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शब्द का अर्थ

ती  : स्त्री० [सं० स्त्री] १. स्त्री। औरत। उदाहरण–(क) तीरथ चलत मन ती रथ चलत है।–सेनापति। (ख) औ तैसे यह लच्छन ती के।–रत्नाकर। २. जोरू। पत्नी। ३. नलिनी या मनोहरण छन्द का एक नाम।
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तीअन  : स्त्री० [सं० तृणान्न] शाक। भाजी। तरकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीकरा  : पुं० [देश०] अँखुआ। अंकुर।
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तीकुर  : पुं० [हिं० तीन+कूरा=अंश] १. दे० तिहैया। २. किसी चीज का बहुत चोटा टुकड़ा। पुं० तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीक्षण  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीक्षन  : वि०=तीक्ष्ण।
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तीक्ष्ण  : वि० [सं०√तिज्(तीखा करना)+वस्न, दीर्घ] १. (पदार्थ) जिसका स्वाद चरपरा, झालदार या हलकी चुनचुनी उत्पन्न करनेवाला हो। तीखे स्वादवाला। जैसे–प्याज, लहसुन आदि। २. (शस्त्र) जिसकी धार बहुत चोखी या तेज अथवा नोक बहुत पैनी हो। जैसे–तलवार, बरछी आदि। ३. जिसकी गति या वेग बहुत अधिक हो। प्रचंड। जैसे–तीक्ष्ण वायु। ४. जिसका परिणाम या प्रभाव बहुत उग्र या तीव्र हो। जैसे–तीक्ष्ण स्वभाव। ५. जो किसी बात में औरों से बहुत चढ़-चढ़कर हो या अधिक गहराई तक पहुँच सके। जैसे–तीक्ष्ण बुद्धि। ६. (कथन) जो अप्रिय और कटु हो। जैसे–तीक्ष्ण वचन। ७. आत्मत्यागी। ८. जो कभी आलस्य न करता हो। निरालस्य। ९. जिसे सहना कठिन हो। जैसे–तीक्ष्ण ताप या शीत। पुं० [सं०] १. उत्ताप। गरमी। २. जहर। विष। ३. वत्सनाभ। बछनाग। ४. मृत्यु। मौत। ५. युद्ध। लड़ाई। ६. महामारी। मरी। ७. चव्य। चाब। ८. मुष्यक। मोखा। ९. जवाखार। १॰.सफेद कुश। ११.समुद्री नमक। करकच। १२. कुदरू गोंद। १३. इस्पात। १४. शास्त्र। १५. योगी। १६. ज्योतिष में मूल आर्द्रा, ज्येष्ठा और अश्लेषा नक्षत्र। १७. पूर्वा और उत्तरा भाद्रपदा, ज्येष्ठा, अश्विनी और रेवती नक्षत्रों में बुध की गति।
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तीक्ष्ण-कंटक  : पुं० [ब० स०] १. धतूरे का पेड़। २. बबूल का पेड़। ३. करील का पेड़। ४. इंगुदी या हिंगोट का पेड़।
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तीक्ष्ण-कंटक  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णकंटक+टाप्] एक प्रकार का वृक्ष जिसे कंकारी कहते हैं। तीक्ष्ण-कंद
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तीक्ष्ण-कल्क  : पुं० [ब० स०] तुंबरू का पेड़।
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तीक्ष्ण-कांता  : स्त्री० [कर्म० स०] पुराणानुसार तारा देवी का एक नाम।
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तीक्ष्ण-क्षीरी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] बंसलोचन।
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तीक्ष्ण-गंध  : पुं० [ब० स०] १. शोभांजन। सहिंजन। २. लाल तुलसी। ३. सफेद तुलसी। ४. छोटी उलायची। ५. लोबान।
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तीक्ष्ण-गंधक  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+गंध+कन्] सहिंजन।
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तीक्ष्ण-तंडुला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] तीक्ष्ण होने की अवस्था या भाव।
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तीक्ष्ण-ताप  : पुं० [ब० स०] महादेव। शिव।
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तीक्ष्ण-तेल  : पुं०=तीक्ष्ण-तैल।
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तीक्ष्ण-तैल  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+तैलच्] १. सरसों का तेल। २. सेहुड़ का दूध। ३. मद्य। शराब। ४. राल।
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तीक्ष्ण-दंत  : वि० [ब० स०] जिसके दांत बहुत तेज या नुकीली हों।
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तीक्ष्ण-दंष्ट्र  : वि० [ब० स०] तीखे या तेज दाँतोवाला। पुं०-बाघ (हिंसक जंतु)।
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तीक्ष्ण-दृष्टि  : वि० [ब० स०] जिसकी दृष्टि तीक्ष्ण हो। सूक्ष्म दृष्टिवाला। (व्यक्ति)।
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तीक्ष्ण-धार  : वि० [ब० स०] जिसकी धार बहुत तेज हो। पुं० खड्ग, तलवार आदि शास्त्र।
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तीक्ष्ण-पत्र  : वि० [ब० स०] जिसके पत्तों के पार्श्व तेज धारवाले हों। पुं० एक प्रकार का गन्ना। २. धनिया।
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तीक्ष्ण-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] लबंग। लौंग।
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तीक्ष्ण-पुष्पा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णपुष्प+टाप्] केतकी।
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तीक्ष्ण-प्रिय  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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तीक्ष्ण-फल  : पुं० [ब० स०] तुबुरू। धनिया।
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तीक्ष्ण-फला  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णफल+टाप्] राई।
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तीक्ष्ण-बुद्धि  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसकी बुद्धि प्रखर हो।
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तीक्ष्ण-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] पान का पौधा।
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तीक्ष्ण-मूल  : वि० [ब० स०] जिसकी जड़ में से उग्र या तेज गंध आती हो। पुं० १. कुलंजन। २. सहिंजन।
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तीक्ष्ण-रश्मि  : वि० [ब० स०] जिसकी किरणें बहुत तेज हों पुं० सूर्य।
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तीक्ष्ण-रस  : पुं० [ब० स०] १. जवाखार। यवक्षार। २. शोरा।
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तीक्ष्ण-लौह  : पुं० [कर्म० स०] इस्पात।
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तीक्ष्ण-शूक  : पुं० [ब० स०] यव। जौ।
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तीक्ष्ण-सारा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] शीशम् का पेड़।
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तीक्ष्णक  : पुं० [सं० तीक्ष्ण+कन्] १. मोखा वृक्ष। २. सफेद सरसों।
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तीक्ष्णगंधा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्णगंध+टाप्] १. राई। २. छोटी इलायची। ३. सफेद बच। ४. जीवंती। ५. कंथारी का वृक्ष।
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तीक्ष्णा  : स्त्री० [सं० तीक्ष्ण+टाप्] १. बच। २. केवांच। कौंछ। ३. बड़ी माल-कंगनी। ४. मिर्च। ५. सर्पकाली नामक पौधा। ६. अत्यम्लपर्णी नाम की लता। ७. जोंक। ८. तारा देवी के एक नाम।
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तीक्ष्णाग्नि  : स्त्री० [तीक्ष्ण-अग्नि, कर्म० स०] १. प्रबल जठराग्नि। २. अजीर्ण या अपच नाम का रोग।
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तीक्ष्णाग्र  : वि० [तीक्ष्ण-अग्र, ब० स०] १. प्रबल जठराग्नि। २. अजीर्ण या अपच नाम का रोग।
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तीक्ष्णायस  : वि० [तीक्ष्ण-आयस, कर्म० स०] इस्पात। लोहा।
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तीक्ष्णांशु  : पुं० [तीक्ष्ण-अंशु, ब० स०] सूर्य।
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तीख  : वि०=तीखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखन  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखर  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखल  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीखा  : वि० [सं० तीक्ष्ण] [स्त्री० तीखी] [भाव० तीखापन] १. (शस्त्र) जिसकी धार या नोक बहुत तेज या पैनी हो। चोखा। जैसे–तीखी छुरी। २. (व्यक्ति या उसका व्यवहार) जिसमें किसी प्रकार की उग्रता, तीव्रता या प्रखरता हो। कोमलता, मृदुता, सरलता आदि से रहित। जैसे–तीखी नजर, तीखा स्वभाव। ३. (पदार्थ) जिसका स्वाद उग्र, चरपरा या तेज हो। जैसे–तरकारी में पड़ा हुआ तीखा मसाला। ४. (कथन या बात) जिसमें अप्रियता या कटुता हो। जैसे–मैं किसी की तीखी बातें नहीं सुनना चाहता। ५. किसी की तुलना मे अच्छा या बढ़कर। चोखा। जैसे–यह घी (या तेल) उससे तीखा पड़ता है। ६. (दृष्टि) तिरछा। तिर्यक। जैसे–सुंदरी का किसी को तीखी नजर से देखना। पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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तीखापन  : पुं० [हिं० तीखा+पन(प्रत्यय)] तीखे होने की अवस्था या भाव।
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तीखी  : स्त्री० [हिं० तीखा] एक उपकरण जिससे रेशम फेरा या बटा जाता है।
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तीखुर  : पुं० [सं० तवक्षीर] हल्दी की जाति का एक पौधा जिसकी जड़ का सार सफेद चूर्ण के रूप में होता है और खीर, हलुआ आदि बनाने के काम आता है। अब एक प्रकार का तीखुर विदेशों से भी आता है जिसे आरारूट (देखें) कहते हैं।
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तीखुल  : पुं०=तीखुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीछन  : वि०=तीक्ष्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीछा  : वि०=तीखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीज  : स्त्री० [सं० तृतीया] १. प्रत्येक पक्ष की तीसरी तिथि। तृतीया। २. भादों सुदी तीज जिस दिन सुहागिन स्त्रियाँ निंजल व्रत रखती है। ३. हरितालिका।
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तीजा  : वि० [हिं० तीज] तीसरा। पुं० किसी के मरने के बाद का तीसरा दिन। इस दिन मृतक के संबंधी गरीबों को भोजन बाँटते हैं। (मुसलमान)।
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तीत  : वि०=तीखा (तिक्त)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतर  : पुं० [सं० तित्तिर] मुरगी की जाति का एक पक्षी जिसका मांस खाया जाता है। काले रंग का तीतर काला और चित्रित रंग का तीतर गौर कहलाता है। कहा०–आधा तीतर और आधा बटेर–ऐसी वस्तु जिसके दो विभिन्न अंगों या अंशों का अनुपात या सौंदर्य एक-सा न हो। विशेष–वैद्यक में तीतर का मांस खाँसी, ज्वर आदि का नाशक माना गया है।
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तीता  : वि० [सं० तिक्त] १. जिसका स्वाद तीखा और चरपरा हो। तिक्त। जैसे–मिर्च। २. कड़ुआ। कटु। वि० [?] भींगा हुआ। आर्द्र। तर। पुं० १. तोजी-बोयी जानेवाली जमीन की तरी या नमी। २. ऊसर भूमि। ३. ढेंकी और रहट का अगला भाग। ४. ममीरे का पौधा।
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तीतुर  : पुं०=तीतर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतुरी  : स्त्री०=तितली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीतुल  : पुं०=तीतर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीन  : वि० [सं० त्रीणि] जो गिनती में दो से एक अधिक हो। पुं० १. दो और एक के योग की संख्या। २. उक्त संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है–३ मुहावरा–तीन पाँच करना-घुमाव-फिराव बहानेबाजी या हुज्जत की बात करना। ३. सरयूपारी ब्राह्माणों में गर्ग, गौतम और शांडिल्य इन तीन विशिष्ट गोत्रों का एक वर्ग। मुहावरा–तीन तेरह करना-(क) अनेक प्रकार के वर्ग या विभेद उत्पन्न करना। (ख) इधर-उधर छितराना या बेखेरना। तितर-बितर करना। कहा०–न तीन में न तेरह में–जिसकी कहीं गिनती या पूछ न हो। स्त्री०=तिन्नी (धान्य।)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीन काने  : पुं० [हिं०] चौपड़ के खेल में यह दाँव जो तीनों पासों पर एक ही एक बिंदी ऊपर रहने पर माना जाता है। (खेल का सबसे छोटा दाँव)।
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तीनपान  : पुं० [देश०] एक तरह का बहुत मोटा रस्सा। (लश०)।
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तीनपाम  : पुं०=तीनपान।
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तीनलड़ी  : स्त्री० [हिं० तीन+लड़ी] तीन लड़ियोवाला गले में पहनने का हार।
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तीनि  : वि० पुं०=तीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीनी  : स्त्री० [हिं० तिन्नी] तिन्नी का चावल।
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तीपड़ा  : पुं० [देश०] रेशमी कपड़ा बुननेवालों का एक उपकरण जिसके नीचे-ऊपर वे दो लकड़ियाँ लगी रहती हैं जिन्हें बेसर कहते हैं।
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तीमन  : पुं० [?] बनी हुई तरकारी या उसका रसा। (पूरब)।
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तीमारदारी  : स्त्री० [फा०] १. टहल। सेवा-सुश्रुषा। २. रक्षा।
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तीय  : स्त्री० [सं०स्त्री०] १. स्त्री। औरत। नारी। २. पत्नी। जोरू।
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तीर  : पुं० [सं०√तीर्(पार जाना)+अच्] १. नदी का किनारा। तट। मुहावरा–तीर पकड़ना या लगना-किनारे पर पहुँचना। २. किसी चीज का किनारा। ३. निकटता। सामीप्य। ४. सीसा नामक धातु। ५. रांगा। अव्य-निकट। पास। समीप। पुं० [फा०] १. धनुष से छोड़ा जानेवाला वाण। शर। क्रि० वि०–चलाना।–छोड़ना।–फेंकना।–लगाना। २. लाक्षणिक रूप में कौशल या चालाकी से भरी हुई तरकीब। चाल। मुहावरा–तीर चलाना या फेंकना-ऐसी तरकीब या युक्ति लगाना जिससे काम निकलने की बहुत कुछ संभावना हो। तीर लगना-युक्ति सफल होना। काम बनना। पुं० [?] जहाज का मस्तूल (लश०)।
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तीर-भुक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] गंगा, गंडकी और कौशिकी इन तीन नदियों से घिरा हुआ तिरहुत प्रदेश।
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तीरगर  : पुं० [फा०] तीर बनानेवाला कारीगर।
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तीरण  : पुं० [सं०√तीर् (पार जाना)+ल्युट-अन] करंज।
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तीरथ  : पुं०=तीर्थ।
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तीरंदाज  : पुं० [फा०] [भाव० तीरंदाजी] तीर से लक्ष्य-भेद करनेवाला व्यक्ति।
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तीरवर्त्ती(र्तिन्)  : वि० [सं० तीर√वृत् (रहना)+णिनि] १. तट पर रहनेवाला। २. तीर या तट पर स्थित होनेवाला।
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तीरस्थ  : पुं० [सं० तीर√स्था (स्थित होना)+क] नदी के तीर पर पहुँचाया हुआ मरणासन्न व्यक्ति।
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तीरा  : पुं० [?] गुलहजारा नामक फूल। पुं०=तीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीराट  : पुं० [सं० तीर√अट् (घूमना)+अच्] लोध।
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तीरु  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+क्रु (बा०)] १. सिव। महादेव। २. सिव की स्तुति।
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तीर्ण  : वि० [सं०√तृ (पार करना)+क्त] १. जो पार हो गया हो। उतीर्ण। २. जिसने सीमा का उल्लंघन किया हो। ३. भींगा हुआ। गीला। तर।
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तीर्ण  : स्त्री० [सं० तीर्ण+टाप्] एक प्रकार का छंद।
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तीर्णपदा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] तालमूल। मूसली।
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तीर्णपदी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्]=तीर्णपदा।
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तीर्थ  : पुं० [सं०√तृ (पार करना)+थक्] १. जलाशय आदि में उतरने अथवा नाव के यात्रियों के उतरने-चढ़ने के लिए बनी हुई सीढियाँ। घाट। २. मार्ग। रास्ता। ३. वह जिसके द्वारा या सहायता से कोई काम होता हो या हो सकता हो। कार्य सिद्ध करने का उपाय, युक्ति या साधन। ४. कोई ऐसा स्थान, विशेषतः जलाशय, नदी, समुद्र आदि के पास का स्थान जिसे लोग धार्मिक दृष्टि से पवित्र या मोक्षदायक समझते हों और श्रद्धापूर्वक दर्शन, पूजन आदि के लिए जाते हों। जैसे–काशी हिंदुओं का और मक्का मुसलमानों का बहुत बड़ा तीर्थ है। ५. कोई ऐसा स्थान जिसे लोग अन्य स्थानों से विशिष्ट महत्त्व का या कार्य सिद्धि में सहायक समझते हों। जैसे–आज-कल के राजनितिज्ञों का तीर्थ तो बस दिल्ली है। ६. कोई ऐसा महात्मा या महापुरुष जिसे लोग पूज्य और श्रद्धेय समझते हों। जैसे–गुरु पिता, माता आदि तीर्थ हैं। ७. धार्मिक गुरु या शिक्षक। उपाध्याय। ८. किसी चीज या बात का मूल कारण या स्रोत अथवा मुख्य साधन। ९. उपयुक्त अथवा योग्य परामर्श या सूचना। १॰. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त अवसर या स्थल। ११. धार्मिक ग्रंथ, विज्ञान या शास्त्र। १२. यज्ञ। १३. हथेली और उंगलियों के कुछ विशिष्ट स्थान जिनमें कुछ विशिष्ट देवी-देवताओं का अवस्थान माना जाता है। १४. ईश्वर अथवा उसका कोई अवतार। १५. किसी देवता या देवी का चरणामृत। १६. दर्शन शास्त्र की कोई शाखा या सिद्धांत। १७. ब्राह्मण। १८. अग्नि। आग। १९. पुण्य काल। २॰. अतिथि। मेहमान। २१. दशनामी संन्यासियों का एक भेद और उनकी उपाधि। २२. योनि। भग। २३. रजस्वला स्त्री का रज। २४. वैर-भाव छोड़कर किया जानेवाला सदव्यवहार या सदाचरण। २५. परामर्श देनेवाला व्यक्ति। मंत्री। २६. प्राचीन भारत में, वे विशिष्ट अठारह अधिकारी जो राष्ट्र की संपत्ति माने जाते थे। यथा-मंत्री पुरोहित, युवराज, भूपति, द्वारपाल, अंतर्वेशिक, कारागार का अध्यक्ष, द्र्व्य या धन एकत्र करनेवाला अधिकारी, कृत्याकृत्य अर्थ का विनियोजत प्रदेष्टा, नगराध्यक्ष, कार्यनिर्माण कारक, धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दंडपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रन्तपाल, और अटवीपाल। २७. रोग का निदान या पहचान। वि० १. तारने या पार उतारनेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला।
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तीर्थ-काक  : पुं० [स० त०] वह जो तीर्थ में रह कर धर्म के नाम पर लोगों से धन ऐंठता हो।
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तीर्थ-देव  : [ष० त० वा उपमि० स०] शिव। महादेव।
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तीर्थ-पति  : पुं० [ष० त]=तीर्थराज।
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तीर्थ-पाद्  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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तीर्थ-पुरोहित  : पुं० [स० त०] वह जो किसी विशिष्ट तीर्थ में रहकर आनेवाले यात्रियों का पौरोहित्य करता और उन्हें स्नान, दर्शन आदि कराता हो। पंडा।
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तीर्थ-राज  : पुं० [ष० त] प्रयाग।
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तीर्थ-व्यास  : पुं=तीर्थ-काक।
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तीर्थ-सेवी(विन्)  : पुं० [सं० तीर्थ√सेव्(सेवन करना)+णिनि] वह जो पुण्य,मोक्ष आदि प्राप्त करने के विचार से और धार्मिक भावनाओं से सदाचारपूर्वक किसी तीर्थ में जाकर रहने लगता हो।
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तीर्थक  : पुं० [सं० तीर्थ√कै (शब्द करना)+क] १. ब्राह्मण। २. तीर्थकार। ३. तीर्थों की यात्रा करनेवाला व्यक्ति।
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तीर्थंकर  : पुं० [सं० तीर्थ√क (करना)+ख] जैनियों के प्रमुख देवता। विशेष–कुल ४८ तीर्थकार माने गये हैं जिनमें से २४ गत उत्सर्पिणी में और २४ वर्त्तमान उत्सर्पिणी में हुए हैं।
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तीर्थकर  : पुं० [सं० तीर्थ√कृ+ट] १. विष्णु। २. जैनों के विशिष्ट महापुरुष जो संख्या में २४ हैं और जिन कहे जाते हैं।
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तीर्थकृत्  : पुं० [सं० तीर्थ√कृ (करना)+क्विप्] १. जैनियों के देवता। जिन। देव। २. शास्त्रकार।
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तीर्थन्राजि  : स्त्री० [ब० स०] काशी।
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तीर्थपादीय  : पुं० [सं० तीर्थपाद+छ-ईय] वैष्णव।
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तीर्थयात्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] तीर्थ-स्थानों के दर्शनार्थ की जानेवाली यात्रा।
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तीर्थसेनि  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।
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तीर्थाटन  : पुं० [सं० तीर्थ-अटन,मध्य०स०] तीर्थयात्रा।
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तीर्थिक  : पुं० [सं० तीर्थ+ठन्-इक] १. तीर्थ का ब्राह्मण। पंडा। २. तीर्थकर। ३. बौद्धों की दृष्टि में वह ब्राह्मण जो बौद्ध धर्म का द्वेषी हो।
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तीर्थिया  : पुं० [सं० तीर्थ+हिं० इया(प्रत्य)] जैनी जो तीर्थकरों के उपासक होते हैं।
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तीर्थोंदक  : पुं० [सं० तीर्थ-उदक, ष० त०] किसी तीर्थस्थल का जल जो पवित्रमाना जाता है।
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तीर्थ्य  : पुं० [सं० तीर्थ+यत्] १. एक रूद्र का नाम। २. सहपाठी।
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तीर्न  : वि० [सं० तीर्ण] १. उत्तीर्ण। २. भींगा हुआ।
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तीलखा  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी।
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तीला  : पुं० [फा० तीर-बाण] [स्त्री० अल्पा० तीली] तिनका, विशे्षतः बड़ा और लंबा तिनका।
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तीली  : स्त्री० [हिं० तीला] १. वनस्पति आदि का बड़ा तिनका। सींक। २.धातु का पतला कड़ा तार। ३. तीलियों की वह कूँची जिससे जुलाहे करघे पर का सूत करते साफ करते हैं। ४. जुलाहों की ढरकी में की वह सीकं जिसमें नरी पहनाई रहती है।
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तीवई  : स्त्री० [सं० स्त्री] स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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तीवट  : पुं० [सं० त्रिवण] १.एक राग जो दोपहर के समय गाया जाता है। २.संगीत में १४ मात्राओं का एक ताल जिसे तेवर या तेवरा भी कहते हैं।
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तीवन  : पुं० [सं० तेवन-व्यंजन] १. पकवान। २. रसेदार तरकारी।
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तीवर  : पुं० [सं०√तृ (तैरना)+ष्वरच्,नि० सिद्धि] १. समुद्र सागर। २. [√तीर्(कर्म-समाप्ति)+ष्वरच्] व्याध। शिकारी। ३. मछुआ। ४. पुराणानुसार एक वर्ण-संकर जाति जिसकी उत्त्पत्ति राजपूत माता और क्षत्रिय पिता से कही गई हैं। वि०=तीव्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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तीव्र  : वि० [सं०√तीव्र (मोटा होना)+रक्] १. बहुत अधिक। अतिशय। अत्यंत। २. बहुत अधिक तीक्ष्ण या तीखा। तेज। ३. बहुत गरम। ४. मान, सीमा आदि में बहुत बढ़ा हुआ। बेहद। ५. कडुआ। कटु। ६. जो सहा न जा सके। असह्र। ७. उग्र, प्रचंड, या विकट। ८. जिसमें यथेष्ट वेग हो। ९. (संगीत में स्वर) जो अपने मानक या साधारण रूप से कुछ ऊँचा या बढ़ा हुआ हो। कोमल का विपर्याय। विशेष–ऋषभ गान्धार, मध्यम, धैवत और निषाद ये पाँचों स्वर दो प्रकार के होते है-कोमल और तीव्र। पुं० १. लोहा। २. नदी का किनारा या तट। ३. महादेव० शिव।
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तीव्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] सूरन। जमीकंद। ओल।
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तीव्र-गति  : स्त्री० [ब० स०] वायु। हवा।
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तीव्र-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] अजवायन। यवानी।
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तीव्र-ज्वाला  : स्त्री० [सं० तीव्र√ज्वल् (जलना)+णिच्+अच्-टाप्] धव का फूल जिसे छूने से लोगों का विश्वास था कि शरीर में धाव हो जाता है।
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तीव्र-सव  : पुं० [कर्म० स०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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तीव्रगंधिका  : स्त्री० [सं० तीव्रगन्धा+कन्-टाप्, हृस्व, इत्व] अजवायन।
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तीव्रता  : स्त्री० [सं० तीव्र+तल्–टाप्] तीव्र होने की अवस्था या भाव। (सभी अर्थों में)।
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तीव्रा  : स्त्री० [सं० तीव्र+टाप्] १. षडज स्वर की चार श्रुतियों में से पहली श्रुति। २. खुरासानी। अजवायन। ३. राई। ४. गाँडर दूब। गंड-दूर्वा। ५. तुलसी। ६. कुटकी। ७. बड़ी मालकंगनी। ८. तरवी नामक वृक्ष।
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तीव्रानन्द  : पुं० [तीव्र-आनन्द,ब०स०] शिव। महादेव।
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तीव्रानुराग  : पुं० [तीव्र-अनुराग,कर्म०स०] १.किसी वस्तु के प्रति होनेवाला अत्यधिक अनुराग। २. उक्त प्रकार का अनुराग जो जैनों में अतिचार माना जाता है।
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तीस  : वि० [सं० त्रिशति,पा०तीसा] जो गिनती में बीस से दस अधिक हो। स्त्री०उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।-३॰। पद–तीस मार खाँ-बहुत बड़ा बहादुर। (व्यंग्य) तीसों दिन-सदा। नित्य।
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तीसर  : स्त्री० [हिं०तीसरा] खेत की तीसरी जुताई। वि०-तीसरा।
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तीसरा  : वि० [हिं० तीन+सरा (प्रत्यय)] १. क्रम में तीन के स्थान पर पड़नेवाला जो गिनती में दो के उपरांत और चार से पहले हो। २. जिसका प्रस्तुत विषय अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक से भी कोई संबंध या लगाव न हो।
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तीसवाँ  : वि० [हिं० तीस+वाँ (प्रत्यय)] क्रम में तीस के स्थान पर पड़नेवाला। तीसवाँ दिन।
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तीसी  : स्त्री० [सं० अतसी] १. डेंढ़ हाथ ऊंचा एक पौधा जिसमें नीले रंग के फूल तथा बीज मटमैले रंग के घुंडीदार गोल होते हैं। २. उक्त बीज जो वैद्यक के अनुसार वात, पित, और कफनाशक होते हैं । स्त्री० [हिं० तीस+ई (प्रत्यय)] वस्तुएँ गिनने का एक मान जिसका सैकड़ा तीस गाहियों का अर्थात् १५॰ का होता है। स्त्री० [?] एक प्रकार की छेनी जिससे लोहे की थालियों आदि पर नक्काशी करते है।
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तीहा  : पुं० [सं० तुष्टि] तसल्ली। आश्वासन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=तिहाई। जैसे–आधा-तीहा माल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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