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स्मरण  : पुं० [सं०] [वि० स्मरणीय, भू० कृ० स्मृत] १. किसी ऐसी देखी-सुनी या बीती हुई बात का फिर से याद आना या ध्यान होना जो बीच में भूल गई हो, या ध्यान में न रह गई हो। कोई बात फिर से याद आने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०–आना।–करना।–दिलाना।–रखना।–रहना।–होना। ३. भक्ति के नौ प्रकारों में से एक, जिसमें उपासक अपने इष्टदेव को बराबर याद करता रहता या मन में उसका ध्यान रखता है। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें पहले की देखी हुई कोई चीज या सुनी हुई कोई बात उसी प्रकार की कोई चीज देखने या बात सुनने पर फिर से याद आने या मन में उसका ध्यान आने का उल्लेख होता है। यथा–मैं पाता हूँ मधुर ध्वनि में गूँजने में खगों के। मीठी तानें परम प्रिय की मोहिनी वंशिका की।–अयोध्याप्रसाद उपाध्याय। विशेष–इस अलंकार को कुछ लोगों ने स्मृति भी कहा है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
स्मरण  : पुं० [सं०] स्मरण कराने की क्रिया या भाव। याद दिलाना।
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स्मरण-पत्र  : पुं० [सं०] कोई बात स्मरण करने के लिए लिखा जानेवाला पत्र। (रिमाइंडर)
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स्मरण-शक्ति  : स्त्री० [सं०] वह मानसिक शक्ति जो अपने सामने होनेवाली घटनाओं और सुनी जानेवाली बातों को ग्रहण करके मन में रक्षित रखती हैं और आवश्यकता पड़ने, प्रसंग आने पर फिर हमारे मन में स्पष्ट कर देती है। याद रखने की शक्ति। याददाश्त। (मेमरी)
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स्मरणाशक्ति  : स्त्री० [सं०] भगवान् के स्मरण में होनेवाली आसक्ति जिसके कारण भक्त दिन-रात भगवान् या इष्टदेव का स्मरण करता है। उदा०–(यह भक्ति) एक रूप ही होकर गुणमहात्मासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणसक्ति, दासासक्ति, संख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनेवेदनासक्ति, तन्मयासक्ति, और परमविरहासक्ति रूप से एकादश प्रकार की होती है।–हरिशचन्द्र।
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स्मरणी  : स्त्री० [सं०] सुमिरनी।
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स्मरणीय  : वि० [सं०] (घटना या बात) जो स्मरण रखी जाने के योग्य हो। याद रखने लायक। जैसे–यह दृश्य भी सदा स्मरणीय रहेगा।
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