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ब्रह्म (न्)  : पुं० [सं०√बृंह+मनिन, नकारस्य, अकार, रत्वम्] १. वेदांत दर्शन के अनुसार वह एक मात्र चेतन, नित्य और मूल सत्ता जो अखंड अनंत, अनादि, निर्गुण और सत् तथा आनंद से युक्त कही गई हैं। विशेष—साधारणतः यही सत्ता सारे विश्व का मूल कारण मानी जाती है। परन्तु अधिक गंभीर दार्शनिक दृष्टि से यह माना जाता है कि यही जगत का निमित्त भी है और उपादान भी। इसी आधार पर यह जगत उस ब्रह्म का विवर्त (देखें) मात्र माना जाता है, और कहा जाता है कि ब्रह्म ही सत्य है, और बाकी सब मिथ्या या उसका आभास मात्र है। प्रत्येक तत्त्व और प्रत्येक वस्तु के कण-कण में ब्रह्म की व्याप्ति मानी जाती है, और कहा जाता है कि अंत या नाश होने पर सबका इसी ब्रह्म में लय होता है। २. ईश्वर। परमात्मा। ३. उक्त के आधार पर एक की संस्था का सूचक पद। ४. अन्तरात्मा। विवेक। जैसे—हमारा ब्रह्म वहाँ जाने को नहीं कहता। ५. ब्राह्मण (विशेषतः समस्त पदों के आरंब में) जैसे—ब्रह्मद्रोही, ब्रह्महत्या। ६. ब्रह्मा का वह रूप जो उसे समस्त पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—ब्रह्म-कन्यका। ७. ऐसा ब्राह्मण जो मर कर प्रेत हो गया हो। ब्रह्म-राक्षस। मुहावरा—(किसी को) ब्रह्म लगना=किसी पर ब्राह्मण प्रेत का आविर्भाव होना। ब्राह्मण प्रेत से अभिभूत होना। ८. वेद। ९. फलित ज्योतिष में २७ योगों में से २४वाँ योग जो सब कार्यों के लिए शुभ कहा गया है। १॰. संगीत में ताल के चार मुख्य भेदों में से एक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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