झूल/jhool

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झूल  : स्त्री० [हिं० झूलना] १. झूलने की क्रिया या भाव। २. वह चौकोर कपड़ा जो प्रायः सोभा के लिए घोड़ों, बैलों, हाथियों आद की पीठ पर डाला जाता है और जो दाहिने-बाएँ झूलता या लटकता रहता है। मुहावरा–गधे पर झूल पड़ना=बहुत ही अयोग्य या कुपात्र पर कोई बहुत अच्छा अलंकरण या आवरण पड़ना। ३. वह कपड़ा जो पहनने पर ढीला-ढाला, भद्दा या भोडा जान पड़े। (व्यग्यं) जैसे–किसी का ढीला-ढाला कोट देखकर कहना। यह झूल आपकों कहाँ से मिल गई। पुं० =झूला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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झूल-दंड  : पुं० [हिं० झूलना+सं० दंड] एक प्रकार का व्यायाम जिसमें बारी-बारी से बैठक और झूलते हुए दंड किया जाता है।
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झूलन  : स्त्री० [हिं० झूलना] झूलने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) झूल। पुं० १. सावन के महीने में ठाकुरों, देवताओं आदि के संबंध में होनेवाला वह उत्सव जिसमें उनकी मूर्तियाँ हिडोंले में बैठाकर झुलाई जाती हैं और उनके सामने नृत्य, गीत आदि होते हैं। हिंडोला। २. उक्त अवसर पर अथवा सावन-भादों में गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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झूलना  : अ० [सं० झुल्, प्रा० झुलइ, झुल्ल, उ० झुलिबा, गुं० झूलवूँ, मरा० झुलणें, सि० झुलणु] १. किसी आधार या सहारे पर लटकी हुई चीज का रह-रहकर आगे-पीछे या इधर-उधर लहराना अथवा हिलना-डोलना। जैसे–टँगा हुआ परदा या उसमें बँधी हुई डोरी का झूलना, पेड़ों में लगे हुए फलों का झूलना। २. झूले पर बैठकर पेंग लेना या बार-बार आगे बढ़ना और पीछे हटना। ३. किसी उद्देश्य या कार्य की सिद्धि की आशा अथवा प्रतीक्षा में बार-बार किसी के यहाँ आना-जाना अथवा अनिश्चित दशा में पड़े रहना। जैसे–किसी कार्यालय में नौकरी पाने की आशा में झूलना। स० झूले पर बैठकर पेंग लेते हुए उसका आनन्द या सुख भोगना। जैसे–बरसात में लड़के-लड़कियाँ दिन भर झूला झूलती रहती हैं। वि० [स्त्री० झूलनी] (पदार्थ) जो रह-रहकर इधर उधर हिलता-डोलता हो। झूलता रहनेवाला या झूलता हुआ। जैसे–पहाड़ी झरने या नदी पर बना हुआ झुलना पुल। पुं० १. मात्रिक सम दंडक छंदों का एक भेद या वर्ग जिसे प्राकृत में झुल्लण कहते थे। इसके प्रत्येक चरण में ३७ मात्राएँ और पहली तथा दूसरी १॰ मात्राओं के बाद यति या विश्राम होता है। यतियों पर तुक मिलना और अन्त में यगण होना आवश्यक है। २. एक प्रकार का वर्णिक समवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, भ, र, स और लघु होता है। रूप-माला के प्रत्येक चरण के आरंभ में दो लघु रखने से भी यह छंद बन जाता है। इसमें १२ और ७. वर्णों पर यति होती है। इसे मणि-माल भी कहते हैं। ३. दे० झूला।
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झूलनी-बगली  : स्त्री० [हिं० झूलना+बगली] बगली की तरह की मुगदर की एक प्रकार की कसरत।
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झूलनी बैठक  : स्त्री० [हिं० झूलना+बैठक=कसरत] एक प्रकार की कसरत जिसमें बैठक करके पैर को हाथी के सूँड़ की तरह झुलाया जाता है।
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झूलरि  : स्त्री० [हिं० झूलना] झुलता हुआ छोटा गुच्छा या झुमका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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झूला  : पुं० [सं० दोल या हिं० झूलना] १. पेड़ की डाल, छत या और किसी ऊँचे स्थान में बाँधकर लटकाई हुई दोहरी या चौहरी जंजीरें या रस्सियाँ जिन पर तख्ता, पीढ़ा और कोई आसन लगाकर लोग खड़े होकर या बैठकर आनन्द और मनोविनोद के लिए झूलते हैं। क्रि० प्र०–झूलना।–डालना।–पड़ना। २. जंगली या पहाड़ी नदियाँ और नाले पार करने के लिए उनके दोनों किनारों पर किसी ऊँचे खंभों, चट्टानों या पेड़ों की डालों पर रस्से बाँधकर बनाया जानेवाला वह पुल जिसका बीचवाला भाग अधर में लटकता और इसीलिए प्रायः इधर उधर झूलता रहता है। झूलना पुल। जैसे–लछमन झूला। ३. यात्रा आदि में काम आनेवाला वह बिस्तर जिसके दोनों सिरे दो ओर रस्सियों से वृक्षों की डालों आदि में बाँध देते हैं और जो उक्त प्रकार से बीच में झूलता या लटकता रहता है। ४. हवा का ऐसा झटका या झोंका जिससे चीजें इधर-उधर झूलने या हिलने-डोलने लगें। (क्व०) ५. दे० झूल। पुं० [?] तरबूज। पुं०=झुल्ला (स्त्रियों का पहनावा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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झूलि  : स्त्री० १.=झूल। २.=झूली।
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झूली  : स्त्री० [हिं० झूलना] १. वह कपड़ा जिससे हवा करके अन्न ओसाया जाता है। २. ऐसा बिस्तर जिसके दोनों सिरे दोनों ओर किसी ऊँची चीज या जगह में बँधे हों और जिसका बीचवाला भाग झूलता रहता हो। (दे० झूला के अन्तर्गत)।
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