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तुल्य  : वि० [सं० तुला+यत्] १. जो किसी की तुलना में समान हो। बराबर। २. अनुरूप। सदृश्य।
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तुल्य-पान  : पुं० [तृ० त०] छोटे-बड़े सब तरह के लोगों का एक साथ मिलकर मद्य आदि पीना।
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तुल्य-प्रधान व्यंग्य  : पुं० [सं० तुल्य-प्रधान, ब० स०, तुल्य-प्रधान-व्यंग्य, कर्म० स०] साहित्य में ऐसा व्यंग्य जिसमें वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ बराबर हों। गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद।
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तुल्यता  : स्त्री० [सं० तुल्य+तल्–टाप्] तुल्य होने की अवस्था या भाव। बराबरी। समता।
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तुल्ययोगिता  : स्त्री० [सं० तुल्ययोगिन्+तल्–टाप्] साहित्य में एक अलंकार जिसमे अप्रस्तुत अथवा प्रस्तुत पदार्थों के किसी एक धर्म से युक्त या सम्बद्ध होने का उल्लेख होता है। जैसे–उस सुन्दरी की कोमलता को देखकर किस तरूण के हृदय में मालती के फूल, चन्द्रमा की कला और केले के पत्ते कठोर नहीं जँचने लगे।
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तुल्ययोगी(गिन्)  : वि० [सं० तुल्य√युज्(जोड़ना)+णिनि] समान संबंध रखनेवाला।
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