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शब्द का अर्थ

निः  : उप. [सं० निस्] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर उन्हें नहिक भाव या राहित्य का सूचक बनाता है। जैसे–निःशुल्क, निःशेष आदि।
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नि  : उप. [सं०√नी (ले जाना)+डि] एक उपसर्ग जो कुछ शब्दों के आरंभ में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है–(क) नीचे की ओर। जैसे–निपात। (ख) संग्रह या समूह। जैसे–निकर, निकाय। (ग) आदेश। जैसे–निदेश। (घ) नित्यता। जैसे–निवेश। (ड़) कौशल। जैसे–निपुण। (च) बंधन। जैसे–निबंधन। (छ) अंतर्भाव। जैसे–निपीत। (ज) सामीप्य। जैसे–निकट। (झ) अपमान। जैसे–निकार। (ञ) दर्शन। जैसे–निदर्शन। (ट) आश्रम। जैसे–निकुंज, निलय, निकेतन। (ठ) अलग होने का भाव। जैसे–निधन, निवृत्ति। (ड) संपूर्ण। जैसे–निखिल। (ढ) अच्छी तरह से। जैसे–निगूढ़, निग्रह। (त) बहुत अधिक। जैसे–नितांत, निपीड़ना। पुं० संगीत में, निषाद स्वर का सूचक संक्षिप्त रूप। उप० [हिं०] रहित। हीन। जैसे–निकम्मा, निछोह,
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नि-कर्षण  : पुं० [सं० ब० स० ?] १. खेल का मैदान। २. परती जमीन। ३. आँगन। ४. पड़ोस।
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नि-रेभ  : वि० [सं० ब० स०] शब्द-हीन। निःशब्द।
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नि-सवाद  : वि० [सं० निः स्वाद] जिसमें कोई स्वाद न हो। स्वाद रहित। बे-सवादी।
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निअर  : अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअउ] निकट। पास। समीप। वि० तुल्य। बराबर। समान।
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निअराना  : स० [हिं० निअर] निकट या समीप पहुँचाना या ले जाना। अ० निकट या पास जाना अथवा पहुँचना।
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निअरे  : अव्य०=निकट (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआउ  : पुं०=न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआथि  : स्त्री० [सं० नि+अर्थता] निर्धनता। गरीबी। उदा०–साथी आथि निअथि भै, सकेसि न साथ निबाहि।–जायसी। वि० निर्धन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआन  : पुं० [सं० निदान] निदान अन्त। उदा०–देखेन्हि बूझि निअनन साथां।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० अन्त में। आखिर।
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निआना  : वि०=१. निआरा (न्यारा)। उदा०–अनुराजा सो जरै निआना।–जायसी। २. अनजान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निआमत  : स्त्री० [अ० नेअमत] १. ईश्वर द्वारा प्रदत्त अथवा उसकी कृपा से प्राप्त होनेवाली धन-संपत्ति या कोई बहुमूल्य गुण अथवा पदार्थ। २. किसी के द्वारा प्रदत्त बहुत ही बहुमूल्य पदार्थ।
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निआरा  : वि० [स्त्री० निअरी]=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआर्थी  : स्त्री० [सं० निः+अर्थाता] १. अर्थहीनता। २. दरिद्रता। गरीबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० धन-हीन। दरिद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निउँजी  : स्त्री०=न्यौंजी (लीची का वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निऋति  : स्त्री० [सं० निर्-ऋत,] दक्षिण-पश्चिम कोण की अधिष्ठात्री देवी। २. अधर्म की पत्नी। ३. अधर्म की कन्या। ४. लक्ष्मी की बहन अलक्ष्मी। दरिद्रा देवी। ५. भारी विपत्ति। ६. मृत्यु।
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निकट  : अव्य० [नि√कट् (जाना)+अच्] १. कुछ या थोड़ी दूरी पर। पास ही में। २. किसी की दृष्टि या विचार में। ३. किसी के लेखे या हिसाब से। जैसे–तुम्हारे निकट भले ही यह काम बहुत बड़ा न हो, पर सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। वि० लगाव या संबंध के विचार से समीप-स्थित। पास का। जैसे–निकट-संबंधी।
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निकट-पूर्व  : पुं० [सं० कर्म० स०] योरपवालों की दृष्टि से, एशिया महाद्वीप का पश्चिमी भाग, जो भारत की दृष्टि से ‘निकट पश्चिम’ होगा।
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निकंटक  : वि० [सं० निष्कंटक] १. कंटक रहित। २. अबाध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकटता  : स्त्री० [सं० निकट+तल्–टाप्] १. ‘निकट’ होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी से निकट संबंध हो।
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निकटपना  : पुं०=निकता।
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निकटवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० निकट√वृत् (रहना)+णिनि]=निकटस्थ।
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निकटस्थ  : वि० [सं० निकट√स्था (ठहरना)+क] १. (वह) जो किसी के निकट रहता या होता हो। २. संबंध आदि के विचार से पास का।
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निकती  : स्त्री० [सं० निष्क+मिति ?] छोटा तराजू। काँटा।
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निकंद रोग  : पुं० दे० ‘योनि कंद’।
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निकंदन  : पुं० [सं० नि√कंद् (विकलता)+णिच्+ल्युट्–अन] १. नाश। २. संहार।
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निकंदना  : स० [सं० निकंदन] १. नष्ट करना। न रहने देना। २. संहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० १. नष्ट होना। २. संहार होना।
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निकनातीस  : पुं० [अं० मिक़्नातीस] [वि० मिकनातीसी= चुम्बकीय] चुम्बक पत्थर।
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निःकपट  : वि०=निष्कपट।
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निकम्मा  : वि० [सं० निष्कर्ष, प्रा० निकम्मा] १. जिसके हाथ में कोई काम न हो। काम-धन्धे से खाली या रहति। जैसे–आज-कल वे निकम्मे बैठे हैं। २. जो कोई काम-धंधा करने के योग्य न हो। अयोग्य। जैसे–ऐसा निकम्मा आदमी लेकर हम क्या करेंगे। ३. (पदार्थ) जो किसी काम में आने के योग्य न हो। रद्दी। जैसे–निकम्मी बातें।
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निकर  : पुं० [सं० नि√कृ (व्याप्ति)+अच्] १. झुंड। समूह। जैसे–रवि-कर-निकर। २. ढेर। राशि। ३. निधि। खजाना। क्रि० वि० निकट। पुं० [अ०] कमर में पहनने का एक प्रकार का चौड़ी मोहरीवाला अँगरेजी पहनावा जो घुटनों तक लंबा होता है।
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निकरना  : अ०=निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकर्तन  : पुं० [सं० नि√कृत् (छेदन)+ल्युट्–अन] काटना।
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निकर्मा  : वि० [सं० निष्कर्मा] १. जो कोई कर्म या काम न करे। जो कुछ उद्योग-धंधा न करे। २. आलसी। ३. दे० ‘निकम्मा’।
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निकल  : स्त्री० [अं.] एक तरह की सफेद मिश्रित धातु, जिसके सिक्के आदि ढाले जाते हैं।
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निकलंक  : वि० [सं० निष्कलंक] जिसे या जिसमें कोई कलंक न हो।
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निकलंकी  : वि०=निष्कलंक। पुं०=कल्कि (अवतार)।
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निकलना  : अ० [हिं० ‘निकालना’ का अ०] १. अंदर या भीतर से बाहर आना या होना। निर्गत होना। जैसे–आज हम सबेरे से ही घर से निकले हैं। संयो० क्रि०–आना।–जाना।–पड़ना। मुहा०–(किसी व्यक्ति का घर से) निकल जाना=इस प्रकार कहीं दूर चले जाना कि लोगों को पता न चले। जैसे–कई बरस हुए, उनका लड़का घर से निकल गया था। (किसी स्त्री का घर से) निकल जाना=पर-पुरुष के साथ अनुचित संबंध होने पर उसके साथ चले या भाग जाना। (कोई चीज कहीं से) निकल जाना=इस प्रकार दूर या बाहर हो जाना कि फिर से आने या लौटने की संभावना न रहे। जैसे–गली, मुहल्ले या शहर की गंदगी निकल जाना। २. कहीं छिपी, दबी या रुकी हुई चीज प्राप्त होना या सामने आना। पायजाना। मिलना। जैसे–(क) उसके घर चोरी का माल निकला था। (ख) जंगलों और पहाड़ों में से बहुत-सी चीजें निकलती हैं। (ग) इस प्रणाली में बहुत से दोष निकले, इसलिए इसका परित्याग कर दिया गया। संयो० क्रि०–आना। ३. किसी प्रकार की परिधि, मर्यादा, सीमा आदि में से छूटकर या और किसी प्रकार बाहर आना या होना। जैसे–(क) जेल में से कैदी निकलना। (ख) कुएँ में से पानी निकलना। (ग) किसी प्रकार के दोष आदि के कारण दल, बिरादरी, संस्था आदि से निकलना। मुहा०–(कोई चीज हाथ से) निकल जाना=खोने, चोरी जाने आदि के कारण अधिकार, स्वामित्व आदि से इस प्रकार बाहर हो जाना कि फिर से प्राप्त होने की संभावना न रहे। जैसे–अँगूठी या कलम हाथ से निकल जाना। (कोई अवसर, कार्य या बात हाथ से) निकल जाना=असावधानता, प्रमाद, भूल आदि के कारण अधिकार, कृतित्व आदि से इस प्रकार बाहर हो जाना कि फिर उसके संबंध से कुछ किया न जा सके। जैसे–अब तो वह बात हमारे हाथ से निकल गई; हम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते। ४. किसी प्रकार के अधिकार, नियंत्रण, बंधन आदि से रहित होने पर किसी ओर प्रवृत्त होने के लिए बाहर आना। जैसे–(क) कमान में से तीर या बंदूक में से गोली निकलना। (ख) फंदे से गला निकलना। ५. किसी चीज में पड़ी, मिली या लगी हुई अथवा व्याप्त वस्तु का उससे छूटकर या और किसी प्रकार अलग, दूर या बाहर होना। जैसे–(क) कपड़े में से मैल या रंग निकलना। (ख) पत्तियों या फलों में से रस अथवा बीजों में से तेल निकलना। (ग) दूध या मलाई में से घी या मक्खन निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। ६. उत्पत्ति या निर्माण के स्थान अथवा उद्गम के स्थान से बाहर होकर प्रकट या प्रत्यक्ष होना। सामने आना। जैसे–(क) अंडे या गर्भ में से बच्चा निकलना। (ख) पेड़ में से डालियाँ या डालियों में से पत्तियाँ अथवा मसूड़ों में से दाँत निकलना। (ग) विश्वविद्यालय में से योग्य स्नातक निकलना। संयो० क्रि०–आना।–पड़ना। ७. किसी अज्ञात स्थान, स्थिति आदि से बाहर होकर सामने आना। आगे आकर उपस्थित होना या दिखाई देना। जैसे–आज न जाने कहाँ से इतनी च्यूँटियाँ (या मक्खियाँ) निकल आईं (या निकल पड़ी) हैं। संयो० क्रि०–आना।–पड़ना। ८. किसी पदार्थ या स्थान में से कोई नई रचना, वस्तु या स्थिति उत्पन्न अथवा प्राप्त होना। जैसे–(क) इस कपड़े में से दो कुर्तों के सिवा एक टोपी भी निकलेगी। (ख) यह दालान तोड़ दिया जाय तो इसमें तीन दुकानें निकलेंगी। (ग) जंगल कट जाने पर खेती-बारी और बस्ती के लिए जगह निकल आती है। संयो० क्रि०–आना।–जाना। ९. शरीर में छिपे या दबे हुए विकार या विष का रोग के रूप में प्रकट या प्रत्यक्ष होना। जैसे–गरमी, चेचक, या मुहाँसा निकलना। विशेष–इस अर्थ में इस क्रिया का प्रयोग कुछ विशिष्ट प्रकार के ऐसे ही रोगों या विकारों के संबंध में ही होता है जो किसी प्रकार के विस्फोट के रूप में होते हैं। १॰. शरीर अथवा उसके किसी अंग से कोई तरल पदार्थ बाहर आना। जैसे–(क) शरीर से पसीना निकलना। (ख) फोड़े में से पीब या मवाद निकलना। (ग) नाक या मुँह से खून निकलना। ११. किसी बड़ी राशि में से कोई छोटी राशि कम होना या घटना। जैसे–(क) इस रकम में से तो सौ रुपए ब्याज के निकल गए। (ख) सेर भर घी तो टीन में से चूकर निकल गया। संयो० क्रि०–जाना। १२. किसी गूढ़ तत्त्व, बात या विषय के आशय, उद्देश्य, रहस्य या रूप का स्पष्टीकरण होना। कोई बात खुलना या प्रकट होना। जैसे–(क) किसी पद, वाक्य या श्लोक का अर्थ निकलना। (ख) किसी काम के लिए मुहूर्त निकलना। संयो० क्रि०–आना। १३. किसी ऐसी चीज या बात का नये सिरे से आविर्भूत, प्रगट या प्रत्यक्ष होना जो पहले न रही हो या सामने न आई हो। जैसे–(क) किसी प्रदेश में ताँबे या सोने की खान निकलना। (ख) नया कानून, कायदा, प्रथा या हुकुम निकलना। (ग) उपाय तरकीब या युक्ति निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। १४. किसी नई वस्तु-रचना का प्रस्तुत होकर उपयोग में आने के योग्य होना। जैसे–(क) कहीं से कोई नहर या सड़क निकलना। (ख) दीवार में नई खिड़की निकलना। (ग) यातायात के सुभीते के लिए किसी प्रदेश या प्रांत में रेल निकलना। १५. किसी चीज के किसी अंग या अंश का असाधारण रूप से आगे या बाहर की ओर बढ़ा हुआ होना अथवा सब की दृष्टि के सामने होना। जैसे–(क) उस मकान में दाहिनी तरफ एक बरामदा निकला है। (ख) उनकी दीवार में एक नई खिड़की निकली है। संयो० क्रि०–आना। १६. अपने कर्तव्य, निश्चय, वचन आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर हो जाना। लगाव या संपर्क बाकी न रहने देना। जैसे–तुम तो यों ही दूसरों का गला फँसाकर (या वादा करके) निकल जाते हो। संयो० क्रि०–जाना।–भागना। १७. पुस्तकों, विज्ञापनों, समाचार-पत्रों आदि के संबंध में छपकर प्रकाशित होना या सर्वसाधारण के सामने आना। जैसे–(क) किसी विषय की कोई नई पुस्तक निकलना। (ख) समाचार-पत्रों में विज्ञापन या सूचना निकलना। (ग) कहीं से कोई नया मासिक-पत्र निकलना। १८. बिकनेवाली चीजों के संबंध में, खपत या बिक्री होना। जैसे–उनकी दूकान पर जितना माल आता है, सब निकल जाता है। १९. किसी स्थान पर स्थित किसी तत्त्व या बात का अपने पूर्व में बना न रहना। अलग, दूर या नष्ट हो जाना। जैसे–इस एक दवा से ही हमारे कई रोग निकल गए। संयो० क्रि०–जाना। २0. कुछ पशुओं के संबंध में सधाये या सिखाये जाने पर इस योग्य होना कि जुताई, ढुलाई, सवारी आदि के काम में ठीक तरह से आ सके। जैसे–यह घोड़ा अच्छी तरह निकल गया है; अर्थात् गाड़ी में जोते जाने या सवारी के काम में आने के योग्य हो गया है। २१. हिसाब-किताब होने पर कोई रकम किसी के जिम्मे बाकी ठहरना। जैसे–अभी सौ रुपए और तुम्हारे नाम निकलते हैं। २२. कोई अभिप्राय या उद्देस्य सफल या सिद्ध होना। मनोरथ पूर्ण होना। जैसे–किसी से कोई काम या मतलब निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २३. किसी जटिल प्रश्न या समस्या की ठीक मीमांसा होना। हल होना। जैसे–गणित के ऐसे प्रश्न सब लोगों से नहीं निकल सकते। संयो० क्रि०–आना।–जाना।–सकना। २४. कंठ से उच्चारित होना। जैसे–गले से स्वर निकलना, मुँह से आवाज या बात निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। विशेष–उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में इस क्रिया का प्रयोग बाजों आदि के संबंध में भी होता है। जैसे–मृदंग में से शब्द या सारंगी में से राग अथवा स्वर निकलना। मुहा०–(कोई बात मुँह से) निकल जाना=असावधानी के कारण या आकस्मिक रूप से उच्चारित होना। जैसे–मुँह से कोई अनुचित बात निकल जाना। २५. चर्चा, प्रसंग या बात के संबंध में, आरंभ होना। छिड़ना। जैसे–(क) बात-चीत या व्याख्यान में वहाँ और भी कई प्रसंग निकले। (ख) बात निकलने पर मुझे भी कुछ कहना ही पड़ा। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २६. ग्रह, नक्षत्र का आकाश में उदित होकर क्षितिज से ऊपर और आँखों के सामने आना। जैसे–चंद्रमा, तारे या सूर्य निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २७. किसी व्यक्ति या कुछ लोगों का किसी मार्ग से होते हुए किसी ओर चलना, जाना या बढ़ना। जैसे–जुलूस, बरात या यात्रियों का दल (किसी ओर से) निकलना। २८. समय के संबंध में, व्यतीत होना। गुजरना। बीतना। जैसे–(क) हमारे दिन भी जैसे-तैसे निकल रहे हैं। (ख) अब बरसात निकल जायगी। संयो० क्रि०–जाना। २९. निर्विवाद और स्पष्ट रूप से ठीक ठहरना। प्रमाणित या सिद्ध होना। जैसे–(क) उनका यह लड़का तो बहुत लायक निकला। (ख) आपकी भविष्यद्वाणी ठीक निकली।
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निकलवाना  : स० [हिं० निकालना का प्रे०] १. किसी को कुछ निकालने में प्रवृत्त करना। २. जोर या जबरदस्ती से किसी को छिपाकर रखी हुई कोई चीज उपस्थित करने के लिए बाध्य करना।
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निकलाना  : स०=निकलवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकष  : पुं० [सं० नि√कष् (पीसना)+घ] १. कसने, घिसने, रगड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. सान, जिस पर रगड़ हथियारों की धार तेज की जाती है। ३. कसौटी, जिस पर परखने के लिए सोना कसा या रगड़ा जाता है।
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निकषण  : पुं० [सं० नि√कष्+ल्युट्–अन] १. कसने, घिसने, रगड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. हथियारों की धार तेज करने के लिए उन्हें सान पर चढ़ाना। ३. परखने के लिए कसौटी पर सोना कसना या रगड़ना। ४. गुण, योग्यता, शक्ति आदि परखने की क्रिया या भाव।
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निकषा  : स्त्री० [सं० नि√कष् (हिंसा)+अच्–टाप्] रावण की माता।
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निकषात्मज  : पुं० [सं० निकषा+आत्मज, ष० त०] १. राक्षस। २. रावण अथवा उसका कोई भाई।
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निकषोपल  : पुं० [सं० निकष-उपल. मध्य० स०] १. कसौटी (पत्थर)। २. कोई ऐसा साधन जिससे कोई चीज परखी जाय।
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निकस  : पुं० [सं०]=निकष।
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निकसना  : अ०=निकलना।
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निका  : पुं०=निकाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाई  : स्त्री० [हिं० नीका=अच्छा] १. अच्छापन। २. अच्छाई। ३. खूबसूरती। सुन्दरता। स्त्री० [हिं० निकाना] खेत में से घास-पात काटकर अलग करने की क्रिया, भाव या मजदूरी। निराई। पुं०=निकाय।
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निकाज  : वि० [हिं० नि+काज]=निकम्मा।
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निकाना  : स० [?] नाखून गड़ाना या चुभाना। स०=निराना (खेत)।
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निकाम  : वि० [हिं० नि+काम] १. जिसे कोई काम न हो। २. निकम्मा। वि०=निष्काम। क्रि० वि० व्यर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] प्रचुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाय  : पुं० [सं० नि√चि (चयन)+घञ्, कुत्व] १. झुंड। समूह। २. प्राचीन भारत में कुछ विशिष्ट संप्रदाय, विशेषतः बौद्ध धर्म के वे संप्रदाय जिनकी संख्या अशोक के समय में १8 तक पहुँच चुकी थी। ३. दे० ‘समुदाय’। ४. एक ही प्रकार की वस्तुओं का ढेर या राशि। ५. रहने का स्थान। निवास स्थान। निलय। ६. परमात्मा।
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निकाय्य  : पुं० [सं० नि√चि+ण्यत् नि० सिद्धि्] घर। गृह।
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निकार  : पुं० [सं० नि√कृ (करना)+घञ्] १. पराभव। हार। २. अपकार। ३. अपमान। ४. तिरस्कार। ५. ईख या गन्ने का रस पकाने का कड़ाहा। ६. दे० ‘निकासी’।
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निःकारण  : वि०=निष्कारण।
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निकारण  : पुं० [सं० नि√कृ (मारना)+णिच्+ल्युट्–अन] मारण। वध।
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निकारना  : स०=निकालना।
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निकारा  : वि० [फा० नाकार] [स्त्री० निकारी] १. तुच्छ। निकम्मा। २. खराब। बुरा। उदा०–हरी चंद काहु नहिं जान्यो मन की रीति निकारी।–भारतेन्दु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाल  : पुं० [हिं० निकालना] १. निकलने की क्रिया, ढंग या भाव। २. निकलने का मार्ग। निकास। ३. कठिनाई, संकट आदि से निकलने का ढंग या युक्ति। जैसे–कुश्ती में किसी दाँव या पेंच का निकाल। ४. विचार, विवेचन आदि के फलस्वरूप निकलनेवाला परिणाम या सिद्धान्त।
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निकालना  : स० [सं० निष्कासन, पुं० हिं० निकासना] १. जो अंदर हो, उसे बाहर करना या लाना। निर्गत या बहिर्गत करना। जैसे–अलमारी में से किताबें, बरतन में से घी या संदूक में से कपड़े निकालना। संयो० क्रि०–देना।–लेना। २. किसी को किसी क्षेत्र, परिधि, मर्यादा, सीमा आदि में से किसी प्रकार या रूप में अलग, दूर या बाहर करना। जैसे–किसी को दल, बिरादरी, संस्था समाज आदि से निकालना। संयो० क्रि०–देना। मुहा०–(किसी को कहीं से) निकाल ले जाना=किसी प्रकार के घेरे, बंधन सीमा आदि में से छल या बल-पूर्वक अपने अधिकार में करके अपने साथ ले जाना। जैसे–(क) किसी स्त्री को उसके घर से निकाल ले जाना। (ख) कैदी को जेल से निकाल ले जाना। (ग) किसी के यहाँ से कुछ माल निकाल ले जाना। ३. कहीं छिपी, ठहरी या रुकी हुई चीज किसी प्रकार वहाँ से हटाकर अपने हाथ में लाना या लेना। बाहर करना या लाना। जैसे–(क) कूएँ में से पानी, खान में से सोना, फोड़े में से मवाद या म्यान में से तलवार निकालना। (ख) किसी के यहाँ से चोरी का माल निकालना। ४. किसी चीज में पड़ी या मिली हुई अथवा उसके साथ जुड़ी, बंधी या लगी हुई कोई दूसरी चीज अलग या दूर करना अथवा हटाना। जैसे–(क) चावल या दाल में से कंकड़ियाँ निकालना। (ख) कान में से बाली या नाक में से नथ निकालना। ५. किसी वस्तु में से कोई ऐसी दूसरी वस्तु किसी युक्ति से अलग या दूर करना, जो उसमें ओत-प्रोत रूप में मिली हुई या व्याप्त हो। जैसे–(क) कपड़ों में की मैल, बीजों में से तेल या पत्तियों में से रस निकालना। ६. किसी को किसी कठिन, विकट या संकटपूर्ण स्थिति आदि से बाहर करके उसका उद्धार करना। जैसे–आपने ही मुझे इस विपत्ति से निकाला है। मुहा०–(किसी को या कोई चीज कहीं से) निकाल ले जाना=चुरा-छिपाकर या युक्ति-पूर्वक संकटों आदि से बचते हुए सुरक्षित रूप में कहीं ले जाना। जैसे–शिवाजी के साथी उन्हें औरंगजेब की कैद से निकाल ले गये। ७. किसी चीज, तत्त्व या बात को उसके स्थान से इस प्रकार हटाकर अलग या दूर करना कि उसका अंत, नाश या समाप्ति हो जाय। न रहने देना। अस्तित्व मिटाना। जैसे–(क) दवा से शरीर का रोग या विकार निकालना। (ख) शहर से गंदगी निकालना। (ग) किसी वस्तु या व्यक्ति के दुर्गुण या दोष निकालना। (घ) किसी की चालाकी या शेखी निकालना। ८. किसी कार्य या पद पर नियुक्त व्यक्ति को वहाँ से हटाकर अलग या दूर करना। पद, नौकरी, सेवा आदि से हटाना। जैसे–छँटनी में दस आदमी इस विभाग से भी निकाले गये हैं। ९. एक में मिली हुई बहुत-सी चीजों में से कोई चीज या कुछ चीजें किसी विशिष्ट उद्देश्य से बाहर करना या सामने लाना। जैसे–दूकानदार अपने यहाँ की तरह-तरह की चीजें निकाल कर ग्राहकों को दिखाते हैं। संयो० क्रि०–देना।–लाना।–लेना। १॰. किसी बड़ी राशि में से कोई छोटी राशि अलग, कम या प्रथक् करना। जैसे–इसमें से से भर दूध (या गज भर कपड़ा) निकाल दो। संयो० क्रि०–डालना।–देना।–लेना। ११. कहीं रखी हुई अपनी कोई चीज या उसका कुछ अंश वहाँ से उठा या लेकर अपने अधिकार या हाथ में करना। जैसे–(क) किसी के यहाँ से अपनी धरोहर निकालना। (ख) बैंक से रुपये निकालना। १२. देन, प्राप्य आदि के रूप में किसी के जिम्मे कोई रकम ठहरना। बाकी लगाना। जैसे–वे तो अभी और सौ रुपए तुम्हारी तरफ निकालते हैं। १३. कोई चीज बेचकर या और किसी रूप में अपने अधिकार, नियंत्रण, वश आदि से अलग या बाहर करना। जैसे–(क) वे यह मकान भी निकालना चाहते हैं। (ख) यह दूकानदार अपने यहाँ की पुरानी और रद्दी चीजें निकालने में बहुत होशियार है। १४. कोई ऐसी चीज या बात नये सिरे से आरंभ करके प्रचलित या प्रत्यक्ष करना, जो पहले न रही हो। नवीन रूप में जारी या प्रचलित करना। जैसे–नया कानून, कायदा या रीति निकालना। १५. अविष्कार, उपज्ञा, सूझ आदि के फलस्वरूप कोई नई चीज या बात बनाकर या और किसी प्रकार करना या सबके सामने लाना। जैसे–(क) आज-कल के वैज्ञानिक नित्य नये यंत्र (या सिद्धांत) निकालते रहते हैं। (ख) आपके तर्क (या मत) में उसने बहुत-से दोष निकाले हैं। १६. उपाय, युक्ति आदि के संबंध में, सोच-विचारकर नये सिरे से और ऐसे रूप में कोई बात सामने रखना या लाना जो पहले अपने आपको या औरों को न सूझी हो। जैसे–उद्देश्य पूरा करने की कोई नई तरकीब या नया रास्ता निकालना। १७. किसी गूढ़ तत्त्व, बात या विषय का आशय, रहस्य या रूप स्पष्ट करना, सामने रखना या लाना। खोलकर प्रकट करना। जैसे–(क) किसी वाक्य या शब्द का अर्थ निकालना। (ख) कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकालना। संयो० क्रि०–देना।–लेना। १८. किसी प्रश्न या समस्या का ठीक उत्तर या समाधान प्रस्तुत करना। मीमांसा या हल करना। जैसे–(क) गणित के प्रश्नों के उत्तर निकालना। (ख) किसी मामले का कोई हल निकालना। १९. अपना उद्देश्य, कार्य या मनोरथ सफल या सिद्ध करना। जैसे–अभी तो किसी तरह उनसे अपना काम निकालो, फिर देखा जायगा। संयो० क्रि०–लेना। २0. कोई ऐसी नई वास्तु-रचना प्रस्तुत करना, जो किसी दिशा में दूर तक चली गई हो। जैसे–कहीं से कोई नई नहर रेल की लाइन या सड़क निकालना। २१. किसी प्रकार की रचना करने के समय उसका कोई अंग इस प्रकार प्रस्तुत करना कि वह अपने प्रथम या साधारण रूप अथवा नियत रेखा से कुछ आगे बढ़ा हुआ हो। जैसे–मिस्तरी ने इस दीवार का एक कोना कुछ आगे निकाल दिया है। २२. किसी पदार्थ को छेदते या भेदते हुए कोई चीज एक दिशा या पार्श्व से उसकी विपरीत दिशा या पार्श्व में पहुँचाना या ले जाना।किसी के आर-पार करना। जैसे–पेड़ के तने पर तीर (या गोली) चलाकर उसे दूसरी ओर निकालना। २३. पुस्तकों, समाचार-पत्रों, सूचनाओं आदि के संबंध में छापकर अथवा और किसी प्रकार प्रचारित करना या सब के सामने लाना। जैसे–अखबार या विज्ञापन निकालना। २४. शब्द या स्वर कंठ या मुँह (अथवा वाद्य-यंत्रों आदि) से उत्पन्न या बाहर करना। जैसे–(क) गले से आवाज या मुँह से बात निकालना। (ख) तबले, सारंगी या सितार से बोल निकालना। २५. किसी प्रकार की चर्चा, प्रसंग या विषय आरंभ करना। छेड़ना। जैसे–अपने भाषण में उन्होंने यह प्रसंग निकाला था। २६. सलाई, सूई आदि से बनाये जानेवाले कामों के संबंध में, कढ़ाई, बुनाई आदि के रूप में बनाकर तैयार या प्रस्तुत करना। जैसे–(क) दिन भर में एक गुलूबंद या मोजा निकालना। (ख) कसीदे के काम में बेल-बूटे निकालना। २७. दल आदि के रूप में कुछ लोगों को साथ करके किसी ओर से या कहीं ले जाना। जैसे–जुलूस या बारात निकालना। २८. जुताई, सवारी आदि के कामों में आनेवाले पशुओं के सम्बन्ध में उन्हें सधा या सिखाकर इस योग्य बनाना कि वे जुताई, ढुलाई, सवारी आदि के काम में ठीक तरह आ सकें। जैसे–यह घोड़ा (या बैल) अभी निकाला नहीं गया है, अर्थात् अभी सवारी (या हल में जोते जाने) के योग्य नहीं हुआ है। २९. समय, स्थिति आदि के सम्बन्ध में किसी प्रकार निर्वाह करते हुए उसे पार या व्यतीत करना। जैसे–यह जाड़ा तो हम इस कोट से निकाल ले जायँगे। संयो० क्रि०–देना।–ले जाना।–लेना।
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निकाला  : पुं० [हिं० निकालना] १. निकलने या निकालने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे–अब घर से जल्दी निकाला नहीं होता। २. किसी स्थान से बाहर निकाले जाने का दंड या सजा। जैसे–देश-निकाला। क्रि० प्र०–देना।–मिलना।
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निकाश  : पुं० [सं० नि√काश् (चमकना)+घञ्] १. दृश्य। २. क्षितिज। ३. समीपता। ४. अनुरूपता।
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निकाष  : पुं० [सं० नि√कष् (खरोंचना)+घञ्] १. खुरचना। २. रगड़ना।
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निःकास  : वि०=निष्काम।
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निकास  : पुं० [सं० निष्कास, हिं० निकसना] १. निकसने अर्थात् निकलने की क्रिया या भाव। २. वह उद्गम स्थान जहां से कोई चीज निकल या बनकर पूर्णतया प्रकट रूप में सामने आती हो। ३. वह मार्ग या विस्तार जिसमें से होकर कोई चीज जाती हो। ४. घर आदि से निकलने का द्वार, विशेषतः मुख्य द्वार। ५. खुला हुआ स्थान। मैदान। ६. आमदनी या आय का रास्ता। ७. आमदनी। ८. विपत्ति, संकट आदि से बचने की युक्ति। ९. दे० ‘निकासी’। पुं० [सं० निकाश] समानता। उदा०–सनीर जीमूत-निकास सोभहिं।–केशव।
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निकास-पत्र  : पुं० [हिं० निकास+सं० पत्र] वह पत्र जिसमें किसी दुकान, संस्था आदि के जमा खरच, बचत आदि का विवरण दिया हो। रवन्ना।
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निःकासन  : पुं० [वि० निः कासित]=निष्कासन।
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निकासना  : स०=निकालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकासी  : स्त्री० [हिं० निकास] १. निकलने या निकालने की क्रिया, ढंग या भाव। २. व्यक्ति का घर से बाहर निकलने विशेषतः काम-काज या यात्रा के लिए बाहर निकलने का भाव। ३. दुकान में रखे हुए अथवा कारखानों आदि में तैयार होनेवाले माल का बिकना और बाहर आना। ४. वह माल जितना उक्त रूप में निकलकर बाहर जाय। खपता। बिक्री। ५. आय। आमदनी। ६. ब्रिटिश शासन में, वह धन जो सरकारी मालगुजारी देने के उपरांत जमींदार के पास बच रहता था। बचत। ७. चुंगी। ८. दे० ‘निकासी-पत्र’।
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निकासी-पत्र  : पुं० [हिं० निकासी+सं० पत्र] वह अधिकार-पत्र जिसके अनुसार कोई व्यक्ति या वस्तु कहीं से निकल कर बाहर जा सके। (ट्रानजिट पास)
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निकाह  : पुं० [अ०] इस्लाम की धार्मिक पद्धित से होनेवाला विवाह।
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निकाही  : वि० [अ० निकाह] (स्त्री०) जो निकाह अर्थात् धार्मिक पद्धति से विवाह करके घर में लाई गई हो। मुसलमान की विवाहित (पत्नी)।
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निकियाई  : स्त्री० [हिं० निकियाना] निकियाने की क्रिया, भाव और मजदूरी।
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निकियाना  : स० [देश०] किसी चीज को इस प्रकार से नोचना कि उसका अंश या अवयव अलग हो जाय। जैसे–पक्षी के पर या पशु के बाल निकियाना।
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निकिष्ट  : वि०=निकृष्ट।
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निकुंच  : पुं० [सं० नि√कुंच् (कुटिलता)+अच्] १. कुंजी। ताली।
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निकुंचक  : पुं० [सं० नि√कुंच्+ण्वुल्–अक] १. एक तरह का पुराना माप जो कुड़व के चौथाई अंश के बराबर होता था। २. जल-बेंत।
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निकुंचन  : पुं० [सं० नि√कुंच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निकुंचित] संकुचन।
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निकुंज  : पुं० [सं० नि-कु√जन् (उत्पत्ति)+ड, पृषो० सिद्धि] उपवन, वन, वाटिका आदि में का वह प्राकृतिक स्थल जो वृक्षों तथा लताओं द्वारा आच्छादित तथा कुछ पार्श्वो से घिरा होता है। कुंज।
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निकुटना  : अ० [हिं० निकोटना का अ०] निकोटा जाना। स०=निकोटना।
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निकुंभ  : पुं० [सं० नि√कुंभ (ढाँकना)+अच्] १. कुंभकरण का एक पुत्र जो रावण का मंत्री था। २. भक्त प्रह्लाद के एक पुत्र का नाम। ३. शतपुर का एक असुर राजा जिसने कृष्ण के मित्र ब्रह्मदत्त की कन्याओं का हरण किया था इसी लिए कृष्ण ने इसे मार डाला था। ४. हरिवंश के अनुसार, हर्यश्व राजा का एक पुत्र। ५. एक विश्वेदेव। ६. कौरवों की सेना का एक सेनापति। ७. कुमार का एक गण। ८. महादेव का एक गण। ९. दंती (वृक्ष)। १॰. जमालगोटा।
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निकुंभित  : पुं० [सं० नि√कुम्भ+क्त] नृत्य का एक विशेष प्रकार या मुद्रा।
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निकुंभिला  : स्त्री० [सं०] १. लंका के पश्चिम भाग में की एक गुफा। २. उस गुफा की अधिष्ठात्री देवी (कहते हैं कि युद्ध करने से पहले मेघनाद इसी देवी का पूजन किया करता था)।
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निकुंभी  : स्त्री० [सं० निकुंभ+ङीष्] १. कुंभकरण की कन्या का नाम। २. दंती वृक्ष।
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निकुरंब  : पुं० [सं० नि√कुर् (शब्द)+अम्बच् (बा०)] समूह।
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निकुलीनिका  : स्त्री० [सं०] १. वह कला जो किसी ने अपने पूर्वजों से सीखी हो। २. वह कला जिसमें किसी जाति विशेष के लोग निपुण तथा सिद्धहस्त समझे जाते हैं।
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निकुही  : स्त्री० [देश०] एक तरह की चिड़िया।
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निकूल  : पुं० [सं०] वह देवता जिसके निमित्त नरमेध और अश्वमेध यज्ञों में छठे यूप में बलि चढ़ाया जाता है।
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निकृत  : भू० कृ० [सं० नि√कृ+क्त] १. अपमानित या तिरस्कृत किया हुआ। २. जो दूसरों द्वारा ठगा गया हो। प्रतारित। ३. अधम। नीच। ४. दुष्ट।
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निकृंतन  : पुं० [सं० नि√कृत+ल्युट्–अन] १. काटना। २. नष्ट करना।
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निकृति  : स्त्री० [सं० नि√कृ+क्तिन्] १. अपमान। तिरस्कार। २. दूसरों को ठगने की क्रिया या भाव। ३. दुष्टता। ४. दीनता। ५. पृथ्वी। ६. धर्म का पुत्र एक वसु जो सीध्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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निकृत्त  : वि० [सं० नि√कृत्+क्त] १. जड़ या मूल से कटा हुआ। २. छिन्न। विदीर्ण।
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निकृष्ट  : वि० [सं० नि√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० निकृष्टता] जो महत्त्व, मान आदि की दृष्टि से निम्न कोटि का और फलतः तिरस्कृत हो। जैसे–निकृष्ट विचार, निकृष्ट व्यक्ति।
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निकृष्टता  : स्त्री० [सं० निकृष्ट+तल्–टाप्] निकृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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निकेत  : पुं० [सं० नि√कित् (बसना)+घञ्] रहने का स्थान। घर।
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निकेतन  : पुं० [सं० नि√कित्+ल्युट्–अन]=निकेत।
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निकोचक  : पुं० [सं० नि√कुच् (शब्द)+वुन्–अक] अंकोल (वृक्ष)।
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निकोचन  : पुं० [सं० नि √कुच्+ल्युट्–अन्] सिकुड़ने की क्रिया या भाव।
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निकोटना  : स० [हिं० बकोटना का अ०] १. नाखूनों की सहायता से तोड़ना। २. नोचना। ३. दे० ‘बकोटना’। स० [हिं० नि+कृत] कोई चीज गढ़ने या बनाने के लिए खोदना, तराशना आदि। (राज०)
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निकोठक  : पुं० [सं० निकोचक, पृषो० सिद्धि] अंकोल (वृक्ष)।
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निकोसना  : सं० १. दाँत निकालना। २. दाँत किटकिटाना या पीसना।
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निकौड़िया  : पुं० [हिं० नि+कौड़ी] [स्त्री० निकौड़ी] १. व्यक्ति, जिसके पास कौड़ी भी न हो। २. परम निर्धन या दरिद्र व्यक्ति।
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निकौनी  : स्त्री० [हिं० निकाना=निराना] निराई (खेत की)।
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निक्का  : वि० [सं० न्यक्क=नत, नीचा] [स्त्री० निक्की] १. (व्यक्ति) जो वय में अपने सभी भाइयों में छोटा हो। २. अवस्था में बहुत छोटा। जैसे–निक्का काका। (पश्चिम)
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निःक्रामित  : वि० [सं०] निष्क्रासित। (दे०)
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निक्रीड़  : पुं० [सं० नि√क्रीड़ (खेलना)+घञ्] क्रीड़ा। खेल।
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निक्वण  : पुं० [सं० नि√क्वण् (शब्द)+अप्] १. वीणा की झंकार या शब्द। २. किन्नरों का शब्द या स्वर।
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निक्षण  : पुं० [सं० निक्ष् (चूमना)+ल्युट्–अन] चुंबन। चुम्मा।
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निःक्षत्र  : वि० [सं० निर्-क्षत्र, ब० स०] (स्थान) जिसमें क्षत्रिय न रहते हों। क्षत्रिय रहित। क्षत्रिय शून्य।
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निक्षा  : स्त्री० [सं०√निक्ष्+अच्–टाप्] जूँ का अंडा। लीख।
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निक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० नि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. फेंका हुआ। २. डाला या रखा हुआ। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। त्यक्त। ४. अमानत या धरोहर के रूप में किसी के पास जमा किया या रखा हुआ। (डिपाजिटेड) ५. भेजा हुआ। (कन्साइंड) ६. बंधनों आदि से छूटा हुआ।
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निक्षिप्तक  : पुं० [सं० निक्षिप्त+कन्] १. वह वस्तु जो कहीं भेजी जाय। (कन्साइनमेंट) २. वह धन जो किसी कोश, खाते या मद में इकट्ठा किया जाय।
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निक्षिप्ति  : स्त्री० [सं० नि√क्षिप्+क्तिन्] निक्षेप। (दे०)
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निक्षिप्ती  : पुं० [सं० निक्षिप्त] वह व्यक्ति जिसके नाम कोई वस्तु, विशेषतः पारसल के रूप में भेजी गई हो। (कनसाइनी)
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निक्षुभा  : स्त्री० [सं० निक्षुभ (हलचल)+क–टाप्] १. ब्राह्मणी। २. सूर्य की एक पत्नी।
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निःक्षेप  : पुं० [सं० निर्√क्षिप् (प्रेरणा)+घञ्] निक्षेप। (दे०)
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निक्षेप  : पुं० [सं० नि√क्षिप् (प्रेरणा)+घञ्] [भू० कृ० निक्षिप्त] १. फेंकने, डालने, चलाने, छोड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. किसी के पास कोई चीज भेजने की क्रिया या भाव। ३. इस प्रकार भेजी जानेवाली वस्तु। ४. वह धन या वस्तु जो किसी के यहाँ अमानत या धरोहर के रूप में रखी गई हो। ५. वह धन जो कहीं जमा किया गया हो। (डिपाजिट) ६. कोई चीज कहीं जमा करने अथवा किसी के पास अमानत या धरोहर के रूप में रखने की क्रिया या भाव।
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निक्षेप-निर्णय  : पुं० [सं० तृ० त०] सिक्का आदि उछालकर उसके चित या पट गिरने के आधार पर किया जानेवाला किसी प्रकार का निर्णय। (टॉस)
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निक्षेपक  : वि० [सं० नि√क्षिप्+ण्वुल–अक] फेंकने, चलाने या छोड़नेवाला। पुं० १. वह जो किसी को कोई वस्तु विशेषतः पारसल करके भेजता हो। (कन्साइनर) २. वह जो किसी के पास धन जमा करे। ३. धरोहर के रूप में रखा हुआ पदार्थ। (कौ०)
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निक्षेपण  : पुं० [सं० नि√क्षिप्+ल्युट्–अन] [वि० निक्षिप्त, निक्षेप्य] १. कोई चीज चलाना, छोड़ना, डालना या फेंकना। २. धन आदि किसी के पास जमा करना। ३. अमानत या धरोहर के रूप में कोई चीज किसी के पास रखना।
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निक्षेपित  : भू० कृ० [सं० निक्षिप्त] जिसका निक्षेपण हुआ हो। निक्षिप्त।
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निक्षेपी (पिन्)  : वि० [सं० नि√क्षिप्+णिनि] १. चलाने, छोड़ने, डालने या फेंकनेवाला। २. अमानत या धरोहर के रूप में किसी के पास कोई चीज रखनेवाला।
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निक्षेप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० नि√क्षिप्+तृच]=निक्षेपी।
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निक्षेप्य  : वि० [सं० नि√क्षिप्+णिनि] १. चलाये, छोड़े, डाले या फेंके जाने के योग्य। २. अमानत या धरोहर के रूप में रख जाने के योग्य। ३. जमा किये जाने के योग्य।
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निःक्षोभ  : वि० [सं०] जिसमें क्षोभ अर्थात् खलबली या घबराहट न हो।
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निखंग  : पुं०=निषंग (तरकश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखंगी  : वि०=निषंगी (तरकश धारण करनेवाला)।
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निखटक  : क्रि० वि०=बेखटके।
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निखट्टर  : वि० [हिं० नि+कट्टर=कड़ा] कठोर हृदयवाला। निर्दय और निष्ठुर।
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निखट्टू  : वि० [हिं० नि+खटना=कमाना] १. (व्यक्ति) जो कुछ भी कमाता न हो। २. बेकार।
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निखंड  : वि० दो बिन्दुओं या कालों के ठीक बीच में होनेवाला। जैसे–निखंड बेला।
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निखनन  : पुं० [सं० नि√खन् (खोदना)+ल्युट्–अन] १. खनना। खोदना। २. खोदने पर निकलनेवाली मिट्टी। ३. गाड़ना।
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निखरक  : क्रि० वि०=निखटक (बेखटके)।
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निखरचे  : क्रि० वि० [हिं० नि+खरच] बिना किसी प्रकार का खरच विशेषतः माल आदि की दलाली, ढुलाई, रेल-भाड़ा, डाक-व्यय आदि जोड़े या मिलाये हुए। जैसे–आपको यह माल ५0) मन निखरचे मिलेगा। अर्थात् ऊपरी खरच विक्रेता के जिम्मे होंगे।
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निखरना  : अ० [सं० निरक्षण=छँटना] १. ऊपर की मैल आदि हट जाने के कारण खरा या साफ होना। २. स्वच्छ करनेवाली किसी क्रिया के फल-स्वरूप वास्तविक तथा अधिक सुन्दर रूप प्रकट होना। ३. रंगत, रूप आदि का खिलना या साफ होना। ४. कला-पूर्ण ढंग से संपादित होने के कारण किसी कार्य या वस्तु का ऐसे उत्कृष्ट या निर्दोष स्थिति या रूप में सामने आना कि वह यथेष्ट सजीव तथा सौंदर्यपूर्ण जान पड़े। जैसे–दूसरे संस्करण में भी जो संशोधन तथा सुधार हुए हैं उनके कारण यह ग्रंथ और भी निखर गया है। (दे० ‘निखार’ और ‘निखारना’)। संयो० क्रि०–आना।–उठना।–जाना।
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निखरवाना  : स० [हिं० निखारना] किसी को कुछ निखारने में प्रवृत्त, करना। निखारने का काम दूसरे से कराना।
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निखरी  : स्त्री० [हिं० निखरना] घी की पकी हुई रसोई। पक्की रसोई। ‘सखरी’ का विपर्याय।
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निखर्व  : वि० [सं०] १. जो गिनती में दस हजार करोड़ हो। ‘खर्व’ का सौ-गुना। २ बौना। वामन। पुं० दस हजार करोड़ या सौ खर्व की सूचक संख्या या अंक।
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निखवख  : वि०, क्रि० वि० [सं० न्यक्ष=सारा, सब] बिलकुल। निरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निखात  : भू० कृ० [सं० नि√खन्+क्त] १. (जमीन या गड्ढा) खोदा हुआ। २. खोदकर निकाला हुआ। ३. गाड़ा हुआ।
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निखाद  : पुं०=निषाद।
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निखार  : पुं० [हिं० निखरना] १. निखरने की क्रिया या भाव। २. निर्मलता। स्वच्छता। ३. सजावट।
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निखारना  : स० [हिं० खारना] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज निखर उठे। २. निर्मल, पवित्र या शुद्ध करना। विशेष–प्रायः कई विशिष्ट प्रकार के कारीगर चीज तैयार कर लेने पर उसे कई तरह के खारों (झारों) आदि के घोल में डालकर उसे सुन्दर और स्वच्छ बनाते हैं। यही क्रिया कहीं (खारना) और कहीं ‘निखारना’ कहलाती है।
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निखारा  : पुं० [हिं० निखारना] वह बड़ा कड़ाहा जिसमें ऊख का रस उबाल कर निखारा जाता है।
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निखालिस  : वि०=खालिस। (असिद्ध रूप)
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निखिउ  : वि०=निक्षिप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निखिद्ध  : वि०=निषिद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखिल  : वि० [सं० नि-खिल=शेष, ब० स०] १. अखिल। संपूर्ण। २. समस्त। सारा।
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निखुटना  : अ० [सं० निक्षित ?] १. उपयोग में लाई जानेवाली वस्तु का कोई काम पूरा होने से पहले ही समाप्त हो जाना। बीच में ही समाप्त हो जाना। जैसे–पत्र भी न लिखा गया और स्याही निखुट गई। २. बाकी न बचना।
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निखेद  : पुं०=निषेध।
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निखेधना  : स० [सं० निषेध] निषेध या वर्जन करना। मना करना।
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निखोट  : वि० [हिं० नि०+खोटा] १. (वस्तु) जो बिलकुल शुद्ध, खरी या खालिस हो। जिसमें कोई खोट न हो। खरा। साफ। २. (व्यक्ति) जो खोटा अर्थात् दुष्ट-प्रकृति का न हो। खरा। साफ। ३. (बात) छल-कपट से रहित और स्पष्ट। क्रि० वि० खुलकर और स्पष्ट रूप से।
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निखोड़ना  : स० [हिं० नि+खोदना] १. खोदना, विशेषतः नाखून से खोदना। २. नोचकर अलग करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखोड़ा  : वि० [हिं० नि+खोड़=आवेश] [स्त्री० निखोड़ी] १. बहुत जल्दी या अधिक आवेश में आनेवाला। २. आवेशयुक्त होकर काम करनेवाला। ३. क्रूर। निर्दय।
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निखोरना  : स०=निखोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगड़  : स्त्री० [सं० नि√गल् (बंधन)+अच्, लस्य डः] १. जंजीर, जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। आँदू। २. अपराधियों के पैरों में पहनाई जानेवाली बेड़ी।
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निगड़न  : पुं० [सं० नि√गल्+ल्युट्–अन, लस्य डः] निगड़ पहनाने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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निगड़ित  : वि० [सं० निगड़+इतच्] निगड़ से बाँधा हुआ।
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निगण  : पुं० [सं० निगरण, पृषो० सिद्धि] यज्ञाग्नि या आहुति के जलने से उत्पन्न होनेवाला धूआँ।
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निगति  : वि० [हिं० नि+सं० गति] १. जिसकी गति अर्थात् मुक्ति न हुई हो। २. जिसकी गति या मुक्ति न हो सकती हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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निगंद  : पुं० [सं० निर्गंध] औषधि के काम आनेवाली एक रक्त-शोधक बूटी।
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निगद  : पुं० [सं० नि√गद् (कहना)+अप्] १. कहना या बोलना। भाषण। २. उक्ति। कथन। ३. ऐसा जप जिसका उच्चारण जोर-जोर से किया जाय। ४. पढ़ने का वह ढंग जिसमें कोई पाठ बिना अर्थ समझे हुए पढ़ा या रटा जाता है।
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निगदन  : पुं० [सं० नि√गद्+ल्युट्–अन] १. कहना। २. रटा, सीखा या स्मरण किया हुआ पाठ दोहराना।
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निगंदना  : स० [हिं० निगंदा] रूई से भरे हुए कपड़े के दोनों परतों में सूई-धागे से इसलिए बड़े-बड़े टाँके लगाना कि उसके अंदर रुई इधर उधर न होने पाये।
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निगंदा  : पुं० [फा० निगंदः] उक्त प्रकार के कपड़ों में लगा हुआ बड़ा टाँका। बखिया।
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निगदित  : भू० कृ० [सं० नि√गद्+क्त] जिसका निरादर किया गया हो।
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निगंध  : वि०=निर्गंध (गंध हीन)।
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निगना  : अ० [सं० निगमन्] चलना। (राज०)
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निगम  : पुं० [सं० नि√गम् (जाना)+अप्] १. पथ। मार्ग। रास्ता। २. प्राचीन भारत में, वह पथ या रास्ता जिस पर होकर व्यापारी लोग अपना माल लाते और ले जाते थे। ३. उक्त के आधार पर रोजगार या व्यापार। ४. वेद जिसकी, शिक्षाएँ सब के चलने के लिए सुगम मार्ग के रूप में हैं। ५. वेद का कोई शब्द, पद या वाक्य अथवा इनमें से किसी की टीका या व्याख्या। ६. ऐसा ग्रंथ जिसमें वैदिक मतों का निरूपण या प्रतिपादन हो। ७. विधि या विधान के अनुसार अस्तित्व में आई हुई ऐसी संस्था जो शरीरधारी व्यक्ति की तरह काम करती है और जिसके कुछ निश्चित अधिकार, कृत्य तथा कर्तव्य होते हैं। ८. दे० ‘नगर महापालिका’। ९. मेला। १॰. कायस्थों की एक शाखा।
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निगम-बोध  : पुं० [सं० ब० स०] पृथ्वीराज रासो में उल्लिखित एक पवित्र स्थान जो यमुना नदी के तट पर तथा दिल्ली के पास था।
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निगम-संचारी  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निगमन  : संज्ञा [सं० नि√गम्+ल्युट्–अन] १. किसी संस्था या को निगम का रूप देने की क्रिया या भाव। २. न्याय में, वह कथन प्रतिज्ञा, जो हेतु, उदाहरण और उपनय तीनों से सिद्ध हुई या होती हो। (डिडक्शन)
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निगमनिवासी (सिन्)  : पुं० [सं० निगम नि√वस् (बसना)+णिनि] विष्णु।
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निगमपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. निगम का प्रधान अधिकारी। २. दे० ‘नगर-प्रमुख’।
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निगमागम  : पुं० [सं० निगम-आगम, द्व० स०] वेद और शास्त्र।
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निगमित  : वि० [सं०] जिसे निगम का रूप दिया गया हो। (इन्कारपोरेटेड)
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निगमी (मिन्)  : वि० [सं० निगम+इनि] वेदज्ञ।
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निगमीकरण  : पुं० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट–अन] किसी संस्था को निगम का रूप देना। (इन्कारपोरेशन)
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निगमीकृत  : भू० कृ० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ+क्त]=निगमित।
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निगर  : पुं० [सं० नि√गृ (निगलना)+अप्] १. निगलने की क्रिया या भाव। २. भोजन। ३. गला। ४. एक प्रकार की पुरानी तौल जो 55 मोतियों के बराबर होती थी। वि० [सं० निकर] कुल। सब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० समूह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगरण  : पुं० [सं० नि√गृ+ल्युट्–अन] १. खाना या निगलना। २. गला। ३. यज्ञाग्नि का धूआँ।
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निगरना  : स०=निगलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगरभर  : वि० [सं० नि+गह्वर] बहुत ही घना। क्रि० वि० घने रूप में।
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निगराँ  : वि० [फा०] १. निगरानी करनेवाला। जो चौकस होकर किसी की देखभाल करे। निरीक्षक।
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निगरा  : स्त्री० [सं० निगर] 55 मोतियों की वह लड़ी जो तौल में 3२ रत्ती हो। वि० [हिं० नि+गरण] (ऊख का रस) जिसमें पानी न मिलाया गया हो।
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निगराना  : स० [सं० नय+करण] १. निर्णय करना। २. छाँट कर अलग या पृथक् करना। स्पष्ट करना। अ० १. अलग होना। २. स्पष्ट होना।
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निगरानी  : स्त्री० [फा०] १. व्यक्ति के संबंध में उसके कार्य, गति-विधि आदि पर इस प्रकार ध्यान रखना कि कोई अनौचित्य या सीमा का उल्लंघन न होने पाये। २. वस्तु के संबंध में, इस प्रकार ध्यान रखना कि उसे किसी प्रकार की क्षति या व्यतिक्रम न होने पाये।
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निगरू  : वि० [हिं० नि+सं० गुरु] जो गुरु अर्थात् भारी न हो। हलका। वि०=निगुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगलन  : पुं० [सं०]=निगरण।
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निगलना  : स० [सं० निगरण, निगलन] कोई कड़ी या ठोस चीज बिना चबाये ही गले के अंदर उतार लेना। संयो० क्रि०–जाना।
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निगह  : स्त्री०=निगाह।
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निगहबान  : वि० [फा०] १. निगाह रखने अर्थात् देख-रेख करनेवाला। २. रक्षक।
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निगहबानी  : स्त्री० [फा०] निगहबान होने की अवस्था या भाव। देख-रेख। रक्षण।
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निगाद  : पुं [सं० नि√गद्+घञ्] निगध। (दे०)। वि० वक्ता।
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निगार  : पुं० [सं० नि√गृ+घञ्] १. निगलने की क्रिया या भाव। २. भक्षण। पुं० [फा०] १. प्रतिमा। मूर्ति। २. ऐसा चित्रण जिसमें बेल-बूटे भी हों। ३. फारस देश का एक राग। वि० १. अंकित करनेवाला। २. लिखनेवाला।
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निगाल  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पहाड़ी बाँस जिसे रिँगाल भी कहते हैं। २. [सं० निगार, रस्य लः] घोड़े की गरदन। स्त्री०=निगाली।
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निगालवान (वत्)  : पुं० [सं० निगाल+मतुप्] घोड़ा।
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निगालिका  : स्त्री० [सं०] आठ अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, रगण और लघु-गुरु होते हैं। इसे ‘प्रामाणिक’ और ‘नाग स्वरूपिणी’ भी कहते हैं।
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निगाली  : स्त्री० [हिं० निगार] १. बाँस की पतली नली। २. हुक्के की वह नली जिसे मुँह में लगाकर धूआँ खींचा जाता है।
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निगाह  : स्त्री० [फा०] १. दृष्टि। नजर। २. कृपा-दृष्टि। ३. किसी बात की देख-रेख के लिए उस पर रखा जानेवाला ध्यान। ४. किसी काम, चीज या बात के संबंध में होनेवाली परख। सूक्ष्म दृष्टि।
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निगिभ  : वि० [सं० निगुह्य] अत्यंत गोपनीय।
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निगीर्ण  : भू० कृ० [सं० नि√गृ+क्त] १. निगला हुआ। २. अंतर्भूत। समाविष्ट।
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निगुण  : वि०=निर्गुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगुना  : वि० १.=निर्गुण। २.=निगुनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगुनी  : वि० [हिं० नि+गुनी] जिसमें कोई गुण न हो।
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निगुंफ  : पुं० [सं० नि√गुम्फ (गूँथना)+घञ्] १. समूह। २. गुच्छा।
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निगुरा  : वि० [हिं० नि+गुरु] जिसने धार्मिक दृष्टि से किसी को अपना गुरु न बनाया हो, जिसने किसी से दीक्षा न ली हो। फलतः गुण-रहित और हीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विशेष–संतों के समाज में, और उसके आधार पर लोक में भी ऐसा व्यक्ति अपटु, अयोग्य और निकृष्ट माना जाता है।
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निगूढ़  : वि० [सं० नि√गुह् (छिपाना)+क्त] १. जिसका अर्थ छिपा हो। २. अत्यंत गुप्त।
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निगूढ़ार्थ  : वि० [सं० निगूढ़-अर्थ, ब० स०] जिसका अर्थ छिपा हो। पुं० [कर्म० स०] छिपा हुआ अर्थ।
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निगूहन  : पुं० [सं० नि√गुह्+ल्युट्–अन] गुप्त रखने या छिपाने की क्रिया या भाव।
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निगृहीत  : भू० कृ० [सं० नि√ग्रह् (पकड़ना)+क्त] [भाव० निगृहीति] १. धरा, पकड़ा या रोका हुआ। २. जिस पर आक्रमण हुआ हो। आक्रमित। ३. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद में हारा हुआ। ४. जिसे दंड मिला हो। दंडित। ५. जिसे कष्ट पहुँचा हो। पीड़ित।
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निगृहीति  : स्त्री० [सं० नि√ग्रह+क्तिन्] १. धरने, पकड़ने या रोकने का भाव। २. आक्रमण। ३. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद में होनेवाली हार। ४. दंड। ५. कष्ट।
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निगोड़ा  : वि० [हिं० नि+गोड़=पैर] [स्त्री० निगोड़ी] जिसके गोड़ अर्थात् पैर न हों अथवा टूटे हुए हों। फलतः अकर्मण्य। (स्त्रियों की एक प्रकार की गाली) वि० दे० ‘निगुरा’।
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निगोल  : स्त्री० [?] किसी मकान के ऊपर भाग में सीढ़ियों के ऊपर की वह छायादार रचना जो आस-पास की छतों और रचनाओं में सबसे ऊँची हो।
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निग्रह  : पुं० [सं० नि√ग्रह+अप] १. नियंत्रण, बंधन, रोक आदि के द्वारा किसी आवेग, क्रिया, वस्तु या व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक आचरण न करने देना। २. उक्त का इतना अधिक उग्र या कठोर रूप कि किसी बात या वृत्ति का दमन हो जाय। ३. रोककर या वश में रखनेवाली चीज या बात। अवरोध। रोक। ४. चिकित्सा, जिससे रोग आदि दबाये या रोके जाते हैं। ५. दंड। सजा। ६. पीड़ित करना। सताना। ७. बाँधनेवाली चीज या बात। बंधन। ८. डाँट-डपट। ९. भर्त्सना। १॰. सीमा हद। १॰. शिव। ११. विष्णु।
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निग्रह-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] तर्क में वह स्थल या स्थान जहाँ वादी के अतर्क-संगत बातें कहने पर वाद-विवाद बंद कर देना पड़े।
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निग्रहण  : पुं० [सं० नि√ग्रह्+ल्युट्–अन] १. निग्रह करने की क्रिया या भाव। (दे० ‘निग्रह’) २. पराजय। ३. युद्ध। लड़ाई।
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निग्रहना  : स० [सं० निग्रहण] १. निग्रह करना। २. नियंत्रण, बंधन या रोक में रखना। ३. दमन करना। ४. दंडित करना।
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निग्रही (हिन्)  : वि० [सं० निग्रह+इनि] १. निग्रह करनेवाला। २. नियंत्रण, बंधन या रोक में रखनेवाला। दमन करनेवाला। ३. दंड देनेवाला।
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निग्राह  : पुं० [सं० नि√ग्रह+घञ्] १. आक्रोश। शाप। २. दंड, सजा।
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निग्राहक  : वि० [सं० नि√ग्रह+ण्वुल्–अक] निग्रह करनेवाला। पुं० यह प्राचीन शासनिक अधिकारी जो अपराधियों, आततायियों आदि को दंड देता था।
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निग्रोध  : पुं० [सं० न्यग्रोध] राजा अशोक के भाई का पुत्र।
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निघ  : वि० [सं० नि√हन् (जानना)+क नि० सिद्धि] जो लंबाई और चौड़ाई में बराबर हो। पुं० १. गेंद। २. पाप।
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निघटना  : स० [हिं० नि०+घटना] न घटे हुए के समान करना। अ० १. उत्पन्न होना। २. घटित होना। ३. युक्त या संपन्न होना।
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निघंटिका  : स्त्री० [सं० नि√घंट् (शोभित होना)+ण्वुल्–अक, टाप्, इत्व] गुलंचा नाम का कंद।
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निघंटु  : पुं० [सं० नि√घंट्+कु] १. शब्दों की सूची, विशेषतः यास्क द्वारा उल्लिखित वैदिक शब्दों की सूची। २. कोई ऐसा कोश, जिसमें किसी प्राचीन भाषा के अथवा बहुत पुराने और अप्रचलित शब्दों के अर्थ और विवेचन हों (लेक्सिकन)। ३. शब्द-संग्रह अथवा शब्द-कोश।
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निघर-घट  : वि० [हिं० नि+भर घाट] १. जिसका कहीं घर-घाट या ठौर-ठिकाना न हो। २. निर्लज्ज। बेहया। मुहा०–(किसी को) निघर-घट देना=बुरी तरह से झिड़कते या फटकारते हुए लज्जित करना। उदा०–दुरै न निघर-घटौ दियें, यह रावरी कुचाल।–बिहारी।
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निघरा  : वि० [हिं० नि+घर] १. जिसका घर-द्वार न हो। २. जिसकी घर-गृहस्थी न हो अर्थात् तुच्छ और हीन।
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निघर्ष  : पुं० [सं० नि√घृष् (घिसना)+घञ्] १. घर्षण। रगड़। २. पीसने का भाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निघस  : पुं० [सं० नि√अद् (खाना)+अप्, घस् आदेश] आहार। भोजन।
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निघात  : पुं० [सं० नि√हन्+घञ्] १. आघात। प्रहार। २. संगीत में, अनुदात्त स्वर।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निघाति  : स्त्री० [सं० नि√हन्+इञ्, कुत्व] १. लोहे का डंडा। २. हथौड़ा। ३. निहाई जिस पर धातु के टुकड़े रखकर पीटते हैं।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निघाती (तिन्)  : वि० [सं० निघात+इनि] [स्त्री० निघातिनी] १. आघात या प्रहार करनेवाला। २. वध या हत्या करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निघृष्ट  : भू० कृ० [सं० नि√घृष्+क्त] १. रगड़ खाया हुआ। २. पराजित।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निघोर  : वि० [सं० नि-घोर, प्रा० स०] अत्यंत या परम। घोर।
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निघ्न  : वि० [सं० नि√हन्+क] १. अधीन। २. अवलंबित। ३. आश्रित। ४. गुणा किया हुआ। गुणित।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचक्र  : पुं० [सं०] हस्तिनापुर के एक राजा जिन्होंने बाद में कौशांबी में राजधानी बनाई थी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचंद्र  : पुं० [सं०] एक दानव का नाम।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचय  : पुं० [सं० नि√चि (चयन)+अच्] १. ढेर। राशि। २. समूह। ३. संचय। ४. निश्चय। ५. किसी विशेष कार्य के लिए इकट्ठा किया जानेवाला धन। निधि। (फंड)
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निचयन  : पुं० [सं० नि√चि+ल्युट्–अन] १. निचय अर्थात् किसी काम के लिए धन जमा या इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। २. किसी के हिसाब या खाते में उसकी ओर से या उसके लिए कुछ धन जमा करना। (फंडिंग)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचर  : वि०=निश्चल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचल  : वि०=निश्चल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचला  : वि० [हिं० नीचा] [स्त्री० निचली] अवस्था, पद, स्थिति आदि के विचार से निम्न स्तर पर या नीचे होनेवाला। नीचेवाला। जैसे–(क) मकान का निचला (अर्थात् नीचेवाला) खंड। (ख) निचला अधिकारी। वि० [सं० निश्चल] जो निश्चल या शांत भाव से एक जगह बैठ न सके। चंचल और चिलबिल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि० निश्चल और शांत भाव से। जैसे–बहुत हो चुका, अब निचले बैठो।
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निचाई  : स्त्री० [हिं० नीचा] १. निम्न स्थल पर होने की अवस्था या भाव। २. निम्न स्थल की ओर का विस्तार। स्त्री० नीचता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निचान  : स्त्री० [हिं० नीचा+आन (प्रत्य०)] १. नीचेवाले स्तर पर होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. ऐसी भूमि जो अपेक्षया नीचे की ओर हो। ३. भूमि आदि की नीचे की ओर होनेवाली प्रवृत्ति। ढाल।
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निचाय  : पुं० [सं० नि√चि+घञ्] ढेर। राशि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निचिकी  : स्त्री० [सं० नि√चि+डि=निचि=शिरोभाग, निचि√कै (शोभा)+क–ङीष्] अच्छी गाय।
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निचिंत  : वि० [स्त्री० निचिंतता]=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचित  : भू० कृ० [सं० नि√चि+क्त] १. ढका या छाया हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। संचित। ३. पूरित। व्याप्त। ४. बनाया हुआ। निर्मित। ५. संकीर्ण।
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निचुड़ना  : अ० [हिं० निचोड़ना का अ० रूप] आर्द्र या रस से भरी वस्तु में से तरल अंश का दबाकर निकाला जाना। निचोड़ा जाना।
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निचुल  : पुं० [सं० नि√चुल् (ऊँचा होना)+क] १. बेंत। २. हिज्जल नामक वृक्ष। ३. ओढ़ने या ढकने का वस्त्र। आच्छादन।
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निचुलक  : पुं० [सं निचुल+कन्] १. युद्ध के समय छाती पर बाँधा जानेवाला लोहे का तवा। २. छाती ढकने का कपड़ा।
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निचेत  : वि०=अचेत।
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निचै  : पुं०=निचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोड़  : पुं० [हिं० निचोड़ना] १. निचोड़ने की क्रिया या भाव। २. वह अंश जो निचोड़ने पर निकले। ३. किसी लंबी-चौड़ी बात का संक्षिप्त और सार अंश। सारांश।
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निचोड़ना  : स० [हिं० नि+सं० च्यवन] १. आर्द्र वस्तु का जल अथवा रस से भरी हुई वस्तु में से उसका तरल अंश या रस निकालने के लिए उसे ऐंठना, घुमाना, दबाना या मरोड़ना। जैसे–गीली धोती निचोड़ना, आम का रस निचोड़ना। २. उक्त प्रकार से पीड़ित करते हुए किसी चीज का सार भाग निकालना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी की जमा-पूँजी या सार-भाग पूरी तरह से लेकर उसे खोखला या निःसार करना। संयो० क्रि०–डालना।–देना।
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निचोना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोर  : पुं० १.=निचोड़। २.=निचोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोरना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोल  : पुं० [सं० नि√चुल्+घञ्] १. शरीर ढाँकने का कपड़ा। आच्छादन। २. स्त्रियों की ओढ़नी या चादर। ३. उत्तरीय वस्त्र। ४. स्त्रियों का घाघरा या लहँगा। ५. कपड़ा। वस्त्र।
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निचोलक  : पुं० [सं० निचोल√कै (मालूम पड़ना)+क] १. प्राचीन भारत का कंचुकी या चोली नाम का पहनने का कपड़ा जो अंगे की तरह का होता था। २. बख्तर। सन्नाह।
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निचोवना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचौहाँ  : वि० [हिं० नीचा+औहाँ (प्रत्य०)] १. नीचे की ओर झुका हुआ या प्रवृत्त। नत। नमित। २. जिसकी नीचे की ओर जाने की प्रवृत्ति हो।
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निचौहैं  : अव्य [हिं० निचौहाँ] नीचे की ओर।
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निच्छंद  : वि० [सं० निश्च्छंद] स्वच्छंद।
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निच्छवि  : स्त्री० [सं० निश्च्छंद, ब० स०] तिरहुत। पुं० एक प्रकार के व्रात्य क्षत्रिय।
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निच्छह  : अव्य० [?] १. पूरी तरह से। २. एक-दम से। बिलकुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निच्छिवि  : पुं० [सं०] एक वर्ण-संकर जाति।
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निछक्का  : पुं० [सं० निस्+चक्=मंडली] १. ऐसी स्थिति जिसमें परम आत्मीय के सिवा और कोई पास न हो। २. एकांत या निर्जन स्थान।
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निछत्र  : वि० [सं० निश्छत्र] १. जिसके सिर पर छत्र न हो। छत्र-हीन। बिना छत्र का। २. जिसके पास राज्य अथवा उसका कोई चिह्न न हो या न रह गया हो। वि० [सं० निः क्षत्र] जिसमें या जहाँ क्षत्रिय न रह गये हों। क्षत्रियों से रहित।
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निछद्दम  : पुं० दे० ‘निछक्का’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछनियाँ  : क्रि० वि०= निच्छत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निःछल  : वि० [सं० निर्-क्षोभ, ब० स०] निश्छल। (दे०)
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निछल  : वि०=निश्छल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछला  : वि०=निछल (निश्छल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] निरा। खालिस।
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निछावर  : स्त्री० [सं० न्यास+अवर्त्त=न्यासावर्त, मि० अ० निसार] १. किसी के गुण, रूप, सुख-समृद्धि आदि को सुरक्षित रखने की कामना से तथा उसे नजर आदि के दूषित प्रभावों से बचाने के लिए उसके ऊपर से कोई चीज घुमाकर उत्सर्ग करना। २. इस प्रकार उत्सर्ग की हुई वस्तु। विशेष–वस्तु के सिवा ऐसे प्रसंगों में स्वयं अपने आप को अथवा अपने प्राण को निछावर करने के भी प्रयोग होते हैं।
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निछावरि  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछोह  : वि०=निछोही।
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निछोही  : वि० [हिं० नि+छोह] १. जिसे किसी के प्रति छोह या प्रेम न हो। निर्मम। २. निर्दय। निष्ठुर।
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निज  : वि० [सं० नि√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. किसी की दृष्टि से स्वयं उसका। पद–निज की=निजी। २. प्रधान। मुख्य। ३. ठीक। यथार्थ। अव्य० १. निश्चित रूप से। २. पूरी तरह से। ३. विशेष रूप से। ४. अंत में। उदा०–आई उघरि कनक कलई सी, दे निज गए दगाई।–सूर।
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निजकाना  : अ० [फा० निजदीक] नजदीक या निकट पहुँचना।
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निजकारी  : स्त्री० [हिं० निज+कर] १. ऐसी फसल जिसका कुछ अंश दूसरों को बाँटना भी पड़ता हो। २. वह जमीन जिसमें उत्पन्न वस्तु का कुछ अंश लगान के रूप में लिया या दिया जाता था।
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निजता  : स्त्री० [सं० निज+तल–टाप्] ‘निज’ का भाव। निजत्व।
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निजन  : वि०=निर्जन (जन-रहित)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजरि  : स्त्री०=नजर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजा  : पुं० [अ० निजाअ] झगड़ा। विवाद।
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निजाई  : वि० [अ०] जिसके विषय में दो पक्षों में कोई झगड़ा या विवाद चल रहा हो। जैसे–निजाई-जमीन, निजाई-जायदाद।
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निजात  : स्त्री०=नजात (छुटकारा या मोक्ष)।
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निजाम  : पुं० [अ० निज़ाम] १. प्रबंध। व्यवस्था। २. प्रबंध या व्यवस्था का क्रम। ३. किसी प्रकार का चक्र या मंडल। ४. ब्रिटिश तथा मराठा शासन-काल में हैदराबाद (दक्षिण) के शासकों की उपाधि।
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निजामशाही  : पुं० [अ+फा०] १. निजाम का शासन। २. मध्ययुग में, निजामाबाद आंध्र में बननेवाला एक प्रकार का बढ़िया कागज।
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निजी  : वि० [सं० निज] १. किसी की दृष्टि से स्वयं उससे संबंध रखनेवाला। निज का। जैसे–निजी बात। २. किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों से ही संबंधित। जिससे औरों का कोई संबंध न हो। जैसे–वह दोनों भाइयों का निजी झगड़ा है। ३. अपने अधिकार में होनेवाला। व्यक्तिगत (सार्वजनिक से भिन्न)।
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निजी सहायक  : पुं० [सं०] वह सहायक जो किसी उच्च अधिकारी या बड़े आदमी के वयक्तिगत कार्यों में हाथ बँटाता हो। (पर्सनल असिस्टेन्ट)
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निजु  : अव्य० [?] निश्चित रूप से। निश्चयपूर्वक। उदा०–निजु ये अविकारी, सब सुखकारी।–केशव।
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निजू  : वि०=निजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजूठा  : वि० [हिं० नि+जूठा] [स्त्री० निजूठी] १. (खाद्य पदार्थ) जिसे किसी ने जूठा न किया हो। २. (उक्ति, भावना या विचार) जो पहले किसी को न सूझा हो या जो पहले किसी के मुख से न निकला हो। उदा०–कवि की निजूठी कल्पना सी कोमल।
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निजोर  : वि० [हिं० नि+फा० जोर] जिसमें जोर या शक्ति न हो। अशक्त। दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निज्ज  : वि०=निज (निजी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निझरना  : अ० [हिं० नि+झरना] १. अच्छी तरह झड़ जाना। जैसे–पेड़ से फलों का निझरना। २. (किसी अवलंब या आश्रय का) अंगों के झड़ जाने के कारण रहित और शोभा रहित होना। जैसे–फलों के झड़ जाने के कारण पेड़ निझरना। ३. सार-भाग से वंचित या रहित होना। ४. अच्छी और सुखद बातों या वस्तुओं के निकल जाने के कारण उनसे रहित हो जाना। ५. पल्ला या हाथ झाड़कर इस प्रकार अलग हो जाना कि मानो कोई अपराध या दोष किया ही न हो। संयो० क्रि०–जाना।
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निझाटना  : स० [हिं० नि+झपटना ?] झपटकर कोई चीज किसी से ले लेना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निझोटना  : स०=निझाटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निझोल  : पुं० [हिं० नि+झोल] हाथी का एक नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० नि+झूल] वह जिस पर फूल पड़ी हो अर्थात् हाथी।
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निटर  : वि० [देश०] १. (भूमि) जो उपजाऊ न हो। २. अशक्त। बेदम। ३. मृत।
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निटल  : पुं० [सं० नि√टल् (बेचैन होना)+अच्] मस्तक। माथा।
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निटलाक्ष  : पुं० [सं० निटल-अक्षि, ब० स०] महादेव। शंकर।
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निटिया  : पुं० [हिं० नाटा ?] एक तरह का छोटे कद का बैल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निटिलाक्ष  : पुं०=निटलाक्ष।
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निटोल  : वि० [हिं० नि+टोल] जो अपने टोल (जत्थे या झुंड) से अलग हो गया हो। पुं०=टोला (महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निट्ठ, निट्ठि  : अव्य० [हिं० नीठि] ज्यों-त्यों करके। कठिनाई से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निठ, निठि  : अव्य०=निट्ठ।
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निठल्ला  : वि० [हिं० उप० नि=नहीं+टहल=काम या हिं० ठाला ?] १. (व्यक्ति) जिसके हाथ में कोई काम-धंधा या रोजगार न हो। प्रायः खाली बैठा रहनेवाला। २. समय बिताने के लिए जिसके पास कोई काम या साधन न हो। क्रि० प्र०–बैठना।
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निठल्लू  : वि०=निठल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठाला  : पुं०=ठाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुर  : वि० [सं० निष्ठुर] [भाव० निठुरई, निठुरता] जिसके हृदय में दया, प्रेम, सहानुभूति आदि कोमल या मधुर भाव बिलकुल न हों। जिसे दूसरों के कष्ट, पीड़ा आदि की अनुभूति न होती हो। कठोर-हृदय। निष्ठुर।
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निठुरई  : स्त्री०=निठुरता (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुरता  : स्त्री० [हिं० निठुर+सं० ता (प्रत्य०), असिद्ध रूप] निठुर अर्थात् कठोर हृदय होने की अवस्था या भाव। निष्ठुरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुराई  : स्त्री०=निठुरई (निष्टुरता)।
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निठुराव  : पुं०=निठुरई (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठौर  : वि० [हिं० नि+ठौर] जिसका कोई ठौर या ठिकाना न हो। पुं० १. अनुचित या बुरा स्थान। २ जोखिम या संकट का स्थान।
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निडर  : वि० [हिं० नि+डर] [भाव० निडरपन] १. जो डरता या भयभीत न होता हो। जिसे किसी आदमी या बात से कुछ भी डर न लगता हो। निर्भय। २. साहसी। ३. जो बड़ों के समक्ष धृष्टतापूर्ण आचरण करता हो। ढीठ। पुं० निर्भयता।
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निडरपन (ा)  : पुं० [हिं० निडर+पन (प्रत्य०)] निडर होने की अवस्था या भाव।
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निडीन  : पुं० [सं० नि√डी (उड़ना)+क्त] ऊपर से नीचे की ओर आना।
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निडै  : अव्य० [हिं० नियर] निकट। समीप।
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निढाल  : वि० [हिं० नि+ढाल=गिरा हुआ] १. अधिक चलने या परिश्रम करने के फलस्वरूप जिसके अंग चूर-चूर हो गये हों। बहुत अधिक थका हुआ। २. जो विफल मनोरथ होने पर उत्साह-हीन हो गया हो।
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निढिल  : वि० [हिं० नि+ढीला] १. चुस्त। जो ढीला न हो। कसा या तना हुआ। २. जो ढिलाई न करता हो। चुस्त। ३. कड़ा। कठोर।
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निंत  : क्रि० वि० नित्य।
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नित  : अव्य०=निमित्त। उदा०–नित सेवा नित धावैं, कै परनाम।–नूर मोहम्मद। अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नितंत  : वि० [सं० निद्रित] १. सोया हुआ। २. बसा हुआ। ३. उपस्थित। वर्तमान। उदा०–सबकर करम गोसाई जानइ जो घट घट महँ नितंत।–जायसी। अव्य०=नितांत।
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नितंब  : पुं० [सं० नि√तम्ब् (पीड़ित करना)+अच्] १. कूल्हे (टाँग और कमर का जोड़) के ऊपर का वह उभरा हुआ पिछला मांसल और प्रायः गोलाकार भाग जिसे टेककर जमीन आदि पर आदमी बैठते हैं। चूतड़। २. कंधा। ३. तट। तीर। ४. पर्वत का ढालुवाँ किनारा।
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नितंबिनी  : स्त्री० [सं० नितम्ब+इनि–ङीप्] सुन्दर नितंबोंवाली स्त्री। सुन्दरी।
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नितंबी (बिन्)  : वि० [सं० नितम्ब+इनि] [स्त्री० नितंबिनी] बड़े तथा भारी नितंबोवाला।
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नितराम्  : अव्य० [सं० नि+तरप्, अमु] १. सदा। हमेशा। निरंतर। २. अवश्य।
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नितल  : पुं० [सं० नि+तल, ब० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोकों में पहला लोक।
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नितांत  : वि० [सं० नि√तम् (चाहना)+क्त, दीर्घ] १. बहुत अधिक। २. हद दर्जे का। असाधारण। ३. बिलकुल।
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निति  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्तह  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्य  : वि० [सं० नि+त्यप्] [भाव० नित्यता] जो निरंतर या सदा बना रहे। अविनाशी। शाश्वत। अव्य० १. प्रतिदिन। हर रोज। २. हर समय। सदा। हमेशा।
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नित्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. वह काम जो प्रतिदिन करना पड़ता हो। रोज का काम। २. वे धार्मिक कृत्य जो प्रतिदिन आवश्यक रूप से किया जाते हों। जैसे–तर्पण, पूजन, संध्या, वंदन आदि।
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नित्य-क्रिया  : स्त्री० दे० ‘नित्य-कर्म’।
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नित्य-गति  : वि० [ब० स०] जो सदा गतिशील रहता हो। पुं० वायु। हवा।
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नित्य-नर्त  : पुं० [ब० स०] महादेव। शंकर।
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नित्य-नियम  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा निश्चित या नियत नियम जिसका पालन प्रतिदिन करना पड़ता हो या किया जाता हो।
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नित्य-नैमित्तिक-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] नित्य अर्थात् नियमित रूप से तथा किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के निमित्त किये जानेवाले सब कर्म।
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नित्य-प्रति  : अव्य० [सं० अव्य० सं०] प्रतिदिन। हररोज।
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नित्य-प्रलय  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहनेवाली मृत्यु।
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नित्य-बुद्धि  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो यह समझता हो कि हर चीज नित्य या शाश्वत है।
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नित्य-भाव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘नित्यता’।
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नित्य-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] निःस्वार्थ-भाव से सदा मित्र बना रहनेवाला व्यक्ति। शाश्वत मित्र।
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नित्य-मुक्त  : पुं० [कर्म० स०] परमात्मा।
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नित्य-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] प्रतिदिन का कर्तव्य यज्ञ। जैसे–अग्निहोत्र।
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नित्य-यौवना  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जिसका यौवन सदा बना रहे। चिरयौवना। स्त्री० द्रौपदी।
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नित्य-संबंध  : पुं० [कर्म० स०] १. दो वस्तुओं में परस्पर होनेवाला नित्य या स्थायी संबंध। २. व्याकरण में, दो शब्दों का वह पारस्परिक संबंध जिससे वाक्यांशों में दोनों शब्दों का आगे-पीछे आना अनिवार्य तथा आवश्यक होता है। जैसे–‘जब मैं कहूँ तब तुम वहाँ जाना। मैं ‘जब’ और ‘तब’ में नित्य-संबंध है।
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नित्य-संबंधी (धिन्)  : वि० [सं० नित्यसंबंध+इनि] (व्याकरण में ऐसे शब्द) जिनमें परस्पर नित्य-संबंध हो।
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नित्यता  : स्त्री० [सं० नित्य+तल्–टाप्] नित्य अर्थात् शाश्वत होने या सदा वर्तमान रहने की अवस्था या भाव।
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नित्यदा  : अव्य० [सं० नित्य+दाच्] सदा से।
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नित्यमत्व  : पुं० [सं० नित्य+त्व] दे० ‘नित्यता’।
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नित्यर्तु  : वि० [नित्य-ऋतु, ब० स०] १. जो सब मौसमों में और सदा बना रहे। २. निरंतर अपनी ऋतु में होनेवाला।
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नित्यशः (शस्)  : अव्य० [सं० नित्य+शस्] १. प्रतिदिन। रोज। नित्य। २. सदा। सर्वदा।
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नित्यसम  : पुं० [तृ० त०] तर्क या न्याय में, यह दूषित सिद्धांत कि सभी चीजें वैसी ही या वही बनी रहती हैं। (इसकी गणना २4 जातियों अर्थात् दूषित तर्कों में की गई है।)
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नित्या  : स्त्री० [सं० नित्य+टाप्] १. पार्वती। २. भनसादेवी। ३. एक शक्ति का नाम।
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नित्याचार  : पुं० [नित्य-आचार, कर्म० स०] ऐसा आचार या सदाचार जिसके निर्वाह या पालन में कभी त्रुटि न हुई हो।
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नित्यानंद  : पुं० [सं० नित्य-आनन्द, कर्म० स०] मन में निरन्तर या सदा बना रहनेवाला आनंद, जो सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
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नित्यानध्याय  : पुं० [नित्य-अनध्याय, कर्म० स०] धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति जिसके उपस्थित होने पर सदा अनध्याय रखना आवश्यक है। मनु के अनुसार–पानी बरसते समय, बादल के गरजने के समय अथवा ऐसे ही अन्य अवसरों पर सदा अनध्याय रखना चाहिए।
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नित्यानित्य  : वि० [नित्य-अनित्य, द्व० स०] नित्य और अनित्य। नश्वर और अनश्वर।
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नित्यानित्य वस्तु-विवेक  : पुं० [सं०] ऐसा विवेक जिसके फल-स्वरूप ब्रह्म, सत्य और जगत् मिथ्या भासित होता है।
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नित्याभियुक्त  : वि० [नित्य-अभियुक्त, कर्म० स०] (योगी) जो देह की रक्षा के निमित्त हल्का और थोड़ा भोजन करता हो।
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नित्योद्युत  : पुं० [सं०] एक बोधिसत्व।
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निथंब (थंभ)  : पुं०=स्तंभ (खंभा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निथरना  : अ० [सं० निस्तरण] तरल पदार्थ का ऐसी स्थिति में रहना या होना कि उसमें घुली या मिली हुई चीज अपने भारीपन के कारण उसके नीचे या तल में बैठ जाय।
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निथरवाना  : स० [हिं० निथारना का प्रे०] किसी को कुछ निथारने में प्रवृत्त करना।
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निथार  : पुं० [हिं० निथारना] २. निथरने की क्रिया या भाव। तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई वस्तु का नीचे बैठना। २. इस प्रकार नीचे या तल में बैठी हुई कोई वस्तु। ३. वह तरल पदार्थ जिसमें घुली या मिली हुई चीज नीचे तल में बैठ गई हो।
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निथारना  : स० [हिं० निस्तारण] कोई तरल पदार्थ इस प्रकार स्थिर करना कि उसमें घुली या मिली हुई कोई वस्तु उसके तल में बैठ जाय। (डिकैन्टेशन)
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निथालना  : स०=निथारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंद  : वि० निद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निद  : वि० [सं०√निंद (निंदा करना)+क, नलोप] निंदा करनेवाला। पुं० [सं०] विष।
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निदई  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंदक  : वि० [सं०√निंद (कलंक लगाना)+ण्वुल्–अक] निंदा करनेवाला।
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निदद्रु  : वि० [सं० नि-दद्रु, ब० स०] जिसे दाद रोग न हुआ हो।
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निंदना  : स० [सं० निंदन] निंदा करना। बुरा कहना।
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निंदनीय  : वि० [सं०√निंद्+अनीयर] (व्यक्ति अथवा उसका आचरण) जिसकी निंदा की जानी चाहिए। निंदा किये जाने के योग्य।
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निदय  : वि० [सं० निर्दय] १. जिसमें दया न हो। दयाहीन। २. निष्ठुर। निर्दय। उदा०–निर्दय हृदय में हूक उठी क्या।–प्रसाद।
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निंदरना  : स० [सं० निंदा] १. निंदा करना। बुरा कहना। २. बदनाम करना।
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निदरना  : स० [हिं० निरादर] १. अनादर या तिरस्कार करना। २. तुच्छ या हेय ठहराना या सिद्ध करना। स० [हिं० नि+दलन] १. दलन करना। २. पराजित करना।
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निदरसना  : अ० [हिं० नि+दरसना] अच्छी तरह दिखलाई देना या पड़ना। स० अच्छी तरह देखना।
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निंदरा  : स्त्री०=निद्रा।
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निंदरिया  : स्त्री०=निद्रा।
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निदर्शक  : वि० [सं० नि√दृश् (देखना)+णिच्+ण्वुल्–अक] निदर्शन करके अर्थात् दिखाने या प्रदर्शित करनेवाला।
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निदर्शन  : पुं० [सं० नि√दृश+ल्युट्–अन्] १. दिखाने या प्रदर्शित करने की क्रिया या भाव। २. किसी कथन या सिद्धान्त की पुष्टि के लिए उदाहरण-स्वरूप कही जानेवाली ऐसी बात जो बहुधा कल्पित या स्वरचित परन्तु सादृश्य के तत्त्व या भाव से युक्त होती है। ३. भौतिक विज्ञान, रेखागणित आदि में किसी मूल कथन को सिद्ध करने के लिए खींची या बनाई जानेवाली आकृतियाँ। (इलस्ट्रेशन, उक्त दोनों अर्थों में)
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निदर्शना  : स्त्री० [सं० नि√दृश्+णिच्+ल्यु–अन, टाप्] साहित्य में, एक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय में सादृश्य का आरोप करके इस प्रकार संबंध स्थापित किया जाता है कि दोनों में बिंब-प्रतिबिंब का भाव प्रकट होता है। जैसे–यह मुख चंद्रमा की शोभा धारण कर रहा है।
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निदलन  : पुं०=निर्दलन।
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निदहना  : स० [निदहन] जलाना। अ० जलना।
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निंदा  : स्त्री० [सं०√निंद+अ–टाप्] [भू० कृ० निंदित, बि० निंदनीय] १. किसी के दोषों, बुराइयों आदि का दूसरों के समक्ष किया जानेवाला वह बखान जो उसे दूसरों की नजरों में गिराने या हेय सिद्ध करने के लिए किया जाय। २. व्यक्ति अथवा उसके किसी कार्य की इस उद्देश्य से की जानेवाली कटु आलोचना कि लोभ उसे बुरा समझने लगें। ३. अपकीर्ति। बदनामी।
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निंदा-प्रस्ताव  : पुं० [सं० ष० त०] किसी सभा में उपस्थित किया जानेवाला वह प्रस्ताव जिसमें किसी अधिकारी, कार्यकर्ता या सदस्य के किसी काम के संबंध में अपना असंतोष प्रकट करते हुए उसकी निंदा का उल्लेख किया जाता है। (सेन्सर मोशन)
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निंदा-स्तुति  : स्त्री०=ब्याज स्तुति।
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निँदाई  : स्त्री०=निराई (खेतों की)।
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निदाध  : पुं० [सं० नि√दह् (जलाना)+घञ्] १. गरमी। ताप। २. धूप। ३. रोग का निदान।
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निदान  : पुं० [सं० नि√दा देनावा√दो (छेदन)+ल्युट्–अन] १. किसी क्रिया का कारण विशेषतः कोई मूल और प्रमुख कारण। २. चिकित्सा-शास्त्रों में, यह निश्चय करना कि (क) रोगी को कौन रोग है। और (ख) इस रोग का मूल और प्रमुख कारण क्या है। (डायग्नोसिस) ३. उक्त विषय की विद्या या शास्त्र। निदानशास्त्र। (इटियॉलाजी) ४. अंत। अवसान। ५. घर। ६. स्थान। जगह। अव्य० १. अंत में। २. इसलिए।
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निदान-गृह  : पुं० [ष० त०] वह चिकित्सालय, जहाँ रोगियों के रोगों का निदान होता या पहचान की जाती है। (क्लीनिक)
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निदान-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान या पहचान का विवेचन होता है। (इटियॉलोजी)
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निदानज्ञ  : पुं० [सं० निदान√ज्ञा (जानना)+क] वह चिकित्सक जो निदान-शास्त्र का ज्ञाता हो; और फलतः रोगों का ठीक निदान करता हो। (पैथालोजिस्ट)
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निँदाना  : स०=निराना।
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निंदारा  : वि०=निंदासा।
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निदारा  : वि० [सं० निर्दार] जिसकी दारा अर्थात् पत्नी न हो। बिनब्याहा हुआ या रँडुवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निदारुण  : वि० [सं० नि-दारुण, प्रा० स०] १. घोर और भयानक या भीषण। २. दुःसह। ३. निर्दय। निष्ठुर।
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निंदासा  : वि० [हिं० नींद] १. (जीव) जिसे नींद आ रही हो। २. (आँखें) जिनमें नींद भरी हुई हो।
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निदाह  : पुं०=निदाघ।
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निदिग्ध  : वि० [सं० नि√दिह् (उपचय)+क्त] छोपा या लीपा हुआ।
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निदिग्धा  : स्त्री० [सं० निदिग्ध+टाप्] इलायची।
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निदिग्धिका  : स्त्री० [सं० निदिग्ध+कन्, इत्व]=निदिग्धा।
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निंदित  : भू० कृ० [सं०√निंद्+क्त] १. जिसकी निंदा हुई हो या की गई हो। २. दे० ‘निंदनीय’।
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निदिध्यास  : पुं० [सं० नि√ध्यै (चिन्तन)+सन्+घञ्]=निदिध्यासन।
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निदिध्यासन  : पुं० [सं० नि√ध्यै+सन+ल्युट्–अन्] १. अनवरत चिंतन। २. निरंतर या सदा किसी का स्मरण करना।
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निँदिया  : स्त्री०=नींद।
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निदिया  : स्त्री०=निंदिया (नींद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निदिष्ट  : वि०=निर्दिष्ट।
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निंदु  : स्त्री० [सं०√निंद्+उ] वह स्त्री० जिसे मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ हो।
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निदेश  : पुं० [सं० नि√दिश् (बताना)+घञ्] १. दे० ‘निर्देश’। २. शासन। ३. किसी आज्ञा, नियम, निश्चय आदि के संबंध में लगाई हुई कोई शर्त या बंधन। (प्रॉविजन) ४. उक्ति। कथन। ५. बातचीत। ६. पड़ोस। ७. सान्निध्य।
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निदेशक  : पुं० [सं०] वह जो दूसरों को कोई काम कैसे, कहाँ और कब करने के संबंध में सूचनाएँ या आदेश देता हो। (डाइरेक्टर)
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निदेशालय  : पुं० [सं०] निदेशक का कार्यालय।
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निदेशिनी  : स्त्री० [सं० नि√दिश्+ल्युट्–अन, ङीप्] दिशा।
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निदेशी (शिन्)  : वि० [सं० नि√दिश्+णिनि] निर्देशक। (दे०)
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निदेष्टा (ष्ट्ट)  : पुं० [सं० नि√दिश्+तृच] निर्देशक। (दे०)
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निदेस  : वि०=निर्देश।
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निदोष  : वि०=निर्दोष।
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निद्धि  : स्त्री०=निधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंद्य  : वि० [सं०√निंद्+ण्यत्] निंदा किया जाने के योग्य। निंदनीय।
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निद्र  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिसे चलाने पर शत्रुओं को नींद आ जाती थी।
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निद्रा  : स्त्री० [सं० √निंद+रक्, नलोप टाप्] प्राणियों की वह स्थिति जिसमें वे सुस्ताने तथा आरोग्य लाभ करने के निमित्त प्रकृतिशः कुछ समय तक चुपचाप निश्चेष्ट होकर पड़े रहते हैं। नींद। (साहित्य में यह एक संचारी भाव माना गया है।)
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निद्रा-गति  : स्त्री० [स० त०] एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी निद्रा की अवस्था में ही उठकर चलने-फिरने या कोई काम करने लगता है। (स्लीप वाकिंग) २. वनस्पतियाँ आदि का निद्रित अवस्था में भी बराबर बढ़ते या इधर-उधर होते रहना। (स्लीपिंग मूवमेन्ट)
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निद्राण  : वि० [सं० नि√द्रा (सोना)+क्त, तस्य, न, णत्व] १. जो सो रहा हो। २. मुदा हुआ। मीलित।
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निद्रायमान  : वि० [सं० नि√द्रा+यक्+शानच्, मुक्] जो निद्रित अवस्था में हो। सोया हुआ।
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निद्रालस  : वि० [निद्रा-अलस, तृ० त०] १. जो नींद आने के कारण शिथिल हो रहा हो। २. गहरी नींद में सोया हुआ।
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निद्रालु  : वि० [सं० नि√द्रा+आलुच्] १. जो निद्रा में हो या सो रहा हो। २. जिसे बहुत नींद आ रही हो। ३. जिससे नींद आने का परिचय मिल रहा हो। जैसे–निद्रालु आँखें। स्त्री० १. बन-तुलसी। २. बैंगन। ३. नली नामक गंध-द्रव्य।
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निद्रासेजन  : पुं० [सं० निद्रा-सम्जन् (उत्पत्ति)+णिच्+ल्युट्–अन्] कफ निकलने का रोग (जिसके कारण बहुत नींद आती है)।
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निद्रित  : भू० कृ० [सं० निद्र+क्त] जो सोया या निद्रा से भरा हो।
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निधड़क  : क्रि० वि० [हिं० नि+धड़क]=बेधड़क।
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निधन  : पुं० [सं० नि√धा (धारण)+क्यू–अन] १. नाश। २. मरण। मृत्यु। (प्रायः बड़े आदमियों के संबंध में प्रयुक्त) जैसे–महामना मालवीय जी का निधन। ३. जन्म-कुण्डली में लग्न से आठवाँ स्थान। (फलित ज्यो०) ४. जन्म-नक्षत्र से सातवाँ, सोलहवाँ और तेइसवाँ नक्षत्र। ५. कुल। वंश। ६. कुल का अधिपति। ७. विष्णु। वि० [सं०] निर्धन। (दे०)
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निधनक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. शवदाह। २. अन्त्येष्टि।
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निधनपति  : पुं० [ष० त०] प्रलय करनेवाले, शिव।
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निधनी  : वि० [ष० त०] प्रलय करनेवाले, शिव।
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निधनी  : वि० [हिं० नि+धनी] जिसके पास धन न हो। निर्धन। उदा०–धन मुझ निधनी का लोचनों का उजाला।–हरिऔध।
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निधरक  : क्रि० वि०=निधड़क (बेधड़क)। उदा०–निधरक तूने ठुकराया तब, मेरी टूटी मृदु प्याली।–प्रसाद।
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निधातव्य  : वि० [सं० नि√धा+तव्यत्] जिसका निधान किया जा सके।
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निधान  : पुं० [सं० नि√धा+ल्युट्–अन] १. रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव। स्थापन। २. सुरक्षित रखना। ३. वह पात्र या स्थान जिसमें कुछ स्थापित या स्थित हो। आधार। आश्रय। जैसे–दया-निधान। ४. भंडार। ५. निधि। ६. वह स्थान, जहाँ कोई पहुँचकर नष्ट या समाप्त होता हो।
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निधि  : स्त्री० [सं० नि√धा+कि] १. वह आधार, पात्र या स्थान जिसमें कोई गुण या पदार्थ व्याप्त अथवा स्थित हो। आश्रय-स्थान। जैसे–दयानिधि, गुणनिधि, क्षीरनिधि, जलनिधि। २. जमीन में गड़ी हुई धनराशि। ३. किसी विशेष कार्य के लिए अलग रखा या जमा किया हुआ धन। जैसे–नागर-विधि। ४. कुबेर के नौ रत्न, यथा–पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और बर्च्च। ५. उक्त के आधार पर नौ की संख्या। ६. विष्णु। ७. शिव। ८. जीवक नामक ओषधि। ९. नली नामक गंधद्रव्य।
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निधि-पति  : पुं० [ष० त०] निधिनाथ। (दे०)
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निधिनाथ  : पुं० [ष० त०] १. निधियों (जो गिनती में नौ हैं) के स्वामी, कुबेर, २. वह व्यक्ति जिसकी देख-रेख में कोई निधि, संपत्ति या कुछ वस्तुएँ रखी गई हों।
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निधिप  : पुं० [सं० निधि√पा (रक्षा)+क] निधिनाथ। (दे०)
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निधिपाल  : पुं० [निधि√पाल् (रक्षा)+णिच्+अच्] निधिनाथ (दे०)
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निधिबन  : पुं० [सं०] वृन्दावन के पास का एक कुंज। उदा०–निधिबन करि दंडौत, बिहारी कौ मुख जोवै।–भगवत रसिक।
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निधीश, निधीश्वर  : पुं० [सं० निधि-ईश, ष० त०, निधि-ईश्वर, ष० त०] निधिनाथ। (दे०)
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निधुवन  : पुं० [सं० नि-धुवन, ब० स०] १. मैथुन। २. केलि-कर्म। ३. हंसी-ठट्ठा। परिहास। ४. कंप।
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निधेय  : वि० [सं० नि√धा+यत्] १. निधान अर्थात् रखे या स्थापित किये जाने के योग्य। २. (धन या पदार्थ) जो निधान (या धरोहर) रूप में कहीं रखा जा सके या रखा जाने के योग्य हो। ३. स्थापित किये जाने के योग्य।
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निध्यात  : भू० कृ० [सं० नि√ध्या (चिन्तन)+क्त] जिस पर मनन या विचार किया गया हो।
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निध्यान  : पुं० [सं० नि√ध्या+ल्युट्–अन] १. ध्यान करना। २. देखना। ३. दृश्य। ४. निदर्शन।
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निध्रुव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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निध्वान  : पुं० [सं० नि√ध्वन् (शब्द)+घञ्] ध्वनि। शब्द।
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निनद  : पुं० [सं० नि√नद् (शब्द)+अप]=निनाद (शब्द)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनदी  : वि०=निनादी।
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निनयन  : पुं० [सं० नि√नी (ले जाना)+ल्युट्–अन] १. संपादित करना। २. जल छिड़कना। ३. अभिषेक करना।
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निनरा  : वि० [स्त्री० निनरी]=न्यारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनर्द  : पुं० [सं० नि√नर्द् (शब्द)+घञ्] वेद के मंत्रों का विशेष प्रकार का उच्चारण।
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निनाद  : पुं० [सं० नि√नद्+घञ्] शब्द, विशेषतः उच्च या घोर शब्द।
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निनादना  : स० [सं० निनाद्] उच्च या घोर शब्द करना।
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निनादित  : वि० [सं० निनाद+इतच्] १. शब्द से भरा हुआ। गुंजायमान। २. शब्द करता हुआ। शब्दित। पुं० शब्द।
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निनादी (दिन्)  : वि० [सं० निनाद+इनि] [स्त्री० निनादिनी] १. जिसमें से शब्द निकल रहा हो। २. जो शब्द उत्पन्न कर रहा हो।
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निनान  : पुं०, अव्य०=निदान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनानवे  : वि०, पुं०=निन्यानबे।
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निनाया  : पुं० [?] खटमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनार  : वि०=निनारा (न्यारा)।
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निनारना  : स०=निकालना (अलग करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनारा  : वि० [हिं० निनारना=निकालना] [स्त्री० निनारी] १. अलग किया या निकाला हुआ। २. न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनावाँ  : पुं० [?] एक रोग जिसमें जीभ, तालू आदि में छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं तथा जिनमें फरफराहट और पीड़ा होती है। वि० [हिं० नि+नाँव (नाम)] १. जिसका कोई नाम न हो। बेनाम। २. जिसका नाम अमांगलिक या अशुभ होने के कारण न लिया जाता हो या न लिया जाय। (स्त्रियों में प्रचलित भूत-प्रेत, साँप आदि के लिए सांकेतिक शब्द।)
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निनौना  : स०=नवाना (झुकाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनौरा  : पुं०=ननिहाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निन्यानबे  : वि० [सं० नवनवतिः] जो गिनती में नब्बे से नौ अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–99। मुहा०–निन्यानबे के फेर में आना या पड़ना=धन या रुपया कमाने, जमा करने या बुढ़ाने की धुन में होना। धन बढ़ाने की चिंता में पड़ना। विशेष–एक कहानी है कि किसी अपव्ययी को मितव्ययी बनाने के उद्देश्य से किसी ने निन्यानवे रुपए दे दिये थे। उसने सोचा कि इसमें एक और रुपया मिलाकर इसे पूरा सौ रुपया कर लेना चाहिए। तब से उसे धन एकत्र करने का चस्का लग गया और वह धनी हो गया। इसी कहानी के आधार पर यह मुहा० बना है।
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निन्यारा  : वि०=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निन्हियाना  : अ० [अनु० ना ना] बहुत अधिक दीनता प्रकट करना। गिड़गिड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःपक्ष  : वि० [सं०] निष्पक्ष। (दे०)
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निपंग  : वि० [सं० नि-पंगु] १. पंगु। २. निकम्मा।
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निपज  : स्त्री० [हिं० उपज का अनु०] वह सारा माल जो किसी कारखाने के कुछ निश्चित समय के अंदर बनकर बिक्री के लिए तैयार होता है। (आउट-पुट)
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निपजना  : अ० [सं० निष्पद्यते, प्रा० निपज्जइ] १. उत्पन्न होना। उपजना। २. पुष्ट होते हुए बढ़ना। ३. बनकर तैयार होना।
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निपजी  : स्त्री० [हिं० निपजना] १. लाभ। मुनाफा। २. दे० ‘उपज’।
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निपट  : स्त्री० [हिं० निपटना] निपटने की अवस्था, क्रिया या भाव। अव्य० [हिं० नि+पट] १. जिसमें किसी एक साधारण तत्त्व या अस्तित्व के सिवा और कुछ भी गुण या विशेषता न हो। निरा। जैसे–निपट गँवार या देहाती। २. एकदम से। सरासर। बिलकुल। जैसे–निपट झूठ बोलना। ३. बहुत। अधिक नितांत।
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निपटना  : अ० [सं० निवर्त्तन, प्रा० निबट्टना, पुं० हिं० निबटना] १. कार्य आदि के संबंध में, पूर्ण और संपन्न होना। २. (व्यक्ति का) कोई काम पूर्ण या संपन्न करने के उपरांत निवृत्त होना। (बाजारू) ४. झगड़े, विवाद आदि का निपटारा होना। ५. निपटारा करने के लिए किसी से भिड़ना या लड़ना। जैसे–तुम रहने दो, हम उनसे निपट लेंगे। ६. किसी चीज का खतम या समाप्त होना। जैसे–दीए का तेल निपटना। पद–निपटी रकम=ऐसा व्यक्ति जो विशेष समर्थ या काम का न रह गया हो। ७. ऋण, देन आदि का चुकता होना।
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निपटाना  : स० [हिं० निपटना का स०] १. कार्य आदि पूर्ण या संपादित करना। २. दो व्यक्तियों का अथवा परस्पर का झगड़ा तै या खतम करना। ३. ऋण, देन आदि चुकाना।
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निपटारा  : पुं० [हिं० निपटना] १. निपटने या निपटाने की अवस्था, क्रिया भाव। २. झगड़े, विवाद आदि का ऐसा अंत जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट रहें। ३. अंत। समाप्ति। ४. निर्णय। फैसला।
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निपटावा  : पुं०=निपटारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपटेरा  : पुं०=निपटाना।
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निपठ  : पुं० [सं० नि√पठ् (पढ़ना)+अप्] पाठ। अध्ययन।
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निपठन  : पुं० [सं० नि√पठ्+ल्युट्–अन] १. पढ़ना। २. किसी की कविता या पद कंठस्थ करके सुंदर रूप में पढ़कर लोगों को, उनके मनोविनोद के लिए सुनाना। (रेसिटेशन)
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निपतन  : पुं० [सं० नि√पत् (गिरना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निपतित] नीचे की ओर गिरना। निपात। पतन।
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निपतित  : भू० कृ० [सं० नि√पत्+क्त] जिसका निपतन हुआ हो। गिरा हुआ।
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निपत्ता  : वि० [सं० नि+हिं० पता] जिसका पता-ठिकाना न हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० निष्पत्र] पत्र-हीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपत्या  : नि√पत्+क्यप्–टाप्] १. रण-क्षेत्र। युद्ध की भूमि। २. गीली, चिकनी जमीन। ३. फिसलन।
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निपत्र  : वि० [सं० निष्पत्र] (पौधा या वृक्ष) जिसमें पत्ते न हों। पत्रहीन।
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निपना  : अ० [सं० निष्पन्न] पूरा या संपन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=निपजना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० निपुण] १. चतुर। चालाक। होशियार। २. भोला-भाला। सीधा-सादा।
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निपाक  : पुं० [सं० नि√पच् (पकना)+घञ्] १. परिपक्व होना। २. पकना या पकाया जाना। ३. पसीना। ४. किसी बुरे काम का परिणाम।
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निपाँगुर  : वि० [हिं० नि+पंगु] १. लँगड़ा। २. अपाहिज। पंगु।
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निपात  : पुं० [सं० नि√पत्+घञ्] [वि० नैपातिक] १. नीचे गिरने की अवस्था, क्रिया या भाव। पतन। २. अधःपतन। ३. विनाश। ४. मरण, मृत्यु। ५. नहाने का स्थान। स्नानागार। (कौ०) ६. भाषा-विज्ञान और व्याकरण में; ऐसा शब्द जो व्याकरण के नियमों के अनुसार न बने होने पर भी प्रायः शुद्ध माना जाता हो। ७. अव्यय (शब्द)। वि०=निपत्र (पत्र-हीन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपातक  : पुं० [सं०-पातक प्रा० स०] दूषित या बुरा कर्म। पाप।
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निपातन  : पुं० [सं० नि√पत्+णिच्+ल्युट्–अन] १. गिराने की क्रिया या भाव। २. ध्वंस। विनाश। ३. मार डालने या वध करने की क्रिया या भाव। हत्या।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निपातना  : स० [सं० निपातन] १. काट या मारकर अथवा और किसी प्रकार नीचे गिराना। २. ध्वस्त या नष्ट करना।
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निपातित  : भू० कृ० [सं० नि√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. नष्ट या वध किया हुआ। ३. अनियमित रूप से बना हुआ।
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निपाती (तिन्)  : वि० [सं० निपात+इनि] १. गिराने या फेंकनेवाला। २. ध्वस्त या नष्ट करनेवाला। ३. मार गिरानेवाला। पुं० महादेव। शिव। वि०=निपत्र (बिना पत्रों का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपान  : पुं० [सं० नि√पा+ल्युट्–अन] १. जल पीना। २. ऐसा गड्ढा जिसमें पानी जमा हो या जमा होता हो। ३. कूआँ। ४. दोहनी। ५. आश्रय-स्थान।
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निःपाप  : वि० [सं०] निष्पाप।
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निपीड़क  : वि० [सं० नि√पीड् (दुःख देना)+ण्वुल्–अक] १. पीड़ा देनेवाला। दुःखदायक। २. दबाने या मलने-दलनेवाला। ३. निचोड़ने वाला। ४. पेरनेवाला।
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निपीड़न  : पुं० [सं० नि√पीड्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निपीड़ित] १. कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने की क्रिया या भाव। पीड़ित करना। कष्ट या तकलीफ देना। २. खूब मलना-दलना। ३. निचोड़ना। ४. पसेव निकालना। पसाना। ५. पेरना।
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निपीड़ना  : स० [सं० निपीड़न] १. खूब अच्छी तरह दबाना या मलना-दलना। २. बहुत कष्ट या तकलीफ देना। ३. निचोड़ना। ४. पेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपीड़ित  : भू० कृ० [सं० नि√पीड्+क्त] १. जिसका निपीड़न हुआ हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया गया हो। पीड़ित। ३. जिस पर आक्रमण हुआ हो। आक्रांत। ४. कुचल या दबाकर, जिसका रस निकाला गया हो। पेरा हुआ। निचोड़ा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपीत  : भू० कृ० [सं० नि√पा (पीना)+क्त] १. पीया हुआ। २. सोखा हुआ। शोषित।
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निपीति  : स्त्री० [सं० नि√पा+क्तिन्] पीने की क्रिया या भाव। पान।
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निपुड़ना  : अ० [सं० निष्पुट, प्रा० निप्युड] १. खुलना। २. उघरा होना। सं० १. खोलना। २. उघरा करना।
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निपुण  : वि० [सं० नि√पुण् (अच्छा कार्य करना)+क] [भाव० निपुणता] (कला, विद्या आदि में) अनुभव, अभ्यास आदि के कारण जो कोई काम विशेष अच्छी तरह से करता हो। दक्ष। प्रवीण।
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निपुणता  : स्त्री० [सं० निपुण+तल्–टाप्] निपुण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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निपुणाई  : स्त्री०=निपुणता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुत्र  : वि० [स्त्री० निपुत्री] दे० ‘निपूता’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुन  : वि०=निपुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनई  : स्त्री०=निपुणाई (निपुणता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनता  : स्त्री०=निपुणता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनाई  : स्त्री०=निपुणता।
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निपूत  : वि० [स्त्री० निपूती]=निपूता।
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निपूता  : वि० [हिं नि+पूत] [स्त्री० निपूती] जिसके आगे पुत्र न हो या न हुआ हो। निःसंतान। (प्रायः गाली के रूप में प्रयुक्त)
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निपेटा  : वि० [हिं० नि+पेट] [स्त्री० निपेटी] १. जिसका पेट खाली हो अर्थात् जिसने कुछ खाया न हो। २. भुक्खड़।
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निपोड़ना  : स०=निपोरना।
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निपोरना  : स० [सं०] खोलना।
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निःप्रभ  : वि० [सं०] निष्प्रभ। (दे०)
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निःप्रयोजन  : वि० [सं०] निष्प्रयोजन। (दे०)
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निफन  : वि० [सं० निष्पन्न, प्रा० निष्फन्न] १. पूरा या समाप्त किया हुआ। २. पूरा। सब। सारा। क्रि० वि० पूरी तरह से। पूर्ण रूप से।
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निफरना  : अ० [हिं०=निफारना का अ०] चुभकर या धँसकर इस पार से उस पार होना। छिद कर आरपार होना। अ० [सं० नि+स्फुट] १. खुलना। २. खुल कर उधारा या स्पष्ट होना।
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निःफल  : वि० [सं०] निष्फल। (दे०)
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निफल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निफला  : स्त्री० [सं० नि-फल, ब० स०, टाप्] ज्योतिषमयी लता।
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निफाक  : पुं० [अ० निफ़ाक़] १. एकता का अभाव। २. द्वेषपूर्ण या विरोधजन्य स्थिति। वैमनस्य। फूट। क्रि० प्र०–डालना।–पड़ना।–होना।
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निफारना  : स० [हिं० न+फारना] १. इस पार से उस पार तक छेद करना। आरपार करना। बेधना। २. इस पार से उस पार निकालना या ले जाना। ३. उद्घाटित या प्रकट करना। खोलना। ४. स्पष्ट या साफ करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निफालन  : पुं० [सं०] देखने की क्रिया या भाव। देखना।
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निफोट  : वि० [सं० नि+स्फट] व्यक्ति। स्पष्ट।
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निंब  : स्त्री० [सं० निन्व् (सींचना)+अच्, बवयोरभेदात् नस्य मः] नीम का पेड़।
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निब  : स्त्री० [अं०] लोहे आदि का वह छोटा तथा चोंच के आकार का उपकरण जो कलम के अगले भाग में लगा रहता है और जिसे स्याही में डुबोकर लोग लिखते हैं।
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निँबकौरी  : स्त्री०=निमकौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबकौरी  : स्त्री०=निमकौड़ी।
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निबटना  : अ०=निपटना।
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निबटाना  : स०=निपटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबटारा  : पुं०=निपटारा।
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निबटाव  : पुं०=निपटारा।
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निबटेरा  : पुं०=निपटारा।
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निबड़ना  : अ०=निपटना।
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निबड़ा  : पुं० [?] एक तरह का घड़ा।
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निबद्ध  : भू० कृ० [सं० नि√बंध्+क्त] १. बँधा हुआ। २. रुका हुआ। निरुद्ध। ३. गुथा हुआ। गुंफित। ४. कहीं जड़ा, बैठाया या किसी में लगाया हुआ। ५. किसी पर अच्छी तरह ठहरा या लगा हुआ। जैसे–भगवान पर दृष्टि निबद्ध होना। ६. (आज-कल लेख या लेख्य) जो प्रामाणिक या यथार्थ सिद्ध करने के लिए सरकारी पंजी में विधिवत् चढ़वा या लिखवा दिया गया हो। जिसका निबंधन हो चुका हो। (रजिस्टर्ड) पुं० ऐसा गीत जो संगीत-शास्त्र के नियमों के अनुसार हर तरह से ठीक हो और जिसमें ताल, पद, रस, समय आदि के विधानों का पूरा पालन हुआ हो।
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निबंध  : पुं० [सं० नि√बन्ध (बाँधना)+घञ्] १. कोई चीज किसी के साथ जोड़ने, बाँधने या लगाने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह गठा या बँधा हुआ पदार्थ। ३. वह जिससे कोई चीज किसी के साथ जोड़ी, बाँधी लगाई जाय। बंधन। ४. प्राचीन भारत में, राज्य या शासन की ओर से निकलनेवाली आज्ञा या आदेश। (कौ०) ५. किसी के साथ बाँधकर रखनेवाला अनुराग या संपर्क। ६. ग्रंथ लेख आदि लिखने की क्रिया या भाव। ७. आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, वह विचारपूर्ण विवरणात्मक और विस्तृत लेख जिसमें किसी विषय के सब अंगों का मौलिक और स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया हो। (एसे) विशेष–हमारे यहाँ के प्राचीन साहित्यिक ऐसी व्यवस्था को निबंध कहते थे, जिसमें सब प्रकार के मतों का उल्लेख और गुण-दोष आदि की आलोचना या विवेचन होता था। आज-कल पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के आधार पर उसकी व्याख्या और स्वरूप का कुछ परिमार्जन हुआ है। ८. गीत। ९. ऐसी चीज जिसे किसी दूसरे को देने का वचन दिया जा चुका हो। १॰. आनाह नामक रोग जिसमें पेशाब बंद हो जाता है। ११. नीम का पेड़।
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निबंधक  : पुं० [सं० नि√बंध्+ण्लुल्–अक] १. निबंधन करनेवाला व्यक्ति। २. वह अधिकारी जो लेख आदि की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उन्हें राजकीय पंजी में प्रतिलिपि के रूप में निबंधित करता या लिखता है। (रजिस्ट्रार, न्याय और शासन विभाग का) ३. इसी से मिलता-जुलता वह अधिकारी जो किसी विभाग या संस्था के सब प्रकार के लेख रखता या निबंधित करता है। जैसे–विश्वविद्यालय या सहयोग-समितियों का निबंधक।
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निबंधन  : पुं० [सं० नि√बंध्+ल्युट्–अन्] [वि० निबद्ध] १. निबंध के रूप में लाने की क्रिया या भाव। २. बाँधने की क्रिया या भाव। ३. वह जिसमें कोई चीज बाँधी जाय। बंधन। ४. नियमों आदि में बाँध कर रखना। व्यवस्था। ५. कर्तव्य आदि के रूप में होनेवाला बंधन। ६. कारण। हेतु। ७. लेखों आदि के प्रामाणिक होने के लिए किसी राजकीय पंजी में लिखा या चढ़ाया जाना। (रजिस्ट्रेशन) ८. वीणा, सारंगी, सितार आदि की खूटियाँ जिनमें तार बँधे होते हैं। उपनाह। कान।
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निबंधनी  : स्त्री० [सं० निबंधन+ङीप्] १ बाँधनेव की वस्तु २. बेड़ी।
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निबंधी (धिन)  : स्त्री० [सं० निबंधन+इनि] १. बाँधनेवाला। २. किसी के साथ जुड़ा हुआ। संबद्ध। ३. कारण के रूप में रहकर कुछ करने या बनानेवाला। पुं०=निबंधक।
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निबर  : वि०=निर्बल।
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निबरना  : अ० [सं० निवृन्, प्रा० निबिड्ड] १. बँधी, फँसी या लगी हुई वस्तु का अलग होना। छूटना। २. एक में मिली हुई वस्तुओं का अलग होना। ३. कष्ट, बंधन आदि से मुक्त होना। उबरना। ४. समाप्त होना। ५. दूर होना। न रह जाना। ६. दे० ‘निपटना’। संयो० क्रि०–जाना।
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निँबरिया  : स्त्री० [हिं० नीम+बरी] वह उपवन जिसमें नीम के बहुत से पेड़ हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबल  : वि० [सं० निर्बल] [भाव निबलाई] १. निर्बल। दुर्बल। २. दूसरों की तुलना में घटिया और कम मूल्य या योग्यता का।
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निबह  : पुं० [?] समूह। झुंड। उदा०–मनहु उड़गन निबह आए मिलत तम तजि द्वेषु।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=निर्वह। २.=निबाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहना  : अ०=निभना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहुर  : पुं० [हिं० नि+बहुरना=लौटना] ऐसा स्थान जहाँ से कोई लौटकर न आता हो। यम-द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहुरा  : वि० [हिं० नि+बहुरना] १. जो जाकर लौटा न हो। २. ऐसा, जिसका लौटकर आना अभीष्ट न हो। (गाली)
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निँबादित्य  : पुं० [सं०] दे० ‘निंबार्काचार्य’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबारना  : स० [सं० निवारण] निवारण करना। छोड़ना।
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निंबार्क  : पुं० [सं०] १. निंबादित्य का चलाया हुआ वैष्णव संप्रदाय। २. निंबार्काचार्य।
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निंबार्काचार्य  : पुं० [सं०] भक्तमाल में उल्लिखित एक प्रसिद्ध कृष्णभक्त जो निंबार्क संप्रदाय के संस्थापक थे। कुछ लोग इन्हें श्री राधिका जी के कंकण का अवतार और कुछ लोग इन्हें सूर्य के अंश से उत्पन्न मानते हैं। [सं० ११7१-१२१9 वि०]
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निबाह  : पुं० [सं० निर्वाह] १. निभने या निभाने की अवस्था, क्रिया या भाव। निर्वाह। २. ऐसी स्थिति में काम चलाना या दिन बिताना जिसमें साधारणतः निश्चिंतता से और सुख-पूर्वक काम न चलता हो या दिन न बीतते हों। कठिनता से, परंतु सहनशीलता-पूर्वक किया जानेवाला निर्वाह। ३. किसी चले आए हुए क्रम या परंपरा का अथवा अपनी प्रतित्रा, वचन आदि का जैसे-तैसे परंतु बराबर किया जानेवाला। पालन। जैसे–प्रीति या बड़ों की चलाई हुई रीति का निबाह। विशेष–यद्यपि आज-कल ‘निबहना’ और ‘निबाहना’ की जगह ‘निभना’ और ‘निभाना’ रूप ही अधिक प्रशस्त तथा शिष्ट-सम्मत माने जाते हैं फिर भी इन क्रियाओं का भाव-वाचक रूप ‘निबह’ ही अधिक प्रचलित है, ‘निभाव’ नहीं।
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निबाहक  : वि० [सं० निर्वाहक] निबाहने या निभानेवाला। निबाह करनेवाला।
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निबाहना  : स० [सं० निर्वहण] १. निर्वाह या निबाह करना। २. निस्तार करना। छुड़ाना। उदा०–आजु स्वामि साँकरे निबाहौं।–जायसी। ३. दे० ‘निभाना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निबिड़  : वि०=निविड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबुआ  : पुं०=नीबू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबुकना  : अ०=निपटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंबू  : पुं०=नींबू (पौधा और उसका फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबेड़ना  : स० [सं० निवृत्त, प्रा० निविड्ड] १. बँधी, फँसी या लगी हुई वस्तु को अलग करना। मुक्त करना। छुड़ाना। २. आपस में मिली हुई चीजें अलग-अलग करना। छाँटना। ३. अलग या दूर करना। हटाना। ४. छोड़ना। त्यागना। ५. (काम या झगड़ा) निपटाना। ६. उलझन दूर करना। सुलझाना। ७. निर्णय या फैसला करना। झगडा निपटाना।
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निबेड़ा  : पुं० [हिं० निबेड़ना] १. निबेड़ने की क्रिया या भाव। २. कष्ट, विपत्ति आदि से होनेवाला उद्धार। ३. एक में मिली हुई चीजें चुन या छाँटकर अलग-अलग करना। ४. छोड़ देना। त्याग। ५. झगड़े का निर्णय या फैसला। ६. दे० ‘निपटारा’।
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निबेरना  : स० १.=निबेड़ना। २.=निपटाना।
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निबेरा  : पुं०=निबेड़ा (निपटारा)।
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निबेहना  : स० १.=निबेड़ना (निपटारा करना)। २.=निबाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबेही  : वि० [सं० निर्वेध] १. जिसका वेधन न किया जा सके। वेधरहित। २. छल-कपट आदि से रहित। उदा०–कोउ न मान मद तजेउ निबेही।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निबोधन  : पुं० [सं० नि√बुध् (जानना)+ल्युट्–अन] १. कोई काम समझने और सीखने की अवस्था या भाव। २. [नि√बुध्+णिच्+ल्युट्–अन] कोई काम सिखलाने और समझाने की क्रिया या भाव।
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निबौरी (बौली)  : स्त्री०=निमकोड़ी (नीम का फल)।
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निभ  : वि० [सं० नि√भा (दीप्ति)+क] अनुरूप, तुल्य या समान प्रतीत होनेवाला। (समस्त पदों के अंत में) पुं० १. प्रकाश। २. अभिव्यक्ति। ३. धूर्ततापूर्ण चाल।
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निभना  : अ० [हिं० निबहना का पश्चिमी रूप] १. कार्य के संबंध में, किसी तरह पूरा या संपादित होना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के संबंध में, चरितार्थ और फलित होना। ३. व्यक्ति के संबंध में, पारस्परिक संबंध न बिगड़ते हुए बरताव, व्यवहार या सौहार्द बना रहना। जैसे–दोनों भाइयों में नहीं निभेगी। ४. स्थिति के संबंध में, उसके अनुरूप अपने को बनाते हुए रहना या समय बिताना। क्रि० प्र०–जाना। ५. व्यक्ति का अपने कार्य, व्यवहार आदि में खरा और पूरा उतरना। उदा०–निभें युधिष्ठिर से नर-रत्न, एक साथ हैं तीन प्रयत्न।–मैथिलीशरण गुप्त। ६. छुट्टी या छुटकारा पाना। विशेष–यद्यपि यह शब्द मूलतः ‘निर्वाहण’ से ही व्युत्पन्न है, अतः इसका रूप ‘निबहना’ ही अधिक संगत है, फिर भी पश्चिमी हिन्दी में इसका ‘निभाना’ रूप ही प्रचलित है और वही प्रशस्त तथा शिष्ट-सम्मत है।
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निभरम  : वि० [सं० निर्भ्रम] जिसे या जिसमें किसी प्रकार का भ्रम या शंका न हो। क्रि० वि० बिना किसी खटके, डर या शंका के। बेधड़क।
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निभरमा  : वि० [सं० निर्भ्रम] १. जिसका रहस्य खुल या प्रकट हो गया हो। २. जिसका विश्वास उठ गया हो।
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निभरोस (सी)  : वि० [हिं० नि+भरोसा] [भाव० निभरोसा] १. जिसे किसी का भरोसा न हो। असहाय। निराश्रय। २. जिस पर भरोसा या विश्वास न किया जा सके।
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निभाउ  : वि० [हिं० नि+भाव] १. जिसमें कोई भाव न हो। भावरहित। २. अच्छे कामों या गुणों से रहित। उदा०–असरन सरन नाम तुम्हारौं हौं कामी कुटिल निभाउ।–सूर। पुं०=निबाह।
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निभागा  : वि०=अभागा।
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निभाना  : स० [हिं० निभाना का स० रूप] १. उत्तरदायित्व, कार्य आदि का निर्वाह करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि चरितार्थ या पालित करना। ३. थोड़ा-बहुत कष्ट सहते या त्याग करते हुए भी इस प्रकार आचरण, बरताव या व्यवहार करते चलना जिससे परस्पर संबंध बना रहे और कटुता न उत्पन्न होने पावे। ४. किसी दशा या स्थिति के अनुरूप अपने आपको ढाल या बनाकर समय बिताना।
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निभालन  : पुं० [सं० नि√भल (देखना)+णिच्+ल्युट्–अन] १. देखना। दर्शन। २. ज्ञान प्राप्त करना। परिचित होना। मालूम करना।
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निभाव  : पुं० [हिं० निभना] निभने या निभाने की क्रिया या भाव। निर्वाह। निबाह। (देखें)
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निभूत  : वि० [सं० नि-भूत प्रा० स०] बीता हुआ। गत।
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निभूत  : वि० [सं० नि√भृ (धारण)+क्त] १. धरा या रखा हुआ। २. छिपा हुआ। गुप्त। ३. अटल। निश्चित। ४. निश्चित। स्थिर। ५. बंद किया हुआ। ६. विनीत। नत। ७. धीर। शांत। ८. एकांत। निर्जन। सूना। ९. भरा हुआ। पूर्ण। १॰. अस्त होने के समय या स्थिति के पास पहुँचा हुआ। ११. विश्वसनीय और सच्चा।
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निभृतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० निभृत-आत्मन्, ब० स०] १. धीर। २. दृढ़।
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निभ्रांत  : वि०=निर्भ्रान्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निम  : पुं० [सं०] शलाका। शंकु। स्त्री०=नीम (पेड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमक  : पुं०=नमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमकी  : स्त्री० [फा० नमक] १. नीबू का अचार। २. छोटी टिकिया के आकार का एक प्रकार का नमकीन मोयनदार पकवान। वि=नमकीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमकौड़ी  : स्त्री० [हिं० नीम+कौड़ी] नीम का फल जिसमें उसका बीज रहता है और जो देखने में प्रायः कौड़ी की तरह का होता है.
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निमग्न  : वि० [सं० नि√मग्न् (डूबना)+क्त] [स्त्री० निमग्ना] १. डूबा हुआ। मग्न। २. कार्य, विचार आदि में पूर्ण रूप से तन्मय। लीन।
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निमछड़ा  : पुं० [हिं० छाँड़ना] १. ऐसा समय जिसमें कोई काम न हो। २. छुट्टी।
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निमज्जक  : वि० [सं० नि√मज्ज+ण्वुल्–अक] गोता या डुबकी लगाकर स्नान करनेवाला।
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निमज्जन  : पुं० [सं० नि√मज्ज्+ल्युट्–अक] १. गोता लगाकर किया जाने वाला स्नान। २. किसी वस्तु को किसी तरल पदार्थ में डुबोने की क्रिया या भाव। (इम्मर्शन) ३. किसी बात या विषय में अच्छी तरह मग्न या लीन होना।
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निमज्जना  : अ० [सं० निमज्जन] गोता लगाकर स्नान करना।
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निमज्जित  : भू० कृ० [सं० नि√मज्ज्+क्त] १. जो नहा चुका हो; विशेषतः गोता लगाकर नाहाया हुआ। २. डूबा हुआ। ३. डुबाया हुआ।
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निमटना  : अ०=निपटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमटाना  : स०=निबटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमटेरा  : पुं०=निपटारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमत  : वि० [हिं० नि+सं० मत्त] १. जो मत्त न हो। २. जिसका होश ठिकाने हो।
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निमता  : वि० [हिं० नि+सं० मत्त] १. जो मत्त न हो। २. जो उन्मत्त न हो। फलतः धीर और शांत।
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निमंत्रण  : पुं० [सं०√मंत्र (बुलाना)+ल्युट्–अन्] [वि० निमंत्रित] १. किसी को किसी काम के लिए आदरपूर्वक बुलाने की क्रिया या भाव। आग्रहपूर्वक यह कहना कि आप अमुक कार्य के लिए अमुक समय पर हमारे यहाँ पधारें। २. ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए अपने यहाँ बुलाने की क्रिया या भाव। ३. विवाह आदि शुभ अवसरों पर लोगों को आदरपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की क्रिया या भाव। न्योता। क्रि० प्र०–देना।–भेजना।–मानना।
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निमंत्रण-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें यह लिखा रहता है कि आप अमुक समय पर हमारे यहाँ आने की कृपा करें।
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निमंत्रना  : स० [सं० निमंत्रण] निमंत्रण देना। समादर बुलाना।
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निमंत्रित  : भू० कृ० [सं० नि√मंत्र+क्त] जिसे किसी काम या बात के लिए निमंत्रण दिया गया हो या मिला हो। बुलाया हुआ। आहूत।
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निमद  : पुं० [सं० नि√मद् (हर्ष)+अप्] स्पष्ट किन्तु मंद उच्चारण।
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निमरी  : स्त्री० [देश०] मध्यभारत में होनेवाली एक तरह की कपास।
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निमाज  : स्त्री०=नमाज। (देखें)। पुं०=नवाज।
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निमाज़ी  : वि०=नमाजी। (देखें)
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निमान  : वि० [सं० निम्न=गड्ढा] १. नीचा। २. ढालुआँ। पुं० १. नीचा या ढालुआँ स्थान। २. जलाशय। वि० [सं०] निमग्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमाना  : वि० [सं० निम्न] [स्त्री० निमानी] १. जो नीचे की ओर हो। नीचा। २. जिसकी नति या प्रवृत्ति नीचे की ओर हो। ३. ढालुआँ। ४. नम और विनीत स्वभाववाला। ५. सबसे डर और दबकर रहनेवाला। दब्बू। स०=नवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना। उदा०–माझ खीनिम निमाइ।–विद्यापति।
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निमानिया  : वि० [हिं० न मानना] [भाव० निमानी] १. न माननेवाला। २. जो नियम, मर्यादा, विनय आदि का पालन न करता हो। मनमानी करनेवाला। निरंकुश।
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निमानी  : वि० [हिं० नि+मानना] निमानिया। (दे०)। स्त्री० मनमाना आचरण या व्यवहार। स्वेच्छाचार।
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निमाल  : वि०, पुं०=निर्माल्य।
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निमि  : पुं० [सं०] १. आँखों की पलकें झपकाने की क्रिया या भाव। निमेष। २. महाभारत के अनुसार एक ऋषि जो दत्तात्रेय के पुत्र थे। ३. राजा इक्ष्वाकु के एक पुत्र जिनसे मिथिला का विदेह-वंश चला था।
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निमि-राज  : पुं० [सं० ष० त०] निमिवंशीय राजा जनक।
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निमिख  : पुं०=निमिष।
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निमित्त  : पुं० [सं० नि√मिद् (स्नेह)+क्त] [वि० नैमित्तिक] १. वह कार्य या बात जिससे किसी दूसरे कार्य या बात का साधन हो। २. व्यक्ति, जो नाम-मात्र के लिए कोई काम कर रहा हो, जब कि वह कार्य करवाने या प्रेरणाशक्ति देनेवाला और कोई होता है। ३. हेतु। ४. चिह्न। लक्षण। ५. शकुन। ६. उद्देश्य। लक्ष्य। ७. बहाना। मिस। अव्य० किसी काम या बात के उद्देश्य या विचार से। लिए। वास्ते। जैसे–पितरों के निमित्त दान देना।
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निमित्त-कारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] न्याय में, वह चीज, बात या व्यक्ति जो किसी के घटित होने, बनने आदि का आधार या मूल कारण हो।
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निमित्तक  : वि० [सं० निमित्त+कन्] जो निमित्त मात्र हो। पुं०=चुंबन।
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निमिष  : पुं० [सं० नि√मिष् (आँख खोलना)+क] १. पलकों का गिरना या बंद होना। आँखें मिचना। निमेष। २. काल या समय का उतना मान जितना एक बार पलक गिरने या झपकने में लगता है। ३. सुश्रुत के अनुसार पलकों में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ४. खिले हुए फूलों का मुँह बन्द होना। ५. विष्णु।
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निमिष-क्षेत्र  : पुं० [सं० मध्य० स० या ष० त०] नैमिषारण्य।
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निमिषांतर  : पुं० [सं० निमिष-अंतर, ष० त०] पलक गिरने या मारने का समय।
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निमिषित  : भू० कृ० [सं० नि√मिष्+क्त] निमीलित। भिचा या मुँदा हुआ।
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निमीलन  : पुं० [सं० नि√मील् (बन्द करना)+ल्युट्–अन] १. पलक गिराना या झपकाना। २. उतना समय जितना एक बार पलक गिरने में लगता है। निमिष। ३. मनुष्य की आँखें सदा के लिए बंद होना। अर्थात् मरना। मौत।
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निमीला  : स्त्री० [सं० नि√मील्+अ–टाप्] निमीलिका। (दे०)
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निमीलिका  : स्त्री० [सं० निमीला+कन्, टाप्, ह्रस्व, इत्व] १. आँख झपकने या बंद करने की क्रिया या भाव। २. [नि√मील्+णिच्+वुल् अक, टाप्, इत्व।] छल। व्याज।
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निमीलित  : भू० कृ० [सं० नि√मील्+क्त] १. झपका, झपकाया या बंद किया हुआ। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. मरा हुआ। मृत।
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निमुँहा  : वि० [हिं० नि+मुँह] [स्त्री० निमुँही] १. जिसका या जिसे मुँह न हो। बिना मुँह का। २. जो कुछ कहने या बोलने के समय भी चुप रहता हो। ३. लज्जा आदि के कारण जिसे कुछ कहने का साहस न होता हो। ४. जो बिना कुछ कहे-सुने अत्याचार, कष्ट आदि सह लेता हो। उदा०–निमुँही जानके वो मुझको मार लेते हैं।–जान साहब।
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निमूँद  : वि० [हिं० नि+मुँदना] १. जो मुँदा या बंद किया हुआ न हो। २. मुदित। बंद। उदा०–कौड़ा आँसू मूँदि कसि, साँकर बरुनी सजल। कीने बदन निमूँद, दृग-मलिंग डारे रहत।–बिहारी।
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निमूल  : वि०=निर्मूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमूहा  : वि० [स्त्री० निमुँही]=निमुँहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमेख  : पुं०=निमेष।
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निमेखना  : स० [सं० निमेष] पलकें गिराना, झपकाना या मूँदना।
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निमेट  : वि० [हिं० नि+मिटना] जिसे मिटाया न जा सके। न मिटनेवाला। अमिट। उदा०–काह कहौं हौं ओहि सों जेई दुख कीन्ह निमेट।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निमेष  : पुं० [सं० नि√मिष+घञ्] १. आँख की पलक का गिरना या झपकना। २. उतना समय जितना एक बार पलक गिराने या झपकाने में लगता है। ३. आँख की पलकें फड़कने का रोग। ४. एक बार का चना।
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निमेषक  : पुं० [सं० निमेष+कन्] १. पलक। २. जुगनूँ।
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निमेषकृत  : स्त्री० [सं० निमेष√कृ (करना)+क्विप्, तुक्] बिजली। विद्युत्।
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निमेषण  : पुं० [सं० नि√मिष्+ल्युट्–अन] पलकें गिरना या गिराना।
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निमोना  : पुं० [सं० नवान्न] हरे चने या मटर को पीसकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का सालन या रसेदार तरकारी।
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निमोनिया  : पुं० [अ०] अत्यधिक सरदी लगने के कारण होनेवाला एक प्रसिद्ध रोग, जिसमें फेफड़े में सूजन आ जाती है।
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निमौनी  : स्त्री० [सं० नवान्न] ऊख की फसल की कटाई आरंभ करने का दिन।
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निम्न  : वि० [सं० नि√म्ना (अभ्यास)+क] १. जो प्रसम, धरातल या स्तर से नीचा हो। २. जो अपेक्षाकृत कम ऊँचे स्तर पर हो। ३. जिसमें तीव्रता, वेग आदि साधारण से कम हो। जैसे–निम्न रक्त-चाप। पुं० चित्र-कला में दिखाया जानेवाला ऐसा स्थान, जो आसपास के स्थानों से नीचा या गहरा हो।
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निम्नग  : वि० [सं० निम्न√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० निम्नगा] जो नीचे की ओर जाता हो। जिसका प्रवृत्ति नीचे की ओर हो।
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निम्नगा  : स्त्री० [सं० निम्नगा+टाप्] १. नदी। २. रहस्य संप्रदाय में, नाड़ी।
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निम्नयोधी (धिन्)  : वि० [सं० निम्न√युद्ध (लड़ना)+णिनि] किले के नीचे से या नीची जमीन पर ले लड़नेवाला। वि० दे० ‘स्थल योधी’।
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निम्नांकित  : वि० [सं० निम्न-अंकित, स० त०] १. जिसका अंकन नीचे हुआ हो। २. निम्नलिखित।
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निम्नारण्य  : पुं० [सं० निम्न-अरण्य, कर्म० स०] पहाड़ की घाटी। (कौ०)
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निम्नोन्नत  : वि० [सं० निम्न-उन्नत, द्व० स०] (स्थल आदि) जो कहीं से नीचा और कहीं से ऊँचा हो। ऊबड़-खाबड़। पुं० चित्र-कला में आवश्यकतानुसार दिखाई जानेवाली ऊँचाई और निचाई। नतोन्नत। उच्चित्र (रिलीफ)
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निम्मन  : वि० [देश०] बढ़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निम्लुक्ति  : स्त्री० [सं० नि√म्लुच् (गति)+क्तिन्] सूर्यास्त।
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निम्लोच  : पुं० [सं० नि√म्लुच्+घञ्] सूर्य का अस्त होना।
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निम्लोचनी  : स्त्री० [सं०] मानसरोवर के पश्चिम में स्थित वरुण की नगरी।
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निम्लोचा  : स्त्री० [सं०] एक अप्सरा का नाम।
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निय  : वि० [सं० निज] अपना। निजी। उदा०–तिय निय हिय जु लगी चलत…।–बिहारी।
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नियत  : वि० [सं० नि√यम्+क्त] १. जो बाँध या रोककर रखा गया हो। बँधा हुआ। पाबंद। २. जो नियंत्रण या वश में किया या रखा गया हो। ३. ठीक किया या ठहराया हुआ। निश्चित। जैसे–किसी काम के लिए समय नियत करना। ४. आज्ञा, विधान आदि के द्वारा स्थित किया हुआ। (प्रेस्क्राइव्ड) ५. (व्यक्ति) जिसे किसी कार्य या पद पर नियुक्त या मुकर्रर किया गया हो। काम पर लगाया हुआ। (पोस्टेड) जैसे–किसी काम की देख-रेख के लिए अधिकारी नियत करना। पुं० महादेव। शिव।
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नियत-श्रावा  : पुं० [तृ० त०] नाटक में किसी पात्रा का ऐसा कथन, जो सब लोगों को सुनाने के लिए न हो, बल्कि कुछ विशिष्ट पात्रों को सुनाने के लिए ही हो।
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नियंतव्य  : वि० [सं० नि√यम् (नियंत्रण)+व्यत्] जिसे नियंत्रित या नियमित किया जा सके अथवा करना हो।
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नियंता (तृ)  : वि० [सं० नि√यम्+तृच्] [स्त्री० नियंत्री] १. नियंत्रण करने या रखनेवाला। दूसरों को दबाकर और वश में रखनेवाला। २. किसी कार्य या उचित रूप से प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। प्रबंधक और शासक। पुं० १. विष्णु। २. वह जो घोड़े फेरने या निकालने अर्थात् उन्हें चलना आदि सिखाने का काम करता हो। चाबुक-सवार।
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नियतात्मा (त्मन्)  : वि० [नियत-आत्मन्, ब० स०] अपने आपको वश में रखनेवाला। जितेंद्रिय। संयमी।
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नियताप्ति  : स्त्री० [नियता-आप्ति, कर्म० स०] नाटक में वह स्थिति जिसमें अन्य उपायों को छोड़कर एक ही उपाय से कार्य सिद्ध होने पर विश्वास प्रकट किया या रखा जाता है। जैसे–अब तो ईश्वर ही हमारा उद्धार कर सकता है।
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नियतांश  : पुं० [नियत-अंश, कर्म० स०] किसी बड़ी राशि में से कुछ लोगों के लिए अलग-अलग नियत या निश्चित किया हुआ अंश। (कोटा) जैसे–सब लोगों के लिए कपड़े या खाद्य पदार्थों का नियतांश स्थिर करना।
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नियति  : स्त्री० [सं० नि√यम्+क्तिन्] १. नियत होने की अवस्था या भाव २. बद्ध होने की अवस्था या भाव। ३. कोई ऐसा बँधा हुआ नियम जिसमें कुछ या कोई भी परिवर्तन न होता या न हो सकता हो। ४. ईश्वर या प्रकृति का विधान जो पहले से नियत होता है और जिसके अनुसार सब कार्य अपने समय पर बिना किसी व्यतिक्रम के और अवश्यम्भावी रूप से आप से आप होते चलते हैं। दैव। (डेस्टिनी) ५. प्रारब्ध या भाग्य जो उक्त का अथवा पूर्वकाल में अपने किये हुए कर्मों का परिणाम या फल माना जाता है और जिस पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। अदृष्ट। ६. निश्चित या स्थिर होने की अवस्था या भाव। मुदर्ररी। ७. दुर्गा या भगवती का एक नाम।
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नियतिवाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धांत जिससे यह माना जाता है कि (क) संसार में जो कुछ होता है, वह सब परंपरागत कारणों से अवश्यंभावी परिणाम या फल के रूप में होता है, और (ख) लौकिक कार्यों में मनुष्य का पुरुषार्थ गौण तथा ईश्वर की इच्छा या प्रकृति की प्रेरणा और विधान ही सबसे अधिक प्रबल होता है। (डिटरमिनिज्म) विशेष–प्राचीन काल में इसकी गणना नास्तिक मतों में की जाती थी।
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नियतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० नियति√वद् (बोलना)+णिनि] नियतिवाद-संबंधी। पुं० वह जो नियतिवाद का सिद्धांत मानता हो अथवा उसका अनुयायी हो। (डिटकमिनिस्ट)
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नियतेंद्रिय  : वि० [सं० नियत-इंद्रिय, ब० स०] जितेंद्रिय।
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नियंत्रक  : पुं० [सं० नि√यंत्र (निग्रह)+ण्वुल्–अक]=नियंता।
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नियंत्रण  : पुं० [सं० नि√यंत्र्+ल्युट्–अन] १. किसी प्रकार के नियम या बंधन में बाँधना। २. किसी को मनमाने क्रिया-कलाप आदि करने से रोकने के लिए उस पर कड़े बंधन लगाना। ३. व्यापारिक क्षेत्र में, शासन की किसी वस्तु का मूल्य स्वयं निश्चित करना और वह वस्तु समान मान या मात्रा में सब को अथवा किसी की आवश्यकता के अनुसार उसे देने का प्रबंध करना। (कंट्रोल, उक्त सभी अर्थों में)
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नियंत्रित  : भू० कृ० [सं० नि√यंत्र्+क्त] १. जिस पर नियंत्रण किया गया हो या हुआ हो। २. जिसे नियम आदि से बाँधकर ठीक रास्ते पर चलायी या लाया गया हो। ३. अधिकार या वश में किया या लाया हुआ। वश और शासन में रखा हुआ।
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नियम  : पुं० [सं० नि√मि (फेंकना)+अच्] १. अदला-बदली। २. विनिमय।
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नियम  : पुं० [सं० नि√यम्+अप्] १. ठीक तरह से चलाने के लिए बाँध या रोक कर रखना। २. प्रतिबंध। रुकावट। रोक। ३. आचार-व्यवहार, रीति-नीति आदि के संबंध में प्रणाली या प्रथा के रूप में निश्चित की हुई वे बातें, जिनका पालन आवश्यक कर्तव्य के रूप में होता है। कायदा। (रूल) जैसे–संस्था या समाज का नियम; राज्यशासन के नियम। ४. ऐसा निश्चित सिद्धान्त जो परम्परा से चला आ रहा हो जिसका पालन किसी काम या बात में सदा एक-सा होता रहता हो। दस्तूर। परंपरा। जैसे–जैसे प्रकृति का नियम। ५. अनुशासन। नियंत्रण। ६. कोई काम या बात नियमित रूप से अथवा किसी विशेष ढंग से करने या करते रहने का क्रम। जैसे–उनका नियम है कि वे रोज सबेरे उठकर टहलने जाते हैं। ७. योग के आठ अंगों में से एक जिसके अन्तर्गत तपस्या, दान, शुचिता, संतोष, स्वाध्याय आदि बातें आती हैं। (योग के यम नामक अंग की तुलना में नियम नामक अंग का पालन उतनी कठोरता या दृढ़ता से करना आवश्यक नहीं होता।) ८. मीमांसा में वह विधि जिससे अप्राप्त अंश की पूर्ति होती है। ९. साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार, जिसमें किसी काम या बात के एक ही व्यक्ति में या स्थान पर स्थित होने का उल्लेख होता है। जैसे–अब तो इस विषय के आप ही एक-मात्र ज्ञाता (या पंडित) हैं। १॰. किसी प्रकार की लगाई हुई शर्त। ११. विष्णु। १२. शिव।
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नियम-तंत्र  : वि० [ष० त०] जो किसी नियम के द्वारा चलता या चलाया जाता हो।
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नियम-पत्र  : पुं० [ष० त०] प्रतिज्ञा-पत्र। शर्त-नामा।
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नियम-पर  : वि० [स० त०] नियम के अनुसार चलने, चलाया जाने या होनेवाला।
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नियम-बद्ध  : वि० [तृ. त०] १. नियम या नियमों से बँधा हुआ। २. दे० ‘नियमित’।
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नियम-स्थिति  : स्त्री० [ब० स०] तपस्या।
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नियमतः (तस्)  : अव्य [सं० नियम+तस्] नियम के अनुसार।
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नियमन  : पुं० [सं० नि√यम्+ल्युट्–अन] [वि० नियमित, नियम्य] १. कोई काम ठीक तरह से चलाने अथवा लोगों को ठीक तरह से रखने के लिए नियम आदि बनाने और उनकी व्यवस्था करने की क्रिया या भाव। ठीक तरह से काम चलाने के लिए कायदे-कानून बनाना। (रेगुलेटिंग) २. नियम, बंधन आदि के द्वारा रोकना। निरोध। (रेजिस्ट्रेक्शन)। ३. नियंत्रण। ४. शासन। ५. दमन। निग्रह।
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नियमापत्ति  : स्त्री० [नियम-आपत्ति, स० त०] आधुनिक राजनीति में किसी सभा-समिति में बने हुए नियमों या विधानों अथवा परंपराओं या रूढ़ियों के विरुद्ध कोई आचरण, कार्य या व्यवहार होने पर उसके संबंध में की जानेवाली आपत्ति जिसके संबंध में अंतिम निर्णय करने का अधिकार सभापति को होता है। (प्वाइंट ऑफ आर्डर)
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नियमावली  : स्त्री० [नियम-आवली, ष० त०] १. किसी संस्था आदि से संबंध रखनेवाले नियमों की विवरण पुस्तिका। २. किसी कार्य-क्षेत्र या विभाग के कार्य-संचालन अथवा कार्यकर्ताओं का पथ-प्रदर्शन करनेवाले नियमों आदि की पुस्तिका। (मैनुअल)
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नियमित  : भू० कृ० [सं० नियम+णिच्+क्त] १. नियमों के अनुसार बँधा या स्थिर किया हुआ। नियम-बद्ध। २. जो नियम, विधान आदि के अनुकूल हो। ३. जो बराबर या सदा किसी नियम के रूप में होता आ रहा हो। (रेगुलर) जैसे–नियमित रूप से अपने समय पर कार्यलय में उपस्थित होना।
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नियमी (मिन्)  : वि० [सं० नियम+इनि] १. नियम के अनुसार होनेवाला। २. नियम-संबंधी। ३. (व्यक्ति) जो नियम या नियमों का पालन करता हो।
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नियम्य  : वि० [सं० नि√यम्+यत्] १. जिसके संबंध में नियम बनाया जा सकता हो। जो नियम बनाकर बाँधा जा सकता हो या बाँधा जाने को हो। नियमों के क्षेत्र में आने या लाये जाने के योग्य। २. जो नियंत्रण या शासन में रखा जा सकता हो या रखा जाने को हो।
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नियर  : अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअडु] समीप। पास। नजदीक।
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नियराई  : स्त्री० [हिं० नियर=निकट+आई (प्रत्य०)] निकटता। सामीप्य।
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नियराना  : अ० [हिं० नियर+आना] पास या समीप आना या पहुँचना। स० पास या समीप पहुँचाना।
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नियरे  : अव्य०=नियर (नजदीक)।
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नियाज  : स्त्री० [फा० नियाज] १. प्रार्थना। २. इच्छा। ३. जान-पहचान। परिचय। ४. आज्ञा। ५. मृक के उद्देश्य से दरिद्रों को दिया जानेवाला भोजन। (मुसल०)
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नियाजमंद  : वि० [फा०] [भाव० नियाज़मंदी] १. प्रार्थना करनेवाला। २. इच्छुक। ३. परिचित। ४. आज्ञाकारी।
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नियान  : अव्य०, पुं०=निदान।
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नियाम  : पुं० [सं० नि√यम्+घञ्] नियम। पुं० [फा०] तलवार का कोश। मियान।
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नियामक  : वि० [सं० नि√यम्+णिच्+ण्वुल्–अक] [स्त्री० नियामिका] १. नियम या विधान बनानेवाला। २. नियमों के क्षेत्र या बंधन में रखने या लानेवाला। ३. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० मल्लाह। माँझी।
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नियामक-गण  : पुं० [ष० त०] पारे को मारनेवाली औषधियों का समूह। (रसायन)
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नियामत  : स्त्री० [अ०] १. ईश्वर का दिया हुआ धन या वैभव। २. धन। संपत्ति। ३. अलभ्य या दुर्लभ पदार्थ। ऐसी बहुत बढ़िया चीज जो जल्दी न मिलती हो।
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नियार  : पुं० [हिं० न्यारा ?] जौहरियों, सुनारों आदि की दुकान का वह कूड़ा-करकट जो न्यारिये लोग ले जाकर साफ करते हैं और जिसमें से कभी-कभी बहुमूल्य धातुओं, रत्नों आदि के कण निकालते हैं।
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नियारना  : स० [हिं० नियार] जौहरियों, सुनारों आदि का कूड़ा-करकट साफ करके उसमें से बहुमूल्य धातुओं, रत्नों आदि के कण अलग करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नियारा  : वि०=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=नियार।
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नियारिया  : पुं०=न्यारिया।
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नियारे  : अव्य०=न्यारे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नियाव  : पुं०=न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नियुक्त  : भू० कृ० [सं० नि√युज् (जोड़ना)+क्त] १. जिसका नियोग या नियोजन किया गया हो अथवा हुआ हो। २. जो किसी काम या पद पर नियत किया या लगाया गया हो। तैनात या मुकर्रर किया हुआ। ३. जो किसी काम के लिए उद्यत, तत्पर या प्रेरित किया गया हो। ४. ठहराया या निश्चित किया हुआ। स्थिर। जैसे–समय नियुक्त करना।
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नियुक्ति  : स्त्री० [सं० नि√युज्+क्तिन्] १. नियुक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी व्यक्ति को किसी काम या पद पर लगाने की क्रिया या भाव। तैनाती। मुकर्ररी। (एप्वाइंटमेंट)
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नियुत  : वि० [सं० नि√यु (मिलाना)+क्त] दस लाख। पुं० १. दस लाख की संख्या। २. पुराणानुसार वायु को घोड़े का नाम।
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नियुत्वत्  : पुं० [सं० नियुत+मतुप्, मस्य वः] वायु। हवा।
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नियुद्ध  : पुं० [सं० नि√युद्ध (लड़ना)+क्त] १. हाथा-बाँही। २. कुश्ती।
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नियोक्तव्य  : वि० [सं० नि√युज्+तव्यत्] जिसका नियोजन किया जाने को हो या किया जा सकता हो।
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नियोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० नि√युज+तृच्] १. नियुक्त या नियोजित करनेवाला। २. लोगों को अपने यहाँ काम पर नियुक्त करनेवाला। (एम्पलायर)
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नियोग  : पुं० [सं० नि√युज्+घञ्] १. नियुक्त या नियोजित करने की अवस्था, क्रिया या भाव। नियत या मुकर्रर करना। २. किसी पदार्थ का उपयोग या व्यवहार। काम में लाना। ३. आज्ञा। आदेश। ४. निश्चय। ५. प्रेरणा। ६. अवधारण। ७. आयास। प्रयत्न। ८. प्राचीन भारतीय राजनीति में, कोई आपत्ति टालने या दूर करने का कोई विशिष्ट उपाय। ९. प्राचीन भारतीय आर्यों में प्रचलित एक प्रथा जिसके अनुसार किसी निःसंतान विधवा से संतान उत्पन्न कराने के लिए उसके देवर या पति के किसी उपयुक्त संगोत्री को उस विधवा के साथ संभोग करने के लिए नियत या नियुक्त किया जाता था। (धर्मशास्त्रों ने बाद में यह प्रथा वर्जित कर दी थी)
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नियोगस्थ  : वि० [सं० नियोग√स्था (ठहरना)+क] जिसका नियोग हुआ हो।
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नियोगी (गिन्)  : वि० [सं० नियोग+इनि़] १. नियुक्त। २. (किसी स्त्री० के साथ) नियोग करनेवाला।
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नियोग्य  : वि० [सं० नि√युज्+ण्यत्] (पुरुष या स्त्री) जिसका या जिससे नियोग हो सकता हो। पुं० प्रभु। मालिक। स्वामी।
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नियोजक  : पुं० [सं० नि√युज्+णिच्+ण्वुल–अक] वह जो दूसरों को किसी काम पर लगाता हो।
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नियोजन  : पुं० [सं० नि√युज्+णिच्+ल्युट्–अन] [वि० नियोजित, नियोज्य, नियुक्त] १. दूसरों को किसी काम में लगाने या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘आयोग’।
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नियोजना  : स० [सं० नियोजन] किसी को काम पर नियुक्त करना या लगाना। नियोजन करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नियोजनालय  : पुं० [सं० नियोजन-आलय, ष० त०] वह कार्यालय जो बेकारों को नौकरी आदि पर लगाने की व्यवस्था करता है। (एम्प्लायमेंट एक्सचेंज)
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नियोजित  : भू० कृ० [सं० नि√युज्+णिच्+क्त] जिसका कहीं नियोजन हुआ हो। काम पर लगाया हुआ।
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नियोज्य  : वि० [सं० नि√युज्+णिच्+यत्] जिसका नियोजन होने को हो या किया जाने को हो।
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नियोद्धा (द्धृ)  : पुं० [सं० नि√युध+तृच्] कुश्ती लड़नेवाला, पहलवान।
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निरंक  : वि० [सं० निर्–अंक, ब० स०] (कागज) जिस पर कोई अंक (अक्षर या चिह्न) न हो। कोरा। (ब्लैक)
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निरंकार  : वि०, पुं०=निराकर।
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निरकार  : वि०, पुं०=निराकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरंकुश  : वि० [सं० निर्–अंकुश, ब० स०] [भाव० निरंकुशता] १. जिस पर किसी प्रकार का अंकुश या नियंत्रण न हो। २. (व्यक्ति) जो स्वेच्छापूर्वक मनमाना आचरण या व्यवहार करता हो। ३. (शासक) जो मनमाना और अत्याचारपूर्ण शासन करता हो। (ड़ेस्पॉट)
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निरंकुश-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] वह राज्य जिसका सारा अधिकार किसी एक व्यक्ति (राजा) के हाथ में हो और जिस पर प्रजा के प्रतिनिधियों का कोई नियंत्रण न हो। (एब्सोल्यूट मॉनर्की)
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निरंकुशता  : स्त्री० [सं० निरंकुश+तल्–टाप्] १. निरंकुश होने की अवस्था या भाव। २. मनमाना और अत्याचारपूर्ण आचरण या व्यवहार।
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निरकेवल  : वि० [सं० निस्+और केवल] १. जिसमें किसी तरह का मेल न हो। खालिस। विशुद्ध। २. साफ। स्वच्छ। अव्य०=केवल।
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निरक्ष  : वि० [सं० निर्–अक्ष, ब० स०] १. बिना पासे का। २. जो पृथ्वी के मध्य भाग में हो। पुं० पृथ्वी की भूमध्य रेखा। (ईक्वेटर)
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निरक्ष-देश  : पं० [ष० त०] भूमध्य रेखा के आसपास के प्रदेश जिनमें रात-दिन का मान प्रायः बराबर रहता है।
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निरक्ष-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] नाड़ी-मंडल।
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निरक्षन  : पुं०=निरीक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरक्षर  : वि० [सं० निर्-अक्षर ब० स०] १. जिसमें अक्षर का प्रयोग न हो। २. जिसका अक्षर से कोई संबंध न हो, अर्थात् जो कुछ भी पढ़ा-लिखा न हो। ३. जो एक अक्षर भी न बोल रहा हो। अर्थात् बिलकुल चुप।
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निरखना  : स० [सं० निरीक्षण] १. ध्यानपूर्वक देखना। २. निरीक्षण करने के लिए देखना।
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निरंग  : वि० [सं० निर्–अंग, ब० स०] जिसका या जिसमें कोई अंग न हो। अंग-हीन। पुं० रूपक अलंकार का एक भेद। (साहित्य) वि० [हिं० नि+रंग] १. जिसका कोई एक रंग न हो। २. बेमेल। ३. खालिख। विशुद्ध। अव्य० निपट। निरा।
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निरग  : पुं०=नृग।
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निरगुन  : वि०=निर्गुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरगुनिया  : वि०=निरगुनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरगुनी  : वि० [सं० निर्गुण] १. जिसमें कोई गुण या विशेषता न हो। २. दे० ‘निर्गुण’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरग्नि  : वि० [सं० निर्-अग्नि, ब० स०] अग्निहोत्र न करनेवाला।
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निरघ  : वि० [सं० निर्-अघ, ब० स०] जिसने अध या पाप न किया हो निष्पाप।
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निरचू  : वि० [सं० निश्चित] १. जिसे अपने काम से अवकाश या छुट्टी मिल गई हो। २. जो हाथ में काम न होने के कारण खाली हो। ३. निश्चित।
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निरच्छ  : वि० [सं० निरक्षि] १. जिसे आँखें न हों। २. जिसे दिखाई न दे। अंधा।
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निरंजन  : वि० [सं० निर्–अंजन ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसने अंजन न लगाया हो। २. (नेत्र) जिसमें अंजन न लगा हो। ३. सब प्रकार के दुर्गुणों और दोषों से रहित। ३. माया, मोह आदि से निर्लिप्त या रहित। पुं० १. निर्गुण ब्रह्म। परमात्मा। २. महादेव। शिव। ३. वह परम शक्ति जो सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं। (कबीर पंथी)
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निरंजना  : स्त्री० [सं० निरंजन+टाप्] १. पूर्णिमा। २. दुर्गा।
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निरंजनी  : वि० [सं० निरंजन] १. निरंजन संबंधी। २. निरंजनी संप्रदायवालों का अनुयायी साधु।
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निरजर  : वि०, पुं०=निर्जर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरजल  : वि०=निर्जल।
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निरजी  : स्त्री० [देश०] संगमर्मर तराशने की संगतराशों की एक तरह की टाँकी।
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निरजोस  : पुं० [सं० निर्यास] १. निचोड़। २. निर्णय। ३. दे० ‘निर्यास’।
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निरजोसी  : वि० [हिं० निरजोश] १. निचोड़ निकालनेवाला। २. निर्णय करनेवाला।
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निरझर  : पुं०=निर्झर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरझरनी  : स्त्री०=निर्झरणी।
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निरझरी  : स्त्री०=निर्झरी।
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निरणै  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरत  : वि० [सं० नि√रम् (रमना)+क्त] किसी काम में लगा हुआ रत। लीन। पुं० [सं० नृत्य] नाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरतना  : स० [सं० नर्तन] नाचना।
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निरंतर  : वि० [सं० निर्–अंतर, ब० स०] १. अंतर रहित। जिसमें या जिसके बीच अंतर या दूरी न हो। २. जिसका क्रम बराबर चला गया हो। जिसकी परंपरा बीच में कहीं टूटी न हो। घना। निविड़। ४. सदा एक-सा बना रहनेवाला। स्थायी। जैसे–निरंतर नियम। ५. जिसमें कोई अंतर या भेद न हो। तुल्य। समान। ६. जो अंतर्धान या आँखों से ओझल न हो। क्रि० वि० १. बराबर। लगातार। २. सदा। हमेशा।
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निरंतराभ्यास  : पुं० [सं० निरंतर-अभ्यास, कर्म० स०] १. किसी काम या बात का निरंतर (नित्य या बराबर) किया जानेवाला अभ्यास। २. स्वाध्याय। (देखें)
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निरंतराल  : वि० [सं० निर्-अंतराल, ब० स०] जिसमें अंतराल (अवकाश) न हो।
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निरति  : स्त्री० [सं० नि√रम्+क्तिन्] १. अच्छी तरह किसी काम या बात में रत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। अत्यंत रति। २. किसी काम में लिप्त या लीन होने की अवस्था या भाव। स्त्री० [?] सुध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरतिशय  : वि० [सं० निर्–अतिशय, प्रा० स०] जिससे बढ़कर या अतिशय और कुछ न हो सके। हद दरजे का। पुं० परमात्मा।
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निरत्यय  : वि० [सं० निर्–अत्यय, ब० स०] १. जो खतरे, भय आदि से अलग, दूर या परे हो। २. दोषरहित।
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निरदई  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरदोषी  : वि०=निर्दोष।
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निरंध  : वि० [सं० निर्–अंध, प्रा० स०] १. बहुत अधिक या पूरा अन्धा। निरा अंधा। २. ज्ञान, बुद्धि आदि से बिलकुल रहित। ३. बहुत अधिक या घोर अंधकार से युक्त। उदा०–जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंधा।–कबीर। वि० [सं० निरंधस्] बिना अन्न का। निरन्न।
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निरधण  : वि० [सं० निः+धन्या] स्त्री-रहित। उदा०–नैरंति प्रसरि निरधण गिरि नीझर।–प्रिथीराज। वि०=निर्धन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरधातु  : वि० [सं० निर्धातु] १. जो या जिसमें धातु न हो। २. जिसके शरीर में धातु (वीर्य या शक्ति) न हो। बहुत ही कमजोर या दुर्बल।
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निरधार  : क्रि० वि० [सं० निर्धारण] निश्चित रूप से। उदा०–पाती पीछे-पीछे हम आवत हूँ निरधार।–सेनापति। वि०=निराधार। पुं०=निर्धारण।
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निरधारना  : स० [सं० निर्धारण] १. निश्चित या स्थिर करना। ठहराना। २. मन में धारण करना या समझना।
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निरधिष्ठान  : वि० [सं० निर्–अधिष्ठान, ब० स०] १. जिसका अधिष्ठान न हुआ हो। २. जिसका कोई आधार या आश्रय न हो। निराधार।
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निरध्व (न्)  : वि० [सं० निर्–अध्वन्, ब० स०] १. जो रास्ता भूल गया हो। २. भटकनेवाला।
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निरनउ (य)  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरना  : वि०=निरन्ना।
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निरनुग  : वि० [सं० निर्-अनुग, ब० स०] जिसका कोई अनुग या अनुयायी न हो।
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निरनुनासिक  : वि० [सं० निर्–अनुनासिक, ब० स०] (वर्ग) जिसका उच्चारण करते समय नाक से ध्वनि निकलती हो। अनुनासिक का विपर्याय।
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निरनुबंध  : पुं० [सं० निर्–अनुबंध, ब० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में, ऐसी कार्रवाई जिसके द्वारा निःस्वार्थ भाव से किसी दूसरे राजा या राष्ट्र का कोई उद्देश्य या कार्य सिद्ध कराया जाय। यह अर्थनीति का एक भेद कहा गया है।
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निरनुरोध  : वि० [सं० निर्–अनुरोध, ब० स०] १. अनुरोध से रहित। २. सद्भावनाशून्य। अमैत्रीपूर्ण।
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निरनै  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरन्न  : वि० [सं० निर्–अन्न, ब० स०] १. अन्न-रहित। बिना अन्न का। २. जिसने अभी तक अन्न न खाया हो। निराहार।
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निरन्ना  : वि० [सं० निरन्न] जिसने अभी तक अन्न न खाया हो। निराहार। पद–निरन्ने मुँह=बिना कुछ खाये हुए। जैसे–यह दवा निरन्ने मुँह खाइयेगा।
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निरन्वय  : वि० [सं० निर्–अन्वय, ब० स०] १. जिसके आगे संतान न हो। २. जिसका किसी से लगाव या संबंध न हो। ३. जिसका ठीक या पूरा पता न चला हो।
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निरपना  : वि० [हिं० निर+अपना] जो अपना न हो अर्थात् पराया या बेगाना।
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निरपमय  : वि० [सं० निर्–अपमय, ब० स०] १. निर्लज्ज। २. धृष्ट।
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निरपराध  : वि० [सं० निर्–अपराध, ब० स०] जिसने कोई अपराध न किया हो। निर्दोष। क्रि० वि० बिना किसी अपराध के। बिना अपराध किये।
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निरपराधी  : वि०=निरपराध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरपवर्त्त  : पुं० [सं० निर्-अपवर्त्त ब० स०] पीछे न मुड़नेवाला।
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निरपवाद  : वि० [सं० निर्–अपवाद, ब० स०] १. जिसमें कोई अपवाद न हो। बिना अपवाद का। २. जिसमें अपवाद, अर्थात् निंदा या बुराई की कोई बात न हो। अच्छा। भला। ३. निरपराध। निर्दोष।
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निरपाय  : वि० [सं० निर्–अपाय, ब० स०] १. जिसमें दोष या बुराई न हो। अच्छा। भला। २. जो नश्वर न हो। अविनश्वर।
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निरपेक्ष  : वि० [सं० निर्–अपेक्षा, ब० स०] [भाव० निरपेक्षी] १. जिसे किसी चीज की अपेक्षा न हो। २. जिसे किसी की चिंता या परवाह न हो। बे-परवाह। ३. जो किसी के अवलंब, आधार या आश्रय पर न हो। ४. जो किसी से कुछ लगाव या संपर्क न रखता हो। तटस्थ। ५. किसी से बचकर या अलग रहनेवाला। जैसे–भागवतनिरपेक्ष=वैष्णव भागवतों से दूर या बचकर रहनेवाला। ६. दे० ‘निष्पक्ष’। पुं० १. अनादर। २. अवज्ञा। अवहेलना।
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निरपेक्षा  : स्त्री० [सं० निर्–अपेक्षा, प्रा० स०] १. वह स्थिति जिसमें किसी चीज या बात की अपेक्षा न हो। २. लगाव या संपर्क या अभाव। ३. अवज्ञा। ४. ला-परवाही। ५. निराशा।
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निरपेक्षित  : वि० [सं० निर्–अपेक्षित, प्रा० स०] १. जिसको किसी की अपेक्षा न हो। २. जिससे कोई लगाव असंपर्क न रखा गया हो।
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निरपेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० निर्–अप√ईक्ष् (देखना)+णिनि] निरपेक्ष। (दे०)
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निरफल  : वि०=निष्फल।
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निरबंध  : वि०=निर्बंध।
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निरंबर  : वि० [सं० निर्-अंबर, ब० स०]=दिगंबर (नंगा)।
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निरबर्ती  : पुं० [सं० निवृत्ति] १. त्यागी। २. विरक्त।
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निरबल  : वि०=निर्बल।
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निरबंसिया  : वि०=निरबंसी।
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निरबंसी  : वि० [सं० निर्वंश] जिसके आगे वंश चलानेवाली संतान न हो। (गाली या शाप)
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निरबहना  : अ०=निबहना (निभना)।
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निरबान  : पुं०=निर्वाण।
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निरबाहना  : सं०=निबाहना (निभाना)।
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निरबिसी  : स्त्री०=निर्विषी (ओषधि)।
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निरंबु  : वि० [सं० निर्-अंबु, ब० स०] १. जिसमें जल या उसका कोई अंश न हो। निर्जल। २. जो बिना जल पीये रहता हो। ३. जिसमें जल का उपयोग या संपर्क न हो सकता हो। निर्जल। जैसे–निरंबु व्रत।
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निरबुद्धि  : पुं० [सं०] एक नरक का नाम।
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निरबेरा  : पुं०=निबेड़ा (निपटारा)।
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निरंभ  : वि० [सं० निरंभस्] १. निर्जल। २. जो बिना पानी पीये रहता या रह सकता हो।
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निरभय  : वि०=निर्भय।
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निरभर  : वि०=निर्भर।
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निरभिमान  : वि० [सं० निर्–अभिमान, ब० स०] जिसमें या जिसे अभिमान या घमंड न हो। अहंकार-रहित।
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निरभिलाष  : वि० [सं० निर्–अभिलाष, ब० स०] जिसे किसी काम या बात की अभिलाषा या इच्छा न हो।
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निरभेद  : वि० [सं० निर्+भेद] जो किसी प्रकार का भेद-भाव न रखता हो। भेद-भावशून्य।
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निरभ्र  : वि० [सं० निर्–अभ्र, ब० स०] (आकाश) जिसमें अभ्र या बादल न हों।
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निरम सोर  : पुं० [निरम ?+सोर=जड़] एक प्रकार की जड़ी जिससे अफीम का मादक प्रभाव दूर हो जाता है। (पंजाब)
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निरमना  : स० [सं० निर्माण] निर्मित करना। बनाना।
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निरमर  : वि० [हिं० निर+मर्ना] १. जो कभी मरे नहीं। अमर। २. जो जल्दी नष्ट न हो। वि०=निर्मल।
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निरमल  : वि०=निर्मल।
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निरमली  : स्त्री०=निर्मली। (देखें)
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निरमान  : पुं०=निर्माण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमाना  : स० [सं० निर्माण] निर्मित करना। बनाना। रचना।
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निरमायल  : पुं०=निर्माल्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमित्र  : वि० [सं० निर्–अमित्र, ब० स०] जिसका कोई अमित्र अर्थात् शत्रु न हो। पुं० १. त्रिगर्तराज का एक पुत्र जिसने कुरुक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की थी। २. नकुल (पांडव) का एक पुत्र।
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निरमूल  : वि०=निर्मूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमूलना  : स० [सं० निर्मूलन] १. निर्मूल करना। जड़ से उखाड़ना। २. इस प्रकार पूरी तरह से नष्ट करना कि फिर से पनपने या बढने की संभावना न रह जाय। समूल नष्ट करना।
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निरमोल  : वि०=अनमोल।
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निरमोलिक  : वि०=निरमोल (अनमोल)।
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निरमोही  : वि०=निर्मोही।
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निरय  : पुं० [सं० निर्√इ (गति)+अच्] नरक।
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निरयण  : वि० [सं० निर्–अयन, ब० स०] १. अयन-रहित। २. (ज्योतिष में काल-गणना) जो अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित न हो। पुं० भारतीय ज्योतिष में काल-गणना और पंचांग बनाने की वह विधि (सायन से भिन्न) जो अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित नहीं होती, बल्कि जिसमें किसी स्थिर तारे या बिंदु से सूर्य के भ्रमण का आरंभ स्थान माना जाता है। विशेष–सूर्य राशि-चक्र में बराबर घूमता या चक्कर लगाता रहता है। प्राचीन ज्योतिषी रेवती राशि नक्षत्र को सूर्य के चक्कर का आरंभ स्थान मानकर काल-गणना करते थे, और वहीं से वर्ष का आरंभ मानते थे। पर आगे चलकर पता चला कि इस प्रकार की गणना में एक दूसरी दृष्टि से त्रुटि है। वसंत संपात और शारद संपात के समय दिन और रात दोनों बराबर होते हैं, इसलिए वसंत-संपात के दिन गणना करने पर जो वर्ष-मान स्थिर होता था, वह उक्त पुरानी विधि के वर्ष-मान से ८.६ पल बड़ा होता था। यह नई गणना-विधि अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर आश्रित थी; इसलिए इसे सायन गणना कहने लगे, और इसके विपरीत पुरानी गणना-विधि निरयण कही जाने लगी। फिर भी बहुत दिनों से प्रायः सारे भारत में ग्रहलाघव आदि ग्रंथों के आधार पर पंचांगों में काल-गणना उसी पुरानी निरयण विधि से होती आई है; परंतु और आगे चलने पर पता चला कि सायन गणना-विधि में भी कुछ वैसी ही त्रुटि है, जैसी निरयण गणनाविधि में है, क्योंकि दोनों में दृश्य या प्रत्यक्ष गणित से कुछ न कुछ अंतर पड़ता है; इसलिए अनेक आधुनिक विचारशील ज्योतिषियों का आग्रह है कि किसी प्रकार दोनों विधियों की त्रुटियाँ दूर करके पंचांग दृश्य अर्थात् नक्षत्रों, राशियों आदि की ठीक और वास्तविक स्थिति के आधार पर और उसी प्रकार बनने चाहिएँ, जिस प्रकार उन्नत पाश्चात्य देशों में नॉटिकएक, मेनक आदि बनते हैं।
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निरर्गल  : वि० [सं० निर्-अर्गल, ब० स०] १. जिसमें अर्गल न हो। २. जिसमें या जिसके मार्ग में कोई बाधा या रुकावट न हो।
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निरर्थ  : वि० [सं० निर्–अर्थ, ब० स०]=निरर्थक।
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निरर्थक  : वि० [सं० निर्–अर्थ, ब० स०, कप्] १. (पद या शब्द) जिसका कोई अर्थ न हो। अर्थरहित। २. (कार्य या प्रयत्न) जिससे प्रयोजन सिद्ध न होता हो। ३. व्यर्थ। निष्फल। पुं० न्याय के २२ निग्रह-स्थानों में से एक जो उस दशा में माना जाता है, जब वादी के कथन का उत्तर इतना उलटा-पुलटा होता है कि उसका कुछ अर्थ ही न निकले।
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निरलस  : वि० [सं० निरालस्य] जिसमें आलस्य न हो। आलस्य से रहित। उदा०–निरलसरेवे स्वयं, अहर्निशि रहते जाग्रत।–पन्त।
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निरवकाश  : वि० [सं० निर्–अवकाश ब० स०] १. (स्थान) जिसमें अवकाश या खाली जगह न हो। २. (व्यक्ति) जिसे अवकाश या फुरसत न हो।
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निरवग्रह  : वि० [सं० निर्–अनग्रह, ब० स०] १. प्रतिबंध से रहित। स्वतंत्र। स्वच्छंद। २. जो किसी दूसरे की इच्छा पर अवलंबित या आश्रित न हो। ३. जिसमें कोई बाधा या विघ्न न हो। निर्विघ्न।
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निरवच्छिन्न  : वि० [सं० निर्–अवच्छिन्न, प्रा० स०] १. जिसका क्रम या सिलसिला न टूटा हो। अनवच्छिन्न। २. निर्मल। विशुद्ध। क्रि० वि० १. निरंतर। लगातार। २. निपट। निरा।
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निरवद्य  : वि० [सं० निर्–अवद्य, प्रा० स०] [स्त्री० निरवद्या] जिसमें कोई ऐब या दोष न हो और इसीलिए जिसे कोई बुरा न कह सके। अनिंद्य।
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निरवधि  : वि० [सं० निर्–अवधि, ब० स०] १. जिसकी अवधि नियत न हो। २. सीमा-रहित। क्रि० वि० निरंतर। लगातार।
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निरवलंब  : वि० [सं० निर्–अवलंब, ब० स०] १. जिसका कोई अवलंब, आश्रय या सहारा न हो। २. जिसका कोई ठौर-ठिकाना या रहने का स्थान न हो।
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निरवशेष  : वि० [सं० निर्–अवशेष, ब० स०] संपूर्ण। समग्र।
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निरवसाद  : वि० [सं० निर्–अवसाद, ब० स०] अवसाद से रहित।
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निरवसित  : वि० [सं० निर्–अवसित, प्रा० स०] १. (व्यक्ति) जिसके स्पर्श से खाने-पीने की चीजें और उनके पात्र अपवित्र या अशुद्ध हो जायँ अर्थात् छोटी जाति का। २. जाति से निकला हुआ। जैसे–चांडाल।
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निरवस्कृत  : वि० [सं० निर्–अवस्कृत, प्रा० स०] साफ किया हुआ। परिष्कृत।
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निरवहलिका  : स्त्री० [सं० निर्–अव√हल् (जोतना)+ण्वुल्–अक, टाप्, इत्व] १. चहारदीवारी। प्राचीर। २. चहारदीवारी से घिरा हुआ स्थान। बाड़ा।
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निरवाना  : स० [हिं० निराना का प्रे०] निराने का काम दूसरे से कराना। पुं०=निवारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरवार  : पुं० [हिं० निरवारना] १. निरवारने की क्रिया या भाव। २. छुटकारा। निस्तार।
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निरवारना  : स० [सं० निवारण] १. निवारण करना। २. झंझट, बखेड़ा अथवा बाधक तत्त्व या बात दूर करना या हटाना। ३. बंधन आदि से मुक्त या रहित करना। ४. कष्ट या संकट दूर करना। ५. छोड़ना। त्यागना। ६. सुलझाना। ७. झगड़ा या विवाद निपटाना।
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निरवाह  : पुं०=निर्वाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरवाहना  : स० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना।
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निरवेद  : पुं०=निर्वेद।
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निरव्यय  : वि० [सं० निर्-अव्यय, प्रा० स०] नित्य। शाश्वत।
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निरंश  : वि० [सं० निर्–अंश, ब० स०] (व्यक्ति) जिसे अपना प्राप्य अंश न मिला हो या न मिल सकता हो।
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निरशन  : वि० [सं० निर्–अशन, ब० स०] १. जिसने खाया न हो या जो न खाय। २. जिसमें भोजन करना मना हो। पुं० भोजन न करने अर्थात् निराहार रहने की अवस्था या भाव। उपवास।
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निरस  : वि० [हिं० नि+रस] १. जिसमें रस न हो। रस से रहित। २. जिसमें कोई स्वाद न हो। फीका। ३. किसी की तुलना में घटकर या हीन। ४. रूखा। सूखा। ५. विरक्त। पुं०=निरसन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरसंक  : वि०=निःशंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरसन  : पुं० [सं० निर्√अस् (फेंकना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरसित, निरस्त, वि० निरस्य] १. दूर करना। हटाना। २. साधिकार पहले का निश्चय या आज्ञा आदि रद करना। (कैन्सिलेशन, रिपील, रिसाइडिंग)। ३. रद करने का अधिकार या शक्ति। ४. निराकरण। परिहार। ५. नाश। ६. वध। ७. बाहर करना। निकालना। (डिसचार्ज)
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निरसा  : स्त्री० [सं० नि-रस, ब० स०, टाप्] एक प्रकार की घास जो कोंकण देश में होती है। वि०=निरस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरसित  : भू० कृ०=निरस्त।
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निरस्त  : भू० कृ० [सं० निर्√अस्+क्त] जिसका निरसन हुआ हो। (सभी अर्थों में)
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निरस्त्र  : वि० [सं० निर्–अस्त्र, ब० स०] १. जिसके पास अस्त्र न हो। अस्त्ररहित। उदा०–प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।–पंत। २. जिससे अस्त्र छीन या ले लिया गया हो। (अन-आर्मड)
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निरस्त्रीकरण  : पुं० [सं० निरस्त्र+च्चि, इत्व, दीर्घ√कृ+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरस्त्रीकृत] १. अस्त्रों से रहित करना। २. आधुनिक राजनीति में, परस्पर युद्ध की संभावना कम करने के लिए आविष्कृत एक उपाय जिसके अनुसार देश की सेना या सैनिक बल कम किया जाता है जिससे उसमें युद्ध करने की समर्थता घट जाय। (डिस–आर्मामेंट)
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निरस्त्रीकृत  : भू० कृ० [सं० निरस्त्र+च्वि, √कृ+क्त] (देश या सैनिक) जो अस्त्रहीन कर दिया गया हो।
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निरस्थि  : वि० [सं० निर्-अस्थि, ब० स०] जिसमें हड्डी न हो अथवा जिसमें से हड्डी निकाल दी गई हो।
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निरस्य  : वि० [सं० निर्√अस्+यत्] जिसका निरसन होने को हो या किया जा सके।
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निरहंकार  : वि० [सं० निर्–अहंकार, ब० स०] जिसमें या जिसे अहंकार न हो।
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निरहंकृत  : वि० [सं० निर्–अहंकृत, प्रा० स०] अहंकार-शून्य।
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निरहम्  : वि० [सं० निर्-अहम्, ब० स०] जिसमें अहं, भाव न हो।
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निरहेतु  : वि०=निर्हेतु।
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निरहेल  : वि० [सं० हेय] अधम। तुच्छ।
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निरा  : वि० [सं० निरालय, पुं० हिं० निराल] [स्त्री० निरी] १. (व्यक्ति) जिसमें कोई एक ही (उल्लिखित) गुण या अवगुण हो। जैसे–निरा पाजी, निरा मूर्ख। २. (पदार्थ) जिसमें कोई ऐसा तत्त्व न मिलाया गया हो, जिससे उसकी उपयोगिता या महत्त्व घटता हो। विशुद्ध। ३. केवल। सिर्फ। जैसे–निरी दाल के साथ रोटी खाना।
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निराई  : स्त्री० [हिं० निराना] निराने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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निराक  : पुं० [सं० निर्√अक् (वक्र गति)+घञ्] १. पाचन क्रिया। २. पसीना। ३. बुरे कर्म का विपाक।
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निराकरण  : पुं० [सं० निर्–आ√कृ+ल्युट्–अन] [वि० निराकरणीय, निराकृत] १. अलग या पृथक् करना। २. निकालना, दूर करना या हटाना। ३. निर्वासन। ४. अस्वीकृत या निरस्त करना। ५. उठाये या किए हुए प्रश्न, आपत्ति आदि का तर्कपूर्वक खंडन, निवारण या परिहार करना। ६. दे० ‘निरसन’।
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निराकांक्ष  : वि० [सं० निर्–आकांक्षा, ब० स०] जिसे कोई आकांक्षा या इच्छा न हो।
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निराकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० निर्-आ√कांक्ष् (चाहना)+णिनि] [स्त्री० निराकांक्षिणी]=निराकांक्ष।
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निराकार  : वि० [सं० निर्–आकार, ब० स०] १. जिसका कोई आकार न हो। आकार-रहित। २. कुरूप। बेडौल। भद्दा। पुं० १. ब्रह्म। २. विष्णु। ३. शिव। ४. आकाश।
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निराकाश  : वि० [सं० निर–आकाश, ब० स०] जिसमें आकाश अर्थात् कुछ भी खाली स्थान न हो या गुंजाइश न हो।
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निराकुल  : वि० [सं० निर्–आकुल, प्रा० स०] १. जो आकुल या विकल न हो। २. किसी के अंदर भरा हुआ या व्याप्त। ३. बहुत अधिक आकुल या विकल।
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निराकृत  : वि० [स० निर्-आ√कृ+क्त] [भाव० निराकृति] १. जिसका निराकरण हो चुका हो। २. रद्द या व्यर्थ किया हुआ। ३. जिसका खंडन हो चुका हो। ४. जो घबराया न हो।
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निराकृति  : वि० [सं० निर्-आकृति, ब० स०] १. आकृति-रहित। निराकार। २. जो वेद-पाठ या स्वाध्याय न करात हो। ३. जो पंच महायज्ञ न करता हो। पुं० १. रोहित मनु के एक पुत्र का नाम। २. [निर-आ√कृ+क्तिन्] निराकरण।
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निराकृती (तिन्)  : वि० [सं० निराकृत+इनि] निराकरण करनेवाला।
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निराक्रंद  : वि० [सं० निर्-आक्रंद, ब० स०] १. जो चिल्लाता या शिकायत न करता हो। २. (ऐसा स्थान) जहाँ किसी प्रकार का शब्द न सुनाई पड़ता हो।
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निराखरा  : वि०=निरक्षर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निराग  : वि० [सं० नि-राग, ब० स०] १. रागहीन। २. विरक्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरागस्  : वि० [सं० निर्-आगस्, ब० स०] पाप-रहित। निष्पाप।
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निराचार  : वि० [सं० निर्-आचार, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो आचारहीन हो। २. (चाल या रीति) जिसे समाज से मान्यता या स्वीकृति न मिली हो।
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निराजी  : स्त्री० [?] करघे में, हत्थे और तरौंछी के सिरों को मिलानेवाली लकड़ी। (जुलाहे)
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निराट  : वि० [हिं० निराल] १. दे० ‘निराला’। २. दे० ‘निरा’।
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निराटा  : वि० [स्त्री० निराटी]=निराला। उदा०–सोच है यहै कै संग ताके रंग भौन मांहिँ कौन धौं अनोखो ढंग रचत निटारी है।–रत्नाकर।
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निराडंबर  : वि० [सं० निर्-आडंबर, ब० स०] आडंबरहीन।
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निरातंक  : वि० [सं० निर्-आंतक, ब० स०] १. जो आतंकित न हो। २. जो आतंक न उत्पन्न करे। २. रोग-रहित। नीरोग।
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निरातप  : वि० [सं० निर्-आतप, ब० स०] १. जो तपता न हो। २. छायादार। ३. जो ताप से सुरक्षित हो।
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निरातपा  : वि० स्त्री० [सं० निरातप+टाप्] जो तपती न हो। स्त्री० रात।
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निरात्म  : वि० [सं० निर्-आत्मन्, ब० स०] [भाव० नैरात्य] आत्मा से रहित या हीन।
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निरादर  : पुं० [सं० निर्-आदर, प्रा० स०] १. आदर का अभाव। २. अपमान।
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निरादान  : वि० [सं० निर्-आदान, ब० स०] जो कुछ भी प्राप्त न कर रहा हो। पुं० [प्रा० स०] १. आदान या लेने का अभाव। २. (ब० स०) एक बुद्ध का नाम।
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निरादेश  : पुं० [सं० निर्-आ√दिश्+घञ्] चुकता करना। भुगताना।।
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निराधार  : वि० [सं० निर्-आधार, ब० स०] १. जिसका कोई आधार (आवलंब या आश्रय) न हो। २. जिसकी कोई जड़ या बुनियाद न हो। निर्मूल। ३. (कथन) जिसका कोई प्रमाण न हो और इसीलिए जो ठीक या वास्तविक न हो; फलतः अमान्य। ४. जिसे अभी तक कुछ या कोई सहारा न मिला हो।
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निराधि  : वि० [सं० निर्–आधि, ब० स०] आधि अर्थात् रोग, चिंताओं आदि से मुक्त या रहित।
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निरानंद  : वि० [सं० निर्-आनंद, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में या जिसे आनंद अथवा प्रसन्नता न हो। २. (काम या बात) जिसमें कुछ भी आनंद न मिल सकता हो। पुं० १. आनंद का अभाव। २. दुःख।
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निराना  : स० [सं० निराकरण] [भाव० निराई] खेत में फसल के साथ आप से आप उगे हुए और फसल को हानि पहुँचानेवाले निरर्थक पौधों तथा वनस्पतियों को उखाड़ना या खोदकर निकालना।
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निरापद  : वि० [सं० निर्-आपदा, ब० स०] १. जिसके लिए कोई आपदा या संकट न हो। २. जिसमें कोई आपका या संकट न हो। ३. जिससे किसी प्रकार की आपदा या संकट की संभावना न हो। क्रि० वि० बिना किसी प्रकार की आपत्ति या संकट के।
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निरापन  : वि० [हिं० निर+मरा० आपन] १. जो अपना न हो। २. पराया। बेगाना।
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निरापुन  : वि०=निरापन।
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निराबाध  : वि० [सं० नि्–आबाधा, ब० स०] जिसके साथ छेड़-छाड़ न हो। बाधा-रहित।
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निरामय  : वि० [सं० निर्-आमय, ब० स०] १. जिसे रोग न हो, फलतः नीरोग और स्वस्थ। २. कुशल। पुं० १. जंगली बकरा। २. सूअर।
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निरामिष  : वि० [सं० निर्–अमिष, ब० स०] १. (खाद्य पदार्थ या भोजन) जिसमें आमिष अर्थात् मांस या उसका कोई अंश अथवा रूप (अंडा या मछली) न मिला हो। २. (व्यक्ति) जो मांस (अंडा, मछली आदि) न खाता हो।
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निरामिष भोजी (जिन्)  : वि० [सं० निरामिष√भुज् (खाना)+णिनि] जो मांस न खाता हो; फलतः शाकाहारी। (वेजिटेरियन)
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निराय  : वि० [सं० निर्-आय, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे आय न हो रही हो। २. (व्यापार) जिससे आय न हो रही हो।
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निरायत  : वि० [सं० निर्-आयत, प्रा० स०] जो फैलाया या बढ़ाया हुआ न हो, फलतः सिकोड़ा हुआ।
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निरायास  : वि० [सं० निर्–आयास, ब० स०] बिना आयास या परिश्रम के होनेवाला। क्रि० वि० बिना आयास या परिश्रम किये।
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निरायुध  : वि० [सं० निर्–आयुध, ब० स०] निरस्त्र।
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निरार (ा)  : वि० [स्त्री० निरारी] १.=निराला। २.=न्यारा।
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निराल  : वि० [हि. निराला] १. निराला। २. निपट। निरा। ३. विशुद्ध।
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निरालक  : पुं० [सं०] एक तरह की समुद्री मछली।
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निरालंब  : वि० [सं० निर्-आलंब, ब० स०] १. जिसका कोई आलंब या सहारा न हो। २. जिसे कोई आश्रय या सहायता देनेवाला न हो। ३. आधार-हीन।
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निरालंबा  : स्त्री० [सं० निरालंब+टाप्] छोटी जटामासी
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निरालभ  : वि०=निरालंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरालय  : वि० [?] अपवित्र। उदा०–ऐसन देह निरालय बौरे मुए छुवे नहिं कोई हो।–कबीर।
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निरालस  : वि०, पुं०=निरालस्य।
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निरालस्य  : वि० [सं० निर्-आलस्य, ब० स०] जिसे आलस्य न हो, फलतः फुर्तीला। पुं० आलस्य का अभाव।
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निराला  : वि० [सं० निरालय] [स्त्री० निराली] १. (स्थान) जहाँ कोई आदमी या बस्ती न हो। २. एकांत और निर्जन। ३. (बात, वस्तु या व्यक्ति) जो अपनी बनावट, रूप, विशिष्टताओं आदि के कारण सबसे अलग तरह का और अनोखा हो। अनूठा। पुं० ऐसा स्थान जहाँ लोगों की भीड़-भाड़ या आना-जाना न हो। एकांत और निर्जन स्थान।
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निरालोक  : वि० [सं० निर्-आलोक, ब० स०] १. आलोक अर्थात् प्रकाश से रहित। २. अंधकारपूर्ण। अँधेरा। पुं० शिव।
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निरावना  : स०=निराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरावरण  : वि० [सं० निर्-आवरण, ब० स०] जिसके आगे या सामने कोई परदा न पड़ा हो। आवरण-रहित। खुला हुआ। पुं० [भू० कृ० निरावृत] १. आगे या सामने का परदा हटाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘अनावरण’।
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निरावलंब  : वि० [सं० निरवलंब] जिसका कोई अवलंब या सहारा न हो। अवलंब-रहित।
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निरावृत  : भू० कृ० [सं० निर्–आवृत, प्रा० स०] जिस पर से आवरण हटाया गया हो।
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निराश  : वि० [सं० निर्-आशा, ब० स०] [भाव० निराशा] जिसे आशा न रह गई हो, अथवा जिसकी आशा नष्ट हो चुकी हो। हताश।
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निराशक  : वि० दे० ‘निराश’।
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निराशा  : स्त्री० [स्त्री० निर्-आशा, प्रा० स०] १. आशा का अभाव। २. निराश होने की अवस्था या भाव।
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निराशावाद  : पुं० [ष० त०] वह लौकिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि संसार दुःखों से भरा है और इसलिए अच्छी बातों की ओर से मनुष्य को निराश रहना चाहिए, उनकी आशा नहीं करनी चाहिए। (पेसिमिज़्म)
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निराशावादी (दिन्)  : वि० [सं० निराशावादी+इनि] निराशावाद-संबंधी। पुं० वह जो निराशावाद के सिद्धांत को ठीक मानता हो। (पेसिमिस्ट)
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निराशिष्  : वि० [सं० निर्–आशिष्, ब० स०] १. आशीर्वाद शून्य। २. तृष्णा, वासना आदि से रहित।
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निराशी  : वि०=निराश।
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निराश्रय  : वि० [सं० निर्-आश्रय, ब० स०] १. जिसे कहीं कोई आश्रय या सहारा न मिल रहा हो। आश्रय-रहित। आधारहीन। बिना सहारे का। २. जिसका कोई संगी-साथी न हो।
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निरास  : पुं० [सं०] निरसन। (देखें) वि०=निराश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरासन  : वि० [सं० निर्-आसन, ब० स०] आसन-रहित। पुं०=निरसन।
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निरासा  : स्त्री०=निराशा।
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निरासी  : वि०=निराश।
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निरास्वाद  : वि० [सं० निर्-आस्वाद, ब० स०] जिसका या जिसमें स्वाद न हो। स्वाद-रहित।
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निराहार  : वि० [निर्-आहार, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसने भोजन का समय बीत जाने पर भी अभी तक खाया न हो। जिसने अभी तक भोजन न किया हो। २. (कर्म या व्रत) जिसके अनुष्ठान में भोजन न करने का विधान हो। क्रि० वि० बिना भोजन किये। भूखे रह कर। पुं० कुछ न खाने-पीने अर्थात् भूखे रहने की अवस्था या भाव।
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निरिंग  : वि० [सं० निर्-इंग, ब० स०] निश्चल। अचल।
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निरिंगिणी  : स्त्री० [सं० निर्√इंग (गति)+इनि–ङीष्] चिक। झिलमिली। परदा।
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निरिच्छ  : [सं० निर्-इच्छा, ब० स०] जिसे कोई इच्छा न हो। इच्छा रहित।
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निरिच्छन  : पुं० निरीक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरिच्छना  : स० [सं० निरीक्षण] निरीक्षण करना।
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निरिंद्रिय  : वि० [सं० निर्-इंद्रिय, ब० स०] १. जिसे कोई इंद्रिय न हो। इन्द्रियों से रहित। २. जिसकी इंद्रियाँ ठीक तरह से काम न देती हों।
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निरीक्षक  : वि० [सं० निर्√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्–अक] १. देखनेवाला। २. निरीक्षण करनेवाला। पुं० वह अधिकारी जो किसी काम का निरीक्षण या देख-भाल करने के लिए नियुक्त हो। (इन्सपेक्टर)
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निरीक्षण  : पुं० [सं० निर्√ईक्ष्+ल्युट्–अन] [वि० निरीक्षित, निरीक्ष्य] १. देखना। दर्शन। २. यह देखना कि सब काम ठीक तरह से हुए हैं या नहीं अथवा सब बातें ठीक हैं या नहीं। (इन्सपेक्शन)। ३. देखने की मुद्रा। ४. नेत्र। आँख।
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निरीक्षा  : स्त्री० [सं० निर्√ईक्ष्+आ–टाप्] १. देखना। दर्शन। २. निरीक्षण।
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निरीक्षित  : भू० कृ० [सं० निर्√ईक्ष्+क्त] १. देखा हुआ। २. जिसका निरीक्षण हुआ हो।
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निरीक्ष्य  : वि० [सं० निर√ईक्ष्+ण्यत्] १. जो देखा जा सके। जो दिखाई दे सके। २. जिसका निरीक्षण करना उचित हो। ३. जिसका निरीक्षण होने को हो।
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निरीक्ष्यमाण  : वि० [सं० निर्√ईक्ष्+यक्+शानच्] जो देखा जाता हो।
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निरीति  : वि० [सं० निर्-ईति, ब० स०] ईति अर्थात् अति-वृष्टि से रहित।
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निरीश  : वि० [वि निर्-ईश, ब० स०] १. जिसका कोई ईश या स्वामी न हो। बिना मालिक का। २. जो ईश्वर को न मानता हो। निरीश्वरवादी। नास्तिक। पुं० हल का फल।
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निरीश्वर  : वि० [सं० निर्-ईश्वर, ब० स०] १. (मत या सिद्धांत) जिसमें ईश्वर का अस्तित्व न माना जाता हो। २. (व्यक्ति) जो ईश्वर का अस्तित्व न मानता हो। नास्तिक।
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निरीश्वरवाद  : पुं० [ष० त०] यह विचारधारा या सिद्धांत कि विश्व का नियाँमंक या स्रष्टा कोई ईश्वर नहीं है। ईश्वर को न माननेवाला मत या सिद्धांत।
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निरीश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० निरीश्वरवाद+इनि] निरीश्वरवाद-संबंधी। पुं० निरीश्वरवाद का अनुयायी।
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निरीष  : पुं० [सं० निर्-ईषा, ब० स०] हल का फाल।
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निरीह  : वि० [सं० निर्-ईहा, ब० स०] [भाव० निरीहता, निरीहत्व] १. जिसे किसी काम या बात की ईहा (अर्थात् इच्छा या कामना) न हो। जिसे किसी तरह की चाह या वासना न हो। २. जो कुछ भी करना न चाहता हो और इसीलिए कुछ भी न करता हो। ३. उदासीन। विरक्त। ४. जो इतना नम्र और शांत हो कि किसी का अपकार या अहित न करता हो या न कर सकता हो। ५. सुकुमार। सुकोमल। जैसे–निरीह रूप।
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निरीहा  : स्त्री० [सं० निर्-ईहा, प्रा० स०] १. ईहा या चाह का अभाव। २. ईहा के अभाव के कारण होनेवाली निश्चेष्टता।
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निरुआर  : पुं०=निरुवार (छुटकारा)।
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निरुआरना  : स०=निरवारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरुक्त  : भू० कृ० [सं० निर्√वच् (कहना)+क्त] [भाव० निरुक्ति] १. ठीक, निश्चित और स्पष्ट रूप से कहा, बतलाया, या समझाया हुआ। जिसका उच्चारण, कथन या निरूपण उचित और यथेष्ट रूप में हुआ हो। सन्देह-रहित और स्पष्ट। २. जिसका निर्देश या विधान स्पष्ट रूप से हुआ हो। ३. चिल्लाकर या जोर से कहा हुआ। उद्घोषित। पुं० १. शब्द का ऐसा अर्थ या विश्लेषण जिससे उसके मूल या व्युत्पत्ति का भी पता चलता हो। २. वह ग्रन्थ या शास्त्र जिसमें शब्दों के अर्थ, पर्याय और व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हों। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धांत बतलानेवाला ग्रंथ या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलोजी) विशेष–हमारे यहाँ इस शास्त्र का आरंभ ऐसे वैदिक शब्दों के विवेचन से हुआ था, जो पुराने पढ़ चुके थे और जिनके अर्थों के संबंध में मत-भेद या संदेह होता था। शब्दों के ठीक अर्थ और आशय समझने-समझाने के लिए उनके व्युत्पत्तिक आधार का निरूपण या विवेचन करना आवश्यक होता था। यह काम वैदिक साहित्य के ही सम्बन्ध में हुआ था; अतः इसे छः वेदांगों में चौथा स्थान मिला था। ३. उक्त विषय का यास्काचार्य कृत वह ग्रंथ जो वैदिक निघुंट की व्याख्या के रूप में है और जिसमें यह बतलाया गया है कि शब्दों में वर्ण-लोप, वर्ण-विपर्यय, वर्णागम आदि किस प्रकार के और कैसे होते हैं। विशेष–यास्काचार्य का स्थान उस समय के निरुक्तकारों में चौदहवाँ था। इसी से पता चल जाता है कि हमारे यहाँ इस विषय का विवेचन कितने प्राचीन काल में आरंभ हुआ था।
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निरुक्ति  : स्त्री० [सं० निर्√वच्+क्तिन्] १. निरुक्त होने की अवस्था या भाव। २. शब्दों का ऐसा निरूपण या विवेचन जो यह बतलाता हो कि शब्द किस प्रकार और किन मूलों से बने हैं और उनके रूपों में किस प्रकार परिवर्तन या विकार होते हैं। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धान्त बतलानेवाली विद्या या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलाजी) ३. किसी शब्द का मूल रूप। व्युत्पत्ति। (डेरिवेशन) ४. साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें किसी शब्द के व्युत्पत्तिक विश्लेषण के आधार पर कोई अनूठी और कौशलपूर्ण बात कही जाती है; अथवा किसी नाम या संज्ञा का साधारण से भिन्न कोई विलक्षण व्युत्पत्तिक अर्थ निकालकर उक्ति में चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। यथा–(क) ताप करत अबलान को, दया न चित कछु आतु। तुम इन चरितन साँच ही दोषाकर विख्यातु। यहाँ ‘दोषाकर’ शब्द के कारण निरुक्ति अलंकार हुआ है। चंद्रमा को दोषाकर इसलिए कहते हैं कि वह दोषा (रात) करता है। पर यहाँ दोषाकर का प्रयोग दोषों का आकार या भंडार के अर्थ में किया गया है। (ख) रूप आदि गुण सों भरी तजिकै व्रज-बनितान। उद्धव कुब्जा बय भये निर्गुण वहै निदान। यहाँ ‘निर्गुण’ शब्द की दो प्रकार की निरुक्तियों या व्युत्पत्तियों का आधार लेकर चमत्कार उत्पन्न किया गया है। आशय यह झलकाया गया है कि जो कृष्ण निर्गुण (अर्थात् सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे या रहित) कहे जाते हैं, वे कुब्जा जैसी निर्गुण (अर्थात् सब प्रकार के अच्छे गुणों या बातों से रहित या हीन) स्त्री के फेर में पड़कर अपना ‘निर्गुण’ वाला विश्लेषण चरितार्थ या सार्थक कर रहे हैं। इसी प्रकार के कथनों की गिनती निरुक्ति अलंकार में होती है।
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निरुच्छ्वास  : वि० [सं० निर्-उच्छ्वास, ब० स०] १. (स्थान) जहाँ बहुत से लोग इस प्रकार भरे हों कि उन्हें साँस तक लेने में बहुत कठिनता हो। २. (स्थान) जहाँ बैठने से दम घुटता हो।
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निरुज  : वि०=नीरुज (नीरोग)।
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निरुत्तर  : वि० [सं० निर्-उत्तर, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो किसी प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण मौन हो गया हो। २. (प्रश्न) जिसका उत्तर न दिया गया हो या न दिया जा सके।
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निरुत्साह  : वि० [सं० निर्-उत्साह, ब० स०] १. जिसमें उत्साह न हो। २. जिसका उत्साह न रह गया हो। पुं० [प्रा० स०] उत्साह का न होना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निरुत्साहित  : भू० कृ० [सं० निरुत्साह+इतच्] जिसका उत्साह नष्ट हो गया हो या नष्ट कर दिया गया हो।
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निरुत्सुक  : वि० [सं० निर्-उत्सुक, प्रा० स०] [भाव० निरुत्सुकता] जो (किसी काम या बात के लिए) उत्सुक न हो।
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निरुदक  : वि० [सं० निर्-उदक, ब० स०] १. बिना जल का। २. (स्थान) जिसमें या जहाँ जल न हो।
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निरुदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निरुदित]=निर्जलीकरण।
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निरुद्देश्य  : वि० [सं० निर्-उद्देश्य, ब० स०] जिसका कोई उद्देश्य न हो। अव्य० बिना किसी उद्देश्य के। यों ही।
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निरुद्ध  : वि० [सं० नि√रुद्ध (रोकना)+क्त] [भाव० निरोध] १. जिसका निरोध किया गया हो। २. रुका या रोका हुआ। ३. बन्धन में डाला या पड़ा हुआ। पुं० योग में वर्णित पाँच प्रकार की मनोवृत्तियों में से एक, जिसमें चित्त अपनी कारणीभूत प्रकृति में मिलकर निश्चेष्ट हो जाता है।
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निरुद्ध-प्रकाश  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का रोग, जिसमें मूत्रद्वार बंद-सा हो जाता है और पेशाब बहुत रुक-रुककर होता है।
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निरुद्धकंठ  : वि० [ब० स०] १. जिसका दम घुट गया हो। २. जिसका गला (आवेश, मनोवेग आदि के कारण) रुँध गया हो और इसी लिए जिससे स्पष्ट उच्चारण न निकलता हो।
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निरुद्धगुद  : पुं० [ब० स०] पेट में मल जमा होने या रुकने का एक रोग।
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निरुद्यम  : वि० [सं० निर्-उद्यम, ब० स०] [भाव० निरुद्यमता] १. जो उद्यम या उद्योग न करता हो। २. जिसके पास कोई उद्यम या उद्योग न हो।
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निरुद्यमा (मिन्)  : वि० [सं० निरुद्यम+इनि] (व्यक्ति) जो उद्यम न करता हो, फलतः आलसी और कामचोर।
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निरुद्योग  : वि० [सं० निर्-उद्योग, ब० स०] १. जो उद्योग या प्रयत्न न करता हो। २. जिसके हाथ में कोई उद्योग या काम न हो।
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निरुद्योगी  : वि०=निरुद्योग।
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निरुद्वेग  : वि० [निर्-उद्वेग, ब० स०] जिसमें उद्वेग न हो। उत्तेजना और क्षोभ से रहित, फलतः धीर और शांत।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निरुपकार-आधि  : स्त्री० [सं०] वह पूँजी, जो किसी आमदनी वाले काम में न लगी हो, बल्कि यों ही व्यर्थ पड़ी हो।
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निरुपजीव्य भूमि  : स्त्री० [सं० निर्-उपजीव्या, प्रा० स०] ऐसी भूमि जिस पर किसी का गुजर या निर्वाह न हो सकता हो। (कौ०)
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निरुपद्रव  : वि० [सं० निर्-उपद्रव, ब० स०] [भाव० निरुपद्रवता] १. (स्थान) जहाँ उपद्रव न होता हो। २. (व्यक्ति) जो उपद्रवी न हो।
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निरुपद्रवता  : स्त्री० [सं० निरुपद्रव+तल्–टाप्] निरुपद्रव होने की अवस्था का भाव।
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निरुपद्रवी (विन्)  : वि० [सं० निर्-उपद्रविन्, प्रा० स०] जो कुछ भी उपद्रव न करे; फलतः धीर और शांत।
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निरुपपत्ति  : वि० [सं० निर्-उपपत्ति, ब० स०] १. जिसकी कोई उपपत्ति न हो। २. जो उपयुक्त या युक्त न हो।
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निरुपभोग  : वि० [सं० निर् उपभोग, ब० स०] १. (पदार्थ) जिसका किसी ने उपभोग न किया हो। २. (व्यक्ति) जिसने किसी विशिष्ट वस्तु का भोग या उपभोग कर आनंद प्राप्त न किया हो। पुं० [प्रा० स०] उपभोग का अभाव।
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निरुपम  : वि० [सं० निर्-उपमा, ब० स०] जिसकी कोई उपमा न हो; अर्थात् बहुत बढ़िया और बेजोड़। पुं० राष्ट्रकूट-वंश के एक राजा का नाम।
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निरुपमा  : स्त्री० [सं० निरुपम+टाप्] गायत्री का एक नाम।
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निरुपमित  : वि० [सं० निर्-उपमित, प्रा० स०] [स्त्री० निरुपमिता] जिसकी उपमा किसी से न दी जा सकती हो। निरुपम। उदा०–वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।–निराला।
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निरुपयोग  : वि० [सं० निर्-उपयोग, ब० स०] (पदार्थ) जिसका कोई उपयोग न हो अथवा जो अभी तक उपयोग में न लाया गया हो।
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निरुपयोगी (गिन्)  : वि० [सं० निर्-उपयोगिन्, प्रा० स०] जो उपयोग में आने के योग्य न हो। निकम्मा।
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निरुपस्कृत  : वि० [सं० निर्-उपस्कृत, प्रा० स०] १. जो उपस्कृत न हो। अलांछित। २. जो बदला न गया हो। ३. जिसमें मिलावट न हुई हो। बेमेल। विशुद्ध।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निरुपहत  : वि० [सं० निर्+उपहत, प्रा० स०] १. जो उपहत या आहत न हुआ हो। २. शुभ।
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निरुपाख्य  : वि० [सं० निर्-उपाख्या, ब० स०] १. जिसकी व्याख्या न हो सके। २. जो कभी हीन हो सकता। असंभव और मिथ्या। पुं० ब्रह्मा।
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निरुपाधि  : वि० [सं० निर्-उपाधि, ब० स०] १. जिसमें किसी प्रकार की उपाधि न हो। २. जो कुछ बी उपद्रव न करता हो। धीर और शांत। ३. जिसमें बंधन, बाधा, रुकावट या विघ्न न हो। ३. माया, मोह आदि से रहित। पुं० ब्रह्म की एक संज्ञा।
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निरुपाधिक  : वि०=निरुपाधि।
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निरुपाय  : वि० [सं० निर्-उपाय, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो कोई उपाय न कर रहा हो या न कर सकता हो। २. (कार्य या विषय) जिसका या जिसके लिए कोई उपाय न हो सके। अव्य० उपाय न रहने की दशा में। लाचारी की हालत में।
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निरुपेक्ष  : वि० [सं० निर्-उपेक्षा, ब० स०] जिसकी उपेक्षा न की जा सकती हो।
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निरुवरना  : अ० [सं० निवारण] निवारण या निवारित होना। दूर होना। स०=निरुवारना।
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निरुवार  : पुं० [सं० निवारण] १. निवारण करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. छुटकारा। बचाव। ३. निपटारा। निराकरण। ४. निर्णय। फैसला। ५. निश्चय।
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निरुवारना  : स० [हिं० निरुवार] १. निवारण करना। २. बंधन आदि से मुक्त करना। छुड़ाना। ३. उलझी हुई चीज को सुलझाना। ४. निपटारा करना। ५. निर्णय या निश्चय करना।
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निरूढ़  : वि० [सं० निर्√रुह् (उत्पत्ति)+क्त] [स्त्री० निरूढ़ा] १. उत्पन्न। २. प्रसिद्ध। विख्यात। ३. अविवाहित। कुआँरा। ४. (शब्द का अर्थ) जो उसके व्युत्पत्तिक अर्थ से भिन्न होता है और परम्परा से स्वीकृत होता है। पुं० एक प्रकार का पशु यज्ञ।
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निरूढ़-लक्षणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] लक्षणा का एक भेद, जो उस अवस्था में माना जाता है, जब किसी शब्द का गृहीत अर्थ (व्युत्पत्तिक अर्थ से भिन्न) प्रचलित और रूढ़ हो जाता है।
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निरूढ़वस्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] पिचकारी के आकार का एक प्रकार का उपकरण जिसके द्वारा रोगी के गुदा-मार्ग से ओषधि पहुँचाई जाती है। (वैद्यक)
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निरूढ़ा  : स्त्री० [सं० निरूढ़+टाप्] निरूढ़-लक्षणा। (दे०)
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निरूढ़ि  : स्त्री० [सं० नि√रूह्+क्तिन्] १. ख्याति। प्रसिद्धि। २. दे० ‘निरूढ़-लक्षणा’।
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निरूप  : वि० [हिं० नि+सं० रूप] १. जिसका कोई रूप न हो। २. कुरूप। बद-शकल। भद्दा। पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. देवता। ३. आकाश।
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निरूपक  : मनं वि० [सं० नि√रूप् (विचार करना)+णिच्+ण्वुल्–अक] किसी बात या विषय का निरूपण करनेवाला।
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निरूपण  : पुं० [सं० नि√रूप्+णिच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरूपित, वि० निरूप्य] १. छान-बीन तथा सोच-विचार कर किसी बात या विषय का विवेचन करना। २. अपना मत दूसरों को समझाते हुए उनके सम्मुख रखना। ३. निर्णय। ४. निदर्शन।
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निरूपना  : अ० [सं० निरूपण] १. निरूपण करना। २. निर्णय या निश्चय करना।
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निरूपम  : वि०=निरुपम।
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निरूपित  : भू० कृ० [सं० नि√रूप्+णिच्+क्त] (बात या विषय) जिसका निरूपण हो चुका हो।
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निरूपिति  : स्त्री० [सं० नि√रूप्+णिच+क्तिन्] निरूपण।
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निरूप्य  : वि० [सं० नि√रूप्+णिच्+यत्] जिसका निरूपण होने को हो या किया जाना चाहिए।
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निरूह  : पुं० [सं० निर्√ऊह (वितर्क)+घञ्] १. वस्ति का एक भेद। २. तर्क। ३. निश्चय ४. पूर्ण वाक्य।
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निरूह-वस्ति  : स्त्री० [सं० मयू० स०] निरूढ़वस्ति। (दे०)
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निरूहण  : पुं० [सं० निर् ऊह+ल्युट्–अन] १. वस्ति का प्रयोग। २. तर्क करना। ३. निश्चय करना।
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निरेखना  : स०=निरखना।
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निरै  : पुं० [सं० निरय] नरक।
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निरैठा  : पुं० [सं० निर्+ईहा या इष्ट] [स्त्री० निरैठी] मनमौजी। मस्त। उदा०–रूप गुन ऐंठी सु अमैठी, उर पैठी बैठी ताड़नि निरैठी मति बोलनि हरै हरि।–घनानंद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरोग (गी)  : वि०=नीरोग।
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निरोठा  : वि० [?] कुरूप। बद-सूरत।
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निरोद्धव्य  : वि० [सं० नि√रुध् (रोकना)+त्व्यत्] जिसका निरोध किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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निरोध  : पुं० [सं० नि√रुध्+घञ्] [भू० कृ० निरुद्ध] १. रोकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. अवरोध। रुकावट। रोक। ३. किसी के चारों ओर डाला जानेवाला घेरा। ४. आज-कल, किसी उपद्रवी या संदिग्ध व्यक्ति को (उसे उपद्रव करने से रोकने के लिए) किसी घिरे हुए स्थान में शासन द्वारा रोक रखने की क्रिया या भाव। (डिटेंशन) ५. योग में, चित्त की वृत्तियों को रोकना। ६. नाश।
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निरोध-परिणाम  : पुं० [सं० मयू० स०] योग में, चित्तवृत्ति की एक विशेष अवस्था जो व्युत्थान और निरोध के मध्य में होती है।
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निरोधक  : वि० [सं० नि√रुध्+ण्वुल्–अक] निरोध करने या रोकनेवाला।
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निरोधन  : पुं० [सं० नि√रुद्ध+ल्युट्–अन] १. निरोध करने की क्रिया या भाव। बंधन या रोक में रखना। २. रुकावट। रोक। ३. वैद्यक में पारे का एक संस्कार, जो उसका शोधन करने के समय किया जाता है।
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निरोधना  : स० [सं०] १. निरोध या निरोधन करना। २. अपने अधिकार या वश में करना।
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निरोधा  : स्त्री० [सं०] किसी ऐसे स्थान से जहाँ संक्रामक रोग फैला हो, आये हुए व्यक्तियों आदि के नये प्रदेश के लोगों में मिश्रित होने से रोकना जिससे रोग उस प्रदेश में फैलने और बढ़ने न पाये। २. वह स्थान जहाँ उक्त उद्देश्य से रोके हुए व्यक्तियों को स्थायी रूप से रोक रखा जाता है। (क्वारैनटीन)
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निरोधाचार  : पुं० [सं० निरोध-आचार, ष० त०] सब कामों में होने या डाली जानेवाली रुकावट।
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निरोधाज्ञा  : स्त्री० [सं० निरोध-आज्ञा, ष० त०] ऐसी आज्ञा जिसे किसी कोई कार्य करने से रोका जाता है।
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निरोधी (धिन्)  : वि० [सं० नि√रुध्+णिनि] निरोधक। (दे०)
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निर्  : अव्य० [सं०√नृ (ले जाना)+क्विप्, इत्व] एक अव्य जो स्वरों या कोमल व्यंजनों से आरम्भ होनेवाले शब्दों से पहले (निस् के स्थान पर) लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है–अलग, दूर, बाहर, रहित, हीन आदि। जैसे–निरंकुश, निरंतर, निरक्ष, निरर्थक, निराहार, निरुत्तर, निरुपाय आदि।
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निर्ऋत  : भू० कृ० [सं० निर्√ऋ (क्षयकरना)+क्त] जिसका क्षय हुआ हो।
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निर्ऋति  : स्त्री० [स० निर् (निर्गत) ऋति=अशुभ, ब० स०] १. नैऋत्य कोण की देवी। २. पृथ्वी के नीचे का तल। ३. [निर्√ऋ+क्तिन्] क्षय। नाश। ४. मृत्यु। मौत। ५. दरिद्रता। निर्धनता। ६. विपत्ति। संकट।
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निर्ख  : पुं० [फा०] वह भाव जिस पर कोई चीज बिकती हो। दर। भाव।
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निर्ख-दरोगा  : पुं० [फा०] मध्ययुग में वह अधिकारी, जो चीजों के भावो पर निगरानी रखता था।
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निर्ख-नामा  : पुं० [फा०] मध्ययुग में वह सूची, जिसमें वस्तुओं के बाजार भाव लिखे होते थे।
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निर्ख-बंदी  : स्त्री० [फा०] वस्तुओं के बाजार भाव निश्चित करने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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निर्गंध  : वि० [सं० निर्-गंध, ब० स०] [भाव० निर्गंधता] गंधहीन।
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निर्गंध-पुष्पी  : पुं० [सं० ब० स०, ङीष्] सेमर का पेड़।
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निर्गम  : पुं० [सं० निर्√गम्+अप्] [वि० निर्गमित] १. बाहर निकलने की अवस्था, क्रिया या भाव। निकासी। २. वह मार्ग जिससे बाहर कोई चीज निकलती हो। निकाल। ३. आज्ञा, आदेश आदि का निकलना या प्रकाशित होना। ४. किसी वस्तु विशेषतः धन आदि का किसी स्थान या देश से बहुत अधिक मात्रा में बाहर जाना। (ड्रेन) ५. विधिक क्षेत्र में, किसी व्यवहार या दीवानी मुकदमे की वह विचारणीय बात जिसका एक पक्ष स्थापन करता हो और जिसे दूसरा पक्ष न मानता हो और फलतः जिसके आधार पर उस व्यवहार या मुदकमे का निर्णय होने को हो। वादपद। साध्या। (इश्यू) विशेष–यह दो प्रकार का होता है–(क) विधिक या कानूनी प्रश्नों से संबंध रखनेवाला निर्गम (इश्यु ऑफ़ ला) और (ख) वास्तविक घटनाओं या तथ्यों से संबंध रखनेवाला अर्थात् तथ्यक निर्गम (इश्यू ऑफ फैक्ट्स)।
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निर्गम-मूल्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] (वास्तविक मूल्य से भिन्न) वह मूल्य जो कुछ विशेष अवसरों पर किसी चीज की निकासी के समय कुछ घटाकर निश्चित किया जाता है। (इश्यू प्राइस)
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निर्गमन  : पुं० [सं० निर्√गम्+ल्युट्–अन] १. बाहर आने या निकलने की क्रिया या भाव। निकासी। २. वह द्वार जिससे होकर कुछ या कोई बाहर निकले। ३. प्रतिहार।
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निर्गमना  : अ० [सं० निर्गमन] बाहर निकलना।
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निर्गमित पूँजी  : स्त्री० [सं० निर्गमित+हिं० पूँजी] वह पूँजी या रकम जो कारखाने, व्यापार आदि की दैनिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए बाहर निकाली गई हो। (इश्यू कैपिटल)
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निर्गर्व  : वि० [सं० निर्-गर्व, ब० स०] जिसे गर्व न हो। निरभिमान।
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निर्गवाक्ष  : वि० [सं० निर्-गवाक्ष, ब० स०] (कमरा या घर) जिसमें खिड़की न हो।
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निर्गुंठी  : स्त्री०=निर्गुडी।
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निर्गुडी  : स्त्री० [सं० निर्-गुंड=वेष्टन, ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का क्षुप जिसके प्रत्येक सींके में अरहर की पत्तियों के समान पाँच-पाँच पत्तियाँ होती हैं। इसका उपयोग औषधों आदि में होता है।
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निर्गुण  : वि० [सं० निर्-गुण, ब० स०] [भाव० निर्गुणता] १. जिसमें कोई गुण न हो। सत्त्व, रज और तम इन तीनों प्रकार के गुणों से रहित। २. जिसमें कोई अच्छा गुण या खूबी न हो। गुणरहित। पुं० परमात्मा का वह रूप जो सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे तथा रहित माना जाता है।
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निर्गुण-धारा  : स्त्री० [सं० ष० त०] हिन्दी साहित्य की वह ज्ञानाश्रयी धारा या शाखा जिसमें मुख्यतः निर्गुण ब्रह्म की उपासना आदि के काव्य और पद हैं।
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निर्गुण-भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह भूमि जिसमें कुछ भी पैदा न होता हो। ऊसर या बंजर जमीन। (कौ०)
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निर्गुण-संप्रदाय  : पुं० [सं० ष० त०] भारतीय धार्मिक क्षेत्र में, ऐसे एकेश्वरवादी संतों और साधुओं का संप्रदाय, जो निर्गुण ब्रह्म में विश्वास रखते और उसकी उपासना करते हैं। (कहते हैं कि मूलतः इस्लाम धर्म की देखा-देखी जाति-पाँति का भेद मिटाने और लोगों को सगुणोपासना से हटाकर एकेश्वरवाद की ओर लाने के लिए स्वामी रामानंद, कबीर आदि ने इसका समर्थन किया था।)
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निर्गुणता  : स्त्री० [सं० निर्गुण+तल्–टाप्] निर्गुण होने की अवस्था या भाव।
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निर्गुणिया  : वि०=निर्गुणी।
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निर्गुणी  : वि० [सं० निर्गुण] (व्यक्ति) जिसमें कोई गुण या खूबी न हो।
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निर्गुन  : पुं० [सं० निर्गुण] पूर्वी हिन्दी के एक प्रकार के लोक-गीत, जिनमें मुख्यतः निर्गुण ब्रह्म की भक्ति और रहस्यवादी भावनाओं की चर्चा रहती है। वि०=निर्गुण।
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निर्गूढ़  : वि० [सं० निर्√गुह् (छिपना)+क्त] जो बहुत ही गूढ़ हो। पुं० वृक्ष का कोटर।
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निर्ग्रंथ  : वि० [सं० निर्-ग्रंथ, प्रा० स०] १. निर्धन। गरीब। २. मूर्ख। बेवकूफ। ३. असहाय। ४. दिगंबर। नंगा। पुं० १. वह जो किसी धार्मिक ग्रंथ का अनुयायी न हो; अथवा जिसके पंथ में कोई सर्वमान्य धार्मिक ग्रंथ न हो। २. बौद्ध क्षपणक या भिक्षु। ३. एक प्राचीन मुनि।
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निर्ग्रंथक  : वि० [सं० निर्ग्रथ+कन्] १. चतुर। २. एकाकी। ३. परित्यक्त। ४. फलहीन। पुं० [स्त्री० निर्ग्रंथिका] १. बौद्ध क्षपणक या संन्यासी। २. जुआरी।
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निर्ग्रंथिक  : वि० [सं० निर्-ग्रंथि, ब० स०, कप्] क्षपणक। वि०, पुं० [सं०] निर्ग्रंथक।
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निर्ग्रंथिन  : पुं० [सं० निर्√ग्रंथ (कौटिल्य)+ल्युट्–अन] वध करना। मारना।
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निर्ग्राह्य  : वि० [सं० निर्-√ग्रह् (ग्रहण)+ण्यत्] १. देखने योग्य। २. ग्रहण करने योग्य।
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निर्घंट  : पुं० [सं० निर्√घंट् (दीप्ति)+घञ् १. शब्द-संग्रह। शब्द-संपद। २. दे० ‘निघंटु’।
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निर्घट  : पुं० [सं० निर्-घट, ब० स०] वह हाट या बाजार जहाँ कोई राज-कर न लगता हो।
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निर्घात  : पुं० [सं० निर्√हन् (हिंसा)+घञ्] १. तेज हवा के चलने से होनेवाला शब्द। २. बिजली की कड़क। ३. बहुत जोर का शब्द। ४. आघात। प्रहार। ५. उत्पात। उपद्रव। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
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निर्घृण  : वि० [सं० निर्-घृणा, ब० स०] १. जिसे घृणा न हो। घृणा से रहित। २. जिसे गंदी चीजों से घृणा न होती हो। २. जिसे बुरे काम करने से घृणा न हो; अर्थात् बहुत ही नीच। ४. जिसमें करुणा या दया न हो। निर्दय। ५. बेहया।
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निर्घृणा  : स्त्री० [सं० निर्-घृणा, प्रा० स०] १. निष्ठुरता। २. धृष्टता।
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निर्घोष  : वि० [सं० निर्√घुष् (शब्द)+घञ्] जिसमें घोष या शब्द न हो अथवा न होता हो। घोष-रहित। पुं० १. शब्द। आवाज। २. घोर शब्द।
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निर्चा  : पुं० [सं०] चंचु (साग)।
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निर्छल  : वि०=निश्छल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्जन  : वि० [सं० निर्-जन, ब० स०] (स्थान) जहाँ जन या मनुष्य न हों। एकांत।
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निर्जय  : स्त्री० [सं० निर्-जय, प्रा० स०] पूर्ण विजय।
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निर्जर  : वि० [सं० निर्-जरा, ब० स०] [स्त्री० निर्जरा] जरा अर्थात् वृद्धावस्था से रहित। जो कभी बुड्ढा न हो। पुं० १. देवता। २. अमृत।
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निर्जरा  : स्त्री० [सं० निर्जर+टाप्] १. तपस्या करके संचित कर्मों का क्षय या नाश करने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. तालपर्णी। ३. गिलोय। गुडूची।
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निर्जल  : वि० [सं० निर-जल, ब० स०] [स्त्री० निर्जला] १. (आधान या पात्र) जिसमें जल न हो। २. (व्यक्ति) जिसने जल न पीया हो। ३. (नियम या व्रत) जिसमें जल तक पीने का निषध हो। ४. (क्रिया या प्रयोग) जिसमें जल की अपेक्षा न होती तो, बल्कि उसका काम रासायनिक पदार्थों से किया जाता हो। (ड्राई) जैसे–निर्जल खेती, निर्जल धुलाई। पुं० १. वह स्थान, जहाँ जल बिलकुल न हो। २. ऐसा उपवास या व्रत जिसमें जल न पीया जाता हो।
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निर्जल खेती  : स्त्री० [सं०+हिं०] ऐसी खेती जिसमें वर्षा के जल की अपेक्षा न हो, बल्कि वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से फसल तैयार कर ली जाय। (ड्राई फारमिंग)
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निर्जल धुलाई  : स्त्री० [सं०+हिं०] कपड़ों आदि की ऐसी धुलाई, जिसमें बिना जल का उपयोग किये वे वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से साफ किये जाते हैं। (ड्राई वाशिंग)
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निर्जल प्रतिसारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] घावों आदि के धोने की वह प्रक्रिया जिसमें उन्हें साफ करके उनमें केवल रूई भरी जाती है, तरल औषधों का प्रयोग नहीं होता। (ड्राई ड्रेसिंग)
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निर्जला एकादशी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] जेठ सुदी एकादशी, जिस दिन निर्जल व्रत रखने का विधान है।
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निर्जलित  : भू० कृ० [सं० निर्√जल् (ढकना)+क्त] जिसके अंदर का जल निकाल या सुखा दिया गया हो। (डिहाइड्रे टेड)
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निर्जलीकरण  : पुं० [सं० निर्जल+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्–अन] रासायनिक प्रक्रिया द्वारा किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश निकाल लेना या उसे सुखा देना। (डिहाइड्रेशन) जैसे–तरकारियों या फलों का निर्जलीकरण।
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निर्जात  : वि० [सं० निर्√जन (उत्पत्ति)+क्त] जो आविर्भूत या प्रकट हुआ हो।
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निर्जित  : भू० कृ० [सं० निर्√जि (जीतना)+क्त] [भाव० निर्जिति] १. पूरी तरह से जीता हुआ। २. वश में किया हुआ।
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निर्जिति  : स्त्री० [सं० निर्√जि+क्तिन्] पूर्ण विजय।
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निर्जीव  : वि० [सं० निर्-जीव, ब० स०] १. जिसमें जीवन या प्राण न हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें जीवन-शक्ति का अभाव या कमी हो। ४. जिसमें ओज, दम या सजीवता न हो। जैसे–निर्जीव कहानी। ५. उत्साहहीन।
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निर्झर  : पुं० [सं० निर्√ऋ (झरना)+अप्] झरना।
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निर्झरिणी, निर्झरी  : स्त्री० [सं० निर्झर+इनि–ङीप्, निर्झर+ङीष्] झरने से निकलनेवाली नदी।
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निर्णय  : पुं० [सं० निर्√नी (ले जाना)+अच्] १. कहीं से कुछ ले जाना या हटाना। २. किसी बात या विषय की ठीक और पूरी जानकारी प्राप्त करके अथवा किसी सिद्धान्त पर विचार करके कोई मत स्थिर करना। निष्कर्ष या परिणाम निकालना। ३. उक्त प्रकार से स्थिर किया हुआ मत या निकाला हुआ निष्कर्ष। ४. किसी प्रकार के मतभेद, विवाद आदि के संबंध में दोनों पक्षों की सब बातों पर विचार करके या निश्चय करना कि कौन-सा पक्ष या मत ठीक है। ५. विधिक क्षेत्र में, वादी और प्रतिवादी के सब आरोपों, उत्तरों, प्रमाणों आदि पर अच्छी तरह विचार करते हुए न्यायाधिकारी या न्यायालय का यह निश्चित या स्थिर करना कि किस पक्ष की बातें ठीक हैं, अथवा इस विषय का उचित रूप क्या होना चाहिए। ६. न्यायाधिकारी का लिखा हुआ वह लेख्य जिसमें उक्त विषय की सब बातों का विवेचन करते हुए अपना अंतिम निष्कर्ष या मत प्रकट करता है। फैसला। (डिसीजन)
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निर्णयन  : पुं० [सं० निर्√नी+ल्युट्–अन] निर्णय करने की क्रिया या भाव।
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निर्णयात्मक  : वि० [सं० निर्णय-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. निर्णय-संबंधी। २. निर्णय के रूप में होनेवाला। ३. (तत्त्व या बात) जिससे किसी विवादास्पद बात का निर्णय होता है। (दे० ‘निर्णायक’)
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निर्णयोपमा  : स्त्री० [सं० निर्णय-उपमा, मध्य० स०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान के गुणों और दोषों का विवेचन करते हुए कुछ निष्कर्ष निकाला या निर्णय किया जाता है।
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निर्णर  : पुं० [सं०] सूर्य का एक घोड़ा।
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निर्णायक  : वि० [सं० निर्√नी+ण्वुल्–अक] १. निर्णय करनेवाला। २. (घटना या बात) जिससे किसी झगड़े या विषय का निर्णय होता हो। (डिसाइसिव) पुं० १. वह व्यक्ति जो किसी प्रकार के विवाद का निर्णय करता हो। २. खेल में, वह व्यक्ति जो खेलाड़ियों को खेल के नियमों के अनुसार खिलाता है और जिसका निर्णय अंतिम होता है। (अम्पायर)
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निर्णायक-मत  : पुं० [सं० ष० त०] सभा-समितियों आदि में किसी विवादात्मक प्रश्न के संबंध में होनेवाले मत-दान के समय उस प्रश्न के पक्ष और विपक्ष में बराबर-बराबर मत आने पर सभापति का वह अंतिम मत जिसके आधार पर उस प्रश्न का निर्णय होता है। (कास्टिंग वोट)
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निर्णिक्त  : वि० [सं० निर्√निज् (शुद्धि)+क्त] [भाव० निर्णिक्ति] १. धुला हुआ। २. शोभित। ३. जिसके लिए प्रायश्चित्त किया गया हो।
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निर्णिक्ति  : स्त्री० [सं० निर्√निज्+क्तिन्] १. धोना। २. शोधन। ३. प्रायश्चित्त।
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निर्णीति  : भू० कृ० [सं० निर्√नी+क्त] १. जिसका निर्णय हो चुका हो या किया जा चुका हो। २. (विवाद) जिसके संबंध में निर्णय हो चुका हो। ३. (खेल) जिसमें जीत-हार का फैसला हुआ हो।
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निर्णेक  : पुं० [सं० निर्√निज्+घञ्] १. धोना। साफ करना। २. स्नान। ३. प्रायश्चित्त।
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निर्णेजक  : वि० [सं० निर्√निज्+ण्वुल्–अक] १. धोने या साफ करनेवाला। २. प्रायश्चित्त करनेवाला। पुं० धोबी। रजक।
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निर्णेजन  : पुं० [सं० निर्√निज्+ल्युट्–अन]=निर्णेक।
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निर्णेता (तृ)  : वि०, पुं० [सं० निर्√नी+तृच्] निर्णायक।
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निर्त  : पुं०=नृत्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्तना  : अ०=नाचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्तास  : पुं०=निर्यास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्त्तक  : पुं०=नर्तक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दई  : वि०=निर्दय।
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निर्दग्ध  : वि० [सं० निर्√दह् (जलाना)+क्त] जो जला हुआ न हो।
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निर्दंड  : वि० [सं० निर्-दंड, ब० स०] जिसे सब प्रकार के दण्ड दिए जा सकें। पुं० शूद्र, जिसे सब प्रकार के दंड दिये जाते थे या दिये जा सकते थे।
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निर्दत  : वि० [सं० निर्-दंत, ब० स०] (मुँह या व्यक्ति) जिसमें या जिसे दाँत न हो।
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निर्दय  : वि० [सं० निर्-दया, ब० स०] [भाव० निर्दयता] १. दया-हीन। २. (व्यक्ति) जो बहुत ही कठोर होकर अत्याचारपूर्ण काम करता हो और इस प्रकार दूसरों को सताता हो।
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निर्दयता  : स्त्री० [सं० निर्दय+तल्–टाप्] निर्दय होने की अवस्था या भाव।
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निर्दयी  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दर  : वि० [सं० निर्-दर=छिद्र, ब० स०] १. कठिन। कठोर। २. निर्दय। पुं० [सं० निर्√दृ (विदारण)+अप्] १. निर्झर। २. गुफा। ३. सार।
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निर्दंर्भ  : वि० [सं० निर्-दंभ, ब० स०] दंभ-हीन।
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निर्दल  : वि० [सं० निर्-दल, ब० स०] १. जिसमें दल न हों। दल-रहित। २. जो किसी दल (पक्ष या वर्ग) में न हो। सब दलों से अलग।
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निर्दलन  : पुं० [सं० निर्√दल् (फाड़ना)+णिच्+ल्युट्–अन] १. नाश करना। २. भंग करना। वि० दलन करनेवाला।
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निर्दहन  : पुं० [सं० निर्√दह्+ल्युट्–अन] १. अच्छी तरह जलाना। २. भिलावाँ।
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निर्दहना  : स० [सं० दहन] दहन करना। जलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दहनी  : स्त्री० [सं० निर्दहन+ङीप्] मरोड़फली। मूर्वा लता।
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निर्दाता (तृ)  : पुं० [सं० निर्√दा (देना)+तृच्] १. खेत निराने या निराई का काम करनेवाला व्यक्ति। २. कृषक। किसान। ३. दाता।
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निर्दारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निर्दारित]=विदारण।
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निर्दिष्ट  : भू० कृ० [सं० निर्√दिश (बताना)+क्त] १. जिसके प्रति या जिसकी ओर निर्देश हुआ हो। २. कहा, बतलाया या समझाया हुआ। वर्णित। ३. नियत या निश्चित किया हुआ। ठहराया हुआ। जैसे–निर्दिष्ट समय पर काम करना। ४. निर्णीत। ५. (बात या नियम) जिसके लिए कोई व्यवस्था की गुंजाइश निकाली गई या शर्त लगाई गई हो। (प्रोवाइडेड)
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निर्दूषण  : वि०=निर्दोष।
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निर्देश  : पुं० [सं० निर्√दिश्+घञ्] १. स्पष्ट रूप से कहकर कुछ बतलाना या समझाना। (इन्स्ट्रक्शन) २. किसी चीज या बात की ओर ध्यान दिलाते या संकेत करते हुए यह बतलाना कि यही अभीष्ट अथवा अमुक है। इस प्रकार का उल्लेख या कथन कि यही वह है अथवा वही यह है। (रेफरेन्स) पद–निर्देश-ग्रंथ। (देखें)। ३. यह कहना, बतलाना या समझाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार अथवा इस रूप में होनी चाहिए। (डाइरेक्शन) ४. निश्चित करना। ठहराना। ५. आज्ञा। आदेश। ६. उल्लेख। चर्चा। जिक्र। ७. नाम। संज्ञा। ८. आस-पास का स्थान। पड़ोस।
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निर्देश-ग्रंथ  : पुं० [ष० त०] वह ग्रंथ या पुस्तक जो सामान्यतः अध्ययन के लिए न लिखी गई हो; वरन् जिसका उपयोग विशेष अवसरों पर कुछ बातों की जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता हो। (रेफरेन्सबुक)
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निर्देशक  : वि० [सं० निर्√दिश्+ण्वुल्–अक] निर्देश या निर्देशन करनेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसका काम किसी प्रकार का निर्देश करना हो। (डाइरेक्टर)
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निर्देशन  : पुं० [सं० निर्√दिश्+ल्युट्–अन] १. निर्देश करने की क्रिया या भाव। २. यह कहना या बतलाना कि अमुक कार्य इस प्रकार या इस रूप में होना चाहिए। ३. वह स्थिति जिसमें कोई कार्य किसी की पूर्ण देख-रेख में और उसके निर्देशानुसार हुआ हो। (डाइरेक्शन) ४. कोई ग्रंथ लिखने के समय उसमें आये हुए उद्धरणों, प्रसंगों आदि के संबंध में यह बतलाना कि इनकी विशेष जानकारी अमुक ग्रंथ में अमुक स्थान पर मिलेगी। (रेफरेंस)
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निर्देष्टा  : वि० पुं०, [सं० निर्-√दिश्+तृच्]=निर्देशक।
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निर्दैन्य  : वि० [सं० निर्-दैन्य, ब० स०] दैन्य या दीनता से रहित अर्थात् निश्चिंत और सुखी रहने की अवस्था या भाव।
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निर्दोष  : वि० [सं० निर्-दोष, ब० स०] [भाव० निर्दोषता] १. जिसने कोई अवगुण या अपराध न किया हो। निरपराध। ३. (कार्य) जो दोष से युक्त न हो।
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निर्दोषता  : स्त्री० [सं० निर्दोष+तल्–टाप्] निर्दोष होने की अवस्था या भाव।
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निर्दोषी  : वि०=निर्दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्द्रव्य  : वि० [सं०]=निर्धन।
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निर्द्वंद्व  : वि० [सं० निर्+द्वंद्व, ब० स०] १. जो सब प्रकार के द्वंद्वों से परे या रहित हो। द्वन्द्व-हीन। २. जो सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि से रहित हो। ३. जिसका कोई प्रतिद्वंद्वी या विरोधी न हो। ४. सब प्रकार से स्वच्छंद। क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के द्वंद्व या विघ्न-बाधा के। २. बिलकुल मनमाने ढंग से और स्वच्छंदतापूर्वक।
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निर्धन  : वि० [सं० निर्-धन] १. (व्यक्ति) जिसके पास धन न हो। धन-हीन। २. जिसने कोई अमूल्य वस्तु खो दी हो।
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निर्धनता  : स्त्री० [सं० निर्धन+दल्–टाप्] धनहीनता। गरीबी।
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निर्धर्म्य  : वि० [सं० निर्-धर्म्य, ब० स०] १. जो धर्म से रहित हो। २. (व्यक्ति) जिसका कोई धर्म न हो।
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निर्धातन  : पुं० [स० निर्√हन्+णिच्+ल्युट्–अन] शल्य-चिकित्सा में, अस्त्रों से किया जानेवाला एक प्रकार का उपचार। (सुश्रुत)
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निर्धातु  : वि० [सं० निर्-धातु, ब० स०] १. (पदार्थ) जो धातु के योग से न बना हो। २. (व्यक्ति) जिसकी धातु या वीर्य क्षीण हो गया हो।
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निर्धार  : पुं०=निर्धारण।
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निर्धारण  : पुं० [सं० निर्√धृ (धारण)+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी विचार को कार्य का रूप देने से पहले मन में उसे करने की दृढ़ धारणा बनाना। तै या निश्चित करना। २. निश्चय के रूप में सभा, समितियों आदि का कोई प्रस्ताव पारित करना। ३. अर्थ-शास्त्र में, निर्मित वस्तुओं के विक्रय-मूल्य निश्चित करना अथवा माँग और पूर्ति के आधार पर स्वयं मूल्य निश्चित करना अथवा माँग और पूर्ति के आधार पर स्वयं मूल्य निश्चित होना। ४. यह निश्चय करना कि अमुक काम से कितना आय या कितना व्यय होना चाहिए। (एसेस्मेंट) ५. न्याय में, किसी एक जाति के पदार्थों में से गुण, कर्म आदि के विचार से कुछ को अलग करना। जैसे–यदि कहा जाय कि ‘अमुक जाति के आम बहुत अच्छे होते हैं’ तो यह उस जाति के आमों का निर्धारण होगा।
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निर्धारना  : स० [सं० निर्धारण] निर्धारित या निश्चित करना। ठहरना।
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निर्धारित  : भू० कृ० [सं० निर्√धृ+णिच्+क्त] १ .(बात) जिसे कार्य का रूप देने के लिए निश्चय कर लिया गया हो। २. (वस्तु) जिसका मूल्य निश्चित हो चुका हो। ३. (व्यापार या संपत्ति) जिसकी आय तथा व्यय आँका जा चुका हो।
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निर्धारिती  : पुं० [सं०] वह जिसके संबंध में यह निर्धारित किया जाय कि इसे इतना कर आदि देना चाहिए। (एसेसी)
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निर्धार्य  : वि० [सं० निर्√घृ+ण्यत्] १. जिसके संबंध में निर्धारण होने को हो अथवा हो सकता हो। २. दृढ़। पक्का। ३. उत्साही। ४. निर्भीक।
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निर्धूत  : भू० कृ० [सं० निर्√धू (काँपना)+क्त] १. निकाला या हटाया हुआ। २. त्यक्त। ३. नष्ट किया हुआ। ४. टूटा हुआ। वि०=धौत (धोया हुआ)।
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निर्धूम  : वि० [सं० निर्-धूम, ब० स०] १. (स्थान) जिसमें धूआँ न हो। २. (उपकरण) जो धूआँ न छोड़ता हो। जैसे–निर्धूम गाड़ी।
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निर्धोत  : वि० [सं० निर्√घाव (शुद्धि)+क्त] १. जो धुल चुका हो। २. चमकाया हुआ।
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निर्नर  : वि० [सं० निर्-नर, ब० स०] १. जिसमें नर या मनुष्य न हों। मनुष्यों से रहित। २. मनुष्यों द्वारा छोड़ा या त्यागा हुआ।
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निर्नाथ  : वि० [सं० निर्-नाथ, ब० स०] [भाव० निर्नाथता] जिसका कोई नाथ अर्थात् स्वामी न हो। अनाथ।
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निर्निमित्त  : वि० [सं० निर्-निमित्त, ब० स०] जिसका कोई निमित्त या कारण न हो। अव्य० बिना किसी निमित्त या कारण के।
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निर्निमित्तक  : वि०=निर्निमित्त।
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निर्निमेष  : अव्य० [सं० निर्-निमेष, ब० स०] बिना पलक झपकाये। टक लगाकर। एकटक। वि० १. जिसकी पलक न गिरे। २. जिसमें पलक न गिरे। जैसे–निर्निमेष दृष्टि।
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निर्पक्ष  : वि०=निष्पक्ष।
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निर्फल  : वि०=निष्फल।
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निर्बंद्ध  : भू० कृ० [सं० निर्√बंध् (बाँधना)+क्त] जिसके संबंध में किसी प्रकार का निबंध लगा या हुआ हो। (रेस्ट्रिक्टेड)
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निर्बंध  : वि० [सं० निर्-बंध, ब० स०] जो बंधन या बंधनों से रहित हो। पुं० १. अड़चन। बाधा। २. रुकावट। रोक। ३. जिद। हठ ४. आग्रह। ५. काव्य का वह प्रकार या भेद, जिसमें कोई क्रमबद्ध कथा न हो, बल्कि स्वच्छंद रूप से किसी तथ्य, या रस का विवेचन हो।
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निर्बंधन  : पुं० १.=निर्बंध। २.=निबंधन।
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निर्बर्हण  : पुं० =निर्बहण।
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निर्बल  : वि० [सं० निर्-बल, ब० स०] [भाव० निर्बलता] १. (व्यक्ति) जिसमें बल न हो। २. जिसमें सहनशक्ति का अभाव हो। जैसे–निर्बल हृदय। ३. जिसमें यथेष्ट ओज या सजीवता न हो। जैसे–निर्बल विचारधारा।
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निर्बलता  : स्त्री० [सं० निर्बल+तल्–टाप्] निर्बल होने की अवस्था या भाव। कमजोरी।
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निर्बहण  : पुं० [सं० नि√बर्ह् (हिंसा)] १. नष्ट करने की क्रिया या भाव। २. मारना। वध।
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निर्बहना  : अ० [सं० निर्वहन] १. निर्वाह होना। निभना। २. अलग या दूर होना। स० १. निर्वाह करना। निभाना। अलग या दूर करना।
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निर्बाध  : वि० [सं० निर्-बाधा, ब० स०] जिसमें कोई बाधा न हो या न लगाई गई हो। अव्य० १. बिना किसी बाधा के। २. निरंतर। लगातार।
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निर्बाधित  : वि०=निर्बाध।
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निर्बान  : पुं०=निर्वाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्बीज  : वि० [सं० निर्-बीज, ब० स०] जिसका बीज या जनन-शक्ति बिलकुल नष्ट हो गई हो या नष्ट कर दी गई हो।
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निर्बीजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निर्बीजित] १. निर्बीज करना। २. ऐसी प्रक्रिया करना जिससे कोई वस्तु या प्राणी अपनी वंश-वृद्धि करने में असमर्थ हो जाय।
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निर्बीर  : वि०=निर्वीर्य।
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निर्बुद्धि  : वि० [सं० निर्-बुद्धि, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे बुद्धि न हो। २. मूर्ख।
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निर्बोध  : वि० [सं० निर्ब-बोध, ब० स०] जिसे बोध या ज्ञान न हो। अज्ञान। अनजान।
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निर्भग्न  : वि० [सं० निर्-भग्न, प्रा० स०] १. अच्छी तरह टूटा या तोड़ा हुआ। २. झुकाया हुआ।
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निर्भट  : [सं० निर्√भट् (पोषण)+अच्] दृढ़। पक्का।
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निर्भय  : वि० [सं० निर्-भय, ब० स०] [भाव० निर्भयता] जिसे भय न हो। पुं० १. बढ़िया घोड़ा, जो जल्दी डरता न हो। २. रौच्य मनु का एक पुत्र।
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निर्भयता  : स्त्री० [सं० निर्भय+तल्–टाप्] निर्भय होने की अवस्था या भाव। निर्भीकता।
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निर्भर  : वि० [सं० निर्-भर, ब० स०] १. अच्छी या पूरी तरह से भरा हुआ। २. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। युक्त। ३. आजकल बँगला के आधार पर (कार्य, बात या व्यक्ति) जो किसी दूसरे पर अवलंबित या आश्रित हो। किसी पर ठहरा हुआ। पुं० ऐसा सेवक जिसे वेतन न दिया जाता हो।
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निर्भर्त्सन  : पुं० [सं० निर्√भर्त्स् (दुतकारना)++ल्युट्–अन] १. भर्त्सन। डाँट-डपट। २. निंदा।
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निर्भर्त्सना  : पुं० [सं० निर्√भर्त्स्+णिच्+युच्–अन, टाप्]=भर्त्सना।
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निर्भाग्य्  : वि० [सं० निर्-भाग्य, ब० स०] अभागा। पुं०=दुर्भाग्य।
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निर्भास  : पुं० [सं०] प्रकट या भासित होना।
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निर्भिन्न  : वि० [सं० निर्√भिद् (विदारण)+क्त] १. छिदा हुआ। २. फाड़ा हुआ।
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निर्भीक  : वि० [सं० निर्-भी, ब० स०, कप्] [भाव० निर्भीकता] (व्यक्ति) जो बिना डरे या बिना किसी के दबाव में आये और बहादुरी से कोई काम करता हो।
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निर्भीकता  : स्त्री० [सं० निर्भीक+तल्–टाप्] निर्भीक होने की अवस्था। या भाव।
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निर्भीत  : वि०=निर्भीक।
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निर्भूति  : स्त्री० [सं० निर्√भू (होना)+क्तिन्] ओझल या लुप्त होना। अंतर्धान होना।
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निर्भृति  : वि० [सं० निर्-भृति, ब० स०] जो बेगार में या अपेक्षया बहुत कम पारिश्रमिक पर किसी की सेवा करता हो।
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निर्भेद  : पुं० [सं० निर्√भिद् (विदारण)+घञ्] १. छेदना। २. फाड़ना। ३. भेद या रहस्य खोलना। वि० [निर्-भेद, ब० स०] भेद-रहित।
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निर्भ्रंत  : वि० [सं० निर्√भ्रम (घूमना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे भ्रांति न हो। २. (बात या विषय) जिसमें किसी प्रकार की भ्रांति के लिए अवकाश न हो।
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निर्भ्रम  : वि० [सं० निर्-भ्रम, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे भ्रम न हो। २. (बात या विषय) जिसमें भ्रम के लिए अवकाश न हो। क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के भ्रम के। २. बेखटके। बेधड़क।
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निर्मक्षिक  : वि० [सं० निर्-मक्षिका, अव्य० स०] १. (स्थान) जहाँ मक्खियाँ न हों। मक्खियों से रहित। २. जिसमें कोई विघ्न-बाधा न हो। निर्विघ्न।
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निर्मत्सर  : वि० [सं० निर्-मत्सर, ब० स०] दूसरों से द्वेष न करनेवाला। मत्सर-रहित।
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निर्मथ्या  : स्त्री० [सं० निर√मथ+ण्यत्, टाप्] नालिका या नली नामक गंध्य-द्रव्य।
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निर्मद  : वि० [सं० निर्-मद, ब० स०] १. मद से रहित। २. अभिमानरहित। पुं० संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निर्मना  : स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना।
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निर्मनुज  : वि० [सं० निर्-मम, ब० स०] [भाव० निर्ममता] १. जिसमें ममत्व की भावना न हो। २. जो अपने मन की कोमल भावनाओं को नष्ट कर कोई कठोर आचरण करता हो। ३. (काम) जो निर्दयतापूर्वक किया जाय। जैसे–निर्मम हत्या।
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निर्मय  : पुं० [सं० निर्√मथ् (रगड़ना)+घञ्] १. रगड़ना। २. वह लकड़ी जिसे रगड़ने पर आग निकले।
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निर्मल  : वि० [सं० निर्-मल, ब० स०] [भाव० निर्मलता] १. (वस्तु) जिसमें मल या मलिनता न हो। साफ। स्वच्छ। २. (व्यक्ति) जिसके चरित्र पर कोई धब्बा न लगा हो। ३. (हृदय) जिसमें दूषित या बुरी भावनाएँ न हों। शुद्ध। पुं० १. अभ्रक। अबरक। २. दे० ‘निर्मली’।
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निर्मलता  : स्त्री० [सं० निर्मल+तल्–टाप्] निर्मल होने की अवस्था या भाव।
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निर्मला  : पुं० [सं० निर्मल] १. एक नानकपंथी त्यागी संप्रदाय, जिसके प्रवर्त्तक गुरु रामदास थे। इस संप्रदाय के लोग गेरुए वस्त्र पहनते और साधु-संन्यासियों की तरह रहते हैं। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी साधु।
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निर्मलांगी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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निर्मली  : स्त्री० [सं० निर्मल] १. एक प्रकार का मझोला सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी इमारत और खेती और औजार बनाने के काम में आती है। २. रीठे का वृक्ष और उसका फल।
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निर्मलोत्पल  : पुं० [सं० निर्मल-उपल, कर्म० स०] स्फटिक।
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निर्मलोपल  : पुं० [सं० निर्मल-उपल, कर्म० स०] स्फटिक।
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निर्मल्या  : स्त्री० [सं० निर्मल+यत्–टाप्] असबरग। स्पृक्का।
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निर्माण  : पुं० [सं० निर्म√मा (मापना)+ल्युट्–अन] १. गढ़ या ढालकर अथवा किसी चीज के सब अंगों, उपांगों, उपादानों आदि के योग से कोई नई चीज तैयार करना या बनाना। रचना। जैसे–भवन या सेतु का निर्माण; कपड़े, कागज आदि का निर्माण; ग्रंथ या पुस्तक का निर्माण। २. उक्त प्रकार से बनकर तैयार होनेवाली चीज। ३. किसी चीज को उच्चतम या उत्कृष्टतम रूप देना। जैसे–चरित्र का निर्माण करना। ४. नापना। मापन। ५. रूप। शकल। ६. अंश। हिस्सा। ७. सार-भाग। ८. मज्जा।
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निर्माण-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] इमारत, नहर, पुल आदि बनाने की विद्या। वास्तु-विद्या। वास्तु-कला।
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निर्माता (तृ)  : वि० [सं० निर्√मा+तृच्] जो किसी चीज का निर्माण करता हो। बनाने या रचनेवाला।
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निर्मात्रिक  : वि० [सं० निर्-मात्रिक, प्रा० स०] बिना मात्रा का। जिसमें मात्रा न हो। जैस–निर्मात्रिक पद्य-रचना।
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निर्मान  : वि० [सं० निर्+मान] १. जिसका मान या परिमाण न हो। बेहद। अपार। उदा०–नित्य निर्मय नित्य युक्त निर्मान हरि ज्ञान घन सच्चिदानंद मूल।–तुलसी। २. जिसका मान या प्रतिष्ठा न हो। पुं०=निर्माण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्माना  : स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना।
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निर्मायक  : वि० [सं० निर्√मा+ण्वुल्–अक] निर्माण करनेवाला। निर्माता।
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निर्मार्जन  : पुं० [सं० निर्√मार्ज् (शुद्धि)+ल्युट्–अन] १. साफ करना। २. धोना।
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निर्माल्य  : वि० [सुं० निर्√मल् (ग्रहण)+ण्यत्] निर्मल। शुद्ध। पुं० १. निर्मलता। २. देवता पर चढ़े या चढ़ाये हुए पदार्थ।
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निर्माल्या  : स्त्री०=निर्माल्य।
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निर्मास  : वि० [सं० निर्-मांस, ब० स०] १. जिसमें मांस न हो। मांसरहित। २. (व्यक्ति) जो भोजन आदि के अभाव या रोग आदि के कारण बहुत दुबला हो गया हो और जिसके शरीर का अधिकतर मांस गल-पच गया हो।
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निर्मित  : भू० कृ० [सं० निर्+मा+क्त] [भाव० निर्मिति] जिसका निर्माण हुआ हो या किया गया हो। बनाया या रचा हुआ।
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निर्मित  : स्त्री० [सं० निर्√मा+क्तन्] १. निर्माण करने की क्रिया या भाव। २. निर्माण करके तैयार की हुई चीज।
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निर्मुक्त  : वि० [सं० निर्+मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० निर्मुक्ति] १. जो मुक्त हुआ हो या जिसे निर्मुक्ति मिली हो। २. जो सब प्रकार के बंधनों से रहित हो। ३. (साँप) जो अभी निर्मोक या केंचुली छोड़कर अलग हुआ हो।
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निर्मुक्ति  : स्त्री० [सं० निर्+मुच्+क्तिन्] १. मुक्ति। छुटकारा। २. मोक्ष। ३. बंदियों विशेषतः राजनैतिक बंदियों को एक साथ क्षमा करके छुड़ा देना। (एन्मेस्टी)
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निर्मूल  : वि० [सं० निर्-मूल, ब० स०] १. जिसमें जड़ न हो। बिना जड़ का। २. जड़ के रूप से नष्ट हो जाने के कारण जो न बच रहा हो। पूरी तरह से विनष्ट। जैसे–रोग निर्मूल करना। ३. जिसका कोई मूल अर्थात् आधार या बुनियाद न हो। बेसिर-पैर का। जैसे–निर्मूल दोषारोपण।
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निर्मूलक  : वि० [सं० ब० स०, कप्] निर्मूल।
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निर्मूलन  : पुं० [सं० निर्मूल+णिच्=ल्युट्–अन] १. जड़ से उखाड़ना। निर्मूल करना। २. पूर्ण रूप से नष्ट करने की क्रिया या भाव। पूर्ण विनाश। ३. निराधार या बेबुनियाद सिद्ध करना।
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निर्मृष्ट  : भू० कृ० [स० नर्√मृज् (शुद्धि)+क्त] १. धुला या साफ किया हुआ। २. मिटाया हुआ।
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निर्मेघ  : वि० [सं० निर्-मेघ, ब० स०] मेघ या बादलों से रहित। निरभ्र।
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निर्मेध  : वि० [सं० निर्-मेधा, ब० स०] मेधाशक्ति से रहित। मूर्ख।
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निर्मोक  : पुं० [सं० निर्+मुच्+(छोड़ना) घञ्] १. स्वतंत्र या स्वाधीन करना। २. साँप की केंचुली। ३. शरीर के ऊपर की पतली खाल या झिल्ली। ४. आकाश। ५. सावर्णि मनु के एक पुत्र। ६. तेरहवेंल मनु के सप्तर्षियों में से एक।
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निर्मोक्ष  : पुं० [सं० निर्-मोक्ष, प्रा० स०] १. त्याग। २. धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसा मोक्ष या मुक्ति जिसमें आत्मा के साथ कोई संस्कार लगा न रह जाय। पूर्ण मोक्ष।
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निर्मोचन  : पुं० [सं० निर्√मुच्+ल्युट्–अन] छुटकारा। मुक्ति।
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निर्मोल  : वि०=अमूल्य।
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निर्मोह  : वि० [सं० निर्-मोह, ब० स०] १. जिसे या जिसमें मोह न हो। मोह-रहित। २. दे० ‘निर्मोही’। ३. रैवत मनु के एक पुत्र का नाम। ४. सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम।
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निर्मोही  : वि० [सं० निर्मोह] [स्त्री० निर्मोहिनी] जिसे या जिसमें मोह या ममत्व न हो। किसी के प्रति अनुराग स्नेह न रखनेवाला।
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निर्यत्रण  : पुं० [सं० निर्√यंत्र् (निग्रह)+ल्युट्–अन] यंत्रण से रहित करने की क्रिया या भाव।
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निर्याण  : पुं० [सं० निर्√या (जाना)+ल्युट्–अन] १. बाहर निकलना या जाना। प्रयाण। प्रस्थान। २. सेना का युद्ध-क्षेत्र की ओर होनेवाला प्रस्थान। ३. नगर या बस्ती से बाहर की ओर जानेवाला मार्ग या सड़क। ४. अदृश्य या गायब होना। अंतर्धान। ५. शरीर का आत्मा से बाहर निकलना। ६. मुक्ति। मोक्ष। ७. गति में लाना। ८. जहाज आदि का ठीक ढंग से संचालन करना। (पाइलॉटिंग) ९. पशुओं के पैरों में बाँधी जानेवाली रस्सी। १॰. हाथी की आँख का बाहरी कोना।
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निर्यात  : पं० [सं० निर्√या+क्त] १. माल बाहर भेजने की क्रिया या भाव। २. किसी देश की दृष्टि में उसका वह माल जो विदेशों में बिक्री के लिए भेजा जाय। (एक्सपोर्ट)
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निर्यात-कर  : पुं० [ष० त०] निर्यात शुल्क। (दे०)
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निर्यात-शुल्क  : पुं० [सं० ष० त०] वह शुल्क जो देश से वस्तुओं का निर्यात करने के समय चुकाना पड़ता हो। (एक्सपोर्ट ड्यूटी)
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निर्यातक  : वि० [सं० निर्यात+णिच्+ण्वुल्–अक] जो वस्तुओं का निर्यात करता हो। बिक्री के लिए माल विदेश भेजनेवाला। (एक्सपोर्टर)
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निर्यातन  : पुं० [सं० निर्√यत (प्रयत्न)+णिच्+ल्युट्–अन] १. निर्यात करने की क्रिया या भाव। २. प्रतिकार करना। बदला चुकाना। ३. ऋण चुकाना। ४. मार डालना। वध।
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निर्याति  : स्त्री० [सं० निर्√या+क्तिन्] १. बाहर जाने या निकलने की क्रिया या भाव। २. मृत्यु।
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निर्यामक  : पुं० [सं० निर√यम् (नियंत्रण)+णिच्√ण्वुल्–अक] १. नाविक। मल्लाह। २. हवाई जहाज आदि चलानेवाला। (पाइलॉट)
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निर्यास  : पुं० [सं० निर्√यस् (प्रयत्न)+घञ्] १. निकलना या बहना। २. वह तरल पदार्थ जो पौधे, वृक्ष आदि के तने, शाखा, पत्ते आदि में से निकले। ३. गोंद। ४. जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों को उबालकर निकाला हुआ रस। काढ़ा। क्वाथ।
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निर्युक्तिक  : वि० [सं० निर्-युक्ति, ब० स०, कप्] जिसमें कोई युक्ति न हो। युक्ति-रहित।
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निर्यूथ  : वि० [सं० निर्-यूथ, ब० स०] जो अपने यूथ या दल से अलग हो गया हो।
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निर्यूष  : पुं० [सं० निर्-यूष, प्रा० स०] निर्यास। (दे०)
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निर्यूह  : पुं० [सं० निर्√ऊह् (तर्क)+क, पृषो० सिद्धि] १. ओषधियों का काढा। क्वाथ। २. दरवाजा। द्वार। ३. सिर पर पहनने की कोई चीज। जैसे–टोपी, पगड़ी, मुकुट आदि। ४. दीवार में लगा हुआ वह तख्ता जिस पर चीजें रखी जाती हैं।
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निर्लंचन  : पुं० [सं० निर्-√लुंच् (फाड़ना)√ल्युट्–अन] १. फाड़ना। २. छिलके या भूसी अलग करना।
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निर्लज्ज  : वि० [सं० निर्-लज्जा, ब० स०] [भाव० निर्लज्जता] १. (व्यक्ति) जिसे किसी बात में लज्जा न आती हो। बेशरम। २. (कार्य) जो निर्लज्ज होकर किया गया हो।
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निर्लज्जता  : स्त्री० [सं० निर्लज्ज+तल्–टाप्] निर्लज्ज होने की अवस्था या भाव। बेशरमी। बेहयाई।
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निर्लिंग  : वि० [सं० निर्-लिंग, ब० स०] जिसमें कोई लिंग अर्थात् परिचायक चिह्न न हो।
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निर्लिप्त  : वि० [सं० निर्√लिप् (लीपना)√क्त] [भाव निर्लिप्ता] १. जो किसी के साथ या किसी में लिप्त न हो। जो किसी से लगाव या संबंध न रखता हो। २. सांसारिक माया-मोह, राग-द्वेष आदि से परे और रहित।
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निर्लुंठन  : पुं० [सं० निर्√लुंठ् (स्तेय)+ल्युट्–अन] १. लूटना। २. फाड़कर अलग करना।
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निर्लेखन  : पुं० [सं० निर्√लिख् (लिखना)+ल्युट्–अन] १. किसी चीज पर जमी हुई मैल आदि खुरचना। २. वह चीज जिससे मैल खुलची जाय। खुरचने का उपकरण।
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निर्लेप  : वि० [सं० निर्-लेप, ब० स०] १. जिस पर किसी प्रकार का लेप न हो। २. दोष आदि से रहित। ३. दे० ‘निर्लिप्त’।
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निर्लोभ  : वि० [सं० निर्-लोभ, ब० स०] [भाव० निर्लोभता] जिसे किसी प्रकार का लोभ न हो। लोभ-रहित।
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निर्लोभी  : वि०=निर्लोभ।
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निर्वक्तव्य  : वि० [सं० निर्√वच् (कहना)+तव्यत्] जो कहा न जा सके।
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निर्वचन  : वि० [सं० निर्-वचन, ब० स०] जो कुछ बोल न रहा हो। चुप। मौन। पुं० [निर्-√वच्+ल्युट्–अन] १. उच्चारण करना। कहना। बोलना। २. समझाकर और निश्चित रूप से कोई बात कहना या बतलाना। ३. अपने दृष्टि-कोण से किसी शब्द, पद या वाक्य की विवेचना या व्याख्या करना। (इंटरप्रेटेशन)
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निर्वचनीय  : वि० [सं० निर्√वच्+अनीयर] (शब्द, पद या वाक्य) जिसका निर्वचन किया जाने या होने को हो।
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निर्वपण  : पुं० [सं० निर्√वप्-(बोना)√ल्युट्–अन] १. पितृ-तर्पण। २. दान।
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निर्वपणी  : स्त्री० [सं० निर्√वे (बुनना)+ल्यट्–अन, ङीप्] साँप की केंचुली।
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निर्वर  : वि० [सं० निर्-वर, ब० स०] १. निर्लज्ज। बेशरम। २. निडर। निर्भीक।
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निर्वर्णन  : पुं० [सं० निर्√वर्ण (वर्णन)+ल्युट्–अन] अच्छी तरह या ध्यान से देखना।
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निर्वर्तन  : पुं० [सं० निर्√वृत् (बरतना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निर्वत्तित] निष्पत्ति। (दे०)
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निर्वर्तित  : वि० [सं० निर्वृत्त] निष्पन्न। (दे०)
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निर्वंश  : वि० [सं० निर्-वंश, ब० स०] [भाव० निर्वंशता] १. जिसके वंश में और कोई न बच रहा हो। २. (व्यक्ति) जिसे संतान न हो और इसी लिए जिसके वंश की वृद्धि न हो सके।
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निर्वसन  : वि० [सं० निर्-वसन, ब० स०] [स्त्री० निर्वसना] जिसने वस्त्र धारण न किये हों। नंगा।
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निर्वसु  : वि० [सं० निर्-वसु, ब० स०] दरिद्र। गरीब।
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निर्वहण  : पुं० [निर्√वह (ढोना)+ल्युट्–अन] १. निबाह। निर्वाह। गुजर। २. अन्त। समाप्ति।
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निर्वहण-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] नाटक में पाँच संधियों में से एक जो उस स्थिति की सूचक होती है जहाँ प्रमुख प्रयोजन में कार्य और फलागम के साथ अन्यान्य अर्थों का भी पर्यवसान होता है।
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निर्वहना  : अ० [सं० निर्वहन] निभना। स० निभाना।
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निर्वाक (च्)  : वि० [सं० निर्-वाच्, ब० स०] १. जिसकी वाक्शक्ति अवरुद्ध हो। २. जो बोल न रहा हो। चुप। मौन।
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निर्वाक्य  : वि० [सं० निर्-वाक्य, ब० स०] निर्वाक्।
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निर्वाचक  : पुं० [सं० निर्√वच्+णिच्+ण्वुल्–अक] निर्वाचन करनेवाला। पुं० निर्वाचन में खड़े हुए उम्मीदवारों को मत देनेवाला व्यक्ति। (एलेक्टरेट)
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निर्वाचक-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] जो अप्रत्यक्ष रूप से जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए विशिष्ट अधिकारी या अधिकारियों का चुनाव करता है। (एलेक्टोरल कालेज)
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निर्वाचक-सूची  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह सूची जिसमें किसी क्षेत्र के मतदाताओं के नाम, उम्र, पेशे आदि लिखे होते हैं।
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निर्वाचन  : पुं० [सं० निर्√वच्+णिच्+ल्युट्–अन] १. बहुत-सी चीजों में से अपने काम की या अपने पसन्द से कुछ चीजें चुनना या छाँटना। २. आज-कल लोकतंत्र प्रणाली में, विशिष्ट अधिकारप्राप्त मतदाताओं का कुछ लोगों को इसलिए अपना प्रतिनिधि चुनना कि वे उस संस्था के सदस्य बनकर उसका सारा प्रबंध, व्यवस्था या शासन करें। चुनाव। (इलेक्शन)
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निर्वाचन-अधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] वह अधिकारी जिसकी देख-रेख में किसी संस्था के लिए सदस्यों का निर्वाचन होता है। (रिटर्निंग आर्फिसर)
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निर्वाचन-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह क्षेत्र या भू-भाग जिसके निवासी या नागरिक किसी विशिष्ट चुनाव में मत देने के अधिकारी होते हैं। (कान्स्टीच्यूएन्सी)
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निर्वाचित  : भू० कृ० [सं० निर्√वच्+षिच्+क्त] १. जिसका निर्वाचन हुआ हो। २. (उम्मीदवार) जो निर्वाचन में सबसे अधिक मत प्राप्त करने के कारण सफल घोषित हो। (इलेक्टेड)
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निर्वाच्य  : वि० [सं० निर्√वच्+ण्यत्] १. (कथन या शब्द) जो कहा न जा सके; अथवा जिसका उच्चारण करना ठीक न हो। २. जिसमें कोई दोष न निकाला जा सके। ३. (व्यक्ति) जिसका निर्वाचन होने को हो अथवा हो सकता हो।
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निर्वाण  : भू० कृ० [सं० निर्√वा (गति)+क्त] १. (आग या दीया) बुझा हुआ। २. (ग्रह या नक्षत्र) डूबा हुआ। अस्त। ३. धीमा या मंद पड़ा हुआ। ४. मरा हुआ। मृत। ५. निश्चल। शांत। ६. शून्य स्थिति में पहुँचा हुआ। वि० बिना वाण का। जिसमें वाण न हो। पुं०√[निर् वा+ल्युट्–अन] १. आग या दीए का बुझना। २. नष्ट या समाप्त होना। न रह जाना। ३. अंत। समाप्ति। ४. अस्त होना। डूबना। ५. शांति। ६. मुक्ति। मोक्ष। ७. शरीर से जीवन या प्राण निकल जाना। मृत्यु। ८. धार्मिक क्षेत्रों में, वह अवस्था जिसमें जीव परमपद तक पहुँचता या उसे प्राप्त करता है। विशेष–यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य में ‘निर्वाण’ का प्रयोग मुक्ति या मोक्ष के अर्थ में ही हुआ है; परन्तु बौद्ध-दर्शन में यह एक स्वतंत्र पारिभाषिक शब्द हो गया था; और उस परमपद की प्राप्ति का वाचक हो गया था; जिसके लिए साधक लोग साधना करते थे, परवर्ती संत सम्प्रदायों में भी इसकी यही अथवा बहुत कुछ इसी प्रकार की व्याख्या गृहीत हुई है। यह वही अवस्था है जिसमें जीव सब प्रकार से संस्कारों से रहित या शून्य हो जाता है और जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता है।
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निर्वाणी  : वि० [सं० निर्वाण] निर्वाण-संबंधी। निर्वाण का। जैसे–निर्वाणी अखाड़ा। पुं० जैनों के एक देवता।
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निर्वात  : वि० [सं० निर्-वात, ब० स०] १. (अवकाश या स्थान) जिसमें बात या वायु न रह गई हो। (वक्यूम) वातरहित। २. शांत। स्थिर।
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निर्वाद  : पुं० [सं० निर्√वद् (बोलना)+घञ्] १. अपवाद। निंदा। २. अवज्ञा। ला-परवाही।
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निर्वाप  : पुं० [सं० निर्√वप्+घञ्] १. दान। २. पितरों के उद्देश्य से किया हुआ दान।
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निर्वापण  : पुं० [सं० निर्√वा+णिच्, पुक्+ल्युट–अन] १. बुझाना। २. मारना। वध करना। ३. (अधिकार या स्वत्व) अन्त या समाप्त करना। (एक्स्टेंशन)
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निर्वापित  : भू० कृ० [सं० निर्√वा+णिच्, पुक+क्त] १. बुझाया हुआ। २. हत। ३. अन्त या समाप्त किया हुआ। ४. विनष्ट। बरबाद।
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निर्वार  : पुं०=निवारण। उदा०–प्रभु, उसका निर्वार करो हे।–निराला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्वार्य  : वि० [सं० निर्√व (वारण)+ण्यत] १. जो निःशंक होकर परिश्रमपूर्वक कर्म करे। २. जिसका वारण या निवारण न हो सके। जो रोका न जा सके।
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निर्वास  : वि० [सं० निर्-वास, ब० स०] १. वास अर्थात् गंध से रहित। २. वास-स्थान से रहित। जिसके रहने के लिए कोई जगह न हो। पुं० १. निर्वासन। २. विदेश-यात्रा। प्रवास।
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निर्वासक  : वि० [सं० निर्√वस (बासना)+णिच+ण्वुल्–अक] निर्वासन या देश-निकाले का दंड देनेवाला।
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निर्वासन  : पुं० [सं० निर्√वस्+णिच+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निर्वासित] १. बलपूर्वक किसी को किसी राज्य या भू-भाग से निकालना। २. देश-निकाले का दंड। ३. मार डालना।
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निर्वासित  : भू० कृ० [सं० निर्√वस्+णिच्+क्त] १. जो किसी राज्य या भू-भाग से निकाल दिया गया हो। २. जिसे देश-निकाले का दंड मिला हो।
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निर्वास्य  : वि० [सं० निर्√वस्+णिच्+यत्] जो निर्वासित किये जाने के योग्य हो या किया जाने को हो।
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निर्वाह  : पुं० [सं० निर्√वह (वहन)+धञ] १. अच्छी तरह वहन करना। २. इस प्रकार आचरण या प्रयत्न करना जिससे कोई क्रम, परम्परा या संबंध बराबर बना रहे। ३. अधिकारों, कर्त्तव्यों आदि का किया जानेवाला पालन। ४. अन्त। समाप्ति।
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निर्वाह-निधि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दे० ‘संभरण-निधि’।
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निर्वाह-भृति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] उतना वेतन जितने में किसी परिवार का भरण-पोषण अच्छी तरह हो सके। (लिविंग वेज)
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निर्वाहक  : वि० [सं० निर्√वह्+णिच्+ण्वुल्–अक] १. निर्वाह करनेवाला। निभानेवाला। २. आज्ञा, निश्चय आदि का निर्वाहण या पालन करनेवाला। (एक्जिक्यूटर)
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निर्वाहण  : पुं० [सं० निर्√वह्+णिच्+ल्युट्–अन] [वि० निर्वाहणिक, निर्वाहणीय] १. निर्वाह करना। निभाना। २. किसी की आज्ञा या निश्चय के अनुसार ठीक तरह से काम करना। ३. कुछ समय के लिए किसी का काम या भार अपने ऊपर लेना।
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निर्वाहणिक  : वि० [सं० नैर्वाहणिक] १. निर्वाह-संबंधी। २. निर्वाह करनेवाला। ३. किसी के पद पर अस्थायी रूप से रहकर उसके कार्य का निर्वाहण करनेवाला। स्थानापन्न। (आफिशिएटिंग)
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निर्वाहना  : अ० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना। निभाना।
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निर्वाहिक  : वि० [सं० निर्वाह+ठक्-इक]१. निर्वाह-संबंधी। जो निर्वाह के लिए हो। जिसका या जिससे निर्वाह हो सके।
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निर्विकल्प  : वि० [सं० निर्-विकल्प, ब० स०] १. जिसमें विकल्प, परिवर्तन या भेद न हो। सदा एक-रस और एक-रूप रहनेवाला। २. निश्छल। स्थिर। पुं०=निर्विकल्प समाधि।
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निर्विकल्प-समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] समाधि का वह भेद या रूप जिसमें ज्ञेय और ज्ञाता आदि का कोई भेद नहीं रह जाता।
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निर्विकल्पक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] १. वेदांत के अनुसार वह अवस्था, जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रह जाता। दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। २. न्याय में, वह अलौकिक और प्राकृतिक ज्ञान जो इंद्रियजन्य ज्ञान से भिन्न होता और वास्तविक माना जाता है। (बौद्ध-दर्शन में इसी प्रकार का ज्ञान प्रमाण माना जाता है।)
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निर्विकार  : वि० [सं० निर्-विकार, ब० स०] जिसमें विकार न हो या न होता हो। अविकारी।
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निर्विकास  : वि० [सं० निर्-विकास, ब० स०] १. विकास से रहित। २. अविकसित।
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निर्विघ्न  : वि० [सं० निर्-विघ्न, ब० स०] जिसमें कोई विघ्न न हो। विघ्न या बाधा से रहित। अव्य० बिना किसी प्रकार के विघ्न या बाधा के।
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निर्विचार  : वि० [सं० निर्-विचार, ब० स०] विचार-शून्य। पुं० योग में, समाधि का एक भेद।
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निर्विण्ण  : वि० [सं० निर्√विद् (ज्ञान)+क्त] १. जिसके मन में निर्वेद उत्पन्न हुआ हो। विरक्त। २. खिन्न या दुःखी। ३. नम्र। ४. शांत। ५. निश्चित। स्थिर।
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निर्वितर्क  : वि० [सं० निर्-वितर्क, ब० स०] जिसके संबंध में तर्क-वितर्क न किया जा सके या न किया जाता हो।
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निर्वितर्क समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] योग में, समाधि की वह स्थिति जिसमें योगी स्थूल आलंबन में तन्मय हो जाता है।
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निर्विद्य  : वि० [सं० निर्-विद्या, ब० स०] विद्याहीन। अपढ़।
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निर्विधायन  : पुं० [?] यह निश्चय करना कि जो अमुक बात हुई है वह वस्तुतः निर्विध या विधान-विरुद्ध है। (नलिफिकेशन) जैसे–विवाह या संविदा का निर्विधायन।
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निर्विधायित  : भू० कृ० [सं०] जिसका निर्विधायन हुआ हो। निर्विध। हटाया हुआ। (नलिफाइड)
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निर्विधि  : वि० [सं० निर्-विधि, ब० स०] [भाव० निर्विधता] जिसे विधि या कानून का आधार या बल प्राप्त न हो। विधिक दृष्टि से अमान्य। (नल)
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निर्विधिता  : स्त्री० [सं० निर्विधि+तल्–टाप्] निर्विधि होने की अवस्था या भाव। (नलिटी)
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निर्विरोध  : वि० [सं० निर्-विरोध, ब० स०] १. जिसका कोई विरोध न करे; अथवा कोई विरोध न हो। २. जिसमें किसी प्रकार की बाधा या रुकावट न हो। अव्य० बिना किसी प्रकार के विरोध के।
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निर्विवाद  : वि० [सं० निर्-विवाद, ब० स०] (बात या सिद्धान्त) जिसके सही होने के संबंध में कोई विवाद न हो। अव्य० बिना किसी प्रकार का विवाद किये।
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निर्विशेष  : वि० [सं० निर्-विशेष, ब० स०] १. तुल्य। समान। २. सदा एक रूप रहनेवाला। पुं० परब्रह्म।
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निर्विष  : वि० [सं० निर्-विष, ब० स०] विष-हीन।
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निर्विषा  : स्त्री० [सं० निर्विष+टाप्] निर्विषी। (दे०)
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निर्विषी  : स्त्री० [सं० निर्विष+ङीष्] एक तरह की घास या बूटी जो विष का प्रभाव नष्ट करनेवाली मानी गई है।
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निर्विष्ट  : वि० [सं० निर्√विश् (प्रवेश)+क्त] १. जो भोग कर चुका हो। २. जो विवाह कर चुका हो। विवाहित। ३. जो अग्निहोत्र कर चुका हो। ४. जो मुक्त हो चुका हो।
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निर्वीज  : वि० [सं० निर्-वीज, ब० स०] १. जिसमें बीज न हो। बीज-रहित। २. जिसका बीज या मूल न रह गया हो; अर्थात् पूर्णरूप से विनष्ट। ३. जिसका कोई मूल या कारण न हो। कारणरहित।
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निर्वीज-समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] योग में, समाधि की वह अवस्था, जिसमें चित्त का निरोध करते-करते उसका अवलंबन या बीज विलीन हो जाता है।
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निर्वीजा  : स्त्री० [सं० निर्वीज+टाप्] किशमिश।
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निर्वीर  : वि० [सं० निर-वीर, ब० स०] वीर-विहीन।
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निर्वीरा  : वि० स्त्री० [सं० निर्वीर+टाप] पति और पुत्र से विहीन (स्त्री)।
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निर्वीर्य्य  : वि० [सं० निर्-वीर्य, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसमें वीर्य न हो; फलतः नपुंसक। २. बल, तेज आदि से रहित; फलतः अशक्त। ३. (भूमि) जिसमें उर्वरा-शक्ति न हो।
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निर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० निर्√वृत्त+क्तिन] वापस आना। लौटना।
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निर्वेक्ष  : पुं० [सं०] भृत्ति। वेतन।
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निर्वेग  : वि० [सं० निर्-वेग, ब० स०] वेग-हीन।
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निर्वेद  : पुं० [सं० निर्√विद्+घञ्] १. ग्लानि। घृणा। २. मन में स्वयं अपने संबंध में होनेवाली खेदपूर्ण ग्लानि और निराशा। ३. उक्त के फलस्वरूप सांसारिक बातों से होनेवाली विरक्ति। वैराग्य। ४. उक्त के आधार पर साहित्य में, तैंतीस संचारी भावों में से पहला भाव जिसकी गणना कुछ आचार्यों ने स्थायी भावों में भी की है। विशेष–कहा गया है कि कष्ट, दरिद्रता, प्रियजनों के विरोध, रोग आदि के कारण मन में जो खेद या ग्लानि होती है, वही साहित्य का निर्वेद है। प्रायः इसके मूल में आध्यात्मिक और तात्त्विक विचार होते हैं; इसलिए कुछ आचार्य इसे शांत रस का स्थायी भाव मानते हैं। पर अधिकतर लोग इसे भरत के आधार पर संचारी भाव ही कहते हैं। यह वही मनोवृत्ति है जो मनुष्य को सांसारिक विषयों की ओर से उदासीन करके परमात्म-चिंतन में प्रवृत्त करती है, और इस दृष्टि से रति या श्रृंगार रस के बिलकुल विपरीत है।
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निर्वेश  : पुं० [सं० निर्√विश्+घञ्] १. भोग। २. वेतन। तनख्वाह। ३. विवाह। ४. मोक्ष। मूर्च्छा। बेहोशी। ६. बदला लेना।
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निर्वेष्टन  : पुं० [सं० निर्-वेष्टन, ब० स०] जुलाहों की सूत लपेटने की ढरकी।
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निर्वैर  : वि० [सं० निर्-वैर, ब० स०] वैर, द्वेष आदि से रहित। पुं० वैर का अभाव।
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निर्व्यथन  : पुं० [सं० निर्√व्यथ् (पीड़ा)+ल्युट्–अन] १. तीव्र पीड़ा या वेदना। २. पीड़ा से होनेवाला छुटकारा।
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निर्व्यलीक  : वि० [निर्-व्यलीक, ब० स०] १. छल आदि से रहित। निष्कपट। २. जो किसी को कष्ट न पहुँचाये। निरीह। ३. प्रसन्न। ४. सुखी।
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निर्व्याज  : वि० [सं० निर्-व्याज, ब० स०] १. व्याज अर्थात् कपट या छल से रहित। २. बाधा या विघ्न से रहित। निर्विघ्न।
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निर्व्याधि  : वि० [सं० निर्-व्याधि, ब० स०] व्याधि या रोग से मुक्त या रहित।
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निर्व्यापार  : वि० [सं० निर्-व्यापार, ब० स०] व्यापार-हीन।
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निर्व्यूढ़  : वि० [सं० निर्-वि√वह्+क्त] [भाव० निर्व्यूढि] १. पूरा बनाया हुआ। २. बढ़ा हुआ। विकसित। ३. त्यक्त। ४. भाग्यवान्। ५. सफल। ६. धकेला या निकाला हुआ।
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निर्व्यूढ़ि  : स्त्री० [सं० निर्-वि√वह्+क्तिन्] १. अन्त। समाप्ति। २. कलगी। ३. चोटी। ४. खूँटी। ५. काढ़ा।
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निर्व्रण  : वि० [सं० निर्-व्रण, ब० स०] जिसे व्रण, या घाव न हो या न लगा हो।
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निर्हरण  : पुं० [सं० निर्√हृ (हरण)+ल्युट्–अन] १. जलाने के लिए शव को अर्थी पर ले जाना। २. शव जलाना। ३. नष्ट करना।
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निर्हार  : पुं० [सं० निर्√हृ+घञ्] १. गाड़ी या धँसी हुई चीज को निकालना। २. मल-मूत्र आदि का त्याग करना। ‘आहार’ का विपर्याय। ३. धन, संपत्ति आदि जोड़ना।
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निर्हारक  : वि० [सं० निर्√हृ+ण्वुल्–अक] मुरदे उठाने या ढोनेवाला।
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निर्हारी (रिन्)  : वि० [सं० निर्√हृ+णिनि] १. वहन करनेवाला। २. फैलानेवाला। पुं०=निर्हारक।
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निर्हेतु  : वि० [सं० निर्-हेतु, ब० स०] हेतु-रहित क्रि० वि० बिना किसी हेतु के।
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निल  : पुं० [सं०] विभीषण का एक मंत्री जो माली राक्षस का पुत्र था।
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निलज  : वि०=निर्लज्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निलजई, निलजता  : स्त्री०=निर्लज्जता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निलज्ज  : वि०=निर्लज्ज।
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निलंबन  : पुं०=अनुलंबन।
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निलय  : पुं० [सं० नि√ली (छिपना)+अच्] १. छिपने का स्थान। जैसे–पशुओं की माँद या पक्षियों का घोंसला। २. अपने को छिपाने की क्रिया या भाव। ३. रहने का स्थान। घर। ४. शरीर-शास्त्र में हृदय के उन दोनों अवकाशों में से हर एक जिनके द्वारा सारे शरीर में रक्त कं संचार होता है। (वेन्ट्रिकल)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निलयन  : पुं० [सं० नि√ली+ल्युट्–अन] १. छिपना। २. वासकरना। रहना। ३.=निलय।
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निलहा  : वि० [हिं० नीला+हा (प्रत्य०)] १. नीले रंगवाला। २. नीले रंग में रँगा हुआ। ३. नील-संबंधी। नीलवाला। जैसे–निलहा साहब=वह अंगरेज जो नील की खेती करता और व्यापार करता था।
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निलाज  : वि०=निर्लज्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निलाट  : पुं०=ललाट।
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निलाम  : पुं०=नीलाम।
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निलिंप  : पुं० [सं० नि√लिप्+श, मुम्] देवता।
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निलिंप, निर्झरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा।
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निलिंपा  : स्त्री० [सं० निलिम्प+टाप्] गाय।
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निलीन  : वि० [सं० नि√ली+क्त, तस्य नः] १. छिपा हुआ। २. विनष्ट। ३. गला या पिघला हुआ।
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निलोह  : वि० [हिं० नि+लोह ?] १. जिसमें मिलावट न हो। विशुद्ध। २. जिस पर किसी प्रकार की आँच न आई हो।
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निव  : पुं० [सं० नि√पा (पीना)+क] १. कलस। २. [नीप पृषो० सिद्धि] कदम (वृक्ष)।
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निवछरा  : वि० [सं० निवृत्त] (ऐसा समय) जिसमें करने के लिए कोई काम-काज न हो।
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निवछावर  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवड़िया  : स्त्री० [हिं० नावर] छोटा नवाड़ा (नाव)।
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निवत्त  : वि०=निवृत्त।
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निवना  : अ०=नवना (झुकना)।
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निवपन  : पुं० [सं०] १. पितरों आदि के उद्देश्य से दान करना। २. वह पदार्थ जो पितरों के उद्देश्य से दान किया जाय।
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निवर  : वि० [सं० नि√वृ (रोकना)+अच्] १. निवारण करनेवाला। २. रोकनेवाला। पुं० आवरण। परदा।
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निवरा  : वि० स्त्री० [सं० नि√वृ (वरण)+अप्–टाप्] जिसका वर या पति न हो; अर्थात् कुँआरी।
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निवर्तक  : वि० [सं० नि√वृत् (बरतना)+णिच्+ण्वुल्–अक] निर्वर्तन करनेवाला।
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निवर्तन  : पुं० [सं० नि√वृत्+णिच्–ल्युट्–अन] १. घूम-फिरकर अपने पहले स्थान पर आना। वापस आना। लौटना। २. फिर घटित न होना। अन्त या समाप्ति न होना। ३. किसी काम या बात से अलग या दूर रहना। बचना। ४. कार्य अथवा क्रिया से रहित या शून्य होना। ५. आगे न बढ़ने देना। रोक रखना. ६. आजकल न्यायालय की वह प्रक्रिया जो किसी बने हुए विधान को रद या समाप्त करने के लिए होती है। कानून या विधान रद करना। (रिपील) ७. अन्दर की ओर घूमना या मुड़ना। ८. वह अंग या पदार्थ जो अन्दर की ओर घूम या मुड़कर बना हो। ९. कोई ऐसी क्रिया, जो अन्त या ह्रास की ओर ले जाती हो। अन्त या समाप्ति निकट लानेवाली क्रिया। १॰. अरविंद-दर्शन में, चेतना का क्रमशः अन्तर्निहित या तिरोभूत होना जिसके द्वारा अनन्त भागवत चेतना का अन्त होता है। ‘विवर्तन’ का विपर्याय। (इन्वोल्यूशन; अंतिम चारों अर्थों के लिए) ११. जमीन की एक पुरानी नाप जो २॰ लट्ठों की होती थी।
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निवर्तित  : भू० कृ० [सं० नि√कृत+णिच्+क्त] १. लौटा या लौटाया हुआ। २. जिसका निवर्तन हुआ हो। रद।
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निवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० नि√वृत्+णिनि] १. वह जो पीछे की ओर हट आया हो। २. वह जो युद्ध क्षेत्र से भाग आया हो। वि०=निर्लिप्त।
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निवसति  : स्त्री० [सं० नि√वस् (बसना)+अतिच्] रहने का स्थान। घर।
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निवसथ  : पुं० [सं० नि√वस्+अथच्] १. गाँव। २. सीमा। हद।
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निवसन  : पुं० [सं० नि√वस्+ल्युट्–अन] १. निवास करने की क्रिया या भाव। २. निवास के योग्य अथव निवास का स्थान। जैसे–गाँव का घर। ३. वसन। वस्त्र। कपड़ा। ४. स्त्रियों के पहनने का अधोवस्त्र।
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निवसना  : अ० [सं० निवास] निवास करना। रहना।
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निवह  : पुं० [सं० नि√वह्+घ] १. समूह। यूथ। २. सात वायुओं में से एक वायु।
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निवाई  : वि० [सं० नव] १. नवीन। नया। २. अनोखा। विलक्षण। स्त्री० नयापन। नवीनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] १. गरमी। ताप। २. ज्वर। बुखार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाकु  : वि० [सं० नि√वच् (बोलना)+घुण्] चुप। मौन।
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निवाज  : वि०=नवाज। (देखें) स्त्री०=नमाज़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाजना  : स० [फा० निवाज़] अनुग्रह या प्रार्थना करना।
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निवाजिश  : स्त्री० [फा०] १. अनुग्रह। कृपा। २. दया। मेहरबानी।
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निवाड़  : स्त्री०=निवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाड़ा  : पुं० १.=नवाड़ा। २.=नावर (नावों की क्रीड़ा)।
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निवाड़ी  : स्त्री०=निवारी।
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निवाण  : स्त्री० [सं० निम्न] नीची या ढालुई जमीन।
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निवात  : पुं० [सं० नि√वा (गति)+क्त] १. रहने का स्थान। घर। २. ऐसा कवच या वर्म जो शास्त्रों से छेदा न जा सके। ३. सुरक्षित स्थान। ४. शांति। वि०=निर्वात।
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निवान  : पुं० [सं० निम्न] १. नीची जमीन जहाँ सीड़, कीचड़ या पानी भरा रहता हो। २. झील या तालाब। पुं०=नवान्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाना  : वि० [स्त्री० निवानी]=निमाना। उदा०–हरीचन्द नित रहत दिवाने, सूरज अजब निवानी के।–भारतेन्दु। स०=नवाना (झुकाना)।
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निवान्या  : स्त्री० [सं० नि√वा+क=निव (पीनेवाला)–अन्य ब० स०, टाप्] वह मृतवत्सा जौ जो दूसरी गाय के बछड़े को लगाकर दूही जाय।
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निवार  : स्त्री० [फा० नवार] मोटे सूत की बनी हुई तीन-चार अंगुल चौड़ी वह पट्टी जिससे पलंग बुने जाते हैं। स्त्री० [सं० नेमि+आर] पहिए की तरह की लकड़ी का वह गोल चक्कर जो कूएँ की नींव में धँसाया जाता है जिसके ऊपर कोठी की जोड़ाई होती है। जमावट। पुं० [सं० नीवार] तिन्नी का धान। स्त्री० [?] एक प्रकार की बड़ी और मोटी मूली।
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निवार-बाफ  : पुं० [फा० नवार+बाफ़=बुननेवाला] [भाव० निवार-बाफी] निवार अर्थात पलंग बुनने की सूत की पट्टी बुननेवाला जुलाहा।
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निवारक  : वि० [सं० नि√वृ (रोकना)+णिच्+ण्वुल्–अक] १. निवारण करनेवाला। २. दूर करने, रोकने या हटानेवाला।
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निवारण  : पुं० [सं० नि√वृ+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी की बढ़ने या फैलने से रोकना। २. दूर करना। हटाना। ३. आनेवाली बाधा या संकट को बीच में ही रोकने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। रोक-थाम। (प्रिवेन्शन) ४. निषेध। मनाही। ५. छुटकारा। निवत्ति।
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निवारन  : पुं०=निवारण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवारना  : स० [सं० निवारण] १. निवारण करना। २. संकट आदि दूर करना, रोकना या हटाना। ३. संकट आदि से किसी को बचाना या उसकी रक्षा करना। ४. कोई काम या बात टालते या रोकते हुए समय बिताना। ५. निषेध करना। मना करना।
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निवारी  : स्त्री० [सं० नेपाली या नेमाली] १. चैत में फूलनेवाला जूही की जाति का सुगंधित फूलोंवाला एक पौधा। २. इस पौधे के फूल जो सफेद और सुगंधित होते हैं। वि० [हिं० निवार] १. निवार-संबंधी। निवार का। २. निवार से बुना हुआ। जैसे–निवारी पलंग।
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निवाला  : पुं० [फा० निवालः] कौर। ग्रास।
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निवास  : पुं० [सं० नि√वस+घञ्] १. किसी स्थान को अपना घर बनाकर वहाँ बसने या रहने की क्रिया या भाव। वास। जैसे–आज-कल आप प्रयाग में निवास करते हैं। २. उक्त प्रकार से बसकर रहने का स्थान। ३. विश्राम करने का स्थान। ४. घर। मकान। ५. भौगोलिक दृष्टि से ऐसा स्थान, जहाँ किसी जाति के जीव रहते या कोई वनस्पति होती हो। ६. पहनने के वस्त्र। पोशाक।
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निवास-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ कोई व्यक्ति निवास करता या रहता हो। रहने की जगह। २. घर। मकान।
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निवासन  : पुं० [सं० निवसन] १. किसी स्थान पर निवास करना या बसकर रहना। २. घर। मकान। ३. समय बिताने की क्रिया या भाव।
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निवासित  : भू० कृ० [सं० नि√वस्+णिच+क्त] १. (स्थान) जो आबाद किया गया हो। बसाया हुआ। २. बसा हुआ।
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निवासी (सिन्)  : वि० [सं० नि√वस्+णिनि] (स्थान-विशेष में) रहने या निवास करनेवाला। जैसे–भारत निवासी या लंका निवासी।
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निवास्य  : वि० [सं० नि√वस्+ण्यत्] (स्थान) जहाँ निवास किया जा सकता हो या किया जाने को हो। रहने के योग्य। निवास-स्थान के रूप में काम आने के योग्य।
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निविड़  : वि० [सं० नि√विड् (संघात)+क] [भाव० निविड़ता] १. जिसमें अवकाश या स्थान न हो। २. घना। सघन। ३. गंभीर। ४. भारी डील-डौलवाला। ५. चिपटी, टेढ़ी या दबी हुई नाकवाला।
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निविड़ता  : स्त्री० [सं० निविड़+तल–टाप्] १. निविड़ होने की अवस्था या भाव। घनापन। २. गंभीरता। ३. वंशी के पाँच गुणों में से एक जो उसके स्वर की गंभीरता पर आश्रित होता है।
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निविद्धान  : पुं० [सं० निविद√धा (धारण)+ल्युट्–अन] एक दिन में समाप्त होनेवाला यज्ञ।
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निविरीष  : वि० [सं० नि+विरीसच्] १. घना। २. गहरा। ३. भद्दा। स्त्री० १. घनता। २. गहराई। ३. भद्दापन।
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निविल  : वि०=निविड़।
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निविवेक  : वि० [सं० निर्-विवेक, ब० स०] [भाव० निर्विवेकता] विवेक-रहित।
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निविशमान  : वि० [सं०] जिसने कहीं निवास किया हो या जो कहीं निवास कर रहा हो। पुं० वह लोग जो किसी उपनिवेश में बसाये गये हों।
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निविशेष  : वि० [सं० निर्विशेष] १. जिसमें दूसरों से कोई विशेषता न हो। साधारण। सामान्य। २. तुल्य। समान। पुं० १. समानता। २. एक-रूपता।
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निविष  : वि०=निर्विष (विषहीन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निविष्ट  : वि० [सं० नि√विश् (प्रदेश)+क्त] [भाव० निविष्टता] १. बैठा हुआ। आसीन। २. जो कहीं निवेश बनाकर या डेरा डालकर ठहरा हो। ३. किसी काम या बात के लिए तत्पर या तुला हुआ। ४. (मन) एकाग्र करके नियंत्रित किया हुआ। ५. क्रम या व्यवस्था से लगाया हुआ। ६. जिसका प्रवेश हुआ हो। प्रविष्ट। ७. कहीं लिखा, दर्ज किया या चढ़ाया हुआ। (एन्टर्ड) ८. बाँधा या लपेटा हुआ। ९. ठहरा या ठहराया हुआ। स्थित। १॰. किसी के अन्दर भरा या रखा हुआ।
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निविष्ट  : स्त्री० [सं० नि√विश्+क्तिन्] १. मैथुन या संभोग करना। २. विश्राम करना। ३. खाते आदि में लिखने, दर्ज करने या चढ़ाने की क्रिया या भाव। ४. इस प्रकार चढ़ी, चढ़ाई या लिखी हुई बात या रकम। (एन्ट्री)
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निवीत  : पुं० [सं० नि√व्ये (आच्छादन)+क्त] १. यज्ञोपवीत, जो गले में पहना हुआ हो। २. ओढ़ने का कपड़ा। चादर। ओढ़नी।
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निवीती (तिन्)  : वि० [सं० निवीत+इनि] १. जो यज्ञोपवीत पहने हो। २. जो चादर ओढ़े हो।
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निवीर्य  : वि०=निर्वीर्य।
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निवृत्त  : वि० [सं० निर्√क्त (बरतना)+क्त] [भाव० निर्वत्ति] १. वापस आया या लौटा हुआ। २. निष्पन्न।
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निवृत्त  : भू० कृ० [सं० नि√वृत+क्त] १. वापस आया या लौटाया हुआ। २. जिसकी सांसारिक विषयों में प्रवृत्ति न रह गई हो। ३. जो कोई काम करके उससे छुट्टी पा चुका हो। जो अपना काम कर चुका हो। ४. (कार्य) जो पूरा हो चुका हो। मुक्त। पुं० १. आवरण। २. परदा। ३. लपेटने का कपड़ा। बेठन।
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निवृत्ति  : स्त्री० [सं० नि√वृत्+क्तिन्] १. निवृत्त होने की क्रिया या भाव। २. वापस आना या लौटना। ३. किसी काम की प्रवृत्ति का अभाव होना। ४. सांसारिक विषयों का किया जानेवाला त्याग। ५. ‘प्रवृत्ति’ का विपर्याय। ६. छुटकारा। मुक्ति। ७. अपने कार्य या पद से अवकाश पाकर अथवा अवधि पूरी हो जाने पर सदा के लिए हट जाना। (रिटायरमेंट) ८. एक प्राचीन तीर्थ।
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निवृत्तिक  : वि० [सं०] निवृत्ति-संबंधी। जैसे–निवृत्तिक मार्ग या साधना।
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निवेद  : पुं० [सं० नैवेद्य] देवता को चढ़ाया हुआ पदार्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवेदक  : वि० [सं० नि√विद् (जानना)+णिच्+ण्वुल्–अक] (व्यक्ति) जो नम्रतापूर्वक किसी से कोई बात कहे। निवेदन करनेवाला।
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निवेदन  : पुं० [सं० नि√विद्+णिच्+ल्युट्–अन] १. नम्रतापूर्वक किसी से कोई बात कहना। २. इस प्रकार कही हुई कोई बात जो प्रायः सुझाव के रूप में होती है। ३. समर्पण। ४. आहुति।
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निवेदन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी एक या कई व्यक्तियों ने निवेदन लिखा हो। (लेटर आफ रिक्वेस्ट)
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निवेदना  : स० [सं० निवेदन] १. विनती, निवेदन या प्रार्थना करना। २. सेवा में भेंट आदि के रूप में उपस्थित करना।
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निवेदित  : भू० कृ० [सं० नि√विद्+णिच्+क्त] १. (बात) जो निवेदन या प्रार्थना के रूप में कही गई हो। २. (पदार्थ) जो भेंट आदि के रूप में अर्पित या समर्पित किया गया हो।
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निवेद्य  : पुं० [सं० नि√विद्+ण्यत्] नैवेद्य। (दे०)
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निवेरना  : स०= निबेड़ना (निपटाना)।
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निवेरा  : वि० [हिं० नि+सं० वरण] [स्त्री० निवेरी] १. चुना या छाँटा हुआ। वि० [सं० नवल] १. नेवला। २. अनोखा। पुं०=निबेड़ा।
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निवेश  : पुं० [सं० नि√विश्+घञ्] [वि० नैवेशिक, भू० कृ० निवेशित, निविष्ट] १. डेरा। शिविर। २. प्रवेश। पैठ। ३. घर। मकान। ४. विवाह। ५. ठहराया या रखा जाना। स्थापन। ६. किसी निश्चय, विधि आदि में पड़नेवाली कठिनता या होनेवाली बाधा से बचने के लिए निकाला हुआ मार्ग या निश्चित किया हुआ विधान। (प्रॉविजन)
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निवेशन  : पुं० [सं० नि√विश्+ल्युट्–अन] १. डेरा। २. घर। ३. नगर।
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निवेशनी  : स्त्री० [सं० निवेशन+ङीप्] पृथ्वी।
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निवेष्ट  : पुं० [सं० नि√वेष्ट् (लपेटना)+घञ्] १. वह कपड़ा जिसमें कोई चीज ढकी या लपेटी जाय। बेठन। २. सामवेद का एक प्रकार का मंत्र।
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निवेष्टन  : पुं० [सं० नि√वेष्ट+ल्युट्–अन] १. ढकने या लपेटने की क्रिया या भाव। २. ढकने या लपेटनेवाली चीज। बेठन।
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निवेष्य  : पुं० [सं० नि√विष् (व्याप्ति)+ण्यत्] १. व्याप्ति। २. बरफ का पानी। ३. जल-स्तंभ। (देखें)
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निव्याधी (धिन्)  : पुं० [सं० नि√व्यध् (मारना)+णिनि] एक रुद्र का नाम।
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निव्यूढ़  : पुं० [सं० नि-वि√ऊह् (वितर्क)+क्त] १. अध्यवसाय। २. शक्ति। ३. उत्साह।
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निश  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।
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निःशंक  : वि० [सं० निर्-शंका, ब० स०] १. जिसे किसी प्रकार की शंका न हो। २. निधड़क। क्रि० वि० बिना किसी प्रकार की शंका या डर के।
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निशंक  : वि०=निःशंक।
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निशंग  : पुं०=निषंग।
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निशचर  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निशठ  : पुं० [सं०] बलदेव के एक पुत्र का नाम। (पुराण)
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निशतर  : पुं० [फा०] वह उपकरण जिससे चीर-फाड़ की जाय। नश्तर। (शल्य चिकित्सा)
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निःशत्रु  : वि० [सं० निर्-शत्रु, ब० स०] जिसका कोई शत्रु न हो।
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निःशब्द  : वि० [सं० निर्-शब्द, ब० स०] १. (स्थान) जिससे शब्द न हो रहा हो। २. जो शब्द न करता हो।
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निशब्द  : वि० [सं० निःशब्द] १. (स्थान) जो शब्द से रहित हो। २. (व्यक्ति) जो चुप या मौन हो।
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निःशब्दक  : पुं० [सं० निःशब्द+णिच्+ण्वुल्–अक] यंत्रों में रहनेवाला एक उपकरण जो यंत्रों के कुछ पुरजों को अधिक जोर का शब्द या शोर नहीं करने देता। (साइलेन्सर)
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निशब्दक  : वि० [सं० निःशब्दक] शब्द न करनेवाला। (साइलेंसर)
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निःशम  : पुं० [सं० निर्-शम, प्रा० स०] १. असुविधा। २. चिंता।
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निशमन  : पुं० [सं० नि√शम् (शान्ति)+णिच्+ल्युट्–अन] १. दर्शन। देखना। २. श्रवण। सुनना।
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निःशरण  : वि० [सं० निर्-शरण, ब० स०] जिसे कोई शरण देनेवाला न हो। असहाय।
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निशरण  : पुं० [सं० नि√शृ (हिंसा)+ल्युट्–अन] मारण। वध।
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निःशलाक  : वि० [सं० निर्-शलाका, ब० स०] एकांत। निर्जन।
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निःशल्य  : वि० [सं० निर्-शल्य, ब० स०] [स्त्री० निःशल्या] १. जिसके पास शल्य अर्थात् तीन न हों। २. जिसमें शल्य न हो। कंटक रहित। ३. जिसमें कोई खटकनेवाली बात न हो। ४. जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो। निष्कंटक।
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निशल्या  : स्त्री० [सं०] दंती (वृक्ष)।
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निशा  : स्त्री० [सं० नि√शो (क्षीण करना)+क–टाप्] १. रात्रि। रजनी। रात। २. हलदी। ३. दारू हलदी। ४. फलित ज्योतिष में, इन छः राशियों का समूह–मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनु और मकर।
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निशा-केतु  : पुं० [सं० ष० त०] चन्द्रमा।
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निशा-गृह  : पुं० [सं० मध्य० स०] शयनागार।
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निशा-चर्म  : पुं० [सं० स० त०] अंधकार। अंधेरा।
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निशा-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हिम। पाला। २. ओस।
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निशा-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा। ३. कपूर।
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निशा-पति  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशा-पुत्र  : पुं० [ष० त०] नक्षत्र आदि आकाशीय पिंड।
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निशा-बल  : पुं० [ब० स०] मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धन और मकर ये छः राशियाँ जो रात के समय अधिक बलवती मानी जाती हैं। (फलित ज्योतिष)
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निशा-भंगा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] दुग्धपुच्छी नामक पौधा।
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निशा-मणि  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशा-मुख  : पुं० [ष० त०] संध्या काल।
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निशा-मृग  : पुं० [मध्य० स०] गीदड़। श्रृगाल।
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निशा-रत्न  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशा-रुक  : पुं० दे० ‘निशासक’।
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निशा-वन  : पुं० [ब० स०] सन का पौधा।
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निशा-विहार  : पुं० [ब० स०] राक्षस।
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निशा-हासा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] शेफालिका।
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निशाकर  : वि० [सं० निशा√कृ (करना)+ट] निशा करनेवाला। पुं० १. चन्द्रमा। २. महादेव। शिव। ३. कुक्कुट। मुरगा। ४. कपूर।
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निःशाख  : वि० [सं० निर्-शाखा, ब० स०] जिसमें शाखाएँ न हों। बिना शाखाओं का।
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निशाखातिर  : स्त्री० [फा० निशा+अ० खातिर] किसी काम या बात के संबंध में मन में होनेवाला वह पूरा विश्वास जो किसी दूसरे के समझाने पर उत्पन्न होता है।
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निशाख्या  : स्त्री० [सं० निशा-आख्या, ब० स०] हलदी।
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निशाचर  : वि० [सं० निशा√चर्(गति)+ट] रात के समय चलने या विचरण करनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. गीदड़। ३. उल्लू। ४. साँप। ५. चकवा-पक्षी। चक्रवाक। ६. भूत, प्रेत आदि। ७. चोर। ८. महादेव। शिव। ९. चनेर नामक गंध-द्रव्य। १॰. बिल्ली। ११. एक प्रकार की ग्रंथिपर्णी या गठिवन।
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निशाचर-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. रावण। २. शिव।
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निशाचरी  : वि० [सं० निशाचर+ङीष्] १. निशाचर-संबंधी। निशाचर का। जैसे–निशाचरी माया। २. निशाचरों की तरह का। स्त्री० १. राक्षसी। २. कुलटा या व्यभिचारिणी। ३. अभिसारिका। नायिका। ४. केशिनी नामक गंध-द्रव्य।
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निशाट  : पुं० [सं० निशा√अट् (भ्रमण)+अच्] १. उल्लू। २. निशाचर।
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निशाटक  : पुं० [सं० निशा√अट्+ण्वुल्–अक] गूगल।
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निशाटन  : वि० [सं० निशा√अट्+ल्यु–अन] रात्रि को चलनेवाला। निशाचर। पुं० उल्लू।
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निशांत  : वि० [सं० नि-शांत, प्रा० स०] १. (व्यक्ति) पूर्ण रूप से या बहुत अधिक शांत। २. (वातावरण या स्थान) जिसमें शांति न हो। पुं० १. निशा अर्थात् रात्रि का अंत। पिछली रात। रात का चौथा प्रहर। २. तड़का। प्रभात। ३. घर। मकान।
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निशात  : वि० [सं० नि√शो (तेज करना)+क्त] १. सान पर चढ़ाकर तेज किया हुआ। २. ओर आदि लगाकर चमकाया हुआ। वि० [फा० नशात] १. आनंद। सुख। २. सुखभोग।
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निशातिक्रम, निशात्मय  : पुं० [सं० निशा-अतिक्रम, निशा-अत्यय, ष० त०] १. रात का बीतना। २. प्रातःकाल।
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निशाद  : वि० [सं० निशा√अद् (खाना)+अच्] रात को खानेवाला। पुं० निषाद। (दे०)
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निशादि  : वि० [सं० निशा-आदि, ब० स० या ष० त०] सायं। संध्या।
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निशांध  : वि० [सं० निशा-अन्ध, स० त०] जिसे रात को दिखाई न दे। जिसे रतौंधी हो।
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निशांधा  : स्त्री० [सं० निशा√अन्ध (दृष्टि-विघात)+अच–टाप्] जतुका लता।
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निशांधी  : स्त्री० [सं० निशा√अन्ध्+अच्–ङीष्] १. जतुका या पहाड़ी नामक लता। २. राजकुमारी।
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निशान  : पुं० [फा०] १. चिह्न। लक्षण। २. ऐसा प्राकृत या आकस्मिक चिह्न या लक्षण जिससे कोई चीज पहचानी जाय या जिससे किसी घटना या बात का परिचय, प्रमाण या सूत्र मिले। ३. मोहर आदि की छाप। ४. झंडा या पताका जिससे किसी संप्रदाय, राज्य आदि की पहचान होती है। ५. प्राचीन काल में वह झंडा जो राजाओं की सवारियों के आगे चलता था। ६. कलंक। धब्बा। ७. वह चिह्न जो लेख्यों आदि पर अशिक्षित लोग अपने हस्ताक्षर के बदले बनाते हैं। जैसे–अगूँठे का निशान। ८. पता। ठिकाना। मुहा०–निशान-देना=सम्मान आदि तामील करने के लिए यह बताना कि यही असामी है। ९. निशाना। १॰. दे० ‘निशानी’।
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निशान-कोना  : पुं० [सं० ईशान+हिं० कोना] उत्तर और पूर्व का कोण।
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निशान-देही  : स्त्री० [फा० निशाँ देही] १. किसी का पता-ठिकाना बतलाना। २. न्यायालय के सम्मन आदि की तामील के लिए चपरासी के साथ जाकर यह बतलाना कि यही वह आदमी है जिसे सम्मन दिया जाना चाहिए। प्रतिवादी की पहचान कराना।
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निशान-पट्टी  : स्त्री० [फा० निशान+हिं० पट्टी] १. चेहरे की गठन और रूप रंग का वर्णन। हुलिया।
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निशान-बरदार  : पुं० [फा०] झंडा हाथ में लेकर जुलूस, सवारी आदि के आगे चलनेवाला व्यक्ति।
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निशानची  : वि० [फा०] १. बढ़िया निशाना लगानेवाला। पुं० जुलूस या राजा आदि की सवारी के आगे-आगे झंडा लेकर चलनेवाला व्यक्ति।
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निशाना  : पुं० [फा० निशानः] १. वह वस्तु या बिंदु जिस पर शस्त्र से आघात किया जाय। क्रि० प्र०–करना।–बनाना। २. किसी पदार्थ को लक्ष्य बनाकर उसकी ओर किसी प्रकार का वार करने की क्रिया। वार। मुहा०–निशाना बाँधना=निशाना साधना। (देखें नीचे) निशाना मारना या लगाना=(क) ठीक लक्ष्य पर वार करना। (ख) ठीक लक्ष्य पर वार करने का अभ्यास करना। ३. मिट्टी आदि का वह ढेर या और कोई पदार्थ, जिस पर निशाना साधा जाय ४. वह जिसे लक्ष्य बनाकर कोई उग्र या विकट आघात या क्रिया की जाय। जैसे–किसी की नजर का निशाना, किसी के ताने या व्यंग्य का निशाना।
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निशानी  : स्त्री० [फा०] १. वह चीज जो किसी घटना या व्यक्ति का स्मरण करनेवाली हो। स्मृति-चिह्न। यादगार। जैसे–(क) यही लड़का भाई साहब की निशानी है। (ख) विधवा के पास यही अँगूठी उसके पति की निशानी बच रही है। क्रि० प्र०–देना।–रखना। २. पहचान का चिह्न। निशान।
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निशापुष्प  : पुं० [सं० निशा√पुष्प् (खिलना)+अच्] कुमुदनी। कोई।
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निशामन  : पुं० [सं० नि√शम् (शांति)+णिच्+ल्युट्–अन] १. दर्शन। देखना। २. आलोचना। ३. श्रवण। सुनना।
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निशावसान  : पुं० [निशा-अवसान, ष० त०] निशा के समाप्त होने का समय। प्रभात का समय।
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निशासक  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का रूपक ताल जिसमें दो लघु और दो गुरु मात्राएँ होती हैं।
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निशास्ता  : पुं० [फा० नशास्तः] १. गेहूँ का सार। २. कपड़ों में लगाया जानेवाला कलफ या माड़ी।
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निशाहस  : पुं० [सं० निशा√हस् (हँसना)+अच्] कुमुदनी।
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निशाह्वा  : स्त्री० [सं० निंशा-आह्वा, ब० स०, टाप्] १. हलदी। २. जतुका नामक लता।
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निशि  : स्त्री० [सं० नि√शो+इन् ?] १. रात्रि। रात। २. स्वप्न। ३. हलदी। ४. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण और एक लघु होता है।
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निशि-नायक  : पुं०=निशिनाथ (चंद्रमा)।
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निशि-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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निशि-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] शेफालिका।
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निशि-वासर  : अव्य० [द्व० स०] १. रात-दिन। २. सदा। सर्वदा।
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निशिकर  : पुं० [सं० निशि √कृ०+ट] १. चंद्रमा। शशि।
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निशिचर  : पुं० [सं० निशि√चर् (गति)+ट]=निशाचर।
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निशिचर-राज  : पुं० [सं० ष० त०] राक्षसों का राजा, विभीषण।
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निशित  : वि० [सं० नि√शो (तीक्ष्ण करना)+क्त] जो सानपर चढ़ा हो अर्थात् चोखा या तेज। पुं० लोहा।
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निशिता  : स्त्री० [सं० निशित्+टाप्] रात्रि। निशा। रात।
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निशिदिन  : अव्य० [सं० निशि+दिन] १. रात-दिन। २. सदा। सर्वदा।
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निशिनाथ  : पुं०=निशानाथ।
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निशिपाल  : पुं० [सं० निशि√पाल् (बचाना)+णिच्+अच्] १. चंद्रमा। २. एक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः भगण, जगण, नगण और रगण होते हैं।
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निशिपुष्पिका, निशिपुष्पी  : स्त्री० [ब० स०, कप्, टाप्, इत्व; ब० स०, ङीष्] शेफालिका।
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निशीत  : पुं०=निशीथ।
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निशीथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशीथ्या  : स्त्री० [सं०] रात्रि।
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निशीय  : पुं० सं० नि√शी (सोना)+थक्] १. रात०। २. आधी रात। ३. पुराणानुसार रात्रि का एक कल्पित पुत्र। ४. छाल या रेशे से बना हुआ कपड़ा।
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निःशील  : वि० [सं०]=निश्शील।
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निःशुक्र  : वि० [सं० निर्-शुक्र, ब० स०] १. शक्तिहीन। २. निरुत्साह।
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निशुंभ  : पुं० [सं० नि√शुम्भ (हिंसा)+घञ्] १. वध। २. हिंसा। दनु का पुत्र एक राक्षस जिसका वध दुर्गा ने किया था। (पुराण)
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निशुंभ-मर्दिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा।
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निशुंभन  : पुं० [सं० नि√शुम्भ +ल्युट्–अन] मार डालना। वध करना।
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निशुंभी (मिन्)  : पुं० [सं० निशुंभ=मोहनाश+इनि] एक बुद्ध का नाम।
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निःशुल्क  : वि० [सं० निर्-शुल्क, ब० स०] १. जिस पर कोई शुल्क न लगता हो या न लगा हो। २. (व्यक्ति) जो नियत शुल्क न देता हो या जिसका शुल्क क्षमा कर दिया गया हो।
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निःशूक  : पुं० [सं० निर्-शूक, ब० स०] एक तरह का धान।
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निःशून्य  : वि० [सं० निर्-शून्य, प्रा० स०] बिलकुल खाली।
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निशेश  : पुं० [सं० निशा-ईश, ष० त०] निशा के पति, चंद्रमा। वि०=निःशेष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःशेष  : वि० [सं० निर्-शेष, ब० स०] १. जिसका कुछ भी अंश बाकी न बचा हो। जिसका कुछ भी न रह गया हो। २. पूरा। समूचा। ३. पूरी तरह से समाप्त या सम्पन्न किया हुआ (काम)।
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निशैत  : पुं० [सं० निशा-एत=(गमन), ब० स०] बगुला।
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निःशोक  : वि० [सं० निर्-शोक, ब० स०] शोक रहित।
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निशोत्सर्ग  : पुं० [सं० निशा-उत्सर्ग, ष० त०] प्रभात।
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निःशोध्य  : वि० [सं० निर्-शोध्य, ब० स०] जिसका शोधन न किया जा सके।
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निश्कुल  : वि० दे० ‘निष्कुल’।
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निश्चक्रिक  : वि० [सं०] छल-छद्म से रहित, फलतः ईमानदार या सच्चा।
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निश्चक्षु  : वि० [सं० निर्-चक्षुस्, ब० स०] नेत्रहीन। अंधा।
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निश्चंद्र  : वि० [सं० निर्-चंद्र, ब०स०] १. चंद्रमा रहित। २. जिसमें आभा या चमक न हो। फीका।
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निश्चय  : पुं० [सं० निर्√चि (चयन)+अप्] १. कोई कार्य करने का अंतिम निर्णय या संकल्प करना। ३. इस प्रकार ठीक की हुई बात या प्रस्ताव। (रिजोल्यूशन) ३. निर्णय। ४. एक अर्थालंकार जिसमें एक बात का निषेध करके प्रकृत या यथार्थ बात के स्थापन का उल्लेख होता है। (सर्टेन्टी) ५. विश्वास। अव्य० निश्चित रूप से। अवश्य।
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निश्चयवन  : पुं० [सं०] १. वैवस्त मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम (पुराण)। २. एक प्रकार की अग्नि। (महाभारत)
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निश्चयात्मक  : वि० [सं० निश्चय-आत्मन्, ब० स०, कप्] [भाव० निश्चयात्मकता] निश्चय के रूप में होने वाला।
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निश्चयेन  : अव्य० [सं० निश्चय का विभक्त्यन्त रूप] निश्चत रूप से। निश्चयपूर्वक।
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निश्चर  : पुं० [सं०] एकादश मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। पुं०=निशाचर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निश्चल  : वि० [सं० निर्√चल (गति)+अच्] [भाव० निश्चलता] १. जो अपने स्थान से जरा भी इधर-उधर चलता या हिलता-डोलता न हो। अचल। स्थिर। २. अपरिवर्तनशील।
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निश्चल  : वि० [सं० निर-छल, ब० स०] १. (व्यक्ति) छल-कपट से रहित। २. (हृदय) जिसमें छल-कपट न भरा हो।
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निश्चलता  : स्त्री० [सं० निश्चल+तल्+टाप्] निश्चल होने की अवस्था या भाव।
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निश्चलांग  : वि [सं० निश्चल-अंग, ब० स०] जिसके अंग हिलते-डुलते न हों। सदा अचल या स्थिर रहनेवाला। पुं० १. पवत। २. बगुला।
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निश्चायक  : वि० [सं० निर्√चि+ण्वुल्–अक] १. एक रोग जिसमें बहुत दस्त आते हैं। २. वायु। हवा।
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निश्चिंत  : वि० [सं० निर्-चिन्ता, ब० स०] [भाव० निश्चिंतता] (व्यक्ति) जिसे कोई चिंता न हो। बेफिक्र।
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निश्चित  : भू. कृ० [सं० निर्√चि+क्त] १. (बात या प्रस्ताव) जिसके संबंध में निश्चय हो चुका हो। २. जो अटल या स्थिर हो। ३. जो यथार्थ या सत्य हो। ४. जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके।
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निश्चितई  : स्त्री०=निश्चिंतता।
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निश्चिंतता  : स्त्री० [सं० निश्चिंत+तल्+टाप्] निश्चिंत होने की अवस्था या भाव। बे-फिक्री।
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निश्चिति  : स्त्री० [सं० निर्√चि+क्तिन्] १. निश्चित करने की क्रिया या भाव। २. निश्चय।
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निश्चिरा  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)
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निश्चिला  : स्त्री० [सं०] १. शालपर्णी। २. पृथ्वी। ३. पुराणानुसार एक नदी।
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निश्चिवकण  : पुं० [सं० निर्-चुक्कण, ब० स०] मिस्सी।
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निश्चेतन  : वि० [सं० निर्-चेतन, ब० स०] चेतना या संज्ञा रहित। पुं० चेतना से रहित करना।
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निश्चेष्ट  : वि० [सं० निर्-चेष्टा, ब० स०] जो चेष्टा न करता हो या न कर रहा हो।
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निश्चेष्ट-करण  : पुं० [ष० त०] १. निश्चेष्ट करने की क्रिया या भाव। २. कामदेव का एक वाण। ३. वैद्यक में, एक प्रकार का औषध।
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निश्चेष्टीकरण  : पुं० [सं० निश्चेष्ट+च्वि, ईत्व √कृ+ल्युट्–अन]=निश्चेष्ट-करण।
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निश्चै  : पुं० अव्य०=निश्चय।
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निश्छंद (स्)  : वि० [सं० निर-छंदस्, ब० स०] जिसने वेद न पढ़ा हो।
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निश्छाय  : वि० [सं० निर-छाया, ब० स०] छाया रहित।
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निश्छेद  : पुं० [सं० निर-छेद, ब० स०] गणित में वह राशि, जिसका किसी गुणक के द्वारा भाग न दिया जा सके। अविभाज्य।
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निश्रम  : पुं० [सं० निःश्रम] न थकना।
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निश्रयणी  : स्त्री० [सं० निःश्रयणी] सीढ़ी।
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निःश्रयणी (यिणी)  : स्त्री० [सं० निर्√श्रि+ल्युट्–अन, ङीप्; निर्√श्रि+णिनि–ङीप्] निःश्रेणी।
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निःश्रीक  : वि० [सं० निर्-श्री, ब० स०, कप्] श्री से रहित। कांतिहीन।
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निश्रीक  : पुं० [सं० निःश्रीक] सीढ़ी।
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निश्रेणिका तृण  : पुं० [सं० निःश्रेणिकातृण] एक तरह की घास, जिसके खाने से पशु निर्बल हो जाते हैं।
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निःश्रेणी  : स्त्री० [सं० निर्–श्रेणी, ब० स०] सीढ़ी विशेषतः काठ या बाँस की बनी हुई सीढ़ी।
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निश्रेणी  : स्त्री० [सं० निःश्रेणी] १. सीढ़ी। जीना। २. वह साधन जिसके द्वारा एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक पहुँचा जाय। ३. मुक्ति। ४. खजूर का पेड़।
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निःश्रेयस  : पुं० [सं० निर्-श्रेयस्, प्रा० स०, अच्] १. मोक्ष। मुक्ति। २. कल्याण। मंगल। ३. विज्ञान। ४. भक्ति।
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निश्रेयस  : पुं० [सं० निःश्रेयस्] १. दुःख का अत्यन्त अभाव। २. मोक्ष। ३. कल्याण। मंगल।
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निःश्वसन  : पुं० [सं० निर्√श्वस् (साँस लेना)+ल्युट्–अन] साँस बाहर निकालने की क्रिया। वि० [स्त्री० निःश्वसना] साँस बाहर निकालने या फेंकनेवाला। उदा०–जीवन-समीर शुचि निःश्वसना।–निराला।
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निःश्वास  : पुं० [सं० निर्√श्वस्+घञ्] वह हवा जो साँस वेने पर नाक के रास्ते बाहर निकाली जाती है। पद–दीर्घ निःश्वास=गहरा और ठंडा साँस।
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निश्वास  : पुं० [सं० निःश्वास] १. अन्दर खींचा हुआ साँस बाहर निकालना या छोड़ना। २. नाक या मुंह से बाहर निकलनेवाला श्वास। ३. गहरी या ठंढा साँस।
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निश्शंक  : वि०=निःशंक।
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निश्शक्त  : वि०=निःशक्त।
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निश्शर  : वि० [सं० निःशर] शर या वाण से रहित।
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निश्शील  : वि० [सं० निःशील] [भाव० निश्शीलता] १. जिसका शील या स्वभाव अच्छा न हो। २. जिसमें शील या संकोच न हो। बे-मुरौवत।
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निश्शेष  : वि०=निःशेष।
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निष  : अव्य०=तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निषक-पुत्र  : पुं० [सं०] असुर। राक्षस।
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निषकर्श  : पुं० [सं०] संगीत में स्वर साधन की एक प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्वर का आलाप दो-दो बार करना पड़ता है।
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निषक्त  : वि० [सं० नि√सञ्ज+क्त] जो किसी पर विशेष रूप से आसक्त हो।
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निषंग  : पुं० [सं० नि√सञ्ज् (लगाव)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला आसंग या आसक्ति। लगाव। २. तरकश. ३. खड्ग। तलवार। ४. पुरानी चाल का एक तरह का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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निषंगथि  : वि० [सं० नि√सञ्ज्+घथिन्] १. आलिंगन करने या गले लगानेवाला। २. धनुष धारण करनेवाला। पुं० १. आलिंगन। २. रथ। ३. सारथी। ४. कंधा।
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निषंगी (गिन्)  : वि० [सं० निषंग+इनि] १. जो किसी पर आसक्त हो। २. धनुषधारी। तीर चलानेवाला। ३. खड्गधारी। पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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निषण्ण  : वि० [सं० नि√सद् (बैठना)+क्त] १. बैठा हुआ। २. आश्रित।
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निषण्णक  : पुं० [सं० निषण्ण+कन्] १. बैठने की जगह। २. आसन।
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निषत्र  : पुं०=नक्षत्र।
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निषद  : पुं०=निषाद (स्वर)।
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निषद्  : स्त्री० [सं० नि√सद्+क्विप्] यज्ञ की दीक्षा।
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निषद्या  : स्त्री० [सं० नि√सद्+कप्–टाप्] १. बैठने की छोटी चौकी या खाट। २. व्यापारी की दूकान की गद्दी। ३. बाजार। हाट।
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निषद्यापरीषत्  : पुं० [सं०] जैन भिक्षुओं का एक आचार जिसमें ऐसे स्थान पर रहना वर्जित है, जहाँ स्त्रियाँ और हिजड़े आते-जाते हों, और यदि वहाँ रहना ही पड़े, तो चित्त को चंचल न होने देना।
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निषद्वर  : पुं० [सं० नि√सद्+ष्वरच्] १. कीचड़। २. कामदेव।
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निषद्वरी  : स्त्री० [सं० निषद्वर+ङीष्] रात्रि।
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निषध  : वि० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत। २. कुश के एक पौत्र का नाम २. जनमेजय का एक पुत्र। ४. कुरु का एक पुत्र। ५. विन्ध्य की पहाड़ियों पर का एक प्राचीन देश, जहां राजा नल राज करते थे। ६. निषाद (स्वर)।
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निषधाभास  : पुं० [सं०] ‘आक्षेप’ अलंकार के ५ भेदों में से एक।
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निषधावती  : स्त्री० [सं०] विंध्य पर्वत से निकलनेवाली एक प्राचीन नदी (मारकण्डेय पुराण)।
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निषधाश्व  : पुं० [सं०] कुरु का एक पुत्र।
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निषाद  : पुं० [सं० नि√सद्+घञ्] १. एक प्राचीन अनार्य जंगली जाति, अथवा उक्त जाति का कोई व्यक्ति। २. श्रृंगबेरपुर के पास का एक प्राचीन देश। विशेष–निषाद जाति के लोग मूलतः इसी प्रदेश के निवासी माने गये हैं, और इनकी भाषा की गिनती मुंडा भाषाओं के वर्ग में होती है। ३. नीच जाति का व्यक्ति। ४. ऐसा व्यक्ति जो शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हुआ हो। ५. संगीत में, सरगम का सातवाँ स्वर, जो अन्य सब स्वरों से ऊंचा होता है इसका संक्षिप्त रूप ‘नि’ है। विशेष–यह हाथी के स्वर के समान गंभीर और ललाट से उच्चरित होनेवाला स्वर माना जाता है। यह वैश्य जाति, विचित्र वर्ण का और गणेश के स्वरूपवाला कहा गया है। इसका देवता सूर्य और छंद जगती है। यह उग्रा और क्षोभिणी नाम की दो श्रुतियों के योग से बना है।
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निषाद-प्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निषादकर्षु  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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निषादित  : भू० कृ० [सं०√सद्+णिच्+क्त] १. बैठाया हुआ। २. पीड़ित।
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निषादी (दिन्)  : वि० [सं० नि√सद्+णिनि] १. बैठनेवाला। २. जो आराम कर रहा या सुस्ता रहा हो। पुं० महावत। हाथीवान्।
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निषिक्त  : भू० कृ० [सं० नि√सिच् (छिड़कना)+क्त] १. (स्थान) जिस पर जल छिड़का गया हो। २. (खेत) जो सींचा गया हो। ३. भीतर पहुँचाया हुआ। ४. जिसके अंदर या गर्भ में कोई चीज पहुंचाई गयी हो। पुं० वीर्य से उत्पन्न गर्भ।
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निषिद्ध  : भू० कृ० [सं० नि√सिध (गति)+क्त] [भाव० निषिद्ध] १. जिसे उपयोग, प्रयोग या व्यवहार में लाने का निषेध किया गया हो। २. रोका हुआ। ३. बहुत ही बुरा और परम त्याज्य।
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निषिद्धि  : स्त्री० [सं० नि√सिध्+क्तिन्] १. निषिद्द होने की अवस्था या भाव। २. निषेध।
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निषूदन  : वि० [सं० नि√सूद् (वध करना)+णिच्+ल्युट्–अन] समस्त पदों के अंत में, मारने या वध करनेवाला। जैसे–अरिनिषूदन।
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निषेक  : पुं० [सं० नि√सिच् (सींचना)+घञ्] [वि० निषिक्त ] १. जल छिड़कने या जल से सिंचाई करने की क्रिया या भाव। २. चूने, टपकने या रसने की क्रिया या भाव। ३. वीर्य। ४. गर्भ धारण कराना। ५. किसी के अंदर कोई चीज या शक्ति भरना। ६. इस प्रकार भरी हुई वस्तु या शक्ति। (इम्प्रेगनेशन)
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निषेचन  : पुं० [सं० नि√सिच्+णिच्+ल्युट्–अन] १. छिड़कना। सींचना।
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निषेध  : पुं० [सं० नि√सिध्+घञ्] १. अधिकारपूर्वक और कारणवश यह कहना कि ऐसा मत करो। मना करने की क्रिया या भाव। मनाही। (फारबिंडिग) २. वह कथन या आज्ञा जिसमें कोई बात न मानी गई हो या न किये जाने का विधान हो। (नेगेशन) ३. अपवाद। ४. अडचन। बाधा। रुकावट। ५. अस्वीकृति। इन्कार।
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निषेध-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी को कोई काम न करने के लिए आदेश दिया गया हो।
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निषेध-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह आज्ञा, कथन या बात, जिसमें किसी काम का निषेध किया जाय। जैसे–यह काम नहीं करना चाहिए। यह निषेध-विधि है।
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निषेधक  : पुं० [सं० नि√सिध्+ल्युट्–अक] १. (व्यक्ति) निषेध या मनाही करनेवाला। २. (आज्ञा या कथन) जिसके द्वारा निषेध या मनाही की जाय। ३. बाधक।
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निषेधन  : पुं० [सं० नि√सिध्+ल्युट्–अन] निषेध करने की क्रिया या भाव।
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निषेधाक्षेप  : पुं० [सं० निषेध-आक्षेप, ब० स०] साहित्य में आक्षेप अलंकार के तीन भेदों में से एक, जिसमें कोई बात इस ढंग से मना की जाती है कि ध्वनि से उसे करने का विधान सूचित होता है।
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निषेधात्मक  : वि० [सं० निषेध-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. (कथन या विधान) जो निषेध के रूप में हो। २. दे० नहिक।
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निषेधाधिकार  : पुं० [सं० निषेध-अधिकार, ष० त०] १. ऐसा अधिकार जिससे किसी को कोई काम करने से रोका जा सके। २. राज्य, संस्था आदि के प्रधान के हाथ में होनेवाला वह अधिकार, जिससे वह विधायिका सभा द्वारा पारित-प्रस्ताव को कानून या विधि बनने से रोक सकता है। ३. किसी संस्था के सदस्यों के हाथ में रहनेवाला उक्त प्रकार का वह अधिकार जिससे कोई स्वीकृत प्रस्ताव व्यवहार में आने से रोका जा सकता है। (वीटो)
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निषेधित  : भू० कृ० [सं० नि√सिध्+णिच्+क्त] जिसके या जिसके लिए निषेध किया गया हो। मना किया हुआ।
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निषेवण  : पुं० [सं० नि√सेव् (सेवा)+ल्युट्–अन, णत्व] १. सेवा करना। २. आराधन या पूजा करना। ३. अनुष्ठान। ४. प्रयोग या व्यवहार में लाना। ५. बसना। रहना।
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निषेवा  : स्त्री० [सं० नि√सेव्+अङ-टाप्,इत्व]=सेवा।
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निषेवित  : भू० कृ० [सं० नि√सेव्+क्त, षत्व] जिसका निषेवण हुआ हो।
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निषेवी (विन्)  : वि० [सं० नि√सेव+णिनि] [स्त्री० निषेविनी] १. निषेवण करनेवाला। २. सेवक। ३. आराधक।
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निषेव्य  : वि० [सं० नि√सेव्+ण्यत्] जिसका निवेषण या सेवन करना उचित हो या किया जाने को हो। सेवनीय।
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निष्क  : पुं० [सं० निस्√कै (शोभा)+क] १. वैदिक काल का एक प्रकार का सोने का सिक्का जिसका मान समय-समय पर घटता-बड़ता रहता था। फिर भी साधारणतः यह १६ माशे का माना जाता था। २. उक्त सिक्के के बराबर की तौल। ३. सोना। ४. सोने का पात्र या बरतन। ५. चांडाल।
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निष्कंटक  : वि० [सं० निर्-कंटक, ब० स०] १. जिसके काँटे न हों। २. जिसमें कोई बाधा या बखेड़ा न हो। ३. (राज्य) जिसमें शासक का कोई वैरी या शत्रु न हो। अव्य० १. बिना किसी प्रकार की बाधा या रुकावट के। २. बिना किसी प्रकार के वैर या शत्रुता की संभावना के। बेखटके।
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निष्कंठ  : पुं० [सं० निर्-कंठ, ब० स०] वरुण (पेड़)।
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निष्कंप  : वि० [सं० निर-कंप, ब० स०] जिसमें कंपन न हो रहा हो। जो काँप न रहा हो; फलतः स्थिर।
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निष्कपट  : वि० [सं० निर्-कपट, ब० स०] [भाव० निष्कपटता] कपट-रहित।
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निष्कपटी  : वि० [सं० निष्कपट] कपट-रहित।
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निष्कंभ  : पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र।
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निष्कर  : वि० [सं० निर्-कर्, ब० स०] जिस पर कर या शुल्क न लगता हो। स्त्री० भूमि जिस पर कर न लगता हो। माफी।
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निष्करुण  : वि० [सं० निर-करुण, ब० स०] जिसके हृदय में या जिसमें करुणा न हो। करुणा-रहित।
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निष्कर्तन  : पुं० [सं० निर्√कृत् (काटना)+ल्युट्–अन] काट या फाड़ कर अलग करना।
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निष्कर्म  : वि० [सं० निर्-कर्मन्, ब० स०] १. जो कोई कर्म न करता हो। २. जो कर्म करने पर भी उसमें आसक्ति न रखता हो या लिप्त न होता हो। अकर्मा।
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निष्कर्मण्य  : वि० [सं० निर्-कर्मण्य, प्रा० स०] अकर्मण्य। निकम्मा।
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निष्कर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० निर-कर्मन्, ब० स०] १. जो कर्मों में लिप्त न हो। २. जो किसी काम का न हो। निकम्मा।
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निष्कर्ष  : पुं० [सं० निस्√कृष् (खींचना)+घञ्] १. खींचकर निकालना या बाहर करना। २. खींच या निकालकर बाहर की हुई चीज या तत्त्व। ३. विचार-विमर्श, सोच-विचार आदि के उपरांत निकलनेवाला परिणाम या स्थिर होनेवाला सिद्धांत। (कन्क्लूजन) ४. निश्चय। ५. इस बात का विचार कि कोई चीज कितनी या कैसी है। ६. राजा या शासन का प्रजा को कष्ट देते हुए उससे धन खींचना या लेना।
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निष्कर्षक  : वि० [सं० निस्√कृष्+ण्वुल्–अक] निष्कर्ष या निष्कर्षण करनेवाला।
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निष्कर्षण  : पुं० [सं० निस्√कृष्+ल्युट्–अन] १. खींचकर निकालना या बाहर करना। २. दूर करना। ३. मिटाना। ४. घटाना।
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निष्कर्षी (र्षिन्)  : पुं० [सं० निस्√कृष्+णिनि] एक प्रकार का मरुत्। वि०=निष्कर्ष।
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निष्कल  : वि० [सं० निर्-कला, ब० स०] [स्त्री० निष्कला] १. (व्यक्ति) जो कोई कला या हुनर न जानता हो। २. (कार्य) जो कलापूर्ण ढंग से न किया गया हो। ३. अंगहीन। ४. जिसका वीर्य नष्ट रहो चुका हो। जैसे–नपुंसक या वृद्ध। ४. पूरा। समूचा। पुं० ब्रह्म।
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निष्कलंक  : वि० [सं० निर्-कलंक, ब० स०] जिस पर या जिसमें कलंक न हो। पुं० पुराणानुसार एक तीर्थ जिसमें स्नान करने से कलंक या दोष नष्ट हो जाते हैं।
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निष्कलंकित  : वि०=निष्कलंक।
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निष्कलंकी  : वि०=निष्कलंक।
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निष्कला  : स्त्री० [सं० निष्कल+टाप्] ऐसी स्त्री जिसे मासिक धर्म होना बंद हो गया हो।
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निष्कली  : स्त्री० [सं० निष्कल+ङीष् ]=निष्कला।
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निष्कलुष  : वि० [सं० निर्-कलुष, ब० स०] कलुष-रहित। निर्मल या पवित्र।
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निष्कषाय  : वि० [सं० निर्-कषाय, ब० स०] १. विशुद्ध चित्तवाला। २. मुमुक्षु। पुं० एक जिन देव।
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निष्काम  : वि० [सं० निर्-काम, ब० स०] [भाव० निष्कामता] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कामनाएं या वासनाएँ न हों, फलतः जो सब बातों से निर्लिप्त रहता हो। २. (कार्य) जो बिना किसी प्रकार की कामना के किया जाय।
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निष्कामित  : वि० =निष्क्रांत।
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निष्कामी  : वि०=निष्काम (व्यक्ति)।
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निष्कारण  : वि० [सं० निर्-कारण,ब० स०] जिसका कोई कारण या सबब न हो। अव्य० १.बिना किसी कारण या वजह के। २. व्यर्थ। पुं० १. कहीं ले जाना या हटाना। २. मारण। वध।
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निष्कालक  : वि० [सं० निर्√कल् (गति)+णिच्+ण्वुल्–अक] जिसके बाल, रोएँ आदि मूँड़े गये हों।
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निष्कालन  : पुं० [सं० निर्√कल्+णिच्+ल्युट्–अन ] १. चलाने की क्रिया या भाव। २. पशुओं आदि को निकालना या भगाना। ३. मार डालना। वध।
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निष्कालिक  : वि० [सं० निर्-कालिक, प्रा० स०] १. जो कुछ ही दिन और जीने को हो। २. जिसका अंत निकट हो.। ३. अजेय।
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निष्काश  : पुं० [सं० निर्√काश् (शोभित होना)+अच्] १. किसी पदार्थ का बाहर निकला हुआ भाग। (प्रोजेक्शन) जैसे–मकान का बरामदा।
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निष्काशन  : पुं०=निष्कासन। (दे०)
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निष्काशित  : भू० कृ०=निष्कासित।
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निष्काष  : पुं० [सं० निर्√कष् (खरोचना)+घञ्] दूध का वह भाग जो उसके अधिक औटायो जाने के कारण बरतन में ही लगकर रह गया हो किन्तु खुरचकर निकाला जाय।
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निष्कास  : पुं० [सं० निर्√कास् (खाँसना)+घञ्] १. बाहर निकालने की क्रिया या भाव। २. किसी पदार्थ का आगे या बाहर निकला हुआ भाग। ३. वह अंश या स्थान जहाँ से कोई चीज बाहर निकलकर आगे जाती हो। (आउट-फॉल)
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निष्कासन  : पुं० [सं० निर्√कास्+ल्युट्–अन] १. किसी क्षेत्र या स्थान में निवास करनेवाले व्यक्ति को वहाँ से स्थायी रूप से और अधिकार या बल पूर्वक बाहर करना। २. किसी कर्मचारी को उसके पद से हटाना और उसे नौकरी से छुटाना। ३. देश से बाहर निकाले जाने का दंड।
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निष्कासित  : भू० कृ० [सं० निर्√कास्+क्त] जिसका निष्कासन हुआ हो। किसी क्षेत्र, पद, स्थान आदि से निकाला या हटाया हुआ।
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निष्कासिनी  : स्त्री० [सं० निर्√कास्+णिनि+ङीष्] वह दासी जिस पर स्वामी ने कोई प्रतिबंध न लगाया हो।
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निष्किंचन  : वि० [सं० निर्-किञ्चन,ब० स०] जिसके पास कुछ भी न हो। अकिंचन। दरिद्र।
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निष्किल्विष  : वि० [सं० निर्-किल्विष, ब० स०] किल्विष (दोष या पाप) से रहित।
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निष्कीटक  : वि० [सं० निर्-कीट, ब० स०] १. कीटाणुओं आदि से रहित। २. कीटाणुओं का नाश करनेवाला। पुं० वह प्रक्रिया या यंत्र जिसकी सहायता से कीटाणु नष्ट किये जाते हों। (स्टार्लाईजर)
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निष्कीटण  : पुं० [सं० निष्कीट+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी वस्तु को तपाकर अथवा रासायनिक प्रक्रियाओं से कीटों या कीटाणुओं से रहित करना। २. उत्पादन करनेवाले कीटाणु नष्ट करके अनुर्वर, नपुंसक या बाँझ करना। (स्टर्लाइजे़शन)
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निष्कीटित  : भू० कृ० [सं० निष्कीट+णिच्+क्त] जो कीटाणुओं से रहित किया गया हो। (स्टर्लाइज्ड)
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निष्कुट  : पुं० [सं० निस्√कुट् (टेढ़ा होना)+क] १. घर के पास का उद्यान। नजर-बाग। २. खेत। ३. किवाड़ा। दरवाजा। ४. अंतःपुर। जनानखाना। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. खोखला वृक्ष।
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निष्कुटि  : स्त्री० [सं० निस्√कुट्+इन्] बड़ी इलायची।
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निष्कुंभ  : पुं० [सं०] देवताओं के एक सेनापति। (पुराण)।
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निष्कुंभ  : वि० [सं० निर्-कुंभ, ब० स०] कुंभ रहित। पुं० [निस्√कुट् (टेढ़ा होना)+क] दंती वृक्ष।
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निष्कुल  : वि० [सं० निर्-कुल, ब० स०] [स्त्री० निष्कुला] १. जिसके कुल में कोई न रह गया हो। २. जो अपने किसी दोष या पाप के कारण अपने कुल या परिवार से अलग कर दिया या निकाल दिया गया हो।
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निष्कुलीन  : वि० [सं० निर्-कुलीन, प्रा० स०]अ-कुलीन।
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निष्कुषित  : भू० कृ० [सं० निस्√कुष् (खींचना)+क्त] १. छीला हुआ। २. जिसकी खाल उतार ली गई हो। ३. जहाँ-तहाँ काटा या खाया हुआ। (जैसे–कीटनिष्कुषित) कुरचकर निकाला हुआ। ४. निष्कासित।
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निष्कुह  : पुं० [सं० निर्√कुह (विस्मित करना)+अच्] पेड़ का खोखला अंश। कोटर। खोंड़रा।
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निष्कूज  : वि० [सं० निर्-कूज्, ब० स०] ध्वनि या शब्द से रहित।
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निष्कूट  : वि०[सं० निर्-कूट, ब० स०] कूट या छल कपट से रहित।
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निष्कृत  : भू० कृ० [सं० निर्√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० निष्कृति] १. हटाया हुआ। २. मुक्त। ३. उपेक्षित। तिरस्कृत। ४. जिसे क्षमा मिली हो। पुं० १. मिलन-स्थान। २.प्रायश्चित।
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निष्कृति  : स्त्री० [सं० निर्√कृष्+क्तिन्] १. हराने की क्रिया या भाव। २. छुटकारा। मुक्ति। ३. उपेक्षा। तिरस्कार। ४. क्षमा। ५. प्रायश्चित।
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निष्कृति-धन  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह धन जो किसी को अपने वश में से निकालकर मुक्त करने के बदले में अथवा किसी को किसी के वश से मुक्त कराने के बदले में लिया या दिया जाय। (रैन्सम)
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निष्कृप  : वि० [सं० निर्-कृपा, ब० स०] १. दूसरों पर न कृपा करनेवाला। २. तेज। धारदार।
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निष्कृष्ट  : वि० [सं० निर्√कृष्+क्त] १. निचोड़कर निकाला हुआ। २. सारभूत।
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निष्कैतव  : वि० [सं०] निश्छल।
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निष्कैवल्य  : वि० [सं० निर्-कैवल्य, ब० स०] १. विशुद्ध। २. पूर्ण। ३. मोक्ष-रहित।
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निष्कोपण  : पुं० [सं० निर्√कुष् (छीलना)+ल्युट्-अन] १. छीलना। २. शरीर पर से खाल उतारना। ३. काट या फाड़कर छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट करना। ४. खुरचना। ५. निष्कासन।
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निष्क्रम  : वि० [सं० निर्-क्रम्, ब० स०] क्रमहीन। बे-तरतीब। पुं० १. मन की तृप्ति। किसी को जाति से बाहर निकालना। ३. दे० ‘निष्क्रमण’।
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निष्क्रमण  : पुं० [सं० निर्√क्रम् (गति)+ल्युट्-अन] [वि० निष्क्रांत] १. बाहर निकालना। २. हिन्दुओं में एक संस्कार जिसमें चार महीने के शिशुओं को पहले-पहल घर से बाहर निकालकर सूर्य के दर्शन कराते हैं।
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निष्क्रमणार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० निष्क्रमण-अर्थिन्, ष० त०] १. कहीं से निकलने की इच्छा रखनेवाला। २. दे० ‘निष्क्रमिती’।
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निष्क्रमणिका  : स्त्री० [सं०] हिन्दुओं का निष्क्रमण नामक संस्कार।
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निष्क्रमिती  : पुं० [सं० निष्क्रमी] वह जो किसी संकट आदि से बचने के लिए अपना निवास स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाय या जाना चाहे। (इवैकुई)
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निष्क्रय  : पुं० [सं० निर्√क्री (विनिमय)+अच्] १. वह धन जो किसी को कोई काम या सेवा करने के बदले या किसी वस्तु का उपयोग करने के बदले में दिया जाय। जैसे–भाड़ा, मजदूरी वेतन। आदि। २. इनाम। पुरस्कार। ३. किसी चीज का दाम। मूल्य। ४. चीजों की अदला-बदली। विनिमय। ५. बेचने की क्रिया या भाव। बिक्री। ६. किसी काम या बात से छुटकारा पाने के लिए उसके बदले में दिया जानेवाला धन। जैसे–(क) यदि गौ दान न कर सके, तो उसका कुछ निष्क्रय दे दो। (ख) ओल में रखा हुआ व्यक्ति प्रायः निष्क्रय देकर छुड़ाया जाता है। ७. शक्ति। सामर्थ्य। ८. उचित धन देकर दूसरों के हाथ में पड़ी हुई चीज अपने हाथ में करना या लेना। (रिडेम्पशन)।
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निष्क्रयण  : पुं० [सं० निर्√क्री+ल्युट्–अन] १. निष्क्रय करने की क्रिया या भाव। २. निष्क्रय के रूप में दिया जाने वाला धन या रकम।
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निष्क्रांत  : भू० कृ० [सं० निर्√क्रम्+क्त] १. निकला या निकाला हुआ। २. जिसका निष्क्रमण हो चुका हो। ३.(संपत्ति) जिसका स्वामी जिसे छोड़कर दूसरे देश में चला गया हो।
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निष्क्राम्य  : वि० [सं० निर्√क्रम्+ण्यत्] (माल) जो बाहर भेजा जाने को हो या भेजा जाता हो। चलानी। (माल)।
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निष्क्रिय  : वि० [सं० निर्-क्रिया, ब० स०] [भाव० निष्क्रियता] १.जिसमें किसी प्रकार की क्रिया या व्यापार न हो। निश्चेष्ट। जैसे–निष्क्रिय प्रतिरोध। २. जो किसी प्रकार की क्रिया या चेष्टा न करता हो अथवा जिसकी क्रिया या गति बीच में कुछ समय के लिए ठहर या रुक गई हो। ३. जो विहित कर्म न करता हो। पुं० ब्रह्म जो सब प्रकार की क्रियाओं, चेष्टाओं और व्यापारों से रहित माना जाता है।
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निष्क्रिय-प्रतिरोध  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी अनुचित आज्ञा या आदेश का किया जानेवाला ऐसा प्रतिरोध या विरोध जिसमें मिलनेवाले दंड या होनेवाली हानि की परवाह नहीं की जाती। (पैसिव रेजिस्टेन्स)।
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निष्क्रियता  : स्त्री० [सं० निष्क्रय+तल्+टाप्] निष्क्रिय होने की अवस्था या भाव।
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निष्क्रीत  : वि० [सं०निर्√क्री+क्त] १. जिससे या जिसके लिए निष्क्रय दिया गया हो। (कम्पेन्सेटेड) २. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। (रिडीम्ड)
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निष्क्लेश  : वि० [सं० निर्+क्लेश, ब० स०] १. जिसे किसी प्रकार का क्लेश न हो। सब प्रकार के क्लेशों से युक्त या रहित। २. बौद्धधर्म में, दस प्रकार के क्लेशों से मुक्त।
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निष्क्वाथ  : पुं० [सं० निर्-क्वाथ, ब० स०] मांस आदि का रसा। शोरबा।
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निष्टानक  : पुं० [सं० निर्-तानक्, प्रा० स०, षत्व, ष्टुत्व] १. गर्जन। २. कलरव।
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निष्टि  : स्त्री० [सं०√निश् (एकाग्र होना)+क्तिन्] दिति का एक नाम।
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निष्टिग्री  : स्त्री० [सं०] अदिति का एक नाम।
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निष्ट्य  : वि० [सं० निस्+त्यप्, षत्व, ष्टुत्व] परकीय। बाहरी। पुं० १. चांडाल। २. वैदिक काल में एक प्रकार के म्लेच्छ।
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निष्ठ  : वि० [सं० नि√स्था(ठहरना)+क] १. ठहरा हुआ। स्थित। २. किसी काम या बात में पूरी तरह से लगा रहनेवाला। जैसे–कर्म-निष्ठ। ३. किसी के प्रति निष्ठा (भक्ति और श्रद्धा) रखनेवाला। ४. विश्वास रखनेवाला। जैसे–धर्म-निष्ठ। ५. किसी कार्य या विषय में बराबर मन से लगा रहनेवाला। जैसे–कर्त्तव्य-निष्ठ। (प्रायः यौगिक पदों के अंत में प्रुयक्त)
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निष्ठा  : स्त्री० [सं० नि√स्था+अङ+टाप्] १. अवस्था। दशा। स्थिति। २. आधार। नींव। ३. दृढ़तापूर्वक टिके या ठहरे रहने की अवस्था या भाव। ४. मन में होनेवाला दृढ़ निश्चय या विश्वास। ५. किसी बात, या व्यक्ति के संबंध में होनेवाली वह भावुकतापूर्ण मनोवृत्ति जो हमारी आंतरिक पूज्य, बुद्धि, विश्वास, श्रद्धा आदि से उत्पन्न होती है और जो हमें उस (बात विषय या व्यक्ति) के प्रति विशिष्ट रूप से आसक्त, प्रवृत्त तथा संलग्न रखती है। किसी के प्रति होनेवाली मन की ऐसी एकांत अनुरक्ति या प्रवृत्ति जो बहुत-कुछ भक्ति की सीमा तक पहुँचती हुई होती है। जैसे–अपने कर्त्तव्य, गुरु, धर्म या नेता के प्रति होनेवाली निष्ठा। ६. धार्मिक क्षेत्र में ज्ञान, की वह अन्तिम या चरम अवस्था जिसमें आत्मा पूर्ण रूप से ब्रह्म में लीन हो जाती है। ७. विष्णु जिनमें प्रलय के समय समस्त भूतों का विलय हो जाता है। ८. किसी चीज या बात का नियत समय पर होनेवाला अंत या समाप्ति। ९. विनाश। १॰. दक्षता। प्रवीणता। ११. विपत्ति। संकट।
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निष्ठांत  : वि० [सं० निष्ठा (नाश)+अन्त, ब० स०] नश्वर।
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निष्ठान  : पुं०[सं०नि√स्था+ल्युट्–अन्] चटनी आदि चटपटी चीजें।
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निष्ठानक  : पुं०[सं०निष्ठान+कन्]=निष्ठान।
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निष्ठावान् (वत्)  : वि० [सं० निष्ठा+मतुप्] जिसकी किसी के प्रति निष्ठा हो। निष्ठा रखनेवाला।
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निष्ठित  : भू० कृ० [सं०नि√स्था+क्त] १. अच्छी तरह टिका या ठहरा हुआ। जमकर लगा हुआ। दृढ़ रूप से स्थिति। २.(व्यक्ति) जिसमें निष्ठा हो। निष्ठावान्।
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निष्ठीव  : पुं० [सं० नि√ष्ठिव् (थूकना)+घञ्, दीर्घ]=निष्ठीवन (थूक)।
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निष्ठीवन  : पुं० [सं० नि√ष्ठिव+ल्युट्–अन, दीर्घ] १. मुँह से थूक या कफ निकालकर बाहर फेंकना। २. खखार। थूक। ३. वैद्यक में, एक औषध जिसका व्यवहार गले या फेफड़े से कफ निकालने में किया जाता है।
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निष्ठुर  : वि० [सं० नि√स्था+उरच्] [स्त्री० निष्ठुरा] [भाव० निष्ठुरता] १. कठिन। कड़ा। सख्त। २. उग्र। तेज। ३. जिसके हृदय में दया, ममता, मोह आदि न हो। दूसरों के कष्टों की परवाह न करनेवाला।
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निष्ठुरता  : स्त्री० [सं० निष्ठुर+तल्–टाप्] १. निष्ठुर होने की अवस्था या भाव। २. आचरण, व्यवहार आदि की निर्दयता पूर्ण कठोरता।
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निष्ठुरिक  : पुं० [सं०] एक नाग जिसका उल्लेख महाभारत में है।
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निष्ठैवन  : पुं०=निष्ठीवन (थूक)।
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निष्ठ्यूत  : वि० [सं० नि√ष्ठि्व+क्त, ऊठ्] १. थूका हुआ। २. उगला हुआ। ३. बाहर निकाला हुआ। ४. कहा हुआ। उक्त।
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निष्ण  : वि० [सं० नि√स्ना (नहाना)+क, षत्व, णत्व]=निष्णात। वि० [सं०] (काम) जो संपन्न या पूरा किया जा चुका हो। (एक-म्पिलश्ड)
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निष्णात  : वि० [सं० नि√स्ना+क्त, षत्व, णत्व] १. किसी विषय का बहुत अच्छा ज्ञाता या जानकार। २. किसी बात में बहुत अधिक निपुण। ३. ठीक तरह से पूरा या समाप्त किया हुआ। ४. उत्तम। श्रेष्ठ।
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निष्पंक  : वि० [सं० निर्-पंक, ब० स०] १. (भूमि) जिसमें कीचड़ न हो। २.(वस्तु) जिसे कीचड़ न लगा हो। ३. साफ-सुथरा। स्वच्छ।
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निष्पक्व  : वि० [सं० निस्-पक्व, प्रा० स०] [भाव० निष्पक्वता] अच्छी तरह पका या पकाया हुआ।
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निष्पक्ष  : वि० [सं० निर्-पक्ष, ब० स०] [भाव० निष्पक्षता] १. (व्यक्ति) जो किसी पक्ष या दल में सम्मिलित न हो। २. जिसकी किसी पक्ष से विशेष सहानुभूति न हो। तटस्थ। २. बिना पक्षपात के होनेवाला। पक्षपात-रहित। जैसे–निष्पक्ष-न्याय।
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निष्पक्षता  : स्त्री० [सं० निष्पक्ष+तल्–टाप्] १. निष्पक्ष होने की अवस्था या भाव। २. निष्पक्ष होकर किया जानेवाला आचरण।
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निष्पताक  : वि० [सं० निर्-पताक, ब० स०] बिना पताका का। पताका रहित।
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निष्पति-विधि  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘प्रत्ययवृत्ति’।
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निष्पत्ति  : स्त्री० [सं० निर्√पद (गति)+क्तिन्] १. आविर्भाव। उत्पत्ति। जन्म। २. परिपाक या पूर्णता। ३. आज्ञा, आदेश, निश्चय आदि के अनुसार किसी कार्य का किया जाना। (एकज़िक्यूशन) ४. उद्देश्य, कार्य आदि की सिद्धि। ५. निर्वाह। ६. मीमांसा। ७. निश्चय। ८. हठयोग में नाद की चार अवस्थाओं में से अंतिम अवस्था।
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निष्पत्ति-लेख  : पुं० [ष० त०] इस बात का सूचक लेख कि अमुक कार्य या व्यवहार से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया। फारखती।
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निष्पत्र  : वि० [सं० निर्-पत्र, ब० स०] १. जिसमें पत्ते न हों। पत्रहीन। २. जिसे पंख न हो।
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निष्पत्रिका  : स्त्री० [सं० निष्पत्र+क+टाप्, इत्व] करील (पेड़)।
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निष्पंद  : वि० [सं० नि-स्पन्द, ब० स०] जिसमें स्पंदन न हो या न होता हो। स्पंदन हीन।
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निष्पद  : वि० [सं० निर्-पद, ब० स०] १.जिसके पद या पैर न हों। पुं० बिना पहियोंवाला यान या सवारी।
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निष्पन्न  : वि० [सं० निर्√पद+क्त] १. जन्मा हुआ। उत्पन्न। २. भली-भाँति पूरा किया हुआ। २. जो आज्ञा, आदेश, निश्चय आदि के अनुसार पूरा किया गया हो। (एकज़िक्यूटेड)
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निष्पराक्रम  : वि० [सं० निर्-पराक्रम, ब० स०] पराक्रमहीन।
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निष्परिकर  : वि० [सं० निर्-परिकर, ब० स०] जिसने कोई तैयारी न की हो।
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निष्परिग्रह  : वि० [सं० निर्-परिग्रह, ब० स०] १. जिसके पास कुछ न हो। २. जो दान आदि न ले। ३. जिसकी पत्नी न हो अर्थात् कुँवारा या रंडुआ। ४. विषय-वासना आदि से अलग रहनेवाला। पुं० १. यह प्रतिज्ञा या व्रत कि हम किसी से दान न लेंगे। २.यह प्रतिज्ञा या व्रत कि हम विवाह न करेंगे। या गृहस्थी बनाकर न रहेंगे।
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निष्परुष  : वि० [सं० निर्-परुष, ब० स०] जो सुनने में परुष अर्थात् कर्कश न हो। कोमल और मधुर।
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निष्पर्यन्त  : वि० [सं० निर्-पर्यंत, ब० स०] पर्यंत या सीमा से रहित। अपार। असीम।
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निष्पलक  : अव्य० [सं० निर्+हिं०, पलक] बिना पलक गिराये या झपकाये।
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निष्पवन  : पुं० [सं० निस्√पू(पवित्र करना)+ल्युट्–अन] धान आदि की भूसी निकालना। कूटना। दाँना।
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निष्पात  : पुं० [सं० निस्√पत् (गिरना)+घञ्] १. न गिरना। २. पूरी तरह से गिरना।
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निष्पाद  : पुं० [सं० निर्√पद्+घञ्] १. अनाज की भूँसी निकालने का काम। दाँना। २. मटर। ३. सेम। ४. बोड़ा। लोबिया।
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निष्पादक  : वि० [सं० निर्√पद्+णिच्+ण्वुल्–अक] निष्पत्ति या निष्पादन करनेवाला। पुं० १. आज्ञा, आदेश निश्चय आदि के अनुसार कोई काम करनेवाला व्यक्ति। २. वह जो वसीयत में उल्लिखित बातों का पालन या व्यवस्था करने का अधिकारी बनाया गया हो। (एकजिक्यूटर)
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निष्पादन  : पुं० [सं० निर्√पद्+णिच्+ल्युट्—अन] आज्ञा, आदेश, नियम, निश्चय आदि के अनुसार कोई काम ठीक तरह से पूरा करना। तामील। (एकज़िक्यूशन)
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निष्पादित  : भू० कृ० [सं० निर्√पद+णिच्+क्त] जिसकी निष्पत्ति या निष्पादन हो चुका हो। निष्पन्न।
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निष्पाप  : वि० [सं० निर्-पाप, ब० स०] १.(व्यक्ति) जिसने पाप न किया हो। २.(कार्य) जिसके करने से पाप न लगता हो।
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निष्पार  : वि० [सं०]=अपार।
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निष्पाव  : पुं० [सं० निर्√पू+घञ]१. अनाज के दानों आदि की भूसी निकालना। २. उक्त काम के लिए सूप से की जाने वाली हवा। सेम।
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निष्पीड़न  : पुं० [सं० निस√पीड् (दबाव)+ल्युट्–अन] निचोंड़ने की क्रिया या भाव।
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निष्पुत्र  : वि० [सं० निर्-पुत्र, ब० स०] १. पुरुषहीन। २. जहाँ आबादी न हो।
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निष्पुलाक  : वि० [सं० निर्-पुलाक, ब० स०] (अन्न) जिसमें से सारहीन दाने निकाल दिए गए हों। २. भूसी निकाला हुआ। पुं० आगामी उत्सर्पिणी के १४ वें अर्हत् का नाम।
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निष्पेषण  : पुं० [सं० निर्√पिष् (पीसना)+ल्युट्–अन] १. पेरना। २. पीसना। ३. रगड़ना।
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निष्पेषित  : भू० कृ० [सं० निर्√पिष्+णिच्+क्त] १. पेरा हुआ। २. पीसा हुआ।
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निष्पौरुष  : वि० [सं० निर्-पौरुष, ब० स०] पौरुष-हीन।
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निष्प्रकंप  : पुं० [सं० निर्-प्रकंप, ब० स०] तेरहवें मन्वतर के सप्तर्षियों में से एक।
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निष्प्रकारक  : वि० [सं० निर्-प्रकार, ब० स०, कप्] जो किसी विशिष्ट प्रकार का न हो, अर्थात् साधारण या सामान्य। जैसे–निष्प्रकारक ज्ञान।
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निष्प्रकाश  : वि० [सं० निर्-प्रकाश, ब० स०] अंधकार पूर्ण।
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निष्प्रचार  : वि० [सं० निर्-प्रचार, ब० स०] जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सके। जिसमें गति न हो। न चल सकने योग्य। पुं० गति न होने की अवस्था या भाव।
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निष्प्रताप  : वि० [सं० निर्-प्रताप, ब० स०] प्रताप-रहित।
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निष्प्रतिघ  : वि० [सं० निर्-प्रतिघ, ब० स०] जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो। अबाध।
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निष्प्रतिभ  : वि० [सं० निर्-प्रतिभा, ब० स०] जिसमें प्रतिभा न हो या न रह गई हो।
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निष्प्रतीकार  : वि० [सं० निर्-प्रतीकार, ब० स०] जिसका प्रतिकार न किया जा सके या न हो सके।
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निष्प्रभ  : वि० [सं० निर्-प्रभा, ब० स०] प्रभा-हीन।
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निष्प्रयोजन  : वि० [सं० निर्-प्रयोजन, ब० स०] १. जिसमें कोई प्रयोजन या मतलब न हो। जैसे–निष्प्रयोजन प्रीति। २. जिसमें कोई प्रयोजन सिद्ध न होता हो। व्यर्थ का। निरर्थक। फजूल। अव्य० बिना किसी प्रयोजन या मतलब के।
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निष्प्राण  : वि० [सं० निर्-प्राण, ब० स०] १. जिसमें प्राण न हों। निर्जीव। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें कोई महत्त्वपूर्ण गुण न हों। जैसे–निष्प्राण साहित्य।
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निष्प्रेही  : वि०=निष्पृह।
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निष्फल  : वि० [सं० निर्-फल, ब० स०] १. (कार्य या बात) जिससे किसी फल की प्राप्ति या सिद्धि न हो। जैसे–निष्फल प्रयत्न। २. (पौधा या वृक्ष) जिसमें फल न लगता हो या न लगा हो। ३. (व्यक्ति) जिसे अंडकोश न हो या जिसका अंडकोश निकाल लिया गया हो। पुं० धान का पयाल।
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निष्फला  : वि० [सं० निष्फल+टाप्] (स्त्री) जिसका रजोधर्म होना बंद हो गया हो।
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निष्फलि  : पुं० [सं०] अस्त्रों को काटने या निष्फल करनेवाला अस्त्र।
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निष्यंद  : पुं०=निस्यंद।
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निस  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस-द्योस  : अव्य० [सं० निरी+दिवस] रात-दिन। नित्य। सदा।
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निसंक  : वि०=निःशंक।
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निसक  : वि० [सं० निः+शक्त] अशक्त। कमजोर। दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसंकी  : वि० [सं० निःशंक] १. निःशंक। २. निःशंक हो कर बुरे काम करनेवाला। उदा०–नीच, निसील, निरीस निसंकी।–तुलसी।
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निःसंकोच  : अव्य० [सं० निर्-संकोच, ब० स०] संकोच बिना। बे-धड़क।
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निःसंख्य  : वि० [सं० निर्-संख्या, ब० स०] जो गिना न जा सके। अनगिनत। बे-शुमार।
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निःसंग  : वि० [सं० निर्-संग, ब० स०] १. जिसका किसी से संब न हो। किसी से संबंध न रखनेवाला। निर्लिप्त। २. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला।
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निसंग  : वि०=निस्संग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसचय  : पुं०=निश्चय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसंचार  : वि० [सं० निर्-संचार, ब० स०] १. संचरण न करनेवाला। २. घर के अन्दर ही पड़ा रहनेवाला।
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निःसंज्ञ  : वि० [सं० निर्-संज्ञा, ब० स०] जिसमें संज्ञा न हो या न रह गई हो। संज्ञा-रहित।
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निसँठ  : वि० [हिं० नि+सँठ=पूँजी] जिसके पास धन या पूँजी न हो। निर्धन। गरीब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसत  : वि० [हिं० नि+सं० सत्य] असत्य। मिथ्या। वि० [हिं० नि+सत] जिसमें कुछ भी सत्त्व या सार न हो। निःसत्व।
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निसतरना  : अ० [सं० निस्तार] निस्तार अर्थात् छुटकारा पाना। स० निस्तार या उद्धार करना।
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निःसंतान  : वि० =निस्संतान।
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निसतार  : पुं०=निस्तार।
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निसतारना  : स० [सं० निस्तार+ना (प्रत्य०)] निस्तार करना। छुटकारा देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसत्व  : वि० [सं० निर्-सत्व, ब० स०] १. जिसमें सत्व या सार न हो। थोथा। २. निःसपत्न
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निःसंदेह  : वि० [सं० निर्-संदेह, ब० स०] जिसमें कुछ भी संदेह न हो। संदेह-रहित। क्रि० वि० बिना किसी के सन्देह के। २. निश्चित रूप से। अवश्य। बेशक।
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निसद्द  : वि०=निःशब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसंधि  : वि० [सं० निर्-संधि, ब० स०] १. संधि से रहित। २. जिसमें कहीं छेद दरज या ऐसा ही कोई अवकाश न हो। ३. जिसमें कहीं जोड़ न हो या न लगा हो। ४. दृढ़। पक्का। मजबूत। ५. अच्छी तरह कसा या गठा हुआ।
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निसंधु  : पुं० [सं०] प्रहलाद के भाई हलाद के पुत्र का नाम।
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निसनेही  : स्त्री०=निःस्नेहा (अलसी)।
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निःसंपात  : वि० [सं० निर्-संपात, ब० स०] जिसमें आना-जाना न हो सके। पुं० रात का अंधकार।
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निसबत  : स्त्री० [अ० निस्बत] १. संबंध। लगाव। ताल्लुक। २. वैवाहिक संबंध की ठहरौनी या पक्की बात-चीत। मँगनी। सगाई। ३. तुलना। मुकाबला। क्रि० प्र०–देना।
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निसबती  : वि० [अ०] १. ‘निसबत’ का। २. जिससे निसबत (रिश्ता या संबंध) हो। पद–निसबती भाई=बहनोई का साला।
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निःसंबल  : वि० [सं० निर्-संबल, ब० स०] १. जिसके पास संबल न हो। जिसे कोई संबल या सहायता देनेवाला न हो। अव्य० बिना किसी संबल या सहारे के।
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निःसंबाध  : वि० [सं० निर्-संबाधा, ब० स०] १. विस्तृत। २. बड़ा।
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निसयाना  : वि० [हिं० नि+सयाना ?] १. जिसकी सुध-बुध खो गयी हो। २. अनजान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसरण  : पुं [सं० निर्√सृ (गति)+ल्युट्–अन] १. बाहर आना या निकलना। २. बाहर निकलने का मार्ग या रास्ता। निकास। ३. कठिनाई से निकलने का मार्ग या युक्ति। ४. मोक्ष। निर्वाण। ५. मरण। मृत्यु। मौत।
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निसरना  : अ०=निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसराना  : स० १.=निकालना। २.=निकलवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसर्ग  : पुं० [सं०नि√सृज् (छोड़ना)+घञ्] [वि० नैसर्गिक] १. उपहार, भेंट, दान, दक्षिणा आदि के रूप में किसी को कुछ देना। २. छोड़ना या त्यागना। उत्सर्ग करना। ३. बाहर निकालना। ४. मल त्याग करना। ५. आकृति या रूप। ६. विनिमय। ७. सृष्टि। ८. वह तत्त्व या शक्ति जिससे सृष्टि के समस्त कार्य या व्यापार संपन्न होते हैं। प्रकृति। ९. प्रकृति। स्वभाव। (नेचर अंतिम दोनों अर्थों में)
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निसर्ग-विज्ञान  : पुं०=प्रकृति-विज्ञान।
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निसर्ग-सिद्ध  : वि० [सं० पं० त०] १. प्राकृतिक। २. स्वभाव-सिद्ध। स्वाभाविक।
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निसर्गज  : वि० [सं० निसर्ग√जन् (उत्पत्ति)+ड] निसर्ग से उत्पन्न। नैसर्गिक। प्राकृतिक।
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निसर्गतः (तस्)  : अव्य० [सं० निसर्ग+तस्] निसर्ग या प्रकृति के अनुसार, अथवा उसकी प्रेरणा से। प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से। प्रकृतिशः। स्वभावतः।
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निसर्गवाद  : पुं०=प्रकृतिवाद।
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निसर्गवादी  : पुं०=प्रकृतिवादी।
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निसर्गविद्  : पुं०=प्रकृतिवेत्ता।
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निसर्गवेत्ता  : पुं०=प्रकृतिवेत्ता।
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निसर्गायु (स्)  : स्त्री० [सं० निसर्ग-आयुस्, मध्य० स०] फलित ज्योतिष में आयु निकालने की एक गणना।
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निसवासर  : पुं०[सं० निशिवासर] रात और दिन। अव्य० नित्य। सदा।
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निःसंशय  : वि० [सं० निर्–संशय, ब० स०] जिसमें या जिसे कुछ भी संशय न हो। अव्य० किसी प्रकार के संशय के बिना।
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निसंस  : वि० [हिं० नि+साँस] जो सांस न ले रहा हो, अर्थात् मरा हुआ या मरे के हुए के समान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसंस  : वि०=नृशंस (क्रूर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसस  : वि०=निसँस (क्रूर)।
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निसंसना  : अ० [सं० निःश्वास] १. निःश्वास लेना। २. हाँफना।
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निसहाय  : वि०=निस्सहाय (असहाय)।
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निसा  : स्त्री० [हिं० निशाखातिर] १. तृप्ति। तुष्टि। पद–निसा भर=जी भर के। खूब अच्छी तरह। २. संतोष। पुं०=नशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=निशा (रात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाँक  : अव्य०, वि०=निश्शंक।
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निसाकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाचर  : वि०, पुं०=निशाचर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाथा  : वि० [हिं० नि+साथ] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाद  : पुं० [सं० निषाद] १. भंगी। मेहतर। २. दे० ‘निषाद’।
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निसान  : पुं० [फा० निशान] १. निशान। चिह्न। २. धौंसा। नगाड़ा।
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निसानन  : पुं० [सं० निशानन] संध्या का समय। प्रदोष काल।
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निसाना  : पुं०=निशाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसानाथ  : पुं०=निशानाथ (चंद्रमा)।
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निसानी  : स्त्री०=निशानी।
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निसापति  : पुं०=निशापति (चंद्रमा)।
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निसाफ  : पुं०=इंसाफ। (न्याय)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसार  : वि० [सं० निर्–सार, ब० स०] १. (पदार्थ) जिसमें कुछ भी सार न हो। थोथा। २. जिसका कुछ भी महत्त्व न हो। महत्त्हीन। ३. जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध न हो सके। निर्रथक। व्यर्थ। पुं० १. शाखोट या सिहोर नामक वृक्ष। २. सोनपाढ़ा।
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निसार  : पुं० [सं० नि√सृ (गति)+घञ्] १. समूह। २. सोनापाढ़ा। पुं० [अ०] १. कुरबान। बलि। २. निछावर। सदका। ३. मुगल शासन काल का एक सिक्का जो रुपये के चौथाई मूल्य का होता था। वि०=निस्सार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसारक  : पुं०[सं०] शालक राग का एक भेद। वि० [हिं० निसारना=निकालना] निकालनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसारण  : पुं० [सं० निर्√सृ+णिच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निःसरित] १. कोई चीज निकालने, विशेषतः बाहर निकालने की क्रिया या भाव। २. निकालने का मार्ग। निकास। ३. वनस्पतियों की गाँठों या शरीर की गिल्टियों का अपने अंदर से कोई तत्त्व या तरल अंश बाहर निकालना जो अंगों को विशुद्ध और ठीक दशा में रखने या ठीक तरह से चलाने के लिए आवश्यक होता है। ४. इस प्रकार निकलनेवाला कोई पदार्थ। (सीक्रेशन)
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निसारना  : स० [सं० निःसरण] निकालना। बाहर करना। स० [अ० निसार] निछावर करना।
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निःसारा  : स्त्री० [सं० निर्–सार, ब० स०, टाप्] कदली। केला।
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निसारा  : स्त्री० [सं० निःसारा] केले का पेड़। पुं० [अ०] ईसाई। मसीही।
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निःसारित  : भू० कृ० [सं० निर्√स्+णिच्+क्त] १. निकला हुआ। २. बाहर किया हुआ।
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निःसारु  : पुं० [सं० निर्–सीमन्, ब० स०] ताल के साठ भेदों में से एक।
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निसावारा  : पुं० [देश०] कबूतरों की एक जाति।
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निसाँस  : पुं० [सं० निःश्वास] ठँढा साँस। लंबा साँस। वि०=निसाँसा।
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निसास  : पुं०=निसाँस (निःश्वास)। वि०=निसाँसा (बेदम)।
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निसाँसा  : वि० [हिं० नि+साँस] [स्त्री० निसाँसी] जो साँस न ले रहा हो या न ले सकता हों अर्थात् मरा हुआ या मरे हुए के समान। उदा०–अब हौं भरौं निसाँसी, हिए न आवे साँस-जायसी।
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निसाँसी  : वि०=निसाँसा।
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निसासी  : वि०=निसाँसा।
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निसि  : स्त्री०=निशि।
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निसि-निसि  : स्त्री० [सं० निशि-निशि] अर्ध-रात्रि। निशीथ। आधी रात।
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निसिकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।
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निसिचर  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निसिचारी  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निसिंथ  : पुं० [सं०] सँभालू नामक पेड़।
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निसिदिन  : अव्य० [सं० निशिदिन] १. रात-दिन। आठों पहर। २. हर समय। सदा। पुं० रात और दिन।
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निसिनाथ  : पुं०=निशिनाथ (चंद्रमा)।
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निसिनाह  : पुं०=निशिनाथ। (चंद्रमा)।
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निसिपति  : पुं०=निशिपति (चंद्रमा)।
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निसिपाल  : पुं०=निशिपाल (चंद्रमा)।
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निसिमणि  : पुं०=निशामणि (चंद्रमा)।
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निसियर  : पुं०=निशिकर (चंद्रमा)।
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निसिवासर  : पुं०=निसिदिन (रात-दिन)।
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निसीठा  : वि० [सं० नि+हिं० सीठी] [स्त्री० निसीठी] १. जिसमें कुछ तत्त्व न हो। निःसार। २. नीरस।
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निसीथ  : पुं०=निशीथ (अर्द्ध रात्रि)।
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निःसीम (न्)  : वि० [सं० निर्–सीमन्, ब० स०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। २. बहुत अधिक।
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निसु  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुका  : वि० [सं० निःस्वक] १. निर्धन। दरिद्र। गरीब। २. गुण,विशेषता आदि से रहित। उदा०–हौं कषु कै रिस के करों ये निस के हंसि देत।–बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निःसुकि  : पुं० [सं०] १. एक तरह का गेहूँ का पौधा, जिसकी बालों में टूँड़ (बाल का ऊपरी नुकीला भाग) नहीं लगता। २. उक्त पौधे में से निकलनेवाला गेहूँ।
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निसुग्गा  : वि०=निसोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुंभ  : पुं०=निशुंभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुर  : वि० [सं० निःस्वर] १. शब्द-रहित। २. चुप। मौन।
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निसूदक  : वि० [सं० नि√सूद् (हिंसा)+णिच्+ण्वुल्–अक] मारने या वध करनेवाला।
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निसूदन  : पुं०[सं०नि√सूद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. वध करना। २. नष्ट करना।
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निःसृत  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ (गति)+क्त] जिसका निःसरण हुआ हो। बाहर निकला हुआ।
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निसृत  : भू० कृ० [निःसृत] निकाला हुआ।
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निसृता  : स्त्री० [सं० नि√सृ (गति)+क्त+टाप्] निसोथ।
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निसृष्ट  : भू० कृ० [सं० नि√सृज् (छोड़ना)+क्त] १. उपहार, भेंट, दान, दक्षिणा आदि के रूप में दिया हुआ। २. त्यागा या छोड़ा हुआ। ३. भेजा हुआ। प्रेषित। ४. जिसे स्वीकृति दी गई हो। ५. जलाया हुआ। वि० मध्यस्थ। पुं० प्रतिदिन के हिसाब के दी जानेवाली मजदूरी या वेतन। दैनिक भृति। (कौ०)
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निसृष्टार्थ  : पुं० [सं० निसृष्ट-अर्थ, ब० स०] १. वह धीर और बुद्धिमान व्यक्ति जिसे किसी महत्पूर्ण कार्य के प्रबंध या व्यवस्था का भार सौंपा जाय या सौंपा जा सके। २. सन्देशवाहक। दूत। ३. साहित्य में तीन प्रकार के दूतों (या दूतियों) में से एक जो प्रेमिका और प्रेमी का पारस्परिक स्नेह देखकर स्वयं उनके मिलन या संयोग की व्यवस्था करे।
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निसेनी  : स्त्री० [सं० निःश्रेणी] सीढ़ी। जीना। सोपान।
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निसेष  : वि०=निःशेष।
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निसेस  : पुं०[सं० निशेश] चंद्रमा।
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निसैनी  : स्त्री०=निसेनी (सीढ़ी)।
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निसोग  : वि० [सं० निःशोक] १.जिसे कोई शोक या चिंता न हो। २.जिसे किसी बात की चिंता या फिक्र न हो। लापरवाह।
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निसोच  : वि० [सं० निःशोच] जिसे सोच या चिंता न हो।
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निसोत (ा)  : वि० [सं० निःसंयुक्त] [वि० स्त्री० निसोती] जिसमें और किसी चीज का मेल न हो। शुद्ध। निरा। स्त्री०=निसोथ।
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निसोत्तर  : पुं०=निसोत।
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निसोथ  : स्त्री० [सं० निसृत्ता] १. एक प्रकार की लता जिसमें पत्ते गोल और नुकीले होते हैं और जिसमें गोल फल लगते हैं। २. उक्त लता का फल।
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निसोधु  : स्त्री० [हिं० सोध या सुध] १.सुध। खबर। २.सन्देश। सँदेसा।
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निस्की  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का रेशम की कीड़ा।
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निस्केवल  : वि०=निष्केवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तंतु  : वि० [सं० निर्-तंतु, ब० स०] १. तंतुओं से रहित। २. जिसके आगे कोई संतान न हो।
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निस्तत्त्व  : वि० [सं० निर्-तत्त्व, ब० स०] जिसमें तत्त्व न हो। तत्त्व-हीन।
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निस्तंद्र  : वि० [सं० निर्-तंद्रा, ब० स०] १. जिसे तंद्रा न हो। २. जिसमें आलस्य न हो। निरालस्य। ३. बलवान। शक्तिशाली।
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निस्तनी  : स्त्री० [सं० नि-स्तन, ब० स०, ङीष्] औषध की वटिका। गोली।
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निस्तब्ध  : वि० [सं०नि√स्तम्भ (रोकना)+क्त] [भाव० निस्तब्धता] १. जो हिलता-डोलता न हो। जिसमें गति या व्यापार न हो। २. निश्चेष्ट।
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निस्तमस्क  : वि० [सं० निर्-तमस्, ब० स०, कप्] जिसमें अँधेरा न हो।
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निस्तर  : पुं०=निस्तार। उदा०–निस्तर पाइ जाइँ इक बारा।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तरंग  : वि० [सं० निर्-तरंग, ब० स०] जिसमें तरंगें न उठ रही हों; फलतः शान्त और स्थिर। उदा०–उड़ गया मुक्त नभ निस्तरंग।–निराला।
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निस्तरण  : पुं० [निर्√तृ (पार होना)+ल्युट्–अन] १. पार उतरना या होना। २. झंझटों, बखेड़ों, भव-बंधनों आदि से छुटकारा मिलना या पाना।
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निस्तरना  : अ० [सं० निस्तरण] १. पार होना। २. मुक्त होना। छुटकारा पाना। स० १. पार उतराना। २. मुक्त करना। उदा०–अजहूँ सूर पतित पदतज तौ जौ औरहू निस्तरतौ।–सूर।
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निस्तरी  : स्त्री० [देश०] रेशम के कीड़ों की एक जाति जिनका रेशम कुछ कम चमकदार और कुछ कम मुलायम होता है। इसकी तीन उपजातियाँ-मदरासी, सोनामुखी और कृमि है।
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निस्तर्क्य  : वि०=अतर्क्य।
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निस्तल  : वि० [सं० निर्-तल्, ब० स०] [भाव० निस्तलता] १. बिना तल का। जिसका तल न हो। २. जिसके तले का पता न हो। बहुत गहरा। अंतहीन। उदा०–प्रेयसी के प्रणय के निस्तल विभ्रम के।–निराला।
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निस्तला  : स्त्री० [सं० निस्तल+टाप्] वटिका गोली।
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निस्तार  : पुं० [सं० निर्√तृ+घञ्] १. तर या तैर कर पार होने की क्रिया या भाव। २. बंधन, संकट आदि से बचकर निकलने की क्रिया या भाव। उद्धार। छुटकारा। ३. काम पूरा करके उससे छुट्टी पाना। ४. अभीष्ट की प्राप्ति या सिद्धि।
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निस्तार-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] वह बीज या तत्त्व जिसकी सहायता से मनुष्य भव-सागर से पार उतरता हो। (पुराण)
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निस्तारक  : वि० [सं०निर्√तृ+णिच्+ण्वुल्–अक] [स्त्री० निस्तारिका] १. पार उतारनेवाला। २. झंझटों, बंधनों आदि से छुड़ानेवाला।
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निस्तारण  : पुं० [सं० निर्√तृ+णिच्+ल्युट्–अन] १. नदी आदि के पार करना या ले जाना। २. बंधनों आदि से छुड़ाना। मुक्त करना। ३. जीतना। ४. सामने आये हुए कार्य व्यवहार आदि को नियमित रूप से करना अथवा उसका निराकरण करना। (डिस्पोजल)। ५. रसायनशास्त्र में निथारने की क्रिया या भाव।
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निस्तारन  : पुं०=निस्तारण।
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निस्तारना  : स० [सं० निस्तार+ना (प्रत्य०)] १. पार उतारना। २. उद्धार करना। छुड़ाना।
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निस्तारा  : पुं०=निस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तिमिर  : वि० [सं० निर्-तिमिर्, ब० स०] तिमिर या अंधकार से रहित।
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निस्तीर्ण  : भू० कृ० [निर्√तृ+क्त] १. जो पार उतर चुका हो। २. जिसका निस्तार या छुटकारा हो चुका हो। मुक्त। ३. पूरा किया हुआ। निष्ण।
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निस्तुष  : वि० [सं० निर्-तुष, ब० स०] १. जिसमें भूसी न हो या जिसकी भूसी निकाल ली गई हो। बिना भूसी का। २. निर्मल। साफ।
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निस्तुष-क्षीर  : पुं० [सं० ब० स०] गेहूँ।
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निस्तुष-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्फटिक मणि।
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निस्तुषित  : भू० कृ० [सं० निस्तुष+णिच्+क्त] १. जिसका छिलका या भूसी अलग कर दी गई हो। २. छीला हुआ। ३. त्यागा हुआ। त्यक्त। ४. छोटा या पतला किया हुआ।
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निस्तेज  : वि० [सं० निर्-तेज, ब० स०] जिसमें तेज न हो। तेज-हीन।
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निस्तैल  : वि० [सं० निर्-तैल, ब० स०] जिसमें तेल न हो अथवा जिस पर तेल न लगा हो।
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निस्तोद  : पुं० [सं० निस्√तुद् (व्यथित करना)+घञ्] १. चुभाने की क्रिया या भाव। २. डंक मारना।
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निस्त्रप  : वि० [सं० निर्-त्रपा, ब० स०] निर्लज्ज। बेशर्म।
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निस्त्रिंश  : वि० [सं० नृशंस] जिसमें दया न हो। निर्दय। पुं० [सं० निर्-त्रिंशत्, प्रा० स०] १. खड्ग। २. एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र।
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निस्त्रिंश-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कप्+टाप्, इत्व] थूहर।
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निस्त्रुटी  : स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।
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निस्त्रैगुण्य  : वि० [सं० निर्-त्रैगुण्य, ब० स०] जो तीनों गुणों से रहित या हीन हो। पुं० सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे या रहित होने की अवस्था या भाव।
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निस्त्रैणपुष्पिक  : पुं० [?] धतूरा।
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निःस्नेह  : वि० [सं० निर्–स्नेह, ब० स०] जिसमें स्नेह (क) तेल या (ख) प्रेम न हो।
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निस्नेह  : वि० [सं० निर्-स्नेह, ब० स०] १. जिसमें स्नेह या प्रेम न हो। २. जिसमें स्नेह या तेल न हो। पुं० एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र।
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निस्नेह-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] भटकटैया। कटेरी।
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निःस्नेहा  : स्त्री० [सं० निःस्नेह+टाप्] अलसी। तीसी।
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निःस्पंद  : वि० [सं० निर्-स्पंद, ब० स०] स्पंदनहीन। निश्चल।
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निस्पंद  : वि० [सं० निर्-स्पंद, ब० स०] जिसमें स्पंदन न हो। स्पंदनरहित। पुं०=स्पंदन।
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निःस्पृह  : वि० [सं० निर्-स्पृहा, ब० स०] १. जिसे किसी बात की स्पृहा अर्थात् आकांक्षा न हो। कामनाओं, वासनाओं आदि से रहित। २. स्वार्थ आदि की दृष्टि से जो किसी के प्रति उदासीन हो। निःस्वार्थ भाववाला। जैसे–निःस्पृह सेवक।
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निस्पृह  : वि० [सं० निर्-स्पृह, ब० स०] जिसे किसी प्रकार की स्पृहा या इच्छा न हो। इच्छा या स्पृहा से रहित।
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निस्पृहता  : स्त्री० [सं० निस्पृह+तल्+टाप्] निस्पृह होने की अवस्था या भाव।
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निस्पृहा  : स्त्री० [सं० निस्पृहा+टाप्] अग्निशिखा या कलिहारी नामक पेड़।
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निस्पृही  : वि०=निस्पृह।
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निस्प्रेही  : वि०=निस्पृह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्फ  : वि० [फा० निस्फ] अर्द्ध। आधा।
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निस्फल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्फी  : वि० [फा० निस्फ़] निस्फ या आधे के रूप में होनेवाला। जैसे–निस्फी बँटाई=ऐसी बँटाई जो दो बराबर भागों में अर्थात् आधी आधी हो।
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निस्बत  : स्त्री० [अ०] निसबत। (दे०) स्त्री० दे० ‘दो-सखुना’।
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निस्बती  : वि०=निसबती।
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निस्यंद  : पुं० [सं० नि√स्यन्द (चूना)+घञ्] १. चूना या रिसना। क्षरण। २. परिणाम। ३. प्रकट करना।
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निस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० नि√स्यन्द+णिनि] बहने या रसनेवाला।
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निस्यों  : वि० [सं० निश्चिंत] निश्चिन्त। बे-फिक्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पद–निस्यो करि=निश्चिन्त होकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निःस्रव  : पुं० [सं० निर्√स्रु (गति)+अप्] १. निकलने का मार्ग। निकास। २. बचा हुआ अंश। अवशेष। ३. बचत।
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निःस्राव  : पुं० [सं० निर्√सु+अण्] १. बहकर निकला हुआ। अंश। २. मांड़।
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निस्राव  : पुं० [सं० नि√स्रु (बहना)+घञ्] १. वह जो चू, बह या रसकर निकला हो। २. भात की पीच। माँड़।
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निःस्व  : पुं० [सं० निर्-स्व, ब० स०] १. जो स्व अर्थात् आपा या अपनापन छोड़ या भूल चुका हो। २. जिसे सुध-बुध न रह गई हो। ३. दरिद्र। धनहीन।
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निस्व  : वि० [सं० निःस्व] जिसके पास ‘स्व’ अर्थात् अपना कुछ भी न हो, अर्थात् दरिद्र।
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निस्वन  : पुं० [सं० नि√स्वन् (शब्द)+अप्] शब्द। ध्वनि।
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निःस्वादु  : वि० [सं० निर्–स्वाद, ब० स०] बिना स्वाद का। जिसमें कुछ भी स्वाद न हो।
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निस्वान  : पुं० [सं० नि√स्वन+घञ्] १. शब्द। ध्वनि। निस्वन। २. तीर के चलने से होनेवाली हवा में सुरसुराहट। पुं०=निश्वास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निःस्वार्थ  : वि० [सं० निर्-स्वार्थ, ब० स०] १. जिसमें स्वार्थ-साधन की भावना न हो। २. जो बिना किसी स्वार्थ के कोई काम विशेषतः परोपकार करता हो। ३. (काम) जो बिना किसी स्वार्थ से किया जाय। अव्य० बिना किसी प्रकार के स्वार्थ के।
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निस्संकोच  : वि० [सं० निर्-संकोच, ब० स०] जिसमें संकोच या लज्जा न हो। संकोचरहित। अव्य० बिना किसी संकोच के। बे-धड़क।
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निस्संग  : वि० [सं० निर्-संग, ब० स०] १. जिसका किसी से संग या साथ न हो। २. अकेला। ३. विषय वासनाओं से रहित। ४. एकांत। निर्जन।
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निस्संतान  : वि० [सं० निर्-संतान, ब० स०] जिसे कोई संतान न हो।
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निस्सत्त्व  : वि० [सं० निर्-सत्त्व, ब० स०] सत्त्वहीन।
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निस्संदेह  : वि० [सं० निर्-संदेह, ब० स०] जिसमें कोई या कुछ भी संदेह न हो। असंदिग्ध। अव्य० १. बिना किसी प्रकार के सन्देह के। २. निश्चित रूप से। अवश्य।
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निस्सरण  : पुं० [सं० निर्-सरण, ब० स०] निकलने की क्रिया या भाव। २. निकलने का मार्ग या स्थान।
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निस्सहाय  : वि० [सं० निर्-सहाय, ब० स०] जिसकी सहायता करनेवाला कोई न हो। असहाय।
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निस्सार  : वि० [सं० निर्-सार, ब० स०] सारहीन।
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निस्सारक  : वि० [सं० निर्√सृ (गति)+णिच्+ण्वुल–अक] निकानेवाला।
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निस्सारण  : पुं० [सं० निर्√सृ+णिच्+ल्युट्–अन] निकालने की क्रिया या भाव।
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निस्सारित  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ+णिच्+क्त] निकाला हुआ। बाहर किया हुआ।
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निस्सीम  : वि० [सं० निर्-सीम, ब० स०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। २. बहुत अधिक।
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निस्सृत  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ+क्त] बाहर निकला हुआ। पुं० तलवार के ३२ हाथों में से एक।
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निस्स्नेह  : वि० [सं० निर्-स्नेह, ब० स०] स्नेहरहित।
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निस्स्नेह-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सफेद भटकटैया।
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निस्स्पंद  : वि०=निस्पंद।
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निस्स्वक  : वि० [सं० निर्-स्व, ब० स०, कप्] दरिद्र। धनहीन।
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निस्स्वादु  : वि० [सं० निर्-स्वादु, ब० स०] १. जिसका या जिसमें कोई स्वाद न हो। २. जिसका स्वाद अच्छा न हो।
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निस्स्वार्थ  : वि० [सं० निर्-स्वार्थ, ब० स०] (कार्य) जो बिना किसी निजी स्वार्थ के और विशेषतः परमार्थ की भावना से किया गया हो। जैसे–निस्स्वार्थ सेवा। अव्य० बिना किसी स्वार्थ या मतलब के।
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निह  : उप० [सं० निस्] नहिक भाव का सूचक एक उपसर्ग या पूर्व प्रत्यय। जैसे–निहकर्मा, निहकलंक,निहपाप आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निहकर्मा  : वि० [सं० निष्कर्म] कर्म न करनेवाला।
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निहकलंक  : वि०=निष्कलंक।
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निहकाम  : वि०=निष्काम।
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निहकामी  : वि०=निष्काम।
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निहंग  : वि० [सं० निःसंग] १. एकाकी। अकेला। २. जो घर-गृहस्थी की झंझटों में न पड़ा हो अर्थात् अविवाहित और परिवारहीन। ३. नंगा। ४. निर्लज्ज। बेशरम। पुं० १. एक प्रकार के वैष्णव साधु। २. अकेला रहनेवाला विरक्त या साधु। ३. सिक्खों का एक संप्रदाय जो ‘कूका’ भी कहलाता है।
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निहंग-लाडला  : वि० [हिं० निहंग+लाडला] जो माता पिता के दुलार के कारण बहुत ही उद्दंड और लापरवाह हो गया हो।
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निहंगम  : वि०=निहंग।
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निहचक  : पुं० [सं० नेमि+चक्र] पहिए के आकार का काठ का वह गोल चक्कर जिसके ऊपर कूएँ की कोठी खड़ी की जाती है। निवार। जमवट। जाखिम।
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निहचय  : पुं०=निश्चय।
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निहचल  : वि०=निश्चल।
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निहचिंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहठ, निहठा  : स्त्री० [सं० निष्ठा] लकड़ी का वह टुकड़ा जिस पर रखकर बढ़ई, गढ़ने की चीजें बसूले से गढ़ते हैं।
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निहत  : भू० कृ० [सं० नि√हन्+क्त] १. चलाया या फेंका हुआ। २. नष्ट किया हुआ। विनष्ट। ३. जो मार डाला गया हो।
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निहंता (तृ)  : वि० [सं० नि√हन् (मारना)+तृच्] [स्त्री० निहंत्री] १. विनाशक। नाश करनेवाला। २. मार डालने या हत्या करनेवाला।
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निहतार्थ  : पुं० [सं० निहत-अर्थ, ब० स०] काव्य में एक प्रकार का दोष।
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निहत्था  : वि० [हिं० नि+हाथ] १. जिसके हाथ में कोई अस्त्र न हो। शस्त्रहीन। २. जिसके हाथ में कुछ या कोई साधन न हो।
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निहनन  : पुं० [सं० नि√हन्+ल्युट्–अन] वध। मारण।
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निहनना  : स० [सं० निहनन] मारना। मार डालना।
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निहपाप  : वि०=निष्पाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निहफल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निहल  : पुं० दे० ‘गंग-बरार’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निहव  : पुं० [सं० नि√ह्वे (बुलाना)+अप्] पुकारना। बुलाना।
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निहषरना  : अ० [सं० नि+क्षरण] बाहर आना या निकलना (राज०) उदा०–निहषरता नखरै नर।–प्रिथीराज।
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निहस  : पुं० [?] चोट। प्रहार। (डि०) उदा०–नीसाने पड़ती निहस।–पृथीराज।
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निहसना  : स० [सं० निघोषण] शब्द करना। अ० शब्द होना। अ० [सं० विलसन] सुशोभित होना। लसना। उदा०–नासा अग्रि मुताहल निहसति।–प्रिथीराज।
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निहाई  : स्त्री० [सं० निघाति, मि० फा० निहाली] लोहारों और सुनारों का जमीन में गड़ा या लकड़ी आदि में जुड़ा हुआ लोहे का वह टुकड़ा जिस पर वे धातु के टुकड़ों को रखकर हथौड़े से कूटते या पीटते हैं।
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निहाऊ  : पुं० [सं० निघाति] लोहे का घन।
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निहाका  : स्त्री० [सं०] १. गोह नामक जंतु। २. घड़ियाल।
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निहाना  : स० [सं० नि+घात] १. नष्ट करना। मारना। २. दबाना।
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निहानी  : स्त्री० [सं० निखनित्री] नक्काशी करने का एक उपकरण।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निहाय  : पुं०=निहाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहायत  : अव्य० [अ०] बहुत अधिक। अत्यन्त।
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निहार  : स्त्री० [हिं० निहारना] निहारने की क्रिया या भाव। पुं० [सं० निस्सरण] निकलने का मार्ग। निकास। पुं० [?] लट्ट। पुं०=नीहार (देखें)। वि०=निहाल।
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निहारना  : स० [सं० निभालन=देखना] १. अच्छी तरह और ध्यानपूर्वक अथवा टक लगाकर देखना। २. ताकना।
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निहारनि  : स्त्री० [हिं० निहारना] निहारने की क्रिया या भाव। निहार।
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निहारिका  : स्त्री०=नीहारिका।
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निहारुआ  : पुं०=नहरुआ (रोग)।
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निहाल  : वि० [फा०] १. जिस पर किसी की बहुत अधिक या विशेष कृपा हुई हो और इसी लिए जो प्रफुल्लित तथा संतुष्ट हो। २. धन, दौलत आदि मिलने पर जो मालामाल या समृद्ध हुआ हो। पूर्ण-काम। सफल-मनोरथ। पुं० पौधा।
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निहाल लोचन  : पुं० दे० ‘निहालचा’।
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निहालचा  : पुं० [फा० निहालचः] बच्चों के सोने की छोटी गद्दी।
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निहालना  : स०=निहारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निहाली  : स्त्री० [फा०] बिस्तर पर बिछाने का गद्दा। स्त्री०=निहाई।
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निहाव  : पुं० [सं० निघाति] निहाई।
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निहि  : उप० सं० ‘निस्’ उपसर्ग का एक विकृत रूप। जैसे–निहिचय, निहिचिंत।
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निहिचय  : पुं०=निश्चय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहिचिंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहित  : वि० [सं० नि√धा(धारण)+क्त, हि आदेश] १.(चीज) जो किसी दूसरी चीज के अन्दर स्थित हो और बाहर न दिखाई देती हो। अन्दर छिपा या दबा हुआ। (लेटेन्ट) २. स्थापित किया हुआ। ३. दिया या सौंपा हुआ।
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निहिंसन  : पुं० [सं० नि√हिंस् (मारना)+ल्युट्–अन] मार डालना। वध करना।
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निहीन  : वि० [सं० नि-हीन, प्रा० स०] परमहीन। बहुत क्षुद्र या तुच्छ।
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निहुँकना  : अ०=निहुरना (झुकना)।
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निहुड़ना  : अ०=निहुरना (झुकना)। स०=निहुराना (झुकाना)।
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निहुरना  : अ० [हिं० नि+होड़न] १. झुकना। नवना। २. नम्र होना।
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निहुराई  : स्त्री० [हिं० निहुरना] झुकने की क्रिया या भाव। स्त्री०=निठुराई (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहुराना  : स० [हिं० निहुरना का प्रे०] १.झुकना। नवाना। २. नम्र होने के लिए विवश करना।
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निहोर  : पुं०=निहोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहोरना  : अ० [हिं० निहोरा] प्रार्थना या विनती करना। स० किसी पर अनुग्रह करके उसे उपकृत या कृतज्ञ करना। उदा०–सोइ कृपालु केवटहि निहोरे।–तुलसी।
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निहोरा  : पुं० [सं० मनोहार,हिं० मनुहार] १. किसी के किए हुए अनुग्रह या उपकार के बदले में प्रकट की या मानी जानेवाली कृतज्ञता। एहसान। क्रि० प्र०–मानना। मुहा०–(किसी का) निहोरा लेना=ऐसी स्थिति में होना कि कोई उपकार करे और इसके लिए उसका कृतज्ञ होना पड़े। २. निवेदन। विनय। ४. आसरा। भरोसा। क्रि० प्र०—लगना। अव्य० के लिए। वास्ते। दे० ‘निहोरे’।
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निहोरे  : अव्य० [हिं० निहोरा] किसी के किए हुए अनुग्रह या उपकार के आधार पर अथवा उसके कारण। जैसे–हम किस निहोरे उनके यहाँ जाएँ, अर्थात् उन्होंने हमारी कौन सी भलाई या कौन-सा सद्व्यवहार किया है जिसके लिए हम उनके यहाँ जायँ। उदा०–धरहुँ देह नहि आन निहोरे।–तुलसी।
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निह्नव  : पुं० [सं० नि√ह्नु (छिपाना)+अप्] १. निहित अर्थात् छिपे हुए होने की अवस्था या भाव। २. अविश्वास। ३. शुद्धता। पवित्रता। ४. एक प्रकार का साम-गान।
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निह्नवोत्तर  : पुं० [सं० निह्नव-उत्तर-मध्य० स०] टाल, मटोलवाला उत्तर। बहानेबाजी।
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निह्नुत  : भू० कृ० [सं० नि√ह्नु+क्त] [भाव० निह्नुति] १. अस्वीकृत किया हुआ। २. छिपाया हुआ।
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निह्नुति  : स्त्री० [सं० नि√ह् नु+क्तिन्] अस्वीकार। इन्कार। २. छिपाव। दुराव। गोपन।
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निह्नुवन  : पुं० [सं० नि√ह्नु+ल्युट्—अन] १. इनकार। २. बहाना।
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निह्रद  : पुं० [सं० नि√ह्रद् (शब्द)+घञ्] ध्वनि। शब्द।
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