शब्द का अर्थ
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रसा :
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स्त्री० [सं० रस+अच्+टाप्] १. पृथ्वी। जमीन। २. रासना। ३. पाढ़ा नामक लता। ४. शल्लकी सलई। ५. कंगनी नामक अन्न। ६. द्राक्षा। दाख। ७. मेदा। ८. शिलारस। लोबान। ९. आम। १॰. काकोली। ११. नदी। १२. रसातल। १३. रसना। जीभ। पुं० [हिं० रस] १. तरकारी आदि का झोल। शोरबा। पद—रसेदार= (तरकारी) जिसमें रसा भी हो। शोरबेदार। २. जूस। रस। जैसे—फलों का रसा। वि० =रसाँ। |
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रसाँ (सा) :
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वि० [फा०] पहुँचाने या ले जानेवाला। जैसे—चिट्टीरसाँ। |
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रसा-पति :
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पुं० [सं० ष० त०] पृथ्वी-पति। राजा। |
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रसाइन :
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पुं० =रसायन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसाइनी :
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स्त्री०=रसाइनी। पुं० =रसायनज्ञ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसाई :
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स्त्री० [फा०] १. पहुंचने की क्रिया या भाव। पहुँच। २. बुद्धि आदि के कहीं तक पहुँच सकने की शक्ति। |
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रसाकर्षण :
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पुं० [सं० रस-आकर्षण, ष० त०] वह प्रक्रिया जिससे शरीर का कोई अंग रंध्रों के द्वारा बाहर का रस खींचकर अपने अन्दर करता है। (ओस्मोमिस)। |
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रसांगक :
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पुं० [सं० रस-अंग, ब० स+कन्] धूप सरल का वृक्ष। श्रीवेष्ठ। |
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रसाग्रज :
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पुं० [सं० रस-अग्रज, ष० त०] रसौत। |
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रसाग्र्य :
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पुं० [सं० रस-अग्र, य, ष० त०] १. पारा। २. रसाजंन। रसौत। |
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रसांजन :
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पुं० [सं० रस-अंजन, मध्य० स०] रसौत। रसवत। |
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रसाज्ञान :
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पुं० [सं० रस-अज्ञान, ष० त०] १. इस बात की जानकारी न हो कि अमुक रस कौन हैं। २. वह स्थिति या दशा जिसमें रस अर्थात् स्वाद का ज्ञान न होता हो। |
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रसाढ्य :
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पुं० [सं० रस-आढ्य, तृ० त०] अमड़ा। आम्रातक। |
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रसाढ्या :
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स्त्री० [रसाढ्य+टाप्] रासना। |
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रसांतर :
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पुं० [सं० रस-अंतर, मयू० स०] एक रस की अवस्थिति में दूसरे रस का होनेवाला आविर्भाव या संचार। |
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रसांतरण :
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पुं० [सं० रस-अंतरण, ष० त०] एक रस की अवस्थिति हटा कर दूसरे रस का संचार करना। जैसे—प्रेम चर्चा के समय बिगड़कर प्रिय की उपेक्षा करना या उसे भय दिखाना या क्रोध के समय हँसाकर प्रसन्न करना। |
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रसातल :
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पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचेवाले सात लोकों में से छठा लोक। मुहावरा—रसातल पहुँचाना या रसातल में पहुँचाना=पूरी तरह से नष्ट या मटियामेट कर देना। मिट्टी में मिला देना। बरबाद कर देना। |
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रसादार :
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वि० =रसेदार। |
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रसाधार :
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पुं० [सं० रस-आधार, ष० त०] सूर्य। |
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रसाधिक :
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पुं० [सं० रस-अधिक, च० त०] सुहागा। |
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रसाधिका :
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स्त्री० [सं० रस-अधिका, तृ० त०] किशमिश। |
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रसाध्यक्ष :
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पुं० [सं० रस-अध्यक्ष, ष० त०] प्राचीन भारत में वह राजकर्मचारी जो मादक द्रव्यों को जाँच-पड़ताल और उनकी बिक्री आदि की व्यवस्था करता था। |
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रसापकर्षण :
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पुं० [सं० रस-अपकर्षण, ष० त०] वह प्रक्रिया जिसके द्वारा शरीर का कोई अंग अथवा अपने अंदर का ऐसा ही और कोई पदार्थ रस-रंध्रों द्वारा बाहर निकालता है। (एन्डोमोसिस) |
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रसापायी (यिन्) :
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वि० [सं० रसा√पा (पीना)+णिनि] जो जीभ से पानी पीता हो। जैसे—कुत्ता, साँप आदि। पुं० कुत्ता। |
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रसाभास :
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पुं० [सं० रस-आ√भास् (चमकना)+अच्] १. भारतीय साहित्य शास्त्र के अनुसार किसी साहित्यिक रचना में कहीं-कहीं दिखाई देनेवाली वह स्थिति जिसमें रस का पूरी तरह से परिपाक नहीं होने पाता, और इसलिए जिसके फलस्वरूप सहृदयों को ऐसा जान पड़ता है कि रस की पूर्ण निष्पति नहीं हुई है उसका आभास मात्र दिखाई देता है। जैसे—यदि श्रृंगार रस में हास्य रस का, हास्य रस में वीभत्स रस का अथवा वीर रस में भयानक रस का मिश्रण कर दिया जाय तो प्राथमिक या मूल रस का परिपाक नहीं होने पाता और रस के परिपाक के स्थान पर रसाभाव मात्र होकर रह जाता है कुछ आचार्यों का मत है कि रसाभास वस्तुतः रस का बाधक और विरोधी तत्त्व है पर कुछ आचार्य कहते हैं कि रसाभास होने पर भी रस-दशा ज्यों कि त्यों आस्वाद्य बनी रहती हैं। |
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रसामृत :
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पुं० [सं० रस-अमृत, कर्म० स०] पारे, गंधक शिलाजीत, चंदन, गुडुच, धनियाँ, इंद्रजौ, मुलेठी आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार का रस। |
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रसाम्ल :
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पुं० [सं० रस-अम्ल, ब० स०] १. अम्लबेतस्। अमलबेद। २. चुक नाम की खटाई। ३. वृक्षाम्ल। विषांविल। |
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रसाम्लक :
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पुं० [सं० रसाम्ल+कन्] एक प्रकार की घास। |
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रसाम्ला :
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स्त्री० [सं० रसाम्ल+टाप्] पलाशी नाम की लता। |
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रसायन :
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पुं० [सं० स-अयन, ब० स०] १. आरंभिक भारतीय वैद्यक में औषध, चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में रस अर्थात् पारे का प्रयोग करने की कला या विद्या। २. परवर्ती काल में उक्त कला के आधार पर पारे के प्रयोगों से धातुओं आदि में अद्भुत और असाधारण तात्त्विक परिवर्तन कर दिखाने अथवा उन्हें भस्म करने की कला या विद्या जिसके फलस्वरूप आगे चलकर भारत, पश्चिमी एशिया तथा यूरोप के कुछ देशों में बहुत से लोग इस बात की छानबीन और प्रयोग करने लगे थे कि पीतल लोहे आदि को किस प्रकार सोने के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। कीमियागारी। विशेष—पाश्चात्य देशों में इसी प्रकार के प्रयोग करते-करते कुछ लोगों ने वे तत्त्व और सिद्धान्त ढूँढ़ निकाले थे, जिनके आधार पर आधुनिक रसायन-शास्त्र (देखें) का विकास हुआ है। ३. परवर्ती भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार के ऐसे औषध या दवाएँ जिनके संबंध में यह माना जाता है कि इनके सेवन से मनुष्य कभी बीमार या बुड्ढा नहीं हो सकता और उसमें फिर नया जीवन और युवावस्था आ जाती है। ४. आधुनिक भारतीय वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार की ओषधियों से बनी हुई कुछ ऐसी दवाएँ जो मनुष्यों का बल-वीर्य आदि बढ़ानेवाली मानी जाती है। जैसे—आमलक रसायन, ब्राह्मी, रसायन, हरीतकी रसायन आदि। ५. तक्र। मठा। ६. बायबिंडग। बिंडग। ७. जहर। विष। ८. कटि। कमर। ९. गरुड़ पक्षी। |
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रसायन-विज्ञान :
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पुं० =रसायन-शास्त्र। |
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रसायन-शास्त्र :
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पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक काल में विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पदार्थों में क्या-क्या गुण और तत्त्व होते हैं, दूसरे पदार्थों के योग से उनमें क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं, और उन्हें किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है। (कैमिस्ट्री) विशेष—इस शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त यह है कि सभी पदार्थ कुछ मूल तत्त्वों या द्रव्यों के अलग-अलग प्रकार के परमाणुओं से बने हुए होते है वैज्ञानिकों ने अब तक ऐसे १00 से अधिक मूल तत्त्व या द्रव्य ढूँढ़ निकाले हैं। उनका कहना है कि जब एक प्रकार के परमाणु किसी दूसरे प्रकार के परमाणुओं से मिलते हैं, तब उनसे कुछ नये द्रव्य या पदार्थ बनते हैं, इस शास्त्र में इसी बात का विचार होता है कि उन तत्त्वों में किस-किस प्रकार के परिवर्तन या विकार होते हैं, और उन परिवर्तनों का क्या परिणाम होता है। |
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रसायन-श्रेष्ठ :
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पुं० [सं० स० त०] पारा। |
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रसायनज्ञ :
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पुं० [सं० रसायन√ज्ञा (जानना)+क] रसायन क्रिया का जाननेवाला। वह जो रसायन विद्या जानता हो। |
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रसायनफला :
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स्त्री० [ब० स०+टाप्] हर्रे। हड़। हरीतकी। |
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रसायनवर :
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पुं० [सं० स० त०] लहसुन। |
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रसायनवरा :
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स्त्री० [सं० स० त०] १. कँगनी। २. काकजंघा। |
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रसायनिक :
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वि० =रासायनिक। |
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रसायनी :
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स्त्री० [सं० रस√अय् (प्राप्ति)+ल्यु-अन+ङीष्] १. वह औषध जो बुढ़ापे को रोकती या दूर करती हो। २. गुडुच। ३. काकमाची। मकोय। ४. महाकरंज। ५. गोरख मुण्डी। अमृत संजीवनी। ६. मांसरोहिणी। ७. मंजीठ। ८. कन-फोड़ा नाम की लता। ९. कौंछ। केवाँच। १॰. सफेद निसोथ। ११. शंखपुष्पी। शंखाहुली। १२. कंदगिलोय। १३. नाड़ी नामक साग। पुं० रसायन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसाल :
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वि० [सं० रस-आ√ला (आदान)+क] १. रस से पूर्ण। रस से भरा हुआ। रसपूर्ण। २. मीठा। मधुर। ३. रसिक। रसीला। सहृदय। ४. साफ किया हुआ। परिमार्जित और शुद्ध। पुं० १. ऊख। गन्ना। २. आम। ३. गेहूँ। ४. बोल नामक गंध-द्रव्य। ५. कटहल। ६. कंदूर तृण। ७. अमलबेत। ८. शिलारस। लोबान। पुं० [अ० इरसाल] कर। राजस्व। खिराज। वि० =रिसाल। |
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रसाल-शर्करा :
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] गन्ने या ऊख के रस से बनाई हुई चीनी। |
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रसालक :
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वि० [सं० रसाल+कन्] [स्त्री० रसालिका] १. मधुर। मृदु। २. सरस। ३. मनोहर। सुन्दर। |
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रसालय :
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पुं० [सं० रस-आलय, ष० त०] १. आम का पेड़। २. आमोद-प्रमोद का स्थान। क्रीडा़ स्थल। ३. दे० ‘रसशाला’। |
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रसालस :
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पुं० [हिं० रसाल] अद्भुत या विलक्षण बात। कौतुक। |
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रसालसा :
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स्त्री० [सं० रस-अलसा, तृ० त०] १. गन्ना। २. गेहूँ। ३. कुंहुर नामक तृण। |
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रसाला :
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स्त्री० [सं० रसाल+टाप्] १. सिखरन। श्रीखंड। २. दही में मिलाया हुआ सत्तू। ३. दूब। ४. बिदारीकन्द ५. दाख। ६. गन्ना। ७. जीभ। जबान। ८. एक तरह की चटनी। पुं० =रिसाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसालाम्र :
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पुं० [सं० रसाल-आम्र, कर्म० स०] बढ़िया कलमी आम। |
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रसालिका :
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स्त्री० [सं० रसाल√कन्+टाप्, इत्व] १. छोटा आम। अंबिया। २. सप्तला। सातला। |
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रसाली :
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स्त्री० [सं० रसाल+ङीष्] गन्ना। पुं० [सं० रस] भोग-विलास में रस या आनन्द प्राप्त करनेवाला व्यक्ति। |
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रसाव :
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पुं० [हिं० रसना] १. वह अवस्था जिसमें कोई तरल पदार्थ किसी चीज में से रस या टपक रहा हो। २. किसी चीज में से रसकर निकालनेवाला पदार्थ। ३. खेती-जोतकर और पाटे से बराबर करके उसे कई दिनों तक यों ही छोड़ देने की क्रिया जिससे उसमें रस या उत्पादन शक्ति का आविर्भाव होता है। |
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रसावट :
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पुं० =रसावल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसावल :
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पुं० [सं० रस] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो यगण होते हैं। कुछ लोग दूसरे यगण की जगह मगण भी रखते हैं। पर कुछ लोगों के मत से ‘रोला’ ही रसावल है। अर्ध-भुजंगी। पुं० [हिं० रस+चावल] १. ऊख के रस में पकाये हुए चावल। २. देहातों में विवाह के उपरांत नववधू द्वारा प्रस्तुत रसावल जीमते समय गाये जानेवाला गीत। |
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रसावा :
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पुं० [हिं० रस+आवा (प्रत्यय)] वह मटका जिसमें ऊख का रस रखा हुआ है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रसाश :
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पुं० [सं० रस-आश, ष० त०] मदिरा पान करना। शराब पीना। |
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रसाशी (शिन्) :
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पुं० [सं० रस√अश् (भोजन)+णिनि] मदिरा पान करनेवाला। शराबी। |
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रसाष्टक :
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पुं० [सं० रस-अष्टक, ष० त०] पारा, ईगुर, कांतिसार लोहा, सोनामक्खी, रूपामक्खी, वैक्रांतमणि, और शंख इन आठ महारसों का समाहार। (वैद्यक) |
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रसास्वादन :
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पुं० [सं० रस-आस्वादन, ष० त०] १. किसी प्रकार के रस का स्वाद लेना। रस चखना। २. किसी प्रकार के रस या आनन्द का भोग करना। सुख लेना। ३. किसी बात या विषय का रस चखना या लेना। |
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रसास्वादी (दिन्) :
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वि० [सं० रस-आ√स्वद् (स्वाद लेना)+णिच्+णिनि] [स्त्री० रसास्वादिनी] १. रस चखनेवाला। स्वाद लेनेवाला। २. आनन्द या मजा लेनेवाला। ३. किसी बात या विषय में रस लेनेवाला। पुं० भ्रमर। भौंरा। |
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रसाह्व :
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पुं० [सं० रस-आह्वा, ब० स०] गंधा-बिरोजा। |
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रसाह्वा :
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स्त्री० [सं० रसाह्व+टाप्] १. सतावर। २. रासना। |
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