए अलग कर दिया जाता है।
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तरोता  : पुं० [सं० तरवट] मध्य तथा दक्षिण भारत में होनेवाला एक तरहका ऊंचा पेड़ जिसकी छाल चमड़ा सिझाने के काम आती है।
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तरोबर  : पुं० [सं० तरुवर] श्रेष्ठ वृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तरोबोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तरौंछ  : स्त्री०=तलछट।
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तरौंछी  : स्त्री० [हिं० तर+ओंछी (प्रत्यय)] १. करघे के हत्थे के नीचे लगी हुई लकड़ी। २. बैलगाड़ी के सुजावे के नीचे लगी हुई लकड़ी।
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तरौंटा  : पुं० [हि० तर+पाट] नीचेवाला पाट (चक्की आदि का)।
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तरौंता  : पुं० [हिं० तर+औंता (प्रत्यय)] छाजन में की वह लकड़ी जो टाट के नीचे रखी या लगाई जाती है।
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तरौना  : पुं० [सं० तालपर्ण, प्रा० तालउन्न] कानों में पहनने का एक आभूषण तो ताड़ के पत्ते की तरह फाँकदार और गोल होता है। तरकी। तरवन।
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तरौंस  : पुं० [हिं० तट+औंस (प्रत्यय)] जलाशय का तट। किनारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तर्क  : पुं० [सं०√तर्क (अनुमान)+अच्] १. कोई बात जानने या समझाने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। २. किसी तथ्य, धारणा, विचार, विश्वास आदि की सत्यता जाँचने के लिए अथवा उसके समर्थन या विरोध में कही हुई कोई तथ्यपूर्ण युक्ति-संगत तथा सुविचारित बात। दलील। (आर्ग्यूमेन्ट) ३. कोई चमत्कारक कथन या बात। व्यंग्यपूर्ण बात ४. ताना। ५. बहस। पुं० [अ०] छोड़ने या त्यागने की क्रिया या भाव। जैसे–उन्होने यह ख्याल तर्क दिया है।
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तर्क-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स] १. तांत्रिक उपासना में एक प्रकार की शारीरिक मुद्रा।
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तर्क-वितर्क  : पुं० [द्व० स०] १. यह सोचना कि यह बात होगी या वह। ऊहा-पोह। २. दो पक्षों में परस्पर एक दूसरे द्वारा प्रस्तुत की हुई सुविचारित बातों का किया जानेवाला खंडन या विरोध और अपनी बातों का किया जानेवाला समर्थन। ३. वाद-विवाद बहस।
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तर्क-शास्त्र  : पुं० [मध्य० स] १. वह विद्या या शास्त्र जिसमें किसी के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों आदि के खंडन मंडन करने की पद्धतियों का विवेचन होता है (लाजिक) २. दे० ‘न्याय शास्त्र’।
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तर्क-संगत  : वि० [तृ० त०] १. (बात) जो तर्क के आधार पर ठीक बैठे या सिद्ध हो। २. (मत) तर्क-वितर्क करने पर उसके परिणाम के रूप में निकनले या ठीक सिद्ध होनेवाला। (लाँजिकल)। ३. युक्ति-युक्त।
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तर्क-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] जो तर्क की दृष्टि से बिलकुल ठीक या प्रमाणित हो।
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तर्कक  : वि० [सं०√तर्क+णिच्+ण्वुल्-अक] १. तर्क करनेवाला। २. [तर्क√कै (प्रकाश)+क] माँगने वाला। याचक।
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तर्कण  : पुं० [सं०√तर्क+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. किसी बात या विषय के सब अंगो पर किया जानेवाला विचार। विवेचन। २. किसी पक्ष या विचार के समर्थन में उपस्थित की जानेवाली युक्ति। दलील।
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तर्कना  : स्त्री०=तर्कणा। अ०=तरकना।
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तर्कश  : पुं०=तरकश।
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तर्कस  : पुं० [स्त्री० अल्पा० तर्कशी]=तरकश।
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तर्काभास  : पुं० [तर्क-आभास, ष० त०] ऐसा तर्क जो ऊपर से देखने में ठीक सा जान पड़ता हो परन्तु जो वास्तव में ठीक न हो।
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तर्कारी  : स्त्री० [सं० तर्क√ऋ (गति)+अण्-ङीष्] जिस पर तर्क किया गया हो।
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तर्किल  : पुं० [सं०√तर्क+इलच्] चकवँड। पँवार।
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तर्की(किन्)  : पुं० [सं०√तर्क+णिनि] [स्त्री० तर्किनी] वह जो प्रायः तर्क करता रहता हो। स्त्री०=टरकी (पक्षी)।
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तर्कीब  : स्त्री=तरकीब।
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तर्कु  : पुं० [सं०√कृत् (काटना)+उ, नि० सिद्धि] सूत काटने का तकला। टेकुआ।
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तर्कु-पिंड  : पुं० [मध्य० स०] तकले की फिरकी।
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तर्कुक  : वि० [सं० तर्कु+कन्] प्रार्थना या निवेदन करनेवाला। पुं० १. प्रार्थी। २. अभियोग उपस्थिति करनेवाला। मुद्दई। वादी।
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तर्कुटी  : स्त्री० [सं०√तर्क+डटन्-ङीष्] छोटा तकला।
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तर्कुल  : पुं० [हिं० ताड़+कुल] १. ताड का पेड़। २. ताड़ का फल।
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तर्क्य  : वि० [सं०√तर्क+ण्यत्] १. जिसके संबंध में तर्क किया जा सके। २. विचारणीय।
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तर्क्षु  : पुं० [सं०=तरक्षु पृषो० सिद्धि] लकड़बग्घा।
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तर्क्ष्य  : पुं० [सं०√तर्क (गति)+ण्यत्, बा० गुण] जवाखार।
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तर्ज  : पुं० [अ०] १. बनावट या रचना प्रणाली के विचार से किसी वस्तु का आकार-प्रकार या स्वरूप। किस्म। प्रकार। २. किसी वस्तु को आकार-प्रकार या स्वरूप देने का विशिष्ट ढंग, प्रकार या प्रणाली। तरह।
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तर्जन  : पुं० [सं०√तर्ज् (भर्त्सना करना)+ल्युट्-अन] १. कोई काम करने से किसी को रोकने के लिए क्रोधपूर्वक कुछ कहना या संकेत करना। २. डराना-धमकाना।
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तर्जना  : अ० [हिं० तर्जन] तर्जन करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तर्जनी  : स्त्री० [सं० तर्जन+ङीष्] अँगूठे के पास की उँगली। विशेष–इस उँगली को होंठो पर रखकर अथवा खड़ी करके किसी को तर्जित किया जाता है इसी लिए इसका नाम यह पड़ा है।
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तर्जनी-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] तंत्र की एक मुद्रा जिसमें बाएँ हाथ की मुट्ठी बाँधकर तर्जनी और मध्यमा को फैलाते हैं।
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तर्जिक  : पुं० [सं०√तज्+घञ्-इक] एक प्राचीन देश।
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तर्जित  : भू० कृ० [सं०√तर्ज+क्त] जिसका तर्जन किया गया हो। जिसे डाँटा-डपटा या डराया-धमकाया गया हो।
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तर्जुमा  : पुं० [अ०] अनुवाद। उलथा। भाषाँतर।
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तर्ण  : पुं० [सं०√तृण् (भक्षण)+अच्] गाय का बछड़ा। बछवा।
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तर्णक  : पुं० [सं० तर्ण+कन्] १. तुरंत का जनमा गाय का बछड़ा। २. बच्चा। शिशु।
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तर्णि  : पुं०=तरणि (नाव)।
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तर्तरीक  : वि० [सं०√तृ+ईक्, नि, सिद्धि] १. पार जानेवाला। २. पार करने या ले जानेवाला। पुं० नाव। नौका।
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तर्पण  : पुं० [सं०√तृप् (संतुष्ट करना)+ल्युट-अन] [वि० तर्पणीय, तर्पित, तर्पी] १. तृप्त करने की क्रिया। २. हिदुओं का वह कर्मकांडी कृत्य जिसमें वे देवताओं, ऋषियों, पितरो आदि को तृप्त करने के लिए अंजुली या अरघे में जल भर कर देते हैं।
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तर्पणी  : वि० [सं० तर्पण+ङीष्] तृप्ति देनेवाली। स्त्री० १. गंगा नदी। २. खिरनी का पेड़ और फल।
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तर्पणी  : स्त्री० [सं०√तृप्+णिच्+णिनि-ङीष्] पद्यचारिणी। लता। स्थल कमलिनी। स्थलपद्म।
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तर्पणीय  : वि० [सं०√तृप्+अनीयर] १. जिसका तर्पण करना आवश्यक या उचित हो। २. जिसका तर्पण किया जा सकता हो। ३. जिसे तृप्त करना आवश्यक हो।
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तर्पणेच्छु  : वि० [सं० तर्पण-इच्छु, ष० त०] १. जिसे तर्पण करने की इच्छा हो। २. जो अपना तर्पण कराना चाहता हो। पुं० भीष्म।
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तर्पित  : भू० कृ० [सं०√तृप्+णिच्+क्त] १. तृप्त किया हुआ। २. जिसका तर्पण किया हुआ हो।
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तर्पी(पिन्)  : पुं० [सं०√तृप्+णिच्+णिनि] [स्त्री० तर्पिणी] १. वह जो दूसरों को तृप्त करता हो। २. तर्पण करनेवाला व्यक्ति।
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तर्बट  : पुं० [सं०] १. चकवँड़। पँवार। २. चाँद्र वर्ष।
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तर्बूज  : पुं०=तरबूज।
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तर्योना  : पुं०=तरौना (दे०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तर्रा  : पु० [देश०] चाबुक की डोरी या फीता।
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तर्राना  : पुं० दे० तराना। अ० दे० ‘चर्राना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तर्री  : स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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तर्ष  : पुं० [सं०√तृष् (तृष्णा)+घञ्] १. अभिलाषा इच्छा। २. तृष्णा। ३. सूर्य। ४. समुद्र। ५. जलाशय पार करने का बेड़ा।
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तर्षण  : पुं० [सं०√तृष्+ल्युट्-अन] [वि० तर्षित] १. पिपासा। प्यास। २. अभिलाषा। इच्छा।
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तर्षित  : वि० [सं० तर्ष+इतच्] १. प्यासा। २. अभिलाषा करनेवाला। इच्छुक।
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तर्षुल  : वि० [सं०√तृष्+उलच्]=तर्षित (दे०)।
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तल  : पुं० [सं०√तल (स्थिरहोना)+अच्] १. किसी चीज के बिलकुल नीचे का अंश या भाग। तला। पेंदा। २. जलाशय आदि के बिलकुल नीचे की जमीन जिस पर जल होता है। जैसे–नदी या समुद्र का तल। ३. किसी चीज के नीचेवाला भाग या स्थान। जैसे–तरुतल। ४. सात पातालों में से पहला पाताल। ५. एक नरक का नाम। ६. किसी चीज की ऊपरी सतह। जैसे–धरातल या समुद्रतल से १॰॰॰ फुट की ऊँचाई। ७. किसी पदार्थ के किसी पार्श्व का पैलाव या विस्तार। जैसे–चौकोर वस्तु के चारों तल। ८. चमड़े का वह पट्टा जो धनुष की डोरी की रगड़ से बचने के लिए बायी बाँह पर पहना जाता था। ९. बाएँ हाथ से वीणा बजाने की कला या क्रिया। १॰. हाथ की हथेली। ११. कलाई। पहुँचा। १२. बित्ता। बालिश्त। १३. पैर का तलवा। १४. गड्ढा। १५. ताड़ का पेड़ और फल। १६. दस्ता मुठिया। हत्था। १७. गोह नामक जंतु। १८. आधार। सहारा। १९. चपत। थप्पड़। २॰. जंगल। वन। २१. शिव का एक नाम। २२. कारण। मूल। २३. उद्देश्य। २४. स्वभाव।
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तल-कर  : पुं० [ष० त०] ताल या तालाब में होनेवाली वस्तुओं पर लगनेवाला कर।
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तल-छट  : स्त्री० [हिं० तल+छँटना] १. किसी तरल या द्रव पदार्थ के नीचे बैठी हुई गाद या मैल। तलौंछ। २. तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई चीज का वह अंश जो भारी होने के कारण नीचे बैठ जाता है। कल्क। (सेडिमेन्ट)।
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तल-पट  : पुं० [मध्य० स] आय-व्यय फलक। वि० [हिं० तले+पट] चौपट। नष्ट। बरबाद। उदाहरण–कहीं न मुफ्त में देखों या माल तलपट हो।–नासिख।
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तल-मल  : पुं० [मध्य० स] तल-छट। तलौंछ।
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तलक  : पुं० [सं० तल√कै (प्रकाश)+क] ताल। पोखरा। अव्य० हिं० ‘तक’ का पुराना रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तलकी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का पेड़ जिसकी लकड़ी का रंग ललाई लिए हुए भूरा होता है।
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तलकीन  : स्त्री० [अ० तल्कीनः] शिक्षा।
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तलकेश्वर  : पुं० [सं० दे० तारकेश्वर] एक तरह की ओषधि।
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तलख  : वि० [फा०] १. जिसमें कड़ुआपन हो। २. उग्र। प्रचंड।
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तलखी  : स्त्री० [फा० तल्खी] १. कडुआपन। कडुआहट २. स्वभाव का चिड़िचिड़ापन।
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तलगू  : स्त्री०=तेलगू।
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तलघरा  : पुं० [सं० तल+हिं० घर] तल अर्थात् नीचे का कमरा या घर। तहखाना।
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तलछटी  : वि० [हिं० तल-छट-ई (प्रत्यय)] पिघले हुए गरम स्निग्ध द्रव्य में कोई खाद्य वस्तु छोड़कर पकाना। जैसे–पापड़, पकोड़े या पूरियां तलना।
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तलप  : पुं=तल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तलपना  : अ०=तड़पना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलफ  : वि० [अ०] [भाव० तलफी] नष्ट। बर्बाद।
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तलफना  : अ०=तड़पना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलफाना  : स०=तड़पाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलफी  : स्त्री० [फा०] १. तलफ अर्थात् नष्ट होने की अवस्था या भाव। नाश। बरबादी। २. नुकसान। हानि। पद–हक-तलफी। (दे०)।
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तलफ्फुज  : पुं० [अ०] अक्षरों तथा शब्दों का उच्चारण।
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तलब  : स्त्री० [अ०] १. खोज। तलाश। २. प्राप्त करने की इच्छा। मुहावरा–तलब करना=किसी से अधिकारपूर्वक कुछ माँगना। ३. आवश्यकता। ४. बुलाना। बुलाहट। उदाहरण–-आवै तलब बांधि लै चालै बहुरि न करिहै फेरा।–कबीर। ५. तनख्वाह। वेतन।
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तलबगार  : वि० [फा०] १. तलब करने या चाहनेवाला। २. माँगनेवाला।
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तलबाना  : पुं० [फा० तल्बानः] १. गवाहों को कचहरी में तलब करने अर्थात् बुलाने के लिए अदालत के अधिकारी के पास जमा किया जानेवाला व्यय। २. वह अर्थदंड जो जमींदार को समय पर मालगुजारी न जमा करने पर भरना पड़ता था।
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तलबी  : स्त्री० [अ०] १. बुलाहट। २. माँग।
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तलबेली  : स्त्री० [हिं० तलफना] १. कुछ प्राप्त करने के लिए मन में होनेवाली व्यग्रता। छटपटी। २. विकलता। बेचैनी।
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तलमलाना  : अ० [भाव० तलमलाहट] दे० ‘तिलमिलाना’।
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तलव  : पुं० [सं० तल√वा (गति)+क] गानेवाला। गवैया।
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तलव-कार  : पुं० [ष० त०] १. सामवेद की एक शाखा। २. एक उपनिषद्।
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तलवा  : पुं० [सं० तल] पैर के बिलकुल नीचे का चिपटा अंश जोखड़े होने और चलने के समय जमीन पर पड़ता है। पद–तल। मुहावरा–तलवा (या तलवे) खुजलाना=तलवे (या तलवों) में खुजली होना जो लोक में इस बात का सूचक माना जाता है कि शीघ्र ही कोई यात्रा करनी पड़ेगी या कहीं बाहर जाना पड़ेगा। तलवा (या तलवे) न टिकना=एक जगह कुछ देर न बैठे रहा जाना। बराबर इधर-उधर आते-जाते या घूमते रहना। चलते-चलते तलवे चलनी या छलनी होना=इतनी अधिक दौड़-धूप करना कि पैरों में दम न रह जाय। (किसी के) तलवे चाटना=किसी को प्रसन्न करने के लिए उसकी छोटी-सी छोटी सेवाएँ करना। (किसी के) तलवे धो-धो कर पीना=अत्यन्त सेवा-शुश्रुवा करना। अत्यन्त प्रेम प्रकट करना। (किसी के) तलवे सहलाना=प्रसन्न करने के लिए बहुत ही दीन बनकर सभी तरह की सेवाएं करना। (कोई चीज) तलवों तले मेटना=कुचल कर नष्ट कर देना। रौंद डालना। (स्त्री०)। (कोई बात) तलवों तले मेटना=पूरी तरह से अवज्ञा या उपेक्षा करना। तुच्छ या हेय समझना। (किसी के) तलवों से आँखें मलना=दीन भाव से बहुत अधिक आदर-सत्कार और सेवा-सुश्रुषा करना। (कोई चीज) तलवों से मलना=पैरों से कुचल या रौंदकर नष्ट करना। (कोई बात देख या सुनकर) तलवों से लगना, सिर में जाकर बुझना=इतना अधिक क्रोध चढ़ना कि मानों सारा शरीर जल रहा हो। नीचे से ऊपर तक सारा शरीर जल जाना। (कभी-कभी इस मुहावरे का संक्षिप्त रूप होता है–तलवों से लगना, जैसे–उसकी बातें सुनकर मुझे तो तलवों से (आग) लग गई)।
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तलवार  : स्त्री० [सं० तलवारि] लोहे का एक लंबा धारदार प्रसिद्ध हथियार जिसके आघात से प्राणियों के अंग काटकर अलग किये जाते अथवा सिर काटकर उनकी हत्या की जाती है। मुहावरा–तलावर करना=तलवार की सहायता से युद्ध या वार करना। तलवार चलाना। तलवार कसना=तलवार का फल झुकाकर उसके लोहे की उत्तमता की परीक्षा करना। (किसी को) तलवार का पानी पिलाना=तलवार से आघात या वार करना। तलवार की छाँह (या छाहों) में=ऐसी स्थिति में जहाँ चारों ओर अपने सिर पर नंगी तलवारें ही दिखाई देती हों। (किसी को) तलवार के घाट उतारना-तलवार का आघात करके प्राण लेना। तलवार खींचना=आघात या वार करने के लिए म्यान से तलवार बाहर निकालना। तलवार तौलना=भरपूर वार करने के लिए तलवार ठीक ढंग से ऊपर उठाना। तलवार पर हाथ रखना (या ले जाना) तलवार से वार या आघात करने को उद्यत होना। तलवार बाँधना=इस उद्देश्य से तलवार सदा अपनी कमर में लटकाये रखना कि जब आवश्यकता हो, तब उसका उपयोग किया जा सके। तलावर सौंतना-तलवार तौलना। (देखें ऊपर)। पद–तलवार का खेत=लड़ाई का मैदान। युद्ध-क्षेत्र। तलवार का छाला-तलवार के फल पर उभरा हुआ चिन्ह या दाग। तलवार का डोरा=तलवार की धार या बाढ़ जो डोरे या सूत की तरह जान पड़ती है। तलवार का पट्टा या पट्ठा=तलवार का चौड़ा फल। तलावर का पानी=तलवार की चमकीली रंगत जो उसके बढ़िया होने की सूचक होती है। तलवार का फल=मूठ के आगे का सारा भाग। तलवार का बल=तलवार के फल का टेढ़ापन जो काट करने में सहायक होता है। तलवार का बाट=तलवार में वह स्थान जहां से इसका टेढ़ापन आरंभ होता है। तलवार का मुँह=तलवार की धार। तलवार का हाथ=(क) तलवार का आघात। (ख) तलवार चलाने का ढंग या प्रकार। तलवार की आँच=तलवार का आघात या वार। तलवार की माला=तलवार की मूठ और फल का वह जोड़ जो दुंबाले के पास होता है।
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तलवारिया  : पुं० [हिं० तलवार] वह व्यक्ति जो अच्छी तरह तलवार चलाना जानता हो।
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तलवारी  : वि० [हिं० तलवार] तलवार संबंधी। जैसे–तलवारी हाथ।
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तलहटी  : स्त्री० दे० ‘तराई’।
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तलहा  : वि० [हिं० ताल] ताल संबंधी। ताल काया ताल में होनेवाला। वि० [हिं० तल] तल अर्थात् नीचेवाले भाग में होने या रहनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तला  : पुं० [सं० तल] १. तल। (पेंदा)। २. तलवा। ३. जूते के नीचे का वह चमड़ा जो चलते समय जमीन पर पड़ता है।
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तलाई  : स्त्री० [हिं० ताल] छोटा ताल। तलैया। स्त्री० [हिं० तलना] तलने की क्रिया, भाव और मजदूरी। स्त्री० [हिं० तलाना] तलाने की भाव या मजदूरी।
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तलाउ  : पुं०=तलाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलाक  : पु० [अ०] १. पति और पत्नी का विधि या नियम के अनुसार वैवाहिक संबंधों का होनेवाला पूर्ण विच्छेद। २. बोल-चाल में, किसी चीज को सदा के लिए छोड़ या त्याग देने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०–देना।
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तलांगुलि  : स्त्री० [संतल-अंगुलि,ष० त०] पैर की उँगली।
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तलाची  : स्त्री० [सं०] चटाई।
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तलातल  : पुं० [सं० तल-अतल, ष० त०] पुराणानुसार सात पातालों में से एक।
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तलाफी  : स्त्री० [सं० तलाफी] क्षति-पूर्ति।
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तलाब  : पुं०=तालाब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलाबेली  : स्त्री=तलबेली (बेचैनी)।
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तलामली  : स्त्री०=तलाबेली (तलबेली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलाव  : पुं० [हिं० तलना] तलने की क्रिया, ढंग या भाव। पुं० [सं० तल्ल] तालाब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलाश  : स्त्री० [तु०] १. किसी खोई हुई अथवा लुप्त व्यक्ति आदि का पता लगाने का काम। अन्वेषण। खोज। २. किसी नई चीज या बात का पता लगाने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। ३. आवश्यकता की पूर्ति के लिए होनेवाली चाह।
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तलाशना  : स० [फा० तलाश] १. तलाश करना० खोजना। ढूँढ़ना। २. किसी बात या विषय का अनुसंधान करना।
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तलाशा  : स्त्री [सं०] एक तरह का पेड़।
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तलाशी  : स्त्री० [फा०] १. तलाश करने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न० २. अवैध रूप से छिपाई गई वस्तु का पता लगाने के लिए किसी संदिग्ध व्यक्ति के शरीर, घर आदि की होनेवाली देख-भाल। क्रि० प्र०–देना।–लेना।
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तलि  : क्रि० वि० पुं० हिं० में तले का एक रूप। उदाहरण–तलि कर साखा उपरि करि मूल।–कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलिका  : स्त्री० [सं० तल+ठन्-इक+टाप्] पशुओं विशेषतः घोड़ो के मुँह पर बाँधी जानेवाली वह थैली जिसमें दाना आदि भरा होता है। तोबड़ा।
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तलित  : भू० कृ० [हिं० तलना से] तला हुआ।
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तलित्  : स्त्री० [सं० तडित्, ड-ल] दे० ‘तडित्’।
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तलिन  : वि० [सं०√तल्+इनन्] १. दुबला-पतला। २. जीर्ण-शीर्ण। टूटा-फूटा। ३. इधर-उधर छितरा या फैला हुआ। विरल। ४. कम। थोड़ा। ५. साफ। स्वच्छ। स्त्री० शय्या। सेज।
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तलिम  : पुं० [सं०√तल्+इमन्] १. छत। पाटन। २. खाट या पलंग। शय्या। ३. चँदोआ। ४. खाँगा। ५. बड़ी छुरी। छुरा। ६. जमीन पर का पक्का फर्श।
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तलिया  : स्त्री० [सं० तल] १. तल। पेंदा। २. हाथ और पैर का तल। जैसे–हाथ की तली, पैर की तली। ३. पूजन आदि केसमय पैर की तली के नीचे रखा जानेवाला पैसा। ४. दे० ‘तलछट’।
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तलुआ  : पुं०=तालू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तलुन  : पुं० [सं०√तृ (गति)+उनन्] १. वायु। हवा। २. जवान आदमी। मरद।
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तले  : क्रि० वि० [सं० तल] १. किसी चीज के तल या नीचेवाले भाग में। २. किसी ऊँची या ऊपर टँगी हुई वस्तु से नीचे। पद–तले-ऊपर=(क) एक के ऊपर दूसरा। (ख) उलट-पलट किया हुआ। तले-ऊपर के-ऐसे दो बच्चे जिनमें एक दूसरे के ठीक-बात उत्पन्न हुए हों। तले ऊपर होना-प्रसंग या संभोग करना। (जी) तले ऊपर होना-(क) घबराहट या विकलता होना। (ख) जी मिचलाना। मितली होना। ३. किसी के वश या शासन में। जैसे–इस अधिकारी के तले पाँच आदमी काम करते हैं।
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तलेक्षण  : पुं० [सं० तल-ईक्षण, ब० स०] सूअर। (जन्तु)
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तलेटी  : स्त्री० [सं० तल] १.=पेंदी। २.=तलहटी। (तराई)।
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तलैचा  : पुं० [हिं० तले] वास्तु शास्त्र में, छत और मेहराब के बीच का भाग या रचना।
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तलैंड  : वि० [सं० तल] १. तल में होने या नीचे रहनेवाला। २. तुच्छ। हीन।
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तलैया  : स्त्री० [हिं० ताल] छोटा ताल या तालाब।
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तलोदर  : वि० [सं० तल-उदर, ब० स०] [स्त्री० तलोदरी] तोंदवा ला।
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तलोदरी  : स्त्री० [सं० तलोदर-ङीष्] स्त्री। भार्या। वि० ‘तलोदर’ का स्त्री रूप।
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तलोदा  : स्त्री० [सं० तल-उदक, ब० स० उपादेश] नदी।
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तलौंछ  : स्त्री० [सं० तल-नीचे] द्रव पदार्थ के पात्र के तल में जमी हुई मैल। तल-छट।
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तलौवन  : पुं० [अ०] १. मत, विचार, सिद्धांत स्थिति आदि में होनेवाला परिवर्तन। २. किसी बात या विचार पर स्थिर न होने का भाव।
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तल्क  : पुं० [सं०√तल्+कन्] वन। जंगल।
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तल्ख  : वि० [फा० तल्ख] [भाव० तल्खी] १. (पदार्थ) कडुआ। कटु। २. (स्वभाव) जिसमें कटुता, चिड़चिड़ापन आदि बातें अधिक हों।
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तल्प  : पुं० [सं०√तल+पक्] १. पलंग। सेज। शय्या। २. बिछौना। बिस्तर। उदाहरण–-दूर्वादल की तल्प तुम्हारा।–पंत। ३. मकान का ऊपरी खंड। ४. अटारी।
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तल्प-कीट  : पुं० [मध्य० स०] पलंग में रहनेवाला कीड़ा खटमल।
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तल्पज  : पुं० [सं० तल्प√जन् (उत्पन्न होना)+ड] क्षेत्रज पुत्र।
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तल्पन  : पुं० [सं० तल्प+क्विप् (नाम धातु)+ल्युट-अन] १. हाथी की पीठ। २. हाथी की पीठ का मांस।
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तल्पल  : पुं० [सं० तल्प√ला (लेना)+क] हाथी की रीढ़।
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तल्यक  : पुं० [सं० तल्प+कन्] १. पलंग। २. पलंग पर बिस्तर करनेवाला सेवक।
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तल्ल  : पुं० [सं० तत्√ली (लीन होना)+ड] १. बिल। विवर। २. गड्ढा। ३. ताल। तालाब।
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तल्लज  : वि० [सं० तत्√लज् (कान्ति)+अच्] उत्तम श्रेष्ठ।
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तल्लह  : पुं० [सं० तल्ल√हा (त्यागना)+क] कुत्ता।
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तल्ला  : पुं० [सं० तल] १. तल। पेंदा। २. जूते में चमड़े का वह अंश या भाग जो तलवे के नीचे रहता है और जमीन पर पड़ता है। तला। ३. किसी प्रकार की दोहरी चीज में तले या नीचे की परत या पल्ला। ४. कपड़े में लगाया जानेवाला अस्तर ५. निकटता। समीपता। पुं० [सं० तल्प] मकान का कोई खंड या मंजिल। जैसे–तीन तल्ले का मकान।
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तल्लिका  : स्त्री० [सं० तल्ल+कन्-टाप्, इत्व] ताले की कुंजी। ताली।
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तल्ली  : स्त्री० [सं० तत्√लस् (शोभित होना)+ड-ङीष्] १. तरुणी। युवती। २. नौका। नाव। ३. वरुण की पत्नी का नाम। स्त्री० [सं० तल] १. जूते का तल्ला। तला। २. दे० ‘तल-छट’।
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तल्लीन  : वि० [सं० तत्-लीन, स० त०] जो किसी काम या बात के संपादन में दत्तचित्त होकर लगा हो। मग्न।
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तल्लुआ  : पुं० [देश०] मध्य युग में गाढ़े या सल्लम की तरह का एक प्रकार का मोटा कपड़ा। तुकरी। महमूदी।
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तल्लो  : पुं० [सं० तल] जाँते का नीचेवाला पाट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तल्वकार  : पुं०=तलवकार।
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तव  : सर्व० [सं०] तुम्हारा।
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तव-क्षीर  : पुं० [सं०√तु (पूर्ति)+अच् तव-क्षीर, ब० स० फा० तबाशीर] १. तीखुर। २. वंशलोचन।
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तवक्का  : स्त्री० [अ० तवक्कुअ] आशा। भरोसा।
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तवक्कु  : पुं० [अ० तवक्कुफ़] १. देर। विलंब० २. ढील।
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तवक्षीरी  : स्त्री० [सं० तवक्षीर+ङीष्] कनकचूर जिसकी जड़ से एक प्रकार का तीखुर बनता है। अबीर इसी तीखुर का बनता है।
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तवँचुर  : पुं० [सं० ताम्रचूड़; हिं० तमचुर] मुर्गा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तवज्जह  : स्त्री० [अ०] १. कोई कार्य या बात जानने, समझने, सीखने, सुनने आदि के लिए उसकी ओर एकाग्रचित्त होकर दिया जानेवाला ध्यान। क्रि० प्र०–देना। २. अनुग्रह या कृपा की दृष्टि और व्यवहार।
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तवन  : स्त्री० [सं० तपन] १. तपन। २. गरमी। ताप। ३. अग्नि। आग। सर्व=वह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवना  : अ० [सं० स्तवन] स्तुति करना। उदाहरण–स्त्री० पति कुण सुमति तूझ गुण जुतवति।–प्रिथीराज। अ० [सं० तपन](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. तपना। उदाहरण–साँसों का पाकर वेग देश की हवा तबी सो जाती है।–दिनकर। २. दुःखी या पीड़ित होना। ३. गुस्से से लालहोना। ४. तेज या प्रताप दिखलाना। स०=तपाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवनी  : स्त्री० [हिं० तवा] छोटा और हलका तवा। तई।
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तँवयरी  : स्त्री०=तँवार।
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तवर  : पुं=तोमर। (क्षत्रियों का कुल)।
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तवरक  : पुं० [सं० तुवर] जलाशयों के किनारे होनेवाला एक तरह का पेड़।
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तवराज  : पुं० [सं०√तु (पूर्ति)+अच, तव√राज् (शोभित होना)+अच्] तुरंजबीन। यवास शर्करा।
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तवर्ग  : पुं० [ष० त०] देवनागरी वर्ण-माला के त, थ, द, ध, और न इन पाँचों वर्णों का वर्ग या समूह।
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तवलची  : पुं०=तबलची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवल्ल  : पुं०=तबला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवा  : पुं० [हिं० तवना=जलना] [स्त्री० अल्पा० तई, तवी, तोई, तौनी] १. लोहे की चादर का बना हुआ गोलाकार छोटा टुकड़ा जिस पर रोटी आदि पकाई जाती है। मुहावरा–तवा सिर से बाँधना=(क) बड़े-बड़े आघात या प्रहार सहने के लिए तैयार होना। (ख) अपने को खूब दृढ़ और सुरक्षित करना। तवे का हँसना=तवे के नीचे जमी हुई कालिख का तपकर लाल हो जाना और चमकने लगना जो घर में लड़ाईःझगड़ा होने का सूचक समझा जाता है। पद–तवे की बूँद=(क) इतना अल्प या कम जो तवे पर पड़ी हुई घी, तेल या पानी की बूँद के समान हो और तुरंत समाप्त हो जाय। (ख) बहुत ही अस्थायी और नश्वर। तवे सा मुँह-तवे के नीचेवाले भाग की तरह काली और कुरूप आकृति। २. उक्त आकार-प्रकार का लोहे का बहुत बड़ा गोल टुकड़ा। ३. मिट्टी या खपड़े का गोल ठीकरा जो चिलम में तमाकू के ऊपर और अंगारों या आग के नीचे रखा जाता है। पुं० [?] एक प्रकार की लाल मिट्टी जो प्रायः हींग में मिलावट करने के काम आती है।
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तवाई  : स्त्री० [हिं० ताव-ताप] १. ताप। २. लू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवाखीर  : पुं० [सं० त्वक्रक्षीर या तवक्षीर] १. तबाशीर० तीखुर। २. वंशलोचन।
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तवाजा  : स्त्री० [अ० तवाजः] आदर-सत्कार। खातिरदारी।
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तवाना  : वि० [फा०] मोटा-ताजा। हृष्ट-पुष्ट स० [हिं० तवा] ढक्कन चिपका या बैठाकर बरतन का मुँह बन्द करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=तपाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवायफ  : स्त्री० [अ०] गाने-नाचने का पेशा करनेवाली वेश्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तवारा  : पुं० [सं० ताप, हि० ताव] १. अत्यधिक गरमी। २. अत्यधिक गर्मी के कारण होनेवाला कष्ट। ३. जलन।
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तवारीख  : स्त्री० [अ०] इतिहास। (दे०)।
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तवारीखी  : वि० [अ०] ऐतिहासिक।
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तवालत  : स्त्री० [अ०] १. तबील अर्थात् लंबे होने की अवस्था या भाव। लंबाई। २. किसी काम में होनेवाली ऐसी झंझट या बखेड़ा जिससे उसके संपादन में प्रायः व्यर्थ का विस्तार हो या अधिक समय लगे।
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तविष  : पुं० [सं०√तु (पूर्ण करना)+टिषच्] १. स्वर्ग। २. समुद्र। सागर। ३. बल। शक्ति। ४. रोजगार। व्यवसाय। वि० १. पूज्य और बड़ा। वृद्ध। २. महत्वपूर्ण या महान्। ३. बलवान। शक्तिशाली।
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तविषी  : स्त्री० [सं० तविष+ङीष्] १. पृथ्वी। २. शक्ति। ३. नदी। ४. इन्द्र की एक कन्या।
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तवी  : स्त्री० [हिं० तवा] १. छोटा तवा। २. ऊँचे किनारोंवाली थाली की तरह का लोहे का वह पात्र जिसमें इमरती, जलेबी आदि तली जाती है।
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तवीयन  : पुं०=तबीब। (चिकित्सक)।
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तवीष  : पुं० [सं०-तविष] १. स्वर्ग। २. समुद्र। ३. सोना।
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तंवेरण  : पुं० [?] हाथी। (डि०)।
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तवेला  : पुं=तवेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तशद्दुद  : पुं० [अ०] १. आक्रमण। २. किसी के प्रति किया जानेवाला कठोर या कष्टदयाक व्यवहार।
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तशरीफ  : स्त्री० [अ०] १. महत्त्व। बड़प्पन। २. बडों के व्यक्तित्व के संबंध में सम्मानसूचक संज्ञा। जैसे–(क) तशरीफ रखिए या लाइए–पधारिये या विराजिए। (ख) आप भी वहाँ तशरीफ ले गये थे। अर्थात् पधारे थे।
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तशाखीस  : स्त्री० [अ०] १. अच्छी तरह की जानेवाली जाँच-पड़ताल या उसके फलस्वरूप होनेवाला निश्चय। २. लक्षण आदि देखकर की जानेवाली रोग की पहचान। निदान।
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तश्त  : पुं० [फा०] १. थाली के आकार का हल्का छिछला बरतन। बड़ी रिकाबी। २. परात। ३. वह पात्र जिसमें मल-त्याग किया जाता है। गमला।
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तश्तरी  : स्त्री० [फा०] धातु की चादर की बनी हुई छोटी चिपटी तथा छिछली थाली।
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तष्ट  : वि० [सं०√तक्ष् (छीलना)+क्त] १. छीला हुआ। २. कूटा दला या पिसा हुआ। ३. पीटा हुआ।
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तष्टा(ष्ट्र)  : पुं० [सं०√तक्ष्+तृच्] १. छीलनेवाला। २. काट-छाँट कर गढनेवाला। २. कूटने दलने या पीसनेवाला। पुं० १. विश्वकर्मा। २. एक आदित्य या सूर्य का नाम। पुं० [फा० तश्त] ताँबे की एक प्रकार की छोटी रिकाबी जिसमे पूजन की सामग्री रखते अथवा छोटी मूर्तियों को स्नान कराते हैं।
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तस  : वि० [सं० तादृश, प्रा० तारिस; पुं० हिं० तइस] तैसा। वैसा। पद–जस का तस-ज्यों का त्यो। जैसा था वैसा ही।
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तसकर  : पुं०=तस्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तसकीन  : स्त्री० [अ० तस्कीन] ढाढस। सांत्वना।
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तसगर  : पुं० [देश०] ताने में नौलक्खी के पास की दो लकड़ियों में से एक। (जुलाहे)।
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तसगीर  : स्त्री० [अ० तस्गीर] १. हलका या छोटा रूप देने की क्रिया या भाव। संक्षेपण। २. उक्त प्रकार से दिया हुआ रूप। संक्षेप।
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तसदीक  : स्त्री० [अ० तस्दीक] १. सच्चे होने की अवस्था या भाव। सचाई। सत्यता। २. इस बात की जाँच और निर्णय कि जो कुछ सामने रखा या लगाया गया है, वह वस्तुतः वही है जो होना चाहिए। जैसे–दस्तावेज या उस पर के दस्तखत की तसदीक। ३. किसी बात की सत्यता के संबंध में किया जानेवाला समर्थन। ४. गवाही।
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तसदीह  : स्त्री० [अ० तस्दीअ] १. कष्ट। तकलीफ। २. झंझट। बखेड़ा। ३. परेशानी।
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तसद्दुक  : पुं० [अ०] १. सदके अर्थात् निछावर करने की क्रिया या भाव। २. सदके या निछावर की हुई चीज। ३. कुरबानी। बलिदान।
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तसनीफ  : स्त्री० [अ० तस्नीफ] किसी प्रकार की साहित्यिक कृति या रचना।
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तसफ़ीया  : पुं० [अ० तस्फियः] १. फैसला। २. समझौता।
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तसबी  : स्त्री०=तसबीह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तसबीह  : स्त्री० [अ० तसबीह] वह जप-माला या सुमिरनी जो मुसलमान लोग ईश्वर का नाम लेने के समय फेरते हैं। मुहावरा–तसबीह फेरना=नाम की माला जपना। जप करना।
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तसमा  : पुं० [फा० तस्मः] कोई चीज कसकर बाँधने के लिए उसमें लगा या लगाया हुआ चमड़े सूत आदि का फीता या डोरी। जैसै–जूते का तमसा। मुहावरा–तसमा खींचना=मध्ययुग में तसमा लपेटकर किसी-किसी का गला घोटना या उसकी हत्या करना।
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तसला  : पुं० [फा० तश्त+लाश् (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० तसली] खड़ी तथा ऊँची दीवारवाला एक तरह का गोल पात्र जिसमें तरकारी, दाल आदि पकाई जाती है।
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तसलीम  : स्त्री० [अ० तस्लीम] १. कोई बात मान लेने या कोई आदेश पालन करने की क्रिया या भाव। २. किसी का महत्त्व मानते हुए किया जानेवाला अभिवादन। नमस्कार। सलाम।
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तसल्ली  : स्त्री० [अ०] १. वह कलापूर्ण रचना जिससे किसी नीराश या हतोत्साह व्यक्ति का धैर्य बँधता है। ढाढस। सांत्वना।
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तसवीर  : स्त्री० [अ०] १. वह कलापूर्ण रचना जिससे किसी वस्तु के बाहरी आकार-प्रकार या स्वरूप का ज्ञान होता हो। चित्र। (दे०) क्रि० प्र–उतारना।–खींचना।–बनाना। २. किसी घटना या स्थिति की यथार्थता बतलाने वाले विवरण। वि० बहुत सुन्दर।
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तसी  : स्त्री० [देश] ऐसा खेत जो बोये जाने से पहले तीन बार जोता गया हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तसु  : सर्व० [सं० तस्य] उसका। उसके। उदाहरण–जुआलि नालि तसु गरभ जेंहवी।–प्रिथीराज।
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तसू  : पुं० [सं० त्रि+शूक-जौ की तरह का एक अन्न] प्रायः सावइंच के बराबर की एक देशी नाप।
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तस्कर  : पुं० [सं० तद√कृ (करना)+अच् (नि० सुट्-दृ-लोप)] १. दूसरों की चीजें चुरानेवाला। चोर। २. चोर नामक गंध द्र्व्य ३. सुनने की इन्द्रिय। कान। ४. मदन नाम का वृक्ष। मैनफल। ५. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्राकर के केतु जो बुध ग्रह के पुत्र माने जाते हैं और जिनकी संख्या ५१ कही गयी है।
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तस्कर-स्नायु  : पुं० [ब० स०] काकनासा लता।
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तस्करता  : स्त्री० [सं० तस्कर+तल्-टाप्] तस्कर का कार्य या भाव। चोरी।
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तस्करी  : स्त्री० [सं० तद्√कृ+ट-ङीप्] १. चोर की स्त्री। २. चोर स्त्री। चोरनी। ३. चोरी।
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तस्नीफ  : स्त्री०=तसनीफ।
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तस्बीह  : स्त्री०=तसबीह।
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तस्मा  : पुं०=तमसा।
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तस्मात्  : अव्य० [सं०] इसलिए। अतः।
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तस्य  : सर्व० [सं०] उसका।
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तस्यु  : वि० [सं०√स्था (ठहरना)+कु, द्वि] एक ही स्थान पर दृढ़तापूर्वक स्थित रहनेवाला। अचल।
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तस्लीम  : स्त्री०=तसलीम।
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तस्वीर  : स्त्री०=तसवीर।
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तस्सू  : पुं०=तसू।
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तहँ  : क्रि० वि० [हिं० तहाँ] उस स्थान पर। वहाँ।
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तह  : स्त्री० [फा०] १. कागज, कपड़े आदि के बड़े टुकड़े का वहअंश जो मोड़ने पर उसके दूसरे अंश के ऊपर या नीचे पड़ता हो। परत। जैसे–इस कपड़े की चार तहें लगाओं। क्रि० प्र०–जमाना।–बैठाना।–लगाना। मुहावरा–तह करना=किसी फैली हुई (चद्दर आदि के आकार की) वस्तु के भागों को कई ओर से मोड़ और एक दूसरे के ऊपर लाकर उस वस्तु को समेटना। चौपरत करना। तह कररखना-छिपा या दबाकर रोक रखना। (व्यंग्य)। जैसे–आप अपनी लियाकत तह कर रखिए। (किसी चीज पर) तह चढ़ाना या देना–(क) लेप आदि के रूप में ऊपर परत या स्तर चढ़ाना या जमाना। (ख) हलका रंग चढ़ाना। २. किसी पदार्थ का बिल्कुल नीचेवाला भाग या स्तर। जैसे–(क) किसी बात की तह तक पहुँचना। (ख) गिलास की तह में मिट्टी जमना या बैठना। मुहावरा–(किसी बात की) तह तोड़ना-मूल आधार नष्ट करना। जैसे–झगड़े या बखेड़े की तह तोड़ना। (कूएँ की) तह तोड़ना-कूआँ साफ करने के लिए या उसकी मरम्मत करने के लिए उसका सारा पानी बाहर निकाल देना। (किसी चीज की) तह देना-नीचे का या मूल स्तर प्रस्तुत या स्थापित करना। जैसे फुलले में मिट्टी के तेल की तह दी जाती है (जानवरों की) तह मिलाना=संभोग के लिए नर और मादा को एक साथ रखना। पद–तह का सच्चा-वह कबूतर जो बराबर सीधा अपने छत्ते पर चला आवे, अपना स्थान न भूले। तह की बात (क)=अन्दर की, छिपी हुई या रहस्य की बात। (ख) यथार्थ ज्ञान या तत्त्व की बात। ३. पानी के नीचे की जमीन। तल। ४. बहुत पतला या महीन पटल। झिल्ली। क्रि० प्र०–जमना।–बैठना।
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तह-दरज  : वि० [फा०] (कपड़ा) या और कोई पदार्थ जिसकी तह अभी तक न खुली हो अर्थात् जिसका उपयोग या व्यवहार न हुआ हो। बिलकुल नया।
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तह-बाजारी  : स्त्री० [फा०] हाट, बाजार, सट्टी आदि में दुकान लगानेवालों से लिया जानेवाला कर।
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तहकीक  : स्त्री० [अ०] १. यथार्थता, वास्तविकता या सत्यता। २. यथार्थता या सत्यता के सम्बन्ध में होनेवाली छान-बीन या जाँच-पड़ताल। ३. जिज्ञासा। पूछ-ताछ।
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तहकीकात  : स्त्री० [अ० तहकीक का बहु] यथार्थता या सत्यता का पता लगाने के लिए की जानेवाली छान-बीन या जाँच-पड़ताल।
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तहखाना  : पुं० [फा०] किसी मकान, महल आदि के नीचे का वह कमरा जो आस-पास की जमीन या उस मकान की कुरसी के नीचे पड़ता हो।
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तहजीब  : स्त्री० [अ०] १. किसी चीज को दर्शनीय और सुन्दर बनाने का काम। २. शिष्टाचार। ३. सभ्यता। (देखें)।
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तहत  : पुं० [अ०] १. अधिकार। वश। २. अधीनता। मातहती।
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तहना  : अ० [हिं० तेह] तेहा दिखाना। कुद्ध होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तहनिशाँ  : पुं० [फा०] वह कपड़ा जिसे पहले सिर पर लपेटकर उपर से पगड़ी बाँधी जाती है।
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तहमत  : पुं० [फा० तहबंद या तहमद] कमर में लपेटी जानेवाली लूँगी।
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तहम्मुल  : पुं० [अ०] बरदाश्त करने या सहने की शक्ति। सहनशीलता।
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तहरा  : पुं०=ततहँड़ा।
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तहरी  : स्त्री० [अ० ताहिरी-ताहिर नामक व्यक्ति का] १. चावलों की वह खिचड़ी जो चने, मटर, पेठे की बरी आदि मिलाकर बनाई जाती है। उदाहरण–तहरी पाकि लोनि और बरी।–जायसी। २. कालीन बुनने के करघे में की ढरकी।
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तहरीक  : स्त्री० [अ०] १. ऐसी क्रिया या बात जिससे किसी को बढ़ावा मिलता हो अतवा वह उत्तेजित होता हो। २. प्रस्ताव।
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तहरीर  : स्त्री० [अ०] १. लिखाई। लिखावट। २. अक्षरों के रूप आदि के विचार से लिखने का ढंग या शैली। ३. लिखी हुई चीज या बात। ४. लिखा हुआ कागज। लेख्य। ५. अदालतों में मुहर्रिरों, मुंशियों आदि को लिखने आदि के बदले में दिया जानेवाला पारिश्रमिक या पुरस्कार। ६. कपड़ो पर होनेवाले गेरू की कच्ची छपाई जो कसीदा काढ़ने के लिए की जाती है। (छीपी) ७. जे० खुलाई (चित्रकला की)।
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तहरीरी  : वि० [फा०] जो तहरीर या लेख के रूप में हो। लिखा हुआ। लिखित। जैसे–तहरीरी सबूत।
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तहलका  : पुं० [अ० तहल्कः-हलाक करना या मार डालना] १. बहुत बड़ा उत्पात या उपद्रव। २. बहुत बड़ी खलबली या हलचल। जैसे–यह खून हो जाने से मुहल्ले भर में तहलका मच गया है। क्रि० प्र०–पडना।–मचाना। ३. बरबादी। विनाश। (क्व०)।
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तहँवाँ  : क्रि० वि०=तहाँ। (वहाँ)।
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तहवाँ  : अव्यय–तहाँ। (वहाँ पर)।
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तहवील  : स्त्री० [अ०] १. किसी के हवाले या सुपुर्द करने की क्रिया या भाव। सपुर्दगी। २. अमानत। धरोहर। ३. वह स्थान जहाँ धन या रोकड़ रखी जाती हो।
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तहवीलदार  : पुं० [अ० तहवील+फा० दार] वह जिसके पास तहवील रहती हो। खजानची।
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तहस-नहस  : पुं० [अ० नहस] १. पूरी तरह से तोड़ा-फोड़ा या नष्ट किया हुआ। नष्ट-भ्रष्ट। २. ध्वस्त।
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तहसील  : स्त्री० [अ०] १. लोगों से चीजें या रुपए वसूल करने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार वसूल किया हुआ धन या पदार्थ। ३. आधुनिक भारत में सासन की सुविधा के लिए जिले के विभक्त भागों में से कोई एक जिसका प्रधान अधिकारी तहसीलदार कहलाता है। ४. तहसीलदार का कार्यालय।
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तहसीलदार  : पुं० [अ० तहसील+फा० दार] १. भूमिकर या लगान तहसीलने अर्थात् वसूल करने वाला अधिकारी। २. आज-कल किसी तहसील जिले के विभाग) का प्रधान अधिकारी।
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तहसीलदारी  : पुं० [अ० तहसील+फा० दार+ई] तहसीलदार का काम, पद या भाव।
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तहसीलना  : स० [अ० तहसील] (कर, मालगुजारी, चंदा आदि) वसूल करना। उगाहना।
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तहाँ  : क्रि० वि० [सं० तत्+स्थान, प्रा० थाण, थान] उस स्थान पर। वहाँ।
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तहाना  : स० [हिं० तह] कपड़े, काग आदि के बड़े टुकड़े की तहें या परतें लगाना। तह करना।
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तहाशा  : पुं० [अ०] १. परवाह। २. डर। भय०।
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तहि० याँ  : क्रि० वि० [सं० तदाहि] १. उस समय। तब। २. वहीं।
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तहियाना  : स०=तहाना।
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तहीं  : क्रि० वि० [हिं० तहाँ] उसी जगह। वहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तही  : स्त्री० [हिं० तह०] १. तह। परत। २. एक के ऊपर एक करके रखी हुई चीजों का थाक। क्रि० प्र०–लगाना। ३. किसी चीज का जमा हुआ थक्का।
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तहोबाला  : पुं० [फा०] उलट-पुलट।
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ता-प्रत्यय  : [सं० तल और टाप् से निष्पन्न] एक प्रत्यय जिससे विशेषणों और संज्ञाओं के भाववाचक रूप बनाये जाते हैं। जैसे–विसेष से विशेषता मानव से मानवता। अव्य० [फा०] तक। पर्यन्त। सर्व० [सं० तद्०] उस। वि०–उस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ताँई  : क्रि० वि०=ताईं।
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ताईं  : अव्य० [हिं० तइँ] १. किसी की ओर या किसी के प्रति। २. किसी के विषय या संबंध में। ३. निमित्त। लिए। वास्ते। उदाहरण–कीन्ह सिंगार मिलन के ताई।–कबीर। अव्य० [सं० तावत् या फा० ता] १. तक। पर्यत। २. निकट। पास।
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ताई  : स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताप+ई (प्रत्य०] १. ताप। हलका। ज्वर। हरारत। २. जाड़ा देकर आने वाला बुखार। जूड़ी। स्त्री० [हिं० ताया का स्त्री०] ताया अर्थात् पिता के बड़े भाई की पत्नी। स्त्री०=तई (छोटा तवा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताईत  : पुं०=तावीज। (जन्तर)।
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ताईद  : स्त्री० [अ०] १. पक्षपात। तरफदारी। २. किसी के कथन, पक्ष, प्रस्ताव आदि का किया जानेवाला समर्थन। पुं० १. किसी के अधीन या साथ रहकर काम सीखनेवाला व्यक्ति। २. किसी मुख्तार या वकील का मुंशी, मुहिर्रिर या लेखक।
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ताउ  : पुं०=ताव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताउल  : स्त्री० [हिं० उतावला] उतावली। जल्दी। उदाहरण–बहुत ताउल है तो छप्पर से मुँह पोंछ।–खुसरो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताऊ  : पुं० [सं० तात] [स्त्री० ताई] संबंध के विचार से पिता का बड़ा भाई। ताया। पद–बछिया का ताऊ=बैल की तरह निरा मूर्ख। गावदी।
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ताऊन  : पुं० [अ०] एक प्रसिद्ध घातक और संक्रामक रोग जिसमें बुखार के साथ गिलटी निकलती है। प्लेग।
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ताऊस  : पुं० [अ०] १. मोर। मयूर। पद–तख्त-ताऊस (देखें)। २. सारंगी की तरह का एक बाजा जिसके ऊपरी सिरे की आकृति मोर की तरह होती है।
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ताऊसी  : वि० [अ०] १. मोर-संबंधी। मोर का। २. आकार, रूप आदि में मोर की तरहका। ३. मोर के पर की तरह का ऊदा या बैंगनी। पुं० एक प्रकार का रंग जो मोर के पर की तरह गहरा ऊदा, नीला या बैंगनी होता है। मोर-पंखी।
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ताक  : स्त्री० [हिं० ताकना] १. ताकने की क्रिया, ढंग या भाव। पद–ताक-झाँक-(देखें)। मुहावरा–(किसी पर) ताक रखना-किसी के कामों, व्यवहारों आदि पर दृष्टि, ध्यान या निगाह रखना देखते रहना कि क्या किया जाता है या क्या होता है। २. स्थिर दृष्टि टकटकी। मुहावरा–ताक बाँधना-टकटकी लगाकर या निगाह जमाक देखते रहना। ३. स्वार्थ साधन के विचार से आघात, लाभ आदि के उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते हुए पूरा ध्यान रखना। घात। मुहावरा–(किसी की) ताक में निकलना-किसी को ढूँढ़ने या पाने के लिए कहीं जाना या निकलना। (किसी की) ताक में रहना-किसी पर आक्रमण प्रहार आदि करने के लिए उपयुक्त अवसर स्थान आदि की प्रतीक्षा करना। ताक लगाना=कहीं ठहर या बैठकर उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते रहना। ताक में रहना-उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करना। अवसर या मौका देखते रहना। पुं० [अ० ताक] १. दीवार की चुनाई में प्रायः चौकोर गड्ढे की तरह छोड़ा हुआ खाली स्थान जो छोटी-छोटी चीजें रखने के काम आता है। आला। ताखा। मुहावरा–ताक पर धरना या रखना-व्यर्थ समझकर पड़ा रहने देना या ध्यान न देना। जैसे–हमारी बातें तो तुम ताक पर रखते चलते हो। ताक पर रहना या होना यों ही पड़ा रहना। किसी काम में न आना। व्यर्थ जाना। जैसे–उनका यह हुकूम ताक पर ही रह जायेगा। ताक भरना=मुसलमानों का एक धार्मिक कृत्य जिसमें वे किसी मसजिद या दूसरे पवित्र स्थान में जाकर (मन्नत पूरी करने के लिए) वहाँ के ताकों या आलों में मिठाइयाँ, फल आदि रखते हैं और तब उन्हें प्रसाद के रूप में लोगों में बाँटते हैं। वि० १. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। २. जिसके जोड़ या बराबरी का और कोई न हो। अद्वितीय। निरुपम। बेजोड़। ३. जो संखया में समान हो अर्थात् जिसे दो से भाग देने पर पूरा एक बच रहे। विषम। जैसे–३,५,७,९ आदि ताक है, और ४,६,८,१॰ आदि जुफ्त या जूस है।
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ताक-झांक  : स्त्री० [हिं० ताकना+झाँकना] १. टोह, लेने, ढूँढ़ने, पाने आदि के उद्देश्य से रह-रहकर इधर-उधर बराबर ताकते या देखते और झांकते रहने की क्रिया या भाव। २. छिपकर या औरों की दृष्टि बचाकर बुरे भाव से ताकने की क्रिया या भाव।
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ताकजुफ्त  : पुं० [अ० ताक-विषम+फा० जुफ्त-जोड़ा] कौड़ियों से खेला जानेवाला जूस, ताक (देखें) नाम का खेल।
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ताकत  : स्त्री० [अ०] १. कोई काम कर सकने की शक्ति या सामर्थ्य। जैसे–(क) आँखों में इतनी दूरी तक देखने की ताकत नहीं है। (ख) इस कुरसी में इतनी ताकत नहीं है कि वह तुम्हारा बोझ सह सके। २. सारीरिक या मानसिक बल। जैसे–बच्चे में नदी पार करने की या अँगरेजी बोलने की ताकत कैसे हो सकती है।
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ताकतवर  : वि० [फा०] जिसमें ताकत हो। शक्तिशाली। जैसे–वह दल इसकी अपेक्षा अधिक ताकतवर है।
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तांकना  : अ० स०=ताकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ताकना  : स० [सं० तर्कण] १. तर्क या बुद्धि के द्वारा कोई बात जानना या समझना। (क्व०) २. देखना। ३. ध्यानपूर्वक या आँख गड़ाकर किसी की ओर देखना। ४. बुरे उद्देश्य या दुष्ट-भाव से किसी की ओर देखना। उदाहरण–जे ताकहि पर धन पर दारा।–तुलसी। ५. पहले से देखकर कुछ स्थिर करना। ६. अवसर की प्रतीक्षा या घात में रहना। ७. आघात या वार करने के लिए लक्ष्य की ओर ध्यानपूर्वक देखना। उदाहरण–नावक सर से लाईकै तिलक तरुनिहत ताकि।–बिहारी। ८. देख-रेख या रखवाली करना।
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ताकरी  : स्त्री०=टाकरा (देश या लिपि)।
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ताकि  : अव्य० [फा०] इसलिए कि। जिसमें। जैसे–तुम यहाँ बैठे रहों, ताकि यहाँ से कोई चीज गायब न होने पावे।
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ताकीद  : स्त्री० [अ०] कोई काम करने न करने आदि के संबंध में जोर देकर या कई बार कही जानेवाली बात। जैसे–नौकर को ताकीद कर दो कि वह सौदा लेकर तुरन्त लौट आवे। क्रि० प्र०–करना।
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ताकोली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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ताख  : पुं०=ताखा। वि०=ताक।
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ताखड़ा  : वि०=तगड़ा (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताखड़ी  : स्त्री० [सं० त्रि+हिं० कड़ी] तराजू।
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ताखा  : पुं० [अ० ताक] १. दीवार में छूटा हुआ वह चौकोर स्थान जिसमें चीजें आदि रखी जाती है। आला। ताक। २. गत्ते पर लपेटा हुआ कपड़े का थान।
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ताखी  : वि० [अ० ताक] (प्राणी) जिसकी एक आँख दूसरी आँख से आकार, रंग, रचना आदि की दृष्टि से कुछ भिन्न हो।
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ताग  : पुं०=तागा।
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ताग-पहनी  : स्त्री० [हिं० ताग+पहनावा] करघे में की एक लकड़ी जिससे बय में तागा पहनाया जाता है।
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ताग-पाट  : पुं० [हिं० तागा+पाट=रेशम] एक प्रकार का गहना जो रेशम के तागे में सोने चाँदी के टिकड़े आदि पिरोकर बनाया जाता है और जो विवाह के समय पहना जाता है। क्रि० प्र०–डालना। विशेष–यह गहना प्रायः वधू का जेठ उसे देता या पहनाता है।
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तागड़  : स्त्री० [देश०] रस्मों आदि की बनी हुई सीढ़ी जिसके सहारे बड़े-बड़े जहाजों से समुद्र में उतरा तथा चढ़ा जाता है। (लश०)।
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तागड़ी  : स्त्री० [हिं० तागा+कड़ी] १. कमर में बाँधने की डोरी करधनी। २. एक तरह की करधनी जिसमें सोने चाँदी आदि के घुँघरू लगे रहते हैं।
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तागना  : स० [?] १. तागे से सीना या बखिया करना। पिरोना। २. रूईदार कपड़ों को बीच-बीच में इसलिए मोटे डोरे से लंबाई के बल सीना कि रूई इधर-उधर खिसकने न पावे।
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ताँगा  : पुं०=टाँगा
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तागा  : पुं० [सं० तार्कव, प्रा० ताग्गी] १. वह पतला ततु जो ऊन, रूई, रेशम आदि को तकले आदि कातने से तैयार होता है। सूत। २. इस प्रकार काते हुए तंतुओं या सूतों को बटकर तैयार किया हुआ वह रूप जिससे कपड़े सीये या मालाएँ आदि गूँथी जाती है। मुहावरा–कपड़े में तागा डालना=(क) सीये जानेवाले कपड़े में दूर-दूर पर कच्ची सिलाई करना। (ख) दे० तागना। ३. जनेऊ। यज्ञोपवीत। ४. वह कर जो मध्ययुग में घर के प्रति व्यक्ति के हिसाब से लिया जाता था।
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ताछन  : पुं० [सं० तक्षण] १. शत्रु का वार बचाने के निमित्त उसके बगल में होकर आगे बढ़ना। कावा। २. घोड़े का कावा काटना। उदाहरण–उड़त अमित गति कटि कटि ताछन।–पद्माकर।
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ताछना  : अ० [हिं० ताछन] बड़े राजाओं या बादशाहों के पहनने का मुकुट। राजमुकुट। २. गंजीफे के पत्तों का एक रंग जिसमें ताज या मुकुट की आकृति बनी रहती हैं। ३. अपने वर्ग में सर्वश्रेष्ठ पदार्थ। पद–ताज-महल। (देखें) ४. कलगी। तुर्रा। ५. मुरगे, मोर आदि कुछ विशिष्ट पक्षियों के सिर पर के खड़े बाल। कलगी। चोटी। शिखा। ६. मकान के ऊपरी भाग में सोभा के लिय बनाई जानेवाली छोटे बुर्ज के आकार की रचना। ७. दीवार के ऊपरी भाग में शोभा के लिए बनाई जानेवाली उभारदार रचना। कँगनी। कारनिस। ८. दे० ताज-महल। पुं० ताजन (कोड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताजक  : पुं० [फा०] १. एक ईरानी जाति जो तुर्किस्तान के बुखारा प्रदेश से काबुल और बलोचिस्तान तक पाई जाती है। २. ज्योतिष का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जो पहले अरबी और फारसी भाषाओं में था और जिसका भारत में संस्कृत में अनुवाद हुआ था। यह यवनाचार्य कृत माना जाता है।
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ताजगी  : स्त्री० [फा०] १. ‘ताजा’ होने की अवस्था, गुण या भाव। ताजापन। २. फूल-पौधों आदि का हरापन। ३. शिथिलता आदि दूर होने पर प्राप्त होनेवाली मन की प्रफुल्लता और स्वस्थता। जैसे–जरा छांह में बैठकर ठंढी हवा खाओं, अभी थकावट दूर हो जायगी और ताजगी आ जायेगी
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ताजदार  : वि० [फा०] १. ताज के ढंग का। २. जिसमें ताज की सी आकृति या रचना बनी हो। जैसे–ताजदार कँगूरा। पुं० ताज पहननेवाला, अर्थत् बादशाह या बहुत बड़ा राजा।
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ताजन  : पुं० [फा० ताजियाना] १. कोड़ा। चाबुक। २. दंड। सजा।
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ताजना  : पुं०=ताजन।
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ताजपोशी  : स्त्री० [फा०] १. नये राजा को पहले-पहल राज सिंहासन पर बैठने के समय ताज पहनने या राजमुकुट धारण करने का कृत्य या रीति। २. उक्त अवसर पर होनेवाला उत्सव या सामारोह।
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ताजबीबी  : स्त्री० [फा० ताज+बीबी] मुगलकालीन भारत सम्राट शाहजहाँ की पत्नी मुमताजमहल का एक नाम। विशेष–इसी की स्मृति में शाहजहाँ ने ताजमहल बनवाया था।
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ताजमहल  : पुं० [अ] उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में यमुना नदी के तट पर संगमरमर का बना हुआ एक भव्य तथा विशाल मकबरा जिसे भारत सम्राट शाहजहाँ ने अपनी पत्नी ताजबीबी की स्मृति में बनवाया था। (इसकी गणना संसार की सर्वश्रेष्ट सात सुंदर वास्तुओं में होती है।)
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ताजा  : वि० [फा० ताज] [स्त्री० ताजी, भाव० ताजगी] १. (वानस्पतिक पदार्थ) जिसे अभी-अभी चयन किया गया हो। जो अधिक समय से पड़ा या रखा हुआ न हो फलतः जो हरा-भरा हो तथा जिसके मूल गुण नष्ट न हुए हों। जैसे–ताजा फल या फूल। २. (खाद्य पदार्थ) जो अभी-अभी या आज ही बना हो। जो बासी न हो। जैसे–ताजी रोटी, ताजा दूध। ३. (पदार्थ) जिसे तैयार हुए या बने अधिक समय न बीता हो। जैसे–उनके यहाँ अभी दिसावर से ताजा माल आया है। ४. (पदार्थ) जो अपने उदगम या मूल स्थान से अभी-अभी निकला हो और जिसमें अभी तक कोई मिश्रण या विकार नहुआ हो जैसे–ताजा खून, ताजा दूध ताजा पानी। ५. (बात या विचार) जिसकी अनुभूति या बोध पहले-पहल हो रहा हो। जैसे–ताजी खबर। ६. (बात या विचार) जो फिर से नये रूप में या नये उद्देश्य से सामने लाया गया हो। जैसे–(क) बीता हुआ झगड़ा फिर से ताजा करना। (ख) कोई चीज या बात देखकर किसी की याद ताजा करना। ७. (चीज) जो शुद्ध तथा स्वच्छ हो। जैसे–ताजी हवा। ८. (चीज) जिसकी गंदगी या विकार दूर करके ठीक किया गया हो और जो फिर से काम में आने के योग्य हो गया हो। जैसे–ताजी भरी हुई चिलम ताजा किया हुआ (पानी बदला हुआ) हुक्का। ९. (व्यक्ति) जिसकी क्लांति या शिथिलता दूर हो चुकी हो और जो प्रफुल्लित या स्वस्थ होकर फिर से अपना पूरा काम ठीक तरह से करने के लिए तैयार हो गया हो। जैसे–कुछ देर तक सुस्ता लेने (अथवा नहा लेने या जलपान कर लेने) पर आदमी ताजा हो जाता है।
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ताजिया  : पुं० [अ०] बाँस की कमाचियो पर रंग-बिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपका कर बनाया हुआ मकबरे के आकार का वह मंडप जो मुहर्रम के दिनों में मुसलमान लोग हजरत इमाम हुसेन की कब्र के प्रतीक रूप में बनाते है, और जिसके आगे बैठकर मातम करते और मासिये पढ़ते हैं। ग्यारहवें दिन जलूस के साथ ले जाकर इसे दफन किया जाता है। मुहावरा–ताजिया ठंढा करना-मुहर्रम के आरंभिक दस दिन समाप्त हो जाने पर नियत स्थान पर ताजिया गाड़ना। (मंगल और व्यग्य)।
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ताजियादारी  : स्त्री० [फा०] मुसलमानों में एक प्रथा जिसमें वे मुहर्रम के आरम्भिक दस दिनों तक ताजिया उसके आगे मातम करते या शोक मनाते हैं।
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ताजियाना  : पुं० [फा०] कोड़ा। चाबुक।
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ताजी  : वि० [फा०] अरब संबंधी अरब का। अरबी। पुं० १. अरब देश का घोड़ा जो बढ़िया समझा जाता है। २. एक प्रकार का शिकारी कुत्ता। स्त्री० अरब देश की भाषा। अरबी। स्त्री० हिं० ताजा का स्त्री०।
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ताजीम  : स्त्री० [अ०] किसी बड़े के सामने उसके आदर के लिए उठ कर खड़े होना और सम्मान प्रदर्शित करते हुए झुककर अभिवादन करना।
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ताजीमो सरदार  : पुं० [फा० ताजीम+अ० सरदार] वह बड़ा सरदार जिसके दरबार में आने पर राजा या बादशाह सम्मान प्रदर्शित करने के लिए थोड़ा उठकर खड़े हो जाते थे।
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ताज़ीर  : स्त्री० [अ०] दंड। सजा।
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ताजीरात  : पुं० [अ०] आपराधिक दंडों से संबंध रखनेवाली विधियों का संग्रह।
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ताजीरी-पुलिस  : स्त्री० [हिं०] पुलिस का वह दस्ता या सिपाहियों का दल जो ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहाँ के लोग अधिक या प्रायः उपद्रव करते हों। (ऐसी पुलिस रखने का सारा व्यय उस स्थान के निवासियों से दंड-स्वरूप लिया जाता है)।
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ताजोरी  : वि० [अ०] १. दंड या दंड-विधान संबंधी। २. जो किसी को किसी प्रकार का दंड देने के उद्देश्य से हो।
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ताज्जुब  : पुं०=तअज्जुब।
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ताटंक  : पुं० [सं० ताड-अंक, ब० स० पृषो० ड-ट] १. एक तरह का करनफूल। २.छप्पय का २४ वाँ भेद। ३.एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३॰ मात्राएँ और अंत में एक भगण होता है।
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ताटस्थ्य  : पुं० [सं० तटस्थ+ष्यञ्] तटस्थ होने की अवस्था या भाव। तटस्थता (देखें)।
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ताड़  : पुं० [सं० ताल] १. एक प्रकार का बहुत अधिक ऊंचा और लंबा पेड़ जिसमें डालें या शाखाएँ नहीं होती केवल ऊपरी सिरे पर कुछ बड़े और लंबे पत्ते होते हैं। इसी का मादक रस ‘ताड़ी’ कहलाता है। पद–ताड़पन (देखें)। २. मारना-पीटना या डाँटना-डपटना ताड़ना। ३. ध्वनि। शब्द। ४. पर्वत। पहाड़। ५. मूर्ति का ऊपरी भाग या सिरा। ६. बाँह पर पहनने का टाड़ नाम का गहना। ७. डंठलों आदि का पुला। जुट्टी।
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तांडक  : पु०=ताटंक (करनफूल)।
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ताड़क  : वि० [सं०√तड् (ताड़ना)+णिच्+ण्वुल्-अक] ताड़ना करनेवाला। पुं० १, वधिक। २. जल्लाद।
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ताड़का  : स्त्री० [सं०] एक राक्षसी जिसे रामचंद्रजी ने मारा था।
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ताड़का-फल  : पुं० [सं० तारका-फल, ब० स० नि, र-ड] बड़ी इलायची।
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ताड़कायन  : पुं० [सं० ताडक+फक्-आयन] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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ताड़कारि  : पुं० [सं० ताडका-अरि, ष० त०] (ताड़का के शत्रु) रामचंद्र।
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ताड़केय  : पुं० [सं० ताड़का+ढक्-एय] ताड़का का पुत्र, मारीच।
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ताड़घ  : पुं० [सं० ताल√हन् (मारना)+टक्, नि० ल-ड] प्राचीन काल में वह राज-पुरुष जो अपराधियों को कोड़े लगाता था।
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ताड़घात  : पुं० [सं० ताड√हन्+अण्] हथौड़े आदि से चीजें पीटकर काम करनेवाला कारीगर। जैसे–लोहार, सुनार आदि।
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ताड़न  : पुं० [सं०√तड्+णिच्+ल्युट्-अन] १. आघात या प्रहार करना। मारना-पीटना। २. डाँट-डपट। घुड़की, झिड़की आदि। ३. दंड। सजा। ४. गणित में गुणा करने की क्रिया। गुणन। जरब। ५. तंत्र शास्त्र का एक विधान जिसमें किसी चीज पर मंत्र के वर्ण लिखकर वह चीज कुछ दूसरेमंत्र पढ़ते हुए किसी पर या कहीं फेंकी या मारी जाती है।
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ताड़ना  : स्त्री० [सं०√तड्+णिच्+युच्-अन] १. ताड़न करने अर्थात् मारने-पीटने की क्रिया या भाव। २. किसी के कार्य, व्यवहार आदि से असंतुष्ट होकर उसे सचेत करने तथा कर्तव्यपरायण बनाने के उद्देश्य से कही हुई कड़ी बात। ३. प्रहार। मार। ४. दंड। सजा। ५. किसी को दिया जानेवाला कष्ट, दुःख आदि। स० १. मारना-पीटना। २. किसी के कार्य, व्यवहार आदि से अप्रसन्नता प्रकट करते हुए उस व्यक्ति को सचेत करना और उसका ध्यान कर्तव्यपालन की ओर आकृष्ट करना। ३. दंड या सजा देना। स० [सं० तर्कण या ताड़न] कुछ दूरी पर लोगों की आँखे बचाकर या लुक-छिपकर किये जाते हुए काम को अपने कौशल या बुद्धि-बल से जान ये देख लेना।
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ताड़नी  : स्त्री० [सं० ताड़न+ङीष्] कोड़ा। चाबुक।
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ताड़नीय  : वि० [सं०√तड्+णिच्+अनीयर] जिसे ताड़ना देना आवश्यक या उचित हो।
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ताड़पत्र  : पुं० [सं० तालपत्र] ताड़ वृक्ष के पत्ते जिन पर प्राचीन काल में ग्रंथ, लेख आदि लिखे जाते थे।
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ताड़बाज  : वि० [हिं० ताड़ना+फा० बाज] जो प्रायः और सहज में कोई बात ताड़ या भाँप लेता हो।
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तांडव  : पुं० [सं० तंडु+अण्] १. वह बहुत ही उग्र और विकट नृत्य जो शिव जी प्रलय या जैसे ही दूसरे महत्वपूर्ण अवसरों पर करते हैं। २. पुरुषों के द्वारा होनेवाला नृत्य (स्त्रियों के नृत्य या लास्य से भिन्न) ३. उग्र और उद्धत नृत्य। ४. एक प्रकार का तृण।
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तांडवी  : पुं० [सं० तांडव+ङीष्] संगीत के १४ तालों में से एक।
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तांडि  : पुं० [सं० तांड्य+इञ्, यलोप] (तंडि मुनि का निकाला हुआ) नृत्य-शास्त्र।
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ताड़ित  : भू० कृ० [सं०√तड्+णिच्+क्त] १. जिसे ताड़ना दी गई हो या मिली हो। २. जो मारा-पीटा गया हो। ३. जिसे घुड़का या डांटा गया हो। ४. जिसे दंड या सजा मिली हो। ५. जिसे डाँट-टपट कर या मार-पीट कर कहीं से निकाल, भगा या हटा दिया गया हो।
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ताड़िद्दाम (मन्)  : [सं० ष० त०] बिजली कौंधने के समय दिखाई पड़नेवाली उसके प्रकाश की रेखा। विद्युल्लता।
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ताड़ी  : स्त्री० [सं०√तड्+णिच्+इन्+ङीष्] १. एक प्रकार का छोटा ताड़ वृक्ष। २. एक प्रकार का गहना। ३. ताड़ के फूलते हुए डठलों से निकाला हुआ नशीला रस जिसका व्यवहार मादक द्रव्य के रूप में होता है। स्त्री० दे० ‘तारी’ (अरबी)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तांडी(डिन्)  : पुं० [सं० तांडय+इनि, यलोप] १. सामवेद की तांड्य शाखा का अध्ययन करनेवाला। २. यजुर्वेद के एक कल्प सूत्रकार का नाम।
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ताडुल  : वि० [सं०√तड्+णिच्+उल] ताड़ना करनेवाला।
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ताडू  : वि० [हिं० ताड़ना] (वह) जो हर बात बहुत जल्दी ताड़ या भाँप लेता हो। ताड़ने या भाँपनेवाला।
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तांड्य  : पुं० [सं० तंडि+यञ्०] १. तंडि मुनि के वंशज। २. सामवेद के एक ब्राह्मण (भाग) की संज्ञा।
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ताड्य  : वि० [सं०√तड्+णिच्+यत्] १. जिसका ताडन हो सके। ताड़ना का अधिकारी या पात्र। २. जिसे डाँटा-डपटा जा सकता हो या डाँटना-डपटना उचित हो। ३. जिसे दंड दिया जा सकता हो या दिया जाने को हो। दंडनीय।
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ताड्यनमान  : वि० [सं०√तड्+णिच्+शानच् (कर्म० स०)] १. जो पीटा जाता हो। जिस पर मार पड़ती हो। २. जिसे डाँटा-डपटा जाता हो। पुं० डंडे से बजाया जानेवाला एक प्रकार का बड़ा ढोल। ढक्का।
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तांण  : पुं० [हिं० तानना] खिंचाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ताँत  : स्त्री० [सं० तंतु] १. पशुओं की अंतड़ियों नसों आदि से अथवा चमड़े को बटकर बनाई हुई पतली डोरी। २. धनुष की डोरी जो पहले प्रायः उक्त प्रकार की होती थी। ३. डोरी। रस्सी। ४. सारंगी आदि बाजों में लगा हुआ तार। ५. जुलाहों की राछ। वि० [सं० त-अंत, ब० स०] १. (शब्द) जिसके अंत में त हो। २. [√तम् (थकावट)+क्त] थका हुआ। श्रांत।
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तात  : पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+क्त, दीर्घ, नलोप] १. पिता। बाप। २. पूज्य और बड़ा माननीय व्यक्ति। ३. आपसदारी के लोगों, इष्ट-मित्रों के लिए आदरसूचक और प्रेमपूर्ण संबोधन। वि० [सं० तप्त] तपा हुआ। गरम। तत्ता। पुं० १. कष्ट। दुःख। २. चिन्ता। फिकर। उदाहरण–-तुम्ह जावउ घर आपणोइ म्हारी केही तात। ढो० मा०।
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तातगु  : पुं० [सं० तात+गो (वाचक शब्द) ब० स० ह्वस्व] चाचा।
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ताँतड़ी  : स्त्री० [हिं० ताँत+ड़ी (प्रत्य)०] ताँत। पद–ताँतड़ी सा-तांत की तरह क्षीणकाय और लंबा।
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तातन  : पुं० [सं० तात√नृत् (नाचना)+ड] खंजन पक्षी। खँडरिच।
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तातरी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का पेड़।
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तातल  : पुं० [सं० तात√ला (लाना)+क] १. संबंध में वह पूज्य और बड़ा व्यक्ति जो पिता के समान या उसके स्थान पर हो। २. बीमारी। रोग। ३. पूर्ण या पक्के होने की अवस्था या भाव। पक्कापन। पक्वता। ४. लोहे का काँटा या कील। वि०=तत्ता। (तप्त या गरम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तांतव  : वि० [सं० तंतु+अञ्] १. तंतु संबंधी। २. तंतुओं से बना हुआ। ३. जिससे तंतु या तार निकल अथवा बन सकें।
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ताँतवा  : पुं० [हिं० आंत] एक रोग जिसमें आँत अंडकोश में उत्तर आती है। आँत उतरने का रोग।
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ताँता  : पुं० [सं० तति=श्रेणी] १. किसी काम, चीज या बात का कुछ समय तक लगातार चलता रहनेवाला क्रम। जैसे–बरसनेवाले पानी का ताँता। २. निरन्तर एक के बाद एक घटना घटित होते चलने का भाव। जैसे–(क) मौतों का ताँता। (ख) बातों का ताँता। ३. जीवों या प्राणियों की कतार। पंक्ति। जैसे–(क) आदमियों का ताँता। (ख) चिड़ियों का ताँता। क्रि० प्र०–लगना।–लगाना। मुहावरा–ताँता बाँधना=बहुत से लोगों का एक पंक्ति में खड़ा होना या खड़ा किया जाना।
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ताता  : वि० [सं० तप्त, प्रा० तत्त] [स्त्री० ताती] तपा या तपाया हुआ। बहुत गरम ।
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ताताचेई  : स्त्री० [अनु०] १. नृत्य मे विशेष प्रकार से पैर रखने के बोल। २. नाच। नृत्य।
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तातार  : पुं० [फा०] १. तातार प्रदेश में होनेवाला। २. तातार प्रदेश-संबंधी। पुं० तातार प्रदेश का निवासी। स्त्री० तातार प्रदेश की भाषा।
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ताँति  : स्त्री०=ताँत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=ताँती।
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ताति  : पुं० [सं०√ताय् (पालन करना)+क्तिच्] पुत्र। लड़का।
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ताँतिया  : वि० [हिं० ताँत] १. ताँत संबंधी। २. तांत की तरह क्षीणकाय और लंबा।
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ताँती  : पुं० [हिं० ताँत] १. कपड़ा बुननेवाला। जुलाहा। २. जुलाहों की राछ। स्त्री० [हिं० तांता] १. कतार। पंक्ति। श्रेणी। २. बाल-बच्चे। औलाद। सन्तान।
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तातील  : स्त्री० [अ०] छुट्टी का दिन।
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तांतुवायि  : पुं० [सं० तंतुवाय+इञ्] जुलाहे का लड़का।
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तात्कालिक  : वि० [सं० तत्काल+ठञ्-इक] १. तत्काल या तुरंत का। २. उस समय का।
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तात्त्विक  : वि० [सं० तत्त्व+ठक्–इक] १. तत्त्व-संबंधी। २. तत्त्व से युक्त। ३. मूल सिद्धांत संबंधी। जैसे–तात्त्विक विचार। ४. यथार्थ। वास्तविक। पुं० वह जो तत्त्व या तत्त्वों से अच्छा ज्ञाता हो।
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तात्पर्य  : पुं० [सं० तत्पर+ष्यञ्] १. शब्द, पद, वाक्य आदि का मुख्य आशय। २. अभिप्राय। हेतु।
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तात्पर्यार्थ  : पुं० [सं० तात्पर्य-अर्थ, ष० त०] वाक्यार्थ से और शब्दार्थ से कुछ भिन्न अर्थ जो वक्ता के अभिप्राय या आशय का बोध कराता है।
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तांत्रिक  : वि० [सं० तंत्र+ठक्-इक] [स्त्री० तांत्रिकी] १. तंत्र-संबंधी। २. तंत्र शास्त्र संबंधी। पुं० १. वह जो तंत्र-सास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो और तंत्र-मंत्र के प्रयोगों से कब काम सिद्ध करता हो। २. वैद्यक में एक प्रकार का सन्निपात।
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तात्स्थ्य  : पुं० [सं० तत्स्थ+ष्यञ्] १. एक चीज या बात के अन्तर्गत दूसरी चीज या बात रहने की अवस्था या भाव। २. तर्क-शास्त्र और साहित्य में व्यंजनात्मक अर्थ बोध का वह भेद जिसमें किसी चीज के नाम से उस चीज के अन्दर की और सब चीजों, बातों आदि का आशय ग्रहण किया जाता है। जैसे–यदि कहा जाय, सारा घर मेला देखने गया है। तो उसका आशय यही माना जायगा कि घर में रहनेवाले सभी लोग या परिवार के सभी सदस्य मेला देखने गये हैं।
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ताथ  : अव्य० [?०] तिससे। उससे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताथेई  : स्त्री०=ताताथेई।
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तादत्विक  : वि० [सं०] (ऐसा राजा) जिसका खजाना खाली रहता हो। (कौ०)।
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तादर्थ्य  : पुं० [सं० तदर्थ+ष्यञ्] १. तदर्थी होने की अवस्था या भाव। २. अर्थ की एकरूपता या समानता। ३. उद्देश्य या प्रयोजन की समानता। ४. उद्देस्य। प्रयोजन।
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तादात्म्य  : पुं० [सं० तदात्मन्+ष्यञ्] ऐसी अवस्था जिसमें कोई चीज किसी दूसरी वस्तु के साथ तदात्म हो जाय या उसके साथ मिलकर उसका रूप धारण कर ले। अभेद मिश्रण या संबंध।
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तादाद  : स्त्री० [अ० तअदाद] वस्तुओं, व्यक्तियों आदि की कुल इकाइयों का जोड़। संख्या।
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ताँदुल  : पुं०=तंदुल। (चावल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तादृश  : वि० [सं० तद्√दृश् (देखना)+कञ्] [स्त्री० तादृशी] जो उसी अर्थात् किसी इंगित या उल्लखित वस्तु व्यक्ति आदि के समान दिखाई देता हो। उसके समान। वैसा।
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ताधा  : स्त्री० दे० ‘ताताथेई’।
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तान  : स्त्री० [सं०√तन् (विस्तार)+घञ्] १. तनने या तानने अथवा किसी ओर खिंचे हुए होने या खींचे जाने की अवस्था या भाव। २. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के अंगों को कस या खींचकर आपस में मिलाये रखती हो और उन्हें एक दूसरे से अलग न होने देती हो। जैसे–पलंग, हौदे आदि में अन्दर की ओर मजबूती के लिए लगाये हुए लोहे के छड़ तान कहलाते हैं। ३. नदी या समुद्र की तरंग या लहर जो नावों को किसी एक ओर ले जाती है। ४. कोई ऐसी चीज या बात जिसका ज्ञान इंद्रियों से होता है। पद–तान की जान=किसी चीज या बात का मूल तत्त्व या सार। ५. कंबल बुनने के समय उसमें लगनेवाला ताना (गडेरिए) ६. संगीत में गाने-बजाने का वह अंग जिसमें सौन्दर्य लाने के लिए बीच-बीच में कुछ स्वरों को खींचते हुए अर्थात् अधिक समय तक उतार-चढ़ाव के साथ उच्चारण करते हुए कलात्मक रूप से उनका विस्तार किया जाता है। विशेष–आज-कल व्यवहारतः गवैयों में दो प्रकार की तानें प्रचलित है। एक तो हलक (या गले) की तान जो बहुत ही स्पष्ट रूप से गले से निकली या ली जाती है और जो विशेष अभ्यास-साध्य होती है। दूसरी जबड़े की तान जिसमें गले पर बहुत थोड़ा जोर पड़ता है और उसलिए जो निम्न कोटि की मानी जाती है। क्रि० प्र०–लगाना। मुहावरा–तान उड़ाना–यों ही मन में मौज आने पर कुछ गाने लगना। तान छोड़ना–संगीत का अभ्यास न होने पर भी तान लेते हुए गाना। (व्यंग्य) (किसी पर) तान तोड़ना-किसी को अपने क्रोध, रोष, व्यंग्य आदि का लक्ष्य बनाना। तान लगाना या लेना-कलात्मक ढंग से गाते हुए स्वरों के उतार-चढ़ाव आदि का विस्तार करना। पुं० [?] एक प्रकार का पेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तान-तरंग  : स्त्री० [ष० त०] संगीत में, कलात्मक रूप से होनेवाला अनेक प्रकार की तरंगो का उपयोग या प्रयोग।
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तान-बान  : पुं०=ताना-बाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तानना  : स० [सं०√तन् (विस्तृत करना या फैलना)] १. किसी वस्तु के एक या अनेक सिरों को इस प्रकार उपयुक्त दिशा या दिशाओं में खींचना कि उसमें किसी प्रकार का झोल, बल या सिकुंड़न न रह जाय। जैसे–(क) ताना तानना, रस्सी तानना। (ख) छाया आदि के लिए चँदोआ तानना। २. कोई चीज ठीक तरह से खड़ी करने के लिए अथवा खड़ी की हुई वस्तु को गिरने से रोकने के लिए उसे कई ओर से रस्सियों आदि से खींचकर बाँधना। जैसे–(क) खेमा या तंबू तानना। (ख) रामलीला में मेघनाद, रावण आदि के कागजी पुतले तानना। ३. किसी प्रकार का खिंचाव उत्पन्न करनेवाली कोई क्रिया करना। जैसे–भौंहें तानना। ४. आघात, प्रहार आदि करने के लिए कोई चीज ऊपर उठाना। जैसे–डंडा, मुक्का या लाठी तानना। ५. कोई चीज किसी दूसरी चीज के ऊपर फैलाना। जैसे–सोते समय शरीर पर चादर तानना। मुहावरा–तान कर सोना-किसी बात से बिलकुल निश्चित हो जाना। किसी प्रकार की आशंका, चिंता या भय से रहित होकर रहना। ६. किसी को हानि पहुँचाने या दंड देने के अभिप्राय से कोई बात उपस्थित या खड़ी करना। ७. बलपूर्वक किसी ओर पहुँचाना, प्रवृत्त करना या भेजना। जैसे–अदालत में उन्हें साल भर के लिए तान दिया, अर्थात् जेल भेज दिया। ८. किसी व्यक्ति को ऐसा परामर्श देना कि वह दूसरे की ओर प्रवृत्त न हो या उससे मेल-जोल की बात न करे। जैसे–आप ने ही उन्हें तान दिया,नहीं तो अब तक समझौता हो जाता।
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तानपूरा  : पुं० [सं० तान+हिं० पूरना] सितार के आकार का पर उससे कुछ बड़ा एक प्रसिद्ध बाजा जिसका उपयोग बड़े-बड़े गवैये गाने के समय स्वर का सहारा लेने के लिए करते हैं।
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तानव  : पुं० [सं० तनु+अण्] तनु अर्थात् कुश होने की अवस्था या भाव। तनुता।
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तानसेन  : पुं० मुगल अकबर के दरबार का प्रसिद्ध गवैया बिलोचन मिश्र जो संगीतज्ञ स्वामी हरिदास का शिष्य था और जिसे अकबर ने तानसेन की उपाधि से विभूषित किया था, और जो अन्त में मुहम्मद गोंस नामक मुसलमान फकीर से दीक्षित हो मुसलमान हो गया था। मध्य तथा आधुनिक युग में वह भारत का सर्वश्रेष्ठ गायक माना जाता है। उसकी कब्र ग्वालियर में है।
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ताना  : पुं० [हिं० तानना] १. तानने की क्रिया या भाव। २. तनी या तानी हुई वस्तु। ३. करघे की बुनाई में वे सूत या तागे जो लंबे बल में ताने जाते हैं। विशेष–जो सूत या तागे चौड़ाई के बल बुने जाते हैं, उन्हें ‘बाना’ कहते है। क्रि० प्र०–तानना।–फैलाना।–लगाना। पद–ताना-बाना (दे०)। ३. कालीन, दरी आदि बुनने का करघा। स० [हिं० ताव+ना (प्रत्यय)] १. आग से अथवा किसी और प्रक्रिया से किसी चीज को खूब गरम करना। तपाना। जैसे–(क) तंदूर ताना। (ख) घी या मक्खन ताना। २. परीक्षा करने के लिए धातुओं आदि का तपाना। ३. किसी को दुःखी या संतप्त करना। स० [हिं० तवा] गीली मिट्टी या आटे से ढक्कन चिपकाकर किसी बरतन का मुँह बंद करना। मूँदना। पुं० [अ० तअनऽ] ऐसा कथन जिसमें किसी को उसके द्वारा किए हुए अनुचित या अशोभनीय व्यवहार का उसे स्पष्ट किंतु कटु शब्दों में स्मरण कराकर लज्जित किया जाय। क्रि० प्र०–देना।–मारना।
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ताना-पाई  : स्त्री० [हिं० ताना+पाई=ताने का सूत फैलाने का ढांचा] १. पाइयों पर ताना तानने या फैलाने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार पाइयों पर फैलाए हुए ताने को बार-बार इधर-उधर आ जा कर कूची आदि से साफ करना तथा सीध में लाना। ३. बार-बार इधर-उधर आना-जाना।
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ताना-बाना  : पुं० [हिं० ताना+बाना] बुनाई के समय लंबाई के बल ताने या फैलाये जानेवाले और चौड़ाई के बल बुने जानेवाले सूत। मुहावरा–ताना-बाना करना-बार-बार इधर-उधर आना-जाना।
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ताना-रीरी  : स्त्री० [हिं० तान+अनु० रीरी] साधारण गाना।
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तानाशाह  : पुं० [हिं० तनना या तानना+फा० शाह] १. अब्दुल हसन नामक स्वेच्छाचारी बादशाह का लोक प्रसिद्ध नाम। २. ऐसा शासक जो मनमाने ढंग से सब काम करता हो और किसी प्रकार के नियम या बंधन न मानता हो। ३. ऐसा व्यक्ति जो अपने अधिकारी का बहुत दुरुयोग करता हो।
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तानाशाही  : स्त्री० [हिं० तानाशाह] तानाशाह होने की अवस्था या भाव। मनमाना आचरण या शासन करने की वृत्ति। स्वेच्छाचारी।
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तानी  : स्त्री० [हिं० ताना] उन सब सूतों, तागों का समूह जो करघे आदि में कपड़ा बुनते समय लंबाई के बल लगाये जाते है। स्त्री०=तनी (बंद)।
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तानूर  : पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+ऊरण्] १. पानी का भँवर। २. वायु का भँवर। चक्रवात बवंडर।
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तानो  : पुं० [देश०] ऐसा भूखंड जिसमें कई खेत होते हैं। चक।
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तान्द  : पुं० [सं० तनु+अञ्, गुणाभाव] १. पुत्र। बेटा। २. तनु नामक ऋषि के पुत्र एक प्राचीन ऋषि।
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ताप  : पुं० [सं०√तप् (तपना)+घञ्] १. एक प्रसिद्ध ऊर्जा या शक्ति जो अग्नि, घर्षण अथवा कुछ रासायनिक क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न होती है और जिसके प्रभाव से चीजे गलती, जलती, पिघलती, फैलती अथवा भाप बनकर हवा में उड़ने लगती है। (हीट)। २. गरमी। तपिश। ३. आँच। आग। ४. ज्वर। बुखार। ५. कोई ऐसा मानसिक या शारीरिक कष्ट जिससे प्राणी दुःखी होता है। विशेष–हमारे यहाँ धार्मिक क्षेत्रों में ताप तीन प्रकार के कहे गये है। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। (देखें ये तीनों शब्द)।
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ताप-क्रम  : पुं० [ष० त०] किसी विसिष्ट स्थान या पदार्थ का वह ताप जो विशेष अवस्थाओं में घटता-बढता रहता है।
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ताप-क्रम  : पुं० [ष० त०] भारतीय धार्मिक क्षेत्रों में आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक ये तीनों ताप।
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ताप-क्रम-यंत्र  : पुं० [ष० त०] वह यंत्र जिससे किसी स्थान या पदार्थ के तापक्रम के घटने या बढ़ने का पता चलता है। (बैरोमीटर)।
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ताप-चालक  : पुं० [ष० त०] ऐसा पदार्थ जिसमें ताप एक सिरे से चलकर दूसरे सिरे कर पहुँच जाय।
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ताप-तरंग  : स्त्री० [ष० त०] वातावरण की वह विशिष्ट स्थिति जिसमें कुछ समय के लिए हवा बहुत गरम और तेज हो जाती है और गरमी बहुत बढ़ जाती है। (हीट वेव)।
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ताप-दुखः  : पुं० [मध्य० स०] पातंजल दर्शन के अनुसार एक तरह का दुःख।
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ताप-मान  : पुं० [ष० त०] शरीर अथवा किसी पदार्थ में की अधिक या कम गरमी को कोई विशिष्ट स्थिति जो कुछ विशेष प्रकार के उपकरणों से जानी जाती है। (टेम्परेचर।
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ताप-मापक-यंत्र  : पुं० [सं० ताप-मापक, ष० त०, तापमापक-यंत्र कर्म० स०] वह यंत्र या उपकरण जिससे शरीर, पदार्थ, वातावरण आदि का ताप मान जाना जाता है। (थरमामीटर)।
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ताप-व्यंजन  : पुं० [मध्य० स०] साधु के वेश में रहनेवाला गुप्तचर।
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ताप-स्वेद  : पुं० [तृ० त०] वैद्यक में उष्णता पहुँचाकर उत्पन्न किया हुआ पसीना। जैसे–गरम बालू या गरम कपड़े से सेंककर लाया जानेवाला पसीना।
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तापक  : वि० [सं०√तप्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. ताप या गर्मी उत्पन्न करनेवाला। २. ताप या कष्ट देनेवाला। पुं० १. रजोगुण २. ज्वर। ताप। बुखार। ३. एक वैद्युतिक उपकरण जो चीजों या वातावरण को गरम करता है। (हीटर)।
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तापकी  : वि० [सं० तापक] ताप उत्पन्न करनेवाला। उदाहरण–-तापकी तरनि मानौ मरनि करत है।–सेनापति।
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तापचालकता  : स्त्री० [सं० तापचालक+तल्–टाप्] वस्तुओं का वह गुण जिससे वे ताप-चालक होती हैं।
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तापतिल्ली  : स्त्री० [हिं० ताप+तिल्ली] एक रोग जिसमें पेट के अन्दर की तिल्ली या प्लीहा में सूजन होती है और इसीलिए वह कुछ बड़ी हो जाती है तथा ज्वर उत्पन्न करती है।
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तापती  : स्त्री० [सं०] १. सूर्य की एक कन्या का नाम। २. ताप्ती नदी जो सतपुड़ा पर्वत से निकलकर खंभात की खाड़ी में गिरती है।
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तापत्य  : वि० [सं० तपती+ष्यञ्] तापती संबंधी। पुं०–अर्जुन।
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तापन  : वि० [सं०√तप् (तपना)+णिच्+ल्यु–अन] १. ताप या गरमी देनेवाला। २. ताप या कष्ट देनेवाला। पुं० १. तप्त करने या तपाने की क्रिया या भाव। २. सूर्य। ३. सूर्यकांत मणि। ४. कामदेव के पाँच वर्णों में से एक जो विरही प्रेमी को ताप या कष्ट पहुँचाता है। ५. एक नरक का नाम। ६. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जो शत्रु को ताप या कष्ट पहुँचाने के लिए किया जाता है। ७. आक का पौधा। मदार। ८. ढोल।
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तापना  : अ० [सं० तापन] १. अधिक सरदी लगने पर आग जलाकर उसके ताप से अपना शरीर या कोई अंग गरम करना। २. तपस्या आदि के प्रसंग में, ताप सहने के लिए आग जलाकर उसके पास या सामने बैठना। जैसे–धूनी तापना, पंचग्नि तापना। स० १. आग पर रखकर गरम करना करना या तपाना। २. जलाना। ३. बहुत बुरी तरह से व्यय करते हुए धन संपत्ति नष्ट करना। जैसे–दो-तीन बरस के अन्दर ही उन्होंने लाखों रुपए फूँक-ताप डालें। विशेष–ऐसे अवसरों पर मुख्य आशय यही है कि जिस प्रकार शीत का कष्ट दूर करने और गरमी का सुख लेने के लिए लकड़ियाँ जलाते है उसी प्रकार धन को लकड़ियों की तरह जलाकर उसकी गरमी या ताप का सुख भोगा गया है ४. दे० ‘तपाना’।
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तापनिक  : वि० [सं० तापन+ठक्-इक] १. तापने या तपाने से संबंध रखनेवाला। २. तापन या तपाने के रूप में होनेवाला।
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तापनीय  : वि० [सं० तापनीय+अण्] सोनहला। पुं० एक उपनिषद् का नाम।
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तापमान-यंत्र  : पुं०=तापमापक यंत्र।
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तापमापी  : पुं०=तापमापक यंत्र।
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तापल  : पुं० [सं० ताप] क्रोध। (डिं०)।
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तापलेखी(खिन्)  : पुं० [सं० ताप√लिख् (लिखना)+णिनि] एक प्रकार का तापमान यंत्र जिसमें ताप मात्रा के घटने-बढ़ने का क्रम आर से आप अंकित होता रहता है। (थरमोग्राफ)
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तापश्चित  : पुं० [सं० तपस्-चित्, स० त०+अण्] एक प्रकार का यज्ञ।
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तापस  : पुं० [सं० तपस्+ण] [स्त्री० तापसी] १. तपस्या करनेवाला साधु। तपस्वी। २. तमाल। ३. तेजपत्ता। ४. दमनक। दौना। ५. एक प्रकार की ईख। ६. बगला (पक्षी)।
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तापस-तरु  : पुं० [मध्य० स०] इंगुदी या हिंगोट का पेड़।
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तापस-द्रुम  : पुं० [सं०मध्य०स०] इंगुदी का पेड़।
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तापस-प्रिय  : वि० [ष० त०] १. जो तपस्वियों को प्रिय हो। २. जिसे तपस्वी प्रिय हों। पुं० १. इंगुदी या हिंगोट का पेड़। २. चिरौंजी का पेड़।
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तापस-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. दाख। अंगूर। २. मुनक्का।
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तापस-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] इंगुदी का पेड़।
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तापसक  : पुं० [तापस+कन्] १. छोटा तपस्वी। २. तपस्वी (व्यंग्य)।
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तापसज  : पुं० [सं० तापस√जन् (उत्पन्न होना)+ड०] तेजपत्ता।
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तापसह  : पुं० [सं० तापस] तपस्वी। उदाहरण–थाप दियौ तापसह।–चंदवरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तापसी  : वि० [सं० तापस+ङीष्] १. तापस-संबंधी। २. तपस्या संबंधी। स्त्री० १. तपस्विनी। २. तपस्वी की स्त्री०
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तापसेक्षु  : पुं० [तापस-इक्षु, मध्य० स०] एक प्रकार की ईख।
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तापस्य  : पुं० [सं० तापस+ष्यञ्] १. तापस धर्म। २. संन्यास। वैराग्य।
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तापहरी  : स्त्री० [सं० ताप√हृ (हरना)+ट+ङीप्] एक तरह का व्यंजन। (भाव प्रकाश)।
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तापा  : पुं०=टापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तापायन  : पुं० [सं० ताप+फक–आयन] वाजसनेयी शाखा का एक भेद।
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तापावरोध  : पुं० [सं० ताप+अवरोष, ष० त०] किसी वस्तु का वह गुण या तत्त्व जो उसे ताप सहन करने की शक्ति देता है। (रिफ्रैक्टरीनेस)।
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तापावरोधक  : पुं० [सं० ताप-अवरोधक, ष० त०] ताप का प्रभाव रोकने या सहन करने वाला (रिफ्रैक्टरी)।
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तापिंच्छ  : पुं० [सं० तापिन√छद् (ढकना)+ड, पृषो० सिद्ध०] १. तमाल का वृक्ष। २. उक्त वृक्ष का फूल।
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तापिंछ  : पुं० दे० ‘तापिंज’।
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तापिंज  : पुं० [सं० तापिन√जि (जीतना)+ड] १. सोनामक्खी। २. श्याम तमाल।
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तापित  : भू० कृ० [सं०√तप् (तपना)+णिच्+क्त] जो तपाया गया हो। तप्त। तापयुक्त। २. जिसे कष्ट या दुख पहुँचाया गया हो।
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तापी(पिन्)  : वि० [सं०√तप्+णिच्+णिनि] १. ताप देनेवाला। २. [ताप+इनि] जिसमें ताप हो। ताप से युक्त। तप्त। पुं० बुद्झदेव का एक नाम। स्त्री० [√तप्+णिच्+अच्–ङीष्] १. सूर्य की एक कन्या। २. तापती या ताप्ती नदी जो सूरत के समीप समुद्र में गिरती है। ३. यमुना नदी।
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तापीज  : पुं० [सं० तापी√जन् (पैदा होना)+ड] सोनामक्खी। माक्षिक धातु।
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तापीय  : वि० [सं० ताप+छ–ईय] ताप-संबंधी। ताप का।
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तापेंद्र  : पुं० [सं० ताप-इंद्र, ष० त०] सूर्य।
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तापोपचार  : पुं० [सं० ताप-इंद्र, ष० त०] कोई विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कोई चीज आग पर चढ़ाना या गरम करना। (हीट ट्रीटमेंट)।
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ताप्ती  : स्त्री०=तापती। (नदी)।
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ताप्य  : पुं० [सं० ताप+यत्] सोनामक्खी।
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ताफ्ता  : पुं० [फा० ताफ्तः] एक तरह का रेशमी कपड़ा जिसपर प्रकाश की किरणें पड़ने से की रंग झलकते हैं। धूपछाँह।
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ताब  : स्त्री० [सं० ताप से फा०] १. ताप। गरमी। २. चमक। दीप्ति। जैसे–मोती या हीरे की ताब। ३. शक्ति। सामर्थ्य। जैसे–अब उनमें उठने-बैठने की भी ताब नहीं है। ४. कष्ट, दुःख आदि सहने की शक्ति। ५. विरोध, सामना आदि करने की शक्ति। मजाल। जैसे–किसी की क्या ताब है जो तुम्हारी तरफ आँख उठाकर भी देखें। मुहावरा–(किसी काम या बात की) ताब लाना-सहने या सामना करने का साहस करना।
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ताँबई  : वि० [हिं० ताँबा] ताँबे के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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ताँबक  : स्त्री० [हिं० ताँबा+फा० कारी] एक प्रकार का लाल रंग।
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ताबड़-तोड़  : अव्य० [हिं० ताब+तोड़ना] कोई घटना या बात होने पर उसके प्रतिकार, समर्थन आदि के उद्देश्य से तत्काल। तुरंत।
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ताँबाँ  : पुं० [सं० ताम्र] लाल रंग की एक प्रसिद्ध धातु जो खानों में गंधक, लोहे आदि के साथ मिली हुई मिलती है। इसमें ताप और विद्युत के प्रवाह का संचार बहुत जल्दी और अधिक होता है। इसी लिए इसका प्रयोग प्रायः इंजनों और बिजली के काम में होती है। भारत में इसके अनेक प्रकार के पात्र भी बनते है जो धार्मिक दृष्टि से बहुत पवित्र माने जाते हैं। पुं० [अ० तअमः] हिंसक पक्षियों को खिलाये जानेवाले मांस के छोटे-छोटे टुकड़े।
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ताबा  : वि०=ताबे।
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ताँबिया  : वि० [हिं० ताँबा] १. तांबे का बना हुआ। २. ताँबे के रंग का। ३. तांबे से संबंध रखनेवाला। पुं० चौड़े मुँह का एक प्रकार का छोटा बरतन।
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ताँबी  : स्त्री० [हिं० ताबा] १. ताँबे की बनी हुई एक प्रकार की करछी। २. छोटा ताँबिया।
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ताबूत  : पुं० [अ] वह संदूक जिसमें मृत शरीर बंद करके गाड़े जाते हैं।
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तांबूल  : पुं० [सं०√तम् (ग्लानि)+उलच्, वुक्आगम, दीर्घ] १. पान का पत्ता। २. पान का लगा हुआ बीड़ा। ३. मुख-शुद्धि के लिए भोजन के बाद खायी जानेवाली कोई सुगंधित चीज। (जैन)।
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तांबूल-करंक  : पुं० [ष० त०] १. पान और उसके लगाने की सामग्री का बरतन। पानदान। २. पान के लगे हुए बीड़े रखने की डिबिया। बिलहरा। पन-बट्टा।
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तांबूल-नियम  : पुं० [ष० त०] पान, सुपारी, लबंग, इलायची आदि रखने का नियम। (जैन)।
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तांबूल-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. पान का पत्ता। २. अरुआ या पिंडालू नाम की लता जिसके पत्ते पान के आकार के होते हैं।
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तांबूल-राग  : पुं० [मध्य० स०] १. पान की पीक। २. मसूर नामक कदन्न जिसकी दाल बनती है।
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तांबूल-वल्ली  : स्त्री० [ष० त०] पान की बेल। नागवल्ली।
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तांबूल-वाहक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन तथा मध्य काल में राजा, नवाबों आदि का वह सेवक जो उनके साथ पानदान लेकर चलता था।
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तांबूल-वीटिका  : स्त्री० [ष० त०] लगे हुए पान का बीड़ा।
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तांबूलिक  : पुं० [सं० तांबूल+ठन्-इक] पान बेचनेवाला व्यक्ति। तमोली।
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तांबूली(लिन्)  : पुं० [सं० ताबूल+इनि] तमोली पनवाड़ी। स्त्री० [सं० तांबूल+ङीष्] पान की बेल।
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ताबे  : वि० [अ० ताबअ] १. जो किसी के अधीन या वश में हो। मातहत। २. अनुगामी या अनुवर्ती।
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ताबेदार  : वि० [अ० ताबअ+फा० दार] [भाव० ताबेदारी] सब प्रकार से आज्ञा और वश में रहनेवाला। आज्ञाकारी। पुं० नौकर। सेवक।
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ताबेदारी  : स्त्री० [फा०] ताबेदार अर्थात् आज्ञाकारी होने की अवस्था या भाव। २. तुच्छ कामों की नौकरी। चाकरी। ३. टहल। सेवा।
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ताँबेल  : पुं० [?०] कच्छप। कछुआ।
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ताम  : पुं० [सं०√तम् (खेद करना)+धञ्] १. दोष। विकार। २. चित्त या मन का विकार। मनोविकार। ३. कष्ट। तकलीफ। ४. क्लेश। व्यथा। ५. ग्लानि। वि० १. डरावना। भीषण। विकराल। ३. दुखी। पीड़ित। ३. परेशान। व्याकुल। पुं० [सं० तामस] १. क्रोध। रोष। २. अन्धकार। अँधेरा। अव्य० [सं० तु ?] तब। तो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० ताम्र] ताँबे की तरह का लाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तामजान(म)  : पुं० [हिं० थामना+सं० यान=सवारी] एक तरह की खुली पालकी (सवारी) जिसे दो या चार कहार कन्धे पर लेकर चलते हैं।
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तामड़ा  : वि० [सं० ताम्र, हिं० ताँबा+डा (प्रत्यय)] ताँबे का रंग का। लाली लिए हुए भूरा। पुं० १. ताँबे के रंग का सा स्वच्छ आकाश। २. गंजी खोपड़ी जिसका रंग प्रायः तांबे का-सा होता है। मुहावरा–तामड़ा निकल आना=सिर के बाल झड़ जाने के कारण खोपड़ी गंजी होना। ३. उक्त रंग का एक प्रकार का मोटा देशी कागज। ४. भट्ठे में पकी हुई ईंट जिसका रंग अधिक ताप लगने के कारण कुछ-कुछ काला पड़ा गया हो। पुं० [सं० ताम्रश्म] ताँबे के रंग का एक प्रकार का रत्न। पद्मराग। मणि।
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तामना  : स० [देश०] खेत जोतने से पहले उसमें की घास आदि खोदकर निकालना।
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तामर  : पुं० [सं० ताम√रा (दान)+क] १. पानी। २. घी।
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तामरस  : पुं० [सं० तामर√सस् (सोना)+ड] १. कमल। २. सोना। स्वर्ण। ३. धतूरा। ४. तांबा। ५. सारस पक्षी। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक नगण, दो जगण और तब एक यगण होता है।
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तामरसी  : स्त्री० [सं० तामरस+ङीप्] यह तालाब जिसमें कमल खिले या खिलते हों।
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तामलकी  : स्त्री० [सं०] भूम्यामलकी । भू-आँवला।
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तामलूक  : पुं० [सं० ताम्रलिप्त] बंगाल राज्य के मेदिनीपुर जिले के आस-पास के प्रदेश का पुराना नाम।
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तामलेट  : पुं० [अं० टंबलर] टीन का गिलास जिसपर चमकदार रोगन या लुक लगाया गया हो।
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तामलोट  : पुं०=तामलेट।
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तामंस  : पुं०=तामस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तामस  : वि० [सं० तमस्+अण्] १. जिसमें तमोगुण की अधिकता या प्रधानता हो। जैसे–तामस स्वभाव। पुं० १. अंधकार। अँधेरा। २. अज्ञान और उससे उत्पन्न होनेवाला मोह। ३. दुष्ट प्रकृति का मनुष्य। खल। ४. क्रोध। गुस्सा। ५. सर्प। सांप। ६. उल्लू। ७. पुराणानुसार चौथे मनु का नाम। ८. एक प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ९. दे० ‘तामस-कीलक’।
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तामस-कीलक  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार के केतु जो राहु के पुत्र माने और संख्या में ३३ कहे हैं, इनका चन्द्रमंडल में दिखाई पड़ना शुभ और सूर्यमंडल में दिखाई पड़ना अशुभ माना जाता है।
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तामस-मद्य  : पुं० [कर्म० स०] कई बार की खींची हुई शराब जो बहुत तेज हो जाती है।
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तामस-वाण  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह का शस्त्र।
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तामसिक  : वि० [सं० तमस्+ठञ्–इक] १. अंधकार। संबधी। २. तमोगुण संबंधी।
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तामसी  : वि० [सं०तामस+ङीष्] तमोगुण संबंधी। तामसिक। जैसे–तामसी प्रकृति। स्त्री० १. अँधेरी रात। २. महाकाली। ३. जटामासी पौधा। बालछड़। ४. पुराणानुसार माया फैलाने की एक कला या विद्या जो शिव ने मेघनाद के निकुमिला यज्ञ के प्रसन्न होकर उसे सिखाई थी।
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तामस्स  : पुं०=तामस।
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तामा  : पुं० [सं० ताम्र] ताँबा नामक धातु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तामिल  : पुं० स्त्री०=तमिल।
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तामिस्र  : पुं० [सं० तमिस्रा+अण्] १. क्रोध, द्वेष, राग आदि दूषित और तामसिक मनोविकार। २. पुराणानुसार अविद्या का वह रूप जो भोग-विलास की पूर्ति में बाधा पड़ने पर उत्पन्न होता है, और जिससे मनुष्य क्रोध वैर आदि करने लगता है।
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तामी  : स्त्री० [हिं० ताँबा] १. ताँबे का तसला। २. एक प्रकार का बरतन जिससे मध्ययुग में द्रव पदार्थ नापे जाते थे।
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तामीर  : स्त्री० [अ०] [वि० तामीरी, बहु० तामीरात] १. इमारत या भवन आदि बनाने के काम० निर्माण। २. इमारत। भवन। ३. रचना।
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तामील  : स्त्री० [?] १. अमल में लाने अर्थात् कार्य रूप में परिणत करने की क्रिया या भाव। २. आज्ञा, निर्णय आदि का निर्वहण या पालन।
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तामेसरी  : स्त्री० [देश०] गेरू के मेल से बनाया हुआ एक तरह का तामड़ा रंग।
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तामोल  : पुं० १.=तांबूल। २.=तमोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताम्मुल  : पुं० [अ० तअम्मुल] १. सोच-विचार। आगा-पीछा। संकोच। २. देर। बिलंब।
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ताम्र  : पुं० [सं०√तम् (आकांक्षा)+रक्, दीर्घ] १. एक प्रसिद्ध धातु। ताँबा। २. एक प्रकार का कुष्ट रोग या कोढ़।
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ताम्र-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] छोटी दुद्धी।
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ताम्र-पट्ट  : पुं० [मध्य० स०] ताम्र-पत्र।
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ताम्र-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. ताँबे का पत्तर। २. ताँबे का वह पत्तर जिस पर स्थायी रूप से रहने के लिए कोई महत्वपूर्ण बात लिखी गई हो। विशेष–प्रा० चीन काल में प्रायः ताँबे के पत्तर पर अक्षर खोदकर दान-पत्र, विजय-पत्र आदि लिखे जाते थे जो अब तक कहीं कहीं मिलते और ऐतिहासिक शोधों में सहायक होते हैं।
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ताम्र-पर्णि  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. छोटा पक्का तालाब। बावली। २. दक्षिण भारत की एक छोटी नदी।
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ताम्र-पल्लव  : पुं० [ब० स०] अशोक वृक्ष।
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ताम्र-पादी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] लाल रंग की लज्जालु लता। हंसपदी।
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ताम्र-पुष्प  : पुं० [ब० स०] लाल फूल का कचनार।
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ताम्र-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स० कप्–टाप्–इत्व] निसोथ।
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ताम्र-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. धव का पेड़। धातकी। २. पाढ़र का पेड़। पाटल।
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ताम्र-फल  : पुं० [ब० स०] अंकोल का वृक्ष। टेरा।
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ताम्र-मूला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. जवासा। धमासा। २. छूई-मुई। लज्जावंती। ३. कौंछ। केवाँच।
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ताम्र-युग  : पुं० [मध्य० स०] इतिहास का वह आरंभिक युग जब लोग ताँबे के औजार, पात्र आदि काम में लाया करते थे। विशेष–आधुनिक पुरातत्व के अनुसार यह युग लौह युग से पहले और पत्थर युग के बाद का है।
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ताम्र-वर्ण  : वि० [ब० स०] १. तामड़ा रंग का। २. लाल रंग का। रक्त वर्ण का। पुं० १. पुराणानुसार सिंहल द्वीप का पुराना नाम। २. वैद्यक में, मनुष्य के शरीर पर की चौथी त्वचा।
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ताम्र-वर्णा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] गुड़हर का पेड़। अड़हुल।
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ताम्र-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. मजीठ। २. चित्रकूट के आस-पास होनेवाली एक प्रकार की लता।
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ताम्र-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. कुलथी। २. लाल चंदन का वृक्ष।
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ताम्र-वृंत  : पुं० [ब० स० टाप्] कुलथी।
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ताम्र-सार  : पुं० [ब० स०] लाल चंदन का वृक्ष।
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ताम्रक  : पुं० [सं० ताम्र+कन्] ताँबा।
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ताम्रकर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] पश्चिम के दिग्गज अंजन की पत्नी का नाम।
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ताम्रकार  : पुं० [सं० ताम्र√कृ (करना)+अण्] ताँबे के बरतन आदि बनानेवाला कारीगर।
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ताम्रकूट  : पुं० [ष० त०] तमाकू का पौधा।
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ताम्रकृमि  : पुं० [मध्य० स०] इन्द्रगोप या बीरबहूटी नामक कीड़ा।
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ताम्रगर्भ  : पुं० [ब० स०] तूतिया।
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ताम्रचूड़  : पुं० [ब० स०] १. कुकरौंधा नामक पौधा। २. कुक्कुट। मुरगा।
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ताम्रपाकी(किन्)  : पुं० [सं० ताम्र-पाक, कर्म० स०+इनि] पाकर का पेड़।
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ताम्रवीज  : पुं० [ब० स०] कुलथी।
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ताम्रशिखी(खिन्)  : पुं० [सं० ताम्रा-शिखा, कर्म० स०+इनि] मुरगा।
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ताम्रसारक  : पुं० [सं० ताम्रसार+कन्] १. लाल चंदन का पेड़। २. [ब० स० कप्] लाल खैर।
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ताम्रा  : स्त्री० [सं० ताम्र+टाप्] १. सिंहली पीपल। २. दक्ष प्रजापति की एक कन्या जो कश्यप ऋषि को ब्याही थी और जिसके गर्भ से पाँच कन्याएँ उत्पन्न हुई थी।
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ताम्राक्ष  : पुं० [ताम्र-अक्षि, ब० स० षच्० समा] कोकिल। वि० लाल आँखोवाला।
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ताम्राभ  : पुं० [ताम्रा-आभा, ब० स०] लाल चंदन।
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ताम्रार्द्ध  : पुं० [ताम्र-अर्ध, ब० स०] काँसा।
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ताम्राश्म(न्)  : पुं० [ताम्र-अश्मन्, कर्म० स०] पद्मराग मणि।
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ताम्रिक  : पुं० [सं० ताम्र+ठञ्-इक] वह जो ताँबे के बरतन आदि बनाता हो।
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ताम्रिका  : स्त्री० [सं० ताम्रिक+टाप्] गुंजा। घुंघची।
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ताम्रिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० ताम्र+इमनिच्] ताँबे का रंग।
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ताम्री  : स्त्री० [सं० ताम्र+अण्+ङीप्] एक तरह का ताँबे का बाजा।
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ताम्रेश्वर  : पुं० [ताम्र-ईश्वर, ष० त०] ताँबे की भस्म।
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ताम्रोपजीवी(दिन्)  : पुं० [सं० ताम्र+उप√जीव् (जीना)+णिनि] १. वह जिसकी जीविका का साधन ताँबा हो। ताँबे का रोजगारी। २. कसेरा।
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ताम्र्लिप्त  : पुं० [सं०] तमलूक। (दे०)।
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तायँ  : अव्य० १.=से। २.=तक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ताय  : पुं० १.=ताप। २.=ताव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सर्व०=ताहि (उसे)।
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तायका  : पुं० [अ० तायफः=गरोह या दल] नाचने-गाने आदि का व्यवसाय करनेवाले लोगों का संघटित दल। जैसे–भाँड़ों या रंडियों का तायफा। स्त्री० नाचने-गाने का व्यवसाय करनेवाली वेश्या। तवायफ।
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तायत  : स्त्री० [अ० इताअत] १. आज्ञाकारिता। २. चेष्टा। प्रयत्न। (क्व०)।
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तायदाद  : स्त्री०=तादाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तायना  : स०=ताना। (तपाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तायनि  : स्त्री० [हिं० तायना=तपाना] १. ताने अर्थात् तपाने की क्रिया या भाव। २. तपने की अवस्था या भाव। ३. दुःख। व्यथा।
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ताया  : पुं० [सं० तात] [स्त्री० ताई] संबंध के विचार से पिता का बड़ा भाई।
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तार  : वि० [सं०√तृ (विस्तार करना)+णिच्+अच्] १. जोर का। ऊँचा। जैसे–तार ध्वनि या स्वर। २. चमकता हुआ। प्रकाशमान। ३. अच्छा। बढ़िया। ४. स्वादिष्ठ। ५. साफ। स्वच्छ। ६. बहुत कम या थोड़ा। अल्प। (क्व०)। उदाहरण–काँचा भड़ाँ कसूर पिण, किलाँ कसूर न तार।–बाँकीदास। पुं० ऊँचाई और नीचाई अथवा कोमलता और तीव्रता के विचार से ध्वनि या स्वर की कोई स्थिति। (पिच)। पुं० [सं० तारा] १. तारा। नक्षत्र। २. आँख की पुतली। ३. ज्योति। प्रकाश। उदाहरण–तेज कि रतन कि तार कि तारा।–प्रिथीराज। ४. ओंकार। प्रणव। ५. शिव। ६. विष्णु। ७. असल या सच्चा मोती। ८. किनारा।तट। ९. राम की सेना का एक बंदर जो तारा का पिता था और बृहस्पति के अंश से उत्पन्न हुआ था। १॰. सांख्य के अनुसार एक प्रकार की गौण सिद्धि जो गुरु से विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करने पर प्राप्त होती है। ११. अठारह अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त। १२. संगीत के तीन सप्तकों (सातों स्वरों के समूहों) में से अंतिम और सब से ऊँचा सप्तक जिसका उच्चारण कंठ से आरंभ होकर कपाल के भीतरी स्थानों तक होता है। इसे उच्च भी कहते हैं। पुं० [सं० करताल] करताल या मँजीरा नाम का बाजा। पुं० [सं० ताटंक] कान में पहनने का तांटक नाम का गहना। पुं० [सं० ताड़न] १. डाँट-फटकार। २. डर। भय। पुं,० [फा०] डोरा। तागा। सूत। मुहावरा–तार तार करना-कपड़े आदि के इस प्रकार टुकड़े-टुकड़े करना कि उसके तागे या सूत तक अलग-अलग हो जाएँ। धज्जियाँ उड़ाना। ३. किसी धातु से तैयार किया हुआ डोर या लंबे तागेवाला रूप। जैसे–चाँदी या सोने का तार, सारंगी या सितार का तार। क्रि० प्र०–खींचना। मुहावरा–तार दबकना–गोटा, पट्ठा आदि तैयार करने के लिए चाँदी या सोने का तार पीटकर चिपटा और चौड़ा करना। ४. धातु का वह पतला लंबा खंड जिसके द्वारा बिजली की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर समाचार आदि भेजे जाते हैं। जैसे–सारे भारत में तारों का जाल फैला हुआ है। ५. उक्त के द्वारा भेजा जानेवाला समाचार अथवा वह कागज जिस पर उक्त समाचार लिखा रहता है। जैसे–उनके लड़के के ब्याह का तार आया है। मुहावरा–तार देना-तार के द्वारा किसी के पास कोई समाचार भेजना। ६. सोने-चाँदी के थोड़े से गहने। (तृच्छता-सूचक) जैसे–घर में चार तार थे, वे बेचकर लड़की के ब्याह में लगा दिये। ७. चाँदी। रूपा। (सुनार)। ८. डोरी। रस्सी। (लश०) ९. किसी काम या बात का बराबर कुछ दूरी या समय तक चलता रहनेवाला क्रम। ताँता। सिलसिला। जैसे–आज कई दिनों से पानी का तार लगा है। क्रि० प्र०–टूटना।–बँधना।–लगना। १॰. किसी प्रकार की उद्देश्य-सिद्धि का सुभीता या सुयोग। जैसे–वहाँ तुम्हारा तार न लगेगा। पद–तार-घाट(देखें)। मुहावरा–तार जमना, बँधना, बैठना या लगना-कार्य सिद्धि का सुभीता या सुयोग होना। ११. पहनी जानेवाली चीजों का ठीक नाप जैसे–लड़के के तार का एक कुरता ले आओ। १२. भेद। रहस्य। उदाहरण–जंत्र मंत्र और वेद तंत्र में सबै तार कौ तार।–हरिराम व्यास।
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तार-कमानी  : स्त्री० [हिं० तार+कमानी] नगीने आदि काटने की धनुष के आकार की कमानी जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का तार लगा रहता है।
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तार-कूट  : पुं० [सं० तार-चाँदी+कूट-नकली] चाँदी पीतल आदि के योग से बननेवाली एक मिश्र धातु।
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तार-क्षिति  : पुं० [सं० ब० स०] पश्चिम दिशा में एक देश जहाँ म्लेच्छों का निवास है। (बृहत्संहिता)।
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तार-घाट  : पुं० [हिं० तार+घात] तार लगने अर्थात् कार्य सिद्ध होने की संभावना या घाट अर्थात् संभावित स्थिति। जैसे–हो सके तो वहाँ हमारा भी कुछ तार-घाट लगाओ।
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तार-चरबी  : पुं० [देश०] मोम चीना का पेड़।
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तार-जाली  : स्त्री० [हिं०] बहुत ही पतले तारों से बनी हुई जाली जिसका उपयोग यांत्रिक और रासायनिक कार्यों में होता है। (वायर गेज)।
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तार-तार  : पुं० [सं०, प्रकार अर्थ में द्वित्य] सांख्य के अनुसार एक गौण सिद्धि जो आगम या शास्त्र अच्छी तरह समझ-बूझकर पढ़ने से प्राप्त होता है। वि० [हिं०] १. जो इस प्रकार फटा या फाडा़ गया हो कि उसके तार या सूत अलग-अलग हो गये हों अर्थात् जिसके बहुत से छोटे-छोटे टुकड़े या धज्जियाँ हो गई हों। २. पूरी तरह से छिन्न-भिन्न।
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तार-तोड़  : पुं० [हिं० तार+तोड़ना] कपड़ों आदि पर किया हुआ काराचोबी या जरदोजी का काम।
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तार-पत्र  : पुं० [सं०] भारतीय सेना में प्रचलित एक प्रकार का पत्र (चिट्ठी) जो स्वदेश की सीमा के अन्तर्गत एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता है। (पोस्टग्राम)।
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तार-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] कुंद का पेड़।
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तार-मंडुल  : पुं० [सं०, ब० स०] सफेद ज्वार।
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तार-माक्षिक  : पुं० [सं० उपमि० स०] रूपामक्खी नाम की उपधातु।
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तार-विमला  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] रूपामक्खी नामक उपधातु।
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तार-सार  : पुं० [सं० ब० स०] एक उपनिषद्।
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तारक  : वि० [सं०√तृ+णिच्+ण्वुल्-अक] तारने या तैरानेवाला। २. भव-सागर से उद्धार करने वाला। जैसे–तारक मंत्र। पुं० १. आकाश का तारा। नक्षत्र। २. आँख की पुतली। ३. आँख। ४. राम का छः अक्षरों का यह मंत्र ‘ओं रामाय नमः’ जिसे सुनने से मनुष्य का मोक्ष होना माना जाता है। ५. इंद्र का शत्रु एक असुर जिसे नारायण ने नपुंसक का रूप धरकण मारा था। ६. एक असुर जिसे कार्तिकेय ने मारा था जो तारकसुर के नाम से प्रसिद्ध था। ७. भिलावाँ। ८. नाविक। मल्लाह। ९. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार सगण और एक गुरु होता है। १॰. एक संकेत या चिन्ह जो ग्रन्थ, लेख आदि में किसी शब्द, पद या वाक्य के साथ लगाया जाता है, जिसका पाद-टिप्पणी में विवरण आदि देना होता है। इसका रूप है–।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तारक-टोड़ी  : स्त्री० [सं० तारक+हिं० टोड़ी] एक प्रकार की टोड़ी रागिनी जिसमें ऋषभ और कोमल स्वर लगते हैं और पंचम वर्जित होता है। (संगीत रत्नाकर)।
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तारक-तीर्थ  : पुं० [कर्म० स०] गया। (जहाँ पिंडदान करने से पुरखे तर जाते हैं)।
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तारक-ब्रह्म  : पुं० [कर्म० स] ‘ओं रामाय नमः’ का मंत्र।
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तारकजित्  : पुं० [सं० तारक√जि (जीतना)+क्विप्] कार्तिकेय।
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तारकश  : पुं० [हिं० तार+फा० कश=(खींचनेवाला)] [भाव० तारकशी] वह कारीगर जो धातुओं के तार खींचने या बनाने का काम करता हो।
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तारकशी  : स्त्री० [हिं० तारकश] तारकश का काम या पेशा।
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तारकस  : पुं०=तारकश।
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तारका  : स्त्री० [सं० तारक+टाप्] १. तारा। नक्षत्र। २. आँख की पुतली। कनीनिका। ३. इंद्र वारूणी लता। ४. नाराच छंद का दूसरा नाम। ५. बालि की पत्नी का नाम। ६. दे० ‘तारिका’। स्त्री० दे० ‘ताड़का’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तारकांकित  : वि० [तारक-अंकित, तृ० त०] (शब्द, पद या वाक्य) जिस पर तारक (चिन्ह) लगा हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तारकाक्ष  : पुं० [सं० तारक-अक्षि, ब० स०] तारकासुर का बड़ा लड़का।
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तारकामय  : पुं० [सं० तारका+मयट्] शिव। महादेव।
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तारकायण  : पुं० [सं० तारक+फक्–आयन] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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तारकारि  : पुं० [सं० तारक-अरि, ष० त०] कार्तिकेय।
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तारकासुर  : पुं० [सं० तारक-असुर, कर्म० स०] एक असुर जिसका वध कार्तिकेय ने किया था। (शिव पुराण)।
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तारकिणी  : वि० [सं० तारकिन्+ङीप्] तारों से भरी। स्त्री० रात।
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तारकित  : वि० [सं० तारक+इतच्] तारों से भरा हुआ।
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तारकी(किन्)  : वि० [सं० तारका+इनि] [स्त्री० तारकिणी]=तारकित।
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तारकेश  : पुं० [सं० तारक-ईश, ष० त०] चंद्रमा।
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तारकेश्वर  : पुं० [सं० तारका-ईश्वर,ष० त०] १. शिव। २. शिव की एक विशिष्ट मूर्ति या रूप। ३. वैद्यक में एक प्रकार का रस (औषध)।
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तारकोल  : पुं० [अं० टार-कोल] अलकतरा (दे०)।
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तारख  : पुं० [सं० तार्क्ष्य] गरुड़ (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तारखी  : पुं० [सं० तार्क्ष्य] घोड़ा (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तारघर  : पुं० [देश०] वह कार्यालय जहाँ से तार द्वारा समाचार भेजे जाते और आये हुए समाचार लोगों के पास भेजे जाते हैं।
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तारण  : पुं० [सं०√तृ+णिच्+ल्युट्–अन] १. जलाशय आदि से तारने या पार करने की क्रिया या भाव। २. कठिनता, संकट आदि से उद्धार करने की क्रिया। निस्तार। ३. भव-सागर से पार करने करके मोक्ष दिलाने की क्रिया या भाव। ४. [√तृ+णिच्+ल्यु–अन] विष्णु। ५. साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर। वि० १. तारने या पार करनेवाला। २. उद्धार या निस्तार करनेवाला।
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तारणी  : स्त्री० [सं० तारण+ङीप्] कश्यप की एक पत्नी जिसके गर्भ से याज और उपयाज उत्पन्न हुए थे।
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तारतम्य  : पुं० [सं० तारतम+ष्यञ्] [वि० तारतम्यिक] १. ‘तर’ और ‘तम’ होने की अवस्था या भाव। एक दूसरे की तुलना में घट और बढ़कर होने की अवस्था या भाव। २. उक्त प्राकर की दृष्टि से की जानेवाली तुलना या पारस्परिक मिलान। ३. उक्त प्रकार के विचारों से लगाया जानेवाला क्रम या सिलसिला।
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तारतम्य-बोध  : पुं० [ष० त०] आपेक्षिक स्थितियों या चीजों के घट-बढ़ होने का ज्ञान। सापेक्ष संबध का ज्ञान।
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तारदी  : स्त्री० [सं० तरदी+अण् (स्वार्थं में)+ङीष्०] १. काँटेदार पेड़। २. तरदी वृक्ष।
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तारन  : पुं० [हिं० तर-नीचे] १. छत या छाजन की ढाल अर्थात् नीचे की ओर का उतार। २. छाजन के वे बाँस जो कौड़ियों के नीचे रहते हैं। वि० पुं०–तारण।
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तारना  : स० [सं० तारण] १. ऐसा काम या यत्न करना जिससे कोई (नदी नाला आदि) तक कर उसके पार उतर जाय। पार लगाना। २. डूबते हुए को सहारा देकर किनारे पर पहुँचाना। ३. भव-सागर में जनमने-मरने में मुक्त करना। मोक्ष या सदगति देना।
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तारपीन  : पुं० [अं० टरपेंटाइन] चीड़ के पेड़ से निकला हुआ एक तरह का तेल (टरपेन्टाइन)
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तारबर्फी  : पुं० [हिं० तार+फा० बर्फी=बिजली का] धातु का वह तार जिसके द्वारा बिजली की शक्ति से समाचार दूर तक भेजे जाते हैं।
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तारयिता(तृ)  : पुं० [सं०√तृ+णिच्+तृच्०] [स्त्री० तारयितृ+ङीप्, तारयित्री] १. तारनेवाला। २. उद्दार करनेवाला। ३. मोक्ष देनेवाला।
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तारल्य  : पुं० [सं० तरल+ष्यञ्] १. तरल होने की अवस्था या भाव। तरलता। २. चंचलता।
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तारहीन  : वि० [हिं० तार+सं० हीन] १. जिसमें तार न हो। २. (सूचना, समाचार आदि) जो बिजली के द्वारा तार-हीन प्रणाली से आवे या जाय। बिना तार की सहायता के भेजा जानेवाला। पुं० विद्युत की सहायता से समाचार भेजने की एक प्रणाली या प्रक्रिया जिसमें समाचार, सूचनाएँ आदि भेजनेवाले और पानेवाले स्थानों के बीच में तार का संबंध नहीं रहता। (वायरलेस)
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तारा  : पुं० [सं० तार+टाप्] १. आकाश में चमकनेवाला नक्षत्र। सितारा। मुहावरा–तारा टूटना-तारे का आकाश से अपनी कक्षा से निकलकर पृथ्वी पर या आकाश में किसी ओर गिरना। तारा डूबना=(क) किसी तारे या नक्षत्र का अस्त होना। (ख) शुक्र का अस्त होना। (शुक्रास्त में हिंदुओं के यहाँ मंगल कार्य नहीं किये जाते) तारा सी आँखें हो जाना=इतनी ऊँचाई या दूरी पर पहुँच जाना कि तारे की तरह बहुत छोटा जान पड़ने लगे। तारे खिलना या छिटकना-आकाश में तारों का चमकते हुए दिखाई देना। तारे गिनना-चिंता, विकलता आदि से नींद न आने के कारण कष्टपूर्वक जाग कर रात बिताना। (आकाश के) तारे तोड़ लाना-कठिन से कठिन अथवा प्रायः असंभव से काम कर दिखाना। तारे दिखाई देना=दुर्बलता, रोग आदि के कारण आँखों के सामने रह-रहकर प्रकाश के छोटे-छोटे कण दिखाई देना। तारे दिखाना-प्रसूता स्त्री को छठी के दिन बाहर लाकर आकाश की ओर इसलिए तकाना कि भूत-प्रेत आदि का बाधा दूर हो जाय। (मुसल०)। पद–तारों की छाँह=इतने तड़के या सबेरे कि तारों का धुँधला प्रकाश दिखाई दे। २. आँख की पुतली। जैसे–यह लड़का हमारी आँखो का तारा है। ३. किस्मत या भाग्य जिसका बनना-बिगड़ना आकाश के तारों या नक्षत्रों की स्थिति का परिणाम या फल माना जाता है। सितारा। (मुहा० के लिए दे० ‘सितारा’ के मुहा०) पुं० [?] सिर पर पगड़ी की तरह बाँधा जानेवाला पुरानी चाल का चीरा। पुं०=ताला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं०] १. बृहस्पति की स्त्री जिसे चंद्रमा ने अपने पास रख लिया था। २. तांत्रिकों की दस महाविद्याओं में से एक। ३. जैनों के अनुसार एक देवी या शक्ति। ४. बालि नामक बंदर की स्त्री जिसने बाल के मारे जाने पर उसके भाई सुग्रीव के साथ विवाह कर लिया था।
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तारा-कूट  : पुं० [ष० त०] वर-कन्या के शुभाशुब फल को सूचित करनेवाला एक कूट जिसका विचार विवाह स्थिर करने से पहले किया जाता है। (फलित ज्योतिष)
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तारा-ग्रह  : पुं० [सं० मयू० स०] मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन पाँच ग्रहों का समूह। (बृहत्संहिता)
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तारा-नात  : पुं० [ष० त०]=ताराधिप।
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तारा-पति  : पुं० [ष० त०]=ताराधिप।
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तारा-पथ  : पुं० [तारा-पथिन्, ष० त० समा० अच्] आकाश।
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तारा-पुंज  : पुं० [ष० त०] पास-पास और सदा साथ रहनेवाले विशिष्ट तारों का वर्ग या समूह। (एस्टेरिज्म)
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तारा-भूषा  : स्त्री० [ब० स०] रात्रि। रात।
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तारा-मंडल  : पुं० [ष० त०] १. नक्षत्रों का समूह या घेरा। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का बूटीदार कपड़ा। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें जगह-जगह चमकतें हुए तारें दिखाई पड़ते हैं।
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तारा-मंडूर  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का मंडूर जो अनेक द्रव्यों के योग से बनाया जाता है। (वैद्यक)।
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तारा-मृग  : पुं० [मध्य० स०] मृगशिरा नक्षत्र।
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तारा-हार  : पुं० [ब० स०] वह जिसके गले में तारों या नक्षत्रों का हार हो।
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ताराक्ष  : पुं० [सं० तार-अक्षि, ब० ष०] तारकाक्ष दैत्य।
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ताराज  : पु० [फा०] लूट-पाट। २. ध्वसं। नाश। बरबादी।
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तारात्मक-नक्षत्र  : पुं० [सं० तारा-आत्मन्, ब० स० कप्, तारात्मक-नक्षत्र, कर्म० स०] आकाश में क्रांति, वृत्त के उत्तर और दक्षिण दिशाओं के तारों का समूह जिनमें अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्र हैं।
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ताराधिप  : पुं० [तारा-अधिप, ष० त०] १. चंद्रमा। २. शिव। ३. बृहस्पति। ४. तारा के पति बालि और सुग्रीव।
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ताराधीश  : पुं० [तारा-अधीश, ष० त०]=ताराधिप।
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तारापीड़  : पुं० [तारा-आपीड़, ष० त०] १. चंद्रमा। २. अयोध्या के एक प्राचीन राजा।
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ताराभ  : पुं० [तारा-आभा, ब० स०] पारद। पारा।
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ताराभ्र  : पुं० [तार-अभ्र,कर्म० स] कपूर।
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तारायण  : पुं० [तारा-अयन, ष० त० णत्व] आकाश।
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तारारि  : पुं० [तारा-अरिस, ष० त०] विटमाक्षिक नाम की उपधातु।
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तारावती  : स्त्री० [सं० तारा+मतुप्+ङीष्] एक दुर्गा।
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तारावली  : स्त्री० [तारा-आवली, ष० त०] तारों की पंक्ति।
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ताराहर  : पुं० [सं० तारा√हृ (हरना)+अच्] १. सूर्य। २. दिन।
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तारिक  : पुं० [सं० तार+ठन्-इक] १. नाव से नदी पार करने का भाड़ा। २. नदी आर-पार करने का महसूल।
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तारिका  : स्त्री० [सं० तांडिका, ड–र] ताड़ नामक वृक्ष का रस। ताड़ी। स्त्री० [सं० तारका] १. आज-कल सिनेमा आदि की प्रसिद्ध और सफल अभिनेत्री। २. दे० ‘तारका’।
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तारिका-धूलि  : स्त्री० [सं०] सारे विश्व में, तारों तारिकाओं के बीच के अवकाश में सब जगह व्याप्त एक प्रकार की बहुत ही बारीक तथा सूक्ष्म धूल या रज। (स्टार डस्ट)।
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तारिणी  : वि० स्त्री० [सं०√तृ (तरना)+णिच्+णिनि+ङीप्] तारने या उद्धार करनेवाली। स्त्री० १. एक प्रकार की बहुत लंबी पुरानी नाव जो ४८ हाथ लंबी ५ हाथ चौंड़ी और ५ हाथ ऊँची होती थी। २. दे० ‘तारा’ (देवी)।
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तारित  : वि० [सं०√तृ+णिच्+क्त] १. पार कराया हुआ। २. जिसका उद्धार किया गया हो।
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तारी  : स्त्री० [देश०] एक चिड़िया। स्त्री० [फा० तारीक का संक्षि० रूप] १. अंधकार। अँधेरा। २. बेहोशी। मूर्च्छा। ३. किसी प्रकार के ध्यान में मग्न होने के समय की तन्मयता। उदाहरण–सुन्नि समाधि लागि गौ तारी। जायसी। ४. समाधि। उदाहरण–हाट बजोर लावै तारी।–कबीर। ५. उत्कट इच्छा। लगन। उदाहरण–लागी दरसन की तारी।-मीराँ। स्त्री० [सं०तडित्] बिजली। विद्युत। स्त्री०१.-ताली। २.=ताड़ी।
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तारीक  : वि० [फा०] [भाव० तारीकी] १. काला। स्याह। २. अंधकारपूर्ण। अँधेरा। धुँधला।
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तारीकी  : स्त्री० [फा०] १. कालिमा। स्याही। २. अन्धकार। अँधेरा।
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तारीख  : स्त्री० [अ०] १. गिनती के हिसाब से पड़नेवाला महीने का दिन जो संख्याओं में सूचित किया जाता है। दिनांक। (डेट) जैसे–(क) अगस्त की १५वीं तारीख को भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। (ख) मुकदमा ७ तारीख को पेश होगा २.घटना के घटित होने, लेख्य आदि के लिखे जाने का दिन जो कहीं अंकित होता है। जैसे–इस किताब पर तारीख नहीं लिखी है। ३. दे० तवारीख (इतिहास)।
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तारीखी  : वि०=तवारीखी (ऐतिहासिक)।
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तारीफ  : स्त्री० [अ०] १. लक्षणों आदि से युक्त परिभाषा। २. उक्त प्रकार की परिभाषा से युक्त वर्णन या विवरण। ३. प्रशंसा। श्लाघा। ४. प्रशंसनीय काम या बात। ५. विशिष्टता। जैसे–यहीं तो आप में तारीफ हैं।
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तारीफी  : स्त्री०=तारीफ (प्रशंसा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तारु  : पुं० [हिं० तरना=तैरना] तैरनेवाला। तैराक। उदाहरण–तारु कवण जु समुद्र तरै।–प्रिथीराज। पुं० ताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तारुण  : वि० [सं० तारुण+अञ्] जवान। युवा।
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तारुण्य  : वि० [सं० तरुण+ष्यञ्] तरुण होने की अवस्था, गुण या भाव। तरुणता। यौवन।
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तारेय  : पुं० [सं० तारा+ढक्–एय] १. तारा का पुत्र अंगद। २. बृहस्पति (की स्त्री तारा) का पुत्र बुध।
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तार्किक  : वि० [सं० तर्क+ठक्-इक] तर्क संबंधी। तर्क का। पुं० १. वह जो तर्क शास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो। २. तत्त्ववेत्ता। ३. वे नास्तिक (आध्यक्षिक से भिन्न) जो केवल तर्क के आधार पर सब बातें मानते हों। इनमें दो भेद हैं–क्षणिकावानी (बौद्ध) और स्याद्वाद्वी (जैन)।
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तार्क्ष  : पु० [सं० तृण+अण्] १. कश्यप। २. कश्यप के पुत्र गरुड़।
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तार्क्षज  : पुं० [सं० तार्क्ष√जन्(पैदा होना)+ड] रसाजन।
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तार्क्षी  : स्त्री० [सं० तार्क्ष+ङीष्] पाताल गारुड़ी लता। छिरेटी। छिरिहटा।
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तार्क्ष्य  : पुं० [सं० तृक्ष+यञ्] १. तृक्ष मुनि के गोत्रज। २. गरुड़ और उनके बड़े भाई अरुण। ३. घोड़ा। ४. रसांजन। ५. साँप। ६. एक प्रकार का साल वृक्ष। अश्वकर्ण। ७. महादेव। शिव। ८. सोना। स्वर्ण। ९. रथ। १॰. एक प्राचीन पर्वत।
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तार्क्ष्य-प्रसव  : पुं० [ब० स०] अश्वकर्ण वृक्ष।
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तार्क्ष्य-शैल  : पुं० [सं० मध्य० स०+अण्] रसांजन। रसौंत।
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तार्क्ष्यज  : पुं० [सं० तार्क्ष्य√जन्+ड०] रसौंत। रसांजन।
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तार्क्ष्यी  : स्त्री० [सं० तार्क्ष्य+ङीप्] एक प्रकार की जंगली लता।
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तार्प्य  : पुं० [सं० तृपा+ष्यञ्] तृपा नामक लता से बनाया हुआ वस्त्र जिसका व्यवहार वैदिक काल में होता था।
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तार्य  : वि० [सं० तृ+णिच्+यत्] १. पार करने योग्य। २. विजित करने योग्य। पुं० [तर+ष्यञ्] नाव आदि का किराया।
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ताल  : पुं० [सं० तल+अण्] १. हाथ की हथेली। कर-तल। २. [√तड्+णिच्+अच्, ड–ल] हथेलियों के आघात के उत्पन्न होने वाला शब्द। करतल-ध्वनि। ताली। ३. संगीत में समय का परिमाण ठीक रखने के लिए थोड़े-थोड़े, परन्तु नियत अंतर में हथेली या और किसी चीज से किया जानेवाला आघात। ४. संगीत में उक्त प्रकार के आघातों का क्रम, मान्, संख्या आदि स्थिर रखने के लिए कुछ निश्चित आघातों का (जिनमें से प्रत्येक ‘आघात्’, मात्रा कहलाता है) अलग और विशिष्ट वर्ग या समूह। जैसे–तीन मात्राओं का ताल, पाँच मात्राओं का ताल आदि। ५. संगीत में तबले, मृदंग, ढोल आदि बजाने का कोई विशिष्ट प्रकार जो उक्त अनेक तालों के योग से बना और किसी विशिष्ट राग या लय के विचार से स्थिर किया गया हो। जैसे–चौताल, झूमर रुद्र या रूपक ताल। मुहावरा–ताल देना-गाने-बजाने के समय, कालमान ठीक रखने के लिए राग-रागिनी आदि के अनुरूप विशिष्ट प्राकर के आघात करना। ताल पूरना (अकर्मक)–ताल का आकार ठीक समय पर पूरा होना। ताल का क्रम ठीक बैठना। उदाहरण–इस मनु आगे पूरै ताल।–कबीर। ताल पूरना-(सकर्मक)=संगीत के समय उक्त प्रकार का आघात करते हुए ताल देना। ६. झाँझ, मंजीरा आदि बाजे जो उक्त विचार से समय का परिमाण ठीक रखने के लिए बजाये जाते हैं। ७. कुश्ती लड़ने के समय जाँघ या बाँह पर हथेली के आघात से उत्पन्न किया जानेवाला शब्द। मुहावरा–ताल ठोंकना=उक्त प्रकार का आघात करके या और किसी प्रकार यह सूचित करना कि आओ हम से लड़कर बल-परीक्षा कर लो। ८. ताड़ का पेड़। ९. ताला। १॰. ऐनक या चश्मे में लगा हुआ काँच, बिल्लौर आदि का टुकड़ा। पुं० [सं० तल्ल] [स्त्री० अल्पा० तलैया] छोटा जलासय।
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ताल-कंद  : पुं० [ब० स०] तालमूली। मुसली।
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ताल-केतु  : पुं० [ब० स०] १. केतु जिस पर ताल के पेड़ चिन्ह हो। २. वह जिसकी पताका पर ताड़ के पेड़ का चिन्ह हो। ३. भीष्म। ४. बलराम।
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ताल-क्षीर  : पुं० [मध्य० स०] खजूर या ताड़ के रस को पाग कर बनाई जानेवाली चीनी।
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ताल-जंघ  : पुं० [ब० स०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी। ३. एक यदुवंशी राजा जिसके पुत्रों ने राजा सगर के पिता को राज्य से अलग किया था।
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ताल-ध्वज  : पुं० [ब० स०] १. दे० ‘तालकेतु’। २. एक प्राचीन पर्वत का नाम।
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ताल-नवमी  : स्त्री० [मध्य० स०] भाद्रपद शुक्ला नवमी।
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ताल-पत्र  : पु० [ष० त०] ताड़ के वृक्ष का पत्ता। ताड़ पत्र। विशेष–प्राचीन काल में ताल-पत्रों पर ही लेख लिखे जाते थे।
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ताल-पर्ण  : पुं० [ब० स०] कपूर कचरी।
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ताल-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. सौंफ। २. कपूर कचरी। ३. तालमूली। मुसली। ४. सोआ नाम का साग।
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ताल-पुष्पक  : पुं० [ब० स० कप्] पंडुरिया। प्ररौंडरिकी।
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ताल-बैताल  : पुं० [सं० तालवेताल] ताल और बैताल नाम के दो पक्ष जिनके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि राजा विक्रमादित्य ने इन्हें सिद्ध किया था और बराबर उनकी सेवा में रहते थे।
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ताल-मूल  : पुं० [ब० स०] लकड़ी की बनी हुई ढाल।
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ताल-मूली  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] मुसली।
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ताल-मेल  : पुं० [हिं० ताल+मेल] १. ताल का सुरों के साथ होनेवाला मेल या संगति। २. किसी के सात होनेवाली उपयुक्त या ठीक योजना। संगति। उदाहरण–ताल मेल सौं मेलि रतन बहु रंग लगाए।–रत्ना। क्रि० प्र०–खाना।–बैठना ३. उपयुक्त अवसर। मौका।
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ताल-रंग  : पुं० [ब० स०] ताल देने का एक तरह का पुरानी चाल का बाजा।
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ताल-रस  : पुं० [ष० त०] ताड़ के वृक्ष का रस। ताड़ी।
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ताल-लक्षण  : पुं० [ब० स०] तालध्वजा बलराम।
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ताल-वन  : पुं० [ष० त०] १. ताड़ के पेड़ों का जंगल। २. ब्रज में गोवर्धन पर्वत के पास का एक वन जहाँ बलराम ने धेनुक को मारा था।
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ताल-वृंत  : पुं० [ब० स०] १. ताड़ के पत्ते का बना हुआ पंखा। २. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का सोम। (प्राचीन वनस्पति)।
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ताल-षष्टी  : स्त्री० [मध्य० स०] भादों के कृष्ण पक्ष की छठ जिस जिन स्त्रियाँ पुत्र की कामना से व्रत करती है। ललही छठ।
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ताल-स्कंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पुराना अस्त्र।
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तालंक  : पुं० [सं०-ताडंक(नि०लत्व)] ताटंक।
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तालक  : पुं० [सं० ताल+कन्] १. हरताल। २. ताला। ३. गोपी। चंदन। पुं०=तअल्लुक (संबंध)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तालकट  : पुं० [सं० ताल+कटच्।] बृहत्संहिता के अनुसार दक्षिण भारत का एक प्राचीन प्रदेश।
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तालकाभ  : वि० [तालक-आभा, ब० स०] हरा। पुं० हरा रंग।
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तालकी  : पुं० [सं० तालक+अण्+ङीप्] ताड़ वृक्ष का रस। ताड़ी।
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तालकूटा  : पुं० [हिं० ताल+कूटना] १. ताल देने के लिए झाँझ आदि बजानेवाला। २. वह भजनीक जो गाते समय झाँझ आदि बजाता हो।
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तालकोशा  : स्त्री० [सं०√क्रुश् (श्बद करना)+अच्-टाप्] एक तरह का पेड़।
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तालचर  : पुं० [सं० ताल√चर् (गति)+ट] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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तालपत्रिका  : स्त्री० [सं० तालपत्री+कन्-टाप्, ह्रस्व] मूषकपर्णी। मूसाकानी बूटी।
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तालबंद  : पुं० [सं० तालिक–बंध] वह लेखा जिसमें आमदनी की समस्त मदें दिखलाई गई हों।
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तालबेन  : स्त्री० [सं० तालवेणु] एक तरह का बाजा।
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तालमखाना  : पुं० [हिं० ताल+मक्खन] १. गीली जमीन या दलदलों के आस-पास होनेवाला एक पौधा जिसकी पंत्तियों का साग बनता है। २. दे० ‘मखाना’।
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तालमतूल  : वि० [हिं० ताल+मतूल (अनु)०] किसी के जोड़ या बराबरी का। एक सा।
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तालमूलिका  : स्त्री० [सं० तालमूली+कन्-टाप्० ह्रस्व] दे० ‘तालमूली’।
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तालवाही(हिन्)  : वि० [सं० ताल√वह् (वहन करना)+णिनि] (बाजा) जिससे ताल दिया जाय।
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तालव्य  : वि० [सं० तालु+यत्] १. तालू संबंधी। २. (ध्वनि, वर्ण या शब्द) जिसका उच्चारण मुख्यतः तालू की सहायता से होता हो। पुं० वह वर्ण जिसका उच्चारण मुख्यतः तालू की सहायता से होता हो। जैसे–इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ् और थ्।
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तालसाँस  : पुं० [सं० ताल+बं० साँस=गूदा] ताड़ के फल का गूदा जो प्रायः खाया जाता है।
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ताला  : पुं० [तालकः] एक प्रसिद्ध उपकरण जो ढकने, दरवाजे आदि बन्द करने के लिए होता और ताली की सहायता से खुलता और बंद होता है। क्रि० प्र०–खोलना–।–जड़ना।– बंद करना।–लगाना। मुहावरा–(किसी के घर में) ताला लगना–ऐसी अवस्था होना कि घर में कोई रहनेवाला न बच जाय। २. किसी प्रकार के आने-जाने का मार्ग या मुँह बंद करने का कोई उपकरम या साधन। जैसे–नहर का ताला। मुहावरा–ताला जड़ना-पूरी तरह से रोकना या बंद करना। ३.आवरण के रूप में रहनेवाला वह बाधक तत्त्व जिसे बिना हटाये अन्दर की बात या रहस्य का पता न चल सकता हो। ४. तवे के आकार का लोहे का वह उपकरण जिसे प्राचीन काल में योद्धा छाती पर बाँधते थे।
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ताला-कुंजी  : स्त्री० [सं० ताला+कुंजी] १. किवाड़, संदूक, आदि बंद करने का ताला और उसे खोलने-बंद करने की कुंजी या ताली।मुहा–(किसी के हाथ में) ताला-कुंजी होना=(क) आय-व्यय आदि का सारा अधिकार होना। (ख) संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होना। २. लड़को का एक प्रकार का खेल।
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ताला-ताली  : स्त्री०=ताला-कुंजी।
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तालांक  : पुं० [ताल-अंक, ब० स०] १. वह जिसका चिन्ह ताड़ हो। २. भीष्म। ३. बलराम ४. आरा। ५. एक प्रकार का साग। ६. शिव। महादेव। ७. किताब। पुस्तक। ८. ऐसा पुरुष जिसमें सामुद्रिक के अनुसार अनेक शुभ लक्षण हों।
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तालांकुर  : पुं० [ताल-अंकुर, ष० त०] मैनसिल धातु।
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तालाख्या  : स्त्री० [सं० ताल-आख्या, ब० स०] कपूर कचरी।
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तालाब  : पुं० [हिं० ताल+फा० आब] वह छोटा जलाशय जिसके चारों ओर स्नानर्थियों की सुविधा के लिए सीढ़ियाँ आदि बनी होती है।
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तालाबंदी  : स्त्री० [हिं० ताला+फा० बंदी] १. तालाबंद करने या लगाने की क्रिया, अवस्था या भाव। २. औद्योगिक क्षेत्र में किसी कारखाने का अनिश्चित काल के लिए उसके स्वामी या स्वामियों के द्वारा बन्द किया जाना। (लाँक आउट)।
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तालि  : स्त्री० [?] समय। उदाहरण–तिणि तालि सखी गलि स्यामा तेही।–प्रिथीराज।
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तालिक  : पुं० [सं० तल्+ठक्-इक] १. फैली हुई या फैलाई हुई हथेली। २. वह डोरा जिससे ताड़-पत्र या उन पर लिखे हुए लेख नत्थी करके एक में बाँधे जाते थे। ३. ताड़पत्रों का पुलिंदा।
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तालिका  : स्त्री० [सं० ताली+कन्-टाप्, ह्रस्व] १. ताली। कुंजी। २. लिखित ताल-पत्रों, कागजों आदि का पृथक् और स्वतन्त्र पुंलिदा। नत्थी। ३. ऐसी सूची जिसमें बहुत सी वस्तुओं आदि के नामों का उल्लेख हो। फेहरिम्त। सूची। ४. [तलिक+टाप्] चपत। थप्पड़। ५. ताल-मूली । मुसली। ६. मजीठ।
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तालिब  : वि० [अ०] १. तलब करनेवाला। २. खोजने या ढूँढ़नेवाला। ३. चाहनेवाला।
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तालिब-इल्म  : पुं० [अ०] [भाव० तालिब-इल्मी] १. वह जिसे इल्म अर्थात् विद्या की चाह हो। २. विद्यार्थी।
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तालिम  : स्त्री० [सं० तल्प] १. शय्या। २. बिस्तर। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तालियामार  : पुं० [हिं० ताली+मारना] जहाज का आगे या सामने का वह निचला अंश जो पानी को काटता है। गलही। (लश०)।
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तालिश  : पुं० [सं०√तल् (प्रतिष्ठा)+इश, णित्-वृद्धि] पर्वत। पहाड़।
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ताली  : स्त्री० [सं०√तल्+णिच्+अच्-ङीष्] १. एक प्रकार का पहाड़ी ताड़। बजर-बटट्। २. ताल-मूली। मुसली। ३. भू-आँवला। ४. ताम्रवल्ली लता। ५. अरहर। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त। ७. मेहराब के बीचोबीच का पत्थर या ईंट जो दोनों ओर के पत्थरों या ईटों को गिरने से रोके रहती है। ८. [ताल+अण्] ताड़ का रस। ताड़ी। स्त्री० [हिं० ताला] १. ताले के साथ रहनेवाला वह छोटा उपकरम जिसकी सहायता से ताला खोला और बंद किया जाता है। कुंजी। चाबी। क्रि० प्र०–खोलना।–लगाना। २. किसी प्रकार का आवागमन या मार्ग खोलने और बंद करने का कोई उपकरण या साधन। जैसे–बिजली के तार में उसका प्रवाह रोकने की ताली। विशेष दे० कुंजी। स्त्री० [सं० ताल] १. थप थप शब्द उत्पन्न करने के लिए दोनों हाथों की हथेलियों को एक दूसरी पर मारने की क्रिया। २. उक्त क्रिया से उत्पन्न होनेवाला शब्द जो किसी की प्रशंसा और अपनी प्रसन्नता का सूचक होता है। करतल-ध्वनि। थपोड़ी। विशेष–कभी-कभी दूसरों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए ऐसा शब्द उत्पन्न किया जाता है मुहावरा–ताली पिटना=किसी की दुर्दशा होने पर लोगों में उसका उपहास होना। ताली पीटना=कोई अच्छा काम या बात देकर और उससे प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा और अपना समाधान सूचित करने के लिए हथेलियों से कई बार उक्त प्रकार का शब्द करना। कहा–एक हाथ से ताली नहीं बजती-कोई क्रिया या व्यवहार एक पक्ष से तब तक नहीं पूरा होता जब तक दूसरे पक्ष से भी वैसी ही क्रिया या व्यवहार न हो। पुं० शिव। स्त्री० [हिं० ताल-जलाशय] छोटा ताल। तलैया। गबड़ी। स्त्री० [?] पैर में बिचली उंगली का अगला भाग।
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ताली-पत्र  : पुं० [ब०स०] तालीश-पत्र।
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तालीका  : पुं० [अ० तअलीकः] १. माल-असबाब की कुर्की या जब्ती। २. कुर्क या जब्त किए हुए माल-असबाब की सूची। तालिका।
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तालीम  : स्त्री० [अ०] १. निपुण तथा योग्य बनाने के लिए किसी को सखाई जानेवाली बातें या दिये जानेवाले उपदेश। २. पढ़ना-लिखना सीखने या सिखाने का कार्य या कार्य-प्रणाली। शिक्षा।
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तालीश-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. तमाल या तेजपत्ते की जाति का एक पेड़ जिसके कई अंगों का उपयोग ओषधि के काम में होता है। २. भू-आँवले की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा।
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तालीश-पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] तालीश-पत्र।
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तालु  : पुं० [सं०√तृ(तैरना)+ञुण्, लत्व] [वि० तालव्य] तालू।
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तालु-कंटक  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें तालू में काँटे निकल आते हैं।
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तालु-जिह्व  : पुं० [ब० स०] घड़ियाल।
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तालु-पाक  : पुं० [ब० स०] तालू में होने वाला रोग।
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तालु-पुप्पुट  : पुं० [ब० स०] तालूपाक रोग।
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तालुक  : पुं० [सं० तालु+कन्] १. तालू। २. तालू में होनेवाला एक तरह का रोग। पुं०=ताल्लुक (संबंध)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तालुका  : स्त्री० [सं० तालुक+टाप्] तालू के अन्दर की एक नाड़ी। पुं०=ताअल्लुका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तालुशोष  : पुं० [ब० स०] तालू में होनेवाला एक तरह का रोग।
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तालू  : पुं० [सं० तालू०] १. मुँह के अन्दर का वह ऊपरी भाग जो ऊपरवाले दाँतों की पंक्ति और गले के कौए या घंटी तक विस्तृत रहता है तथा जिसके नीचे जीभ रहती है। (पैलेट)। मुहावरा–तालू उठाना-तुरन्त के जन्मे हुए बच्चे के तालू को दबाकर कुछ ऊपर और ठीक स्थान पर करना जिसमें मुँह अच्छी तरह खुल सके और उसके अन्दर कुछ अवकाश या जगह निकल आवे। (किसी के) तालू में दाँत जमना-किसी का ऐसे बहुत बुरे या विकट काम की ओर प्रवृत्त होना जिससे अंत में स्वयं उसी को बहुत बड़ी हानि हो। (किसी के) तालू में दाँत निकलना=दे० ‘दाँत’ के मुहा० के अंतर्गत। तालू से जीभ न लगना=बराबर कुछ न कुछ बकते-बोलते रहना। कभी चुप न रहना। २. खोपड़ी के अन्दर और मुंह के उक्त अंग के ऊपर का सारा भाग। दिमाग। मस्तिष्क। मुहावरा–तालू चटकना=प्यास, रोग आदि के कारण सिर में बहुत अधिक गरमी जान पड़ना। ३. घोड़ों का एक अशुभ लक्षण जो ऐब या दोष माना जाता है।
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तालूफाड़  : पुं० [हिं० तालू+फाड़ना] हाथियों के तालू में होनेवाला एक तरह का रोग जिसमें घाव हो जाते हैं।
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तालूर  : पुं० [सं०√तल् (प्रतिष्ठा करना)+णिच्+ऊर्] पानी का भँवर।
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तालूषक  : पुं० [सं०√तल्+णिच्+ऊषक्]=तालु।
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तालेवर  : वि० [अ० ताला-भाग्य+फा० वर (प्रत्यय)] १. धनाढ्य। धनी। २. भाग्यवान। सौभाग्यशाली।
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ताल्लुक  : पुं० [अ० तअल्लुकः] १. संबंध। २. लगाव।
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ताल्लुका  : पुं० [अ० तअल्लुकः] आस-पास के कई गाँवों का समूह जो किसी एक ही जमींदार के अधिकार में होता था। इलाका।
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ताल्लुकेदार  : पुं० [अ० तअल्लुकः+फा० दार] १. किसी ताल्लुके का जमींदार २. अँगरेजी शासन में अवध प्रदेश में वह जमींदार जिसे सरकार से कुछ विशिष्ट अधिकार प्राप्त होते थे।
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ताल्वर्बुद  : पुं० [सं० तालु-अर्बुद, ष० त०] तालू में उत्पन्न होनेवाला एक तरह का काँटा जिससे बहुत कष्ट होता है।
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ताव  : पुं० [सं० ताप; प्रा० ताव] १. आँच, धूप आदि के कारण उत्पन्न होनेवाली वह गरमी जो वस्तुओं को लगकर तपाती या पकाती और व्यक्तियों को लगकर शारीरिक कष्ट देती है। गरमी। ताप। क्रि० प्र०–लगना। मुहावरा–(किसी वस्तु में) ताव आना-किसी वस्तु का जितना चाहिए, उतना गरम हो जाना। जैसे–जब तक तवे में ताव न आवे तब तक उस पर रोटी नहीं डालनी चाहिए। (किसी वस्तु का) ताव खा जाना-तेज आँच लगने पर आवश्यकता से अधिक गरम होकर जल या बिंगड़ जाना अथवा वे-स्वाद हो जाना। कुछ या बहुत जल जाना। जैसे–शीरा ताव खा जायगा तो कडुंआ हो जायगा। (किसी व्यक्ति का) ताव खाना-अधिक गरमी या धूप लगने से अस्वस्थ या विकल हो जाना। जैसे–लड़का कल दोपहर में ताव खा गया था, इसी से रात को उसे बुखार आ गया। (आँच का) ताव बिगड़ना-आँच का इस प्रकार आवश्यकता के कम या ज्यादा हो जाना कि उस पर पकाई जानेवाली चीज ठीक तरह से पकने पावे। २. वह आवेश या मनोवेग का उद्दीप्त रूप जो काम, क्रोध, घमंड आदि दूषित भावों या विचारों के फलस्वरूप अथवा बढ़ावा देने, ललकारने आदि पर उत्पन्न होता और भले-बुरे का ध्यान भुलाकर मनुष्य को किसी काम या बात में वेगपूर्वक अग्रसर या प्रवृत्त करना। मुहावरा–ताव चढ़ना-मन में उक्त परकार का विकार या स्थिति उत्पन्न होना। जैसे–अभी इसे ताव चढ़ेगा तो बात में सौ दो सौ रुपए खर्च कर डालेगें। (किसी को) ताव दिखाना-उक्त प्रकार की स्थिति में आकर अभिमानपूर्वक किसी को दबाने, नीचा दिखाने, हराने आदि की तत्परता प्रकट करना। जैसे–बहुत ताव मत दिखाओं, नहीं तो अभी तुम्हें दुरुस्त क दूँगा। ताव-पेंच खाना-रह-रहकर क्रोध या आवेश दिखाते हुए रुक-रुक जाना। (किसी व्यक्ति का) ताव में आना-अभिमान, आवेश, क्रोध, दूषित मनोविकार आदि से युक्त होकर कोई दुस्साहसपूर्ण काम करने पर उतारू होना या किसी ओर प्रवृत्त होना। ३. कोई काम या बात तुरंत या बहुत जल्दी पूरी करने या होने की प्रबल उत्कंठा या कामना। उतावलेपन से युक्त चाह या कामना। क्रि० प्र०–चढ़ना। पद–ताव पर-प्रबल आवश्यकता, इच्छा, मनोवेग आदि उत्पन्न होने की दशा में अथवा उत्पन्न होते ही तत्काल या तुरंत। जैसे–तुम्हारे ताव पर तो पुस्तक छप नहीं जायगी, उसमें समय लगेगा। पद–ताव-भाव। ४. पदार्थों, आदि की वह स्थिति जिसमें वे कृत्रिम उपायों या स्वाभाविक रूप में कुछ कड़े, खड़े या सीधे रहते हैं और उनमें लचक या लुजलुजाहट या शिथिलता नहीं रहती। जैसे–(क) इस्तरी करने से कपड़ों में ताव आ जाता है। (ख) लाखों रुपए के कर्जदार होने पर भी वे बाजार में बहुत ताव से चलते हैं। मुहावरा–मूँछों पर ताव देना-मूँछें उमेठ या मोरडकर खड़ी या सीधी करते हुए अपनी ऐंठ, पराक्रम या शान दिखाना। ५. मन को दुःखी या शरीर को पीड़ित करनेवाली कोई बात। कष्ट। तकलीफ। ताप। उदाहरण–चंद्रावत तज साम ध्रम विणहीं पड़ियों ताव।–बांकीदास। पुं० [फा० ता=संख्या] कागज का चौकोर और बड़ा टुकड़ा जो पूरी उकाई के रूप में बनकर आता और बाजारों में ‘ताव’ शब्द फा० ‘ता’ से व्युत्पन्न माना गया है, परन्तु वह व्युत्पत्ति कुछ ठीक नहीं जान पड़ती। हो सकता है कि ताव का कागज के तख्तेवाला यह अर्थ भी ताव के उस चौथे अर्थ का ही विस्तृत रूप हो जो ऊपर ताप से व्युत्पन्न प्रसंग में बतलाया गया है और जिसके अन्तर्गत कपड़े में ताव आने और बाजार में ताव से चलने के उदाहरण–दिये गये हैं।
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ताव-भाव  : पुं० [हिं० ताव+भाव] १.वह स्थिति जो किसी काम,बात या व्यक्ति की विशिष्ट प्रवृत्ति या स्वरूप के कारण उत्पन्न होती है और जिससे उसके बल,मान,वेग आदि का अनुमान किया जाता है। जैसे–जरा उनका ताव-भाव तो देख लो,फिर समझौते की बातचीत चलाना। २.किसी काम,चीज या बात की ठीक-ठाक अन्दाज या हिसाब। जैसे–वह तरकारी में बहुत ताव-भाव से मसाले डालता है। ३.ऐंठ। ठसक। शेखी। जैसे–जरा देखिए तो आप कैसे ताव-भाव से चले आ रहे हैं। ४.रंग-ढंग। तौर-तरीका।
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तावत  : अव्य० [सं० तद्+डावतु] १. उस अवधि या समय तक। तब तक। २. उस सीमा या हद तक। वहाँ तक। ३. उस परिमाण या मात्रा तक (यावत् का नित्य संबंधी का संबंध पूरक)।
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तावदार  : वि० [हिं० ताव+फा० दार] [भाव० तावदारी] १. (व्यक्ति) जिसमें ताव हो। जो उमंग या जोश में आकर अथवा साहसपूर्वक कोई काम कर सकता हो। २. (पदार्थ) जिसमें कुछ विशेष कड़ापन तथा सौंदर्य हो। जैसे–तावदार कपड़ा या जूता।
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तावना  : स० [तपाना] १. गरम करना। जलाना। २. कष्ट, या दुख देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तावबंद  : पुं० [हिं० ताव+फा० बंद] वह रसायम जिसके चाँदी का खोट उसे तपाने पर भी दृष्टिगत नहीं होता।
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ताँवर  : पुं०=ताँवरा।
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तावर  : पुं०=तावरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताँवरना  : अ० [हिं० ताँवर] १. ताप से युक्त होना। तप्त होना। २. ज्वर के कारण शारीरिक तापमान अधिक होना। बुखार होना। ३. अधिक ताप के कारण मूर्च्छित या बेसुधहोना। ४. क्रुद्ध या नाराज होना। बिगड़ना।
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ताँवरा  : पुं० [सं० ताप, हिं० ताव०] १. शरीर का ताप नामक रोग। ज्वर। बुखार। २. जाड़ा देकर आनेवाला बुखार। जूड़ी। ३. बहुत अधिक गरमी या ताप। ४. गरमी आदि के कारण होनेवाली बेहोशी। मूर्च्छा। उदाहरण–-रीतौ परयौ जबै फल चाख्यौ उड़ि गयौ तूल ताँवरो आयो।–सूर।
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तावरा  : पुं० [सं० ताप] १.गरमी।ताप। २.आंच,धूप आदि के कारण होनेवाली गरमी। ३.गरमी के कारण सिर में आनेवाला चक्कर या होनेवाली बेहोशी क्रि० प्र०–आना।
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ताँवरी  : स्त्री०=ताँवरा।
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तावरी  : स्त्री० [सं० ताप, हिं० ताव+री (प्रत्यय)] १. गरमी। ताप। २. जलन। दाह। ३. दाह० धूप। ४. गरमी लगने पर सिर में आनेवाला घुमटा या चक्कर। ५. ज्वर। बुखार। ६. ईर्ष्या। जलन।
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तावरो  : पुं०=तावरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तावल  : स्त्री० [हिं० ताव] उतावनापन । हड़बड़ी।
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तावला  : वि०=उतावला।
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तावा  : पुं० [हिं० ताव] १. तवा। २. वह कच्चा खपड़ा जिसके किनारे अभी मोड़े न गये हों और इसलिए जिसका रूप तवे का सा हो। (कुम्हार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तावान  : पुं० [फा०] आर्थिक क्षति आदि होने पर उसकी पूर्ति के लिए या बदले में दिया जाने अथवा लिया जानेवाला धन। डाँड़। क्रि० प्र०–देना।–लगना।–लगाना।–लेना।
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ताविष  : पुं० [सं०√तव् (गति)+टिषच्, णित्त्वात्, वृद्धि]–तावीष।
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ताविषी  : स्त्री० [सं० ताविष+ङीष्] १. देवकन्या। २. नदी। ३. पृथ्वी। भूमि।
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तावीज  : पुं० [अ० तअवीज] १. कागज, भोज-पत्र आदि पर लिखा हुआ वह यंत्र मंत्र जो अपनी रक्षा आदि के विचार से छोटी डिबिया के आकार के संपुट मे बन्द करके गले में या बाँह पर पहना अथवा कमर में बाँधा जाता है। रक्षा-कवच। क्रि० प्र–पहनना।–बाँधना। २. चाँदी, सोने आदि का वह गोलाकार या चौकोर छोटा संपुट जो गहने के रूप में गले में या बाँह पर पहना जाता है। क्रि० प्र०–पहनना।
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तावीष  : पुं० [सं०=ताविष, पृषो० दीर्घ] १. सोना। स्वर्ण। २. स्वर्ग। ३. समुद्र० सागर। विशेष–वाचस्पत्य अभिधान में शब्द का यह रूप अशुद्ध और असिद्ध कहा गया है।
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तावुरि  : पुं० [पूना० टारस] वृष राशि।
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ताश  : पुं० [अ० तास-तश्य या चौड़ा बरतन] १. एक तरह का चमकीला कपड़ा जिसका ताना रेशम का और बाना बादले का होता है। २. गत्ते या दफ्ती के ५२ चौखूँटे पत्तों की गड्डी जिसके पत्तों पर काले और लाल रंगों की बूटियाँ, तसवीरे आदि बनी होती हैं तथा जिससे विभिन्न खेल खेले जाते हैं। ३. उक्त गड्डी में का कोई पत्ता। ४. उक्त पत्तों से खेला जानेवाला खेल। ५. वह छोटी दफ्ती जिस पर कपड़े सीने का तागा लपेटा रहता है।
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ताशा  : पुं० [फा० तासः] डुग्गी की तरह का परन्तु उसमे कुछ बड़ा और चिपटा बाजा जो गले में लटकाकर तीलियों के आघात से बजाया जाता है।
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तास  : सर्व० पुं० हिं० में तिस या उस का एक रूप। उदाहरण–जास का सेवक तास की पाइहै।–कबीर। पुं०–ताश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तासन, तासों  : सर्व० [हिं० तास] उससे।
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ताँसना  : स० [सं० त्रास] १. किसी को त्रास देना। डाँट-डपटकर डराना-धमकाना। २. अनुचित व्यवहार करके किसी को बहुत कष्ट देना या दुःखी करना। सताना। जैसे–वह दिन भर अपनी बहू-बेटियों को ताँसती रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तासला  : पुं० [देश०] भालू को नाचने के लिए उसके गले में बाँधी जानेवाली रस्सी।
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तासा  : स्त्री० [सं० त्रय-तिहरा] तीन बार की जोती हुई भूमि। पुं०–ताशा (बाजा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तासीर  : स्त्री० [अ०] किसी वस्तु को उपयोग में लाने अथवा उसका सेवन करने पर उसके त्तात्त्विक गुण का पड़नेवाला प्रभाव। जैसे–इस दवा की तासीर गरम ( या ठंढी) है।
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तासु  : सर्व [हिं० ता+सु (प्रत्यय)] १. उसका। २. उसको।
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तासूँ  : सर्व०=तासों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तासों  : सर्व० [हिं० ता+सों (प्रत्यय)] उससे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तास्कर्य  : पुं० [सं० तस्कर+ष्यञ्] तस्कर होने की अवस्था या भाव। तस्करता।
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तास्सुब  : पुं०=तअस्सुब।
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ताहम  : अव्य० [फा०] इतना या ऐसा होने पर भी। (प्रायः विरोधी बाव सूचित करने के प्रसंग में) जैसे–ताहम आप तो चले ही जायेंगें।
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ताहि  : सर्व० [हिं० ता० हिं० (प्रत्यय)] उसको। उसे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ताहिरी  : स्त्री० [अ०] तहरी नाम की खिचड़ी।
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ताहीं  : अव्य० दे० ‘ताई’ या ‘तई’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ति  : सर्व० [सं० तद् या त] वह। वि० हिं० तीन का संक्षिप्त रूप जो उपसर्ग के रूप में कुछ शब्दों के आरंभ में लगता है। जैसे–तिआह, तिकोना आदि।
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तिआ  : स्त्री०=तिय। (स्त्री।) पुं० दे० ‘तीया’।
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तिआह  : पुं० [हिं० ति+सं० विवाह] १. किसी का (दो बार विधवा या विधुर हो चुकने पर) तीसरी बार होनेवाला विवाह। २. वह व्यक्ति जिसका इस प्रकार तीसरी बार विवाह हुआ हो। पुं० [सं० त्रि+पक्ष] वह श्राद्ध जो किसी के मृत्यु के पैतालीसवें दिन अर्थात् तीन पक्ष पूरे होने पर किया जाता है।
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तिउरा  : पुं० [देश०] केसारी या खेसारी नामक कदन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] केसारी। खेसारी।
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तिउरी  : स्त्री०=त्योरी।
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तिउहार  : पुं०=त्यौहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिक-तिक  : स्त्री० [अनु०] किसी पशु को हाँकते सम मुँह से किया जानेवाला तिक तिक शब्द।
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तिकड़म  : पुं० [सं० त्रि+क्रम] ऐसी गहरी अनैतिक चाल या तरकीब जिससे कोई कठिन और प्रायः असंभव प्रतीत होनेवाला काम सहज में हो जाय।
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तिकड़मी  : वि० [हिं० तिकड़म] जो तिकड़म से काम करता हो।
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तिकड़ा  : पु० [सं० त्रिक्] १. एक साथ बनी या रहनेवाली तीन चीजों का समूह। २. पहनने की वे धोतियाँ जो तीन एक साथ बुनी गई हों। विशेष–आज-कल जिस प्रकार धोतियों के जोड़े बनते और बिकते है, उसी प्रकार पहले मोटी धोतियों के तिकड़े भी बनते और बिकते थे।
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तिकड़ी  : स्त्री० [हिं० तीन+कड़ी] १. जिसमें तीन कड़ियाँ हों। २. चारपाई की बुनावट का वह प्रकार या रूप जिसमें तीन-तीन रस्सियां एक साथ बुनी जाती है। स्त्री०=तिक्का या तिक्की। (ताश का पत्ता)।
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तिकरि  : अव्य० [सं० त्वत्कृते] तुम्हारे लिए। उदाहरण–बाँहाँ तिकरि पसारी बेड़।–प्रिथीराज।
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तिकानी  : स्त्री० [हिं० तीन+कान] धुरी मे लगाई जानेवाली वह तिकोनी लकड़ी जो पहिये को धुरी से बाहर निकालने से रोकती है।
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तिकार  : पुं० [सं० त्रि+कार] १. तीसरी बार जोता हुआ खेत। २. तीन बार खेत जोतने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिकुरा  : पुं० [हिं० तीन+कूरा] उपज का तीसरा अंश या भाग।
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तिकोन  : पुं०=त्रिकोण। वि०=तिकोना।
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तिकोना  : वि० [सं० त्रिकोण] [स्त्री० तिकोनी] जिसके या जिसमें तीन कोने हों। जैसे–तिकोना मकान। पुं० १. समोसा नाम का पकवान। २. धातुओं पर नक्काशी करने की एक प्रकार की छेनी। ३. क्रोध-सूचक या चढ़ी हुई त्योरी।
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तिकोनिया  : वि० [हिं० तिकोना] तीन कोनों वाला। स्त्री० [हिं० तिकोना] बढ़इयों का लकड़ी का एक तिकोना उपकरण या औजार जिससे कोनों की सीध नापते हैं।
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तिक्का  : पुं० [सं० त्रिक्] ताश का वह पत्ता जिस पर तीन बूटियाँ होती है। तिक्की। तिड़ी। पुं० [फा० तिक्कः] मांस की कटी हुई बोटी। मुहावरा–तिक्का बोटी करना-पूरी तरह से काटकर खंड-खंड करना।
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तिक्की  : स्त्री० [सं० त्रिक्] १. ताश का वह पत्ता जिस पर तीन खूडियाँ होती हैं तिड़ी। २. गंजीफे का उक्त प्रकार का पत्ता।
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तिक्ख  : वि० [सं० तीक्ष्ण, प्रा० तिक्ख] १. तीखा। तीक्ष्ण। २. चोखा। तेज। ३. तीव्र बुद्धिवाला। चालाक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिक्त  : वि० [सं०√तिज् (तीखा करना)+क्त] जो गुरुच, चिरायते आदि के स्वाद की तरह का हो। तीता। पुं० १. पित्त-पापड़ा। २. कुटज। कुरैया। ३. वरुण वृक्ष। ४. खुशबू। सुंगंध।
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तिक्त-कांड  : पुं० [ब० स०] चिरायता।
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तिक्त-गंधा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] वराहीकंद।
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तिक्त-गुंजा  : स्त्री० [उपमि० स० परनिपात] कंजा। करंज।
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तिक्त-तंडुला  : स्त्री० [ब० स०] पिप्पली। पीपल।
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तिक्त-तुंडी  : स्त्री० [सं०=तिक्त-तुंबी, पृषो० सिद्धि] कड़ई तुरई।
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तिक्त-तुंबी  : स्त्री० [कर्म० स०] कड़आ कद्दू। तितलौकी।
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तिक्त-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स०] १. खिरनी। २. मेढ़ासिंगी।
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तिक्त-धातु  : स्त्री० [कर्म० स०] शरीर के अंदर का पित्त जो तिक्त या तीता होता है।
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तिक्त-धृत  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में, कुछ विशिष्ट औषधियों के योग से बनाया हुआ घी जो बहुत से रोगों का नाशक माना जाता है।
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तिक्त-पत्र  : पुं० [ब० स०] ककोडा़। खेखसा।
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तिक्त-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] कचरी। पेंहटा।
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तिक्त-पर्वा  : पुं० [ब० स० टाप्] १. दूब। दूर्वा। २. हुलहुल। ३. जेठी मधु। मुलेठी। ४. गिलोय। गुडुच।
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तिक्त-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] पाठा।
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तिक्त-फल  : पुं० [ब० स०] रीठा। निर्मलफल।
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तिक्त-फला  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. भटकटैया। २. खरबूजा। ३. कचरी।
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तिक्त-भद्रक  : पुं० [कर्म० स०] परवल पटोल।
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तिक्त-यवा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] संखिनी।
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तिक्त-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] मूर्वालता। मरोड़फली। चुरनहार।
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तिक्त-वीजा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] तितलौकी। कडुआ कद्दू।
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तिक्त-शाक  : पुं० [ब० स०] १. खैर का पेड़। २. वरुण वृक्ष। ३. पत्र सुन्दर नाम का साग।
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तिक्त-सार  : पुं० [ब० स०] १. रोहिस नाम की घास। २. खैर का पेड़।
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तिक्तक  : वि० [सं० तिक्त+कन्] तिक्त। पुं० १. चिरायता। २. नीम। ३. काला खैर। ४. इंगुदी। हिंगोट। ५. परवल। पटोल। ६. कुटज। कुरैया।
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तिक्तकंदिका  : स्त्री० [सं० तिक्त-कंद, मध्य० स०+कन्-टाप्, इत्व] गंधपत्ता। बनकचूर।
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तिक्तका  : स्त्री० [सं० तिक्त√कै (प्रकाशित होना)+क–टाप्] कड़ुआ कद्दू। तितलौकी।
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तिक्तगंधिका  : स्त्री० [सं० तिक्तगन्धा+कन्-टाप्, ह्रस्व, इत्व] वराहीकंद।
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तिक्तता  : स्त्री० [सं० तिक्त+तल्–टाप्] तिक्त होने की अवस्था गुण या भाव। तीतापन।
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तिक्तरी  : स्त्री० [?] सँपेरों की बीन। तूमड़ी।
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तिक्तरोहिणिका  : स्त्री० [सं० तिक्तरोहिणी+कन्-टाप्, हृस्व] कुटकी।
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तिक्तरोहिणी  : स्त्री० [सं० तिक्त√रुह् (उगना)+णिनि-ङीप्] कुटकी।
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तिक्ता  : स्त्री० [सं० तिक्त+अच्-टाप्] १. कुटकी। २. पाठा। पाढ़ा। ३. खरबूजा। ४. नन-छिकनी। ५. यवतिक्ता नाम की लता।
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तिक्ताक्ति  : स्त्री० [सं० तिक्त से] एक प्रकार का वाष्प (गैस) जो वर्ण-हीन और उग्र गंधवाला होता है। उसके योगसे जमे हुए कण प्रायः औषध, खाद आदि के काम आते हैं। (एमोनिया)
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तिक्ताख्या  : स्त्री० [सं० तिक्त-आख्या, ब० स०] तितलौकी।
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तिक्तांगा  : स्त्री० [सं० तिक्त-अंग, ब० स० टाप्+अच्+टाप्] पाताल गारुड़ी लता। छिरेंटा।
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तिक्तिका  : स्त्री० [सं० तिक्ता+कन्-टाप्, इत्व] १. तितलौकी। २. काक माछी।
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तिक्ष  : वि० [भाव० तिक्षता]=तीक्ष्ण।
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तिख  : वि० [सं० त्रि] (खेत) जो बीज बोये जाने से पहले तीन बार जोता गया हो।
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तिखटी  : स्त्री०=तिकठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिखरा  : वि० दे० ‘तिख’।
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तिखाई  : स्त्री० [हिं० तीखा] तीखे होने की अवस्था, गुण या भाव। तीखापन।
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तिखारना  : सं० [सं० त्रि+हिं० आखर] ताकीद करते हुए किसी से कोई बात तीन बार अथवा कई बार कहना।
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तिखूँट  : वि०=तिखूँटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिखूँटा  : वि० [हिं० तीन+खूँट] जिसके तीन खूँट अर्थात् तीन कोने हों। तिकोना।
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तिग  : पुं०=त्रिक्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिगना  : स० [देश०] देखना (दलाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘तिगुना’।
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तिगमता  : स्त्री० [सं० तिग्म+तल्–टाप्] तिग्म अर्थात् तीक्ष्ण होने की अवस्था या भाव।
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तिगला  : पुं० [हिं० तीन+गली] [स्त्री० अल्पा० तिगली] वह स्थान जहाँ से तीन गलियों के रास्ते जाते हो। तिरमुहानी।
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तिगुना  : वि० [सं० त्रिगुण] [स्त्री० तिगुनी] जो किसी बात या मात्रा के अनुपात में तीन गुना हो। जितना होता हो, उतना तथा उससे दूना और।
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तिगूचना  : स०=तिगना (देखना)।
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तिगून  : पुं० [हिं० तिगुना] १. तिगुने होने की अवस्था या भाव। २. गाने-बजाने में क्रमशः आगे बढ़ने और तेज होते हुए ऐसी स्थिति में पहुँचना जब कि आरंभवाले मान से तिहाई समय में गाना बजाना होता है और गति या वेग तिगुना बढ़ जाता है।
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तिग्म  : वि० [सं०√तिज् (तीखा करना)+मक्] [भाव० तिग्मता] तीक्ष्ण। तेज। पुं० १. वज्र। २. पीपल।
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तिग्म कर  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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तिग्म-केतु  : पुं० [ब० स०] भगवत में वर्णित एक ध्रुववंशीय राजा।
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तिग्म-दीधिति  : पुं० [ब० स०]सूर्य।
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तिग्म-मन्यु  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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तिग्म-रश्मि  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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तिग्मांशु  : पुं० [तिग्म-अंशु, ब० स०] सूर्य।
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तिघरा  : पुं० [सं० त्रिघट] चौड़े मुँहवाला एक तरह का घड़ा या मटका जिसमें दही, दूध आदि रखते हैं।
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तिचिया  : पुं० [?] जहाज पर का वह आदमी जो नक्षत्रों आदि की गतिविधियाँ देखता है।
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तिच्छ(न)  : वि०=तीक्ष्ण।
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तिजरा  : पुं० [सं० त्रि+ज्वर] हर तीसरे दिन आने, चढ़ने या होनेवाला ज्वर। तिजारी।
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तिजवाँसा  : पुं० [हिं० तीजा-तीसरा+मास=महीना] कुछ विशेष जातियों में होनेवाला वह उत्सव जो किसी स्त्री को तीन महीने के गर्भ होने पर मनाया जाता है।
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तिजहरिया  : पुं०=तिजारी (बुखार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिजार  : पुं०=तिजारी। (ज्वर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिजारत  : स्त्री० [अ०] [वि० तिजारजी] १. रोजगार। व्यापार। व्यवसाय। २. वाणिज्य।
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तिजारी  : स्त्री० [हिं० तीन+ज्वर] हर तीसरे दिन आनेवाला ज्वर या बुखार जो मलेरिया का एक प्रकार है।
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तिजिया  : वि० [हिं० तीजा=तीसरा] (व्यक्ति) जिसके तीन विवाह हो चुके हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिजिल  : पुं० [?] १. चंद्रमा। २. राक्षस।
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तिजोरी  : स्त्री० [देश०] लोहे की वह मजबूत छोटी किंतु भारी अलमारी या पेटी जिसमें गहने, नकदी आदि की दृष्टि से रखी जाती है।
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तिड़  : पुं० [?] पक्ष। (डि०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिड़लना  : स० [?] खींचना। उदाहरण–जनि अनुरागे पाछ धरि पेललि कर धरि काम तिकड़ी।–विद्यापति।
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तिड़ी  : स्त्री० [सं० त्रि=तीन] ताश का वह पत्ता जिन पर तीन बूटियाँ बनी होती है। तिक्की। वि० [सं० तिर्यक् ?] (व्यक्ति) जो कहीं से खिसक, टल या हट गया हो। (बाजारू) जैसे–मुझे देखते ही वहाँ से तिड़ी हो गया।
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तिड़ी-बिड़ी  : वि०=तितर-बितर (दे०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिणि  : अव्य० [सं० तेन] इसलिए। उदाहरण–तथापि रहे न हूँ सकूँ बकूँ तिणि।–प्रिथीराज।
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तित  : क्रि० वि० [सं० तत्र] १. उस स्थान पर। वहाँ। २. उस ओर। उधर।
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तितक्ष  : वि० [सं०√तिज् (सहन करना)+सन्+अच्] तितिक्षु। पुं० एक प्राचीन ऋषि।
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तितना  : वि०=उतना।
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तितर-बितर  : वि० [हिं० तीतर+बटेर-कुछ एक तरह का कुछ दूसरी तरह का] १. जो अपने क्रम या स्थान से हट-बढ़ कर या अव्यवस्थित रूप से कुछ इधर और उधर हो गया हो। अस्त-व्यस्त। जैसे–बीड़ (या सेना) तितर बितर हो गई। २. अनियमित रूप से बिखरा हुआ। जैसे–घर का सारा सामान तितर-बितर पड़ा है।
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तितरात  : पुं० [?] एक पौधा जिस की जड़ औषध के काम में आती है।
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तितरोखी  : स्त्री० [हिं० तीतर+रोख] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
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तितल  : वि०=शीतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तितली  : स्त्री० [सं० तित्तरीक] १. एक तरह का उड़नेवाला छोटा कीड़ा जिसके पंख रंग-बिरंगे और सुन्दर होते हैं और जो प्रायः फूलों पर मँड़राता रहता तथा उनका रस चूसता है। २. लाक्षणिक रूप में, सुन्दर बालिका या स्त्री जो बहुत चंचल हो और प्रायः खूब बनी ठनी रहती हो। ३. वन-गोभी का एक नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तितलौआ  : पुं० दे० ‘तितलौकी’।
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तितलौकी  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रसिद्ध लता जिसमें कद्दू के आकार-प्रकार के ऐसे फल लगते हैं जो स्वाद में कड़ुवे या तीते होते हैं। २. उक्त लता का फल।
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तितारा  : पुं० [सं० त्रि+हिं० तार] १. सितार की तरह का तीन तारोंवाला ताल देने का एक बाजा। २. फसल की तीसरी बार की सिचाई। वि० तीन तारोंवाला। जैसे–तितारा डोरा या ताना।
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तितिक्षा  : स्त्री० [सं०√तिज्+सन्+अ-टाप्] सरदी, गरमी आदि सहन करने की शारीरिक शक्ति। २. कष्ट, दुख आदि झेलने का सामर्थ्य। ३. धैर्यपूर्वक या चुप-चाप कोई आघात, आक्षेप आदि सहन करने का भाव। ४. क्षमाशीलता। ५. दे० ‘मर्षण’।
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तितिक्षु  : वि० [सं०√तिज् +सन् +उ] १. जिसमें तितिक्षा अर्थात् सहन्-शक्ति हो। सहनशील। पुं० एक पुरुवंशी राजा जो महामना का पु्त्र था।
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तिंतिड़  : पुं० [सं० तितिडी, पृषो० सिद्धि] इमली।
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तिंतिड़िका  : स्त्री० [सं० तिंतिडी+कन–टाप् ह्नस्व] इमली।
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तिंतिड़ी  : स्त्री० [सं०√तिम(आर्द्र होना)+ ईकन्, पृषो० सिद्धि] इमली।
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तिंतिड़ीक  : [सं०√तिम +ईकन् नि० सिद्धि] इमली।
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तिंतिड़ीका  : स्त्री० [सं० तिंतिडीक+टाप्] इमली
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तितिंबा  : पुं०=तितिम्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तितिभ  : पुं० [सं० तिति√भण् (बोलना) +ड] १. बीर बहूटी। २. जुगनूँ।
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तितिम्मा  : पुं० [अ०] १. शेष बचा हुआ अंश। अवशिष्ट अंश। २. पुस्तकों आदि का परिशिष्ट। ३. व्यर्थ का झंझट याविस्तार। ४. व्यर्थ का आडंबर। ढकोसला।
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तितिर(तिरि)  : पुं० [सं०=तित्तिर, पृषो० सिद्घि] तीतर (पक्षी)।
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तितिरांग  : पुं० [सं० तितिर-अंग, ब० स०] इस्पात। वज्रलोह।
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तितिल  : पुं० [सं०√तिल् (चिकना करना)+क, द्वित्व] १. मिट्टी की नाँद। २. ज्योतिष में, तैत्तिल नामक करण।
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तितिलिका  : स्त्री० [सं०=तिंतिडिका, ड-ल]=तितिड़िका।
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तिंतिली  : स्त्री० [सं०=तिंतिडी, ड–ल]=तिंतिड़ी।
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तितीर्षा  : स्त्री० [सं०√तृ (तैरना)+सन्+अ-टाप्] १. तैरने की इच्छा। २. तरने अर्थात् भव-सागर से पार होने की इच्छा।
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तितीर्षु  : वि० [सं०√तृ+सन्+उ] १. जो तैरने अर्थात् पार उतरने का इच्छुक हो। २. मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करने वाला।
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तितुला  : पुं० [देश०] गाड़ी के पहिये का आरा।
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तिते  : वि० [सं० तति] उतने। (संख्या वाचक)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तितेक  : वि० [हिं० तितो+एक] उस मान या मात्रा का। उतना।
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तितै  : क्रि० वि० [हिं० तित+ई (प्रत्य०)] १. उस ओर। उधर। २. उस जगह। वहाँ। ३. वहाँ ही। वहीं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तितो  : क्रि० वि०=तेता (उतना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तित्तह  : अव्य० [सं० तत्र] उस स्थान पर। वहाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तित्तिर  : पुं० [सं०तिति√रा(दान)+क] [स्त्री० त्तितरी] १. तीतर नामक पक्षी। २. तितली नाम की घास।
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तित्तिरी  : पुं० [सं० तित्ति√रु (शब्द करना)+डि] १. तीतर पक्षी। २. यास्क मुनि के एक शिष्य जिन्होंने यजुर्वेद शाखा चलाई थी। ३. यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा।
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तिथ  : पुं० [सं०√तिज् (तीखा करना)+थक्] १. अग्नि। आग। २. कामदेव। ३. काल। समय। ४. वर्षा। काल। बरसात। स्त्री०=तिथि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिथि  : स्त्री० [सं०√अत्(सतत गमन)+इथिन] १. चांद्रमास के किसी पक्ष का कोई दिन अथवा उसे सूचित करनेवाली कोई संख्या। मिती। विशेष–प्रतिपदा से अमावस्या या पूर्णिमा तक सादारणतः १५ तिथियां होती है। २. उक्त के आधार पर पंद्रह की संख्या। ३. श्राद्ध आदि करने के विचार से किसी की मृत्यु की तिथि। ४. दे० ‘दिनाँक’।
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तिथि-क्षय  : पुं० [ष० त०] चांद्र गणना के अनुसार पक्ष में किसी तिथि का घटना या मान न होना। तिथिहानि।
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तिथि-पति  : पुं० [ष० त०] वह देवता जो किसी तिथि का स्वामी हो। विशेष–बृहत्संहिता के अनुसार प्रतिपदा के ब्रह्मा, दूज के विधाता, षष्ठी के षडानन आदि आदि देवता माने गये हैं।
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तिथि-पत्र  : पुं० [ष० त०] पंचांग। पत्रा।
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तिथित  : भू० कृ० [सं० तिथि से] जिस पर तिथि या तारीख डाली गई या पड़ी हुई हो। (डेटेस)
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तिथिप्रणी  : पुं० [सं० तिथि+प्र√नी (ले जाना)+क्विप्] चंद्रमा।
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तिथ्य  : स्त्री०=तिथि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तथ्य।
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तिथ्यर्ध  : पुं० [तिथि-अर्ध, ष० त०] करण। (ज्योतिष)।
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तिदरा  : वि० [हिं० तीन+फा० दर-दरवाजा] [स्त्री० अल्पा० तिदरी] तीन दरोंवाला। पुं० तीन दरोंवाला कमरा।
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तिंदिश  : पुं० [सं०=ढिडिश, नि० सिद्धि] टिडसी नाम की तरकारी। डेढसी। टिंडा।
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तिंदु  : पुं० [सं०√तिम्+कु, नि० सिद्धि] तेंदू का पेड़।
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तिदुआरा  : वि० पुं० [स्त्री० तिदुआरी]=तिदरा।
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तिंदुक  : पुं० [सं० तिंदु+कन्] १. तेंदू का पेड़। २. [तिदुं√क(प्रतीत होना)+क] एक कर्ष या दो तोले की तौल।
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तिंदुकतीर्थ  : पुं० [मध्य० स० ?] ब्रज मंडल के अन्तर्गत एक तीर्थ।
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तिंदुकिनी  : स्त्री० [सं० तिदुक+इनि–ङीष्] आवर्तकी। भगवतवल्ली।
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तिंदुकी  : स्त्री० [सं० तिदुक+ङीष्] तेंदू का पेड़।
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तिंदुल  : पुं० [सं० तिंदुक, पृषो० क–ल] तेंदू का पेड़।
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तिधर  : क्रि० वि० [सं० तत्र] उधर। उस ओर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिधारा  : पुं० [सं० त्रिधार] एक प्रकार का थूहर (सेहुड़) जिसमे पत्ते नहीं होते। इसे बज्री या नरसेज भी कहते हैं।
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तिधारी कांडवेल  : स्त्री० [सं०] हड़जोड़। (पौधा)।
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तिन  : सर्व० हिं० ‘तिस’ का अवधी भाषा में बहुवचन रूप। पुं०=तृण। मुहावरा–तिन तूरना=दे० (तिनका के अंतर्गत) ‘तिनका तोड़ना’।
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तिन-दरी  : स्त्री० [हिं० तीन+फा० दर] वह कमरा जिसमें तीन दर या दरवाजे हों।
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तिनउर  : पुं० [सं० तृण+हिं० उरया और (प्रत्यय)] तिनकों का ढेर।
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तिनकना  : अ० [हिं० चिनगारी, चिनगी या अनु०] अपने विरुद्ध कोई बात अप्रत्यासित रूप से या सहसा सुनकर क्रुद्ध हो जाना। तिनगना।
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तिनका  : पुं० [सं० तृण] सूखी घास या वनस्पति के डंठलों आदि का छोटा टुकड़ा। तृण। मुहावरा–(अपने सिर से) तिनका उतारना=नाममात्र को थोड़ा-बहुत काम करके यह जतलाना कि हमने बड़ा उपकार किया है। बला-टालना। (किसी से) तिनका तोड़ना=स्थायी रूप से संबंध छोड़ना। कुछ भी लगाव या वास्ता न रखना। जैसे–हमने तो उसी दिन तिनका तोड़ दिया था। विशेष–हिन्दुओं में मृतक का शवदाह कर चुकने पर उपस्थित मित्र और संबंधी एक साथ बैठकर तिनका तोड़ने की एक रसम पूरी करते हैं। इसी से यह मुहावरा–बना है। मुहावरा (किसी के सिर से) तिनका तोडऩा=(क) रूपवान या सुन्दर व्यक्ति को देखकर उसे नजर लगने से बचाने के लिए स्त्रियों का उसके सिर पर से तिनका उतारकर तोड़ते हुए फेंकना। (ख) उक्त प्रकार से तिनका तोड़ते हुए किसी का कष्ट या संकट अपने ऊपर लेना। बहाएँ लेना। (दाँतों में) तिनका पकड़ना या लेना-किसी का अनुग्रह या कृपा प्राप्त करने के लिए उसके आगे उसी प्रकार परम दीन या विनीत बनना जिस प्रकार गौ मुँह में तिनका लेकर दीनतापूर्वक सामने आती है। तिनके का पहाड़ करना-जरा सी या बहुत छोटी बात को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा देना। तिनके चुनना=विरह, शोक आदि के निरर्थक काम करते हुए समय बिताना। पद–तिनके का सहारा-बहुत ही थोड़ा या नाममात्र का वैसा ही सहारा जैसा डूबते तो तिनके का सहारा वाली कहावत में कहा जाता है। तिनके की आड़ या ओट-नियम, मर्यादा आदि के पालन के लिये बीच में रखा जानेवाला नाम-मात्र का परदा या व्यवधान। कहा०–तिनके की ओट पहाड़-कभी-कभी किसी छोटी सी बात की आड़ में भी बहुत बड़ी बात होती या हो सकती है।
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तिनका-तोड़  : पुं० [हिं० तिनका+तोड़ना] पारस्परिक संबंध इस प्रकार टूटना कि फिर से स्थापित न हो सके। (‘किसी से तिनका तोड़ना’ वाले मुहा० के आधार पर)
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तिनगना  : अ०=तिनकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिनगरी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का मीठा पकवान।
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तिनतिरिया  : स्त्री० [हिं० तीन+तार ?] मनुआ नाम की कपास।
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तिनधरा  : स्त्री० [देश०] एक तरह की रेती जो तिकोनी होती है और जिससे आरी के दांते तेज किये जाते हैं।
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तिनपहल  : वि०=तिनपहला।
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तिनपहला  : वि० [हिं० तीन+पहल] [स्त्री० तिनपहली] जिसमें तीन परतें, पहलू या पार्श्व हों।
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तिनमिना  : पुं० [हिं० तीन+मनिया] ऐसी माला जिसके बीच में जड़ाऊ जुगनूँ हो।
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तिनवा  : पुं० [देश०] एक तरह का बाँस।
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तिनषना  : अ०=तिनकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिनस  : पुं० [सं० तिनिश] शीशम की तरह का एक पेड़।
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तिनसुना  : पुं०=तिनस। (दे०)।
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तिनावा  : वि० [हिं० तीन-नाव=खाँचा या गहरी रेखा] [स्त्री० तिनावी] (कटार, तलवार आदि का फल) जिसपर तीन नावें (खाँचे या धारियाँ) हों। जैसे–तिनावा तेगा।
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तिनाशक  : पुं० [सं० तिनिश+कन्, पृषो० आत्व] तिनिश वृक्ष।
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तिनास  : पु०=तिनस।
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तिनिश  : पुं० [सं० अति√निश् (समाधि)+क, पृषो० अलोप] बबूल या खैर की तरह का एक वृक्ष जिसके फल वैद्यक में कफ, पित्त, रुधिर विकार आदि दूर करनेवाले माने जाते हैं।
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तिनुअर  : वि० [सं० तृण] तिनके के समान पतला-दुबला। क्षीण-काय। उदाहरण–तन तिनुअर भा झूरौं खरी।–जायसी। पुं० तिनका या तिनकों का ढेर।
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तिनुका  : पुं०=तिनका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिनुवर  : वि० पुं०=तिनुअर।
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तिनूका  : पुं०=तिनका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिन्नक  : पुं० [हिं० तनिक] १. तुच्छ वस्तु। २. छोटा बच्चा। उदाहरण–खसम धतिगड़ जोड़, तिन्नक। (कहा०)।
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तिन्ना  : पुं० [सं०] १. तिन्नी नाम का पौधा या उसके चावल। २. रसेदार तरकारी या सालन। ३. सती नामक वर्ण-वृत्त।
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तिन्नी  : स्त्री० [सं० तृण, हि० तिन] १. आप से आप जलीय किन्तु बिना जोती बोई जमीन में होनेवाला धान्य। २. उक्त के बीज जिनकी गिनती फलाहार में होती है। वैद्यक में ये पित्त, कफ और वातनाशक माने जाते हैं। स्त्री० [देश०] नीवी। फुफुती।
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तिन्ह  : सर्व० हिं० ‘तिस’ का अवधी भाषा में होनेवाला बहुवचन रूप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिपड़ा  : पुं० [हिं० तीन+पट] कमख्वाब बुननेवालों के करघे की वह लकड़ी जिसमें तागा लपेटा रहता है और जो दोनों बैसरों के बीच में होती है।
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तिपति  : स्त्री०=तृप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिपल्ला  : वि० [हिं० तीन+पल्ला] [स्त्री० तिपहली] १. जिसमें तीन पल्ले या परते हों तीन पल्लोंवाला। २. तीन तागों या तारोंवाला।
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तिपहला  : वि० [हिं० तीन+पहल] [स्त्री० तिपहली] तीन पहलों पार्श्वों या परतोंवाला।
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तिपाई  : स्त्री० [हिं० तीन+पाय] तीन पायोंवाली एक तरह की बैठने अथवा सामान आदि रखने की ऊँची चौकी।
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तिपाड़  : पं० [हिं० तीन+पाड़] १. वह कपड़ा जो तीन पाट जोड़कर बनाया जाता हो। जैसे–तिपाड़ चादर, तिपाड़ लहँगा। २. वह कपड़ा जिसमें तीन परतें या पल्ले हों। ३. वह धोती या साड़ी जिसमें तीन पाड़ या चौड़े किनारे हों। (दो ऊपर नीचे और एक बीच में)।
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तिपारी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का झाड़ जिसमें रसभरी की तरह के छोटे फल लगते हैं।
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तिपैरा  : पुं० [हिं० तीन+पुर] वह बड़ा कुआँ जिसमें तीन चरसे या मोट एक साथ चल सकें।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिफल  : पुं० [अ० तिफ्ल] [भाव० तिफली] छोटा नन्हा बच्चा।
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तिफली  : स्त्री० [अ० तिफ्ली] बचपन।
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तिब  : स्त्री० [अ० तिब्त] यूनानी चिकित्सा-शास्त्र। हकीमी।
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तिबद्धी  : स्त्री० [हिं० तीन+बाँध] चारपाई बुनने की छिछली थाली जिसमें प्रायः आटा गूंथते हैं।
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तिबारा  : क्रि० वि० [हिं० तीन+बार] तीसरी बार। पुं० वह शराब जो तीन बार चुआने पर तैयार की गई हो। वि० पुं० दे०तिदरा।
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तिबासी  : वि० [हिं०तीन+बासी] तीन दिन का बासी। (खाद्य पदार्थ)।
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तिबी  : स्त्री० [देश] खेसारी।
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तिब्ब  : स्त्री०=तिब।
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तिब्बत  : पुं०[सं० त्रिविष्टप] हिमालय के उत्तर का एक देश जिसकी सीमा भार में मिली हुई है।
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तिब्बती  : वि० [तिब्बत देश] तिब्बत संबंधी। तिब्बत का। तिब्बत में उत्पन्न० पुं० तिब्बत देश का निवासी। स्त्री०तिब्बत देश की भाषा।
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तिम  : पुं० [हिं० डिडिंम] डंका। नगाड़ा डि०)।
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तिमंजिला  : वि० [हिं० तीन+अ० मंजिल] [स्त्री० तिमंजिली](भवन) जिसके तीन खंड या मंजिले हों।
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तिमाना  : स० [देश] भिगोना।
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तिमाशी  : स्त्री० [हिं० तीन+माशा] १.तीन माशे की एक तौल। २.उक्त तौल का बटखरा या बाट। ३.पहाड़ी देशों की एक तौल जो ४॰ जौ की होती है।
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तिमि  : पुं० [सं०√तिम्(गीला होना)+इन्] १.एक तरह की समुद्री बड़ी मछली २.समुद्र। सागर। ३.आँखों का रतौंधी नामक रोग। अव्य० [सं०तर्+इमि] उस प्रकार। वैसे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिमि-ध्वज  : पुं० [ब० स०] शंबर नामक दैत्य जिसे मारकर रामचन्द्र ने ब्रह्मा से दिव्याशास्त्र प्राप्त किया था।
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तिंमिकोश  : पुं० [ष०त०] समुद्र।
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तिमिंगिल  : पुं० [सं०तिमि√गृ(लीलना)+क,मुम्] १.मसुद्र में रहनेवाला एक प्रकार का बहुत बड़ा भारी जंतु जो तिमि नामक बड़े मत्यस्य को भी निकल सकता है। बड़ी भारी ह्वेव। २.एक प्राचीन द्वीप का नाम। ३.उक्त द्वीप का निवासी।
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तिमिंगिलासन  : पुं० [सं०तिमिंगिल-अशन,ष०त०] १.दक्षिण का एक देश जिसके अंतर्गत लंका आदि है और जहाँ के निवासी तिमिंगिल मत्स्य का मांस खाते हैं। (बृहत्संहिता) २.उक्त देश का निवासी।
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तिमिज  : पुं०[सं०तिमि√जन्(पैदा होना)+ड] तिमि मत्स्य से निकलनेवाला मोती। (बृहत्संहिता)
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तिमित  : वि० [सं०√तिम्+क्त] १.अचल। निश्चल। स्थिर। २.भीगा हुआ । आर्द्र। गीला।
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तिमिर  : पुं० [सं०√तिम्+किरच्] १.अँधकार। अँधेरा। २.आँखों का एक रोग जिसमें चीजें,धुँधली, फीके रंग की या रंग-बिरंगी दिखाई देती हैं। वैद्यक में रतौंधी रोग को भी इसी के अन्तर्गत माना है। ३.एक प्रकार का वृक्ष।
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तिमिर  : रिपु-पुं० [ष० त०] अंधकार का शत्रु, सूर्य़।
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तिमिरनुद्  : वि० [सं०तिमिर√नुद्(नष्ट करना)+क्विप] अँधकार का नाश करनेवाला। पुं० सूर्य।
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तिमिरभिद्  : वि० [सं० तिमिर√नुद्(भेदना)+क्विप्] अंधकार को भेदने या नष्ट करनेवाला। पुं० सूर्य।
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तिमिरमय  : वि० [सं० तिमिर+मयट्] जिसमें अँधकार हो। अंधकार पूर्ण। अंधकार से युक्त। पुं०१,०राहु। २.ग्रहण। (सूर्य चंद्र आदि का)।
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तिमिरहर  : वि० [सं०तिमिर√हृ(हरना)+अच्] तिमिर या अंधकार दूर करनेवाला। पुं० १.सूर्य। २.दीपक। दीया।
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तिमिरांत  : पुं० [तिमिर-अंत,ष०त०] अंधकार का शत्रु अर्थात् सूर्य।
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तिमिरारी  : स्त्री० [तिमिर-अरि,ष० त०] अँधकार। अँधेरा।
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तिमिला  : स्त्री० [सं०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा।
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तिमिश  : पुं०=तिनिश। (वृक्ष)।
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तिमिष  : पुं० [सं०√तिम्(गीला होना)+इसक्(षत्व)] १.ककड़ी २.सपेद कुम्हड़ा। ३.पेठा। ४.तरबूज।
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तिमी  : पुं० [सं०तिमि+ङीष्] १.तिमि नाम की मछली। २.दक्ष की एक कन्या जो कश्यप को ब्याही थी और जिससे तिमिगलों की उत्पत्ति कही गई है।
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तिमीर  : पुं० [सं० तिमि√ईर्(गति)+अच्] एक तरह का पेड़।
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तिमुर  : पुं० [सं० तुमुल, ल–र] क्षत्रियों की एक प्राचीन जाति या वंश। वि० पुं०=तुमुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिमुहानी  : स्त्री०=तिरमुहानी।
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तिय  : स्त्री० [सं० स्त्री] १.स्त्री। औरत। २.पत्नी। भार्या।
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तियगाना  : स०=त्यागना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तियतरा  : वि० [सं०त्रि-अंतर] तीन पुत्रियों के उपरांत जन्मनेवाला (पुत्र)।
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तियला  : पुं० [सं० तिय+ला(प्रत्यय)] १.कपड़ा। २.पहनने के कपड़े। ३.पोशाक।
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तिया  : स्त्री०=तिय (स्त्री)। पुं० तीया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तियागी  : वि० पुं०=त्यागी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिर  : वि० [सं० त्रि] हि तीन का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक शब्दों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे–तिरकुटा,तिरपाई,तिरमुहानी।
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तिरक  : पुं० [सं० त्रिक] १.रीढ़ के नीचे का वह स्थान जहाँ दोनों कूल्हों की हड्डियाँ मिलती है। २. दोनों टाँगों के ऊपरवाले जोड़ का स्थान। ३. हाथी के शरीर का वह पिछला भाग जहाँ से दुम निकलती है।
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तिरकट  : पुं० [?] आगे का पाल। अगला पाल। (लश०)
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तिरकट गावी  : पुं० [?] सिरे का पाल (लश०)।
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तिरकट डोल  : पुं० [?] आगे का मस्तूल। (लश०)।
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तिरकट तवर  : पुं० [?] एक तरह का छोटा पाल जो जहाज के सब से ऊंचे मस्तूल पर लगाया जाता है। (लश०)
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तिरकट सवर  : पुं० [?] जहाज में लगा रहनेवाला सबसे ऊँचा पाल। (लश०)।
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तिरकट सवाई  : पुं० [?] एक तरह का पाल (लश०)।
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तिरकट, गावा सवाई  : पुं० [?] जहाज का आगे का और सबसे ऊपरवाला पाल (लश०)।
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तिरकना  : अ० [अनु०] तिर शब्द करते हुए किसी चीज का टूटना या फटना। अ०-थिरकना।
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तिरकस  : वि० [सं०तिरस्] १.तिरक्षा० २.टेढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरकाना  : स० [?] रस्सा या और कोई बन्धन ढीला छोड़ना (ल०)। अ०–थिरकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरकुटा  : पुं० [सं० त्रिकूट] पीपल, मिर्च और सोंठ ये तीनों एक में मिली हुई कड़वी वस्तुएँ।
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तिरखा  : स्त्री० [सं० तृषा] १. प्यास। उदाहरण–जाट का मैं लाड़ला तिरखा लगी सरीर।-लोकगीत। २.लोभ।
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तिरखावंत  : वि०=तृषित।
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तिरखित  : वि० [सं० तृषित, हिं० तिरखा] १. प्यास। २. जिसे किसी बात की कामना हो।
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तिरखूँटा  : वि० [सं० त्रि+हिं० खूँट] [स्त्री० अल्पा० तिरखूंटी] तीन खूँटों या कोनोंवाला। तिकोना।
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तिरच्छ  : पुं० [?] तिनिश। (वृक्ष)।
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तिरछई  : स्त्री० [हिं० तिरछा] तिरछापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरछा  : वि० [सं० तिर्यक या तिरस] [स्त्री० तिरछी] १. कोई सीधी रेखा या इसी तरह की कोई और चीज जो लंब रूप में तथा क्षितिज के समान्तर न हो बल्कि कुछ या अधिक ढालुई हो। २. जिसमें टेढ़ापन या वक्रता हो। पद–तिरछी चितवन या नजर-बिना सिर घुमाये पार्श्व या बगल में कुछ देखने का भाव। तिरछी बात या वचन-मन को कष्ट पहुँचानेवाली कटु या अप्रिय बात। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो प्रायः अस्तर के काम में आता है।
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तिरछाई  : स्त्री० [हिं० तिरछा+ई (प्रत्यय)] तिरछापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरछाना  : अ० [हिं० तिरछा] तिरछा होना। स० तिरछा करना।
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तिरछापन  : पुं० [हिं० तिरछा+पन (प्रत्यय] तिरक्षा करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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तिरछी उड़ी  : स्त्री० [हिं० तिरछा+उड़ना] माल खंभ की एक कसरत।
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तिरछी बैठक  : स्त्री० [हिं० तिरछी+बैठक] माल खंभ की एक कसरत जिसमें दोनों पैरों को कुछ घुमाकर एक दूसरे पर चढ़ाया जाता है।
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तिरछे  : क्रि० वि० [हिं० तिरछा] १. तिरछेपन की अवस्था में। २. वक्रता से।
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तिरछौंहाँ  : वि० [हिं०तिरछा] १.जिसमें कुछ या थोड़ा तिरछापन हो। २.तिरछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरछौंहैं  : क्रि० वि० [हिं० तिरछौंहा] १. तिरछापन लिये हुए। २. वक्रता से।
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तिरतालीस  : वि०=तैतालिस (४३)।
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तिरतिराना  : अ० [अनु०] द्रव पदार्थ का बूँद-बूँद करके टपकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरना  : अ० १.=तरना। २.=तैरना।
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तिरनाक  : पुं० [अ० तियकि] १. जहर-मोहरा जिससे सांप के विष का प्रभाव नष्ट होता है। २. सब रोगों की रामवाण औषधि।
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तिरनी  : स्त्री० [?] १. वह डोरी जिससे घाघरा आदि कमर में बाँधा जाती है। नीवी। तिन्नी। फुफती। २. घाघरे या धोती का वह भाग जो कमर पर या नाभि के नीचे पड़ता है।
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तिरप  : स्त्री० [सं० त्रिसम] नृत्य में एक प्रकार का ताल जिसे त्रिसम या तिहाई कहते हैं। क्रि० प्र०–लेना।
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तिरपट  : वि० [देश०] १. (लकड़ी की धरन, पल्ले आदि के संबंध में) जो सूखकर ऐंठ गया हो। २. टेढ़ा-मेढ़ा। तिड़बिड़गा। ३. कठिन। मुश्किल।
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तिरपटा  : वि० [हिं० तिरपट] (व्यक्ति या पशु) जिसकी सामने की ओर ताकते समय पुतलियाँ कोनों में चली जाती हों ऐंचा-ताना। भेंगा।
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तिरपन  : वि० [सं० त्रिपंचाशत्, प्रा० तिपण्ण] जो गिनती में पचास से तीन अधिक हो। पचास से तीन ऊपर। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है-५३।
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तिरपाई  : स्त्री०=तिपाई।
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तिरपाल  : पुं० [सं० तृण+हिं० पालना-बिछाना] फूस,सरकंडे आदि के लंबे पूले जो खपड़ों आदि के नीचे बिछाये जाते हैं। गुट्ठा। पुं० [अ० टारपालिन] एक प्रकार का मोटा कपड़ा जिस पर राल या रोगन चढ़ाया गया हो। इसको जल नहीं भेदता।
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तिरपित  : वि०=तृप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरपौलिया  : वि० [सं० त्रि+हिं० पोल-फाटक] (वह बाजार, मकान आदि) जिसमे जाने के तीन बड़े द्वार या रास्ते हों।
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तिरफला  : स्त्री०=त्रिफला।
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तिरबेनी  : स्त्री०=त्रिवेणी।
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तिरबो  : स्त्री० [हिं० तिरबा] एक तरह की नाव। (सिंध)।
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तिरमिरा  : पुं० [सं० तिमिर] १. एक रोग जिसमें अधिक प्रकाश के कारण आँखें चौथियाँ जाती है और कभी अँधेरा और कभी उजाला दिखाई देने लगता है। २. चकाचौंध। पुं० [हिं० तेल+मिलना] घी, तेल या चिकनाई के छीटें जो पानी, दूध या और किसी द्रव पदार्थ के ऊपर तैरते दिखाई पड़ते हैं।
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तिरमिराना  : अ० [हिं० तिरमिरा] (तिरमिरा के रोगी की) अधिक प्रकाश के कारण आँखें चौंधियाना। अ०=तिलमिलाना।
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तिरमुहानी  : स्त्री० [हिं० तीन+फा० मुहाना] १. वह स्थान जहाँ तीन ओर जाने के तीन मार्ग या रास्तें हों। २. वह स्थान जहाँ तीन ओर से तीन नदियाँ आकर मिलती हों।
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तिरलोक  : पुं०=त्रिलोक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरलोकी  : स्त्री०=त्रिलोक।
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तिरवट  : पुं० [देश०] तराने (राग) का एक भेद (संगीत)।
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तिरवराना  : अ०१.=तिरमिराना। २.=तिलमिलाना।
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तिरवा  : पुं० [फा०] वह दूरी जो उड़ान भरते समय तीर आदि पार करे। प्रास।
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तिरवाँह  : पुं० [सं० तीर+वाह] नदी के तीर की भूमि। किनारा। तट। क्रि० वि० नदी के किनारे किनारे।
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तिरविष्ट  : पुं०=त्रिविष्टप (स्वर्ग)।
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तिरश्चीन  : वि० [सं० तिर्यक+ख-ईन] १. तिरछा। २. टेढ़ा। वक्र।
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तिरश्चीन-गति  : पुं० [कर्म० स०] कुश्ती का एक पेंच या पैंतरा।
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तिरसठ  : वि० [सं० त्रिषष्टि, प्रा० तिसद्धि] जो गिनती में साठसे तीन अधिक हो। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–६३।
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तिरसा  : पुं० [?] वह पाल जिसका एक सिरा दूसरे सिरे की अपेक्षा अधिक चौड़ा होता है।
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तिरसूल  : पुं०=त्रिशूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरस्कर  : वि० [सं० तिरस्√कृ (करना)+ट] १. जो दूसरे से अधिक अच्छा या बढ़ा-चढ़ा हो। २. ढाँकनेवाला।
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तिरस्करिणी  : स्त्री० [सं० तिरस्करिन्+ङीप्] १. ओट। आड़ २. आड़ करने का परदा। चिक। चिलमन। ३. एक प्रकार की प्राचीन विद्या जिसकी सहायता से मनुष्य सब की दृष्टि से अदृश्य हो जाता था।
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तिरस्करी(रिन्)  : पुं० [सं०तिरस्√कृ+णिनि] परदा।
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तिरस्कार  : पुं० [सं० तिरस्√कृ+घञ्] [वि०तिरस्कृत] १. वह मनोबाव जो किसी को निकृष्ट या हेय समझने के कारण उत्पन्न होता है और उसका अनादर करने को प्रवृत्त करता है। २. वह स्थिति जिसमें उपयुक्त स्वागत सत्कार आदि न किये जाने के फलस्वरूप आपने को अपमानित समझता हो। ३. डाँट-पटकार। भर्त्सना। ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी अच्छी चीज में भी कोई दोष दिखलाकर उसका अनादरपूर्वक त्याग तथा उसे तुच्छ सिद्ध किया जाता है।
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तिरस्कृत  : भू० कृ० [सं० तिरस्√कृ+क्त] १. जिसका तिरस्कार किया गया हो। अनादपूर्वक त्यागा या दूर किया हुआ। ३. आड़ या परदे में छिपा हुआ।
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तिरस्क्रिया  : स्त्री० [सं० तिरस्√कृ+श,इयङ,टाप्] १. तिरस्कार। २. ढकने का कपड़ा। आच्छादन। ३.पहनने के कपड़े। पोशाक। वस्त्र।
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तिरहा  : पुं० [देश०] एक तरह का उड़नेवाला कीड़ा जो धान को क्षति पहुँचाता है।
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तिरहुत  : पुं० [सं० तीरभुक्ति] [वि० तिरहुतिया] बिहार के उस प्रदेश का पुराना नाम जिसमें इस समय मुजफ्फरपुर, दरभंगा आदि नगर हैं।
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तिरहुति  : स्त्री० [हिं० तिरहुत] तिरहत में गाया जानेवाला एक तरह का गीत।
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तिरहुतिया  : वि०, पुं० स्त्री०=तिरहुती।
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तिरहुती  : वि० [सं० तिरहुत] तिरहुत देश का। तिरहुत संबंधी। पुं० तिरहुत का निवासी। स्त्री० तिरहुत देश की बोली।
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तिरहेल  : वि० [सं० त्रि] जो गणना में तीसरे स्थान पर हो अथवा तीसरी बार आया या हुआ हो। उदाहरण–जो तिरहेल है सौ तिया।–जायसी।
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तिरा  : पुं० [देश०] १. एक पौधा जिसके बीजों की गिनती तेलहन में होती है। २. उक्त पौधे के बीज।
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तिराठी  : स्त्री० [?] निसोत।
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तिरानबे  : वि० [सं० त्रि+हिं० नब्बे] जो गिनती में नब्बे से तीन अधिक हो। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–९३।
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तिराना  : स० [हिं० तिरना] १. तिरने (अर्थत् तरने या तैरने) मे प्रवृत्त करना। २. दे० ‘तारना’।
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तिरास  : पुं०=त्रास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरासना  : अ० [सं० त्रासन] भयभीत या त्रस्त होना। स० भयभीत या त्रस्त करना।
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तिरासी  : वि० [सं० त्र्यशीति; प्रा० तियासिर्स] जो गिनती में अस्सी से तीन अधिक हों। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–८३।
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तिराहा  : पुं० [हिं० तीन+फा० राह] वह स्थान जहां से तीन ओर रास्ते जाते या आकर मिलते हों। तिरमुहानी।
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तिराही  : वि० [हिं० तिराह एक प्रदेश] १. तिराह प्रदेश में बनने या होनेवाला। २. तिरहा प्रदेश संबंधी। स्त्री० उक्त प्रदेश में बननेवाली एक तरह की कटारी। क्रि० वि० [?] नीचे।
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तिरि  : वि० [सं० त्रि] तीन। उदाहरण–पुनि तिहि ठाउ परी तिरि रेखा।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=तिरिया (स्त्री)।
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तिरिगत्त  : पुं०=त्रिगर्त्त (देश)।
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तिरिच्छ  : पुं० [सं० तिनिश] दे० ‘तिनिश’।
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तिरिजिहिवक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पेड़।
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तिरिदिवस  : पुं०=त्रिदिवस (स्वर्ग)।
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तिरिनि  : पुं०=तृण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरिम  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+इमक्] एक प्रकार का धान।
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तिरिया  : स्त्री० [सं० स्त्री] स्त्री। औरत। पद–तिरिया चरित्तर=स्त्रियों द्वारा होनेवाला कोई ऐसा चालाकी भरा विलक्षण तथा हेय काम जिसका रहस्य जल्दी सब की समझ में न आता हो। पुं० [देश०] नैपाल मे होनेवाला एक तरह का बाँस।
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तिरी बिरी  : वि०=तिड़ी-बिड़ी।
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तिरीक्षा  : वि०=तिरछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरीट  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+कीटन्] १. लोघ्र। लोभ। २. दे० ‘किरीट’।
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तिरीफल  : पुं०=त्रिफला।
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तिरेंदा  : पु०=तरेंदा।
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तिरै  : पुं० [अनु०] हाथियों को जल में लेटने के लिए दी जानेवाली आज्ञा का सूचक शब्द या संकेत।
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तिरोजनपद  : पुं० [सं० तिरस्-जनपद, ब० स०] अन्य राष्ट्र का मनुष्य विदेशी (कौ०)।
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तिरोधान  : पुं० [तिरस्√धा (धारण करना)+ल्युट-अन] १. अंतर्धान या लुप्त होने की अवस्था या भाव। २. इस प्रकार किसी चीज का हटाया-बढ़ाया जाना कि वह फिर से जल्दी दिखाई न पड़े।
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तिरोधायक  : वि० [सं० तिरस्√धा+ण्वुल्–अक] कोई चीज आड़ में करने या छिपानेवाला।
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तिरोभाव  : पुं० [तिरस्√भू (होना)+घञ्] १. आँखों से ओट होकर अदृश्य हो जाना। अंतर्धान। अदर्शन। २. गोपन। छिपाव। दुराव।
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तिरोभूत  : भू० कृ० [सं० तिरस्√भू०+क्त] जो अदृश्य या गायब हो गया हो। अंतर्हित।
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तिरोहित  : भू० कृ० [सं० तिरस्√धा (धारण करना)+क्त, हिं० आदेश] १. छिपा हुआ। अंतर्हित। अदृश्य। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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तिरौंछा  : वि०=तिरछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिरौंदा  : पुं०=तरेंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिर्यक-भेद  : पुं० [तृ० त०] दो खंभों आदि पर स्थित किसी वस्तु का अधिक दाब के कारण बीच में टूट जाना।
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तिर्यक-स्रोतस्  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसका फैलाव आड़ा हो। २. ऐसा जन्तु या जीव जिस के गले में की आहार-नलिका सीधी नहीं, बल्कि टेढ़ी हो और जिसके पेट में आहार टेढ़ा या तिरछा होकर पहुँचता हो। विशेष–प्रायः सभी पक्षी और पशु इसी वर्ग में आते हैं।
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तिर्यक्(च्)  : वि० [सं० तिरस्√अञच् (जाना)+क्विप्] ढालुआँ।
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तिर्यक्ता  : स्त्री० [सं० तिर्यच्+तल्–टाप्] तिरछा पन। आड़ापन।
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तिर्यक्त्व  : पुं० [सं० तिर्यच्+त्व] तिरछापन। आड़ापन।
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तिर्यक्पाती(तिन्)  : वि० [सं० तिर्यक√पत् (गिरना)+णिनि] आड़ा फैलावा या रखा हुआ। बेड़ा रखा हुआ।
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तिर्यगमन  : पुं० [तिर्यक-अयन, कर्म० स०] सूर्य की वार्षिक परिक्रमा।
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तिर्यगीक्ष  : वि० [सं० तिर्यक√ईक्ष् (देखना)+अच्] तिरछे देखनेवाला।
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तिर्यग्गति  : स्त्री० [कर्म० स०] १. तिरछी या टेढ़ी चाल। २. जीव का पशु योनि में जन्म लेना।
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तिर्यग्गामी (मिन्)  : पुं० [सं० तिर्यक√गम् (जाना)+णिनि] केकड़ा।
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तिर्यग्दिक् (श)  : स्त्री० [कर्म० स] उत्तर दिशा।
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तिर्यग्दिश्  : स्त्री० [कर्म० स] केकड़ा।
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तिर्यग्योनि  : स्त्री० [ष० त०] पशु-पक्षियों आदि की योनि। विशेष दे० ‘तिर्यक स्रोतस्’।
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तिर्यच  : अव्य=तिर्यक्।
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तिर्यचानुपूर्वी  : स्त्री० [सं० तिर्यच्-आनुपूर्वी, ब० स०] जैनियों के अनुसार वह अवस्था जिसमें जीव को तिर्यग्योनी में जाने से पहले रहना पड़ता है।
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तिर्यंची  : स्त्री० [सं० तिर्यच्+ङीष्] पशु-पक्षियों की मादा।
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तिल  : पुं० [सं०√तिल (चिकना होना)+क] १. एक प्रसिद्ध पौदा जिसकी खेती उसके दानों या बीजों के लिए की जाती है। २. उक्त पौधे के दाने या बीज जो काले, सफेद और लाल तीन प्रकार के होते हैं। और जिन्हें पेरकर तेल निकाला जाता है। हिंदुओं में यह पवित्र माना जाता है, इसी लिए इसे पापघ्न और पूतधान्य भी कहते हैं। इसे दान करने और इससे तर्पण, होम आदि करने का माहात्म्य है। यह कई प्रकार के पकवानों और मिठाइयों के रूप में खाया भी जाता है। वैद्यक में तिल कफ, पित्त, वातानाशक तथा अग्नि को दीषित करनेवाले माने गये हैं। पद–तिल तिल करके-बहुत थोड़ा-थोड़ा करके। जैसे–बरसात के शुरू में तिल तिल करके दिन छोटा होने लगता है। तिल भर-(क) बहुत ही जरा-सा थोड़ा। जैसे–तिल भर नमक तो ले आओं। (ख) बहुत थोड़ी देर० क्षण भर। जैसे–तुम तो तिल भर ठहरते नहीं, बात किससे करें। मुहावरा–तिल का ताड़ करना-किसी बहुत छोटी सी बात को बहुत बढ़ा देना। बात का बतंगड़ करना या बनाना। तिल चाटना-मुसलमानों में एक प्रकार का टोटका जिसमें दूल्हा अपनी दुलहिन के वश में रहना सूचित करने के लिए उसकी हथेली पर रखे हुए तिल चाटकर खाता है। (किसी के) काले तिल चाबना=किसी का इस प्रकार बहुत अधिक अनुगृहीत या ऋणी होना कि आगे चलकर उसका कोई बुरा परिणाम भोगना पड़े। जैसे–मैनें तुम्हारे काले तिल चाबे थे जिसका फल भोग रहा हूँ। विशेष–तिल का दान प्रायः लोग शनि ग्रह का अरिष्ट या दोष टालने के लिए करते हैं, इसी आधार पर यह मुहावरा बना है। मुहावरा–(किसी स्थान पर) तिल धरने की भी जगह न होना-जरा सी भी जगह खाली न रहना। पूरा स्थान ठसाठस भरा रहना। जैसे–कमरे मे इतने अधिक आदमी थे (या इतना अधिक सामान भरा था) कि कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। (किसी के) तिलों से तिल निकालना-किसी से बहुत कठिनतापूर्वक अपना कोई काम निकालना या स्वार्थ सिद्ध करना। कहा–तिल की ओट पहाड़-किसी छोटी सी बात की आड़ में होनेवाली कोई बहुत बात। इन तिलों में तेल नहीं है=इनसे किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती, अथवा कोई कार्य अथवा स्वार्थ सिद्ध नही हो सकता। २. काले रंग का छोटा दाग जो शरीर पर प्राकृतिक रूप से लक्षण आदि के रूप में होता है। जैसे–गाल, ठोढ़ी या बाह पर का तिल। ३. काली बिंदी के आकार का गोदना जो स्त्रियाँ शोभा के लिए गाल, ठोढ़ी आदि पर गोदाती हैं। ४. आँख की पुतली के बीच की गोल बिंदी जिस पर दिखाई पड़नेवाली चीज का छोटा सा प्रतिबिंब पड़ता है। तारा। ५. किसी प्रकार का छोटा काला, गोल बिंदु। जैसे–कुछ स्त्रियाँ काजल से गाल या ठोढ़ी पर तिल बनाती हैं। मुहावरा–तिल बँधना-सूर्यकांत शीशे से होकर आये हुए सूर्य के प्रकाश का केंद्रीभूत होकर बिन्दु के रूप में एक स्थान पर पड़ना। ६. किसी चीज का तुच्छ या बहुत ही थोड़ा अंश या कोई बहुत छोटी चीज। जैसे–तिल चोर, सो बज्जर चोर।–कहा०। ७. बहुत ही थोड़ा समय, क्षण या पल। उदाहरण–(क) एहि जीवन कै आस का, जस सपना तिल आधु।–जायसी। (ख) तिल में दिल लेके यूँ मुकरते हैं कि गोया इन तिलों मे तेल नहीं।–कोई शायर।
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तिल-कंठी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] विष्णु काँची। काली कौवा ठोठी।
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तिल-कल्क  : पुं० [ष० त०] तिल का चूर्ण। तिलकुट।
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तिल-कालक  : पुं० [उपमि० स०] १. शरीर पर का तिल के आकार का काला चिन्ह। तिल। २. एक प्रकार का रोग जिसमें पुरुष की लिंगेद्रिय पक जाती है और उस पर काले दाग पड़ जाते हैं।
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तिल-किट्ट  : पुं० [ष० त०] तिल का खली। पीना।
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तिल-चतुर्थी  : स्त्री० [मध्य० स०] माघ कृष्ण चतुर्थी।
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तिल-चाँवरा  : वि०=तिल=चावला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिल-चावला  : वि० [हिं० तिल+चावल] [स्त्री० तिल-चावली] जो तिलों और चावलों के मेल की तरह कुछ काला और कुछ सफेद हो। जैसे–तिल चावलीदाढ़ी, तिल-चावले बाल।
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तिल-चावली  : स्त्री० [हिं० तिल+चावल] तिलों और चावलों की खिचड़ी। उदाहरण–जैसी तरी तिल चावली वैसे मेरे गीत।–कहावत।
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तिल-चित्र-पत्रक  : पुं० [ब० स० कप्] तैलकंद।
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तिल-चूर्ण  : पुं० [ष० त०] तिलकुट।
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तिल-तंडुलक  : पुं० [सं० तिल-तंडुल, ष० त०√कै (प्रतीत होना)+क] १. गले लगाना। आलिंगन २. भेंट। मिलन।
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तिल-तैल  : पुं० [ष० त०] तिलों को पेरकर निकाला हुआ तेल। तिल का तेल।
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तिल-धेनु  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दान करने के लिए तिलों की बनाई हुई गौ की आकृति।
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तिल-पपड़ी  : स्त्री०=तिलपट्टी।
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तिल-पर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] १. चदन। २. साल का गोंद।
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तिल-पिच्चट  : पुं० [ष० त०] तिलों की पीठी। तिलकुटा।
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तिल-पुष्प  : पुं० [ष० त०] १. तिल का फूल। २. व्याघ्रनख या बखनखा नामक गन्ध-द्रव्य।
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तिल-पुष्पक  : पुं० [ब० स० कप्] १. बहेड़ा। २. नाक जिसकी उपमा तिल के फूल से दी जाती है।
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तिल-भृष्ट  : वि० [तृ० त०] तिल के साथ भूना या पकाया हुआ। (खाद्य पदार्थ)।
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तिल-भेद  : पुं० [ष० त०] पोस्ते का दाना।
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तिल-मयूर  : पुं० [मध्य० स०] एक पक्षी जिसके परों पर तिलों के समान काले-काले चिन्ह होते हैं।
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तिल-रस  : पुं० [ष० त०] तिलों का तेल।
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तिल-शिखी(खिन्)  : पुं० [मध्य० स०] दान करने के लिए तिलों के लगाया हुआ ऊँचा ढेर या राशि।
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तिलक  : पुं० [सं० तिल+कन्] १. केसर, चंदन, रोली आदि से ललाट पर लगाई जानेवाली गोल बिंदी। लंबी रेखा आदि के आकार का लगाया जानेवाला चिन्ह। विशेष–ऐसा चिन्ह मुख्यतः विशिष्ट धार्मिक संप्रादयों के अनुयायी होने का सूचक होता है, और प्रायः प्रत्येक संप्रदाय का तिलक कुछ अलग आकार-प्रकार का रहता तथा कभी माथे के सिवा छाती, बाहों आदि पर भी लगाया जाता है। परन्तु प्रायः शारीरिक शोभा के लिए भी और कुछ विशिष्ट मांगलिक अवसरों पर प्रथा या रीति के रूप में भी तिलक लगाया जाता है। क्रि० प्र०–धारना।–लगाना।–सारना। २. उक्त प्रकार का वह चिन्ह जो नये राजा के अभिषेक अथवा पहले-पहल राज-सिंहासन पर बैठने के समय उसके मस्तक पर लगाया जाता है। राज-तिलक। ३. भावी वर के मस्तक पर लगाया जानेवाला उक्त प्रकार का वह चिन्ह जो विवाह-संबंध स्थिर होने का सूचक होता है और जिसके साथ कन्या पक्ष की ओर से कुछ धन, फल, मिठाइयाँ आदि भी दी जाती हैं। टीका। क्रि० प्र०–चढ़ना।–चढ़ाना। मुहावरा–तिलक देना ये भेजना-उक्त अवसर पर धन, मिठाइयाँ आदि देना या भेजना। ४. माथे पर पहनने का स्त्रियों का एक गहना। टीका। ५. वह जो अपने वर्ग में सब से श्रेष्ठ हो। सिरोमणि। जैसे–रघुकुल तिलक श्रीराम चंद्र। ६. किसी ग्रंथ के कठिन पदों, वाक्यों आदि की विशद और विस्तृत व्याख्या। टीका। ७. पुन्नाग की जाति का एक पेड़ जिसके पुष्प तिल के पुष्प से मिलते जुलते होते हैं। इसकी लकड़ी और छाल दवा के काम आती है। ८. मूँज आदि का घुआ या फूल। ९. लोध का पेड़। १॰. मरूअक। मरुआ। ११. एक प्रकार का अश्वत्थ। १२. एक प्रकार का घोड़ा। १३. पेट के अन्दर की तिल्ली। क्लोम। १४. साँचर नमक। १५. संगीत में ध्रुवक का एक भेद जिसमें एक-एक चरण पचीस पचीस अक्षरों के होते हैं। पुं० [तु० तिरलीक का संक्षिप्त रूप] १. एक प्रकार का ढीला-ढाला जनाना कुरता जो प्रायः मुसलमान स्त्रियाँ सूथन के साथ पहनती के हैं। २. राजा या बादशाह की ओर से सम्मानार्थ मिलनेवाले पहनने के कपड़े। खिलअत। सिरोपाव। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. कीर्ति, शोभा आदि बढ़ानेवाला। जैसे–रघुकुल तिलक।
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तिलक-कामोद  : पुं० [कर्म० स] ओड़व-सम्पूर्ण जाति का एक राग जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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तिलक-मार्ग  : पुं० [सं०] १. माथे पर का वह स्थान जहाँ तिलक लगाया जाता है। २. माथे पर लगा हुआ तिलक या उसका चिन्ह।
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तिलक-मुद्रा  : पुं० [सं० मध्य० स] धार्मिक क्षेत्र में माथे पर लगा हुआ तिलक और शरीर पर अंकित किए हुए सांप्रदायिक चिन्ह।
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तिलकट  : पुं० [सं० तिल+कटच्] तिल का चूर्ण।
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तिलकडिया  : पुं० [सं० तिलक] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक जगण और एक गुरु होते हैं। उगाध। यशोदा।
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तिलकना  : अ० [हिं० तड़कना] गीली मिट्टी का सूखकर स्थान-स्थान पर दरकना या फटना। ताल आदि की मिट्टी का सूखकर दरार के साथ फटना। अ०=फिसलना। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलकहरु  : पुं० दे० ‘तिलकहार’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलकहार  : पुं० [हिं० तिलक+हार (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो कन्या-पक्ष की ओर से वर को तिलक चढ़ाने के लिए भेजा जाता है।
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तिलका  : स्त्री० [सं० तिल√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो सगण (॥ऽ) होते है। इसे तिल्ला ‘तिल्लाना’ और डिल्ला भी कहते हैं। २. गले में पहनने का एक गहना।
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तिलकावल  : वि० [सं० तिलक+अव√ला(लाना)+क] १. जिसने अपने शरीर से किसी अंग पर तिल का चिन्ह बनाया हो। २. तिल सरीखे चिन्ह से युक्त।
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तिलकाश्रय  : पुं० [सं० तिलक-आश्रय, ष० त०] तिलक लगाने का स्थान। ललाट।
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तिलकित  : भू० कृ० [सं० तिलक+इतच्] जिस पर या जिसे तिलक लगा हो।
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तिलकुट  : पुं० [सं० तिलक्लक] १. एक प्रकार की मिठाई जो गुड़ चीनी आदि की चाशनी में तिल पागकर बनाई जाती है। २. [सं० तिलवलि] तिल की खली।
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तिलकोड़ा  : पुं० [देश०] एक तरह का जंगली कुदरू जिसकी पत्तियों का साग बनाया जाता है।
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तिलखलि  : स्त्री० [सं०] तिल की खली।
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तिलखा  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी।
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तिलंगनी  : स्त्री० [हिं० तिल+अँगिनी] एक प्रकार की मिठाई जो तिलों को चीनी की चाशनी में पागकर बनाई जाती है।
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तिलंगसा  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़।
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तिलंगा  : पुं० [हिं० तिलंगाना, सं० तैलंग] १. तिलंगाने या तैलंग देश का निवासी। २. भारतीय सेना का सिपाही। विशेष–पहले-पहल अँगरेजों मे तैलंग देश के आदमियों की ही भारतीय सेना बनाई थी, इसी से यह नाम पड़ा था। ३. एक प्रकार का कन-कौआ या पतंग।
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तिलंगाना  : पुं० [सं० तैलंग] तैलंग देश।
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तिलंगी  : पुं० [सं० तैलंग] तिलंगाने का निवासी। तैलंग। स्त्री० तिलंगाने की बोली। स्त्री० [हिं० तीन+लंग] एक तरह की गुड्डी या पतंग।
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तिलचटा  : पुं० [हिं० तिल+चाटना] एक तरह का झींगुर। चपड़ा।
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तिलछना  : अ० [अनु०] १. विकल तथा व्यग्र होना। २. छटपटाना।
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तिलड़ा  : वि० [हिं० तीन लड़] [स्त्री० तिलड़ी] जिसमें तीन लड़ हों। तीन लड़ोंवाला। जैसे–तिलड़ी करधनी, तिलड़ी हार। पुं० [देश०] दातु पर नक्काशी करने की छेनी।
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तिलड़ी  : स्त्री० [हिं० तीन+लड़] तीन लड़ियों की एक माला जिसके बीच में एक जुगनी लटकती है।
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तिलंतुद  : पुं० [सं० तिल√तुद् (पीड़ित करना)+खश्, मुम] तेली।
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तिलदानी  : स्त्री० [हिं० तिल्ला+सं० आधान] सूई, तागा, अंगुश्ताना आदि रखने की थैली। (दरजी)।
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तिलपट्टी  : स्त्री० [हिं० तिल+पट्टी] खाँड़ या गुड़ में पगे हुए तिलों का जमा हुआ टुकड़ा।
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तिलपर्णिका  : स्त्री० [सं० तिलपर्णी+कन्-टाप्,हस्व] तिलपर्णी।
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तिलपर्णी  : स्त्री० [सं० तिलपर्ण] रक्त चंदन।
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तिलपिंज  : पुं० [सं० तिल+पिंज] तिल का वह पौधा जिसमें बीज आदि न लगे।
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तिलपीड  : पुं० [सं० तिल√पीड् (पीड़ित करना)+अच्] तेली जो तिल पेरकर तेल निकालता है।
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तिलफरा  : पुं० [देश०] एक तरह का वृक्ष।
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तिलबढ़ा  : पुं० [देश०] पशुओं को होनेवाला एक रोग जिसमें उनके गले में सूजन हो जाती है और जिसके कारण उनसे कुछ खाया-पीया नहीं जाता ।
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तिलबर  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी।
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तिलभार  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश।
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तिलभाविनी  : स्त्री० [सं० तिल√भू (होना)+णिच्+णिनि-ङीप्] चमेली। मल्लिका।
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तिलभुग्गा  : पुं० [हिं० तिल+सं० भुक्त] तिल तथा खोये आदि के योग से बननेवाला एक तरह का चूर्ण।
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तिलमापट्टी  : स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में कुछ प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की कपास।
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तिलमिल  : स्त्री० [हि० तिरमिर] १. ऐसी अवस्था जिसमें अधिक प्रकाश के कारण अथवा रोग आदि के कारण आँखों के सामने कभी प्रकाश और कभी अँधेरा आ जाता है। २. चकाचौंध।
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तिलमिलाना  : अ० [हि० तिरमिल] [भाव० तिलमिलाहट] १. तिलमिला होना। आँखों के आगे कभी अँधेरा और कभी प्रकाश आना। २. चकाचौंथ होना। [अनु०] [भाव० तिलमिलाहट, तिलमिली] १. पीड़ा के कारण विकल होना। २. पछताना।
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तिलमिलाहट  : स्त्री० [हिं० तिलमिलाना] तिलमिलाने की अवस्था या भाव। बेचैनी।
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तिलमिली  : स्त्री०=तिलमिलाहट।
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तिलरा  : पुं० [देश०] कसेरों की एक तरह की छेनी। पुं०=तिलड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलरिया  : स्त्री०=तिलड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलरी  : स्त्री०=तिलड़ी (तीन लड़ोंवाला हार)।
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तिलवट  : पुं०=तिल-पट्टी।
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तिलवन  : स्त्री० [देश] एक तरह का जंगली पौधा जिसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती हैं।
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तिलवा  : पुं० [हिं० तिल] तिलों का लड्डू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलशकरी  : स्त्री० [हिं० तिल+शकर] तिलों और शक्कर के योग से बना हुआ एक तरह का पकवान। तिलपपड़ी।
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तिलस्म  : पुं० [यू० टेलिस्मा] १. इन्द्रजाल या जादू के जोर से कोई अलौकिक काम कर या करा सकने की शक्ति। २. इस प्रकार किया या कराया हुआ कोई काम। अलौकिक व्यापार। मुहावरा–तिलस्म तोड़ना=ऐसी प्रतिक्रिया करना जिससे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया हुआ तिलस्म या जादू का सारा स्वरूप नष्ट हो जाय।
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तिलस्मात  : पुं० [यू० टेलिस्मन्] १. जादू। २. अदभुत या अलौकिक काय। चमत्कार। करामात।
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तिलस्मी  : वि० [हिं० तिलस्म] तिल्सम या जादू-संबधी।
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तिलहन  : पुं०=तेलहन।
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तिला  : पुं० [हिं० तेल] एक तरह का तेल जिसे लिगेंद्रिय पर मलने से पुंसत्व शक्ति बढती है। पुं०=तिल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलाक  : पुं०=तलाक।
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तिलांकित दल  : पुं० [सं० तिल-अंकित, ब० स०] तैलकंद।
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तिलांजली  : स्त्री० [सं० तिल-अंजली, मध्य० स०] १. किसी के मरने पर उसके संबंधियों द्वारा किया जानेवाला वह कृत्य जिसमें वे हाथ में तिल और जल लेकर उसके नाम से छोड़ते हैं। २. सदा के लिए किसी का संग या साथ छोड़ना। जैसे–लड़का घरवालों को तिलांजली देकर चला गया। क्रि० प्र०–देना।
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तिलादानी  : स्त्री०=तिलदानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलान्न  : पुं० [सं० तिल-अन्न, मध्य० स०] तिल की खिचड़ी।
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तिलापत्या  : स्त्री० [सं० तिल-अपत्य, ब० स० टाप्] काला जीरा।
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तिलांबु  : पुं० [सं० तिल-अंबु, मध्य० स]=तिलांजली।
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तिलाम  : पुं० [अ० गुलाम का अनु] गुलाम का गुलाम। दासानुदास।
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तिलावा  : पुं० [हिं० तीन+लावना, लाना] १. वह बड़ा कुआँ जिस पर एक साथ तीन पुरवट चल सकें। २. नगर-रक्षकों, पुलिस आदि का रात के समय बस्ती में लगनेवाला गश्त।
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तिलिंग  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध देश।
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तिलिंगा  : पुं०=तिलिंगा (तैलंग देश का निवासी या सिपाही)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलित्स  : पुं० [सं०√तिल् (चिकना करना)+इन्, तिलि√त्सर् (कुटिल गति)+उ] गोनस साँप।
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तिलिया  : पुं० [देश०] सरपत। वि० पुं०=तेलिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिलिस्म  : पुं०=तिलस्म।
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तिलिस्मी  : पुं०=तिलिस्म।
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तिली  : स्त्री० १.=तिल्ली। २. तिल।
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तिलेगू  : पुं०=तेलगू।
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तिलेती  : स्त्री० [हिं० तेलहन+एती (प्रत्यय)] तेलहन (तिल, सरसों आदि पौधे) काटने पर खेत में बची रहनेवाली खूँटी।
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तिलेदानी  : स्त्री०=तिलदानी।
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तिलोक  : पुं०=त्रिलोक।
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तिलोकपति  : पुं०=त्रिलोकपति (विष्णु)।
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तिलोकी  : पुं० [सं० त्रिलोकी] १. इक्कीस मात्राओं का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण के अन्त में लघु और गुरु होता है। २.=त्रैलोक्य। जैसे–त्रिलोकी नाथ।
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तिलोचन  : पुं०=त्रिलोचन।
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तिलोत्तमा  : स्त्री० [सं० तिल-उत्तमा, मध्य० स०] एक अप्सरा जिसके संबंध में कहा जाता है कि ब्रह्मा ने संसार के सभी सुन्दरतम पदार्थों से एक-एक तिल भर अंश लेकर इसके शरीर की रचना की थी।
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तिलोदक  : पुं० [सं० तिल-उदक, मध्य० स०]=तिंलांजलि।
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तिलोना  : वि०=तेलौना (स्निग्ध)।
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तिलोरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना जिसे तेलिया मैना भी कहते हैं। स्त्री०=तिलौरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पटसन का रेशा।
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तिलौंछ  : स्त्री० [हिं० तिल+औंछ (प्रत्यय)] तेल की वह उग्र गंध जो उसमे तली हुई या उससे मिली हुई वस्तुओं में से निकलती है।
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तिलौंछना  : स० [हिं० तेल+औंछना(प्रत्य)] १. किसी चीज पर तेल लगाया या रगड़ना। २. चिकना करना।
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तिलौंछा  : वि० [हिं० तेल+औंछा (प्रत्यय)] १.जिसमें तिलौंछ हो। २. जिसमें तेल की सी गंध, रंग या स्वाद हो।
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तिलौरी  : स्त्री० [हिं० तिल+बरी] वह बरी जिसमें तिल भी मिले हुए हों। स्त्री०=तिलोरी।
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तिल्य  : वि० [हिं० तिल+यत्] (खेत) जिसमें तेलहन की खेती हो सकती हो। पुं० उक्त प्रकार का खेत।
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तिल्लना  : पुं० [सं० तिलका] तिलका नाम का वर्ण-वृत्त।
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तिल्लर  : पुं० [देश] होबर नामक पक्षी का एक नाम।
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तिल्ला  : पुं० [अ० तिला-स्वर्ण] १. कलाबत्तू, बादले आदि के तार जो कपड़ों में ताने-बाने के साथ बुने जाते हैं। पद–तिल्लेदार। (देखें)। २. दुपट्टे, पगड़ी, साड़ी आदि का वह आँचल जिसमें उक्त प्रकार का कलाबत्तू या बादले का काम किया हो। पद–नखरा–तिल्ला (देखें)। ३. वह सुंदर पदार्थ जो किसी वस्तु की शोभा बढ़ाने के लिए उसमें जोड़ दिया जाता है। (क्व०)० पुं०तिलका (वर्ण-वृत्त) का दूसरा नाम।
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तिल्लाना  : पुं०=तराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिल्ली  : स्त्री० [सं० तिलक] १. पेट के भीतर का गुटली के आकार का वह छोटा अवयव जो बाई ओर की पसलियों के नीचे होता है। २. एक रोग जिसमें उक्त अवयव में सूजन आ जाती है। स्त्री० [सं० तिल] तिल (बीज)। स्त्री० [देश०] एक तरह का बांस। स्त्री०–तिली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिल्लेदार  : वि० [हिं० तिल्ला+फा० दार (प्रत्यय)] जिसमें कलाबत्तू, बादले आदि के तार भी बुने या लगे हों० जैसे–तिल्लेदार पगड़ी या साड़ी।
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तिल्व  : पुं० [सं०√तिल् (चिकना करना)+वन्] लोघ्र। लोभ।
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तिल्वक  : पुं० [सं० तिल्व+कन्] १. लोध। २. तिनिश वृक्ष।
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तिल्हारी  : स्त्री० [?] घोड़े के माथे पर बाँधी जानेवाली झालर। नुकता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिवाड़ी  : पुं०=तिवारी (त्रिपाठी)।
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तिवान  : पुं० [?] चिंता। फिक्र।
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तिवारी  : स्त्री० [देश०] बत्तख की तरह की एक शिकारी चिड़िया।
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तिवारी  : पुं०=त्रिपाठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिवास  : पुं० [सं० त्रिवासर] तीन दिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिवासी  : वि०=तिबासी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिवी  : स्त्री० [देश०] खेसारी।
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तिशना  : पुं० [फा० तशनीय] ताना मेहना। स्त्री०=तृष्णा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिष्ट  : वि० [हिं० तिष्टना] बनाया हुआ। रचित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिष्टना  : स० [सं० स्थिति] रचना। बनाना। उदाहरण–कोउ कहै यह काल उचावत कोई कहै यह ईसुर तिष्टी–सुन्दर।
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तिष्ठदगु  : पुं० [सं० अव्य० स० (नि०)] गोधूली का समय। संध्या
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तिष्ठना  : अ० [सं० तिष्ठत्] १. ठहरना। २. बैठना। ३. स्थिर रहना। बने रहना।
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तिष्ठा  : स्त्री० [?] एक नदी जो हिमालय से निकलकर नवाबगंज के पास गंगा में मिली है।
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तिष्य  : पुं० [सं०√तुष् (सन्तोष करना)+क्यप्, नि० सिद्धि] १. पुष्प नक्षत्र। २. पौष मास। पूस। ३. कलियुग। वि० कल्याण या मंगल करनेवाला।
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तिष्य-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] आमलकी।
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तिष्यक  : पुं० [सं० तिष्य+कन्] पौष मास।
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तिष्या  : स्त्री० [सं० तिष्य+अच्-टाप्] आमलकी।
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तिष्षन  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिस  : सर्व० [सं० तस्मिन्; पा० तिस्स](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) ‘ता’ का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने से प्राप्त होता है उस का पुराना और स्थानिक रूप। जैसे–तिसने, तिसकों, तिससे आदि। पद–तिस पर-इतना होने पर। ऐसी अवस्था में भी। जैसे–सौ रुपये तो ले गये, तिस पर अभी तक नाराज ही हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसकार  : पुं०=तिरस्कार।
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तिसखुट  : स्त्री० [हिं० तीसी+खूँटी] तीसी के पौधे की खूंटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसखुर  : स्त्री०=तिसखुट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसन  : स्त्री०=तृष्णा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसरा  : वि०=तीसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसरायके  : अव्य० [हिं० तिसरा] तीसरी बार।
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तिसरायत  : स्त्री० [हिं० तीसरा] तीसरा अर्थात् गैर या पराया होने का भाव। पुं०=तिसरैत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसरैत  : पुं० [हिं० तीसरा] १. दो विरोधी, दलों, पक्षों, व्यक्तियों से भिन्न ऐसी तीसरा व्यक्ति जिसका उनके बैर-विरोध से कोई संबंध न हो। तटस्थ। जैसे–किसी तिसरैत को बीच में डालकर झगड़ा निबटा लो। २. लाभ, संपत्ति, आदि में तीसरे अंश या हिस्से का अधिकारी अथवा मालिक।
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तिसा  : वि० [सं० तादृश] [स्त्री० तिसी] तैसा। वैसा। स्त्री०=तृषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसाना  : अ० [सं० तृषा] प्यासा होना। तृषित होना। उदाहरण–सरवर तटि हसिनी तिसाई।–कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसार  : पुं०=अतिसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिसूत  : पुं० [?] एक प्रकार की ओषधि।
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तिसूती  : वि० [हि० तीन+सूत] (कपड़ा) जिसमें तीन-तीन सूत एक साथ ताने और बाने में होते हैं। स्त्री० उक्त प्रकार से बुना हुआ कपड़ा।
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तिसे  : सर्व०=उसे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिस्ना  : स्त्री०=तृष्णा।
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तिस्रा  : स्त्री० [?] शंख-पुष्पी।
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तिस्स  : पुं० [सं० तिष्य] सम्राट अशोक के एक भाई का नाम।
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तिहउ  : पुं०=तिहाव (गुस्सा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहत्तर  : वि० [सं० त्रिसप्तति, पा० तिसत्तति, प्रा० तिहत्तरि] जो गिनती में सत्तर से तीन अधिक हो। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–७३।
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तिहद्दा  : पुं० [हिं० तीन+हद्द=सीमा] वह स्थान जहां तीन हदें मिलती हों।
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तिहरा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० तिहरी] दही जमाने या दूध दुहने का मिट्टी का बरतन। वि०=तेहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहराना  : स०=तेहराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहरी  : स्त्री० [हिं० तीन+हार] तीन लड़ों की माला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=‘तेहरा’ का स्त्री।
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तिहवार  : पुं०=त्योहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहवारी  : स्त्री०=त्योहारी।
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तिहा(हन्)  : पुं० [सं०√तुह् (पीड़ति करना)+कनिन्, नि० सिद्दि] १. रोग। व्याधि। २. सदभाव। ३. चावल। ४.धनुष।
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तिहाई  : स्त्री० [सं० त्रि+हिं० हाई (प्रत्य)] १. किसी चीज के तीन समान भागों में कोई या हर एक। तीसरा अंश, भाग या हिस्सा। २. खेत की उपज या पैदावार जिसका केवल तीसरा भाग काश्तकारों को मिला करता था और दो-तिहाई जमींदार ले लेता था। ३. दे० ‘तिहैया’। ४. उपज। फसल। (पहले खेत की उपज का तृतीयांश काश्तकार लेता था इसी से यह नाम पड़ा।) मुहावरा–तिहाई मारी जाना-फसल का न उपजना या नष्ट हो जाना।
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तिहानी  : स्त्री० [देश०] चूड़ियाँ बनानेवालों की एक लकड़ी जो तीन बालिश्त लंबी और एक बालिश्त चौड़ी होती है।
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तिहायत  : पुं० दे० ‘तिसरैत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहारा, तिहारी  : सर्व० [हिं०] तुम्हारा का ब्रज रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहाली  : स्त्री० [देश०] कपास की बौंड़ी।
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तिहाव  : पुं० [हिं० तेह-गुस्सा+ताव] १. क्रोध। गुस्सा। २. आपस की अनबन। बिगाड़।
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तिहि  : सर्व०=तेहि।
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तिहीं  : क्रि० वि० [?] १. उसी में। २. उसी जगह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहूँ  : वि० [हिं० तीन+हूँ (प्रत्यय] तीनों। जैसे–तिहूं लोक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तिहैया  : पुं० [हिं० तिहाई] १. किसी चीज का तीसरा अंश या भाग। तिहाई। २. ढोलक, तबला, पखावज आजि बजाने में कलापूर्ण सैन्दर्य लानेवाली तीन थापें जिनमें से प्रत्येक थाप जो अंतिम या समवाले ताल को तीन भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग पर दी जाती है और जिसकी अंतिम थाप ठीक समय पर पड़ती है।
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ती  : स्त्री० [सं० स्त्री] १. स्त्री। औरत। उदाहरण–(क) तीरथ चलत मन ती रथ चलत है।–सेनापति। (ख) औ तैसे यह लच्छन ती के।–रत्नाकर। २. जोरू। पत्नी। ३. नलिनी या मनोहरण छन्द का एक नाम।
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तीअन  : स्त्री० [सं० तृणान्न] शाक। भाजी। तरकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीकरा  : पुं० [देश०] अँखुआ। अंकुर।
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तीकुर  : पुं० [हिं० तीन+कूरा=अंश] १. दे० तिहैया। २. किसी चीज का बहुत चोटा टुकड़ा। पुं० तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीक्षण  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीक्षन  : वि०=तीक्ष्ण।
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तीक्ष्ण  : वि० [सं०√तिज्(तीखा करना)+वस्न, दीर्घ] १. (पदार्थ) जिसका स्वाद चरपरा, झालदार या हलकी चुनचुनी उत्पन्न करनेवाला हो। तीखे स्वादवाला। जैसे–प्याज, लहसुन आदि। २. (शस्त्र) जिसकी धार बहुत चोखी या तेज अथवा नोक बहुत पैनी हो। जैसे–तलवार, बरछी आदि। ३. जिसकी गति या वेग बहुत अधिक हो। प्रचंड। जैसे–तीक्ष्ण वायु। ४. जिसका परिणाम या प्रभाव बहुत उग्र या तीव्र हो। जैसे–तीक्ष्ण स्वभाव। ५. जो किसी बात में औरों से बहुत चढ़-चढ़कर हो या अधिक गहराई तक पहुँच सके। जैसे–तीक्ष्ण बुद्धि। ६. (कथन) जो अप्रिय और कटु हो। जैसे–तीक्ष्ण वचन। ७. आत्मत्यागी। ८. जो कभी आलस्य न करता हो। निरालस्य। ९. जिसे सहना कठिन हो। जैसे–तीक्ष्ण ताप या शीत। पुं० [सं०] १. उत्ताप। गरमी। २. जहर। विष। ३. वत्सनाभ। बछनाग। ४. मृत्यु। मौत। ५. युद्ध। लड़ाई। ६. महामारी। मरी। ७. चव्य। चाब। ८. मुष्यक। मोखा। ९. जवाखार। १॰.सफेद कुश। ११.समुद्री नमक। करकच। १२. कुदरू गोंद। १३. इस्पात। १४. शास्त्र। १५. योगी। १६. ज्योतिष में मूल आर्द्रा, ज्येष्ठा और अश्लेषा नक्षत्र। १७. पूर्वा और उत्तरा भाद्रपदा, ज्येष्ठा, अश्विनी और रेवती नक्षत्रों में बुध की गति।
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तीक्ष्ण-कंटक  : पुं० [ब० स०] १. धतूरे का पेड़। २. बबूल का पेड़। ३. करील का पेड़। ४. इंगुदी या हिंगोट का पेड़।
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तीक्ष्ण-कंटक  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णकंटक+टाप्] एक प्रकार का वृक्ष जिसे कंकारी कहते हैं। तीक्ष्ण-कंद
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तीक्ष्ण-कल्क  : पुं० [ब० स०] तुंबरू का पेड़।
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तीक्ष्ण-कांता  : स्त्री० [कर्म० स०] पुराणानुसार तारा देवी का एक नाम।
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तीक्ष्ण-क्षीरी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] बंसलोचन।
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तीक्ष्ण-गंध  : पुं० [ब० स०] १. शोभांजन। सहिंजन। २. लाल तुलसी। ३. सफेद तुलसी। ४. छोटी उलायची। ५. लोबान।
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तीक्ष्ण-गंधक  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+गंध+कन्] सहिंजन।
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तीक्ष्ण-तंडुला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] तीक्ष्ण होने की अवस्था या भाव।
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तीक्ष्ण-ताप  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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तीक्ष्ण-तेल  : पुं०=तीक्ष्ण-तैल।
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तीक्ष्ण-तैल  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+तैलच्] १. सरसों का तेल। २. सेहुड़ का दूध। ३. मद्य। शराब। ४. राल।
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तीक्ष्ण-दंत  : वि० [ब० स०] जिसके दांत बहुत तेज या नुकीली हों।
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तीक्ष्ण-दंष्ट्र  : वि० [ब० स०] तीखे या तेज दाँतोवाला। पुं०-बाघ (हिंसक जंतु)।
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तीक्ष्ण-दृष्टि  : वि० [ब० स०] जिसकी दृष्टि तीक्ष्ण हो। सूक्ष्म दृष्टिवाला। (व्यक्ति)।
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तीक्ष्ण-धार  : वि० [ब० स०] जिसकी धार बहुत तेज हो। पुं० खड्ग, तलवार आदि शास्त्र।
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तीक्ष्ण-पत्र  : वि० [ब० स०] जिसके पत्तों के पार्श्व तेज धारवाले हों। पुं० एक प्रकार का गन्ना। २. धनिया।
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तीक्ष्ण-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] लबंग। लौंग।
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तीक्ष्ण-पुष्पा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णपुष्प+टाप्] केतकी।
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तीक्ष्ण-प्रिय  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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तीक्ष्ण-फल  : पुं० [ब० स०] तुबुरू। धनिया।
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तीक्ष्ण-फला  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णफल+टाप्] राई।
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तीक्ष्ण-बुद्धि  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसकी बुद्धि प्रखर हो।
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तीक्ष्ण-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] पान का पौधा।
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तीक्ष्ण-मूल  : वि० [ब० स०] जिसकी जड़ में से उग्र या तेज गंध आती हो। पुं० १. कुलंजन। २. सहिंजन।
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तीक्ष्ण-रश्मि  : वि० [ब० स०] जिसकी किरणें बहुत तेज हों पुं० सूर्य।
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तीक्ष्ण-रस  : पुं० [ब० स०] १. जवाखार। यवक्षार। २. शोरा।
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तीक्ष्ण-लौह  : पुं० [कर्म० स०] इस्पात।
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तीक्ष्ण-शूक  : पुं० [ब० स०] यव। जौ।
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तीक्ष्ण-सारा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] शीशम् का पेड़।
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तीक्ष्णक  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+कन्] १. मोखा वृक्ष। २. सफेद सरसों।
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तीक्ष्णगंधा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णगंध+टाप्] १. राई। २. छोटी इलायची। ३. सफेद बच। ४. जीवंती। ५. कंथारी का वृक्ष।
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तीक्ष्णा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्ण+टाप्] १. बच। २. केवांच। कौंछ। ३. बड़ी माल-कंगनी। ४. मिर्च। ५. सर्पकाली नामक पौधा। ६. अत्यम्लपर्णी नाम की लता। ७. जोंक। ८. तारा देवी के एक नाम।
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तीक्ष्णाग्नि  : स्त्री० [तीक्ष्ण-अग्नि, कर्म० स०] १. प्रबल जठराग्नि। २. अजीर्ण या अपच नाम का रोग।
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तीक्ष्णाग्र  : वि० [तीक्ष्ण-अग्र, ब० स०] १. प्रबल जठराग्नि। २. अजीर्ण या अपच नाम का रोग।
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तीक्ष्णायस  : वि० [तीक्ष्ण-आयस, कर्म० स०] इस्पात। लोहा।
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तीक्ष्णांशु  : पुं० [तीक्ष्ण-अंशु, ब० स०] सूर्य।
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तीख  : वि०=तीखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखन  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखर  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखल  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखा  : वि० [सं० तीक्ष्ण] [स्त्री० तीखी] [भाव० तीखापन] १. (शस्त्र) जिसकी धार या नोक बहुत तेज या पैनी हो। चोखा। जैसे–तीखी छुरी। २. (व्यक्ति या उसका व्यवहार) जिसमें किसी प्रकार की उग्रता, तीव्रता या प्रखरता हो। कोमलता, मृदुता, सरलता आदि से रहित। जैसे–तीखी नजर, तीखा स्वभाव। ३. (पदार्थ) जिसका स्वाद उग्र, चरपरा या तेज हो। जैसे–तरकारी में पड़ा हुआ तीखा मसाला। ४. (कथन या बात) जिसमें अप्रियता या कटुता हो। जैसे–मैं किसी की तीखी बातें नहीं सुनना चाहता। ५. किसी की तुलना मे अच्छा या बढ़कर। चोखा। जैसे–यह घी (या तेल) उससे तीखा पड़ता है। ६. (दृष्टि) तिरछा। तिर्यक। जैसे–सुंदरी का किसी को तीखी नजर से देखना। पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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तीखापन  : पुं० [हिं० तीखा+पन(प्रत्यय)] तीखे होने की अवस्था या भाव।
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तीखी  : स्त्री० [हिं० तीखा] एक उपकरण जिससे रेशम फेरा या बटा जाता है।
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तीखुर  : पुं० [सं० तवक्षीर] हल्दी की जाति का एक पौधा जिसकी जड़ का सार सफेद चूर्ण के रूप में होता है और खीर, हलुआ आदि बनाने के काम आता है। अब एक प्रकार का तीखुर विदेशों से भी आता है जिसे आरारूट (देखें) कहते हैं।
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तीखुल  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीछन  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीछा  : वि०=तीखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीज  : स्त्री० [सं० तृतीया] १. प्रत्येक पक्ष की तीसरी तिथि। तृतीया। २. भादों सुदी तीज जिस दिन सुहागिन स्त्रियाँ निंजल व्रत रखती है। ३. हरितालिका।
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तीजा  : वि० [हिं० तीज] तीसरा। पुं० किसी के मरने के बाद का तीसरा दिन। इस दिन मृतक के संबंधी गरीबों को भोजन बाँटते हैं। (मुसलमान)।
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तीत  : वि०=तीखा (तिक्त)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतर  : पुं० [सं० तित्तिर] मुरगी की जाति का एक पक्षी जिसका मांस खाया जाता है। काले रंग का तीतर काला और चित्रित रंग का तीतर गौर कहलाता है। कहा०–आधा तीतर और आधा बटेर–ऐसी वस्तु जिसके दो विभिन्न अंगों या अंशों का अनुपात या सौंदर्य एक-सा न हो। विशेष–वैद्यक में तीतर का मांस खाँसी, ज्वर आदि का नाशक माना गया है।
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तीता  : वि० [सं० तिक्त] १. जिसका स्वाद तीखा और चरपरा हो। तिक्त। जैसे–मिर्च। २. कड़ुआ। कटु। वि० [?] भींगा हुआ। आर्द्र। तर। पुं० १. तोजी-बोयी जानेवाली जमीन की तरी या नमी। २. ऊसर भूमि। ३. ढेंकी और रहट का अगला भाग। ४. ममीरे का पौधा।
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तीतुर  : पुं०=तीतर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतुरी  : स्त्री०=तितली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतुल  : पुं०=तीतर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीन  : वि० [सं० त्रीणि] जो गिनती में दो से एक अधिक हो। पुं० १. दो और एक के योग की संख्या। २. उक्त संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है–३ मुहावरा–तीन पाँच करना-घुमाव-फिराव बहानेबाजी या हुज्जत की बात करना। ३. सरयूपारी ब्राह्माणों में गर्ग, गौतम और शांडिल्य इन तीन विशिष्ट गोत्रों का एक वर्ग। मुहावरा–तीन तेरह करना-(क) अनेक प्रकार के वर्ग या विभेद उत्पन्न करना। (ख) इधर-उधर छितराना या बेखेरना। तितर-बितर करना। कहा०–न तीन में न तेरह में–जिसकी कहीं गिनती या पूछ न हो। स्त्री०=तिन्नी (धान्य।)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीन काने  : पुं० [हिं०] चौपड़ के खेल में यह दाँव जो तीनों पासों पर एक ही एक बिंदी ऊपर रहने पर माना जाता है। (खेल का सबसे छोटा दाँव)।
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तीनपान  : पुं० [देश०] एक तरह का बहुत मोटा रस्सा। (लश०)।
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तीनपाम  : पुं०=तीनपान।
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तीनलड़ी  : स्त्री० [हिं० तीन+लड़ी] तीन लड़ियोवाला गले में पहनने का हार।
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तीनि  : वि० पुं०=तीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीनी  : स्त्री० [हिं० तिन्नी] तिन्नी का चावल।
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तीपड़ा  : पुं० [देश०] रेशमी कपड़ा बुननेवालों का एक उपकरण जिसके नीचे-ऊपर वे दो लकड़ियाँ लगी रहती हैं जिन्हें बेसर कहते हैं।
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तीमन  : पुं० [?] बनी हुई तरकारी या उसका रसा। (पूरब)।
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तीमारदारी  : स्त्री० [फा०] १. टहल। सेवा-सुश्रुषा। २. रक्षा।
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तीय  : स्त्री० [सं०स्त्री०] १. स्त्री। औरत। नारी। २. पत्नी। जोरू।
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तीर  : पुं० [सं०√तीर्(पार जाना)+अच्] १. नदी का किनारा। तट। मुहावरा–तीर पकड़ना या लगना-किनारे पर पहुँचना। २. किसी चीज का किनारा। ३. निकटता। सामीप्य। ४. सीसा नामक धातु। ५. रांगा। अव्य-निकट। पास। समीप। पुं० [फा०] १. धनुष से छोड़ा जानेवाला वाण। शर। क्रि० वि०–चलाना।–छोड़ना।–फेंकना।–लगाना। २. लाक्षणिक रूप में कौशल या चालाकी से भरी हुई तरकीब। चाल। मुहावरा–तीर चलाना या फेंकना-ऐसी तरकीब या युक्ति लगाना जिससे काम निकलने की बहुत कुछ संभावना हो। तीर लगना-युक्ति सफल होना। काम बनना। पुं० [?] जहाज का मस्तूल (लश०)।
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तीर-भुक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] गंगा, गंडकी और कौशिकी इन तीन नदियों से घिरा हुआ तिरहुत प्रदेश।
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तीरगर  : पुं० [फा०] तीर बनानेवाला कारीगर।
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तीरण  : पुं० [सं०√तीर् (पार जाना)+ल्युट-अन] करंज।
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तीरथ  : पुं०=तीर्थ।
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तीरंदाज  : पुं० [फा०] [भाव० तीरंदाजी] तीर से लक्ष्य-भेद करनेवाला व्यक्ति।
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तीरवर्त्ती(र्तिन्)  : वि० [सं० तीर√वृत् (रहना)+णिनि] १. तट पर रहनेवाला। २. तीर या तट पर स्थित होनेवाला।
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तीरस्थ  : पुं० [सं० तीर√स्था (स्थित होना)+क] नदी के तीर पर पहुँचाया हुआ मरणासन्न व्यक्ति।
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तीरा  : पुं० [?] गुलहजारा नामक फूल। पुं०=तीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीराट  : पुं० [सं० तीर√अट् (घूमना)+अच्] लोध।
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तीरु  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+क्रु (बा०)] १. सिव। महादेव। २. सिव की स्तुति।
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तीर्ण  : वि० [सं०√तृ (पार करना)+क्त] १. जो पार हो गया हो। उतीर्ण। २. जिसने सीमा का उल्लंघन किया हो। ३. भींगा हुआ। गीला। तर।
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तीर्ण  : स्त्री० [सं० तीर्ण+टाप्] एक प्रकार का छंद।
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तीर्णपदा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] तालमूल। मूसली।
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तीर्णपदी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्]=तीर्णपदा।
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तीर्थ  : पुं० [सं०√तृ (पार करना)+थक्] १. जलाशय आदि में उतरने अथवा नाव के यात्रियों के उतरने-चढ़ने के लिए बनी हुई सीढियाँ। घाट। २. मार्ग। रास्ता। ३. वह जिसके द्वारा या सहायता से कोई काम होता हो या हो सकता हो। कार्य सिद्ध करने का उपाय, युक्ति या साधन। ४. कोई ऐसा स्थान, विशेषतः जलाशय, नदी, समुद्र आदि के पास का स्थान जिसे लोग धार्मिक दृष्टि से पवित्र या मोक्षदायक समझते हों और श्रद्धापूर्वक दर्शन, पूजन आदि के लिए जाते हों। जैसे–काशी हिंदुओं का और मक्का मुसलमानों का बहुत बड़ा तीर्थ है। ५. कोई ऐसा स्थान जिसे लोग अन्य स्थानों से विशिष्ट महत्त्व का या कार्य सिद्धि में सहायक समझते हों। जैसे–आज-कल के राजनितिज्ञों का तीर्थ तो बस दिल्ली है। ६. कोई ऐसा महात्मा या महापुरुष जिसे लोग पूज्य और श्रद्धेय समझते हों। जैसे–गुरु पिता, माता आदि तीर्थ हैं। ७. धार्मिक गुरु या शिक्षक। उपाध्याय। ८. किसी चीज या बात का मूल कारण या स्रोत अथवा मुख्य साधन। ९. उपयुक्त अथवा योग्य परामर्श या सूचना। १॰. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त अवसर या स्थल। ११. धार्मिक ग्रंथ, विज्ञान या शास्त्र। १२. यज्ञ। १३. हथेली और उंगलियों के कुछ विशिष्ट स्थान जिनमें कुछ विशिष्ट देवी-देवताओं का अवस्थान माना जाता है। १४. ईश्वर अथवा उसका कोई अवतार। १५. किसी देवता या देवी का चरणामृत। १६. दर्शन शास्त्र की कोई शाखा या सिद्धांत। १७. ब्राह्मण। १८. अग्नि। आग। १९. पुण्य काल। २॰. अतिथि। मेहमान। २१. दशनामी संन्यासियों का एक भेद और उनकी उपाधि। २२. योनि। भग। २३. रजस्वला स्त्री का रज। २४. वैर-भाव छोड़कर किया जानेवाला सदव्यवहार या सदाचरण। २५. परामर्श देनेवाला व्यक्ति। मंत्री। २६. प्राचीन भारत में, वे विशिष्ट अठारह अधिकारी जो राष्ट्र की संपत्ति माने जाते थे। यथा-मंत्री पुरोहित, युवराज, भूपति, द्वारपाल, अंतर्वेशिक, कारागार का अध्यक्ष, द्र्व्य या धन एकत्र करनेवाला अधिकारी, कृत्याकृत्य अर्थ का विनियोजत प्रदेष्टा, नगराध्यक्ष, कार्यनिर्माण कारक, धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दंडपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रन्तपाल, और अटवीपाल। २७. रोग का निदान या पहचान। वि० १. तारने या पार उतारनेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला।
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तीर्थ-काक  : पुं० [स० त०] वह जो तीर्थ में रह कर धर्म के नाम पर लोगों से धन ऐंठता हो।
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तीर्थ-देव  : [ष० त० वा उपमि० स०] शिव। महादेव।
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तीर्थ-पति  : पुं० [ष० त]=तीर्थराज।
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तीर्थ-पाद्  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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तीर्थ-पुरोहित  : पुं० [स० त०] वह जो किसी विशिष्ट तीर्थ में रहकर आनेवाले यात्रियों का पौरोहित्य करता और उन्हें स्नान, दर्शन आदि कराता हो। पंडा।
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तीर्थ-राज  : पुं० [ष० त] प्रयाग।
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तीर्थ-व्यास  : पुं=तीर्थ-काक।
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तीर्थ-सेवी(विन्)  : पुं० [सं० तीर्थ√सेव्(सेवन करना)+णिनि] वह जो पुण्य,मोक्ष आदि प्राप्त करने के विचार से और धार्मिक भावनाओं से सदाचारपूर्वक किसी तीर्थ में जाकर रहने लगता हो।
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तीर्थक  : पुं० [सं० तीर्थ√कै (शब्द करना)+क] १. ब्राह्मण। २. तीर्थकार। ३. तीर्थों की यात्रा करनेवाला व्यक्ति।
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तीर्थंकर  : पुं० [सं० तीर्थ√क (करना)+ख] जैनियों के प्रमुख देवता। विशेष–कुल ४८ तीर्थकार माने गये हैं जिनमें से २४ गत उत्सर्पिणी में और २४ वर्त्तमान उत्सर्पिणी में हुए हैं।
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तीर्थकर  : पुं० [सं० तीर्थ√कृ+ट] १. विष्णु। २. जैनों के विशिष्ट महापुरुष जो संख्या में २४ हैं और जिन कहे जाते हैं।
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तीर्थकृत्  : पुं० [सं० तीर्थ√कृ (करना)+क्विप्] १. जैनियों के देवता। जिन। देव। २. शास्त्रकार।
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तीर्थन्राजि  : स्त्री० [ब० स०] काशी।
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तीर्थपादीय  : पुं० [सं० तीर्थपाद+छ-ईय] वैष्णव।
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तीर्थयात्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] तीर्थ-स्थानों के दर्शनार्थ की जानेवाली यात्रा।
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तीर्थसेनि  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
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तीर्थाटन  : पुं० [सं० तीर्थ-अटन,मध्य०स०] तीर्थयात्रा।
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तीर्थिक  : पुं० [सं० तीर्थ+ठन्-इक] १. तीर्थ का ब्राह्मण। पंडा। २. तीर्थकर। ३. बौद्धों की दृष्टि में वह ब्राह्मण जो बौद्ध धर्म का द्वेषी हो।
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तीर्थिया  : पुं० [सं० तीर्थ+हिं० इया(प्रत्य)] जैनी जो तीर्थकरों के उपासक होते हैं।
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तीर्थोंदक  : पुं० [सं० तीर्थ-उदक, ष० त०] किसी तीर्थस्थल का जल जो पवित्रमाना जाता है।
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तीर्थ्य  : पुं० [सं० तीर्थ+यत्] १. एक रूद्र का नाम। २. सहपाठी।
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तीर्न  : वि० [सं० तीर्ण] १. उत्तीर्ण। २. भींगा हुआ।
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तीलखा  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी।
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तीला  : पुं० [फा० तीर-बाण] [स्त्री० अल्पा० तीली] तिनका, विशे्षतः बड़ा और लंबा तिनका।
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तीली  : स्त्री० [हिं० तीला] १. वनस्पति आदि का बड़ा तिनका। सींक। २.धातु का पतला कड़ा तार। ३. तीलियों की वह कूँची जिससे जुलाहे करघे पर का सूत करते साफ करते हैं। ४. जुलाहों की ढरकी में की वह सीकं जिसमें नरी पहनाई रहती है।
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तीवई  : स्त्री० [सं० स्त्री] स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीवट  : पुं० [सं० त्रिवण] १.एक राग जो दोपहर के समय गाया जाता है। २.संगीत में १४ मात्राओं का एक ताल जिसे तेवर या तेवरा भी कहते हैं।
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तीवन  : पुं० [सं० तेवन-व्यंजन] १. पकवान। २. रसेदार तरकारी।
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तीवर  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+ष्वरच्,नि० सिद्धि] १. समुद्र सागर। २. [√तीर्(कर्म-समाप्ति)+ष्वरच्] व्याध। शिकारी। ३. मछुआ। ४. पुराणानुसार एक वर्ण-संकर जाति जिसकी उत्त्पत्ति राजपूत माता और क्षत्रिय पिता से कही गई हैं। वि०=तीव्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीव्र  : वि० [सं०√तीव्र (मोटा होना)+रक्] १. बहुत अधिक। अतिशय। अत्यंत। २. बहुत अधिक तीक्ष्ण या तीखा। तेज। ३. बहुत गरम। ४. मान, सीमा आदि में बहुत बढ़ा हुआ। बेहद। ५. कडुआ। कटु। ६. जो सहा न जा सके। असह्र। ७. उग्र, प्रचंड, या विकट। ८. जिसमें यथेष्ट वेग हो। ९. (संगीत में स्वर) जो अपने मानक या साधारण रूप से कुछ ऊँचा या बढ़ा हुआ हो। कोमल का विपर्याय। विशेष–ऋषभ गान्धार, मध्यम, धैवत और निषाद ये पाँचों स्वर दो प्रकार के होते है-कोमल और तीव्र। पुं० १. लोहा। २. नदी का किनारा या तट। ३. महादेव० शिव।
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तीव्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] सूरन। जमीकंद। ओल।
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तीव्र-गति  : स्त्री० [ब० स०] वायु। हवा।
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तीव्र-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] अजवायन। यवानी।
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तीव्र-ज्वाला  : स्त्री० [सं० तीव्र√ज्वल् (जलना)+णिच्+अच्-टाप्] धव का फूल जिसे छूने से लोगों का विश्वास था कि शरीर में धाव हो जाता है।
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तीव्र-सव  : पुं० [कर्म० स०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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तीव्रगंधिका  : स्त्री० [सं० तीव्रगन्धा+कन्-टाप्, हृस्व, इत्व] अजवायन।
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तीव्रता  : स्त्री० [सं० तीव्र+तल्–टाप्] तीव्र होने की अवस्था या भाव। (सभी अर्थों में)।
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तीव्रा  : स्त्री० [सं० तीव्र+टाप्] १. षडज स्वर की चार श्रुतियों में से पहली श्रुति। २. खुरासानी। अजवायन। ३. राई। ४. गाँडर दूब। गंड-दूर्वा। ५. तुलसी। ६. कुटकी। ७. बड़ी मालकंगनी। ८. तरवी नामक वृक्ष।
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तीव्रानन्द  : पुं० [तीव्र-आनन्द,ब०स०] शिव। महादेव।
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तीव्रानुराग  : पुं० [तीव्र-अनुराग,कर्म०स०] १.किसी वस्तु के प्रति होनेवाला अत्यधिक अनुराग। २. उक्त प्रकार का अनुराग जो जैनों में अतिचार माना जाता है।
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तीस  : वि० [सं० त्रिशति,पा०तीसा] जो गिनती में बीस से दस अधिक हो। स्त्री०उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।-३॰। पद–तीस मार खाँ-बहुत बड़ा बहादुर। (व्यंग्य) तीसों दिन-सदा। नित्य।
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तीसर  : स्त्री० [हिं०तीसरा] खेत की तीसरी जुताई। वि०-तीसरा।
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तीसरा  : वि० [हिं० तीन+सरा (प्रत्यय)] १. क्रम में तीन के स्थान पर पड़नेवाला जो गिनती में दो के उपरांत और चार से पहले हो। २. जिसका प्रस्तुत विषय अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक से भी कोई संबंध या लगाव न हो।
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तीसवाँ  : वि० [हिं० तीस+वाँ (प्रत्यय)] क्रम में तीस के स्थान पर पड़नेवाला। तीसवाँ दिन।
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तीसी  : स्त्री० [सं० अतसी] १. डेंढ़ हाथ ऊंचा एक पौधा जिसमें नीले रंग के फूल तथा बीज मटमैले रंग के घुंडीदार गोल होते हैं। २. उक्त बीज जो वैद्यक के अनुसार वात, पित, और कफनाशक होते हैं । स्त्री० [हिं० तीस+ई (प्रत्यय)] वस्तुएँ गिनने का एक मान जिसका सैकड़ा तीस गाहियों का अर्थात् १५॰ का होता है। स्त्री० [?] एक प्रकार की छेनी जिससे लोहे की थालियों आदि पर नक्काशी करते है।
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तीहा  : पुं० [सं० तुष्टि] तसल्ली। आश्वासन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तिहाई। जैसे–आधा-तीहा माल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुअ  : सर्व०=तव (तुम्हारा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुअना  : अ० [हिं० चूना, चुवना] १. चूना। टपकना। २. गर्भपात या गर्भस्राव होना। ३. गिर पड़ना। गिरना।
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तुअर  : पुं० [सं० तुवरी] अरहर।
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तुअर  : पुं० [सं० तूवरी] १. अरहर का पौधा। २. उक्त पौधे के बीज।
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तुइ  : सर्व०=तू।
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तुई  : स्त्री० [?] कपड़े पर बनी हुई एक प्रकार की बेल जो स्त्रियां दुपट्टों पर लगाती है। सर्व० १.=तू ही। २.=तू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुक  : स्त्री० [हिं० टूक-टुकड़ा] १. कविता, गीत आदि के चरण का वह अंतिम व्यंजन (या स्वरयुक्त व्यंजन) शब्द, या पद जिसके अनुप्रास का निर्वाह आगे के चरणों पदों आदि में करना आवश्यक होता है। अत्यानुप्रास। अक्षर-मैत्री। काफिया। पद–तुक-बंदी (देखें)। मुहावरा–तुक जोड़ना=कविता, गीत आदि के लिए ऐसे चरण या पद बनाना जिनके अंतिम वर्णों, शब्दों आदि में ध्वनिसाम्य मात्रा हो, कौशलपूर्ण या भावमय कवित्वगुण का अभाव हो। जैसे–हम तुक जोड़नेवाले कवियों की बात नहीं कहते। २. बोल-चाल में आनेवाले किसी शब्द के जोड़ का वह दूसरा शब्द जो उच्चारण या ध्वनि के विचार से उस पहले शब्द के जोड़ या बराबरी का होता है। काफिया। जैसे–कच्चा का तुक बच्चा और कड़ा का तुक बड़ा है। ३. दो बातों या कार्यों का पारस्परिक सामंजस्य। ४. ऐसा औचित्य जिसका निर्वाह पूर्वापर संबंध को देखते हुए आवश्यक, उपयुक्त या शोभन हो। जैसे–आप उनके प्रीति-भोज में जो बिना बुलाये चले गये उसमें क्या तुक था। ५. तीर के अगले भाग में लगी हुई घुंडी।
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तुकना  : स० हिं० ‘तकना’ का अनु०।
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तुकबंदी  : स्त्री० [हिं० तुक+फा० बंदी] ऐसी साधारण कविता करना जिसके चरणों के अंत में एक सी तुक या अंत्यानुप्रास के सिवा कोई विशेष भाव या रस न हो। भद्दी या साधारण कविता जिसमें भाव या भाषा का कुछ भी सौन्दर्य न हो। (व्यंग्य)।
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तुकमा  : पुं० [फा०] वह फंदा जिसमें पहनने के कपड़ों की घुंडी फँसाई जाती है। पाशक। मुद्धी
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तुका  : पुं० [फा० तुकः] १. बिना गाँसी का तीर। तुक्का। २. ऐसा उपाय या तरकीब जिससे कार्य की सिद्धि होने की संभावना न हो।
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तुकांत  : स्त्री० [हिं० तुक+सं० अंत] चरणों के अंत में होनेवाला तुक या मेल। अंत्यानुप्रास।
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तुकार  : स्त्री० [हि० तू+सं० कार] ‘तू’ कहकर किसी को पुकारना या संबोधित करना।
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तुकारना  : स० [हिं० तुकार] ‘तू’ कहकर किसी को पुकारने या संबोधित करना
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तुकारी  : स्त्री० [ हिं० तुकारना] तुकारने की क्रिया या भाव। तुकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुक्कड़  : पुं० [हिं० तुक+अक्कड़ (प्रत्यय)] केवल तुक जोड़नेवाला अर्थात् बहुत ही निम्नकोटि का कवि।
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तुक्कल  : स्त्री० [फा० तुका] एक तरह की बड़ी पतंग।
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तुक्का  : पुं० [फा० तुकः] १. वह तीर जिसमें गांसी के स्थान पर घुंडी सी बनी होती है। २. नरकट, सरकंडे आदि का वह टुकड़ा जो लड़के खेल में छोटी सी कमान पर इधर-उधर चलाते या फेंकते हैं। जैसे–लगा तो तीर नही तो तुक्का है ही। ३. कोई लंबी और सीधी चीज या उसका टुकड़ा। जैसे–वह अपने दरवाजे पर तुक्का सा खड़ा था। ४. छोटा टीला। टेकरी।
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तुक्खार  : पुं० [सं०]=तुखार।
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तुख  : पुं० [सं० तुष] १. भूसी। छिलका। २. अंडे के ऊपर का छिलका।
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तुखम  : पुं० [फा० तुख्म] १. बीज। २. वीर्य-कण।
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तुखादी  : पुं० [हिं० तुखार] तुखार देश का घोड़ा। वि० तुखार-संबंधी।
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तुखार  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश जिसका उल्लेख अर्थर्ववेद, रामायण, महाभारत आदि में है। यहाँ के घोंड़े बहुत अच्छे माने जाते थे। वि० दे० तुषार। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा। ४. घोड़ा। पुं०=तुषार।
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तुखारा  : वि० [सं० तुषार] [स्त्री० तुखारी] तुषार देश संबंधी। पुं० तुषार देश का घोड़ा।
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तुख्म  : पुं० [अ० तुख्म] १. फलों वृक्षों आदि का बीज। २. वीर्य-कण जिससे सन्तान उत्पन्न होती है।
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तुंग  : वि० [सं०√तुंज् (हिंसा करना)+घञ्, कुत्व] १. बहुत ऊँचा। २. उग्र तीव्र ३. प्रधान। मुख्य। पुं० १. महादेव। शिव। २. बुध नामक ग्रह। ३. ज्योतिष में ग्रहों के उच्च होने की अवस्था। दे० उच्च। ४. चतुर व्यक्ति। ५. पर्वत। पहाड़। ६. पुन्नाग वृक्ष। ७. नारियल। ८. कमल का केसर। किंजल्क। ९. झुंड। समूह। १॰. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और दो गुरु होते हैं। ११. एक प्रकार का झाड़दार पेड़ जो पश्चिमी हिमालय में होता है। इसे आमी और एरंडी भी कहते हैं।
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तुंग-नाथ  : पुं० [मध्य० स०] हिमालय पर एक शिवलिंग और तीर्थस्थान।
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तुंग-नाभ  : पुं० [ब० स०] एक तरह का कीड़ा जिसके काट लेने पर शरीर में जलन होती है।
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तुंग-बाहु  : पुं० [ब० स०] तलवार चलाने का एक पुराना ढंग या प्रकार।
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तुंग-बीज  : पुं० [ष० त०] पारद। पारा।
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तुंग-भद्र  : पुं० [कर्म० स०] मतावाला हाथी।
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तुंग-मुख  : पुं० [ब० स०] गैंडा।
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तुंग-शेखर  : पुं० [ब० स०] पर्वत। पहाड़।
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तुंगक  : पुं० [सं० तुंग+कन्] १. पुन्नाग वृक्ष। नागकेसर। २. एक प्राचीन तीर्थ जहाँ सारस्वत मुनि ऋषियों को वेद पढ़ाते थे।
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तुंगभद्रा  : स्त्री० [सं० तुंग-भद्र+टाप्] दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध नदी जो सह्याद्रि पर्वत से निकलती है और कृष्णा नदी में मिलती है।
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तुंगरस  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का गंध-द्रव्य।
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तुगलक  : पुं० [अ०] १. सरदार। २. एक प्राचीन मुसलमान राजवंश जिसने मध्य युग में थोड़े समय के लिए भारत पर शासन किया था। मुहम्मद साह तुगलक इसी वंश के थे।
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तुंगला  : पुं० [देश०] एक तरह की छोटी झाड़ी।
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तुंगवेणा  : स्त्री० [सं०] तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम।
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तुंगा  : स्त्री० [सं० तुंग+टाप्] १. वंशलोचन। २. शमी वृक्ष। ३. तुंग नामक वर्णवृत्त।
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तुगा  : स्त्री० [सं०√तुज् (हिंसा)+घ–टाप्] वंशलोचन।
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तुगाक्षीरी  : स्त्री० [मयू० स०] वंशलोचन।
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तुंगारण्य  : पुं० [तुंग-अरण्य, कर्म० स०] झाँसी, ओड़छा आदि प्रदेशों के आस-पास के जंगलों का पुराना नाम।
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तुंगारन्न  : पुं०=तुंगारण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुंगारि  : पुं० [तुंग-अरि, ष० त०] सफेद कनेर का पेड़।
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तुंगिनी  : स्त्री० [सं० तुंग+इनि-ङीष्] महाशतावरी । बड़ी सतावर।
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तुंगिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० तुग+इमानितच्] ऊँचाई।
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तुंगी-नास  : पुं० [ब० स०] दे० ‘तुंगनाभ’।
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तुंगी-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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तुंगी(गिन्)  : वि० [सं० तुंग+इनि] ऊँचा पुं० उच्चस्थ ग्रह। स्त्री० [सं० तुंग+ङीष्] १. हल्दी। २. रात्रि। रात। ३. वनतुलसी। ममरी।
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तुंगीश  : पुं० [तुंगि-ईश, कर्म० स०] १. शिव। २. सूर्य। ३. कृष्ण।
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तुग्य  : पुं० [सं० तुग्र+यत्] तुग्र का वंशज। वि० तुग्र-संबंधी। तुग्र का।
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तुग्र  : पुं० [सं०√तुज्+रक्, कुत्व] वैदिक काल के एक राजर्षि जिन्होने अश्विनी कुमारों की उपासना की थी।
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तुच  : पुं० [सं० त्वच्] १. चमड़ा। २. छाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुचा  : स्त्री०=त्वचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुच्छ  : वि० [सं०√तुद् (पीड़ित करना)+किव्प, तुद्√छो (काटना+क] [भाव० तुच्छता] १. जो अंदर से खाली हो। खोखला। २. जिसमें कोई सत्व या सार न हो। निःसार। ३. जिसका कुछ भी महत्व, मान या मूल्य न हो। क्षुद्र। हीन। ४. अल्प। थोड़ा। पुं० १. अन्न के ऊपर का छिलका भूसी। २. तूतिया। ३. नील का पौधा।
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तुच्छक  : पुं० [सं० तुच्छ√कै (मालूम पड़ना)+क] एक तरह का काले और हरे रंग का मरकत जो घटिया माना जाता है।
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तुच्छता  : स्त्री० [सं० तुच्छ+तल्-टाप्] तुच्छ होने की अवस्था या भाव।
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तुच्छत्व  : पुं० [सं० तुच्छ+त्व] तुच्छता।
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तुच्छद्रु  : पुं० [कर्म० स०] रेंड़ का पेड़।
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तुच्छा  : स्त्री० [सं० तुच्छ+टाप्] १. नील का पौधा। २. छोटी इलायची। ३. नीला थोथा। तूतिया।
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तुच्छातितुच्छ  : वि० [तुच्छ-अतितुच्छ स० त०] तुच्छों में भी तुच्छ। अत्यन्त तुच्छ।
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तुच्छाधान्यक  : पुं० [कर्म० स०] भूसी। तुस।
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तुच्छार्थक  : वि० [सं० तुच्छ-अर्थ, ब० स० कप्] (शब्द का वह) विकृत रूप जो वस्तु या व्यक्ति के वाचक शब्द की तुलना में तुच्छता सूचित करनेवाला हो। तुच्छता के भाव से युक्त अर्थ देने या रखनेवाला। (डिमिन्यूटिव) जैसे–बात का तुच्छार्थक बतोला घोडा का तुच्छार्थक ‘घोड़वा’।
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तुछ  : वि०=तुच्छ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुंज  : पुं० [सं०√तुज् (हिंसा करना)+अच्] वज्र।
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तुंजाल  : पुं० [सं० तुरंग-जाल] घोड़ों की पीठ पर डाली जानेवाली एक तरह की जाली या जालीदार कपड़ा जिससे मक्खियाँ उन्हें तंग नही करने पातीं।
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तुंजीन  : पुं० [सं० तुंज+ख-ईन] प्राचीन का के कश्मीरी नरेशों की उपाधि।
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तुजीह  : स्त्री० [हिं०] धनुष।
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तुजुक  : पुं० [तु०] १. वैभव आदि की शोभा। शान। २. नियम। ३. प्रथा। ४. अभिनंदन। उदाहरण–भूषण भनत भौंसिला के आय आगे ठाढ़े बाजे भर उमराय तुजुक करन के।–भूषण।
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तुझ  : सर्व० [सं० तुभ्यम्, पा० तुटह, प्रा० तुज्झ] तू का वह रूप जो उसे द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, और सप्तमी के विभक्तियाँ लगने पर प्राप्त होता है। जैसे–तुझको तुजसे तुझमें आदि आदि।
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तुझे  : सर्व० [हिं० तुझ] तू का वह रूप जो उसे द्वितीया और चुतर्थी की विभक्तियाँ लगने पर प्राप्त होता है। तुझको। जैसे–(क) तुझे मारूगाँ। (ख) तुझे भी मिलेगा।
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तुट  : वि० [सं० त्रुट-टूटना] बहुत थोड़ा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुटितुट  : पुं० [सं०] शिव।
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तुट्ठना  : स० [सं० तुष्ट, प्रा० तुट्ठ] तुष्ट या प्रसन्न करना। अ० तुष्ट या प्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुठना  : अ० [सं० तुष्ट] संतुष्ट होना। उदाहरण–तुठी सारदा त्रिभुवन भाई।–नरपति नाल्ह। स० संतुष्ट करना।
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तुंड  : पुं० [सं०√तुंड (तोड़ना)+अच्] १. मुख। मुँह। २. चोच। ३. कुछ बड़ा तथा आगे निकला हुआ मुँह। थूथन। ४. तलवार का अगला भाग। ५. शिव। ६. एक राक्षस।
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तुंडके-शरी  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक के अनुसार तालु में होनेवाली एक तरह की सूजन (रोग)।
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तुंडकेरिका  : स्त्री० [सं० तुंडकेरी+कन्-टाप्, हृस्व] कपास का पौधा।
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तुंडकेरी  : स्त्री० [सं० तुंड+कन्√ईर् (प्रेरित करना)+अण्-ङीष्] १. कपास। २. बिंबाफल। कुंदरू।
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तुड़वाई  : स्त्री० [हिं० तुड़वाना] तुड़वाने की क्रि० या, भाव या मजदूरी।
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तुड़वाना  : स० [हिं० ‘तोड़ना’ का प्रे०] १. किसी को कोई चीज तोड़ने में प्रवृत्त करना। तुड़ाना। २. बड़े सिक्के को उतने ही मूल्य के छोटे-छोटे सिक्कों में बदलवाना। भुनाना।
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तुड़ाई  : स्त्री० [हिं० तोड़ना] तोड़ने की क्रिया, भाव या मजदूरी। स्त्री०=तुड़वाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुड़ाना  : स० [हिं० तोड़ना का प्रे०] १. तोड़ने का काम कराना। तुड़वाना। २. बन्धन तोड़कर उससे अलग या मुक्त होना। जैसे–गौ रस्सा तुड़ाकर भाग गई। ३. सम्बन्ध-विच्छेद करके अलग करना। जैसे–बच्चे को माँ से तुड़ाना, अर्थात् अलग या दूर करना। जैसे–नोट या रुपए तुड़ाना। ५. कुछ खरीदने के समय चीज का दाम कम कराना।
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तुंडि  : स्त्री० [सं०√तुंड्+इन्] १. नाभि। २. बिंबाफल। कुंदरू। ३. दे० ‘तुंड’।
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तुंडिक  : वि० [सं० तुंडि√कै (शब्द करना)+क] जिसका मुँह आगे की ओर निकला हो। थूथनवाला।
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तुंडिका  : स्त्री० [सं० तुंड+कन्-टाप्] १. टोंटी। २. बिंबाफल। कुंदरू। ३. चोंच। ४. गले के अंदर की जड़ के पास की दो अंडाकार ग्रंथिया। कौआ। घंटी। (टांसिल्स)।
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तुंडिका-शोध  : पुं० [ष० त०] तुंडिका अर्थात् घंटी में होनेवाली सूजन। (टाँन्सिलाइटिस)
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तुंडिकेशी  : स्त्री० [सं० पृषो० सिद्धि] कुंदरू।
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तुडिभ  : वि० [सं० तुंडि+भ] जिसकी तोंद या नाभि आगे निकली तथा बढ़ी हुई हो।
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तुंडिल  : वि० [सं० तुडि+लच्] १. तोंद या निकले हुए पेटवाला। तोंदिल। २. जिसकी नाभि मोटी और बाहर निकली हुई हो।
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तुडी  : स्त्री० [सं०√तुण् (तोड़ना)+इन–ङीप्] एक प्रकार की रागिनी। (कदाचित् आधुनिक टोड़ी)।
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तुंडी-गुद-पाक  : पुं० [सं० तुंडी-गुद, द्व० स० तुंडीगुद+पाक, स० त०] एक रोग जिसमें नाभि और गुदा दोनों में सूजन हो जाती है।
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तुंडी(डिन्)  : वि० [सं० तुंड+इनि] १. तुंडवाला। तुंड से युक्त। २. चोंचवाला। ३. थूथनवाला। पुं० गणेश। स्त्री० [सं० तुंडि+ङीष्] ढोंढ़ी। नाभि।
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तुंडीर-मंडल  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश जो दक्षिण में था।
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तुडुम  : पुं० [सं० तुरम] तुरही। बिगुल।
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तुणि  : पुं० [सं०√तुण् (संकोच)+इन्] तुन का पेड़।
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तुतरा  : वि० [स्त्री० तुतरी]=तोतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुतराना  : अ०=तुतलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुतरौहाँ  : वि०=तोतला। उदाहरण–बोलत है बतिया तुतरौंही चलि चरननि न सकात।–सूर।
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तुतला  : वि० [स्त्री० तुतली]=तोतला।
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तुतलाना  : अ० [सं० त्रट्=टूटना वा अनु० अथवा हिं तोट] १. कंठ और जीभ में किसी प्रकार का प्राकृतिक विकार होने के कारण कोई शब्द कहने से पहले तुत् तुत् शब्द निकलना। २. बोलने में शब्द का मुँह से रुक-रुक कर तथा अस्पष्ट रूप से निकलना।
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तुतुई  : स्त्री०=तुतुही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुतुही  : स्त्री० [सं० तुंड] मिट्टी की एक तरह की छोटी झारी।
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तुत्थ  : पुं० [सं०√तुद् (पीड़ित करना)+थक्] तूतिया। नीला थोथा।
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तुत्थक  : पुं० [सं० तुत्थ+कन्]=तुत्थ।
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तुत्था  : स्त्री० [सं० तुत्थ+टाप्] १. नील का पौधा। २. छोटी इलायची।
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तुत्थांजन  : पुं० [सं० तुत्थ-अंजन, कर्म० स०] तूतिया। नीलाथोथा।
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तुत्यों  : अ० य०=त्यों त्यों। उदाहरण–तुल्यों गुलाल झुठी मुठी झझकावत पिय जात–बिहारी।
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तुंद  : पुं० [सं०√तुद् (व्यथा)+दन्, नुम्] उदर। पेट। वि० [फा०] तीव्र। तेज। प्रचंड। जैसे–तुंद हवा।
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तुदन  : पुं० [सं०√तुद्+ल्युट–अन] १. कष्ट या व्यथा देने की क्रिया। पीड़न। २. गड़ाने या चुभाने की क्रिया। ३. कष्ट। ४. पीड़ा।
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तुंदि  : पुं० [सं०√तुंद्+इन्, नुम्] १. नाभि। २. एक गंधर्व का नाम।
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तुंदिक  : वि० [सं० तुद+ठन्-इक] जिसकी तोंद निकली या बढ़ी हुई हो। तोंदिल।
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तुंदिक-फला  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] खीरे की बेल।
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तुंदिका  : स्त्री० [सं० तुंदिक+टाप्] नाभि।
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तुंदित, तुंदिभ  : वि० [सं० तुंद+इतच्, तुंदि+भ] तुंदिल (दे०)।
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तुँदियाना  : अ० [हिं० तोंद] तोंद बढ़ना। स० तोंद बढ़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुंदिल  : वि० [सं० तुंद+इलच्] जिसकी तोंद निकली या बढ़ी हुई हो।
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तुंदिलीकरण  : पुं० [सं० तुदिल+च्वि, इत्व,दीर्घ√कृ+ल्युट-अन] १. फुलाना। २. बढ़ाना।
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तुंदी  : स्त्री० [सं० तुन्द+ङीष्] नाभि।
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तुंदैल  : वि०=तुंदिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुंदैला  : वि०=तुंदिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुन  : पुं० [अनु०] तुन तुन शब्द। मुहावरा–तुन फुन करना-किसी बात में सहमत न होने पर कुछ रोप दिखाते हुए आना-कानी करना। पुं० तूनी नामक वृक्ष।
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तुनक  : वि० [फा०] १. दुर्बल। कमजोर। २. नाजुक। कोमल। ३. हलका। सूक्ष्म। स्त्री० [हिं० तुनकना] १. तुनकने की क्रिया या भाव। २. गुड्डी या पतंग उड़ाते समय डोर या नख को दिया जानेवाला झटका।
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तुनक-मिजाज  : वि० [फा०] [भाव० तुनकमिजाजी] जो बात-बात पर अप्रसन्न या रुष्ट हो जाता हो अथवा बिगड़ या रूठ जाता हो।
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तुनकना  : अ० [फा० तुनक०] छोटी सी बात अप्रसन्न या रूष्ट होना। वि० तुनक मिजाज। [देश०] उँगली से डोर को झटका देना।
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तुनकामौज  : पुं० [फा० तुनक=छोटा+मौज=लहर] छोटा समुद्र।
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तुनकी  : स्त्री० [फा०] १. तुनक (अर्थात् कोमल, दुबले या हलके) होने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार की खस्ता रोटी।
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तुनतुनी  : स्त्री० [अनु०] १. एक प्रकार का बाजा जिसमें से तुन तुन शब्द निकलता है। २. सारंगी। (परिहास और व्यंग्य।)
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तुनना  : स०=धुनना। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुनी  : स्त्री० [हिं० तुन] तूनी का पेड़।
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तुनीर  : पुं०=तूणीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुनुक  : वि० स्त्री०=तुनक।
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तुन्न  : वि० [सं०√तुद्+क्त] कटा या फटा हुआ। पुं० १. कपड़े का टुकड़ा। २. तुन नाम का पेड़।
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तुन्नवाय  : पुं० [सं० तुन्न√वे (सीना बुनना)+अण्] दरजी।
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तुपक  : स्त्री० [तु० तोप०] १. छोटी तोप। २. पुरानी चाल की बन्दूक। कड़ाबीन।
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तुपकची  : पुं० [हिं० तुपक] वह जो छोटी तोप या बन्दूक चलाता हो।
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तुफ  : पुं० [फा०] १. मुँह की थूक या लार। २. उक्त के आधार पर धिक्कार, लानत जैसे–तुफ है तुम्हारे मुँह पर, अर्थात् थुड़ी है या तुम इस योग्य हो कि लोग तुम्हारे मुँह पर थूकें।
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तुफंग  : स्त्री० [तु० तोप, हिं० तुपक] १. प्राचीन काल की वह नली जिसमें मिट्टी की गोलियाँ लोहे के छोटे टुकड़े आदि भरकर जोर से फूँककर दूसरों पर चलाए या फेंकें जाते थे। २. हवाई बन्दूक।
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तुफान  : पुं०=तूफान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुफैल  : पुं० [अ० तुफ़ैल] किसी के अनुग्रह या कृपा के द्वारा प्राप्त होने वाला साधन। जैसे–मेरी सारी योग्यता (या विद्या) आप के ही तुफैल से है।
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तुंब  : पुं० [सं०√तुंब् (नष्ट करना)+अच्] १. धीया। लौकी। २. सुखाई हुई लौकी का तूंबाँ।
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तुबक  : पुं०=तुपक।
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तुंबड़ी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी लकड़ी अंदर से सफेद और चिकनी होती तथा मकानों में लगती है। स्त्री०=तूंबड़ी।
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तुंबर  : पुं० [सं० तुंब√रा (लाना)+क] तुंबुरु। (दे०)।
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तुंबरी  : स्त्री० [सं० तुम्बर+ङीप्] एक कदन्न।
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तुंबवन  : पुं० [सं०] दक्षिण दिशा का एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)
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तुंबा  : पुं० [सं० तुंब+टाप्] [स्त्री० अल्पा० तुंबी] १. कडुआ कद्दू। गोल कडुआ धीया। तूंबा। २. सुखाये हुए कड़ुए कद्दू को बीच में से काट कर बनाया हुआ कटोरे के आकार का पात्र। ३. एक प्रकार का जंगली धान जो जलाशयों के किनारे होता है।
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तुंबिका  : स्त्री० [सं०√तुंब्+ण्वुलअक, टाप्, इत्व]=तुंबी।
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तुंबी  : स्त्री० [सं०√तुंब्+इन्-ङीष्] १. छोटा कड़ुवा कद्दू। तितलौकी। २. उक्त को सुखाकर बनाया हुआ पात्र। छोटा तूंबा।
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तुंबुक  : पुं० [सं०√तुंब् (पीड़ित करना)+उक्] कद्दू का फल। धीया।
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तुंबुरी  : स्त्री० [सं० तुंब√रा+क-ङीष्, पृषो० उत्व] १. धनिया। २. कुतिया।
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तुंबुरु  : पुं० [सं०=तुंबर, पृषो० सिद्धि] १. धनिया। २. चैत्र मास में सूर्य के रथ पर रहनेवाला एक गंधर्व जो बहुत बड़ा संगीतज्ञ कहा गया है। ३. धनिये की तरह के एक प्रकार के बीज जो बहुत झालदार या तीखे स्वादवाले होते हैं।
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तुभना  : अ० [सं० स्तुभ, स्तोभन] स्तब्ध होना।
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तुम  : सर्व० [सं० त्वम्] ‘तू’ शब्द का वह बहुवचन रूप जिसका व्यवहार संबोधित व्यक्ति के लिए होता है तथा जो कहनेवाले की तुलना में छोटा या बराबरी का होता है। जैसे–तुम भी साथ चल सकते हों।
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तुमड़ी  : स्त्री०=तूँबड़ी।
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तुमतड़ाक  : स्त्री०=तूमतड़ाक।
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तुमरा  : सर्व०=तुम्हारा।
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तुमरी  : स्त्री०=तूँबड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुमरू  : पुं०=तुँबुरू।
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तुमल  : पुं० वि०=तुमुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुमाना  : स० [हिं० ‘तूमना’ का प्रे०] किसी को कुछ तूमने में प्रवृत्त करना।
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तुमारा  : सर्व०=तुम्हारा।
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तुमुती  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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तुमुल  : पुं० [सं०√तु(हिंसा करना)+मुलन्] १. सेना का कोलाहल। लड़ाई की हलचल। २. सेना की भिड़त। ३. बहेड़ें की पेड़। वि० बहुत उत्कट तीव्र या विकट। घोर। प्रचंड। जैसे– तुमुल ध्वनि।
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तुमुली  : स्त्री० [?] पुरातत्व में एक दूसरे पर चुने हुए पत्थरों का वह ढेर या स्तूप जो प्रायः किसी स्थान की विशेषता या समाधि-स्थल आदि सूचित करने के लिए बनाया जाता था। (केयर्न)।
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तुम्ह  : सर्व०=तुम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुम्हारा  : सर्व० [हिं० तुम] [स्त्री० तुम्हारी] तुम का षष्ठी की विभक्ति लगने पर बननेवाला रूप। जैसे–तुम्हारा भाई।
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तुम्हीं  : सर्व०=तुमही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुम्हें  : सर्व० [हिं० तुम] ‘तुम’ का वह विभक्तियुक्त रूप जो उसे द्वितीय और चतुर्थी लगने पर प्राप्त होता है। जैसे–तुम्हें पकड़ूँगा या दूँगा।
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तुर  : अव्य० [सं०√तुर् (जल्दी करना)+क] शीघ्र। जल्द। वि० बहुत तेज चलनेवाला। वेगवान। शीघ्रगामी। पुं० [?] १. करघे की वह मोटी लकड़ी जिस पर बुना हुआ कपड़ा लपेटा जाता है। २. वह बेलन जिस पर बुना हुआ गोटा लपेटा जाता है।
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तुरई  : स्त्री० [सं० तूर-तुरही बाजा] तोरी नाम की बेल जिसके लंबे फलों की तरकारी बनाई जाती है। तोरी। पद–तुरई के फूल सा=(क) बहुत ही कोमल और हलका। (ख) जिसका कोई विशेष महत्त्व, मान या मूल्य न हो। जैसे–तुरई के फूल-से इतने रुपए उड़ गये, पर काम कुछ भी न हुआ। स्त्री०=तुरही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरक  : पुं०=तुर्क।
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तुरकटा  : पुं० [फा० तुर्क+हिं० टा (प्रत्यय)] मुसलमान। (उपेक्षा तथा घृणा सूचक)।
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तुरकान  : पुं० [फा० तुर्क] १. तुर्क देश। २. तुर्की की बस्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरकाना  : पुं० [फा० तुर्क०] मुसलमान। वि० तुर्कों का-सा।
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तुरकिन  : स्त्री० [फा० तुर्क] १. तुर्क जाति की स्त्री।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २. मुसलमान स्त्री।
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तुरकिस्तान  : पुं०=तुर्की (देश)।
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तुरकी  : वि० [फा०] तुर्क देश का। पुं० पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध देश। तुर्की। स्त्री० उक्त देश की भाषा।
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तुरंग  : वि० [सं० तुर√गम् (जाना)+ख, मुम्] जल्दी करनेवाला। पुं० १. घोड़ा। २. चित्त या मन जो बहुत जल्दी हर जगह पहुँच सकता है। ३. सात की संख्या।
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तुरग  : वि० [सं० तुर√गम् (जाना)+ड] तेज चलनेवाला। पुं० १. घोड़ा। २. चित्त। मन।
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तुरग-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] अश्वगंधा। असगंध।
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तुरंग-गौड़  : पुं० [सं० कर्म० स० ?] संगीत में गौड़ राग का एक भेद।
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तुरग-दानव  : पुं० [मध्य०.स०] एक दैत्य जो कंस के आदेशानुसार घोड़े का रूप धारण करके कृष्ण को मारने गया था।
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तुरंग-द्वेषिणी  : स्त्री० [सं० तुरंग√द्विष् (द्वेष करना)+णिनि=ङीप्] भैंस। महिषी।
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तुरग-ब्रह्मचर्य  : पुं० [ष० त०] वह ब्रह्मचर्य जो केवल स्त्री की अप्राप्ति के कारण चलता हो।
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तुरंग-वक्त्र  : वि० [ब० स०] जिसका मुँह घोड़े के मुँह की तरह लंबा हो। पुं० किन्नर।
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तुरंग-वदन  : पुं० [ब० स०] किन्नर।
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तुरंग-शाला  : स्त्री० [ष० त०] घुड़सवार। अस्तबल।
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तुरंगक  : पुं० [सं० तुरंग√कै (शब्द करना)+क] बड़ी तोरी (फल)।
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तुरंगप्रिय  : पुं० [ष० त०] जौ। यव।
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तुरंगम  : वि० [सं० तुर√गम् (जाना) खच्, मुम्] जल्दी चलनेवाला। पुं० १. घोड़ा। २. चित्त। मन। ३. एक वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और दो गुरु होते हैं।
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तुरंगमी(मिन्)  : पुं० [सं० तुरङम+इनि] अश्वारोही। घुड़सवार।
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तुरंगारि  : पुं० [तुरंग-अरि, ष० त०] १. कनेर। करवीर। २. भैंसा।
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तुरगारोह  : पुं० [सं० तुरग+आ√रूह् (चढ़ना)+अच्] अश्वारोही।
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तुरगास्तरण  : पुं० [सं० तुरग-आस्तरण, मध्य० स] घोड़े की पीठ पर बिछाया जानेवाला कपड़ा। पलान।
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तुरंगिका  : स्त्री० [सं० तुरंग+ठन्-इक] देवदाली। घघरबेल।
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तुरंगी  : स्त्री० [सं० तुरंग+अच्-ङीष्] अश्वगंधा। असगंध।
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तुरगी  : स्त्री० [सं० तुरग+ङीष्] १. घोड़ी। २. [तुरग+अच्-ङीष्] अश्वगंधा या असगंध नाम की ओषधि। पुं० [सं० तुरग+इनि] घुड़सवार।
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तुरगुला  : पुं० [देश०] १. कान में पहनने का झुमका। २. लटकन लोलक।
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तुरगोपचारक  : पुं० [सं० तुरग-उपचारक, ष० त०] साईस।
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तुरंज  : पुं० [फा० तुरुंज] १. चकोतरा। नीबू। २. बिजौरा नीबू। ३. सूई-धागे से कपड़े पर बनाई जानेवाली एक तरह की बूटी।
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तुरंजबीन  : स्त्री० [फा०] १. एक प्रकार की चीनी जो खुरासान देश में प्रायः ऊँटकटार के पौधों पर ओस के साथ जमती है। २. नीबू के रस का शरबत। शिकंजवी।
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तुरंत  : क्रि० वि० [सं० तुर-वेग, जल्दी] १. ठीक इसी समय। २. जितनी जल्दी हो सके। जल्दी के जल्दी।
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तुरत  : अव्य०=तुरंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरंता  : पुं० [हिं० तुरंत] गाँजा (जिसका नशा पीते ही तुरंत चढ़ता है।)।
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तुरतुरा  : वि० [सं० त्वरा] [स्त्री० तुरतुरी] १. वेगवान। तेज। २. जल्दबाज। ३. जल्दी-जल्दी या तेज बोलनेवाला।
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तुरतुरिया  : वि०=तुरतुरा।
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तुरपई  : स्त्री० [हिं० तुरपना] एक प्रकार की सिलाई। तुरपन।
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तुरपन  : स्त्री० [हिं० तुरपन] १. तुरपने की क्रिया या भवा। २. सीयन।
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तुरपना  : स० [हिं० तूर-नीचे+पर-ऊपर+ना (प्रत्यय)०] १. सूई धागे से बड़े-बड़े और कच्चे टाँके लगाना। तोपे भरना या लगाना। २. सीना।
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तुरपवाना  : स० [हिं० तुरपना का प्रे०] तुरपने का काम किसी के कराना।
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तुरपाना  : स०=तुरपवाना।
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तुरबत  : स्त्री० [अ० तुर्बत] कब्र।
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तुरंबीन  : स्त्री० [?] भवासे की जड़ की शर्करा जो दवा के काम आती है तथा जो वैद्यक में ज्वरहर तथा अग्निप्रदीपक मानी जाती है और पुरानी होने पर दस्तावर होती है।
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तुरम  : पुं० [सं० तूरम] तुरही।
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तुरमती  : स्त्री० [तु० तुरमता] एक प्रकार की शिकारी चिड़िया।
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तुरमनी  : स्त्री० [देश०] नारियल की खोपड़ी रेतने की एक तरह की रेती।
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तुरय  : पुं० [सं० तुरग] [स्त्री० तुरी] घोड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुररा  : पुं०=तुर्रा।
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तुरसीदास  : पुं० [सं०] मध्यकाल के एक प्रसिद्ध सगुणोपासक भक्त कवि जिन्होंने रामचरितमानस विनय-पत्रिका आदि बारह ग्रंथ रचे थे।
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तुरसीला  : वि० [फा० तुर्का-खट्टा] १. तीखा। २. घायल करनेवाला। उदाहरण–करधनी शब्द हैं तुरसीले ।–नारायण स्वामी।
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तुरही  : स्त्री० [सं० तूर] फूँककर बजाया जानेवाला एक तरह का लंबा बाजा।
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तुरा  : पुं० [सं० तुरग] घोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० तूरा] जल्दी। शीघ्रता। पुं० तुर्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुराई  : अव्य० [हिं० तुराना] १. आतुरतापूर्वक। २. जल्दी से।
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तुराई  : स्त्री० [सं० तूल-रूई, तूलिका-गद्दा] १. रूई भरा हुआ गुदगुदा बिछावन। गद्दा। तोसक। २. ओढ़ने की हलकी रजाई। तुलाई। दुलाई।
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तुराट  : पुं० [सं० तुरग] घोड़ा। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुराना  : अ० [सं० तुर] १. आतुर होना। २. जल्दी मचाना। स०=तुड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरायण  : पुं० [सं०√तुर् (शीघ्रता)+क, तुर+फक्-आयन] चैत्र शुक्ल पंचमी और वैशाख शुक्ल पंचमी को होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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तुरावत  : वि० [सं० त्वरावत्] [स्त्री० तुरावती] वेगपूर्वक चलनेवाला।
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तुरावान  : वि०=तुरावत।
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तुराषाट्  : पुं० [सं० तुर√सह् (सहना)+णिच्+क्विप्, दीर्घ] इन्द्र।
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तुरास  : पुं० [सं० तुर] वेग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि० १. वेगपूर्वक। २. जल्दी से।
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तुरासाह  : पुं०=तुराषाट्।
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तुरिया  : वि० स्त्री०=तुरीय। स्त्री० दे० ‘तोरिया’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरी  : स्त्री० [सं० तुरगी] १. घोड़ी। २. घोड़े की लगाम पुं० घुड़सवार। स्त्री० [सं० त्वरा] जल्दबाजी। शीघ्रता। वि० स्त्री० जल्दी या तेज चलनेवाली। स्त्री०[ अ० तुर्रा] १. फूलों का गुच्छा। २. मोतियों सूतों आदि का वह झब्बा जो सोभा के लिए पगड़ी आदि में लगाया जाता है। ३. जुलाहों की वह कूँची जिससे वे ताने के सूत बराबर करते हैं। स्त्री०=तुरही।
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तुरी-यंत्र  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिसके द्वारा सूर्य की गति जानी जाती है।
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तुरीय  : वि० [सं० चतुर+छ–ईय, चलोप] चतुर्थ। चौथा। स्त्री० १. वाणी का वह रूप या अवस्था जब वह मुँह से उच्चरित होती है। बैखरी। २. प्राणियों की चार अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था जो ब्रह्म में होनेवाली लीनता या मोक्ष है। (वेदान्त)। पुं० निर्गुण ब्रह्म।
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तुरीय-वर्ण  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो चौथे वर्ण का अर्थात् शूद्र हो पुं० शूद्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरुक  : पुं०=तुर्क।
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तुरुप  : पुं० [अं० ट्रप] कुछ विशिष्ट ताश के खेलों में वह रंग जो प्रधान मान लिया जाता है तथा जिसके छोटे से छोटा पत्ता दूसरे रंग के बड़े से बडे पत्ते को काट या माल सकता है। पुं० [अं० ट्रप=सेना] १. सेना की टुकड़ी या दास्ता। २. घुड़सवारों का रिसाला।
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तुरुपना  : स०=तुरपना।
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तुरुष्क  : पुं० [सं० तुरुस्+कन्] १. तुर्किस्तान का रहनेवाला व्यक्ति। २. तुर्क देश में बसनेवाली जाति। तुर्क। ३. तुर्किस्तान या तुर्की देश। ४. उक्त देश का घोड़ा। ५. लोबान जो पहले उक्त देश से आता था।
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तुरुष्क-गौड़  : पुं०=तुरंग गौड़।
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तुरुही  : स्त्री०=तुरही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुरै  : पुं० [सं० तुरंग] घोड़ा। उदाहरण–जोबन तुरै हाथ गहि लीजै।–जायसी।
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तुरैया  : स्त्री०=तोरी।
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तुर्क  : पुं० [सं० तुरुष्क से तु०] १. तुर्किस्तान का निवासी। २. मुसलमान। ३. सैनिक।
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तुर्क-चीन  : पुं० [?] सूर्य।
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तुर्क-सवार  : पुं० [फा० तुर्क+फा० सवार] घुड़सवार।
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तुर्कमान  : पुं० [फा० तुर्क] १. तुर्क जाति का व्यक्ति। २. तुर्की घोड़ा जो बहुत बढ़िया होता है।
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तुर्किन  : स्त्री०=तुरकिन।
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तुर्किनी  : स्त्री०=तुरकिन।
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तुर्किस्तान  : पुं० [फा०] पश्चिमी एशिया का एक राज्य जहाँ तुर्क जाति रहती है।
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तुर्की  : वि० [फा०] तुर्किस्तान का। तुर्किस्तान में होनेवाला। जैसे–तुर्की घोड़ा। पुं० १. तुर्किस्तान देश। २. तुर्किस्तान का घोड़ा। स्त्री० १. तुर्किस्तान की भाषा। २. तुर्की की सी ऐंठ,शान या शेखी। अकड़। मुहावरा–(किसी को) तुर्की-बतुर्की जबाब देना-किसी के उग्र या तीव्र कथन या व्यवहार का वैसा ही उत्तर देना। (किसी की) तुर्की तमाम होना-अकड़ ऐंठ या घमंड नष्ट या समाप्त होना।
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तुर्की-टोपी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की गोलाकार ऊँची या कुछ लंबी और फूँदनेदार टोपी जो पहले तुर्क लोग पहना करते थे।
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तुर्फरी  : पुं० [सं०√तृफ्+हिंसा करना)+अरी(बा०)] अंकुश का अगला नुकीला सिरा।
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तुर्य  : वि० [सं० चतुर+यत्, च का लोप] १. चौथा। २. चौगुना।
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तुर्या  : स्त्री० [सं० तुर्य+टाप्] प्राणियों की चार अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था जो ब्रह्म में होनेवाली लीनता या मोक्ष है। (वेदांत)।
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तुर्याश्रम  : पुं० [सं० तुर्य-आश्रम, कर्म० स] चौथा आश्रम। संन्यास।
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तुर्रा  : पुं० [अ० तुरः] १. घुँघराले बालों की लट जो इधर-उधर या माथे पर लटकती है। काकुल। २. कुछ पक्षियों के सिर पर की परों या बालों की चोटी। कलगी। ३. टोपी, पगड़ी आदि में खोंसा या लगाया जानेवाला पक्षियों का सुदंर पर, फूलों का गुच्छा अथवा बादले, मोतियों आदि का लच्छा। कलगी। गोशवारा। ४. किसी चीज या बात में होनेवाली ऐसी विलक्षण विशेषता जो उस चीज या बात को दूसरी चीजों या बातों से भिन्न और श्रेष्ठ सिद्ध करती हो। विशेष–परिहास या व्यंग्य में इस शब्द का प्रयोग अनोखी असंबद्धता सूचित करने के लिए होता है। जैसे–जबरदस्ती हमारी किताब भी उठा ले गये, तिस पर तुर्रा यह कि हमें ही चोर (या झूठा) बनाते हैं। ५. किसी चीज में लगाया हुआ सुंदर किनारा या हाशिया। ६. मकान का छज्जा। ७. कोड़ा। चाबुक। मुहावरा–तुर्रा करना=(क) कोड़ा या चाबुक मारना। (ख) उत्तेजित या प्रोत्साहित करना। ८. एक प्रकार की बुलबुल जो जाड़े भर भारतवर्ष के पूर्वीय भागों में रहती है, पर गरमी में चीन और साइबेरिया की ओर चली जाती है। ९. एक प्रकार की बटेर। डुबकी। १॰. जटाधारी या मुर्गकेश नाम का पौधा और उसका फूल। गुलतर्रा। ११. मुहांसे आदि का ऊपरी नुकीला भाग। कील। वि० [फा०] अनोखा। विलक्षण। पुं० [?] दूध, भाँग आदि का थोड़ा-थोड़ा करके लिया जानेवाला घूँट। (क्व०) मुहावरा–तुर्रा चढ़ाना या जमाना-खूब ढेर सी भाँग पीना।
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तुर्वसु  : पुं० [सं०] राजा ययाति का एक पुत्र जो देवयानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसने पिता के माँगने पर उसे अपना यौवन नहीं दिया था।
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तुर्श  : वि० [फा०] [भाव० तुर्शी] खट्टा।
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तुर्शरू  : वि,० [फा०] तीखे मिजाजवाला। कटु-भाषी।
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तुर्शाई  : स्त्री०=तुर्शी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुर्शाना  : अ० [फा० तुर्श] खट्टा हो जाना। स० खट्टा करना या बनाना।
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तुर्शी  : स्त्री० [फा०] १. तुर्श होने की अवस्था या भाव। अम्लता। खट्टापन। २. खटाई।
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तुर्शीदंदाँ  : स्त्री० [फा०] घोड़ों का एक योग जिसमें उसके दाँतों पर मैल जमने लगती है।
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तुल  : वि०=तुल्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुलक  : पुं० [?०] राज-मंत्री।
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तुलन  : पुं० [सं०√तुल् (तौलना)+ल्युट–अन] तुलने या तौलने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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तुलना  : अ० [हिं० तौलना का अ०] १. काँटे तराजू आदि पर रखकर तौला जाना। २. भार या मान का हिसाब लगाया जाना या विचार होना। ३. उक्त प्रकार का विचार होने या हिसाब लगने पर किसी की बराबरी का या किसी के समान ठहरना। ४. किसी की बराबरी में होकर या उसके साथ अच्छी तरह मिलकर उसी के समान हो जाना। उदाहरण–सौकन ने पायजामा पहना है गुल-बदन का। फूलों में तुल रहा है, कांटा मेरे चमन का।–जानसाहब। ५. किसी आधार पर इस प्रकार ठहरना कि आधार से बाहर निकला हुआ कोई भाग अधिक बोझ के कारण किसी ओर झुका न हो। ठीक अंदाज के साथ टिकना। जैसे–बाइसिकल पर तुलकर बैठना। ६. अस्त्र शस्त्र आदि का इस प्रकार ठीक स्थान पर और ऐसे अन्दाज या हिसाब से स्थित होना कि वह लक्ष्य तक पहुँचकर अपना ठीक और पूरा काम करे। ७. कोई काम करने के लिए पूरी तरह से कटिबद्ध या सन्नद्ध होना। जैसे–किसी के साथ झगड़ा करने पर तुलना। संयो० क्रि०–जाना। ८. किसी चीज या बात की ठीक-ठीक अनुमान या कल्पना होना। ९. किसी चीज में पूरी तरह से भरा जाना। अ० [हिं० तूलना का अ०] गाड़ी के पहिए का औंगा जाना या उसमें तेल दिया जाना। तूला जाना। स्त्री० [सं०√तुल्+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. दो या अधिक वस्तुओं के गुण, मान आदि के एक दूसरे से घट या बढ़कर होने का विचार। मिलान। तारतम्य। २. बराबरी। समता। ३. सादृश्य। ४. उपमा। ५. तौल। वजन। ६. गणना। गिनती।
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तुलनात्मक  : वि० [सं० तुलना-आत्मन्, ब० स० कप्] जिसमें दो या कई चीजों के गुणों की समानता और असमानता दिखलाई गई हो। जिसमें किसी के साथ तुलना करते हुए विचार किया गया हो। जैसे–कबीर और नानक का तुलनात्मक अध्ययन।
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तुलनी  : स्त्री० [सं० तुला] तराजू या काँटे की सूई में का दोनों तरफ का लोहा
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तुलनीय  : वि० [सं०√तुल्+अनीयर] तुलना किये जाने के योग्य। जिसकी या जिससे तुलना कि जा सके।
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तुलबुली  : स्त्री० [अनु०] जल्दबाजी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुलवाई  : स्त्री० [हिं० तौलवाना, तुलना] १. तौलाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. दे० ‘तुलाई’। ३. पहियों को औंगने या तूलने (उनमें तेल देने) का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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तुलवाना  : स० [हिं० तौलना का प्र० रूप] [स्त्री० तुलवाई] १. किसी को कुछ तौलने में प्रवृत्त करना। २. गाड़ी के पहिए की धुरी में तेल दिलाना। औंगवाना।
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तुलसारिणी  : स्त्री० [सं० तुर√स् (जाना)+णिनि-ङीष्, र-ल] तूणीर।
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तुलसी  : स्त्री० [सं० तुला√सो (नष्ट करना)+क-ङीष्, पररूप] १. एक प्रसिद्ध पौधा जो बहुत पवित्र माना गया है और जिसकी पत्तियों में तीक्ष्ण गंध होती है। यह काली और धौली दो प्रकार की होती है। २. उक्त पौधे की पत्ती जो अनेक प्रकार के रोगों की नाशक तथा कफ और पित्त तथा अग्नि प्रदीपक, हृदय को हितकारी पित्त को बढ़ानेवाली मानी जाती है। ३. उक्त के बीज जो ढांस को कम करने तथा शुक्र को गाढ़ा करते हैं। पुं० गोस्वामी तुलसीदास (हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि)।
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तुलसी दल  : पुं० [ष० त०] तुलसी के पौधे का पत्ता। तुलसी पत्र।
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तुलसी पत्र  : पुं० [ष० त०] तुलसी का पत्ता।
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तुलसी-द्वैष  : स्त्री० [सं० तुलसी√द्विष (द्वेष करना)+अण्–टाप्] बन–तुलसी। बर्बरी। ममरी।
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तुलसी-वन  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पर तुलसी के बहुत अधिक पौधे हों। तुलसी का जंगल। २. वृंदावन।
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तुलसी।  :
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तुलसीघरा  : पुं० [सं० तुलसी+हिं० घर] आँगन के मध्य का वह स्थान जहाँ कुछ हिदू घरों में तुलसी के पौधे लगे होते हैं।
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तुलसीदाना  : पुं० [हिं० तुलसी+फा० दाना] एक तरह का आभूषण।
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तुलसीबास  : पुं० [हिं० तुलसी+बास-महक] एक तरह का अगहनी धान जिसकी चावल सुंगधित होता है।
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तुला  : स्त्री० [सं०√तुल् (तोलना)+अङ्-टाप्] १. सादृश्य का मिलान। तुलना। २.चीजों का भार तौलने का तराजू। काँटा। पद–तुला दंड–। ३. भार का मान। तौल। ४. अनाज नापने का बरतन। भाँड। ५. प्राचीन काल की एक तौल जो १॰॰ पल या लगभग ५ सेर की होती थी। ६. ज्योतिष की बारह राशियों में से सातवीं राशि जिसके तारों की आकृति बहुत कुछ तराजू की तरह होती है। ७. प्राचीन वास्तु कला में, खंभे का एक विशिष्ट अंश या विभाग। ८. दे० ‘तुला परीक्षा’।
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तुला-कूट  : पुं० [ष० त०] १. इस प्रकार कोई चीज तौलना कि वह तुला पर अपने उचित तौल के क्रम चढ़े। तौलने में धोखेबाजी या बेईमानी करना। २. इस तरह तौलने में होनेवाली कमी या कसर। वि० [सं० तुला√कूट् (निन्दा करना)+घञ्] तौल में कमी या कसर करनेवाला। डाँडी मारनेवाला।
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तुला-कोटि  : स्त्री० [ष० त०] १. तराजू की डंडी के दोनों छोर जिनमें पलड़े की रस्सी बँधी रहती है। २. प्राचीन काल की एक प्रकार की तौल या मान। ३. गणित में अर्बुद की संख्या। ४. घुँघरू। नुपुर।
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तुला-कोश  : पुं० [ष० त०] तुला-परीक्षा। (दे०)।
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तुला-दंड  : पुं० [ष० त०] तराजू की वह डंडी जिसके दोनों सिरों पर पलड़े बँधे रहते हैं।
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तुला-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें आय-व्यय तथा लाभ-हानि का लेखा लिखा रहता है। तट-पट। (बैलेन्स शीट)।
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तुला-परीक्षा  : स्त्री० [तृ० त०] प्राचीन काल में होनेवाली एक तरह की परीक्षा जिससे यह जाना जाता था कि अभियुक्त दोषी है या निर्दोष।
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तुला-पुरुष-कृच्छ्र  : पुं० [सं० तुला-पुरुष, मध्य, स, तुला, पुरुष-कृच्छ्र, ष० त०] एक प्रकार का व्रत जिसमें पिण्याक (तिल की खली) भात, मट्ठा, जल और सत्तू में से प्रत्येक क्रमश- तीन-तीन दिन तक खाकर पंद्रह दिनों तक रहना पड़ता है।
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तुला-पुरुष-दान  : पुं० [सं० तुला-पुरुष, मध्य० स० तुलापुरुष-दान, ष० त०] तुलादान
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तुला-बीज  : पुं० [ष० त०] घुँघची के बीच।
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तुला-मान  : पुं० [ष० त०] १. वह मान जो तौलकर निश्चित किया जाय। तौल कर निकाला हुआ भार या वजन। २. तराजू की डाँड़ी। ३. बटखरा। बाट।
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तुला-यंत्र  : पुं० [ष० त०] तराजू।
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तुला-यष्टि  : स्त्री० [ष० त०] तुला-दंड।
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तुला-सूत्र  : पुं० [ष० त०] वह मोटी रस्सी जो तराजू की डंडी के बीच पिरोई रहती है और जिसे पकड़कर तराजू उठाते हैं।
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तुलाई  : स्त्री० [सं० तूल=रूई] कुछ छोटी पतली और हलकी रजाई। दुलाई। स्त्री० [हि० तौलना] तौलने की क्रिया, भाव या मजदूरी। स्त्री० [हिं० तुलना या तुलाना] गाड़ी के पहियों को औंगने या धुरी चिकना दिलवाने की क्रिया।
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तुलादान  : पुं० [तृ० त०] अपने शरीर के भार के बराबल तौलकर दिया जानेवाला अन्न, वस्त्र आदि का दान।
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तुलाधार  : पुं० [सं० तुला√धृ (धारण)+अण्] १. तुलाराशि। २. तराजू की वे रस्सियाँ जिनमें पलड़े बँधे रहते हैं। ३. वणिक्। बनिया। ४. एक प्रसिद्ध व्याध जिसने केवल माता-पिता की सेवा के बल पर मुक्ति पाई थी। वि० तुला धारण करने अर्थात् तराजू से चीजें तौलने का काम करनेवाला।
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तुलाना  : अ० [हिं० तुलना-तौल में बराबर आना] १. किसी चीज का तौला जाना। २. तुल्य या समान होना। पुरा पड़ना या होना। ३. नष्ट या समाप्त हो जाना। उदाहरण–नाचहिं राकस आस तुलसी।–जायसी। ४. आ पहुँचना। उदाहरण–काल समय जब आनि तुलानी।–ध्रवदास। स०=तुलवाना। स० [हिं० तुलना] गाड़ी के पहियों में तेल डलवाना। औंगवाना।
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तुलाभवानी  : स्त्री० [सं०] शंकर दिग्विजय के अनुसार एक नदी और उसके किनारे बसी हुई नगरी का नाम।
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तुलावा  : पुं० [हिं० तुलना] ठेले आदि के अगले भाग में टेक या सहारे के रूप में लगाई जानेवाली वह लंबी लकड़ी जिससे ठेले का अगला भाग कुछ ऊंचा उठा रहता है और पिछला भाग कुछ नीचे झुक जाता है।
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तुलि  : स्त्री० [सं०√तुर् (शीघ्रता)+इन्, र-ल] १. जुलाहों की कूँची। हत्थी। २. चित्रकारों की कूँची। कलम।
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तुलि-फला  : स्त्री० [सं० ब० स० पृषो० हृस्व] सेमर का पेड़।
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तुलिका  : स्त्री० [सं०√तुल् (तोलना)+क्वन्-अक, टाप्, इत्व] एक तरह की चिड़िया।
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तुलित  : वि० [सं०√तुल्+क्त] १. तुला हुआ। २. समान। बराबर।
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तुलिनी  : स्त्री० [सं० तूल+इनि-ङीष्, पृषो० हृस्व] शाल्मली वृक्ष। सेमर का पेड़।
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तुली  : स्त्री० [सं० तुलि+ङीष्] छोटा तराजू। काँटा। स्त्री० [?] १. तमाकू। २. सुरती का पत्ता। स्त्री०=तुलि।
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तुलुव  : पुं० [?] उत्तर कनाड़ा का एक प्राचीन नाम।
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तुलूली  : स्त्री० [अनु० तुलतुल] द्रव पदार्थ की पतली किंतु बँधी हुई धार। जैसे–पेशाब की तुलूकी। क्रि० प्र०–बँधना।
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तुल्य  : वि० [सं० तुला+यत्] १. जो किसी की तुलना में समान हो। बराबर। २. अनुरूप। सदृश्य।
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तुल्य-पान  : पुं० [तृ० त०] छोटे-बड़े सब तरह के लोगों का एक साथ मिलकर मद्य आदि पीना।
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तुल्य-प्रधान व्यंग्य  : पुं० [सं० तुल्य-प्रधान, ब० स०, तुल्य-प्रधान-व्यंग्य, कर्म० स०] साहित्य में ऐसा व्यंग्य जिसमें वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ बराबर हों। गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद।
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तुल्यता  : स्त्री० [सं० तुल्य+तल्–टाप्] तुल्य होने की अवस्था या भाव। बराबरी। समता।
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तुल्ययोगिता  : स्त्री० [सं० तुल्ययोगिन्+तल्–टाप्] साहित्य में एक अलंकार जिसमे अप्रस्तुत अथवा प्रस्तुत पदार्थों के किसी एक धर्म से युक्त या सम्बद्ध होने का उल्लेख होता है। जैसे–उस सुन्दरी की कोमलता को देखकर किस तरूण के हृदय में मालती के फूल, चन्द्रमा की कला और केले के पत्ते कठोर नहीं जँचने लगे।
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तुल्ययोगी(गिन्)  : वि० [सं० तुल्य√युज्(जोड़ना)+णिनि] समान संबंध रखनेवाला।
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तुल्ल  : वि०=तुल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तुव  : सर्व०=तप (तुम्हारा)।
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तुवर  : वि० [सं०√तु (नष्ट करना)+ष्वरच्] १. कसैला। २. जिसे दाढ़ी और मूँछ न हो। पुं० १.कषाय रस। कसैला स्वाद। २. जलाशयों के किनारे होनेवाला एक पेड़ जिसके बीज खाने से मादा पशुओं का दूध बढ़ता है। ३. अरहर।
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तुवर-यावनाल  : पुं० [सं० कर्म० स०] लाल जोंधरी या ज्वार।
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तुवरिका  : स्त्री० [सं० तुवर+ठन्-इक, टाप्] १. गोपीचंदन। २. अरहर।
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तुवरी  : स्त्री० [सं० तुवर+ङीष्] १. तुवरिका। (दे०) २. वैद्यक में एक तरह का तैल जो रक्त, विकार दूर करने तथा चर्म रोगों का नाशक माना जाता है।
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तुवरी  : स्त्री० [सं० तूवर+ङीष्] १. अरहर। २. गोपी चंदन।
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तुवरीशिंब  : पुं० [सं० ब० स०] चँकवड़ का पेड़। पवाँर।
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तुवि  : स्त्री० [सं०=तुम्बी, पृषो० सिद्धि] तूँबी।
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तुशियार  : पुं० [सं० तुष] एक तरह का झाड़ जिसकी छाल को बटकर रस्सियां आदि बनाई जाती है। पुरुनी।
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तुष  : पुं० [सं०√तुष+क] १. अन्न-कण के ऊपर का छिलका। भूसी। २. अंडे के ऊपर का छिलका। ३. बहेड़ें का पेड़।
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तुष-धान्य  : पुं० [सं० मध्य० स] ऐसा अन्न जिसके दानों के ऊपर छिलका रहता हो।
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तुषग्रह  : पुं० [सं० तुष√ग्रह (पकड़ना)+अप्] अग्नि। आग।
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तुषसार  : पुं० [सं० तुष√स् (जाना)+अण्] अग्नि। आग।
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तुषाग्नि  : स्त्री० [सं० तुष-अग्नि, ष० त०] तुषानल। (दे०)
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तुषानल  : पुं० [सं० तुष-अनल, ष० त०] १. भूसी की आग। घास-फूस की आग। करसी की आँच। २. उक्त प्रकार की वह आग जिसमें प्रायश्चित करने के लिए लोग जल मरते थे।
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तुषांबु  : पुं० [सं० तुष-अंबु, ष० त०] एक तरह का काँजी (वैद्यक) वि० दे० ‘तुषोदक’।
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तुषार  : पुं० [सं०√तुष् (प्रसन्न होना)+आरन्] १. हवा में उड़नेवाले वे जलकण जो जम जाने के फलस्वरूप जमीन पर गिर पड़ते हैं। पाला। २. लाक्षणिक रूप में, ऐसी बात जो किसी चीज को नष्ट कर दे। ३. बरफ। हिम। ४. एक प्रकार का कपूर। चीनिया कपूर। ५. हिमालय के उत्तर का एक प्राचीन प्रदेश जहाँ के घोड़े प्रसिद्ध थे। ६. उक्त प्रदेश में रहनेवाली एक जाति। वि० बरफ की तरह ठंढा।
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तुषार-कर  : पुं० [सं० ब० स०] हिमकर। चंद्रमा।
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तुषार-गौर  : पुं० [सं० उपमि० स०] कपूर।
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तुषार-पाषाण  : पुं० [ष० त०] १. ओला। २. बरफ। हिम।
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तुषार-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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तुषार-रश्मि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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तुषार-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] पर्वतों पर की वह कल्पित रेखा जिससे ऊपरवाले भाग पर बरफ जमा रहता है। (स्नो लाइन)।
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तुषारर्तु  : स्त्री० [तुषार-ऋतु, ष० त०] जाड़े का मौसम। शीतकाल।
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तुषाराद्रि  : पुं० [तुषार-अद्रि, ष० त०] हिमालय पर्वत।
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तुषारांशु  : पुं० [तुषार-अंशु, ब० स०] चंद्रमा।
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तुषाहा  : स्त्री० [सं० तृषा√हन् (मारना)+ड-टाप्] सौंफ।
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तुषित  : पुं० [सं०√तुष् (प्रसन्न होना)+कितच् (बा०)] १. एक प्रकार के गण देवता जो संख्या में १२ हैं। २. विष्णु। ३. बौद्धों के अनुसार एक स्वर्ग।
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तुषोत्थ  : पुं० [सं० तुष-उद√स्ता (उठना)+क] तुषोदक। (दे०)।
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तुषोदक  : पुं० [तुष-उदक,ष०त] १.छिछले समेत कूटे हुए जौ को पानी में सड़ाकर बनाई हुई काँजी, जो वैद्यक में अग्नि की दीप्त करनेवाली मानी गई है। २.भूसी को सड़ाकर तैयार किया हुआ खट्टा जल।
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तुष्ट  : भू० कृ-[सं०√तुष्+क्त] [भाव० तुष्टता] १. जिसका तोष या तृप्ति हो चुकी हो या कर दी गई हो। तृप्त। २. जो अपना अभीष्ट सिद्ध होने के कारण प्रसन्न हो गया हो।
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तुष्टता  : स्त्री० [सं० तुष्ट+तल्-टाप्] १. तुष्ट होने की अवस्था या भाव। २. संतोष। प्रसन्नता।
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तुष्टना  : अ० [सं० तुष्ट] तुष्ट होना। स० तुष्ट करना।
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तुष्टि  : स्त्री० [सं०√तुष्+क्तिन्] १. तुष्ट होने की अवस्था या भाव। २. प्रसन्नता। ३. कंस का एक भाई।
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तुष्टीकरण  : पुं० [सं० तुष्टि+च्वि, इत्व दीर्घ√कृ(करना)+ल्युट-अन] किसी को तुष्ट या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। (एपीजमेंट)।
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तुस  : पुं० [सं०-तुष, पृषो० सत्व] तुष (भूसी)।
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तुसार  : पुं०=तुषार।
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तुसी  : स्त्री० [सं० तुष] भूसी।
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तुस्त  : स्त्री० [सं०√तुस् (शब्द करना)+क्त] धूल। गर्द।
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तुहफा  : पुं०=तोहफा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तुहमत  : स्त्री०=तोहमत।
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तुहार  : सर्व० हिं० तुम्हारा का भोजपुरी रूप।
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तुहिं  : सर्व० [हिं० तू+हिं० (प्रत्यय)] तुझको। तुझे। (भोजपुरी)।
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तुहिन  : पुं० [सं०√तुह (पीड़ित करना)+इनन्] १. तुषार। पाला। २. बरफ। हिम। ३. चंद्रमा की चाँदनी। ४. ठंढक। शीतलता। ५. कपूर।
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तुहिन-कर  : =पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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तुहिन-किरण  : पुं०=तुहिन-कर।
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तुहिन-गिरी  : पुं० [ष० त०] हिमालय पर्वत।
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तुहिन-शर्करा  : पुं० [ष० त०] बरफ। हिम।
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तुहिन-शैल  : पुं०=तुहिन-गिरि।
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तुहिनाचल  : पुं० [तुहिन-अचल, ष० त०] तुहिन-गिरि। (दे०)।
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तुहिनाद्रि  : पुं० [तुहिन-अद्रि, ष० त०]तुहिन-गिरि। (दे०)।
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तुहिनांशु  : पुं० [सं० तुहिन-अंशु, ब० स०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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तुहें  : सर्व०=तुम्हें (भोजपुरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूँ  : सर्व०=तू।
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तू  : सर्व० [सं० त्वम्] एक सर्वनाम जिसका प्रयोग मध्यम पुरुष एक-वचन मे ऐसे व्यक्ति के होता है जो अपने से बहुत छोटा तुच्छ या हीन हो। जैसे–तू चुप रह। मुहावरा–तू तड़ाक या तू तुकार-किसी को तू कहकर उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक संबोधित करना। तू-तू मैं मैं करना-आपस में अशिष्टता पूर्वक कहा-सुनी तकरार या हुज्जत करना। विशेष–कुछ अवसरों पर इसका प्रयोग ईश्वर अथवा सर्वशक्तिमान् सत्ता के लिए भी होता है। जैसे–(क) हे ईश्वरर, तू हम पर दया कर। (ख) हे राजन् तू यज्ञ कर। पुं० [अनु०] कुत्तों, कौओं आदि को बुलाने का शब्द। जैसे–तू तू। आओ।
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तू-तू, मैं-मैं  : स्त्री० [हिं०] आपस मे अशिष्टतापूर्वक होने वाली कहा-सुनी या झगड़ा।
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तूख  : पुं० [सं० तुष=तिनका] दो पत्तों को (दोना या पत्तल बनाते समय) जोड़ने के लिए उनमें लगाई जानेवाली सींक। खरका(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूखना  : अ० [सं० तोषण] तुष्ट होना। स० तुष्ट करना।
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तूँगी  : स्त्री० [देश०] १. पृथ्वी। भूमि। २. नाव। नौका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूझ  : सर्व० [सं० तुभ्यम्, प्रा० तुज्झं] तेरा। मेरे। उदाहरण–-स्त्री पति कुण सुमति तूझ गण जू तवति।–प्रिथीराज।
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तूटना  : अ०=टूटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूठाना  : अ० [सं० तुष्ट, प्रा० तुट्ठ] १. तुष्ट होना। तृप्त होना। अघाना। उदाहरण–मानि कामना सिद्ध जानि तूठे दुखहारी।–रत्ना। २. प्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूण  : पुं० [सं०√तूण (पूरा करना)+घञ्] १. तीर रखने का चोगा। तरकश। २. चामर वृत्त का दूसरा नाम।
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तूण-क्ष्वेड़  : पुं० [सं० ब० स०] बाण। तीर।
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तूणक  : पुं० [सं० तूण+कन्] एक प्रकार का छंद जिसके चरणों में १५-१५ वर्ण होते हैं।
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तूणव  : पुं० [सं० तूण+व] बाँसुरी।
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तूणि  : वि० [सं०√तूण् (पूरा करना)+इन्] तेज या वेगपूर्वक चलने या कोई काम करनेवाला। पुं० १. मन। २. श्लोक। ३. गर्द। ४. मल।
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तूणी-धर  : पुं० [सं० ष० त०] तूण या तरकस रखनेवाला योद्धा।
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तूणी(णिन्)  : वि० [सं० तूण+इनि] तूण अर्थात् तरकशवाला। स्त्री० [सं० तूण+ङीष्] १. तरकश। निषंग। २. नील का पौधा। ३. एक प्रकार का वात-रोग जिसमें मूत्राशय के पास से दर्द उठकर गुदा और पेड़ू तक पहुँचता है। पुं० [सं० तूणीक] तूनी। (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूणीक  : पुं० [सं० तूणी√कै (शब्द करना)+क] तुन का पेड़।
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तूणीर  : पुं० [सं०√तूण+ईरन्] तूण। तरकश। भाथा।
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तूत  : पुं० [सं० नूद] मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जिसके पत्ते पान की तरह तथा अनीदार होते हैं। २. उक्त पेड़ की मीठी फलियाँ जो फल के रूप मे खाई जाती है। शहतूत।
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तूतक  : पुं० [सं०=तुत्थ, पृषो० सिद्धि] तूतिया। नीलाथोथा।
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तूतिया  : पुं० [सं० तुत्थ] ताँबे का क्षार या लवण जो कुछ नीले रंग का होता है और जिसे वैद्यक में ताँबे की उप-धातु कहा गया है। यह खानों में प्राकृतिक रूप में भी मिलता है। नीलाथोथा। वैद्यक में यह वमनकारक और दस्तावर माना जाता है तथा रँगाई के काम में भी आता है।
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तूती  : स्त्री० [फा०] १. छोटी जाति का एक प्रकार का तोता जिसकी चोंच पीली, गरदन बैगनी और पर हरे होते हैं। २. कनेरी नाम की छोटी सुन्दर चिड़िया। ३. मटमैले रंग की एक प्रकार की छोटी चिड़िया। जो बहुत मधुर स्वर में बोलती है। ४. बाँसुरी या शहनाई की तरह का एक प्रकार का पतला लंबा बाजा। विशेष–उर्दूवाले यह शब्द उक्त अर्थों में प्रायः पुलिंग बोलते हैं। यथा-जहाँ में है शरारत पेशा जितने। उन्हीं का आज तूती बोलती है।–कोई शायर। कहा०–नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है=(क) बहुत भीड़-भाड़ या शोरगुल में कही हुई किसी साधारण आदमी की बात कोई नहीं सुनता। (ख) बड़े लोगों के सामने छोटों की कुछ नहीं चलती। ५. मिट्टी की एक प्रकार की छोटी टोंटीदार धरिया या पुरवा जिससे छोटे-बच्चे पानी पीते हैं।
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तूद  : पुं०=तूत (शहतूत)।
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तूदह  : पुं०=तूदा।
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तूदा  : पुं० [फा० तूदः] १. ढेर। राशि। २. सीमा का चिन्ह जो पहले मिट्टी का ढेर खड़ा करके बनाया जाता था। ३. मिट्टी की वह ऊँची और बड़ी राशि या टीला जिस पर तीर, बन्दूक आदि चलाकर निशाना साधने का अभ्यास किया जाता है।
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तून  : पुं० [सं० तुन्नक] १. तुन का पेड़। दे० तुन। २. तूल नाम का लाल रंग का कपड़ा। पुं०=तूण (तूणीर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूना  : अ० [हिं० चूना] १. तरल पदार्थ का बूँद-बूँद करके गिरना। चूना। टपकना। उदाहरण–रति रूप लुनाई तुई सीप रै।–प्रतापशाह। २. खड़ा या स्थिर न रहकर गिर पड़ना। ३. गर्भपात या गर्भस्राव होना।
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तूनी  : पुं० [सं० तूणी] एक तरह का बड़ा पेड़ जिसकी पत्ती नीम के पेड़ की तरह की होती है और लकड़ी लाल रंग की और हलकी किंतु मजबूत होती है। तुन।
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तूनीर  : पुं०=तूणीर। (तरकश)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूफाँ  : पुं०=तूफान।
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तूफान  : पुं० [अ० चीनी ताई फू] १. वह बड़ी बाढ़ जो आस-पास की चीजों या स्थानों को डुबा दे। २. बहुत तेज चलनेवाली विशेषतः समुद्रतल पर उठने या चलनेवाली वह आँधी जिसके साथ खूब बादल गरजते और जोरों की वर्षा होती है। ३. ऐसा भीषण या विकट उत्पात या उपद्रव जिसमें या तो बहुत से लोग सम्मिलित हों या जिससे बहुतों की भारी हानि हो। भारी आफत, झंझट या बखेड़ा। जैसे–तुम तो जरा सी बात में तूफान खड़ाकर देते हों। क्रि० प्र०–उठाना।–खड़ा करना। ४. ऐसी बहुत अधिक चीख-पुकार या हो-हल्ला जिसे सुनकर आस-पास के लोग घबरा जायँ। ५. किसी पर लगाया जानेवाला झूठा कलंक या दोष। तोहमत। मुहावरा–तूफान जोड़ना या बाँधना-किसी पर झूठा आरोप करना या कलंक लगाना।
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तूफानी  : वि० [फा०] तूफान सम्बन्धी। तूफान का। जैसे–तूफानी रात २. तूफान की तरह का तेज या प्रबल और चारों ओर वेगपूर्वक फैलने या होनेवाला। जैसे–उन दिनों देश में कई बड़े-बड़े नेताओं के तूफानी दौरे हो रहे थे। ३. तूफान अर्थात् बहुत बड़ा उपद्रव या बखेड़ा खड़ा करनेवाला। जैसे–उसकी बातों में मत आना, वह बहुत बड़ा तूफानी है।
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तूँबड़ा  : पुं०=तूँबा।
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तूँबना  : स०=तूमना।
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तूबर  : पुं० [सं० तूबर] १. ऐसा बैल जिसके सिर पर सींग न हों। २. नपुंसक। हिजड़ा।
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तूबरक  : पुं० [सं० तूबर+कन्] नपुंसक। हिजड़ा।
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तूबरी  : स्त्री० [सं० तूबर+ङीष्] १. गोपी चंदन। २. अरहर।
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तूँबा  : पुं० [सं०तुम्बक] [स्त्री०अल्पा०तूँबी] १.कडुआ गोल का कद्दू। कडुई गोल घीया। तितलौकी। २.उक्त का सूखा हुआ वह रूप जिसके सहारे नदी-नाले आदि पार किये जाते हैं। ३.उक्त को सुखाकर और खोखला करके बनाया हुआ पात्र जो प्रायः साधु-सन्यासी और भिखमंगे अपने पास खाने-पीने की चीजें रखने के लिए रखते हैं। पद–तूँबा पलटी या तूँबा फेरी-इधर की चीजें उठाकर उधर करना या एक की चीजें दूसरों को देना। चोरों चालबाजों आदि का लक्षण। उदाहरण–-ऐसी तूमा(तूँबा) पलटी के गुन नेति नेति स्तुति गावै।-सत्यनारायण।
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तूँबी  : स्त्री० [हिं०तूँबा] १.छोटा तूँबा। २.उक्त का बना हुआ छोटा तूँबा या पात्र। मुहावरा–तूँबी लगाना-बात से पीड़ित या सूजे हुए स्थान का रक्त या वायु खीचने के लिए तूँबी की विशिष्ट प्रकार की प्रक्रिया करना।
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तूम-तड़ाक  : स्त्री० [अनु० तूम+तड़क (प्रत्यय)] १. तड़क-भड़क। २. व्यर्थ का दिखौआ आडंबर। ३. ठसक।
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तूमड़ी  : स्त्री० [हिं० तूबाँ+डी (प्रत्यय)] १. तूँबी २. तूँबी से बनाया हुआ एक प्रकार का बाजा जो प्रायः सँपेरे बजाते हैं।
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तूमना  : स० [सं० स्तोम=ढेर+हिं० ना (प्रत्य०)] १. रूई आदि के पहल या रेशे नोचकर अलग-अलग करना। २. किसी चीज को काट-पीट कर उसके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े करना। धज्जियाँ उड़ाना। ३. मसलना। ४. अच्छी तरह सारा रहस्य खोलना। ५. बहुत मारना पीटना। ६. गालियाँ आदि देते हुए पूरी दुर्दशा करना। उदाहरण–तरुन तरुन तन तूमत फिरत है।–देव। ७. इकट्ठा करना। चुनना। उदाहरण–सजा दे प्रिय पथ पर प्रति बार लजाती रहे स्नेह दल-तूम।–निराला।
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तूमरा  : पुं० [स्त्री० तूमरी]=तूबां।
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तूमा  : पुं०=तूंबा।
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तूमार  : पुं० [अ०] साधारण बात का होनेवाला व्यर्थ का विस्तार। बात का बंतगड़। क्रि० प्र०–खड़ा करना–बाँधना।
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तूमारिया सूत  : पुं० [हिं० तुमना+सूत] ऐसा महीन सूत जो तूमी हुई रूई से काता गया हो।
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तूया  : स्त्री० [देश०] काली सरसों।
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तूर  : पुं० [सं०√तूर् (ताड़न करना)+क] १. एक प्रकार का नगाड़ा। २. तुरही या नरसिंहा नाम का बाजा। स्त्री० [सं० तुवरि] १. अरहर का पौधा और उसके बीज।
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तूर  : पुं० [सं०√तूर्(ताड़न करना)+क] १.एक प्रकार का नगाड़ा। २.तुरही या नरसिंहा नाम का बाजा। स्त्री० [सं० तुवरि] १. अरहर का पौधा और उसके बीज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २. अनाज। अन्न। उदाहरण–-पूर्वाषाढ़ा धूल किन उपजै साती तूर।–भड्डरी। पुं० [अ०] शाम देश का एक प्रसिद्ध पर्वत जिसके संबंध में कहा जाता है कि हजरत मूसा को इसी पर अलौकिक प्रकाश दिखाई पड़ा था। मुहावरा–तूर चमकना-ज्ञान का प्रकाश दिखाई पड़ना। स्त्री० [फा० तूल-लंबाई] १. गज-डेढ़ लंबी एक लकड़ी जो जुलाहों के करघे में लगी रहती है और जिसमें तानी लपेटी जाती है। लपेटनी। फनियाला। २. डोली, पालकी आदि पर डाले हुए परदे को यथा स्थान रखने के लिए उसके चारों ओर बाँधी जानेवाली रस्सी। चौंबदी। स्त्री० [सं० तूल] कपास। २. रूई।
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तूरज  : पुं०=तूर्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूरण  : अव्य० [सं० तूर्ण] १. चट-पट। तुरंत। २. शीघ्र। जल्दी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूरण  : क्रि० वि० [सं० तूर्ण] १. चट-पट। तुरन्त। २. शीघ्र जल्दी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूरंत  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी।
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तूरन  : पुं०=तूर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि०=तूरण।
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तूरना  : पुं० [सं० तूर] तुरही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया। स०–तोड़ना। (पूरब) उदाहरण–मन तन बचन तजे तिन तूरी।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=टूटना। उदाहरण–परिहैं तूरि लटी कटि ताकी।–नन्ददास(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूरा  : पुं० [सं० तूर] तुरही नामक बाजा।
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तूरान  : पुं० [फा०] मध्य एशिया, जो तुर्क, तातारी, मगोल आदि जातियों का निवास स्थान है।
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तूरानी  : वि० [फा] तूरान देश का। तूरान संबंधी। पुं० तूरान देश का निवासी। स्त्री० १. तूरान देश की भाषा। २. उक्त भाषा की लिपि।
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तूरी  : स्त्री० [सं०√तूर्+अच्+ङीष्] धतूरे का पेड़।
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तूर्ण  : क्रि० वि० [सं०√त्वर् (शीघ्रता करना)+क्त, नत्व] शीघ्र। जल्दी। वि० १. जल्दी या शीघ्रता करनेवाला। २. शीघ्रगामी। तेज।
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तूर्णक  : पुं० [सं० तूर्ण+कन्] सुश्रुत के अनुसार एक तरह का चावल।
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तूर्त  : अव्य० [सं०√त्वर्+क्त, ऊठ्] १. तुरंत। तत्काल। २. जल्दी। शीघ्र।
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तूर्य  : पुं० [सं०√तूर् (पूर्ण करना)+ण्यत्] १. तुरही या नरसिंहा नाम का बाजा। २. मृदंग।
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तूर्य-खंड  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का ढोल।
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तूर्व  : अव्य० [सं०√तुर्व (हिंसा करना)+अच्, दीर्घ] तुरंत। शीघ्र।
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तूल  : पुं० [सं०√तूल् (पूर्ति करना)+क] १. आकाश। २. कपास, मदार, से मल आदि के डोडों के अंदर का धूआ जो रूई की तरह होता है। ३. शहतूत का पेड़। ४. धतूरा। ५. तृण की नोक। पुं० [हिं० तून-एक पेड़ जिसके फूलों से कपड़े रंगे जाते हैं] १. सूती कपड़ा जो चटकीले रंग का होता था और पहले तूल के फूलों के रंग मे रंगा जाता था। २. गहरा और चटकीला लाल रंग। वि०=तुल्य (समान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] लंबाई के बल का विस्तार। लंबाई। पद–तूल व अर्ज-लंबाई और चौड़ाई। तूल कलाम=(क) लंबी चौड़ी बातें। (ख) कहासुनी। तूल तवील=बहुत लंबा चौड़ा। मुहावरा–(किसी बात का) तूल खींचना-किसी बात या कार्य का आवश्यकता से बहुत अधिक बढ़ जाना। तुल देना-व्यर्थ का विस्तार करना। तूल पकड़ना=तूल खींचना। (देखें ऊपर)
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तूल-कार्मुक  : पुं० [च० त] १. इंद्र धनुष। २. रूई धुनने की धुनकी।
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तूल-चाप  : पुं०=तूल-कार्मुक।
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तूल-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] शाल्मकी वृक्ष। सेमर का वृक्ष।
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तूल-शर्करा  : स्त्री० [ष० त०] कपास का बीज। बिनौला।
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तूल-सेचन  : पुं० [ष० त०] रूई से सूत कताने का काम।
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तूलक  : पुं० [सं० तूल+कन्] रूई।
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तूलत  : स्त्री० [हिं० तूलना] जहाज की रेलिंग में लगी हुई एक खूँटी।
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तूलता  : स्त्री०=तुल्यता (समता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूलना  : स० [सं० तूलन या तुलना] गाड़ी के पहिए निकाल करके उनके भीतरी छेद में तेल डालना। औंगना। अ० [सं० तुलना] १. तौला जाना। २. किसी से होड़ लगाना। बराबर होने का प्रयत्न करना। उदाहरण–रंग न तेरो है कछू सुबरन रंग न तूनि।–दीनदयाल। गिरि। ३. किसी के बराबर या समान होना। ४. किसी की बराबरी का या समान बनकर उसके संपर्क में या साथ रहना अथवा विचरण करना। उदाहरण–मंजुल रसातल की मजरी के पुंजन में, पाय कै प्रसाद तहां गूँज गूँज तूलेहो।–प्रसाद। ५. तुलना करना। उपमा देना।
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तूलम-तूल  : अव्य० [अ, तूल-लंबा] १. लंबाई के बल। २. आमने सामने।
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तूलवती  : स्त्री० [सं०तूल+मतुप्-ङीष्] नील का पौधा।
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तूला  : स्त्री० [सं० तूल+टाप्] १. कपास। २. दीए की बत्ती। वि०–तुल्य।
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तूलि  : स्त्री० [सं०√तूल् (पूर्ति करना)+इन्०] १. तकिया। २. चित्रकार की कूची। तूलिया।
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तूलि-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०] सेमर का पेड़।
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तूलिका  : स्त्री० [सं० तूलि+कन्-टाप्] १. हलकी रजाई। ढुलाई। २. चित्र अंकित करने की कूँची।
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तूलिनी  : स्त्री० [सं० तूल+इनि-ङीष्] १. लक्ष्मण कंद। २. सेमल का पेड़।
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तूली  : स्त्री० [सं० तूलि+ङीष्] १. नील का पौधा। २. चित्रों आदि में रंग भरने की कूँची। उदाहरण–आज क्षितिज पर जाँच रहा है तूली कौन चितेरा।–महादेवी। ३. जुलाहों की कूँची जिससे वे ताने का फैला हुआ सूत ठीक जगह पर बैठाते हैं।
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तूवर  : पुं० [सं० तु+वरच्, दीर्घ०]=तूवरक।
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तूवरक  : पुं० [सं० तूवर+कन्] १. बिना सींग का बैल। डूँड़ा। २. बिना दाढ़ी-मूँछों का आदमी। ३. कपास रस। ४. कसैला स्वाद। ५. अरहर।
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तूवरिका  : स्त्री० [सं० तूवरक+टाप्, इत्व] १. अरहर। २. गोपी चंदन।
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तूष  : पुं० [सं०√तूष्+सन्तोष करना)+अच्] किनारा। (कपड़े का)।
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तूष्णी  : वि० [सं० तूष्णीम्(अव्य०)] मौन। चुप। स्त्री०=चुप्पी। मौन।
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तूष्णीक  : वि० [सं० तूष्णीक+कन्, मकार, लोप] मौनावलम्बी। मौन रहनेवाला।
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तूष्णोयुद्ध  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह युद्ध या होड़ जिसमें कौशल, षडयंत्र आदि के द्वारा शत्रु पक्ष के मुख्य मुख्य लोगों को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न किया जाय।
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तूस  : पुं० [तिब्बती थोथ] [वि० तूसी] १. एक प्रकार का बहुत बढिया और मुलायम ऊन जो काश्मीर से लेकर नैपाल तक की एक तरह की पहाड़ी बकरियों के शरीर पर होता है। पशम। २. उक्त ऊन का जमाया हुआ कंबल या नमदा। ३. उक्त ऊन की बुनी हुई बढ़िया चादर। पशमीना। पुं० तुष। (भूसी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूसदान  : पुं० [पुर्त्त० काटूश+दान (प्रत्यय)] कारतूस।
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तूसना  : अ० [सं० तुष्ट] १. संतुष्ट होना। २. प्रसन्न होना। स० १. संतुष्ट करना। २. प्रसन्न करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तूसा  : पुं० [सं० तुष] चोकर। भूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तूसी  : वि० [सं० तुष] धान के चिलके के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग। (हस्क)।
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तूस्त  : पुं० [सं०√तुस् (शब्द करना)+तन् (दीर्घ)] १. धूल। रज। रेणु। २. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। ३. जटा। ४. धनुष।
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तृक्ष  : पुं० [सं०√तृक्ष् (जाना)+अच्] कश्यप ऋषि।
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तृक्षाक  : पुं० [सं०√तृक्ष्+आकन्] एक प्राचीन ऋषि।
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तृख  : पुं० [सं०√तृष् (प्यासा होना)+क, पृषो=ष–ख] जातीफल। जायफल।
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तृखा  : स्त्री०=तृषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तृजग  : वि०=तिर्यक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तृण  : पुं० [सं०√तृह् (हिंसा करना)+कन, हकारलोप] १. कुछ विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियों की एक जाति या वर्ग जिसके कांड या पेड़ी में काठ या लकड़ीवाला अंश नहीं होता, गूदा ही गूदा होता है। इस वर्ग के पौधों में ऐसी लंबी-लंबी पत्तियाँ होती है जिनमें केवल लंबाई के बल नसें होती हैं। जैसे–ऊख, नरकट, सरकंडा आदि। २. घास या उसका डंठल। मुहावरा–(मुँह या दाँतों में) तृण गहना या पकड़ना-उसी प्रकार दीन-हीन बनकर सामने आना जिस प्रकार सीधी-सादी गौ मुँह में घास या उसका डंठल लिये हुए आती है। तृण गहाना या पकड़ाना-पूरी तरह से दीन और नम्र बनाकर वशीभूत करना। तृण तोड़ना-किसी सुंदर वस्तु को देखकर उसे बुरी नजर से बचाने के लिए तिनका तोड़ने का टोटका करना। (किसी से) तृण तोड़ना-सदा के लिए संबंध तोडना। (दे० तिनका के अंतर्गत तिनका तोड़ना मुहा०) पद–तृणवत्=अत्यंत तुच्छ।
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तृण-कर्ण  : पुं० [ब० स०] एक ऋषि।
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तृण-कुंकुम  : पुं० [मध्य० स०] एकसुंगधित घास। रोहिश घास।
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तृण-कूर्म  : पुं० [मध्य० स०] गोल कद्दू।
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तृण-ग्रंथी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] स्वर्ण जीवंती।
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तृण-जलायुका  : पुं० [मध्य० स०] तृण-जलौका। (दे०)
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तृण-जलौका  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह की जोंक।
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तृण-द्रुम  : पुं० [उपमि० स०] १. ताड़ का पेड़। २. सुपारी का पेड़। ३. खजूर का पेड़। ४. नारियल का पेड़। ५. हिंताल। ६. केतकी का पौधा।
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तृण-धान्य  : पुं० [मध्य० स०] १. तिन्नी का धान या चावल। २. साँवा।
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तृण-ध्वज  : पुं० [स० त०] १. बाँस। २. ताड़ का पेड़।
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तृण-निंब  : पुं० [मध्य० स०] चिरायता।
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तृण-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स० कप्, टाप्, इत्व] इक्षुदर्भ नामक तृण।
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तृण-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्]=तृण-पत्रिका।
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तृण-पीड़  : पुं० [ब० स०] आपस में होनेवाला गुत्थम-गुत्था या हाथा-पाई।
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तृण-पुष्प  : पुं० [ष० त०] १. गठिवन। २. सिंदूर पुष्पी।
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तृण-पूली  : स्त्री० [ब० स० ङीष्०] घास-फूस या नरकट की चटाई।
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तृण-बीज  : पुं० [ब० स०] साँवाँ।
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तृण-मणि  : पुं० [मध्य० स०] तृण को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला। एक तरह के गोंद का डला। कहरुवा। कपूरमणि। विशेष–प्राचीन साहित्यकारों ने इसे पत्थर माना था।
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तृण-वृक्ष  : पुं०=तृण-द्रुम।
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तृण-शय्या  : स्त्री० [ष० त०] १. घास का बिछौना। २. चटाई।
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तृण-शून्य  : वि० [तृ० त०] जिसमें तृण न हो। तृण से रहित। पुं० १. चमेली। मल्लिका। २. केतकी।
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तृण-शूली  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] एक प्रकार की लता।
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तृण-षट्पद  : पुं० [उपमि० स०] बर्रे। भिड़।
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तृण-संवाह  : पुं० [सं० तृण-सम्√वह् (ढोना)+णिच्+अच्] वायु। हवा।
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तृण-सारा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] कदली। केला।
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तृण-सिहं  : पुं० [स० त०] कुठार कुल्हाड़ा।
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तृण-स्पर्श-परीषह  : पुं० [ष० त०] दभादि कठोर तृणों को बिछाकर उन पर सोने का व्रत। (जैन)।
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तृण-हर्म्य  : पुं० [मध्य० स०] कुटिया। झोपड़ी।
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तृणक  : पुं० [सं० तृण+कन्] तृण। घास।
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तृणकीया  : स्त्री० [सं० तृण+-ईय, कुक्, टाप्] ऐसी जमीन जहाँ घास उगी हुई हो।
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तृणकुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] घास-फूस की बनी हुई कुटिया या झोपड़ी।
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तृणकेतुक  : पुं० [सं० तृणकेतु+कन्] तृण-केतु।
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तृणचर  : वि० [सं० तृण√चर् (गति)+अच्] तृण चरनेवाला। पुं० १. पशु। २. गोमेदक मणि।
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तृणप  : पुं० [सं० तृण√पा (रक्षा करना)+क] एक गंधर्व का नाम।
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तृणमय  : वि० [सं० तृण+मयट्] [स्त्री० तृणमयी] घास-फूस का बना हुआ।
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तृणराज  : पुं० [ष० त०] १. खजूर का पेड़। २. नारियल का पेड़। ३. ताड़ का पेड़।
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तृणवत्  : वि० [सं० तृण+वति] जिसका महत्त्व तृण के समान कुछ भी न हो अर्थात् नगणय तुच्छ।
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तृणशीत  : पुं० [स० त०] १. रोहिस घास, जिसमें से नीबू की सी सुगंध आती है। २. जल-पिप्पली।
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तृणशोषक  : पुं० [सं० तृण√शुष् (सूखना)+णिच्+ण्वुल्-अक] एक प्रकार का साँप।
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तृणा-ग्राही(हिन्)  : पुं० [सं० तृण√ग्रह (कपड़ना)+णिनि] १. नीलम। २. कहरुवा।
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तृणाग्नि  : स्त्री० [तृण-अग्नि, मध्य० स०] तुषानल। (दे०)
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तृणांजन  : पुं० [तृण-अजन, उपमि० स०] एक तरह का गिरगिट।
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तृणाढय  : पुं० [तृण-आढ्य, स० त०] एक तरह का तृण जो औषध के काम में आता है। पर्वतृण।
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तृणान्न  : पुं० [तृण-अन्न, ष० त०] तिन्नी का जंगली धान।
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तृणाम्ल  : पुं० [तृण-अम्ल, स० त०] नोनिया नामक घास।
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तृणारणिमणि न्याय  : पुं० [तृण-अरणि, मणि, द्व० स० तृणारणिमणि-न्याय, ष० त०] तर्क-शास्त्र में तृण, अरणी और मणि की तरह का स्पष्ट निर्देशन। विशेष–इन तीनों चीजों से आग जलाई जाती है परन्तु इन तीनों के जलाने के ढंग अलग-अलग है।
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तृणावर्त्त  : पुं० [सं० तृण+आ+वृत्त (घूमना)+णिच्+अण्] १. बवंडर। चक्रवात। २. एक दैत्य जिसे कंस ने कृष्ण को मार डालने के लिए गोकुल भेजा था।
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तृणेंद्र  : पुं० [तृण-इंद्र, उपमि० स०] ताड़ का पेड़।
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तृणोत्तम  : पुं० [तृण-उत्तम, स० त०] ऊखल तृण। उखर्वल।
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तृणोद्भव  : पुं० [सं० तृण+उद्√भू (उत्पन्न होना)+अच्] तिन्नी (धान)।
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तृणोल्का  : स्त्री० [तृण-उल्का, मध्य, स०] घास-फूस की झोपड़ी।
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तृणौषध  : पुं० [तृण-औषध, मध्य० स०] एलुवा।
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तृण्या  : स्त्री० [सं० तृण+य-टाप्] तृणों अर्थात् घास-फूस का ढेर।
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तृतीय  : वि० [सं० त्रि+तीय (सम्प्रसारण)] जो क्रम संख्या, महत्व आदि के विचार से दूसरे के बाद का हो। तीसरा।
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तृतीय-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] पुंलिग और स्त्री लिंग से भिन्न और तीसरा अर्थात् नपुंसक। हिजड़ा।
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तृतीय-सवन  : पुं० [कर्म० स०] अग्निष्टोम आदि यज्ञों का तीसरा सवन जिसे सांय सवन भी कहते हैं। दे० ‘सवन’।
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तृतीयक  : पुं० [सं० तृतीय+कन्] वह ज्वर जो हर तीसरे दिन आता हो। तिजारी।
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तृतीया  : स्त्री० [सं० तृतीय+टाप्] १. चांद्रमास के प्रत्येक पक्ष का तीसरा दिन। तीज। २. व्याकरण में करण कारक या उसकी विभक्ति की संज्ञा।
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तृतीया-प्रकृति  : वि० [सं०] नपुंसक। हिजड़ा।
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तृतीयांश  : पुं० [तृतीय-अंश, कर्म० स०] तीसरा उपंश या भाग। तिहाई।
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तृतीयाश्रम  : पुं० [तृतीय-आश्रम, कर्म० स०] चार आश्रमों में से तीसरा आश्रम। वानप्रस्थ।
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तृतीयी(यिन्)  : वि० [सं० तृतीय+इनि] तीन बराबर भागों में से एक का हकदार।
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तृन  : पुं०=तृण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तृपति  : स्त्री०=तृप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तृपत्  : पुं० [सं०√तृप्(प्रसन्न करना)+अति] चंद्रमा।
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तृपल  : पुं० [सं०√तृप्+कलच्] १. उपल। २. पत्थर।
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तृपला  : स्त्री० [सं० तृपल+टाप्] १. लता बेल। २. त्रिफला।
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तृपित  : वि०=तृप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तृपिता  : स्त्री०=तृप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तृपिताना  : अ० [हिं० तृपित, सं० तृप्त] तृप्त होना। स० तृप्त करना।
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तृप्त  : वि० [सं०√तृप्+क्त] १. जो अपनी आवश्यकता पूरी हो जाने पर संतुष्ट हो चुका हो। २. अघाया हुआ। ३. प्रसन्न।
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तृप्ताना  : अ० [सं० तृप्त] तृप्त होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० तृप्त करना।
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तृप्ताभरम  : पुं० [सं० तप्त-आभरण,ष०त०] तपाये हुए (फलतः शुद्ध) सोने का बना हुआ गहना।
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तृप्ति  : स्त्री० [सं०√तृप्+क्तिन्] आवश्यकता अथवा इच्छा की पूर्ति हो जाने पर होनेवाली मानसिक शान्ति या मिलनेवाला आनंद।
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तृप्र  : पुं० [सं०√तृप्+रक्] १. घी। घृत। २. पुरोडश। वि० तृप्त करनेवाला।
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तृफला  : स्त्री०=त्रिफला।
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तृम-केतु  : पुं० [स० त०] १. बाँस। २. ताड़।
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तृम-ज्योतिष  : पुं० [स० त०] ज्योतिष्मती लता।
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तृषा  : स्त्री० [सं०√तृष् (लालच करना)+क्विप्-टाप्] [वि० तृषित, तृष्य] १. पानी अथवा कोई तरल पदार्थ पीने की आवश्यकता से उत्पन्न होनेवाली इच्छा। प्यास। २. अभिलाषा। इच्छा। ३. लालच। लोभ। ४. कलिहारी नाम की वनस्पति।
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तृषा-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] वह वृक्ष जिसमें से प्यास बुझाने का साधन अर्थात् जल मिलता हो। जैसे–नारियल ताड आदि।
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तृषा-स्थान  : पुं० [ष० त०] पेट के अन्दर का वह स्थान जहां जल रहता है। (क्लोम)
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तृषातुर  : वि० [तृषा-आतुर] तृषा से आतुर या विकल। बहुत अधिक प्यासा।
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तृषाभू  : स्त्री० [ष० त०] पेट में जल रहने का स्थान। (क्लोम)।
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तृषालु  : वि० [सं०√तृष् (प्यास लगना)+आलुच्] बहुत अधिक प्यासा। तृषित।
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तृषावंत  : वि० [सं० तृषावान्] प्यासा।
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तृषावान्(वत्)  : वि० [सं० तृषा+मतुप्] प्यासा।
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तृषित  : वि० [सं० तृषा+इतच्] १. प्यासा। २. विशेष इच्छा या कामना रखनेवाला। ३. घबराया हुआ। विकल। उदाहरण–कुआर मास तन तृषित घाम से कार्तिक चहुँदिसि दियरी बराई।–लोक गीत।
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तृषितोत्तरा  : स्त्री० [तृषित-उत्तर, ब० स० टाप्] पटसन।
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तृष्णा  : स्त्री० [सं०√तृष्+न-टाप्] १. प्यास। तृषा। २. लाभणिक अर्थ में मन में होनेवाली वह प्रबल वासना जो बहुत अधिक कुछ विकल रखती हो और जिसकी हज में तृप्ति न होती हो। ३. प्रायः अधिक समय तक बनी रहनेवाली कामना।
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तृष्णारि  : पुं० [तृष्णा-अरि, ष० त] पित्त-पापड़ा जिसके सेवन से रोगी को प्रायः लगनेवाली प्यास बहुत कुछ कम हो जाती है।
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तृष्णालु  : वि० [सं० तृष्णा+आलु] १. तृषित। प्यासा। २. लालची। लोभी।
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तृष्य  : पुं० [सं०√तृष् (लालच करना)+क्यप्] १. लालच। लोभ। २. तृषा। प्यास। वि० लोभ उत्पन्न करनेवाला।
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तृसालवाँ  : वि० [सं० तृषालु] प्यासा। तृषित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तृस्ना  : स्त्री०=तृष्णा।
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ते  : अव्य० [सं० तृस् (प्रत्यय)] १. द्वारा। २. से अधिक या बढ़कर। उदाहरण–चपला तें चमकत अति पारी, कहा करौगी श्यामहिं।–सूर। ३. किसी समय या स्थान से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ते  : विभ० [हिं०] से। सर्व०=[सं० तद् का बहु०] वे ( वे लोग)।
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तेइ  : सर्व० [सं० ते] वे लोग ही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेइस  : वि० पुं०=तेईस।
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तेइसवाँ  : वि०=तेईसवाँ।
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तेईस  : वि० [सं० त्रिविंशति; पा० तेवीसति, प्रा० तेवीस] गिनती में बीस से तीन अधिक। बीस और तीन। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–२३।
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तेईसवाँ  : वि० [हिं० तेईस+वाँ (प्रत्यय)] गिनती के क्रम में बाईस के बाद तेईस पर स्थान पर पड़नेवाला।
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तेखना  : अ० [हिं० तेहा] क्रुद्ध होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेखी  : वि०=क्रोधी।
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तेग  : स्त्री० [अ० तेग] तलवार।
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तेगा  : पुं० [अ० तेग] १. खड्ग या खाँड़ा नाम का अस्त्र। २. दरवाजे, मेहराब आदि के बीच का खाली स्थान बन्द करने या भरने के लिए उसमें ईंट, पत्थर आदि की जोड़ाई करके भरने की क्रिया। ३. दे० ‘कमरतेगा’। (कुश्ती का पेंच)।
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तेज  : पुं० [सं० तेजस्] १. पाँच महाभूतों में से अग्नि या आग नामक महाभूत। २. गरमी। ताप। ३. कोई ऐसी तीव्रता या प्रभाव कारक विशेषता जिसके सामने ठहरना या जिसे सहना कठिन हो। जैसे–महात्माओं के चेहरे पर एक विशष प्रकार का तेज होता है। ४. प्रताप। ५. पराक्रम। बल। ६. कांति। चमक। ७. तत्त्व। सार। ८. वीर्य। ९. पित्त। १॰. लज्जा। ११. सत्त्व गुण से उत्पन्न लिंग शरीर। १२. घोड़ों आदि के चलने की तेजी या वेग। १३. सोना। स्वर्ण। १४. नवनीत। मक्खन। वि० [सं० तेजस् से फा० तेज] १. ऐसा उग्र प्रबल या विकट जिसे सहना कठिन हो। जैसे–तेज धूप। २. जिसकी गति में बहुत अधिक वेग हो। शीघ्रगामी। जैसे–तेज घोड़ा, तेज हवा। ३. जिसकी धार बहुत चोखी या पैनी हो। जैसे–तेज चाकू। ४. जिसका स्वाद बहुत चरपरा, झालदार या तीखा हो। जैसे–तेज मिर्च। ५. जिसमें कोई काम बहुत अच्छी तरह और जल्दी करने की विशेष बुद्धि, योग्यता या सामर्थ्य हो। जैसे–पढ़ने-लिखने में तेज लड़का। ६. बहुत जल्दी या यथेष्ट प्रभाव उत्पन्न करनेवाला। जैसे–तेज दवा। ७. बहुत अधिक या बढ़-चढ़कर बोलनेवाला। जैसे–उनकी औरत बहुत तेज है। ८. जिसमें चंचलता या चपलता की अधिकता हो। जैसे–यह बच्चा अभी से बहुत तेज है। ९. जिसका दाम या भाव अपेक्षया अधिक हो या पहले से बढ़ गया हो। जैसे–आज-कल अनाज और कपड़ा बहुत तेज हो गया हो।
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तेजक  : पु० [सं०√तिज् (क्षमा करना)+ण्वुल्–अक] १. मूँज। २. सरपत।
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तेजग  : वि०=तेज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेजधारी  : वि० [सं० तेजोधारिन्] (व्यक्ति) जिसके चेहरे पर तेज हो। तेजस्वी।
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तेजन  : वि० [सं०√तिज्+णिच्+ल्यु-अन] १. तेज उत्पन्न करनेवाला। २. दीप्त करनेवाला। ३. जल्दी जलने या जलानेवाला। पुं० १. बाँस। २. सरपत। ३. मूँज।
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तेजनक  : पुं० [सं० तेजन+कन्] शर। सरपत।
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तेजना  : स० [हिं० तजना] छोड़ देना। त्यागना। उदाहरण–तेजि अहं गुरु-चरन गहु जम से बाचें जीव।–कबीर।
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तेजनाख्य  : पुं० [सं० तेजन-आख्या, ब० स०] मूँज।
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तेजनी  : पुं० [सं० तेजन+ङीष्] १. मूर्वा। लता। २. मालकंगनी। ३. चव्य। चाब। ४. तेजबल।
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तेजपत्ता  : पुं० [सं० तेजपत्र] १. दारचीनी की जाति का एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ दाल, तरकारी आदि में मसाले की तरह डाली जाती हैं। २. उक्त वृक्ष का पत्ता जो वैद्यक में बवासीर हृदयरोग, पीनस आदि को दूर करनेवाला माना गया है।
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तेजपत्र  : पुं० [सं०√तिज् (सहना)+णिच्+अच्, तेज-पत्र, ब० स०] तेजपत्ता। तेजपात।
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तेजपात  : पुं०=तेजपत्ता।
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तेजबल  : पुं० [सं० तेजोबत्ती] १. एक तरह की छाल जिसकी छाल लाल रंग की होती है और बीज काली मिरच की तरह के होते है जों दवा के काम आते हैं। २. उक्त वृक्ष की छाल और बीज जो सुगंधित होते हैं।
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तेजल  : पुं० [सं०√तिज् (सहना)+कलच्] चातक। पपीहा।
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तेजवंत  : वि०=तेजवान्।
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तेजवान्  : वि० [सं० तेजोवान्] [स्त्री० तेजवत्ती] १. जिसमें तेज हो। तेज से युक्त। तेजस्वी। २. वीर्यवान्। ३. बलवान। शक्तिशाली। ४. कांतिमान्। चमकीला।
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तेजसी  : वि० [हिं० तेजस्वी] जिसमें तेज हो तेजस्वी।
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तेजस्  : पुं० [सं०√तिज् (सहना)+असुन्] दे० ‘तेज’।
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तेजस्-चिकित्सा  : स्त्री० [तृ० त०] दे० रश्मि चिकित्सा।
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तेजस्कर  : वि० [सं०तेजस्√कृ(करना)+ट] तेज को प्रदीप्त करने या बढ़ानेवाला। तेज उत्पन्न करनेवाला।
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तेजस्काम  : वि० [सं० तेजस्√कम्(चाहना)+अण्] शक्ति या प्रताप की कामना करनेवाला।
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तेजस्क्रिय  : वि० [सं० ब० स०] (वह पदार्थ) जिसमें से तेज निकलकर दूसरे पदार्थों प्रभावित करता है। (रेडियो एक्टिव)।
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तेजस्क्रियता  : स्त्री० [सं० तेजस्क्रिय+तल्–टाप्] कुछ विशिष्ट मौलिक तत्त्वों या पदार्थों में निहित वह विद्युत शक्ति जो विशेष अवस्थाओं में तेज या रश्मि के रूप में बाहर निकलकर दूसरे पदार्थों पर प्रभाव डालती है। (रेडियो एक्टिविटी)।
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तेजस्वत्  : वि० [सं० तेजस्+मतुप् (वत्व)] तेजस्वी।
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तेजस्वान्  : वि० [सं० तेजस्वत्] तेजस्वी।
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तेजस्विता  : स्त्री० [सं०तेजस्विन्+तल्-टाप्] तेजस्वी होने की अवस्ता, गुण या भाव।
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तेजस्विनी  : स्त्री० [सं० तेजस्विन्+ङीष्] मालकंगनी।
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तेजस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० तेजस्+विनि] [स्त्री० तेजस्विनी] १. जिसमें यथेष्ट तेज हो। २. जिसके बल, बुद्दि वैभव आदि का दूसरों पर यथेष्ट प्रभाव पड़ता हो। प्रतापी। पुं० इंद्र के एक पुत्र का नाम।
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तेजा  : पुं० [फा० तेज] १. एक प्रकार का काला रंग जिसमें कपड़ा रंगनेवाले रंगरेज मोरपंखी रंग बनाते हैं। २. चीजों का दाम तेज या बढ़ा हुआ होने की अवस्था या भाव। तेजी।
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तेजाब  : पुं० [फा०] [वि० तेजाबी] एक तरह के रासयनिक खट्टे तरल पदार्थ जो जल में घुलनशील होते है और जो नीले शेवल पत्र को लाल कर देते हैं। अम्ल। (एसिड)।
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तेजाबी  : वि० [फा०] १. तेजाब संबधी। २. जिसमें तेजाब मिला हुआ हो। ३. तेजाब की सहायता से तैयार किया बना या साफ किया हुआ। जैसे–तेजाबी सोना।
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तेजाबी सोना  : पुं० [फा० तेजाबी+हिं० सोना] वह सोना जो पुराने गहनों को गलाकर और तेजाब की सहायता से अच्छी तरह साफ करके तैयार किया जाता है।
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तेजायन  : पुं० [सं० तेज+आयतन] तेज का भंडार। परम तेजस्वी। उदाहरण–घोर तेजायतन घोर राशी।–तुलसी।
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तेजारत  : स्त्री०=तिजारत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेजारती  : वि०=तिजारती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेजिका  : स्त्री० [सं० तेजक+टाप्, इत्व] मालकंगनी।
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तेजित  : वि० [सं०√तिज्(सहना)+णिच्+क्त] १. तेज से युक्त किया हुआ। २. उत्तेजित।
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तेजिनी  : स्त्री० [सं०√तिज्+णिच्+णिनि-ङीष्] तेजबल।
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तेजिष्ठ  : वि० [सं० तेजस्विन्+इष्ठन्] तेजस्वी।
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तेजी  : स्त्री० [फा० तेजी] १. तेज होने की अवस्था, क्रिया गुण या भाव। २. उग्रता। प्रचंडता। ३. तीव्रता। प्रबलता। ४. गति आदि में होनेवाली शीघ्रता। ५. चीजों की दर या भाव में होनेवाली असाधारण या विशिष्ट वृद्धि। मँहगी। ‘मन्दी’ का विपर्याय।
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तेजोज  : पुं० [सं० तेजस√जन् (उत्पन्न होना)+ड] रक्त। खून।
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तेजोजल  : पुं० [सं० तेजस्+जल, ष० त०] आँख का वह ऊपरी अर्द्ध गोलाकार भाग जो शीशे के ताल की तरह जान पड़ता है। (लेंस)।
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तेजोन्वेष  : पुं० [सं० तेजस्-अन्वेष, ष० त] एक प्रकार का बहुत बड़ा वैज्ञानिक यंत्र जिसकी सहायता से परावर्तित ध्वनि तरंगों के आधार पर यह जाना जाता है कि आकाश अथवा स्थल में किस दिशा में और कितनी दूरी पर शत्रु आकाशयान जल-यान अथवा सैनिक महत्त्व के संघटन स्थित हैं, अथवा कोई आकाशयान या जलयान किधर से आ रहा है या किधर जा रहा है। (राडार)।
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तेजोबल  : पुं० [सं० तेजस्-बल, ब० स०] एक तरह का कँटीला जंगली पेड़ जिसका छिलका दवा और मसाले के काम आता है।
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तेजोभंग  : पुं० [सं० तेजस्-भंग, ष० त०] अपमान। बेइज्जती।
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तेजोभीरु  : स्त्री० [सं० तेजस्-भीरु, पं० त०] छाया।
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तेजोमंडल  : पुं० [सं० तेजस्-मंडल, ष० त०] सूर्य, चंद्रमा आदि आकाशीय पिंडों के चारों ओर का मंडल। छटा मंडल। भा-मंडल।
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तेजोमंथ  : पुं० [सं० तेजस्√मन्थ् (मथना)+अण्] गनियारी का पेड़।
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तेजोमय  : वि० [सं० तेजस्-मयट्] १. तेज से परिपूर्ण। २. शक्ति से परिपूर्ण। ३. तेजस्वी।
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तेजोमूर्ति  : वि० [सं० तेजस्-मूर्ति, ब० स०] तेजस्वी। पुं० सूर्य।
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तेजोरूप  : वि० [सं० तेजस्-रूप, ब० स०] जो अग्नि या तेज के रूप में हो। पुं० ब्रह्म।
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तेजोवती  : स्त्री० [सं० तेजस्-मतुप्+ङीप्] १. गजंपिप्पली। २. बाच। चव्य। ३. माल-कंगनी ४. तेजबल।
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तेजोवान्(वत्)  : वि० [सं० तेजस्+मतुप्] [स्त्री० तेजोवती] तेजवाला। तेजस्वी।
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तेजोवृक्ष  : पुं० [सं० तेजस्-वृक्ष, मध्य० स०] छोटी अरणी का वृक्ष।
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तेजोहत  : वि० [सं० तेजस्-हत, ब० स०] जिसका तेल नष्ट हो चुका हो।
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तेजोह्व  : स्त्री० [सं० तेजस्√ह्रे (स्पर्धा करना)+क] १. तेजबल। २. चाब। चव्य।
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तेड़ना  : स० टेरना। (पुकारना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेणि  : अव्य० [सं० तेन] से। उदाहरण–वैदे कहियौ तेणि विसखि।–प्रिथीराज।
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तेतना  : वि०=तितना (उतना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेतर  : वि० [हिं० तोतला] (व्यक्ति) जो तुतला कर बोलता हो।
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तेंतरा  : पुं० [देश] बैलगाड़ी में फड़ के नीचे की लकड़ी।
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तेता  : वि० [स्त्री० तेती]=तितना (उतना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेतालिस  : वि० पुं०=तेतालिस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेंतालिसवाँ  : वि० [हिं० तेंतालिस+वाँ (प्रत्यय)] क्रम में तेंतालिस के स्थान पर पड़ने या होने वाला।
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तेंतालीस  : वि० [सं० त्रिचत्वारिंशत्, प्रा० तिचत्तालीसा] जो गिनती या संख्या में चालिस से तीन अधिक हो। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।४३।
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तेतिक  : वि० [हिं० तेता] उस मात्रा या मान का। उतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेंतिस  : वि० [सं० त्रयस्त्रिशंत्, प्रा० तितिसति, प्रा० तितीसा] जो गिनती में तीस से तीन अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है।–३३।
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तेंतिसवाँ  : वि० [हिं० तेंतिस+वाँ (प्रत्यय)] जो क्रम या गिनती में तेंतिस के स्थान पर पड़ें।
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तेती  : वि० स्त्री० हिं० तेता (उतना) का स्त्री रूप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेतो  : वि०=तेता। (उतना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेंदुआ  : पुं० [देश०] चीते की जाति का एक हिंसक पशु।
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तेंदुस  : पुं० [सं० टिडिश] डेंडसी नामक पौधा और उसका फल।
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तेंदू  : पुं० [सं० तिंदुक] १. ऊँचे कद का एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसके पत्ते शीशम की तरह गोल नोकदार और चिकने होते है और लकड़ी काली और मजबूत होती है। आबनूस। २. उक्त पेड़ का फल जो नीबू के आकार का होता है और वैद्यक में वातकारक माना गया है। ३. एक तरह का तरबूज। (पश्चिम)।
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तेन  : पुं० [सं० ते=गौरी+न-शिव, ब० स०] गीत का आरंभिक स्वर।
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तेम  : पुं० [सं०√तिम्(गीला होना)+घञ्] आर्द्ध होने की अवस्था या भाव। आर्द्रता। अव्य०=तिमि (उस प्रकार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेमन  : पुं० [सं०√तिम्+ल्युट्-अन] १. आर्द्रता। २. चटनी। ३. व्यंजन।
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तेमनी  : स्त्री० [सं० तेमन+ङीष्] चूल्हा।
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तेमरू  : पुं० [देश०] १. तेदूं का पेड़। आबनूस। २. उक्त पेड़ की लकड़ी।
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तेरज  : पुं० [देश०] वह लेखा जिसमें आय-व्यय की विभिन्न मदों का उल्लेख हो। खतियौनी का गोशवारा।
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तेरवाँ  : वि०=तेरहवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेरस  : स्त्री० [सं० त्रयोदश] चांद्रमास के किसी पक्ष की तेरहवीं तिथि या दिन।
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तेरह  : वि० [सं० त्रयोदस, प्रा० तेद्दह, अर्द्धमा, तेरस] जो गिनती या संख्या में दस से तीन अधिक हो। पं० उक्त की सूचक संख्या और अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है।–१३। मुहावरा–तीन तेरह होना–दे० तीन के अन्तर्गत मुहा। तेरह बाइस करना–टाल-मटोल या बहानेबाजी करना।
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तेरहवाँ  : वि० [हिं० तेरह+वाँ (प्रत्यय)] क्रम या संख्या के विचार से तेरह के स्थान पर पड़ने या होनेवाला।
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तेरहीं  : स्त्री० [हिं० तेरह+ई(प्रत्यय)] हिंदुओं में, किसी के मरने के दिन से तेरहवाँ दिन। विशेष–इसी दिन अनेक प्रकार के कृत्य औ पिंडदान आदि कराकर मृतक से संबंधी शुद्ध होते हैं।
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तेरहुत  : पं०=तिरहुत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेरा  : सर्व० [सं०तव] [स्त्री०तेरी] मध्यम पुरूष एकवचन संबध कारक अर्थात् षष्ठी का सूचक सर्वनाम। तू का संबंधकारक रूप। जैसे–तेरा नाम क्या है। मुहावरा–तेरा मेरा करना-यह कहना कि यह तुम्हारा और वह हमारा है,अर्थात् दूजायगी या पार्थक्य के भाव से युक्त बातें करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेरुस  : पुं०=त्यौरूस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=तेरस।
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तेरे  : सर्व० [हिं० तेरा] १. हिं० तेरा का बहुवचन रूप। जैसे–तेरे बाल-बच्चे। २.हिं०तेरा का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने पर प्राप्त होता है। जैसे–तेरे सिर पर। अव्य० [हिं० ते० या ते] १. से। २. तुझसे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेरो  : सर्व०=तेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेल  : पुं० [सं०तैल] १.तिल अथवा किसी तेलहन के बीजों अथवा कुछ विशिष्ट वनस्पतयों को पेरकर निकाला हुआ प्रसिद्ध स्निग्ध दह्म तरल पदार्थ जो खाने-पकाने, जलाने, शरीर में मलने अथवा औषध आदि के काम में आता है। चिकना। स्नेह० जैसे–तिल नीम बदाम या सरसों का तेल। मुहावरा–तेल में हाथ डालना-अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए खौलते हुए तेल में हथ डालना। (मध्य युग की एक प्रकार की परीक्षा) आँखों का तेल निकालना-ऐसा परिश्रम करना जिससे आँखों को बहुत अधिक कष्ट हो। २.विवाह की एक रीति जो साधारणतः विवाह से दो दिन और कहीं-कहीं चार-पाँच दिन पहले भी होती है और जिसमें वर अथवा वधू के शरीर में हल्दी मिला हुआ तेल लगाया जाता है। मुहावरा–तेल उठना या चढ़ना-विवाह से पहले उक्त रीति का सम्पादन होना। तेल चढ़ाना-उक्त रीति का संपादन करना। ३.पशुओं के शरीर से निकलनेवाली पतली चरबी जो सहज में जल सकती और दवा रंगाई आदि के काम में आती है। जैसे–मगर या साँड़े का तेल। ४.कुछ विशिष्ट प्रकार के खनिज द्रव्य पदार्थ जो सहज में जल सकते है। जैसे–मिट्टी का तेल।
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तेलंग  : पुं०=तैलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेलगू  : पु०स्त्री०=तेलुगू।
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तेलचलाई  : स्त्री० [हिं०तेल+चलाना] दे०मिडा़ई (छींट की छपाई की)।
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तेलवाई  : पुं० [हिं० तेल+वाई(प्रत्यय)] १. शरीर में तेल मलने या लगाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. विवाह की एक रसम जिसमें कन्या
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तेलसुर  : पुं० [१] एक तरह का लंबा वृक्ष जिसकी नावें आदि बनाने के काम आती है।
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तेलहड़ा  : पुं० [हिं० तेल+डंडा] [स्त्री० अल्पा० तेलहँड़ी] १. मिट्टी की वह हाँड़ी जिसमें तेल रखा जाता हो। २. तेल रखने का कोई पात्र।
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तेलहन  : पुं० [सं०तैल धान्य] कुछ वनस्पतियों के वे बीज जिन्हें पेरने से उनमें से चिकना और तरल पदार्थ (अर्थात् तेल) निकलता हो।
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तेलहा  : वि० [हिं० तेल] [स्त्री० तेलही] १. जिसमें तेल हो (बीज या पौधा) २. तेल के योग से बना या पका हुआ। जैसे–तेल ही जलेबी। ३. जिस पर तेल गरा या लगा हो। ४. जिसमें तेल की सी गंध या चिकनाहट हो।
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तेला  : पुं० [हिं० तीन] वह उपवास जो तीन दिनों तक बराबर चलें।
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तेलिन  : स्त्री० [हिं० तेली का स्त्री] १. तेंली की या तेली जाति की स्त्री। २. एक प्रकार का छोटा बरसाती कीड़ा जिसके स्पर्श से शरीर में जलन होने लगती है।
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तेलियर  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी जिसके काले रंग के शरीर पर सफेद रंग की बहुत सी चित्तियाँ होती है।
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तेलिया  : वि० [हिं० तेल] १. जो तेल की तरह चमकीला और चिकना हो। २. तेल की तरह हलके काले रंगवाला। ३. जिसमें तेल होता या रहता हो। तेल से युक्त। पुं० १. तेल की तरह का काला और चमकीला रंग। २. उक्त रंग का घोड़ा। ३. एक प्रकार का कीकर या बबूल। ४. कोई ऐसा पक्षी या पशु जिसका रंग तेल की तरह काला और चिकना हो। ५. सींगिया नामक विष। स्त्री० एक प्रकार की छोटी मछली।
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तेलिया गर्जन  : पुं० [सं०]=गर्जन।
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तेलिया-कत्था  : पुं० [हिं० तेलिया+कत्था] एक तरह का कत्था या खैर जो तेल की तरह कुछ काला पन लिये होता है।
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तेलिया-कंद  : पुं० [सं० तैल+कंद] एक प्रकार का कंद। विशेष–यह कंद जिस भूमि में होता है वह तेल से सीची हुई जान पड़ती है।
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तेलिया-काकरेजी  : पुं० [हिं० तेलिया+काकरेजी] कालापन लिये गहरा ऊदा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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तेलिया-कुमैत  : पुं० [हिं० तेलिया+कुमैत] १. घोड़े का एक रंग जो अधिक कालापन लिये लाल या कुमैत होता है। २. उक्त रंग का घोड़ा।
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तेलिया-पाखान  : पुं० [हिं० तेलिया+पखान] एक तरह का चिकना और मजबूत पत्थर।
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तेलिया-पानी  : पुं० [हिं० तेलिया+पानी] वह जल जिसमें कुछ चिकनाहट हो अथवा जिसका स्वाद तेल जैसा हो।
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तेलिया-मुनिया  : स्त्री० [हिं] मुनिया पक्षी की एक जाति। इस मुनिया के ऊपर और नीचे के पर बादामी रंग के सिर ठोड़ी तथा गला कत्थई रंग का होता है।
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तेलिया-मैना  : स्त्री० [हिं०] एक तरह की मैना। तिलारी।
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तेलिया-सुरंग  : पुं०=तेलिया कुमैत।
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तेलिया-सुहागा  : पुं० [हि० तेलिया+सुहागा] एक तरह का सुहागा जिसमें कुछ चिकनापन होता है।
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तेली  : पुं० [हिं० तेल+ई (प्रत्यय)] [स्त्री० तेलिन] १. वह जो तेलहन पेरकर तेल निकालता और बेचता हो। २. हिंदुओं में एक जाति जो उक्तकाम व्यवसाय के रूप में करती है। पद–तेली का बैल-वह जो अपना अधिकतर समय बहुत ही तुच्छ और परिश्रम के कामों में लगाता हो।
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तेलुगू  : पुं० [सं० तैलंग] १. तैलंग देश का आधुनिक नाम। २. उक्त देश का निवासी। स्त्री० तैलंग देश का भाषा।
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तेलौंची  : स्त्री० [हिं० तेल+औंची (प्रत्यय)] तेल रखने की प्याली।
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तेलौना  : वि० [हिं० तेल+औना (प्रत्यय)] [स्त्री० तेलौनी] दे० ‘तेलहा’।
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तेवई  : स्त्री०=तिरिया (स्त्री)।
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तेवट  : स्त्री० [देश०] संगीत में सात दीर्घ अथवा चौदह लघु मात्राओं का एक ताल जिसमें तीन आघात और एक खाली रहता है।
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तेवड़ा  : पुं० [?] एक तरह का ताल।
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तेवन  : पुं० [सं०√तेव् (खेलना)+ल्युट्-अन] १. महल के आगे का एक छोटा बाग। नजरबाग। २. आमोद-प्रमोद,क्रीड़ा आदि करने का वन। ३. आमोद-प्रमोद। क्रीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेवर  : पुं० [सं० त्रिकुटी, पुं० हिं० तिउरी] १. किसी विशिष्ट उद्देश्य या भाव से किसी की ओर फेरी जानेवाली या किसी पर डाली जानेवाली दृष्टि त्योरी। जैसे–उनके तेवर देखकर ही मैंने उनके मन का भाव समझ लिया था। मुहावरा–तेवर चढ़ना-भौंहों का इस प्रकार ऊपर की ओर खिंचना कि उनसे कुछ-कुछ क्रोध या नाराजगी झलकने लगे। केवर बदलना या बिगड़ना-व्यवहार में क्रोध या रूखाई प्रकट करना। २. भौंह। भुकुटी। पुं० [हिं० तीन] स्त्रियों के पहनने के तीन कपडों (साड़ी, ओढ़नी और चोली) की सामूहिक संज्ञा।
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तेवरसी  : स्त्री० [देश०] १. ककड़ी। २. खीरा। ३. फूट।
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तेवरा  : पुं० [देश०] दून में बजनेवाला रूपक ताल।
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तेवराना  : अ० [हिं० तेवर+आना (प्रत्यय)] १. तेवर का इस प्रकार ऊपर की ओर खिंचना कि उससे कुछ आश्चर्य क्रोध या चिन्ता प्रकट हो। २. बेसुध या मूर्च्छित होना।
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तेवरी  : स्त्री०=त्योरी।
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तेवहार  : पुं०=त्योहार।
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तेवान  : पुं० [देश०] सोच-विचार। चिंता। फिक्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तेवाना  : अ० [हिं० तेवान] चिंतित होना। फिक्र करना। उदाहरण–ठाढ़ि तेवानि टेकिकर लंका।–जायसी।
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तेह  : पुं० [सं० तस्-तिरस्कृत करना, दूर हटाना] १. क्रोध। गुस्सा। तेहा। २. अभिमान। घमंड। ३. तेजी। तीव्रता। ४. प्रचंडता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेहर  : स्त्री० [सं० त्रि+हिं० हार] तीन लड़ों की करधनी जो स्त्रियाँ कमर में पहनती है।
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तेहरा  : वि० [हिं० तीन+हरा] [स्त्री० तेहरी] १. तीन तहों या परतों में लपेटा हुआ। २. जिसमें तीन तहें या परतें हो। ३. जो दो बार हो चुकने के बाद फिर से तीसरी बार करना पड़े या किया गया हो। जैसे–तेहरा काम, तेहरी मेहनत। ४. जो एक साथ तीन हों। ५. तिगुना। (क्व०)।
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तेहराना  : स० [हिं० तेहरा] १. लपेटकर तीन तहों या परतों में करना। २. कोई काम दो बार कर चुकने के बाद कोर-कसर ठीक करने के लिए फिर से तीसरी बार करना, जाँचनाया देखना।
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तेहवार  : पुं०=त्योहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेहा  : पुं० [सं० तस्-तिरस्कृत या दूर करना] १. अपने अभिमान, बड़प्पन, महत्त्व आदि की भावना से उत्पन्न होनेवाला ऐसा हलका क्रोध या गुस्सा हो २. क्रोध। गुस्सा। ३. अभिमान। घमंड।
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तेहि  : सर्व० [सं० ते] उसे। उसको।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तेही  : पुं० [हिं० तेह+ई (प्रत्यय)] १. जिसमें तेहा हो या जो तेहा दिखलाता हो। क्रोधी। २. अभिलाषा घमंडी।
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तेहेदार  : पुं०=तेही।
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तेहेबाज  : पुं०=तेही।
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तैं  : सर्व०=तू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विभ=ते (से)
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तैं  : अव्य० [सं० तत्] उस मात्रा या मान का। उतना हिं जै का नित्य संबंधी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) जैसे–जै आदमी कहो, तै आदमी आवें।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [अ०] १. जो ठीक और पूरा या समाप्त हो चुका हो। जैसे–काम तै करना। २. (झगड़ा) जिसका निपटारा निर्णय या फैसला हो चुका हो। जैसे–आपस का झगड़ा या मुकदमा तै करना। ३. जो निर्णीत या निश्चित हो चुका हो। जैसे–किराया या दाम तै करना। स्त्री०=तह।
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तैकायन  : पुं० [सं० तिक+फक्-आयन] तिक ऋषि के वंशज या शिष्य।
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तैक्त  : पुं० [सं० तिक्त+अण्] तिक्त होने का भाव। तीतापन। चरपराहट।
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तैक्ष्ण्य  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+ष्यञ्] तीक्ष्णता।
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तैखाना  : पुं०=तहखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तैजस  : वि० [सं० तेजस्+अण्] १. तेज-सम्बन्धी या तेज से युक्त। २. तेज से उत्पन्न। पुं० १. भारतीय दर्शन में राजस अवस्था में उत्पन्न होनेवाला अहंकार जिससे शरीर की ग्यारहों इन्द्रियों और पंच-तन्मात्रों का विकास होता है। २. कोई ऐसा पदार्थ जो खूब चमकता हो। जैसे–धातुएँ रक्त आदि। ३. परमात्मा जो स्वयं प्रकाश है और जिससे सूर्य आदि को प्रकाश प्राप्त होता है। ४.वैद्यक में वह शारीरिक शक्ति जो भोजन को रस के रूप में तथा रस को धातु के रूप में परिवर्तित करती है। ५. पराक्रम। पौरुष। बल। ६. घी। घृत। ७. महाभारत के समय का एक प्राचीन तीर्थ। ८. बहुत तेज चलनेवाला घोड़ा।
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तैजसावर्तनी  : स्त्री० [सं० तैजस-आवर्तिनी, ष० त०] चाँदी सोना आदि गलाने की घरिया।
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तैजसी  : स्त्री० [सं० तैजस्+ङीप्] गजपिप्पली।
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तैंतालीस  : वि०=तेंतालिस।
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तैंतिक्ष  : वि० [सं० तितिक्षा+ण] बरदाश्त या सहन करनेवाला। सहन शील।
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तैंतिडीक  : वि० [सं० तिन्तिडीक+अण्] इमली की कांजी से बनाया हुआ।
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तैंतिर  : पुं० [सं० तैत्तिर-पृषो० सिद्धि] तीतर।
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तैंतिल  : पुं० [सं०] १.फलित ज्योतिष में ग्यारह करणों में से चौथा करण जिसमें जन्म लेनेवाला कलाकुशल, रूपवान, वक्ता गुणी और सुशील होता है। २. देवता। ३. गैंडा।
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तैंतिस-तैंतीस  : वि० पुं०=तेंतिस।
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तैतीस  : वि=तेंतिस।
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तैत्तिति  : पुं० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद के प्रवर्तक ऋषि का नाम।
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तैत्तिर  : पुं० [सं० त्तित्तिर+अण्] १. तीतर पक्षी। २. तीतरों का समूह। ३. गैंड़ा (पशु)।
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तैत्तिरिक  : पुं० [सं० तैत्तिर+ठक्-इक] तीतर पकड़नेवाला बहेलिया।
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तैत्तिरीय  : स्त्री० [सं० तित्तिर+छण्-ईय] १. कृष्ण यजुर्वेद की छियासी शाखाओं में से एक जो आश्रेय अनुक्रमिका और पाणिनी के अनुसार तित्तिर नाम ऋषि प्रोक्त है। २. उक्त शाखा का एक प्रसिद्ध उपनिषद्।
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तैत्तिरीयक  : पुं० [सं० तैत्तिरीय+कन्] तैत्तिरीय शाखा का अनुयायी या अध्येता।
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तैत्तिल  : पुं०=तैतिल।
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तैथिक  : पुं० [सं०] १५ मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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तैना  : अ० [सं० तपन] १. तप्त होने। तपना। २. दुःखी होना। स०=ताना। (तपाना)।
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तैनात  : वि० [अ० तअय्युन] [भाव० तैनाती] (वह) जो किसी स्थान की सुरक्षा अथवा किसी विशिष्ट काम के लिए कहीं नियत या नियुक्त हुआ हो। मुकर्रर।
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तैनाती  : स्त्री० [हिं० तैनात+ई (प्रत्यय)] तैनात करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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तैमिर  : पुं० [सं० तिमिर+अण्] तिरमिरा (दे०)।
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तैया  : पुं० [देश०] छीपियों का रंग बोलने का छोटा प्याला।
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तैयार  : वि० [अ० तय्यार] १. जो कुछ करने के लिए हर तरह से उद्यत, तत्पर या प्रस्तुत हो चुका हो। जैसे–चलने को तैयार। २. जो हर तरह से उपयुक्त ठीक या दुरुस्त हो चुका हो। जिसमें कोई कोरकसर न रह गई हो। जैसे–भोजन (या मकान) तैयार होना। ३. समाने आया, रखा या लाया हुआ। उपस्थित, प्रस्तुत, मौजूद। जैसे–जितनी पुस्तकें तैयार हैं वे सब ले लो। ४. (शरीर) जो हर तरह से स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हो। जैसे–इधर कुछ दिनों से उसका बदन खूब तैयार हो रहा था। ५. (काम करने के लिए हाथ) जिसमे यथेष्ट अभ्यास के फलस्वरूप पूरा कौशल या दक्षता आ चुकी हो। जैसे–चित्र बनाने या तबला बजाने में हाथ तैयार होना। ६. (संगीत के क्षेत्र में कंठ या गला) जिससे सब तरह के खटके ताने, पलटें, मुरकियाँ आदि अनायास या सहज में और बहुत ही मधुर या सुन्दर रूप में निकलती हों। पूर्ण रूप से अभ्यस्त और कुशल। जैसे–इतना तैयार गला बहुत कम देखने में आता है।
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तैयारी  : स्त्री० [फा० तय्यारी] १. तैयार होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. तत्परता। मुस्तैदी। ३. शरीर की अच्छी गठन और पुष्टता तथा स्वस्थता। ४. वैभव, सोभा, सौन्दर्य आदि दिखाने के लिए की जानेवाली धूम-धाम या सजावट। ५. संगीत कला की वह पटुता जो बहुत अधिक अभ्यास से आती है, जिसमें गवैया कठिन-कठिन तानें बहुत सहज में सुनाता है।
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तैयो  : क्रि० वि० [सं० तद्यपि] तिस पर भी। तो भी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तैर  : वि० [सं० तीर+अण्] तीर या तट-संबंधी। तट का।
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तैरणी  : स्त्री० [सं० तीर√नम् (नमस्कार करना)+ड, तीरण+अण्+ङीष्] एक प्रकार का क्षुप जिसकी पत्तियाँ औषधि के काम आती है।
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तैरना  : अ० [सं० तरण] १. प्राणियों का अपने हाथ-पैर, पंख या डैने अथवा दुम हिलाते हुए पानी के ऊपरी तल पर इस प्रकार इधर-उधर घूमना या आगे बढ़ना कि वे डूबने से बचे रहें। ऐसी युक्ति सेपानी में चलना कि डूब न जायँ। २. मनुष्यों का अपने हाथ-पैर इस प्रकार चलाते या हिलाते हुए आगे बढ़ना कि सरीर पानी के तल में बैठने न पावे। पैरना। विशेष–प्रायः सभी जीव-जन्तुओं प्राकृतिक रूप से पानी पर तैरना जानते है, परन्तु मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक तैरने की कला सीखनी पड़ती है। ३. पानी से हलकी चीज का पानी अथवा किसी द्रव पदार्थ की ऊपरी तह पर ठहरा रहना, अथवा उसके प्रवाह या बहाव के साथ-साथ आगे बढ़ना। जैसे–लकड़ी का पानी पर तैरना। ४. लाक्षणिक रूप में, किसी प्राणी अथवा वस्तु का इस प्रकार सहज में और सरल गति से इधर-उधर हटना-बढ़ना जिस प्रकार जीव-जन्तु जल के ऊपरी भाग पर तैरते हैं। जैसे–कीटाणुओं अथवा गुड्डी (या पतंग) का हवा में तैरना।
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तैराई  : स्त्री० [हिं० तैरना+ई (प्रत्यय)] १. तैरने की क्रिया या भाव। २. तैरने या तैराने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक।
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तैराक  : वि० [हिं० तैरना+आक (प्रत्यय)] (वह) जो खूब अच्छी तरह तैरना जानता हो।
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तैराकी  : स्त्री० [हिं० तैराक+ई (प्रत्यय)] १. तैरने की क्रिया या भाव। २. वह उत्सव या मेला जिसमें तैरने की कलाओं, जल-कीड़ाओं आदि का प्रदर्शन या प्रतियोगिता हो।
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तैराना  : स० [हिं० तैराना का प्रे०] १. दूसरे को तैरने में प्रवृत्त करना। तैरने का काम दूसरे से कराना। २. धारदार शस्त्रों के सम्बन्ध में शरीर के अन्दर अच्छी तरह धँसाना या प्रविश्ट कराना। जैसे–किसी के पेट में कटार तैराना।
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तैर्थ  : वि० [सं० तीर्थ+अण्] १. तीर्थ संबंधी। तीर्थ का। २. तीर्थ में होनेवाला। पुं० वे धार्मिक कृत्य जो किसी तीर्थ में जाने पर करने पड़ते हैं।
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तैर्थक  : वि० [सं० तीर्थ+वुञ्-इक] शास्त्रकार।
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तैर्यगयनिक  : पुं० [सं० तिर्यक-अयन, ष० त०+ठञ्-इक] एक प्रकार का यज्ञ।
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तैल  : वि० [सं० तिल+अञ्] तिल-संबंधी। तिल या तिलों का। पुं० १. तिल के दानों या बीजों को पेरकर निकाला हुआ तेल। २. दे० ‘तेल’।
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तैल-कंद  : पुं० [मध्य० स०] तेलिया-कंद।
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तैल-किट्ट  : पुं० [ष० त०] खली।
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तैल-कीट  : पुं० [मध्य० स०] तेहिन नाम का कीड़ा।
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तैल-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] बहुत मोटे कपड़े पर तैल रंगों की सहायता से अंकित किया हुआ चित्र। (आयल पेंटिग)।
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तैल-द्रोणी  : स्त्री० [मध्य० स०] तेल रखने का एक तरह का बहुत बड़ा पात्र जिसमें कुछ विशिष्ट रोगियों को प्राचीन काल में लेटाया जाता था।
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तैल-धान्य  : पुं० [मध्य० स०] १. धान्य का एक वर्ग जिसके अंतर्गत तीनों प्रकार की सरसों, दोनों प्रकार की राई, खस और कुसुम के बीज हैं। २. तेलहन।
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तैल-पर्णक  : पुं० [ब० स० कप्] गठिवन।
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तैल-पिष्टक  : पुं० [ष० त०] खली।
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तैल-फल  : पुं० [ब० स०] १. इंगुदी। २. बहेंड़ा।
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तैल-भाविनी  : स्त्री० [सं० तैल√भू (होना)+णिच्+णिनि-ङीप्] चमेली का पेड़।
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तैल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] कोल्हू।
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तैल-रंग  : पु० [सं०] चित्र कला में, जल से भिन्न वे रंग जो कई तरह के तेलों या साफ किए हुए प्रट्रोल में मिलाकर तैयार किये जाते है। ऐसे रंग जल-रंग की अपेक्षा अच्छे समझे जाते और अधिक स्थायी होते हैं। (आयल कलर)।
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तैल-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] शतावरी। शतमूली।
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तैल-साधन  : पुं० [सं० तैल√साध् (सिद्ध करना)+णिच्+ल्यु–अन] शीतलचीनी। कवाबचीनी।
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तैलकार  : पुं० [सं० तैल√कृ (करना)+अण्] तेल पेरने और बेचनेवाला व्यक्ति। तेली।
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तैलंग  : पुं० [सं० त्रिकलिंग] आधुनिक आंध्र प्रदेश का पुराना नाम तैलंग।
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तैलंगा  : पुं०=तिलंगा।
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तैलंगी  : वि० [हिं० तैलंग+ई (प्रत्यय)] तैलंग देश का। पुं० तैलंग देश का निवासी। स्त्री० तैलंग देश की भाषा तेलगू।
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तैलत्व  : पुं० [सं० तैल+त्व] तेल का भाव या गुण।
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तैलपक  : पुं० [सं० तैल√पा (पीना)+क+कन्] झींगुर नामक कीड़ा।
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तैलपर्णिक  : पुं० [सं० तिलपर्ण+ठन्-इक] सलई का गोंद।
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तैलपर्णी  : स्त्री० [सं० तिलपर्ण+अण्-ङीष्] १.चन्दन। २. लोबान। ३. तुरुष्क। शिलारस।
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तैलपायी(यिन्)  : पुं० [सं० तैल√पा (पीना)+णिनि] झींगुर। चपड़ा। (कीड़ा) वि० तेल पीनेवाला।
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तैलपिपीलिका  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की चींटी
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तैलमाली  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] तेल की बत्ती।
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तैलस्फटिक  : पुं० [मध्य० स०] १. अंबर नामक गंध-द्र्व्य। २. कहरुबा। तृण-मणि।
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तैलस्यंदा  : स्त्री० [सं० तैल√स्यन्द (चूना)+अच्-टाप्] १. गोकर्णी नाम की लता। मुरहटी। २. काकोली।
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तैलाक्त  : स्त्री० [सं० तैल-अक्त, तृ० त०] जिस, में तेल लगा हो। तेल से सना हुआ।
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तैलाख्य  : पुं० [सं० तैल-आख्या, ब० स०] शिली रस या तुरुष्क नाम का गंध द्रव्य।
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तैलागुरु  : पुं० [सं० तैल-अगुरु, मध्य० स०] अगर की लकड़ी।
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तैलाटी  : स्त्री० [सं० तैल√अट् (जाना)+अच्-ङीष्] बर्रे। भिड़।
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तैलाभ्यंग  : पुं० [सं० तैल-अभ्यंग, ष० त०] शरीर में तेल लगाने की क्रिया या भाव।
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तैलि-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह घर या स्थान जहाँ कोल्हू चलता हो।
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तैलिक  : वि० [सं० तैल+ठक्–इक] तेल-संबधी। पुं० [तैल+ठक-इक] तेली।
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तैलिक-यंत्र  : पुं० [कर्म० स०] तिल आदि पेरने का यंत्र। कोल्ह।
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तैलिनी  : स्त्री० [सं० तैल+इनि–ङीष्] बत्ती।
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तैली(लिन्)  : पुं० [सं० तैल+इनि] तेली।
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तैलीन  : पुं० [सं० तिल+खञ्-ईन] तिल का खेत।
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तैल्वक  : वि० [सं० तिल्व+वुञ्–अक] लोध की लकड़ी से बना हुआ। पुं० लोध।
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तैश  : पुं० [अ०] अत्यधिक क्रुद्ध होने पर चढ़नेवाला आवेश। क्रि० प्र०–दिखाना। मुहावरा–तैश में आना-मारे क्रोध के कोई अनुचित बात कहने या काम करने के लिए आवेशपूर्वक प्रस्तुत होना।
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तैष  : पुं० [सं० तिष्य+अण्-य-लोप] चांद्र पौष मास। विशेष–पौष मास की पूर्णिमा के दिन तिष्य (पुष्प नक्षत्र) होने के कारण यह नाम पड़ा है।
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तैषी  : स्त्री० [सं० तैष+ङीष्] पुष्प नक्षत्र से युक्त पूस की पूर्णिमा।
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तैस  : वि०=तैसा।
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तैसा  : वि० [सं० तादृश, प्रा० ताइस] उस आकार, प्रकार, रूप, गुण आदि का। उस जैसा। वैसा।
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तैसे  : क्रि० वि०=वैसे।
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तों  : क्रि० वि०=त्यों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तो  : अव्य० [सं० तु] एक अव्यय जिसका प्रयोग वाक्य में किसी कथन, पद या संभावित बात पर जोर देने या पार्थक्य, विशिष्टता आदिसूचित करने के लिए अथवा कभी-कभी यों ही किया जाता है। जैसे–(क) जरा दिन तो चढ़ लेने दो। (ख) वे किसी तरह आवें तो सही। (ग) मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई।–मीराँ। (घ) अब तो बात फैल गई, जानत सब कोई।–मीराँ। अव्य [सं० तत्] उस अवस्था या दशा में। तब। जैसे–यदि आप चलेगें तो हम भी आप के साथ हो लेगें। सर्व० [सं० तव] १. ब्रजभाषा में तू का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के समय प्राप्त होता है। जैसे–तोंको, तोसों आदि। २. तेरा। अ० [पुं० हिं० हतो=था का संक्षिप्त] था। (क्व०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तो-तो  : पुं० [अनु०] कुत्तो, कौओं की तरह तिरस्कारपूर्वक किसी व्यक्ति को बुलाने का शब्द।
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तोंअर  : पुं०=तोमर(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोअर  : पुं०=तोमर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोइ  : पुं० [सं० तोय] जल। पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोई  : स्त्री० [देश०] १. अंगे, कुरते आदि में कमर पर लगी हुई गोट या पट्टी। २. चादर आदि की गोट। ३. लहँगे का नेफा। स्त्री० [हिं० तवा] छोटा तवा। तौनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोईज  : अव्य० [हिं०] तभी। तभी तो। उदाहरण–भला भलो सति तोईज भंजिया।–प्रिथीराज।
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तोक  : पुं० [सं०√तु (बरतना)+क] १. श्रीकृष्णचंद्र के एक सखा। २. बच्चा। शिशु।
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तोकक  : पुं० [सं० तोक+कन्] चातक। पपीहा।
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तोकरा  : स्त्री० [देश०] एक तरह की लता जो अफीम के पौधों से लिपटती है और उन्हें सुखा डालती है।
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तोक्म  : पुं० [सं०√तक् (हँसना)+म, पृषो० सिद्धि] १. अंकुर। २. कच्चा या हरा जौ। ३. हरा रंग। ४. बादल। मेघ। ५. कान की मैल।
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तोख  : पुं०=तोषा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोखार  : पुं० १.=तुखार (एक प्रदेश) २.=तुषार।
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तोखों  : सर्व० [सं० तव, हिं० तो+खों (को)] तुझको। उदाहरण–जननी जनम दियो है तोखों बस आजहि के लानें।–लोकगीत।
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तोट  : पुं० [सं० त्रुटि या हिं० टूटना](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. टूटने की क्रिया या भाव। २. कमी। त्रुटि। ३. घाटा। ४. दोष। बुराई।
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तोटक  : पुं० [सं० त्रोटक] १. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार सगण होते हैं। २. संकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक जिनका दूसरा नाम नंदीश्वर भी था।
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तोटका  : पुं०=टोटका(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोटकी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की वनस्पति जो प्रायः घास के साथ होती है।
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तोटना  : अ०=टूटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=तोड़ना।
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तोड़  : पुं० [हिं० तोड़ना] १. तोड़े या तोड़े जाने की क्रिया, दशा या भाव। २. पानी हवा आदि का वह तेज बहाव जो सामने पड़नेवाली चीजों को तोड़-फोड़ डालता हो या तोड़-फोड़ सकता हो। जैसे–(क) इस घाट पर पानी का जबरदस्त तोड़ पड़ता है। (ख) छोटे-मोटे पेड़ हवा का तोड़ नही सह सकते। ३. कोई ऐसा काम, चीज या बात जो किसी दूसरे बड़े काम, चीज या बात का प्रभाव नष्ट कर सकता हो या उसे व्यर्थ कर सकता हो। जैसे–नशे का तोड़ खटाई है। ४. कुश्ती में वह दाँव-पेंच जो विपक्षी का दाँव-पेंच व्यर्थ कर सकता हो। ५. किले की दीवार का वह अंश जो गोलों की मार से टूट फूट गया हो। ६. दफा। बार। जैसे–उनसे कई तोड़ या लड़ाई या मुकदमेबाजी हो चुकी है। ७. दही का पानी (जो उसके छूटने अर्थात् गलने से बनता है)
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तोड़-जोड़  : पुं० [हिं० तोड़+जोड़] १. कहीं से कुछ तोड़ने और कहीं कुछ जोड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। उदाहरण–तोड़ी जो उसने मुझसे जोड़ी रकबी से। इन्शा तू अपने यार केयो तोड़-जोड़ देख। इन्शा। २. ऐसा उपाय, युक्ति या साधन जो किसी बिगड़ती हुई बात को बना सके अथवा बनी-बनाई बात बिगाड़ सके। जैसे–वह तोड़-जोड़कर जैसे–तैसे अपना काम निकाल ही लेता है। क्रि० प्र०–करना।–भिड़ना।–मिलाना।–लगाना।
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तोड़-फोड़  : स्त्री० [हिं० तोड़ना+फोड़ना] १. तोडऩे और फोड़ने की क्रिया या भाव। २.जान-बूझकर हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किसी भवन या रचना के कुछ अंशों को खंडित करना ३. दे० ‘ध्वसंन’।
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तोड़क  : वि० [सं०√तुड् (तोड़ना)+ण्वुल्-अक] तोड़नेवाला। जैसे–जात-पात तोड़क मंडल। (असिद्ध रूप)। पुं० [?] स्त्रियों का माँग-टीका नाम का गहना। (पूरब)।
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तोड़न  : पुं० [सं०√तुड्+ल्युट्-अन] १. तोड़ने की क्रिया या भाव। २. भेदन करना। ३. आघात या चोट पहुँचाना।
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तोड़ना  : स० [हिं० टूटना] १. किसी चीज पर बराबर आघात करते हुए उसे छोटे-छोटे खंडों में विभक्त करना। जैसे–पत्थर या गिट्टी तोड़ना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई वस्तु खंडित, भग्न या नष्ट-भ्रष्ट हो जाय तथा काम में आने योग्य न रह जाय। जैसे–शीशे का गिलास तोड़ना। सं० क्रि०–डालना।–देना। ३. किसी वस्तु के कोई अंग अथवा उसमें लगी हुई कोई वस्तु काट-कर या और किसी प्रकार उससे अलग करना या निकाल लेना। जैसे–वृक्ष से फल या फूल तोड़ना, किताब की जिल्द तोड़ना, जानवर के दाँत तोड़ना। ४. किसी वस्तु का कोई अंग इस प्रकार खंडित या भग्न करना कि वह ठीक तरह से या पूरा काम करने योग्य न रह जाय। जैसे–(क) घड़ी या सिलाई की मशीन तोड़ना। (ख) किसी के हाथ-पैर तोड़ना। ५. नियम, निश्चय आदि का पालन न करके अपनी दृष्टि से उसे निरर्थक या व्यर्थ करना। जैसे–(क) अपनी प्रतिज्ञा (या किसी के साथ किया हुआ समझौता) तोड़ना। (ख) व्रत तोड़ना। ६. किसी चलते या होते हुए काम, व्यवस्था, संघटन आदि का स्थायी रूप से अन्त या नाश करना। जैसे–शासन का कोई पद या विभाग तोड़ना। ७. बल, प्रभाव, महत्त्व, विस्तार आदि घटाना या नष्ट करना। अशक्त, क्षीण या दुर्बल करना। जैसे–(क) बाजार की मन्दी ने बहुत व्यापारियों को तोड़ दिया। (ख) दमे (या यक्ष्मा) ने उनका शरीर तोड़ दिया। ८. किसी प्रकार नष्ट या विच्छिन्न करके समाप्त कर देना। चलता या बना न रहने देना। जैसे–(क) किसी का घमंड तोड़ना। (ख) किसी से नाता (या संबंध) तोड़ना। किसी की दृढ़ता, बल आदि घटाकर या नष्ट करके उसे उसके पूर्व रूप में स्थित या स्थिर न रहने देना। जैसे–(क) मुकदमें में विपक्षी के गवाह तोड़ना। (ख) कमर या हिम्मत तोडना। १॰. खरीदने के समय किसी चीज का दाम घटाकर कुछ कम करना। जैसे–तुमने तो तोड़कर दस रुपये कम कर ही लिये। ११. खेत में हल चलाकर उसकी सतह की मिट्टी खंडित करके ढेलों के रूप में लाना। १२. किसी कुमारी के साथ पहले-पहल समागम करना। (बाजारू) १३.चोरी करने के लिए सेंध लगाना। जैसे–चोर ताला तोड़ कर सब माल उठा ले गये। १४. बड़े सिक्कों को छोटे-छोटे सिक्कों में बदलवा देना। विशेष–यह क्रिया अनेक संज्ञाओं के साथ लगकर उन्हें मुहावरों का रूप देती है, और ऐसे अवसरों पर उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के अर्थ होते हैं जैसे–किसी के पैर या मुँह तोड़ना, किसी से तिनका तोड़ना, किसी को रोटी (रोटियाँ) तोड़ना आदि। ऐसे अवसरों के लिए सम्बद्ध शब्द या संज्ञाएँ देखनी चाहिएँ।
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तोड़र  : पुं०=तोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोड़वाना  : स० [भाव० तुड़वाई] तुड़वाना।
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तोड़ा  : पुं० [सं० त्रुट, हिं० तोड़ना] १. टूटने या तोड़ने की क्रिया या भाव। टूट। २. किसी चीज को तोड़कर उसमें से अलग किया या निकाला हुआ अंश या बाग। खंड। टुकड़ा। जैसे–रस्सी या रस्से का तोड़ा। ३. घाटा। टोटा। (देखें)। क्रि० प्र०–आना–पड़ना। ४. वह मैदान या स्थान जो नदी के तोड के कारण कटकर अलग हो गया हो। ५. वह स्थान जो प्रायः नदियों के संगम पर उस बालू और मिट्टी के इकट्ठे होने से बनता है जो नदी अपने साथ मैदानों में से तोड़कर लाती है। क्रि० प्र०–पड़ना। ६. नदी का किनारा। तट। ७. नाच का उतना टुकड़ा जितना एक बार में नाचा जाता है और जिसमें प्रायः एक ही वर्ग की गतियाँ अथवा एक ही प्रकार के भावों की सूचक अंग-भंगियाँ या मुद्राएँ होती है। क्रि० प्र०–नाचना। ८. चाँदी आदि की लच्छेदार और चौड़ी जंजीर या सिकरी जिसका व्यवहार आभूषण की तरह पहनने में होता है। जैसे–गलें पैर या हाथ में पहनने का तोड़ा। ९. टाट की वह थैली जिसमें चाँदी के १॰॰॰) आते या रखे जाते हों। मुहावरा–(किसी के आगेध तोड़ा उलटना या गिराना-(किसी को) सैकड़ों, हजारों रुपए देना। बहुत सा धन देना। १॰. हल के आगे की वह लंबी लकड़ी जिसके अगले सिरे पर जूआ लगा रहता है। हरिस। ११.खूब अच्छी तरह साफ की हुई वह चीनी जिसके दाने या रवे कुछ बड़े होते हैं और जिससे ओला बनता था। कन्द। १२. अभिमान। घमंड। मुहावरा–तोड़ा लगाना–अभिमान या घमंड दिखाना। पद–नक-तोड़ (देखें)। पुं० [सं० तुंड या टोंटा] १. नारियल की जटा की वह रस्सी जिसके ऊपर सूत बुना रहता था और जिसकी सहायता से पुरानी चाल की तोड़दार बंदूक छोड़ी जाती थी। पलीता। पद–तोड़दार बंदूक-पुरानी चाल की वह बंदूक जो तोड़ा दागकर छोड़ी जाती थी। २. जिसे लोहा जिसे चकमक पर मारने से आग निकलती है और जिसकी सहायता से तोड़ेदार बन्दूक चलाने का तोड़ा या पलीता सुलगाया जाता था।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोड़ाई  : स्त्री०=तुड़वाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतक  : पुं० [हिं० तोता ?] पपीहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतर  : वि०=तोतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतरंगी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की चिड़िया।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतरा  : वि०=तोतला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतराना  : अ०=तुतलाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतला  : वि० [हिं० तुतलाना] [स्त्री० तोतली] १. जो तुतलाकर बोलता हो। अस्पष्ट बोलनेवाला। जैसे–तोतला बालक। २. (जवान) जिससे रुक-रुककर और तुतलाकर उच्चारण होता हो। ३. (उच्चारण) जो बच्चों की तरह का अस्पष्ट और रुक-रुककर होता हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोतलाना  : अ०=तुतलाना।
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तोता  : पुं० [फा०] [स्त्री० तोती] १. एक विशिष्ट प्रकार के पक्षियों को प्रसिद्ध जाति या वर्ग जिसमें से कुछ उप-जातियाँ ऐसी होती हैं जिनके तोते मनुष्य की बोली की ठीक-ठीक नकल उतारते हुए बोलना सीख लेते और प्रायः इसी लिए घरों में पाले जाते हैं। कीर। सुग्गा। सूआ। विशेष–इस जाति के पक्षियों की चोंच अंकुड़ीदार या नीचे की ओर घूमी हुई होती है, पर कई तरह के चमकीले रंगों के होते हैं और पैरों में दो उँगलियों आगे की ओर तथा दो पीछे की ओर होती हैं। मुहावरा–तोता पालना=दोष, दुर्यवसन, रोग को जान-बूझकर अपने साथ लगाये रहना, उससे छूटने का प्रयत्न न करना। तोते की तरह आँखें फेरना या बदलना-बहुत वेमुरौवत होना। विशेष–कहते है कि तोता चाहे कितने दिनों का पालतू क्यों न हो, पर जब एक बार पिंजरे के बाहर निकल जाता है तब फिर अपने पिंजरे या मालिक की तरफ देखता तक नहीं। इसी आदार पर यह मुहावरा बना है। मुहावरा–तोते की तरह पढ़ाना-बिना समझे-बूझे पढते या रटते चलना। हाथों के तोते उड़ना-इस प्रकार बहुत घबरा जाना कि समझ में न आवे कि अब क्या करना चाहिए। पद–तोता चश्म। २. बन्दूक का घोड़ा।
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तोता-चश्म  : वि० [फा०] [भाव० तोता-चश्मी] १. जिसकी आँखों में तोते की तरह लिहाज या संकोच का पूर्ण अभाव हो। २. बे-वफा। बे-मुरौवत।
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तोता-चश्मी  : स्त्री० [फा० तोताचश्म+ई (प्रत्यय)] तोताचश्म होने की अवस्था, गुण या भाव।
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तोतापरी  : पुं० [देश०] एक तरह का बढिया आम।
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तोती  : स्त्री० [फा० तोता] १. तोते की मादा। २. रखेली स्त्री। रखनी।
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तोत्र  : पुं० [सं०√तुद् (पीड़ित करना)+ष्ट्रन] पशु हाँकने की चाबुक या छड़ी।
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तोत्र-वेत्र  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु के हाथ का दंड।
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तोंद  : स्त्री० [सं० तुंड] छाती या वक्ष से अधिक फूला तथा बढ़ा हुआ पेट। क्रि० प्र–निकलना।–बढ़ना। मुहावरा–तोंद पचना–(क) मोटाई काम होना। (ख) घमंड या शेखी दूर होना।
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तोद  : वि० [सं०√तुद्+घञ्] कष्ट या पीड़ा देनेवाला। पुं० पीड़ा। व्यथा।
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तोदन  : पुं० [सं०√तुद्+ल्युट-अन] १. पशुओं को हाँकने का उपकरण। २. पीड़ा। व्यथा। ३. एक प्रकार का वृक्ष जिसके फल वैद्यक में कसैले, रूखे और कफ तथा वायु नाकश कहे गये हैं।
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तोंदरी  : स्त्री० [?] एक तरह के बीज जो मसूर से कुछ छोटे होते हैं। और सूजे हुए अंग पर बाँधे जाने पर सूजन दूर करते हैं।
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तोदरी  : स्त्री० [फा०] फारस देश में होनेवाला एक तरह का पेड़ और उसका फल।
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तोंदल  : वि० [हिं० तोंद+ल (प्रत्य)] जिसकी तोंद निकली या बढ़ी हुई हो। तोंदवाला।
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तोंदा  : पुं० [देश] वह मार्ग जिसमें से होकर तालाब का पानी बाहर निकलता है। पुं० दे० ‘तोदा’।
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तोदा  : पुं० [फा० तोदः] वह मिट्टी की दीवार या टीला जिस पर तीर या बंदूक चलाने का अभ्यास करने के लिए निशाना लगाते हैं। २. ढेर। राशि।
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तोंदी  : स्त्री० [सं० तुंडी] नाभी। ढोंढ़ी।
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तोदी  : स्त्री० [देश०] संगीत में एक प्रकार का ख्याल।
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तोंदीला  : वि०=तोंदल।
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तोंदेल  : वि०=तोंदल। (तोंदवाला)।
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तोन  : पुं० [सं० तूण] तूणीर। तरकश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोप  : स्त्री० [तु०] एक आधुनिक यंत्र जिसकी सहायता से युद्ध के समय शत्रुओं पर गोले, बम आदि बहुत दूर-दूर तक फेंके जाते हैं। विशेष–आज-कल समुद्री और हवाई जहाजों पर रखने के लिए और हवा में उड़ते हुए हवाई जहाज आदि नष्ट करने के लिए अनेक आकार-प्रकार की तोपें बनती हैं। क्रि० प्र०–चलाना।–छोड़ना।–दागना।–मारना। मुहावरा–तोप कीलना=तोप की नाली में लकड़ी का कुंदा कसकर ठोंक देना जिसमें वह गोला छोड़ने के योग्य न रह जाय। तोप की सलामी उतारना=किसी प्रसिद्ध और बड़े अधिकारी के आने पर अथवा किसी महत्त्वपूर्ण घटना के अवसर पर तोप चलाना जिससे बहुत जोरों का शब्द होता है। तोप के मुंह पर रखकर उडाना=किसी को तोप की नाली के आगे बाँध, बैठा या रखकर उस पर गोला छोड़ना जिससे उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाय। तोप दम करना-तोपके मुँह पर रखकर उड़ाना। पद–तोप का ईँधन या चारा=युद्ध क्षेत्र में वे सैनिक जो जान-बूझकर इसलिए आगे किये जाते है कि शत्रुओं की तोपों के गोलों के सिकार बने (व्यंग्य) २. आतिशबाजी का लोहे का वह बड़ा नल जिसमें रखकर वे बहुत जोर की आवाज करनेवाले गोले छोड़ते हैं। पाली।
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तोपखाना  : पुं० [अतोप+फा० खाना] १. वह स्थान जहाँ तोपें, गोला बारूद आदि रहता हो २. कई तोपों का कोई स्वतन्त्र वर्ग या समूह जो प्रायः एक साथ रहता और एक इकाई के रूप में काम करता है।
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तोपची  : पुं० [अ० तोप+ची (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो तोप से गोले छोड़ता हो।
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तोपड़ा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का कबूतर। २. एक प्रकार की मक्खी।
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तोपना  : स० [सं०√तुप्] [भाव० तोपाई] १. किसी चीज के ऊपर कोई दूसरी चीज इस प्रकार रखना कि नीचेवाली चीज बिलकुल ढक जाय २. (गड्ढा आदि) भरना। पाटना।
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तोपवाना  : स० [हिं० तोपना का प्रे०] तोपने का काम दूसरे से कराना।
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तोपा  : पुं० [हिं० तुरपना] १. सूई से होनेवाली उतनी सिलाई जितनी एक बार में एक छेद से दूसरे छेद तक की जाती है। सिलाई में का कोई टाँका। मुहावरा–तोपा भरना या लगाना-टाँके लगाते हुए सीना। सीधी सिलाई करना।
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तोपाई  : स्त्री० [हिं० तोपना] तोपने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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तोपाना  : स०=तोपवाना।
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तोपास  : पुं० [देश०] झाडू देनेवाला। झाड़ू बरदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोपी  : स्त्री०=टोपी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोफगी  : स्त्री०=तोहफगी।
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तोफा  : वि० [अ० तोहफा] बहुत बढ़िया। पुं०=तोहफा।
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तोबड़ा  : पुं० [फा० तोबरा या तुबरा] चमड़े, टाट आदि का वह थैला जिसमें चने भरकर घोड़े के खाने के लिए उसके मुँह पर बाँध देते हैं। क्रि० प्र०–चढ़ाना।–बाँधना।–लगाना। मुहावरा–(किसी के मुँह) तोबड़ा लगाना=बलपूर्वक किसी को बोलने से रोकना (बाजारू)।
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तोंबा  : पुं० [स्त्री० तोंबी]=तूँबा।
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तोबा  : स्त्री० [अ० तौबः] १. भविष्य में फिर वैसा काम करने की प्रतिज्ञा। क्रि० प्र०–करना।–तोड़ना। मुहावरा–तोबा तिल्ला करना या मचाना-रोते–चिल्लाते या दीनता दिखलाते हुए यह कहना कि हम पर दया करो, अब हम ऐसा नहीं करेगें। २. किसी बुरे काम से बाज रहने की प्रतिज्ञा। जैसे–ऐसे कामों (या बातों) से तो तोबा ही भली। मुहावरा–तोबा करके (कोई बात) कहना=अभिमान छोड़कर या ईश्वर से डरकर (कोई बात) कहना। (किसी से) तोबा बुलवाना=किसी को दबाते या परेशान करते हुए इतना अधिक दीन और विवश बनाना कि फिर कभी वह कोई अनुचित काम या विरोध करने का साहस न कर सके। पूर्ण रूप से परास्त करना। अव्य-ईश्वर न करे कि फिर ऐसा कभी हो। जैसे–तोबा भला अब मैं कभी उनसे बात करूँगा। (उपेक्षा तथा घृणा सूचक)।
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तोम  : पुं० [सं० स्तोम] समूह। ढेर।
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तोमड़ी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की आतिशबाजी। स्त्री०=तूँबड़ी।
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तोमर  : पुं० [सं०√तुम्प् (मारना)+अर्, पृषो० सिद्धि] १. भाले की तरह का एक प्राचीन अस्त्र। २. पुराणानुसार एक प्रावीं से चीन देश। ३. उक्त देश का निवासी। ४. राजपूतों की एक जाति। विशेष–इसी जाति ने ८वीं० से १२वीं शती तक दिल्ली में शासन किया था। अनंगपाल, जयपाल इसी वंश के राजा थे। ५. बारह मात्राओं का एक छन्द जिसके अंत में एक गुरु और एक लघु होता है।
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तोमरिका  : स्त्री० [सं०तोमर+कन्-टाप्,इत्व] १.गोपी। चंदन। २. अरहर।
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तोमरी  : स्त्री० [हिं० तुमड़ी] तूंबड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोय  : पुं० [सं०√तु+विच् तो√या (जाना)+क] १. जल। पानी। २. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र।
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तोय  : पुं० [ब० स०]=तोयधर।
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तोय-कुंभ  : पुं० [ष० त०] सेवार।
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तोय-कृच्छ्र  : पुं० [तृ० त०] एक प्रकार का व्रत जिसमें जल के सिवा और कुछ ग्रहण नहीं किया जाता।
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तोय-धर  : पुं० [ष० त०] १. बादल। मेघ। २. मोथा।
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तोय-धि  : पुं० [सं० तोय√धा (धारण करना)+कि] समुद्र। सागर।
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तोय-निधि  : पुं० [ष० त०] समुद्र। सागर।
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तोय-पिप्पली  : स्त्री०=जलपिप्पली।
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तोय-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] पाटला वृक्ष। पाँढर।
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तोय-प्रसादन  : पुं० [ष० त०] निर्मली।
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तोय-फला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] तरबूज या ककड़ी आदि की बेल।
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तोय-भिंड  : पुं० [ष० त०] ओला।
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तोय-मल  : पुं० [ष० त०] समुद्र फेन।
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तोय-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] १. पानी के द्वारा समय बताने का यंत्र। जल-घड़ी। २. फुहारा।
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तोय-राज  : पुं० [ष० त०] समुद्र। सागर।
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तोय-शुक्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] सीपी।
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तोय-शूक  : पुं० [ष० त०]=तोय-वृक्ष।
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तोय-सर्पिका  : स्त्री० [स० त०] मेंढक।
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तोय-सूचक  : पुं० [ष० त०] १. ज्योतिष का वह योग जिसें वर्षा होने की संभावना मानी जाती है। २. मेंढक।
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तोयकाम  : पुं० [सं० तोय√कम् (चाहना)+अण्] एक प्रकार का बेंत जो जल के पास होता है। बानीर।
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तोयडिंब  : पुं० [ष० त०] ओला। पत्थर। करका।
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तोयद  : पुं० [सं० तोय√दा (देना)+क] १. मेघ। बादल। २. नागरमोथा। ३. घी। घृत। ४. वह जो किसी को जल देता हो। ५. उत्तराधिकारी जो किसी का तर्पण करता है। वि० जल देनेवाला।
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तोयदागम  : पुं० [सं० तोयद-आगम, ष० त०] वर्षाऋतु। बरसात।
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तोयधि-प्रिय  : पुं० [ब० स०] लौंग।
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तोयनीबी  : स्त्री० [ब० स०] पृथ्वी।
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तोयपर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] करेला।
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तोयमुच  : पुं० [सं० तोय√मुच् (छोड़ना)+क्विप्, उप० स०] १. बादल। मेघ। २. मोथा।
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तोयराशि  : पुं० [ष० त०] १. बड़ा तालाब। झील। २. समुद्र। सागर।
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तोयवल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] करेले की बेल।
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तोयवृक्ष  : पुं० [स० त०] सेवार।
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तोयाधार  : पुं० [तोय-आधार, ष० त०] पुष्करिणी। तालाब।
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तोयाधिवसिनी  : स्त्री० [सं० तोय-अधि√वस् (रहना)+णिनि-ङीष्,उप० स०] पाटला वृक्ष।
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तोयालय  : पुं० [तोय-आलय, ष० त०] समुद्र।
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तोयालिक  : वि० [सं० तोय से] १. तोय या जल से संबंध रखनेवाला। २. तोय या जल के प्रवाह अथवा शक्ति से चलनेवाला। (हाइड्राँलिक)
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तोयालिकी  : स्त्री० [सं० तोय० से] वह विद्या जिसमें जलाशयों, नदियों समुद्रो आदि की गहराई और प्रवाह का इस दृष्टि से अध्ययन या विचार किया जाता है कि उनमें जहाज या नावें कब और कैसे चलाई जानी चाहिए। (हाइड्रोग्रैफी)।
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तोयालेख  : पुं० [तोय-आलेख, ष० त०] वह आलेख या नकशा जिनमें किसी जलाशय की गहराई, प्रवाहों की दिशाएँ आदि अंकित होती है। (हाइड्रोग्राफ)।
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तोयाशय  : पुं० [तोय-आशय, ष० त०]=तोयाधार।
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तोयेश  : पुं० [तोय-ईश, ष० त०] १. वरुण। २. शतभिषा नक्षत्र। ३. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र।
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तोयोत्सर्ग  : पुं० [तोय-उत्सर्ग, ष० त०] वर्षा।
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तोंर  : पुं०=तोमर।
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तोर  : पुं० [सं० तुवर] अरहर। वि०=तेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तोड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोरई  : स्त्री०=तोरी।
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तोरण  : पुं० [सं०√तुर् (जल्दी करना)+ल्युट-अन] १. किसी बड़ी इमारत या नगर का वह बड़ा और बाहरी फाटक जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार हो और प्रायः पताकाओं, मालाओं आदि से सजाया जाता हो २. उक्त फाटक सजाने के लिए लगाई जानेवाली पताकाएं मालाएँ आदि। ३. ऐसी बनावट या वास्तु रचना जिसका ऊपरी भाग अर्द्ध-गोलाकार और बेल-बूटेदार हो। मेहराब। (आर्च)। ४. उक्त फाटक के आकार-प्रकार की कोई अस्थायी रचना जो प्रायः शोभा सजावट आदि के लिए की जाती है। ५. वे मालाएँ आदि जो सजावट के लिए खंभों और दीवारों आदि में बाँधकर लटकाई जाती है। बंदनवार। पुं० [सं०√तुल् (तौलना)+ल्युट-ल-र] १. ग्रीवा। गला। २. महादेव। शिव।
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तोरण-माल  : पुं० [ब० स०] अवंतिकापुरी।
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तोरण-स्फटिका  : स्त्री० [ब० स०] दुर्योधन की वह सभा जो उसके पांडवों की मयदानव वाली सभा देखकर उसके जोड़ की बनवाई थी।
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तोरन  : पुं०=तोरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोरना  : स०=तोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोरश्रवा  : पुं० [सं०] अंगिरा ऋषि का एक नाम।
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तोरा  : पुं० [तु० तोरह] १. भेंट रूप में देने या स्वागत-सत्कार के लिए रखा जानेवाला वह बड़ा थाल जिसमें स्वादिष्ठ पकवान, मांस, मिठाइयाँ आदि रखी जाती है। २. विवाह के अवसर पर वर-पक्ष को उक्त प्रकार के थाल भेंट करने या भेजने की रसम। (मुसल०) सर्व० दे० ‘तेरा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०-तोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=तुर्रा (कलगी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोराई  : अ० [अव्य० त्वरा] १. वेगपूर्वक। तेजी से। २. जल्दी। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोराना  : स०=तुड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोरावान  : वि० [सं० त्वरावत्] [स्त्री० तोरावली] वेगवान्। तेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोरित  : भू० कृ० [सं०√तीर्(कार्य समाप्त होना)+क्त] निर्णीत।
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तोरिया  : स्त्री० [सं० तूरी] गोटा-किनारी बुननेवालों का वह छोटा बेलन जिस पर वे बुना हुआ गोटा आदि लपेटते चलते हैं। स्त्री० [देश०] १. वह गाय या भैंस जिसका बच्चा मर गया हो और जिसका दूध दुहने के लिए कोई युक्ति करनी पड़ती हो। २. एक प्रकार की सरसों।
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तोरी  : स्त्री० [सं० तूर] १. एक प्रकार की बेल जिसकी फलियों की तरकारों की बनती है। २. उक्त बेल की फली जो प्रायः ननुए की तरह होती और तरकारी बनाने के काम आती है। ३. काली सरसों।
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तोल  : पुं० [सं०√तुल् (तौलना)+घञ्] बारह माशे की तौल। तोला। स्त्री० [हिं०]=तौल। वि०=तुल्य (समान) उदाहरण–मदने पाओल आपन तोल।–विद्यापति। पुं० [देश०] नाव का डाँड़ा (लश०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोलक  : पुं० [सं० तोल+कन्] तोला। (तौल) बारह माशे की वजन।
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तोलन  : पुं० [सं०√तुल् (तौलना)+ल्युट-अन] १. तौलने की क्रिया या भाव। २. ऊपर उठाने की क्रिया। स्त्री० चाँड़। थूनी।
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तोलना  : स०=तौलना।
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तोलवाना  : स०=तौलवाना।
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तोला  : पुं० [सं० तोल] १. एक तौल जो बारह माशे या छानबे रत्ती की होती है। २. उक्त तौल का बाट।
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तोलाना  : स०=तौलना।
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तोलिया  : पुं० दे० ‘तौलिया’।
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तोल्य  : वि० [सं०√तुल् (तौलना)+ण्यत्] तौले जाने योग्य। पुं० तौलने की क्रिया या भाव।
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तोश  : वि० [सं०√तुश् (वध करना)+घञ्] हिंसा करनेवाला। हिंसक। पुं० १. हिंसा। २. हिंसक पशु या प्राणी।
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तोशक  : स्त्री० [तु०] दोहरी चादर या खोल में रूई, नारयिल की जटा आदि भरकर बनाया हुआ गुदगुदा बिछौना। हलका गद्दा।
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तोशदान  : पुं० [फा० तोशः दान] १. वह झोला या थैली जिसमे मार्ग के लिए यात्री विशेषतः सैनिक अपना जलपान आदि या दूसरी आवश्यक चीजें रखते हैं। २. चमड़े की वह पेटी जिसमें सैनिक कारतूस या गोलियाँ रखते हैं।
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तोशल  : पुं०=तोषल।
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तोशा  : पुं० [फा० तोशः] १. वह खाद्य पदार्थ जो यात्री मार्ग के लिए अपने साथ रख लेता है। पाथेय। २. खाने-पीने का सामान। ३. बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना।
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तोशाखाना  : पुं० [तु० तोशक+फा० खाना] वह बड़ा कमरा या स्थान जहाँ राजाओं और अमीरों के पहनने के बढ़िया कपड़े, गहने आदि रहते हों। वस्त्रों और आभूषणों आदि का भण्डार।
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तोश्क-खाना  : पुं० दे० ‘तोशाखाना’।
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तोष  : पुं० [सं०√तुष् (सन्तोष करना)+घञ्] १. अघाने या मन भरने की क्रिया या भाव। तुष्टि। तृप्ति। २. असंतोष, कष्ट हानि आदि का प्रतिकार हो जाने पर मन में होनेवाली तृप्ति। (सोलेस) ३.खुशी। प्रसन्नता। ४.पुराणानुसार स्वायंभुव मनु के एक देवता। ५.श्रीकृष्ण के एक सखा। अव्य०अल्प। कुछ । थोड़ा।
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तोष-पत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह पत्र जिसमें राज्य की ओर से जागीर मिलने का उल्लेख रहता है। बख्शिशनामा।
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तोषक  : वि० [सं०√तुष्+णिच्+ण्वुल–अक] तोष देने या तृप्त करने वाला। सन्तुष्ट करनेवाला।
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तोषण  : पुं० [सं०√तुष्+णिच्+ल्युट–अन] १. किसी को तुष्ट या तृप्त करने की क्रिया या भाव २. [√तुष्+ल्युट्] तृप्ति। वि० [√तुष्+णिच्+ल्यु-अन] तुष्ट या प्रसन्न करनेवाला। (यौं० पदों के अन्त में)।
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तोषणिक  : पुं० [सं० तोषक+ठन्-इक] वह धन जो किसी को तुष्ट करने के उद्देश्य से दिया जाय।
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तोषता  : स्त्री०=तोष। (तुष्टि)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोषना  : स० [सं० तोष] तृप्त या संतुष्ट करना। तृप्त करना। उदाहरण–विग्र, पितर, सुर, दान, मान, पूजा सौं तोषे।–रत्नाकर। अ० तृप्त या सन्तुष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोषल  : पुं० [सं०] १. कंस का एक असुर मल्ल जिसे धनुर्यज्ञ में श्रीकृष्ण नेमार डाला था। २. मूसल।
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तोषार  : पुं० १.=तुषार। २.=तुखार। (देश०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोषित  : वि० [सं०√तुष्+णिच्+क्त] जिसका तोष हो गया हो, अथवा जिसे तृप्त किया गया हो। तुष्ट। तृप्त।
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तोषी(षिन्)  : वि० [सं०√तुष्+णिनि] समस्तप दों के अन्त में, (क) सन्तुष्ट होनेवाला। थोड़ी -सी चीज या बात से संतुष्ट होनेवाला। जैसे–अल्प-तोषी। (ख) [√तुष्+ णिच्+णिनि] तुष्ट या संतुष्ट करनेवाला। जैसे–सर्व तोषी-सबको तुष्ट करनेवाला।
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तोस  : पु०=तोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोसक  : स्त्री०=तोशक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० तोषक।
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तोसल  : पुं०=तोषल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोसा  : पुं०=तोशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
तोसाखाना  : पुं०=तोशाखाना।
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तोसागार  : पुं० दे० ‘तोशाखाना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तोंहका  : सर्व०=तुम्हें।
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तोहफगी  : स्त्री० [अ० तोहफा+फा० गी(प्रत्यय)] तोहफा अर्थात् बढ़िया और विलक्षण होने की अवस्था या भाव।
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तोहफा  : पुं० [अ० तुहफा] १. अदभुत और सुन्दर पदार्थ। बढ़िया और विलक्षण चीज। २. उपायन। बैना। सौगात। ३.उपहार। भेंट। वि०अच्छा। उत्तम। बढ़िया।
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तोहमत  : स्त्री० [अ०] किसी पर लगाया जानेवाला झूठा और व्यर्थ का अभियोग या आरोप। झूठा दोषारोपण। क्रि० प्र०–जोड़ना।–धरना।–लगाना।
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तोहमती  : वि० [अ० तोहमत+ई (प्रत्यय)] दूसरों पर झूठा अभियोग या तोहमत लगानेवाला। मिथ्या कलंक लगानेवाला।
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तोहरा  : सर्व० दे० ‘तुम्हारा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तोहार  : सर्व० दे० ‘तुम्हारा’।
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तोहि  : सर्व० [हिं० तू० या तैं] मुझको। तुझे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौ  : अ० [हिं० हतौ का संक्षि] था। क्रि० वि०=तो। अव्य० हाँ ठीक है। ऐसा ही है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौक  : पुं० [अ०] १. हँसुली के आकार का गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। २. अपराधियों, पागलों आदि के गले में पहनाया जानेवाला लोहे का वह भारी घेरा या मंडल जिसके कारण वे इधर-उधर जा या भाग नहीं सकते। ३. पक्षियों आदि के गले में होनेवाला प्राकृतिक गोलाकार चिन्ह या मंडल। ४. कोई गोल घेरा या पदार्थ। ५. गले में लटकाई जानेवाली चपरास या उसका परतला।
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तौंकन  : स्त्री०=तौंस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौंकना  : अ०=तौसना।
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तौकीर  : स्त्री० [अ०] आदर। सम्मान। प्रतिष्ठा।
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तौक्षिक  : पुं० [सं०] धनु राशि।
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तौचा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का गहना जो देहाती स्त्रियां सिर पर पहनती हैं।
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तौजा  : पुं० [अ० तौजीह] १. वह धन जो खेतिहरों को विवाहादि में खर्च करने के लिए पेशगी दिया जाता था। बियाही। २. उधार दिया हुआ धन। वि० यो० ही कुछ समय के लिए उधार दिया या लिया हुआ।
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तौतातिक  : पुं० [सं० तुतात+ठञ्-इक] कुमारिल भट्ट कृत मीमांसा शास्त्र।
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तौतातित  : पुं० [सं०] १. जैनियों का एक भेद या वर्ग। २. कुमारिल भट्ट का एक नाम।
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तौतिक  : पुं० [सं० मुक्ता, नि० सिद्धि] १. मुक्ता। मोती। २. शुक्ति। सीप।
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तौन  : स्त्री० [देश०] वह रस्सी जिसमें गौ दुहने के समय उसका बछवा उसके अगले पैर से बाँध दिया जाता है। सर्व०=तवन। (वह)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=सो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौनी  : स्त्री० [हिं० तबा का स्त्री० अल्पा] रोटी सेंकने का छोटा तवा। तई। तवी। वि० स्त्री०=तौन।
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तौफीक  : पुं० [अ०] १. शक्ति। सामर्थ्य। २. हिम्मत। हौसला। ३. ईश्वर के प्रति होनेवाली भक्ति और श्रद्धा।
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तौबा  : स्त्री०=तोबा।
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तौर  : पुं० [सं०√तुर्व (हिंसा करना)+कञ्, बा०] एक प्रकार का यज्ञ। पुं० [अ०] १. ढंग। तरीका। पद–तौर-तरीका (देखें)। २. चाल-चलन। चाल-ढाल। मुहावरा–तौर बै-तौर होना-रंग ढंग खराब होना। लक्षण बुरे जान पड़ना। ३. अवस्था। दशा। हालत। पुं० [देश०] मथानी मथने की रस्सी। नेत्री।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौर-तरीका  : पुं० [अ०] १. चाल-ढाल। २. रंग-ढंग।
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तौरश्रवस  : पुं० [सं० तोरश्रवस्+अण्] एक प्रकार का साम। (गान)।
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तौरात  : पुं० दे० ‘तौरेत’।
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तौरायणिक  : पुं० [सं० तूरायण+ठञ्-इक] वह जो तूरायण यज्ञ करता हो।
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तौरि  : स्त्री० [हिं० ताँवरि] सिर में आनेवाली घुमरी या चक्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तौरीत  : पुं० दे० ‘तौरेत’।
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तौरेत  : पुं० [इव्रा] यहूदियों का प्रधान धर्म-ग्रंथ जो हजरत मूसा पर प्रकट हुआ था। इसमें सृष्टि और आदम की उत्त्पत्ति आदि का उल्लेख है।
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तौर्य  : पुं० [सं० तूर्य+अण्] १. ढोल, मँजीरा आदि बाजे। २. उक्त बाजे बजाने की क्रिया।
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तौर्य-त्रिक्  : पुं० [मध्य० स०] नाचना, गाना और बाजे बजाना आदि काम।
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तौल  : पुं० [सं० तुला+अण्] १. तराजू। २. तुला राशि। स्त्री० [हिं० तौलना] १. कोई चीज तौलने की क्रिया या भाव। २. किसी पदार्थ का वह भार या मान जो उसे तौलने पर जाना जाता है। वजन। (वेट)। ३. बटखरों के अलग-अलग प्रकार के मान के विचार से तौलने की नियत प्रणाली या मानक। जैसे–कच्ची या पक्की तौल, छोटी या बड़ी तौल। ४. किसी प्रकार की जाँच की कसौटी या मानक। सर्व०-मान्य परिमाण। ५. गम्भीरता, परिमाणु, महत्त्व आदि का अनुमान। कल्पना या थाह। उदाहरण–बालपना की प्रीत रमइया जी कदे गँहीं आयो थारो तोल–(तौल)–मीराँ।
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तौलना  : स० [सं० तोलना] १. कांटे, तराजू बटखरे आदि की सहायता से यह पता लगाना कि अमुक वस्तु का गुरुत्व या बार कितना है। जोखनी। २. कोई चीज हाथ में लेकर या हाथ से उठाकर यह अनुमान करना कि यह तौल भार या वजन में कितनी होगी। संयो, क्रि०–डालना।–देना।–लेना। ३. अस्त्र-शस्त्र आदि चलाने के समय, उसे हाथ में लेकर ऐसी मुद्रा या स्थिति में लाना कि वह ठीक तरह से अपने लक्ष्य पर पहुँचकर पूरा काम कर दिखलावे साधना। जैसे–डंडा या तलवार तौलना। ४. दो या अधिक वस्तुओं के गुण, मान आदि की परम्परा तुलना करके उनके महत्त्व आदि का विचार करना। तारतम्य जानना। मिलान करना। ५. किसी बात की ठीक, महत्व, मान, स्वरूप आदि जानने के लिए अथवा किसी व्यक्ति के मन की थाह लेने के लिए उसकी सब बातों व्यवहारों आदि को अच्छी तरह देखते हुए उसके सम्बन्ध में मन में अनुभव या कल्पना करना। जैसे–किसी का मन (या किसी को) तौलना। (या तौलकर देकना) ६. गाड़ी के पहिए के छेद में इसलिए तेल डालना कि वह बिना रगड़ खाये सहज में घूमता रहे। औंगना।
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तौलनिक  : वि०=तुलनात्मक।
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तौलवाई  : स्त्री०=तौलाई।
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तौलवाना  : स० [हिं० तौलना का प्रे०] तौलने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को तौलने में प्रवृत्त करना। तौलाना।
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तौला  : पुं० [हिं० तौलना] १. वह जो चीजें तौलने का काम या पेशा करता हो। २. दूध नापने का मिट्टी का बरतन। पुं० [फा० तबल] [स्त्री० अल्पा० तौली] १. एक प्रकार का बड़ा कटोरा। २. मिट्टी का घड़ा। पुं० [?] महुए की शराब।
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तौलाई  : स्त्री० [हिं० तौल+आई (प्रत्यय)] १. तौलने की क्रिया या भाव। १. तौलने का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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तौलाना  : स०=तौलवाना।
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तौलिक, तौलिकिक  : पुं० [सं० तूली+ठक्,-इक, तूलिका+ठक्-इक] चित्रकार।
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तौलिया  : पुं० [अं० टावेल] एक प्रकार का मोटा अँगोछा जिससे स्नान आदि करने के उपरांत शरीर पोंछते हैं।
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तौली  : स्त्री० [अ० तबल] १. एक प्रकार की मिट्टी की छोटी प्याली। २. मिट्टी का घड़ा जिसमें अनाज, गुड़ आदि रखते हैं।
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तौलैया  : पुं० [हिं० तौलना+ऐया (प्रत्यय)] अनाज तौलने का काम करनेवाला। बया।
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तौल्य  : पुं० [सं० तुला+ष्यञ्] १. वजन तौल। २. सादृश्य। समानता।
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तौषार  : पुं० [सं० तुषार+अण्] तुषार का जल। पाले का पानी।
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तौंस  : स्त्री० [सं० ताप, हि० ताव+सं० उष्म, हिं० ऊमस, औंस] वह प्यास जो बहुत अधिक गरमी या धूप लगने से होती है और जल्दी शान्त नहीं होती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौस  : स्त्री०=तौस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तौंसना  : अ० [हिं० तौंस] गरमी से झुलस जाना। गरमी के कारण संतप्त होना। स० १. गरमी पहुँचाकर विकल या संतप्त करना। २. झुलसना। उदाहरण–तात ताल तौंसियत झौंसियत झारहिं।–तुलसी।
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तौसना  : अ० स०=तौंसना।
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तौंसा  : पुं० [सं० ताप, हिं० ताव+सं० ऊष्म, हिं० ऊमस्, औंस] बहुत अधिक ताप। कड़ी गरमी।
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तौहीद  : स्त्री० [अ०] यह मानना कि ईश्वर एक ही है। एकेश्वरवाद।
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तौहीन  : स्त्री० [अ०] अपमान। अप्रतिष्ठा। बेइज्जती।
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तौहीनी  : स्त्री०=तौहीन।
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त्यक्त  : भू० कृ० [सं०√त्यज् (त्यागना)+क्त] [भाव० त्यक्ता] १. (पदार्थ) जिसका त्याग कर दिया गया हो। छोड़ा या त्यागा हुआ। २. यौ पदों के आरंभ में, जिसने छोड़ या त्याग दिया हो। जैसे–त्यक्त प्राण-मृत, त्यक्त-लज्ज-निर्लज्ज। ३. यौ० पदों के आरंभ में, जो किसी के द्वारा छोड़ या त्याग दिया गया हो। जैसे–त्यक्त श्री-जिसे श्री या लक्ष्मी ने त्याग दिया हो। अर्थात् अभागा या दरिद्र।
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त्यक्तव्य  : वि० [सं०√त्यज्+तव्यम] जो छोड़े जाने के योग्य हो। जिसे त्यागना उचित हो।
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त्यक्ता(क्तृ)  : वि० [सं०√त्यज्+तृच्] त्यागने वाला। जिसने त्याग किया हो।
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त्यक्ताग्नि  : वि० [सं०त्यक्त-अग्नि, ब० स०] गृहाग्नि की उपेक्षा करनेवाला। (ब्राह्मण)।
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त्यक्तात्मा(मन्)  : वि० [सं० त्यक्त-आत्मन्, ब० स०] हताश। निराश।
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त्यग्नायि  : पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।
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त्यजन  : पुं० [सं० त्यज्+ल्युट–अन] [वि० त्यजनीय, त्याज्य; भू० कृ० त्यक्त] छोडने की क्रिया या भाव। त्याग।
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त्यजनीय  : वि० [सं०√त्यज+अनीयर] जो त्यागे जाने के योग्य हो। त्याज्य।
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त्यजित  : भू० कृ० दे० ‘त्यक्ता’।
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त्यज्यमान  : वि० [सं०√त्यज्+शानच्, यक्] जिसका त्याग कर दिया गया हो। जो छोड़ दिया गया हो।
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त्याग  : पुं० [सं०√त्यज् (त्यागना)+घञ्] १. किसी चीज पर से अपना अधिकार या स्वत्व हटा लेने अथवा उसे सदा के लिए अपने पास से अलग करने की क्रिया। पूरी तरह से छोड़ देना। उत्सर्ग। जैसे–घर-गृहस्थी, संपत्ति या सांसारिक संबंधों का त्याग। पद–त्याग-पत्र (देखें)। २. किसी काम, चीज या बात से लगाव या सम्बन्ध हटा लेने अथवा उसे छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) मोह-माया का त्याग। (ख) दुर्व्यसनों का त्याग। ३. मन में विरक्ति या वैराग्य उत्पन्न होने पर सांसारिक व्यवहार, सम्बन्ध आदि छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–संन्यास ग्रहण करने से पहले मन में त्याग की भावना उत्पन्न होना आवश्यक है। ४. दूसरों के उपकार या हित के विचार से स्वयं कष्ट उठाने या अपना सुख-सुभीता छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–लोकमान्य तिलक (या अरविन्द घोष) का त्याग अनुकरणीय है। ५. इस प्रकार सम्बन्ध तोड़ना कि अपने ऊपर कोई उत्तरदायित्व न रह जाय। जैसे–पत्नी या पुत्र को त्याग करके उनसे अलग होना। ६. उदारता पूर्वक किया जानेवाला उत्सर्ग या दान। ७. कन्या दान। (डिं०)।
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त्याग-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह पत्र जिसमें यह लिखा हुआ हो कि हमने अमुक काम, चीज या बात सदा के लिए छोड़ दी है। २. वह पत्र जो कोई कार्यकर्त्ता या सेवक अपने अधिकारी या स्वामी की नौकरी या पद छोड़ने के समय लिखकर देता है और जिसमें यह लिखा रहता है कि अब मैं इस पद प नहीं रहूँगा या उसका काम नहीं करूगाँ। इस्तीफा (रेजिग्नेशन)।
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त्यागना  : स० [सं० त्याग] त्याग करना। छोड़ना। तजना। संयो० क्रि०–देना।
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त्यागवान्(वत्)  : वि० [सं० त्याग+मतुप्] जिसने त्याग किया हो अथवा जिसमें त्याग करने की शक्ति हो। त्यागी।
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त्यागि(गिन्)  : वि० [सं०√त्यज्+घिनुण] १. त्यागने या छोड़नेवाला। २. संसार की झंझटों से विरक्त होकर वैभव या सुख-भोग के सब साधनों या सामग्री का त्याग करनेवाला। ‘संग्रही’ का विपर्याय। ३. किसी अच्छे काम के लिए अपने स्वार्ध या हित का त्याग करनेवाला।
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त्याजना  : स०=त्यागना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्याजित  : भू० कृ० [सं०√त्यज्+णिच्+क्त] १. जिससे परित्याग कराया गया हो। २. जिसकी उपेक्षा कराई गयी हो। ३. दे० ‘त्यक्त’।
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त्याज्य  : वि० [सं०√त्यज्+ण्यत्] जिसे त्याग देना उचित हो। छोड़े जाने या त्यागे जाने के योग्य।
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त्यार  : वि० दे० ‘तैयार’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्यारन  : पुं० वि०=तारण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्यारा  : वि० [स्त्री० त्यारी] तेरा या तुम्हारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्याँह  : सर्व० [सं० तेषाम्] उनका या उनके। उदाहरण–अरि देखे आराण मैं, तृण मुख माँझल त्याँह।–बाँकीदास।
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त्यूँ  : क्रि० वि० दे० ‘त्यों’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्यूरस  : पुं० दे० ‘त्योरस’।
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त्यों  : क्रि० वि० [सं० तत्-एवम्] १. उस प्रकार। उस तरह। २. उसी समय। उसी वक्त। अव्य० [सं० तनु] ओर। तरफ। उदाहरण–(क) हरि त्यों टुक डीठि पसारत ही…।–केशव। (ख) सब ही त्यौं (त्यों) समुहाति छिनु चलति सबनि दै पीठि।–बिहारी।
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त्योनार  : पुं० [हिं० तेवर ?] १. ढंग। तर्ज। २. तेवर। (देखें)।
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त्योर  : पुं० दे० ‘त्योरी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्योरस  : पुं० [हिं० ति (तीन)+बरस] १. गत वर्ष से पहले का अर्थात् वर्त्तमान वर्ष के विचार से बीता हुआ तीसरा वर्ष। २. आनेवाले वर्ष के बाद का अर्थता वर्त्तमान वर्ष के विचार से तीसरा वर्ष
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त्योरी  : स्त्री० [हिं० त्रिकुटी; सं० त्रिकूट (चक्र)] किसी विशिष्ट उद्देश्य से देखने वाली दृष्टि। निगाह। तेवर। मुहावरा–त्योरी चढ़ना=दृष्टि का ऐसी अवस्था में हो जाना जिससे कुछ असन्तोष या रोष प्रकट हो। आँखें चढ़ना। त्योरी चढ़ाना या बदलना-दृष्टि या आकृति से क्रोध के चिन्ह प्रकट करना। भौंहे चढ़ाना। त्योरी में बल पड़ना-त्योरी चढ़ना।
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त्योरुस  : पुं०=त्योरस।
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त्योहार  : पुं० [सं० तिथि+वार] १. वह दिन जिसमें कोई बड़ा धार्मिक या जातीय उत्सव मनाया जाता हो। पर्व दिन। (फेस्टिवल) जैसे–जन्माष्मटी, दशहरा, दीवाली, होली आदि हिन्दुओं के प्रसिद्ध त्योहार है। २. वह दिन या समय जिसमें बहुत से लोग मिलकर उत्सव मनाते हों। क्रि० प्र०–मनाना।
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त्योहारी  : स्त्री० [हिं० त्योहार+ई (प्रत्यय)] वह धन जो किसी त्योहार के उपलक्ष्य में छोटों, लड़कों या नौकरों आदि को दिया जाता है।
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त्यौं  : क्रि० वि० दे० ‘त्यों’।
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त्यौनार  : पुं०=त्योनार।
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त्यौर  : पुं० १. दे० त्योरी। २. दे० ‘त्योनार’।
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त्यौराना  : अ० [हिं० ताँवर] सिर में चक्कर आना। सिर घूमना।
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त्यौरी  : स्त्री०=त्योरी।
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त्यौरुस  : पुं० दे० ‘त्योरस’।
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त्यौहार  : पुं० दे० ‘त्योहार’।
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त्यौहारी  : स्त्री०=त्योहारी।
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त्र  : त् और र के योग से बना हुआ एक संयुक्त वर्ण जिसकी गिनती स्वंतंत्र वर्ण के रूप में होने लगी है। यह कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है०–(क) त्राण या रक्षा करनेवाला। जैसे–अंगुलित्र, आतपत्र। (ख) किसी स्थान पर आया या लाया हुआ। जैसे–अपरत्र, एकत्र, पूर्वत्र, सर्वत्र आदि। और (ग) उपकरण या यंत्र के रूप में कोई काम करनेवाला। जैसे–चूषित्र, प्रेषित, वाष्पित्र आदि।
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त्रंग  : पुं० [सं०√वङ् (जाना)+अच्] राजा हरिशचंद्र के राज्य की राजधानी।
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त्रपा-रंड  : स्त्री० [स० त०] १. छिनाल स्त्री। रंडी। वेश्या। ३. कीर्ति। यश। ४. कुल। वंश।
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त्रपित  : भू० कृ० [सं०√त्रप्+क्त] लज्जित।
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त्रपु  : पुं० [सं०√त्रप्+उन्] १. सीसा। २. रांगा।
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त्रपु-कर्कटी  : स्त्री० [मध्य० स०] १. खीरा। २. ककड़ी।
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त्रपुटी  : स्त्री० [सं०√त्रप्+उटक्(बा०)-ङीप्] छोटी इलायची।
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त्रपुरी  : स्त्री०=त्रपुटी।
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त्रपुल  : पुं० [सं०√त्रप्+उलच् (बा०] राँगा।
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त्रपुष  : पुं० [सं०√त्रप्+उष् (बा०)] १. राँगा। २. खीरा, ककड़ी आदि।
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त्रपुषी  : स्त्री० [सं० त्रपुष+ङीष्] १. ककड़ी। २. खीरा।
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त्रपुस  : पुं० [सं०√त्रप्+उस (बा०)] १. राँगा। २. खीरा, ककड़ी आदि।
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त्रपुसी  : स्त्री० [सं० त्रपुस्+ङीष्] १. ककड़ी। २. खीरा। ३. बड़ा इन्द्रायन।
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त्रप्सा  : स्त्री० [सं०√त्रप्+सन्+अङ्-टाप्] जमा हुआ कफ या श्लेष्मा।
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त्रप्स्य  : पुं० [सं०√त्रप्+सन्+ण्यत्] मठा। लस्सी।
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त्रंबाल  : पुं० [?] नगाड़ा। (राज०) उदाहरण–गुड़ै घणीचा गाजणा, तो माथे त्रंबाल।–कविराजा सूर्यमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रय  : वि० [सं० त्रि+अयच्] १. तीन अंगो, अंशों, इकाइयों या रूपोंवाला। २. तीसरा। ३. तीनों। जैसे–ताप-त्रय।
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त्रय-ताप  : पुं० [मध्य० स०] आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीनों प्रकार के ताप।
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त्रया  : स्त्री० [सं०√त्रप् (लज्जा करना)+अङ्-टाप्] [वि० त्रपमान्] १. कीर्ति। यश। २. लज्जा। शरम। ३. छिनाल स्त्री० पुंश्चली। वि० १. क्रीतिमान्। २. लज्जित। शरमिन्दा।
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त्रयारुण  : पुं० [सं०] पंद्रहवें द्वापर के एक व्यास का नाम।
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त्रयारुणि  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जो भागवत के अनुसार लोमहर्षण ऋषि के शिष्य थे।
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त्रयी  : स्त्री० [सं० त्रय+ङीप्] १. तीन विभिन्न इकाइयों का योग, संग्रह या समूह (ट्रिपलेट) जैसे–वेदत्रयी (अथर्ववेद के अतिरिक्त तीनों वेद), लोकत्रयी (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक) देवत्रयी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) २. इस प्रकार की ली जाने वाली तीनों वस्तुएँ। ३. वह विवाहित स्त्री जिसका पति और बच्चे जीवित हों। ४. दुर्गा। ५. सोमराजी लता।
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त्रयी-तनु  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य। २. शिव।
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त्रयी-धर्म  : पुं० [मध्य० स०] ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तीनों में बतलाया हुआ या इन तीनों के अनुसार विहित धर्म।
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त्रयी-मुख  : पुं० [ब० स०] ब्राह्मण।
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त्रयीमय  : पुं० [सं० त्रयी+मयट्] १. सूर्य। २. परमेश्वर।
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त्रयो-दश(न्)  : वि० [सं० त्रि-दशन्, द्व० स०] तेरह।
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त्रयोदशी  : स्त्री० [सं,त्रयोदशन्+डट्-ङीष्] चांद्र मास के किसी पक्ष की तेरहवीं तिथि। तेरस।
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त्रष्टा  : पुं० [सं० तृष्टा] बढ़ई। पुं० [फा० तश्त] ताँबे की छिछली और छोटी तश्तरी।
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त्रस  : वि० [सं०√त्रस् (भय करना)+क] चलनेवाला। चलनशील। पुं० १. वन। जंगल। २. चलने-फिरनेवाले समस्त जीव। जैसे–पशु, मनुष्य आदि। ३. धूल का वह कण जो प्रायः किरणों में उड़ता तथा चमकता हुआ दिखाई देता है।
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त्रस-रेणु  : पुं० [सं० उपमि० स०] धूल का वह कण जो प्रकाश रश्मियों में उड़ता तथा चमकता हुआ दिखाई देता है। स्त्री० सूर्य की एक पत्नी।
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त्रसन  : पुं० [सं०√त्रस्+ल्युट-अन] १. किसी के मन में त्रास या भय उत्पन्न करने की क्रिया या भाव २. डर। भय। ३. भयभीत होने की अवस्था या भाव। ४. चिंता। फिक्र। ५. वह आभूषण जो पहनने पर झूलता या हिलता-डुलता रहे।
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त्रसना  : अ० [सं० त्रसन्] १. भयभीत होना। २. त्रस्त होना। स० चितिंत या भयभीत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रसर  : पुं० [सं०√त्रस्+अरन्(बा०)] जुलाहों की ढरकी। तसर।
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त्रसाना  : स० [हिं० त्रसाना का प्रे० रूप] किसी को किसी दूसरे के द्वारात्रस्त या भयभीत कराना।
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त्रसित  : भू० कृ० [सं० त्रस्त] १. डरा हआ। २. पीड़ित।
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त्रसुर  : वि० [सं०√त्रस्+क्त] १. बहुत अधिक डरा हुआ। भयभीत। २. पीड़ित।
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त्रस्नु  : वि० [सं०√त्रस्+क्नु] जो भय से काँप रहा हो। बहुत अधिक डरा हुआ।
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त्रहक्कना  : अ० दे० ‘बजना’ (राज०)।
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त्रागा  : पुं०=तागा। (राज०) उदाहरण–तितरै हेक दी पवित्र गलित्रागौ।–प्रिथीराज।
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त्राटक  : पुं० दे० त्राटिका।
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त्राटिका  : स्त्री० [सं०] योग की एक क्रिया जिसमें दृष्टि तीव्र या प्रखर करने के लिए कुछ समय तक किसी सूक्ष्म बिन्दु को एकटक देखना पड़ता है।
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त्राण  : पुं० [सं०√त्रै (रक्षा करना)+ल्युट-अन] १. किसी को विपत्ति या संकट से छुटकारा दिलाने तथा उससे सुरक्षित रखने की क्रिया या भाव। २. शरण। ३. सहायता। ४. रक्षा का साधन। बचाने वाली चीज (यौ० के अन्त में) जैसे–पादत्राण, शिरस्त्राण। ५. कवच। बक्तर। ६. त्रायमाणा लता।
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त्राणक  : पुं० [सं० त्रायक] त्राण करने या बचानेवाला। रक्षक।
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त्राणा  : स्त्री० [सं० त्राण+टाप्] बनफशे की जाति की एक लता।
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त्रात  : भू० कृ० [सं०√त्रै (रक्षा करना)+क्त] जिसे त्राण दिया गया हो। विपत्ति या संकट से बचाया हुआ।
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त्रातव्य  : वि० [सं०√त्रै+तव्यत्] विपत्ति, संकट आदि से जिसकी रक्षा करना उचित या वांछनीय हो। त्राण पाने का अधिकारी या पात्र।
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त्राता(तृ)  : वि० [सं०√त्रै (रक्षा करना)+तृच्] त्राण या रक्षा करनेवाला। पुं० वह जो किसी का त्राण या रक्षा करे।
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त्रातार  : पुं०=त्राता।
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त्रापुष  : वि० [सं० त्रपुष+अण्] १. त्रपुष-सम्बन्धी। २. त्रपुष अर्थात् टीन, राँगे आदि का बना हुआ।
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त्राय-वृंत  : पुं० [सं०√त्रै+क, त्राय-वृंत, ब० स०] गंडीर या मुंडिरी नामक साग।
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त्रायक  : वि० [सं०√त्रै (रक्षा करना)+ण्वुल्-अक] त्राण या रक्षा करनेवाला।
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त्रायंती  : स्त्री० [सं० त्रा√त्रै+क्विप्, त्रा√इ (जाना)+शतृ-ङीष्] त्राणमाण। (लता)।
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त्रायमणिका  : स्त्री० [सं० त्रायमाण+कन्-टाप्, हृस्व, इत्व]=त्रायमाणा।
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त्रायमाण  : वि० [सं०√त्रै+शानच्] त्राता। रक्षक। पुं० बनफशे की तरह की एक लता।
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त्रायमाणा  : स्त्री० [सं० त्रायमाण+टाप्] त्रायमाण लता।
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त्रास  : स्त्री० [सं०√त्रस् (डरना)+घञ्] १. ऐसा भय जिससे विशेष अनिष्ट, क्षति, हानि आदि की आशंका हो। २. कष्ट। तकलीफ। २. मणि। का एक अवगुण या दोष।
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त्रासक  : वि० [सं०√त्रस्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. त्रास देनेवाला। डरानेवाला। २. दूर करने या हटानेवाला। निवारक।
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त्रासन  : पुं० [सं०√त्रस्+णिच्+ल्युट-अन] [वि० त्रासनीय] त्रास देने अर्थात् डराने का कार्य। वि०=त्रास देने या डरानेवाला । (यौ० के अन्त में)।
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त्रासना  : स० [सं० त्रासन] किसी को त्रस्त या भयभीत करना। डराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रासित  : भू० क० [सं०√त्रस्+णिच्+क्त] १. जिसे त्रास दिया गया हो। डराया-धमकाया हुआ। २. जिसे कष्ट पहुँचा या पहुँचाया गया हो।
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त्रासी(सिन्)  : वि० [सं०√त्रस्+णिच्+णिनि]=त्रासक।
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त्राहि  : अव्य० [सं०√त्रै+लोट्–हि] इस घोर कष्ट या संकट से त्राण दो। रक्षा करो। बचाओ।
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त्रि  : वि० [सं०√तृ (तैरना)ड्रि] तीन अंगों, अवयवों, इकाइयों खंडो या रूपोवाला (यौं० के आरंभ में) जैसे–त्रिदेव, त्रिदोष, त्रिवर्ग आदि।
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त्रि-ककुद्  : वि० [सं० ब० स०] जिसके तीन श्रृंग हों। पुं० १. त्रिकूट पर्वत। २. जंगली सूअर। बाराह। ३. विष्णु जिन्होंने एक बार बाराह का अवतार लिया था। ४. दस दिनों में पूरा होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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त्रि-ककुम्  : पुं० [सं० त्रि-क (जल)√स्कुम्भ (रोकना)+क्विप्] १. इंद्र। २. वज्र।
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त्रि-कंट  : पुं० [सं० ब० स०]=त्रिकंटक।
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त्रि-कंटक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] १. त्रिशूल। २. गोखरू। २. तिधारा। थूहर। ४. जवासा। ५. टेंगरा नाम की मछली।
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त्रि-कटु  : पुं० [सं० द्विगु स०] १. तीन कड़वी वस्तुओं का वर्ग। २. ये तीन कड़वी वस्तुएँ-सोंठ, मिर्च और पीपल। (वैद्यक)।
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त्रि-कल  : वि० [सं० ब० स०] तीन कलाओं या मात्राओंवाला। पुं० १. तीन मात्राओं का शब्द। प्लुत। २. दोहे का एक भेद जिसमें ९ गुरु और ३॰ लघु होते हैं।
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त्रि-कांड  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तीन कांड हों। पुं० अमरकोश, जिसमें तीन कांड है। २. निरुक्त शास्त्र का एक नाम। ३. वाण। तीर।
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त्रि-काय  : पुं० [सं० ब० स०] गौतम बुद्ध।
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त्रि-कार्षिक  : पुं० [सं० कर्ष+ठक्-इक, त्रि-कार्षिक, ष० त] सोंठ, अतीस और मोथा इन तीनों समूह।
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त्रि-काल  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. भूत, वर्त्तमान और भविष्य ये तीनों काल। २. प्रातः मध्याह्र और सायं ये तीनों काल।
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त्रि-कूट  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह पर्वत जिसकी तीन चोटियाँ हों। २. पुराणानुसार वह पर्वत जिस पर लंका बसी हुई मानी गई हो जो रूप-सुन्दरी नामक देवी का निवास स्थान कहा गया है। इसकी गिनती पीठ-स्थानों में होती है। ३. क्षीरोद समुद्र में स्थित एक कल्पित पर्वत। ४. हठयोग के अनुसार मस्तक के कुछ चक्रों जिसका स्थान दोनों भौंहों के बीच में माना गया है।
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त्रि-कूर्चक  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह की छुरी जिसमें तीन तरफ धारें होती है।
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त्रि-कोण  : वि० [सं० ब० स०] तीन कोणोंवाला। पुं० १. तीन कोणों वाली कोई वस्तु। २. भंग। योनि। ३. ज्यामिति में ऐसी आकृति या क्षेत्र जिसके तीन कोण हों। जैसे–∆। ४. कामरूप के अंतर्गत एक तीर्थ जो सिद्ध पीठ माना जाता है। ५. जन्म कुंडली में लग्न स्थान से पाँचवाँ और नवाँ स्थान। त्रिकोण-घंटा
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त्रि-क्षार  : पुं० [सं० द्विगु० स०] जवाखार, सज्जी और सुहागा ये तीनों क्षार अथवा इनका समूह।
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त्रि-क्षुर  : पुं० [सं० ब० स०] ताल-मखाना।
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त्रि-ख  : पुं० [सं० ब० स०] खीरा।
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त्रि-गंग  : पुं० [सं० अव्य० स०] एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत) ।
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त्रि-गण  : पुं० [सं० ब० स०] त्रिवर्ग (दे०)।
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त्रि-गंधक  : पुं० [सं० द्विगु० स०] इलायची, दारचीनी और तेज पत्ता ये तीनों पदार्थ अथवा इनका समूह। त्रिजातक।
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त्रि-गंभीर  : पुं० [सं० तृ० स०] वह जिसका स्वत्व (आचरण), स्वर और नाभि ये तीनों गंभीर हों कहते हैं कि ऐसा मनुष्य सदा सुखी रहता है।
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त्रि-गर्तिक  : पुं०=त्रिगर्त।
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त्रि-गर्त्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. रावी, व्यास और सतलज की घाटियों का अर्थात् आधुनिक काँगड़े और जालंधर के आस-पास के प्रदेश का पुराना नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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त्रि-गर्त्ता  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] छिनाल स्त्री। पुंश्चली।
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त्रि-गुण  : पुं० [सं० द्विगु० स०] सत्त्व रज और तम ये तीनों गुण। वि० [ब० स०] =तिगुना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रि-गुणा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. दुर्गा। २. माया। ३. तंत्र में एक प्रकार का बीज।
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त्रि-गूढ़  : पुं० [सं० ब० स०] पुरुष का ऐसा नृत्य जो वह स्त्री का वेष धारण करके करता है।
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त्रि-घंटा  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक कल्पित नगरी जो हिमालय की चोटी पर अवस्थित मानी जाती है। कहते है कि यहां विद्याधर आदि रहते हैं।
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त्रि-चक्र  : पुं० [सं० ब० स०] अश्विनीकुमारों का रथ।
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त्रि-चक्षु(स्)  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव।
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त्रि-चीवर  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वस्त्र।
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त्रि-जट  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव। वि० [स्त्री० त्रिजटा] तीन जटाओंवाला।
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त्रि-जड़  : पुं० [डिं०] १. कटारी। २. तलवार।
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त्रि-जात  : पुं० [सं० द्विगु० स०] त्रिजातक (दे०)।
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त्रि-जीवा  : स्त्री० [सं० ब० स०] तीन राशियों अर्थात् ९॰ अंशों तक फैले हुए चाप की ज्या।
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त्रि-ज्या  : स्त्री० [सं० ब० स०] किसी वृत्त के केन्द्र से परिधि तक खिंची हुई रेखा जो व्यास की आधी होती है। व्यासर्द्ध। (रेडियस)।
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त्रि-णाचिकेत  : पुं० [सं० ब० स० णत्व] १. यजुर्वेद का एक विशेष भाग। २. वह जो उक्त भाग का अध्ययन करता हो या उसका अनुयायी हो० ३. परमात्मा।
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त्रि-तंत्री  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पुरानी चाल की एक तरह की तीन तारोंवाली वीणा।
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त्रि-ताप  : पुं० [सं० द्विगु० स०] दैहिक, दैविक और भौतिक ये तीनों ताप या कष्ट।
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त्रि-दंड  : पुं० [सं० द्विगु० स०] संन्यासियों का वह पतला लंबा डंडा जिसके ऊपरी सिरे पर दो छोटी लकड़ियाँ बँधी होती है तथा जिसे वे हाथ में लेकर चलते हैं।
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त्रि-दल  : पुं० [सं० ब० स०] बेल का वृक्ष।
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त्रि-दला  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] गोधापदी। हसंपदी।
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त्रि-दलिका  : स्त्री० [सं० ब० स० कप्, टाप्, इत्व] एक प्रकार का थूहर चर्मकशा। सातला
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त्रि-दश  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो भूत, भविष्य और वर्त्तमान अथवा बचपन जवानी और बुढ़ापे की तीनों दशाओ में एक सा बना रहे। २. देवता। ३. जिह्वा। जीभ।
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त्रि-दिव  : पुं० [सं०√दिव् (क्रीड़ा)+क, त्रि-दिव, ब० स०] १. स्वर्ग। २. आकाश। ३. सुख।
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त्रि-दृश  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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त्रि-देव  : पुं० [सं० द्विगु० स०] ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तीनों देवता अथवा इन तीनों देवताओं का समूह।
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त्रि-दोष  : पुं० [सं० द्विगु स०] १.ये तीन दोष या शारीरिक विकारवात, पित्त और कफ। २. सन्निपात नामक रोग जो इन तीनों के कुपित होने से होता है। ३. काम, क्रोध और लोभ ये तीनों मानसिक दोष या विकार।
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त्रि-धन्वा(न्वन्)  : पुं० [सं० त्रि-धनुस्, ब० स० (अनङ्)] हरिवंश के अनुसार सुधन्वा राजा का एक पुत्र।
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त्रि-धर्मा(र्मन्)  : पुं० [सं० ब० स० अनिच्] शंकर। शिव।
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त्रि-धारक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] १. बड़ा नागरमोथा। गुदैला। २. कसेरू का पौधा।
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त्रि-धारा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. तीन धाराओंवाला सेहुड़। तिधारा। २. गंगा जिसकी स्वर्ग, मृर्त्य और पाताल तीनों में तीन धाराएँ बहती हैं।
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त्रि-नयन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० त्रिनयना] तीन आँखों या नेत्रोंवाला। पुं० महादेव। शिव।
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त्रि-नयना  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] दुर्गा।
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त्रि-नाभ  : पुं० [सं० त्रि-नाभि, ब० स० अच्] विष्णु।
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त्रि-नेत्र  : वि० [सं० ब० स०] तीन नेत्रोंवाला। पुं० १. महादेव। शिव। २. सोना। स्वर्ण।
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त्रि-पटु  : पुं० [सं०] काँच। शीशा।
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त्रि-पताक  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा मस्तक जिस पर तीन प्राकृतिक बेड़ी रेखाएँ बनी या बनती हों।
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त्रि-पत्र  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तीन पत्ते या तीन-तीन पत्तों के समूह हों। पुं० बेल का वृक्ष।
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त्रि-पथ  : पुं० [सं० द्विगु० स० अच्] १. आकाश पाताल और भूमि ये तीनों मार्ग। २. कर्म, ज्ञान और उपासना जो आत्म-लाभ के तीन मार्ग कहे गये हैं। ३. तिर-मुहानी।
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त्रि-परिक्रांत  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा ब्राह्मण जो यज्ञ करता हो। वेदों का अध्ययन करता हो और दान देता हो।
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त्रि-पाण  : पुं० [सं० त्रि-पान, ब० स० णत्व] १. वह सूत जो तीन बार भिगोया गया हो। (कर्मकांड) २. छाल। वल्कल।
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त्रि-पाद  : वि० [सं० त्रि-पान, ब० स० णत्व] १. तीन पैरोंवाला। पुं० १. परमेस्वर। २. ज्वर। बुखार।
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त्रि-पाप  : पुं० [सं० ब० स०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिससे किसी मनुष्य के किसी वर्ष का शुभाशुभ फल जाना जाता है।
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त्रि-पिटक  : पुं० [सं० ब० स०] बौद्धों का एक धर्म-ग्रंथ जिसके तीन पिटक या खंड है और जिसमें गौतम बुद्ध के उपदेशों के संग्रह है।
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त्रि-पिंड  : पुं० [सं० द्विगु० स०] पार्वण श्राद्ध में पिता पिचामह और प्रतितामह के निर्मित दिये जानेवाले तीनों पिंड।(कर्मकांड)।
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त्रि-पिष्टप  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. स्वर्ग। २. आकाश।
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त्रि-पुंट  : पुं० [सं० ब० स०] १. गोखरू का पेड़। २. मटर। ३. खेसारी। ४. तीर। ५. ताला।
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त्रि-पुटा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. बेल का वृक्ष। २. छोटी इलायची। ३. बड़ी इलायची। ४. निसोथ। ५. कनफोड़ा बेला। ६. मोतिया। ७. तांत्रिकों की एक अभीष्टदात्री देवी।
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त्रि-पुटी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] १. निसोथ। २. छोटी इलायची। ३. तीन वस्तुओं का समूह। जैसे–ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय। पुं० [सं० त्रिपुट+इनि] १. रेंड़ का पेड़। २. खेसारी।
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त्रि-पुंड  : पुं० [सं० द्विगु० स०]=त्रिपुंड।
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त्रि-पुर  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. वे तीनों नगरियाँ जो मयदानव ने तारकासुर के तीन पुत्रों के रहने के लिए बनाई थी और जिन्हें शिव ने एक ही क्षण में नष्ट कर दिया था। २. वाणासुर का एक नाम। ३. तीनों लोक। ४. चंदेरी नगर।
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त्रि-पुरुष  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. पिता, पितामह और प्रतितामह ये तीनों पुरखे। २. संपत्ति का ऐसा भोग जो लगातार तीन पीढ़ियों तक चला हो।
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त्रि-पुष्कर  : पुं० [सं० द्विगु० स०] फलित ज्योतिष में एक योग जो पुनर्वसु उत्तराषाढा़ कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी पूर्वभाद्रपद और विशाखा नक्षत्रों रवि, मंगल और शनि वारों तथा द्वितीय, सप्तमी और द्वादशी तिथियों में से किसी एक नक्षत्र वार या तिथि के एक सात पड़ने से होता है। बालक के जन्म के लिए ये यह योग जारज योग समझा जाता है।
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त्रि-पृष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] जैनमत के अनुसार प्रथम वासुदेव।
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त्रि-प्रश्न  : पुं० [सं० ष० त०] दिशा, देश और काल संबंधी प्रश्न। (फलित ज्योतिष)
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त्रि-प्रस्नुत  : पुं० [सं० स० त] वह हाथी जिसके मस्तक कपोल और नेत्र इन तीनों स्तानों से मद निकलता हो।
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त्रि-प्लक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित एक देश।
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त्रि-फला  : स्त्री० [सं० द्विगु० स० टाप्] आँवलें, हड़ और बहेड़े के फल अथवा तीनों फलों का मिश्रण जो अनेक प्रकार के रोगों का नाशक माना गया है।
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त्रि-बलि  : स्त्री०=त्रिबली।
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त्रि-बली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] व्यक्ति विशेषतः स्त्री के पेट पर नाभि के कुछ ऊपर पड़ने यो होनेवाली तीन रेखाएँ। (सौंन्दर्य सूचक)।
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त्रि-बलीक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] १. वायु। २. गुदा। ३. मलद्वार।
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त्रि-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] १. रूद्र का एक अनुचर। २. तलवार चलाने का एक ढंग या हाथ। वि० जिसकी तीन बाँहें हों।
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त्रि-भंग  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तीन बल पड़े हुए हों। पुं० खड़े होने की मुद्रा जिसमें टाँग, कमर और गरदन में कुछ टेढापन रहता है। यह मुद्रा बाँकपन, सुकुमारता और सौन्दर्य की सूचक मानी गई है।
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त्रि-भज्या  : स्त्री० [सं० ष० त०]=त्रिज्या। व्यासर्द्ध।
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त्रि-भद्र  : पुं० [सं० ब० स०] स्त्री-प्रसंग। संभोग।
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त्रि-भुक्ति  : पुं० [सं० ब० स०] तिरहुत या मिथिला देश।
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त्रि-भुज  : पुं० [सं० ब० स०] ज्योमिति में वह आकृति या क्षेत्र जिसकी तीन भुजाएँ हों।
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त्रि-भुवन  : पुं० [सं० द्विगु० स०] स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल ये तीनों लोक।
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त्रि-मंडला  : स्त्री [सं० ब० स० टाप्] मकड़ियों की एक जाति।
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त्रि-मद  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] १. मोथा, चीता और बायविडंग ये तीनों पदार्थ अथवा इनका मिश्रण। २. [मध्य० स०] परिवार, विद्या और धन तीनों के कारण होनेवाला अभिमान या मद।
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त्रि-मधु  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऋग्वेद का एक अंश। २. वह जो विधिपूर्वक उक्त अंश पढ़ता हो ३. ऋग्वेद का एक यज्ञ। ४. [द्विगु० स०] घी, चीनी और शहद का समूह।
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त्रि-मधुर  : पुं० [सं०द्विगु०स०] घी,मधु,चीनी ये तीनों पदार्थ।
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त्रि-मात्र  : वि० [सं० ब० स०] (स्वर) जिसमें तीन मात्राएँ हों। प्लुत।
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त्रि-मार्ग-गामिनी  : स्त्री० [सं० त्रिमार्ग, द्विगु० स०√गम् (जाना)+णिनि-हीष्] गंगा।
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त्रि-मार्गा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. गंगा। २. तिरमुहानी।
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त्रि-मुकुट  : वि० [सं० ब० स०] तीन मुकुटोंवाला। पुं० त्रिकुट।
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त्रि-मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसके तीन मुख हों। तीन मुंहोंवाला। पुं० १. गायत्री जपने की चौबीस मुद्राओं में से एक मुद्रा की संज्ञा। २. शाक्य मुनि।
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त्रि-मुंड  : वि० [सं० ब० स०] जिसके तीन मुंड या सिर हों। पुं० १. त्रिशिर राक्षस का दूसरा नाम। २. ज्वर। बुखार।
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त्रि-मुनि  : पुं० [सं० द्विगु० स०] पाणिनी, कात्यान और पतञ्जलि ये तीनों मुनि।
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त्रि-मूर्ति  : पुं० [सं० ब० स०] १. ब्रह्मा और शिव ये तीनों देवता। २. सूर्य। स्त्री० १. ब्रह्मा, की एक शक्ति। २. बौद्धों की एक देवी।
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त्रि-यव  : पुं० [सं० ब० स०] तीन जौ का एक तौल।
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त्रि-यष्टि  : पुं० [सं० स० त०] पिचपापड़ा शाहतपा।
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त्रि-यान  : पुं० [सं० द्विगु० स०] महायन, हीनयान और मध्यम यान, बौद्धों के ये तीन संप्रदाय।
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त्रि-यामा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. रात्रि। २. यमुना नदी। ३. हलदी। ४. नील का पेड़। ५. काला निसोथ।
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त्रि-युग  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. सतयुग, द्वापर और त्रेता ये तीनों युग। २. [ब० स०] वसंत, पावस और शरद ये तीनों वस्तुएँ। ३. विष्णु।
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त्रि-रत्न  : पुं० [सं० द्विगु० स०] बौद्ध धर्म में बुद्ध, धर्म और संध इन तीनों का वर्ग या समूह।
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त्रि-रसक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] वह मदिरा जिसमें तीन प्रकार के रस या स्वाद हों।
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त्रि-रात्रि  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. तीन रात्रियों (और दिनों) का समय। २. उक्त समय तक चलनेवाला उपवास या व्रत। ३. एक प्रकार का यज्ञ।
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त्रि-रूप  : पुं० [सं० ब० स०] अश्वमेघ यज्ञ के लिए उपयुक्त माना जानेवाला एक प्रकार का घोड़ा।
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त्रि-रेख  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तीन रेखाएँ हों। पुं० शंख।
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त्रि-लघु  : पुं० [सं० ब० स०] १. नगण, जिसमें तीनों लघु वर्ण होते हैं। २. ऐसा व्यक्ति जिसकी गरदन, जाँघ और मूत्रेंद्रिय तीनों छोटी हों। (शुभ)।
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त्रि-लवण  : पुं० [सं० द्विगु० स०] सेधा, साँभर, और सोंचर (काला) ये तीनों प्रकार के नमक।
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त्रि-लिंग  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक तीनों लिंग। २. तैलंग शब्द का वह रूप जो उसे संस्कृत व्याकरण के अनुसार मिला है।
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त्रि-लोचना  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] त्रिलोचनी।
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त्रि-लौही  : स्त्री० [सं० त्रिलौह, ब० स०+ङीष्] प्राचीन काल की वह मुद्रा या सिक्का जो सोने, चांदी और ताँबे को मिलाकर बनाया जाता था।
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त्रि-वण  : पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग। यह दोपहर के समय गाया जाता है। इसे हिंडोल राग का पुत्र कुछ लोग मानते हैं।
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त्रि-वणो  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] वन कपास।
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त्रि-वर्ग  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. तीन चीजों का वर्ग या मसूह। २. धर्म, अर्थ और काम जो सांसारिक जीवन के तीन मुख्य उद्देश्य है। ३. सर रज और तम तीनों गुणों का समूह। ४. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण। ५. त्रिफला। ६. त्रिकुटा।
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त्रि-वर्ण  : पुं० [सं० द्विगु० स०] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण।
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त्रि-वाचा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कोई बात जोर देने के लिए तीन बार कहने की क्रिया। उदाहरण–कहहिं प्रतीति प्रीति नीतिहूँ त्रिवाचा बाँधि ऊधौं साँच मनको हिये की अरु जी के हौं।–रत्ना। क्रि०प्र०–देना।–बाँधना।
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त्रि-विक्रम  : पुं० [सं० ब० स०] १. वामन अवतार। २. विष्णु।
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त्रि-विथ  : वि० [सं० ब० स०] तीन तरह का। तीन रूपोंवाला। क्रि० वि० तीन प्रकार का।
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त्रि-विनत  : पुं० [सं० ब० स०] देवता, ब्राह्मण और गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखनेवाला व्यक्ति।
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त्रि-विष्टप  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. स्वर्ग। २. तिब्बत।
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त्रि-विस्तीर्ण  : पुं० [सं० तृ० त०] ऐसा व्यक्ति जिसका ललाट, कमर और छाती विस्तीर्ण हों। (शुभ)
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त्रि-वीज  : पुं० [सं० ब० स०] साँवाँ।
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त्रि-वृत्त  : वि० [सं० तृ० त०] तिगुना।
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त्रि-वृष  : पुं० [सं० ब० स०] ग्यारहवें द्वापर के व्यास का नाम। (पुराण)।
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त्रि-वेणी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] १. वह स्थान जहां तीन नदियाँ आकर मिलती हों। २. तीन नदियों की संयुक्त धारा। ३. गंगा यमुना और सरस्वती नदियों का संगम जो प्र० याग में है। ४. हठयोग में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का संगम स्थान जो मस्तक में दोनों भौहों के बीच माना जाता है। ५. संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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त्रि-वेणु  : पुं० [सं० ब० स०] रथ के अगले भाग का एक अंग।
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त्रि-वेद  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. ऋक् यजु और साम ये तीनों वेद। २. [वि√विद् (जानना)+अण्] इन तीनों वेदों का ज्ञाता या पंडित।
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त्रि-वेला  : स्त्री० [सं० ब० स०] निसोथ।
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त्रि-शंकु  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जो यज्ञ करके स-शरीर स्वर्ग पहुँचना चाहते थे, परंतु देवताओं के विरोध के कारण वहाँ नहीं पहुँच सके थे। पुराणों की कथा के अनुसार जब विश्वामित्र अपनी तपस्या के बल से इन्हें स्वर्ग भेजने लगे तब इन्द्र ने इन्हें बीच में ही रोककर लौटना चाहा, जब ये उलटे होकर गिरने लगे, तब विश्वामित्र ने इन्हें मध्यआकाश में ही रोक दिया जहाँ ये अब तक एक तारे के रूप में स्थित है। २. एक प्राचीन पर्वत ३. पपीहा। ४. बिल्ली। ५. जुगनूँ।
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त्रि-शक्ति  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] १. इच्छा, ज्ञान और क्रिया रूपी तीन ईश्वरीय शक्तियाँ। २. बद्धिमान या महत्तत्त्व जो त्रिगुणात्मक है। ३. गायत्री। ४. तांत्रिकों की काली, तारा और त्रिपुरा नाम की तीनों देवियाँ।
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त्रि-शरण  : पुं० [सं० ब० स०] १. महात्मा गौतम बुद्ध। २. एक जैन आचार्य।
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त्रि-शर्करा  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] गुड, शक्कर और मिश्री तीनों का समूह।
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त्रि-शला  : स्त्री० [सं० त्रि-शाला, ब० स० पृषो० सिद्धि] वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीसवें तीर्थकार महावीर की माता का नाम।
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त्रि-शाख  : वि० [सं० ब० स०] तीन शाखाओंवाला।
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त्रि-शाल  : पुं० [सं० ब० स०] वह घर जिसमें तीन बड़े-बड़े कमरे हों।
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त्रि-शालक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] वह मकान जिसकी उत्तर दिशा में कोई और मकान बना हुआ न हो।
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त्रि-शिख  : वि० [सं० ब० स०] तीन शिखाओं या चोटियोंवाला। पुं० १. त्रिशूल। २. किरीट। ३. रावण का एक पुत्र। बेल का वृक्ष। ४. तामस मन्वन्तर के इन्द्र।
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त्रि-शिखर  : पुं० [सं० ब० स०] तीन चोटियोंवाला पहाड़। २. त्रिकूट।
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त्रि-शिर(स्)  : वि० [सं० ब० स०] तीन सिरोंवाला। पुं० १. खर-दूषण की सेना का एक राक्षस जिसका वध राम ने दंडक वन में किया था। २. कुबेर। ३. त्वष्टा प्रजापित का एक पुत्र।
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त्रि-शीर्ष  : वि० [सं० ब० स०] तीन चोटियोंवाला। पुं० १. त्रिकूट नामक पर्वत। २. त्वष्टा प्रजापित का एक पुत्र।
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त्रि-शीर्षक  : पुं० [सं० ब० स०] त्रिशूल।
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त्रि-शूल  : पुं० [सं० ब० स०] १. लोहे का एक अस्त्र जिसके सिरे पर तीन नुकीले फल होते है और जो शिव जी का अस्त्र माना जाता है। २. दैहिक, दैविक और भौतिक ये तीनों ताप या दुःख। त्रिताप। ३. एक मुद्रा, जिसमें अँगूठे को कनिष्ठा उँगली के साथ मिलाकर बाकी तीनों उँगलियों को फैला देते हैं। (तंत्र) ४. हिमालय की एक प्रसिद्ध चोटी जो २३४॰४ फुट ऊँची है।
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त्रि-शोक  : पुं० [सं० ब० स०] १. जीव, जिसे आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन प्रकार के शोक (दुःख) सताते हैं। २. कण्व ऋषि के एक पुत्र का नाम।
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त्रि-षवण  : पुं० [सं० द्विगु० स०] प्रातः मध्याह्र और सायं ये तीनों काल। त्रिकाल।
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त्रि-षष्टि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तिरसठ की संख्या।
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त्रि-ष्टोम  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का यज्ञ, जो क्षत्रधृति यज्ञ करने से पहले या बाद में किया जाता था।
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त्रि-संगम  : पुं० [सं० ष० त०] १. तीन नदियों के मिलने का स्थान। त्रिवेणी। २. तीन प्रकार की चीजों का मिश्रण या मेल।
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त्रि-संधि  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. एक वृक्ष जिसका फूल, लाल सफेद और काले तीन रंगोंवाला होता है। २. उक्त वृक्ष का फूल।
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त्रि-संध्या  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] प्रातः, मध्याह्र और सायं ये तीनों संध्याएँ या संधि-काल।
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त्रि-सप्तित  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तिहत्तर की संख्या। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–७३।
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त्रि-सम  : वि० [सं० ब० स०] (क्षेत्र) जिसकी तीनों भुजाएं बराबर हों। पुं० [द्विगु० स०] सोंठ, गुड़ और हर्रे इन तीनों का समूह।
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त्रि-सर  : पुं० [सं० त्रि√सृ (क्षेत्र)+अप्] खेसारी।
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त्रि-सर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का सर्ग या सृष्टि।
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त्रि-सामा(मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] परमेश्वर। स्त्री० पुराणानुसार एक नदी, जो महेंद्र पर्वत से निकली है।
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त्रि-सिता  : स्त्री०=त्रिशशर्करा।
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त्रि-सुंगध  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] दालचीनी, इलायची और तेजपात इन तीनों सुगंधित मसालों का समूह।
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त्रि-सुपर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऋग्वेद के तीन विशिष्ट मंत्रों की संज्ञा। २. यजुर्वेद के तीन विशिष्ट मंत्रों की संज्ञा।
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त्रि-स्कंध  : पुं० [सं० ब० स०] ज्योतिषशास्त्र, जिसके संहिता तंत्र और होरा ये तीन स्कंध या विभाग है।
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त्रि-स्तवा  : स्त्री० [सं० मध्य० स० अच्-टाप्, टिलोप, नि०] बोध यज्ञ की बेदी। (जो साधारण वेदी से तिगुनी ब़डी होती थी)।
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त्रि-स्तुनी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] १. गायत्री। २. महाभारत के अनुसार तीन स्तनोंवाली एक राक्षसी।
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त्रि-स्तुवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] तीन दिनों तक बराबर चलनेवाला एक तरह का यज्ञ।
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त्रि-स्नान  : पुं० [सं० ष० त०] सबेरे, दोपहर और संध्या इन तीन समयों में किये जानेवाले स्नान।
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त्रि-हायण  : वि० [सं० ब० स० णत्व] जिसकी अवस्था तीन वर्ष की हो चुकी हो।
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त्रि-हायणी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्, णत्व] द्रौपदी।
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त्रिक  : वि० [सं० त्रि+कन्] १. तीन, अंगों इकाइयों या रूपोंवाला। २. तीसरी बार होनेवाला। ३. तीन प्रतिशत। पुं० १. एक ही तरह की तीन, चीजों का वर्ग या समूह। २. रीढ के नीचे का वह भाग जो कून्हे की हड्डियों के पास पड़ता है। ३. कटि। कमर। ४. कंधों के बीच का भाग। ५. त्रिकटु। ६. त्रिफला। ७. त्रिमद। ८. त्रिमुहानी। ९. मनु के अनुसार ३ प्रतिशत होनेवाला लाभ या मिलनेवाला ब्याज।
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त्रिक-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] त्रिफला, त्रिकुटा और त्रिमेद अर्थात् हड़, बहेड़ा और आँवला, सोंठ, मिर्च और पीपल तथा मोथा चीता और बायबिंडग इन सब का समूह।
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त्रिक-शूल  : पुं० [सं० ष० त०] एक तरह का बात रोग जिसमें कमर, पीठ और रीढ़ तीनों में पीड़ा होती है।
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त्रिकट  : पुं० [सं० त्रि√कट् (ढकना)+अच्, उप० स०] त्रिकंट। (दे०)।
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त्रिकटुक  : पुं० [सं० त्रिकटु+क (स्वार्थ्)] त्रिकुट (दे०)।
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त्रिकर्मा(र्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्राह्मण जो वेदों का अध्ययन यज्ञ और दान ये तीन मुख्य कर्म करते हैं।
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त्रिकलिंग  : पुं०=तैलंग।
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त्रिका  : स्त्री, [सं० त्रि√कै (भासित होना)+क-टाप्] कूएँ मे से पानी निकालने के लिए लगी हुई गराड़ी।
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त्रिकांडी  : वि०=त्रिकांडीय।
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त्रिकांडीय  : वि० [सं० त्रि-कांड, द्विगु, स०+छ–ईय] जिसमे तीन कांड हों। तीन कांडोवाला। पुं० वेद, जिनमें कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों की चर्चा या विवेचना है।
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त्रिकाल-दर्शक  : वि० [सं० ष० त०] त्रिकालज्ञ। पुं० ऋषि।
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त्रिकालज्ञ  : पुं० [सं० त्रिकाल√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० त्रिकाज्ञता] वह जो भूत, वर्त्तमान और भविष्य तीनों कालों में हुई अथवा होनेवाली बातों को जानता हो।
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त्रिकालज्ञता  : स्त्री० [सं० त्रिकालज्ञ+तल्-टाप्] त्रिकालज्ञ होने की अवस्था, भावया शक्ति।
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त्रिकालदर्शिता  : स्त्री० [सं० त्रिकालदर्सिन्+तल्-टाप्] त्रिकालदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव या शक्ति।
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त्रिकालदर्शी (र्शिन्)  : पुं० [सं० त्रिकाल√दृश् (देखना)+णिनि, उप० स०] वह जिसे भूत, भविष्य और वर्त्तमान तीनों कालों में होनेवाली घटनाएँ या बातें दिखाई देती हों।
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त्रिकुट  : पुं०=त्रिकूट।
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त्रिकुटा  : पुं० [सं० त्रिकुट] सोंठ, मिर्च और पीपल इन तीनों वस्तुओं का समूह। वि० [सं० त्रिक] [स्त्री०त्रिकुटी] तीसरा। तृतीय। उदाहरण–इकुटी बिकुटी त्रिकुटी संधि।–गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिकुटी  : स्त्री० [सं० त्रिकूट] दोनों भौंहों के बीच के कुछ ऊपर का स्थान जिसमें हठ योग के अनुसार त्रिकूट का अवस्थान माना गया है।
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त्रिकूट-गढ़  : पुं० [सं० त्रिकूट+हिं० गढ़] त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंका।
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त्रिकूटा  : स्त्री० [सं० त्रिकूट+टाप्] तांत्रिकों की एक भैरवी।
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त्रिकोण-फल  : पुं० [ब० स०] सिघांड़ा।
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त्रिकोण-भवन  : पुं० [कर्म० स०] जन्मकुंडली में जन्म से पाँचवाँ और नवाँ स्थान।
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त्रिकोण-मिति  : स्त्री० [सं० ब० स०] गणित शास्त्र की वह शाखा जिसमें त्रिभुजों के कोण, बाहु, वर्ग विस्तार आदि का मान निकाला जाता है।
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त्रिखा  : स्त्री०=तृषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिखी  : वि०=तृषित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिगुणात्मक  : वि० [सं० त्रिगुण-आत्मन्, ब० स० कप्] [स्त्री० त्रिगुणात्मकता] १. सत, रज और तम नामक तीनों गुणों से युक्त। जिसमें तीनों गुण हों। २. किसी प्रकार के तीन गुणों से युक्त।
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त्रिगुणी  : स्त्री० वि० [सं० त्रिगुण] जिसमें तीन गुण हों। त्रिगुणात्मक। स्त्री० [ब० स० ङीप्] बेल का पेड़।
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त्रिचित्  : पुं० [सं० त्रि√चि (बटोरना)+क्विप्, उप० स०] गार्हपत्याग्नि।
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त्रिजगत्  : पुं० १.=त्रिलोक। २.=तिर्यक।
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त्रिजटा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. विभीषण की बहन जो अशोक वाटिका में सीता जी के पास रहा करती थी। २. बेल का पेड़।
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त्रिजटी(टिन्)  : पुं० [सं० त्रिजटा+इनि] महादेव। शिव। स्त्री०=त्रिजटा।
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त्रिजातक  : पुं० [अ० त्रिजात+कन्] इलायची (फल), दारचीनी (छाल) और तेजपत्ता ये तीनों पदार्थ अथवा इन तीनों का मिश्रण।
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त्रिजाम  : स्त्री० [सं० त्रियामा] रात। रात्रि।
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त्रिण  : पुं० तृण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिण-ता  : पुं० [सं० मध्य० स० णत्व] सामगान की एक प्राणाली जिसमें एक विशेष प्रकार से उसकी (३+९) सत्ताईस आवृत्तियाँ करते हैं।
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त्रिण्ह  : वि०=तीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रित  : पुं० [सं०] १. एक ऋषि जो ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं। २. गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक।
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त्रितय  : पुं० [सं० त्रि+तयप्] धर्म, अर्थ और काम इन तीनों का समूह।
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त्रिदंडी(डिन्)  : पुं० [सं० त्रिदण्ड+इनि] १. वह सन्यासी जो त्रिदंड लिए रहता हो। २. मन वचन और कर्म तीनो का दमन करने या इन्हें वश में रखनेवाला व्यक्ति। ३. यज्ञोपवीत। जनेऊ।
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त्रिदश-गुरु  : पुं० [ष० त०] देवताओं के गुरु बृहस्पति।
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त्रिदश-गोप  : पुं० [ब० स०] बीरबहूटी नामक कीड़ा।
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त्रिदश-दीर्धिका  : स्त्री० [ष० त०] आकाश गंगा।
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त्रिदश-पति  : पुं० [ष० त०] इंद्र
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त्रिदश-पुष्प  : पुं० [मध्य० स०] लौंग।
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त्रिदश-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] तुलसी।
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त्रिदश-वधू  : स्त्री० [ष० त०] अप्सरा।
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त्रिदश-सर्षप  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह की सरसों। देवसर्षप।
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त्रिदशांकुश  : पुं० [सं० त्रिदश-अंकुश, ष० त०] वज्र।
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त्रिदशाचार्य  : पुं० [सं० त्रिदस-आचार्य, ष० त०] बृहस्पति।
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त्रिदशाधिप  : पुं० [सं० त्रिदस-अधिग, ष० त०] इंद्र।
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त्रिदशायन  : पुं० [सं० त्रिदस-अयन, ष० त०] विष्णु।
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त्रिदशारि  : पुं० [सं०त्रिदस-अरि, ष० त०] असुर।
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त्रिदशालय  : पुं० [सं० त्रिदश-आलय, ष० त०] १. स्वर्ग। २. सुमेरू पर्वत।
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त्रिदशाहार  : पुं० [सं०त्रिदश-आहार, ष० त०] अमृत।
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त्रिदशेश्वर  : पुं० [सं० त्रिदश-ईश्वर, ष० त०] इंद्र।
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त्रिदशेश्वरी  : स्त्री० [सं० त्रिदश-ईस्वरी, ष० त०] दुर्गा।
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त्रिदसाध्यक्ष  : पुं० [सं० त्रिदस-अध्यक्ष, ष० त०] विष्णु।
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त्रिदिनस्पृश्  : पुं० [सं० दिन, द्विगु० स०√स्पृश् (छूना)+क्विप्] वह तिथि जिसका थोड़ा बहुत अंश या मान तीन दिनों तक रहता हो। एक दिन आरंभ होकर पूरे दिन तक बनी रहनेवाली और तीसरे दिन समाप्त होनेवाली तिथि।
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त्रिदिवाधीश  : पुं० [सं० त्रिदिव-अधीश, ष० त०] इंद्र।
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त्रिदिवेश  : पुं० [सं० त्रिदिव-ईश, ष० त०] देवता।
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त्रिदिवोद्भवा  : स्त्री० [सं० त्रिदिव-उदभव, ब० स० टाप्] १. गंगा। २. बड़ी इलाचयी।
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त्रिदोषज  : वि० [सं० त्रिधोष√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो त्रिदोष से उत्पन्न हुआ हो। पुं० सन्निपात नामक रोग।
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त्रिदोषना  : अ० [सं० त्रिदोष] १. वात, पित्त और कफ इन तीनों तोपों या विकारों से पीड़ित होना। २. काम, क्रोध और लोभ नामक तीनों दोषों से युक्त होना।
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त्रिधनी  : स्त्री० [सं०] एक रागिनी का नाम।
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त्रिधा  : क्रि० वि० [सं० त्रि+घाच्] तीन तरह से तीन रूपों में। वि० १. तीन तरह या प्रकार का। २. तीन रूपों वाला।
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त्रिधा-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] परमेश्वर जिसके अंतर्गत ब्रह्मा विष्णु और महेश तीनों हैं।
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त्रिधातु  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. चाँदी तांबा और सोना ये तीनों धातुएँ। २. [त्रि√धा (पोषण करना)+तुन्] १. विष्णु। २. अग्नि। ३. सिव। ४. स्वर्ग। ५. मृत्यु।
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त्रिन  : पुं०=तृण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिनेता  : स्त्री० [सं० त्रिनेत्र+टाप्] बाराही कंद।
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त्रिनेत्ररस  : पुं० [सं० मध्य० स०] (शोधे हुए) पारे, गंधक और फूँके हुए ताँवे के योग से बनाया एक तरह का रस। (वैद्यक)।
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त्रिनेष-चूड़ामणि  : पुं० [ष० त०] चन्द्रमा।
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त्रिपत  : वि०=तृप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिपत्रक  : पुं० [सं० त्रिपत्र+कन्] १. पलाश या ढाक के पेड़। २. कुंद तुलसी और बेल के पत्तों का समूह।
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त्रिपत्रा  : स्त्री० [सं० त्रिपत्र+टाप्] १. अरहर का पौधा। २. तिपतिया नाम की घास।
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त्रिपथगा  : स्त्री० [सं० त्रिपथ√गम् (जाना)+ड-टाप्] गंगा नदी। विशेष–गंगा नदी के संबंध में कहा गया है कि इसकी तीनों लोकों मे एक-एक धारा बहती है।
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त्रिपथगामिनी  : स्त्री० [सं० त्रिपथ√गम+णिनि–ङीप्] गंगा।
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त्रिपथा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] मथुरा।
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त्रिपद  : वि० [सं० ब० स०] १. तीन पैरोंवाला। २. तीन पदोंवाला। पुं० १. यज्ञों की बेदी नापने का एक नाप जो प्रायः तीन कदम या डग की होती है। २. त्रिभुज। ३. तिपाई। ४. तीन पदों अर्थात् चरणोंवाला छंद।
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त्रिपदा  : स्त्री० [सं० त्रिपद+टाप्] १. वैदिक छंदों का एक भेद। गायत्री। २. लाल लज्जावंती। हंसपदी।
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त्रिपदिका  : स्त्री० [सं० त्रिपदा+कन्-टाप्, इत्व] १. शंख आदि रखने के लिए पीतल की बनी हुई छोटी तिपाई। २. तिपाई। ३. संगीत में, संकीर्ण राग का एक भेद।
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त्रिपदी  : स्त्री० [सं० त्रिपद+ङीष्] १. गायत्री। २. हंसपदी। लाल लज्जावंती। ३. हाथी की पलान बाँधने का रस्सा। ४. तिपाई। ५. तिपाई के आकार का वह चौखटा जिस पर शंख रखा जाता है।
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त्रिपन्न  : पुं० [सं०] चंद्रमा के दस घोड़ों में से एक।
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त्रिपर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] पलाश। (वृक्ष)।
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त्रिपर्णा  : स्त्री० [सं० त्रिपर्ण+टाप्] पलाश। (वृक्ष)।
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त्रिपर्णिका  : स्त्री० [सं० त्रिपर्ण+कन्, टाप्, इत्व] १. शालपर्णी। २. बन-कपास। ३. एक प्रकार की पिठवन लता।
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त्रिपर्णी  : स्त्री० [सं० त्रिपर्ण+ङीष्] १. एक प्रकार का क्षुप जिसका कंद औषध के काम आता है। २. शालपर्णी।
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त्रिपल  : स्त्री०=त्रिफला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिपाठी(ठिन्)  : पुं० [सं० त्रि√पठ् (पढ़ना)+णिनि] १. तीन वेदों का जानेवाला व्यक्ति। त्रिवेदी। २. ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग। त्रिवेदी। तिवारी।
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त्रिपादिका  : स्त्री० [सं० त्रिपाद+कन्-टाप्, इत्व] १. तिपाई। २. हंसपदी लता। लाल लज्जालू।
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त्रिपिताना  : अ० [सं० तृप्त] तृप्त होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० तृप्त करना।
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त्रिपिब  : पुं० [सं० त्रि√पा (पीना)+क, नि, पिब] वह खसी जिसके दोनों काम पानी पीने के समय पानी से छू जाते हो। ऐसा बकरा मनु के अनुसार पितृकर्म के लिए बहुत उपयुक्त होता है।
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त्रिपुटक  : पुं० [सं० त्रिपुंट+कन्] १. खेसारी। २. फोड़े का एक आकार।
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त्रिपुंड  : पुं० [सं० त्रिपुंड] मस्तक पर लगाया जानेवाला तीन आडी रेखाओं का तिलक। क्रि०–प्र०–देना।–रमाना।–लगाना।
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त्रिपुंडी  : वि० [हिं० त्रिपुंड] माथे पर त्रिपुंड लगानेवाला।
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त्रिपुर-दहन  : पुं० [ष० त०] महादेव।
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त्रिपुर-भैरव  : पुं० [उपमि० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो सन्निपात का नाशक कहा गया है।
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त्रिपुर-भैरवी  : स्त्री० [त्रिपुरा-भैरवी, कर्म० स०] एक देवी।
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त्रिपुर-मल्लिका  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की मल्लिका।
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त्रिपुरध्न  : पुं० [सं० त्रिपुर√हन् (मारना)+टक्] महादेव जिन्होंने एक हीवाण से तारकासुर के तीनों पुत्रों के तीनों पुर या नगर नष्ट कर दिये थे।
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त्रिपुरा  : स्त्री० [सं० त्रि√पुर् (देना)+क-टाप्] १. कामाख्यादेवी की एक मूर्ति। २. भारत के पूर्वी आंचल का एक नगर और उसके आस-पास का प्रदेश।
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त्रिपुरांतक  : पुं० [त्रिपुर-अंतक, ष० त०] महादेव। शिव।
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त्रिपुरारि  : पुं [त्रिपुर-अरि, प० त०] महादेव। शंकर।
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त्रिपुरासुर  : पुं० [त्रिपुर-असुर, कर्म० स०]=त्रिपुर।
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त्रिपुष  : पुं० [सं० त्रि√पुप् (पुष्टि करना)+क] १. ककड़ी। २. खीरा। गेहूँ।
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त्रिपुषा  : स्त्री० [सं० त्रिपुष+टाप्] काली निसोथ।
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त्रिपौरुष  : पुं० [सं० त्रिपुरुष+अण्, उत्तरपदवृद्धि]=त्रिपुरुष।
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त्रिपौलिया  : पुं०=तिरपौलिया।
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त्रिबेनी  : स्त्री०=त्रिवेणी।
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त्रिभ  : वि० [सं० ब० स०] तीन नक्षत्रोंवाला। पुं० [सं०] चंद्रमा के हिसाब से रेवती, अश्विनी और भरणी नक्षत्र युक्त आश्विन मास, शताभिषा पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्रयुक्त भाद्रपद और पूर्वपाल्गुनी और हस्त नक्षत्र युक्त फाल्गुन मास।
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त्रिभ-जीवा  : स्त्री० [सं० ष० त०] त्रिज्या। व्यासार्द्ध।
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त्रिभंगी(गिन्)  : वि० [सं० त्रि-भंग, द्विगु, स०+इनि] १. जिसमें तीन बल पड़े हुए हों। २. त्रिभंगवाली मुद्रा से जो खडा हुआ हो। पुं० [सं० त्रिभंग+ङीष्] १. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक जिसमें एक गुरू, एक लघु और प्लुत मात्रा होती है। २. शुद्द राग का एक भेद। ३. ३२ मात्राओं का एक तरह का छंद जिसमें १॰, ८, ८, और ६ मात्राओं पर विश्राम होता है। ४.दण्डक का बेद। ५. दे त्रिभंग।
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त्रिभंडी  : स्त्री० [सं० त्रि√भंड् (परिहास)+अण्-ङीष्] निसोथ।
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त्रिभुवन-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर। परमेश्वर।
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त्रिभुवन-सुन्दरी  : स्त्री० [सं० स० त] १. दुर्गा। २. पार्वती।
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त्रिभूम  : पुं० [सं० त्रि-भूमि, ब० स०+अच्] वह भवन जिसमें तीन खंड हों।
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त्रिभोलग्न  : पुं० [सं०] क्षितिज वृत्त पर पड़नेवाले क्रांतिवृत्त का ऊपरी मध्य भाग।
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त्रिमात  : वि०=त्रिमात्रिक।
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त्रिमात्रिक  : वि० [सं० त्रिमात्र+ठन्-इक] (स्वर) जिसमें तीन मात्राएं हों। प्लुत।
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त्रिमास  : पुं० [सं० द्विगु० स०] [वि० त्रैमासिक] १. तीन महीनों का समय। २. वर्ष के तीन महीनों के चार विभागों में कोई एक। (क्वार्टर) जैसे–यह चंदा इस वर्ष के तीसरे त्रिमास का है।
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त्रिमुखा  : स्त्री०=त्रिमुखी।
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त्रिमुखी  : स्त्री० [सं० त्रिमुखी+ङीष्] बुद्ध की माता। माया देवी। वि० [सं० त्रिमुखिन्] तीन मुखों या मुँहोंवाला।
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त्रिमुहानी  : स्त्री०=तिरमुहानी।
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त्रिमृत  : पुं० [सं०] निसोथ।
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त्रिमृता  : स्त्री० त्रिमृत।
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त्रिय  : स्त्री०=त्रिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=त्रय (तीन)।
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त्रियना  : अ०=तरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिया  : स्त्री० [सं० स्त्री०] औरत। स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिया-विशेष  : पुं० [कर्म० स०] सांख्य के अनुसार सूक्ष्म मातृ, पितृज और महाभूत तीनों प्रकार के रूप धारण करनेवाला शरीर।
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त्रिया-सर्ग  : पुं० [कर्म० स०] दैव, तिर्यग और मानुष ये तीनों सर्ग जिसके अंतर्गत सारी सृष्टि आ जाती है।
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त्रियामक  : पुं० [सं० त्रि√यम् (नियन्त्रण करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] पाप।
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त्रियूह  : पुं० [सं०] सफेद रंग का घोड़ा।
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त्रिरश्मि  : स्त्री०=त्रिकोण।
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त्रिल  : पुं० [सं० ब० स०] नगण, जिसमें तीनों लघु वर्ण होते हैं।
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त्रिलोक  : पुं० [सं० द्विगु० स०] स्व्रग, मर्त्य और पाताल ये तीनों लोक।
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त्रिलोक-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. तीनों लोकों का मालिक ईश्वर। २. राम ३. कृष्ण। ४. विष्णु का कोई अवतार। ५. सूर्य।
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त्रिलोक-पति  : पुं० [सं० ष० त०]=त्रिलोकनाथ।
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त्रिलोकी  : स्त्री० [सं० त्रिलोक+ङीप्] त्रिलोक।
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त्रिलोकी-नाथ  : पुं०=त्रिलोकनाथ।
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त्रिलोकेश  : पुं० [सं० त्रिलोक-ईश, ष० त०] १. ईश्वर। २. सूर्य।
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त्रिलोचन  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव।
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त्रिलोचनी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] दुर्गा।
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त्रिलौह  : पुं० [सं० द्विगु० स०] सोना, चाँदी और ताँबा ये तीनों धातुएँ।
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त्रिवट  : पुं०=त्रिवट।
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त्रिवणी  : स्त्री० [सं० त्रिवण से] शंकराभरण, जयश्री और नरनारायण के मेल से बननेवाली एक संकर रागिनी।
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त्रिवर्णक  : पुं० [सं० त्रिवर्ण+कन्] १. गोखरू। २. त्रिफला। ३. त्रिकुटा। ४. लाल काला और पीला रंग। ५. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों जातियाँ।
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त्रिवर्त्त  : पुं० [सं० त्रि√वृत्त (रहना)+अण्] एक तरह का मोती, जिसे अपने पास रखने से आदमी दरिद्र हो जाता है।
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त्रिवलि  : स्त्री०=त्रिबली।
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त्रिवलिका  : स्त्री०=त्रिबली।
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त्रिवली  : स्त्री०=त्रिबली।
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त्रिवल्य  : पुं० [सं० त्रिवलि+यत्] पुराने जमाने का एक बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था। पुरानी चाल का एक तरह का ढोल।
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त्रिवार  : पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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त्रिवाहु  : पुं०=त्रिबाहु।
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त्रिविद्  : पुं० [सं० त्रि√विद् (जानना)+क्विप्] वह जिसने तीन वेद पढ़े हों। तीन वेदों का ज्ञाता।
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त्रिवृत्करण  : पुं० [सं० त्रिवृत्त-करण, ष० त०] अग्नि, जल और पृथ्वी इन तीनों तत्त्वों में से प्रत्येक में शेष दोनों तत्त्वों का समावेश करके प्रत्येक को अलग-अलग तीन भागों में विभक्त करने की क्रिया। (दर्शन शास्त्र)।
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त्रिवृत्त  : वि० [सं० त्रि√वृ (वरण करना)+क्विप्] जिसके तीन भाग हों। पुं० १. एक यज्ञ। २. निसोथ।
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त्रिवृत्ता  : वि०=त्रिवृत्त।
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त्रिवृत्ता  : स्त्री० [सं० त्रिवृत्त+टाप्]=त्रिवृत्ति।
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त्रिवृत्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] निसोथ।
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त्रिवृत्पर्णी  : स्त्री० [सं० त्रिवृत्त-पर्ण, ब० स० ङीष्] हुरहुर। हिलमोचिका।
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त्रिवृद्वेद  : पुं० [सं० त्रिवृत्त-पर्ण, कर्म० स०] १. ऋक् यजु और साम तीनों वेद। २. प्रणव।
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त्रिवेदी(दिन्)  : पुं० [सं० त्रिवेद+इनि] १. ऋक् यजु और साम इन तीनों वेदों का ज्ञाता। २. ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग। स्त्री० [सं० त्रिपदी] १. तिपाई। २. छोटी चौकी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिवेनी  : स्त्री०=त्रिवेणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिशंकुज  : पुं० [सं० त्रिशङ्√जन् (पैदा होना)+ड] त्रिशंकु के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र।
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त्रिशंकुयाजी(जिन्)  : पुं० [सं० त्रिशंकु√यज् (यज्ञ करना)+णिच्+णिनि] त्रिशंकु को यज्ञ करानेवाले विश्वामित्र ऋषि।
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त्रिशक्तिधृत्  : पुं० [सं० त्रिशक्ति√धृ (धारण करना)+क्विप्] १. परमेश्वर। २. राजा विजिगीषु का दूसरा नाम।
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त्रिशत  : वि० [सं० त्रि-दश, नि० सिद्धि] तीस।
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त्रिंशत्पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] कोई का फूल। कुमुदनी।
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त्रिशाख-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] बेल का पेड़।
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त्रिशांश  : पुं० [सं० त्रिश्-अंश, कर्म० स०] १. किसी पदार्थ का तीसवाँ भाग। २. फलित ज्योतिष में राशि का तीसवाँ अंश या भाग जिसका उपयोग जन्मपत्री बनाने और शुभाशुभ फल निकालने में होता है।
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त्रिशिखि-दला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] मालाकंद लता और उसका कंद।
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त्रिशिखी(खिन्)  : वि० पुं० [सं० त्रिशिखा+इनि]=त्रिशिख।
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त्रिशिरा  : स्त्री०=त्रिजटा। पुं०=त्रिशिर।
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त्रिशिरारि  : पुं० [सं० त्रिशिर-अरि, ष० त०] त्रिशिर को मारनेवाले रामचन्द्र।
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त्रिशुच्  : पुं० [सं० ब० स०] १. धर्म, जिसका प्रकाश, स्वर्ग, अंतरिक्ष और पृथ्वी तीनों स्थानों में है। २. वह जिसे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के कष्ट या दुःख हों।
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त्रिशूल-घात  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ जहाँ स्नान और तर्पण करने से गाणपत्य देह प्राप्त होती है।
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त्रिशूल-मुद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तंत्र में हाथ की एक मुद्रा।
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त्रिशूलधारी(रिन्)  : पुं० [सं० त्रिशूल√धृ (धारण करना)+णिनि] त्रिशूल धारण करनेवाले शिव।
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त्रिशूली(लिन्)  : पुं० [सं० त्रिशूल+इनि] त्रिशूल धारण करनेवाले शिव। स्त्री० [त्रिशूल+अच्-ङीष्] दुर्गा।
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त्रिश्  : वि० [सं० त्रिशत्+डट्] तीसवाँ।
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त्रिश्रुतिमध्यम  : पुं० [सं०] एक प्रकार का विकृत, स्वर जो संदीपनी नाम की श्रुति से आरंभ होता है। (संगीत)।
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त्रिश्रृंग  : पुं० [सं० ब० स०] १. त्रिकूट पर्वत जिस पर लंका बंसी थी। २. त्रिकोण।
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त्रिश्रृंगी  : स्त्री० [सं० त्रिश्रृंग+ङीष्] एक तरह की मछली जिसके सिर पर तीन काँटे होते हैं। टेंगर।
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त्रिषष्ट  : वि० [सं० त्रिषष्टि+ङीष्] तिरसठवाँ।
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त्रिषा  : स्त्री०=तृषा।
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त्रिषित  : वि०=तृषित।
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त्रिषुपर्ण  : पुं०=त्रिसुपर्ण।
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त्रिष्टक  : पुं०=त्रीष्टक।
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त्रिष्टुप  : पुं०=त्रिष्टुभ्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिष्टुभ्  : पुं० [सं० त्रि√स्तुभ् (रोकना)+क्विप्, षत्व] एक वैदिक छंद जिसके चरणों में ग्यारह-ग्यारह अक्षर होते हैं।
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त्रिष्ठ  : पुं० [सं० त्रि√स्था (स्थित होना)+क, षत्व] ऐसी गाड़ी या रथ जिसके तीन पहिये हों।
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त्रिस  : स्त्री० [सं० तृषा] प्यास। उदाहरण–त्रिगुण परसतै षुधा त्रिस।–प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिसंध्य  : पुं० [सं० द्विगु० स०] दिन के तीन भाग प्रातः मध्याह्र और सायं। (ये तीनों संधि काल हैं।)
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त्रिसंध्यव्यापिनी  : वि० [सं० त्रिसंध्य-वि√आप् (व्याप्ति)+णिनि-ङीप्] तिथि, जिसका भोगकाल सूर्योदय से सूर्यास्त के बाद तक रहे।
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त्रिसप्तति-तम  : वि० [सं० त्रिसप्तति+तमप्] तिहत्तरवाँ।
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त्रिसुपर्णिक  : पुं० [सं० त्रिसुपर्ण+ठक्-इक] विसुपर्ण का ज्ञाता।
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त्रिसौपर्ण  : पुं० [सं० त्रिसुपर्ण+अण्] १. त्रिसुपर्णिक। २. परमेश्वर।
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त्रिस्थली  : स्त्री० [सं० द्विगु० स० ङीष्] ये तीन पवित्र नगरियाँ-काशी, और गया।
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त्रिस्थान  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. सिर, ग्रीवा और वक्ष इन तीनों का समूह। २. [ब० स०] तीन स्थानों या तीनों लोकों में रहनेवाला व्यक्ति या ईश्वर।
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त्रिस्पृशा  : स्त्री० [सं० त्रि√स्पृश् (छूना)+क–टाप्] वह एकादशी, जिससे एक हीसायन दिन में उदयकाल के समय थोड़ी-सी एकादशी और रातके अंत में त्रयोदशी होती है।
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त्रिस्रोता(तस्)  : स्त्री० [सं० ब० स०] १.गंगा। २.उत्तरी बंगाल की एक नदी।
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त्रिहुँ  : वि० १.=तीन। २.=तीनों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रिहुत  : पुं०=तिरहुत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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त्री  : स्त्री०=स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रीकम  : पुं० [सं० त्रिविक्रम] भगवान का वामन अवतार (तीन कदम चलने के कारण उनका यह नाम पड़ा है) उदाहरण–तिणि ही पार न पायौ त्रीकम ।–प्रीथिराज।
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त्रीषु  : पुं० [सं० त्रि-इषु, ब० स०+कन् (लुक्)] तीन बाणों की दूरी का स्थान।
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त्रीषुक  : पुं० [सं० त्रि-इषु, ब० स०+कप्] वह धनुष जिससे एक साथ तीन बाण छोड़े जा सकें।
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त्रीष्टक्  : पुं० [सं० त्रि-इष्टका, ब० स०] एक प्रकार की अग्नि।
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त्रुटि  : स्त्री० [सं०√त्रुट् (टूटना)+इन्] १. तोड़ने-फोड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. ऐसा अभाव जिसके फलस्वरूप कोई कार्य, बात या वस्तु ठीक पूर्ण या शुद्ध न मानी जा सकती हो। कमी। (डिफेक्ट) ३. भूल। ४. प्रतिज्ञा या वचन का भंग। ५. संदेह। संशय। ६. कार्तिकेय की एक मातृका। ७. छोटी इलायची। ८. समय का एक मान जो आधे लव के बराबर माना गया है।
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त्रुटि-बीज  : पुं० [सं० ब० स०] अरवी। घुइयाँ।
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त्रुटित  : वि० [सं०√त्रुट्+क्त] १. जिसमें कोई त्रुटि (अभाव या कभी) हो। २. त्रुटि-पूर्ण। ३. चोट खाया हुआ। ४. आहत।
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त्रुटी  : स्त्री० [सं० त्रुटि+ङीष्] =त्रुटि।
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त्रूटना  : अ० [सं० त्रुट्] टूटना। उदाहरण–त्रूटै कंध मूल जड़ त्रूटै।–प्रिथीराज।
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त्रेता  : पुं० [सं० त्रि-इता, पृषो० सिद्धि] १. तीन चीजों का समूह। २. गार्हपत्य दक्षिण और आहवनीय ये तीन अग्नियाँ। ३. हिंदुओं के अनुसार चार युगों में से दूसरा युग जिसका भोग-काल १२९६॰॰ वर्षों का था जिसमें भगवान राम का अवतार हुआ था। ४.जूए में तीन कौडियों का अथवा पासे के उस भाग का चित्त पड़ना जिसपर तीन बिंदियां हों। तीया।
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त्रेताग्नि  : स्त्री० [सं०त्रेता-अग्नि,कर्म०स०] दक्षिण गार्हपत्य और आहवनीय। ये तीन अग्नियाँ।
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त्रेतिनी  : स्त्री० [सं०त्रेता+इनि-ङीष्] दक्षिण,गार्हपत्य और आहवनीय तीनों प्रकार की अग्नियों से होनेवाली क्रिया।
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त्रेधा  : अव्य० [सं० त्रि+एधाच्] तीन प्रकारों या रूपों में।
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त्रै  : वि० [सं० त्रय] तीन।
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त्रैककुद्  : पुं० [सं० त्रिककुद्+अण्] १. त्रिकूट पर्वत। २. विष्णु।
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त्रैककुभ  : पुं० [सं० त्रिककुभ+अण्]=त्रिककुभ।
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त्रैकंटक  : वि० [सं० त्रिकंटक+अण्] जिसमें तीन काँटे हों। पुं०=त्रिकंटक।
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त्रैकाणिक  : वि० [सं० त्रिकोण+ठञ्-इक] १. जिसमें तीन कोण हों। २. जिसके तीन पार्श्व हों। तिपहला।
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त्रैकालज्ञ  : पुं० [सं० त्रिकालज्ञ+अण्]=त्रिकालज्ञ।
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त्रैकालिक  : वि० [सं० त्रिकाल+ठञ्-इक] १. भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों लोकों में अर्थात् सदा रहनेवाला। २. प्रातः मध्याह्र और संध्या तीनों कालों में होनेवाला।
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त्रैकाल्य  : पुं० [सं० त्रिकाल+ष्यञ्] १. भूत, वर्तमान और भविष्यत् ये तीनों काल। २. प्रातःकाल मध्याह्न और सायंकाल। ३. जीवन की आरंभिक मध्यम और अंतिम ये तीनों स्थितियाँ। बचपन, जवानी और बुढापा।
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त्रैकूटक  : पुं० [सं० त्रिकूटक (त्रिकूट+कन्)+अण्] एक प्राचीन राजवंश।
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त्रैगर्त  : पुं० [सं० त्रिगर्त+अण्] १. त्रिगर्त्त देश का राजा। २. त्रिगर्त्त देश का निवासी।
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त्रैगुणिक  : भू० कृ० [सं० त्रिगुण+ठक्-इक] १. तिगुना किया हुआ। २. तीन बार किया हुआ।
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त्रैगुण्य  : पुं० [सं० त्रिगुण+ष्यञ्] सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का भाव या समूह।
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त्रैदशिक  : पुं० [सं० त्रिदशा+ठञ्-इक] उंगली का अगला भाग जो तीर्थ कहलाता है।
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त्रैध  : वि० [सं० त्रि+धमुञ्] १. तिगुना। २. तेहरा। अव्य तीन प्रकार से।
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त्रैधातवी  : स्त्री० [सं० त्रिधातु+अण्-ङीष्] एक प्रकार का यज्ञ।
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त्रैपष्टिप  : वि० पुं० [सं० त्रिपिष्टप+अण्] दे० ‘त्रैविष्टप’।
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त्रैपुर  : पुं० [सं० त्रिपुर+अण्]=त्रिपुर।
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त्रैफल  : पुं० [सं० त्रिफला+अण्] वैद्यक में त्रिफला के योग से तैयार किया हुआ घी।
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त्रैबलि  : पुं० [सं०] महाभारत के समय के एक ऋषि।
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त्रैमातुर  : पुं० [सं० त्रिमातृ+अण्, उत्व] लक्ष्मण।
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त्रैमासिक  : वि० [सं० त्रिमास+ठञ्-इक] हर तीसरे महीने होनेवाला जैसे–त्रैमासिक पत्रिका।
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त्रैमास्य  : पुं० [सं० त्रिमास+ष्यञ्] तीन महीनों का समय।
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त्रैयंबक  : वि० [सं० त्र्यम्बकं+अण्] त्र्यंबक-संबंधी। त्र्यंबक का। पुं० एक प्रकार का होम।
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त्रैयंबिका  : स्त्री० [सं० त्रैयम्बक+टाप्, इत्व] गायत्री।
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त्रैराशिक  : पुं० [सं० त्रिराशि+ठञ्-इक] गणित की एक क्रिया, जिसमें तीन राशियों की सहायता से चौथी अज्ञात राशि का मान निकाला जाता है। (रूल आँफ थ्री)
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त्रैरूप्य  : पुं० [सं० त्रिरूप+ष्यञ्] तीन रूपों का भाव।
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त्रैलोक  : पुं० [सं० त्रिलोक+अण्]=त्रैलोक्य।
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त्रैलोक्य  : पुं० [सं० त्रिलोकी+ष्यञ्] १. स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोक। २. इक्कीस मात्राओं के छंदो की संज्ञा।
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त्रैलोक्य-चिंतामणि  : पुं० [सं० स० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस, जो (क) सोने, चाँदी और अभ्रक के योग से अथवा (ख) मोती, सोने और हीरे के योग से बनता है।
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त्रैलोक्य-विजया  : स्त्री० [सं० ब० स०] भाँग।
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त्रैलोक्य-सुंदर  : पुं० [सं० ब० स०] पारे, अभ्रक, लोहे, त्रिफला आदि के योग से बननेवाला एक तरह का रस। (वैद्यक)
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त्रैलोक्य-सुंदरी  : स्त्री० [सं० स० त०] दुर्गा या देवी का एक रूप।
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त्रैवर्गिक  : पुं० [सं० त्रिवर्ग+ठञ्-इक] वह कर्म, जिससे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की साधना हो। वि० १. त्रिवर्ग संबंधी। तीन वर्गों का। २. तीन वर्गों में होनेवाला।
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त्रैवर्ग्य  : पुं० [सं० त्रिवर्ग+ष्यञ्] धर्म, अर्थ, काम ये तीन वर्ग या जीवन के उद्देश्य अथवा साधन।
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त्रैवर्णिक  : वि० [त्रिवर्ण+ठञ्-इक] जिसका संबंध तीन वर्णों से हो। तीन वर्णोवाला। पुं० ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों जातियों का धर्म।
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त्रैवर्षिक  : पुं० [सं० त्रिवर्ष+ठञ्-इक] हर तीसरे वर्ष होनेवाला। (ट्रीनियल)।
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त्रैविक्रम  : पुं० [सं० त्रिविक्रम+अण्] विष्णु।
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त्रैविद्य  : वि० [सं० त्रिविद्या+अण्] तीन वेदों का ज्ञाता। २. बहुत बड़ा चालाक। चलता-पुरजा। (व्यंग्य)
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त्रैविष्टप  : पुं० [सं० त्रिविष्टप+अण्] स्वर्ग में रहनेवाले अर्थात् देवता।
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त्रैशंकव  : पुं० [सं० त्रिशंकु+अण्] त्रिशक्कू के पुत्र राजा हरिशचन्द्र।
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त्रैस्वर्य  : पुं० [सं० त्रिस्वर+ष्यञ्] उदात्त, अनुदात्त और स्वरित तीनों प्रकार के स्वर।
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त्रैहायण  : वि० [सं० त्रिहायण+अण्]=त्रैवर्षिक।
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त्रोटक  : पुं० [सं०√त्रुट् (टूटना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. नाटक का एक भेद, जिसका नायक कोई दिव्य पुरुष होता है। तथा जिसमें ५, ७, ८ या ९ अंक होते हैं और प्रत्येक अंक में विदूषक रहता है। २. संगीत में एक प्रकार का राग।
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त्रोटकी  : स्त्री० [सं० त्रोटक+ङीप्] एक प्रकार की रागिनी (संगीत)।
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त्रोटि  : स्त्री० [सं०√त्रुट् (छेदन)+णिच्+इ] १. कायफल। २. चोंच। पुं० एक पक्षी।
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त्रोण  : पुं० [सं०] तरकश।
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त्रोतल  : वि० [सं०] तोतला।
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त्रोत्र  : पुं० [सं०√त्रै (रक्षा करना)+उत्र] १. अस्त्र। २. चाबुक। ३. एक रोग।
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त्रोन  : पुं०=त्रोण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्र्यक्ष  : वि० [सं० त्रि-अक्षि, ब० स० षछ्० समा०] तीन आँखोंवाला। जिसके तीन नेत्र हों। पुं० १. महादेव। शिव। २. पुराणानुसार एक दैत्य जिसकी तीन आँखें थीं।
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त्र्यक्षक  : पुं० [सं० त्रयक्ष+क(स्वार्थ)] शिव।
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त्र्यक्षर  : वि० [सं० त्रि-अक्षर, ब० स०] त्र्यंक्षरक। (दे०)
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त्र्यंक्षरक  : वि० [सं० त्र्यंक्षर+कन्] जो तीन अक्षरों से मिलकर बना हो। पुं० १. ओंकार या प्रणव २. एक प्रकार का वैदिक छंद। ३. तंत्र मे तीन अक्षरोंवाला मंत्र।
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त्र्यक्षी  : स्त्री० [सं० त्र्यक्ष+ङीष्] एक राक्षसी का नाम।
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त्र्यंगर  : पुं० [सं०] १. ईश्वर २. चंद्रमा। ३. छीका। सिकहर।
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त्र्यंगुल  : वि० [सं० त्रि-अंगुलि, तद्धितार्थ, द्विगु स०+द्वयसच् (लुक्)+अच्] जो नाप में तीन उँगलियों की चौड़ाई के बराबर हो।
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त्र्यंजन  : पुं० [सं० त्रि-अंजन, द्विगु० स०] कालांजन और पुष्पांजन ये तीनों अंजन।–काला सुरमा, रसोत और वे फूल जो अंजनो में मिलाये जाते है। जैसे–चमेली, तिल, नीम, लौंग अगस्त्य आदि।
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त्र्यधिपति  : पुं० [सं० त्रि-अधिपति, ष० त०] तीनों लोकों के स्वामी विष्णु।
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त्र्यध्वगा  : स्त्री० [सं० त्रि-अध्वन्, द्विगु, स, त्र्यंध्व√गम् (जाना)+ड-टाप्]=त्रिपथगा (गंगा)
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त्र्यंबक  : पुं० [सं० त्रि-अम्बक, ब० स०] १. महादेव। शिव। २. ग्यारह रुद्रों में से एक रुद्र का नाम। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धित का एक राग। वि० तीन आँखों या नेत्रोंवाला।
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त्र्यंबक-सख  : पुं० [सं० ष० त० टच्० समा०] कुबेर।
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त्र्यंबका  : स्त्री० [सं० त्र्यंम्बक+टाप्] दुर्गा, जिसके सोम, सूर्य और अनल ये तीनों नेत्र माने जाते हैं।
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त्र्यमृतयोग  : पुं० [सं० अमृत-योग, उपमि० स० त्रि-अमृतयोग, ष० त०] एक योग, जो कुछ विशिष्ट वारों, तिथियों और नक्षत्रों के योग्य से होता है। (ज्योतिष)
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त्र्यवरा  : स्त्री० [सं० त्रि-अवर, ब० स० टाप्] तीन सदस्योंवाली परिषद्।
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त्र्यशीति  : स्त्री० [सं० त्रिं-अशीति, मध्य० स०] अस्सी और तीन की संख्या, तिरासी।
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त्र्यस्त  : पुं० [सं० त्रि-अस्त, स० त०] त्रिकोण।
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त्र्यंहस्पर्श  : पुं० [सं० त्रि-जहन्, द्विगु, स० त्र्यह√स्पृश् (छूना)+अण्] वह सावन दिन, जो तीन तिथियाँ स्वर्श करता हो। स्त्री० [सं० त्र्यह√स्पृश्+क्विन्] वह तिथि, जो तीन सावन दिनों को स्पर्श करती हो। ऐसी तिथि, विवाह, यात्रा आदि के लिए निषिद्ध मानी जाती है।
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त्र्यहिकारि रस  : पुं० [सं०] पारा, गंधक, तूतिया और शंख आदि के योग से बनाया जानेवाला रस। (वैद्यक)
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त्र्यहीन  : पुं० [सं० त्र्यह+ख-ईन] तीन दिनों में होनेवाला एक यज्ञ।
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त्र्यहैहिक  : वि० [सं० त्रि-ऐहिक, ब० स०] जिसके पास तीन दिन तक के निर्वाह के लिए यथेष्ट सामग्री हो।
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त्र्यार्षेय  : पुं० [सं० त्रि-आर्षेय, ब० स०] १. वह गोत्र, जिसके तीन प्रवर हों। त्रिप्रवर गोत्र। २. अंधे, गूंगे और बहरे लोग, जिन्हें यज्ञों में नहीं जाने किया जाता था।
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त्र्याहण  : पुं० [सं० त्रि-आ√हन्(मारना)+अच्] १२. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का पक्षी।
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त्र्याहिक  : वि० [सं० त्र्यह+ठञ्-इक] तीन दिनों में होनेवाला। पुं० हर तीसरे दिन आनेवाला ज्वर। तिजारी।
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त्र्यूषण  : पुं० [सं० त्रि-उषण, द्विगु स० पृषो० दीर्घ] १. सोंठ, पीपल और मिर्च इन तीनों का समूह या मिश्रण। २. वैद्यक में उक्त तीनों चीजों के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का धृत।
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त्वक-सार  : पुं० [ब० स०] बाँस। २. दारचीनी। ३. सन का पेड़।
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त्वक-सुगंधा  : पुं० [ब० स० टाप्] १. एलुआ। २. छोटी इलायची।
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त्वकष्पुष्पिका  : स्त्री० [सं० त्वक्पुष्पी+क (स्वार्थ)-टाप्, ह्रस्व]=त्वक्पुष्प।
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त्वक्-क्षीरा  : स्त्री० [ब० स० टाप्]=त्वक्क्षीरी।
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त्वक्-क्षीरी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] बंसलोचन।
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त्वक्-छद  : पुं० [ब० स०] क्षीरीश का वृक्ष। क्षीरकंचुकी।
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त्वक्-पंचम  : पुं० [ष० त०] वट, गूलर, अश्वत्थ, सिरिस और पाकर ये पाँचों वृक्ष।
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त्वक्-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. तेजपत्ता। तेजपात। २. दारचीनी।
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त्वक्-पाक  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें पित्त और रक्त के कुपित होने से शरीर में फुंसियां निकल आती है। (सुश्रुत)
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त्वक्-पुष्प  : पुं० [ष० त०] एक रोग जिसमें त्वचा पर सफेद रंग की चितियाँ निकलने या पड़ने लगती है। सेहुआँ रोग। २. शरीर के रोएँ खड़े होने की अवस्था। रोमांच।
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त्वक्-पुष्पी  : स्त्री० [सं० त्वकपुष्प+ङीष्]=त्वक्पुष्प।
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त्वक्-सारा  : स्त्री० [सं० त्वक्सार+अच्-टाप्] बंसलोचन।
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त्वक्(च्)  : पुं० [सं०√त्वच् (ढकना)+क्विप्] १. वृक्ष का छाल। २. फलों आदि का छिलका ३. शरीर पर की खाल। चमड़ा। त्वचा। ४. पाँच ज्ञानेंद्रियों में से एक जो सारे शरीर के ऊपरी भाग में व्याप्त है। इसके द्वारा स्पर्श होता है। ५. दारचीनी।
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त्वक्पत्री  : स्त्री० [सं० त्वक्पत्र+ङीष्] १. हिंगुपत्री। २. केले का पेड़।
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त्वगंकुर  : पुं० [सं० त्वच्-अंकुर, ष० त०] रोमांच।
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त्वगाक्षीरी  : स्त्री० [सं० त्वकक्षीरी, पृषो० सिद्धि] बंसलोचन।
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त्वगिंद्रिय  : स्त्री० [सं० त्वच्-इंद्रि०, कर्म० स०] स्पर्शेंद्रिय।
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त्वग्गंध  : पुं० [सं० त्वच्-गंध, ब० स०] नारंगी का पेड़।
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त्वग्जल  : पुं० [सं० त्वच्-जल, ष० त०] पसीना।
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त्वग्दोष  : पुं० [सं० त्वच्, दोष, ब० स०] कुष्ट। कोढ़।
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त्वग्दोषापहा  : स्त्री० [सं० त्वग्दोष-अप√अप् (नष्ट करना)+ड-टाप्] बकुची। बाबची।
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त्वग्दोषारि  : पुं० [सं० त्वग्दोष-अरि, ष० त०] हस्तिकंद।
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त्वग्दोषी(षिन्)  : पुं० [सं० त्वग्दोष+इनि] कोढ़ी। वि० जिसे कुष्ट या कोढ़ नाम रोग हो।
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त्वच  : पुं० [सं० त्वच्+अच्] १. दारचीनी। २. तेजपत्ता। ३. त्वचा। चमड़ा।
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त्वचकना  : अ० [सं० त्वचा] १. वृद्धावस्था के कारण शरीर का चमड़ा। झूलना। २. भीतर की ओर धंसना। ३. पुराना पड़ना।
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त्वचा  : स्त्री० [सं० त्वच्+टाप्] १. जीव की काया का ऊपरी और प्रायः रोओं से युक्त कोमल आवरण। चमड़ा। छाल।
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त्वचा-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] किसी विषय को केवल ऊपरी या बाहरी बातों का स्थूल ज्ञान।
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त्वचा-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. तेजपत्ता। २. दारचीनी।
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त्वचि-सार  : पुं० [सं० ब० स० अलुक् समा] बाँस।
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त्वचि-सुगंधा  : स्त्री० [सं० ब० स० अलुक समा०] छोटी इलायची।
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त्वदीय  : सर्व० [सं० युष्मद+छ-ईय, त्वद् आदेश] तुम्हारा।
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त्वन्मय  : वि० [सं० त्वच्+मयट्] त्वचा से युक्त।
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त्वम्  : सर्व० [सं०] तुम। पुं० जीव।
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त्वरण  : पुं० [सं०√त्वर् (वेग)+ल्युट-अन] [वि० त्वरणीय] १. शीघ्रतापूर्वक कोई काम होने की अवस्था, गुण या बाव। २. अधिक वेग के किसी यंत्र के चलने का भाव। (एक्सलेरेशन)
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त्वरा  : स्त्री० [सं०√त्वर्+अङ्-टाप्] १. शीध्रता। जल्दी। २. वेग तेजी।
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त्वरारोह  : पुं० [सं० त्वरा-आरोह, ब० स०] कबूतर।
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त्वरावान्(वत्)  : वि० [सं० त्वरा+मतुप्] १. शीघ्रता करनेवाला। २. वेगपूर्वक चलनेवाला। ३. जल्दबाज।
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त्वरि  : स्त्री० [सं०√त्वर् (शीघ्रताकरना)+इन्]=त्वरा।
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त्वरित  : वि० [सं०√त्वर्+क्त] तेजी से या वेगपूर्वक चलता हुआ। क्रि० वि० जल्दी या तेजी से।
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त्वरित-गति  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, जगण, नगण, और एक गुरु होता है। इसे अमृतगति भी कहते हैं।
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त्वरितक  : पुं० [सं० त्वरित√कै (प्रकाशित होना)+क] एक प्रकार का चावल। तूर्णक। (सुश्रुत)
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त्वलग  : पुं० [सं० पृषो० सिद्धि] पानी में रहनेवाला साँप। डेड़हा।
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त्वष्टा(ष्ट्र)  : पुं० [सं०√त्वक्ष् (छीलना, पतला करना)+तृच्] १. बढ़ई। विश्वकर्मा। ३. प्रजापति। ४. ग्यारहवें आदित्य जो आँखों के अधिष्ठाता देव माने गये हैं। ५. वृत्रासुर के पिता का नाम। ६. शिव। ७. पशुओं और मनुष्यों के गर्भ में वीर्य का विभाग करनेवाले एक वैदिक देवता। ८. सूत्रधार नामक प्राचीन जाति। ९. चित्रा नक्षत्र के अधिष्ठाता देवता।
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त्वष्टि  : पुं० [सं०√त्वक्ष+क्तिन्] एक संकर जाति (मनु)
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त्वाच  : वि० [सं० त्वच्+अण्] त्वचा संबंधी। त्वचा का।
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त्वाज  : पुं० [सं० त्वच्√जन् (उत्पन्न होना)+ड०] १. रोआँ। रोम। २. रक्त। खून।
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त्वाँरता  : स्त्री० [सं० त्वरित+टाप्] एक देवी जिसकी पूजा युद्ध में जल्दी विजय पाने के लिए की जाती है। (तंत्र)।
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त्वाष्टी  : स्त्री० [सं० तुष्टि, नि० सिद्धि] दुर्गा।
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त्वाष्ट्र  : पुं० [सं० त्वष्ट्र+अंण्] १. वज्र नामक अस्त्र, जो विश्वकर्मा ने बनाया था। २. चित्रा नक्षत्र। ३. वृत्तासुर का नाम
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त्वाष्ट्री  : स्त्री० [सं० त्वाष्ट्र+ङीप्] १. विश्वकर्मा की पुत्री, जो सूर्य की पत्नी तथा अश्विनी कुमार की माता थी। २. चित्रा नक्षत्र।
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त्विषा  : स्त्री० [सं० त्विष्+टाप्] चमक। दीप्ति। प्रभा।
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त्विषामीश  : पुं० [सं० ष० त० अलुक् समा०] १. सूर्य। २. आक का पेड़।
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त्विषि  : स्त्री० [सं०√त्विष् (दीप्ति)+इन्] किरण।
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त्वेष  : वि० [सं०√त्विष्+अच्] १. दीप्ति। २. प्रकाशित।
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त्सरु  : पुं० [सं०√त्सर(टेढ़ी चाल)+उन्] १. तलवार की मूठ। २. सर्प। साँप।
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त्सारुक  : पुं० [सं० त्सरु+कन्+अण् (स्वार्थ)] तलवार चलाने में निपुण व्यक्ति।
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