शब्द का अर्थ
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					सभा					 :
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					स्त्री० [सं०] १. किसी एक स्थान पर बैठे हुए बहुत से भले आदमीयों का समूह। परिषद्। समिति। जैसेः राज-सभा। २. सभ्य लोगों की वह मंडला जो किसी कार्य की सिद्धी या किसी विषय पर विचार करने के लिए एकत्र हुई हो। जैसे—इसका निर्णय करने के लिए पंडितों की सभा की जानी चाहिए। ३. वह संस्था जो किसी विशिष्ट उद्देश्य या कार्य की सिद्धि के लिए संगठित हुई हो और नियमित रूप से अपना कार्य करती हों।? जैसे नगरी प्रचारिणी सभा, विद्यार्थी सहायक सभा। ४.वैदिक काल की एक संस्था जिसमें कुछ लोग एकत्र राजनीतिक सामाजिक आदि विषयों पर विचार करते थे। ५. प्रचीन भारत में उक्त प्रकार की संस्था का सदस्य। सभासदष सामाजिक। ६. जुआड़ियों का जमघट या समूह। ६. जुआद्युत] ८. झुंड। समूह। ९. घर-मकान।				 | 
			
			
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					सभा चातुरी					 :
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					स्त्री० वि० [सं० सभा० चतुर+हिं० ई (प्रत्य०)] १. सभा-चतुर होने की अवस्था गुण या भाव।				 | 
			
			
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					सभा-गृह					 :
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					पुं० [सं०] २ वह स्थान जहाँ सार्वजनिक सभाएँ या किसी या किसी बड़ी संस्था के अधिवेशन होते हों। (एसेम्बली हाउस)				 | 
			
			
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					सभा-चतुर					 :
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					वि० [सं०] [भाव० सभा—चतुरी] १. वह जो सभा या शिष्ट समाज में बात-चीत करने का अच्छा ढंग जानता हो। विशेषतः जो अपनी चतुराई से लोगों को अपने अनकूल बना, प्रभावित और प्रसन्न कर सकता हो।				 | 
			
			
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					सभा-त्याग					 :
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					पुं० [सं०] किसी सभा के कार्य या व्यवहार से असंतुष्ट होकर उसके अधिवेशन से उठकर चले जाना। सदन-त्याग।				 | 
			
			
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					सभाई					 :
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					वि० [सं० सभा+हिं० आई (प्रत्य०)] सभा से संबंध रखने वाला। सभा का। जैसे—विधान सभाई दल, हिंदू सभाई प्रतिनिधियों।				 | 
			
			
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					सभाकक्ष					 :
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					पुं० सं० ष० त०] दे० ‘प्रकोष्ठ’।				 | 
			
			
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					सभाग					 :
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					वि० [सं०] १. जिसका हिस्सा हुआ हो। सामन्य। ३. सार्वजनिक।। वि० [सं० स+भाग्य] [स्त्री० सभागी] १. भाग्यवान्। खुशकिस्मत। वि०=सुभग (सुंदर)।				 | 
			
			
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					सभाग्रणी					 :
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					पुं० दे० ‘सदन-नेता’।				 | 
			
			
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					सभाचार					 :
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					पुं० [सं०] १. आचरण और व्यवहार जिनका पालन करना किसी सभा में जाने पर आवश्यक तथा उचित माना जाता हो। २. समाज के रीति रिवाज में। ३. न्यायालयों में काम होने का ढंग या तरीका।				 | 
			
			
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					सभानेता					 :
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					पुं० दे० ‘सदननेता’।				 | 
			
			
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					सभापति					 :
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					पुं० [सं०] किसी गोष्ठी या सार्वजनिक सभा के कार्यों के संचालन के लिए प्रधान रूप में चुना हुआ व्यक्ति। (प्रसीडेन्य) विशेषः किसी समिति संस्था आदि का स्थाती प्रधान अध्यक्ष कहलाता हैं, जिसका कार्यालय उस संस्था आदि के विधान द्वारा नियत होता है, परंतु सभापति अस्थाई होता है। किसी अधिवेशन के लिए ही चुना जाता है। फिर भी लोक व्यवहार में दोनो शब्द एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं।				 | 
			
			
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					सभार्यक					 :
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					वि०=सपत्नीक।				 | 
			
			
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					सभावी					 :
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					पुं० [सं० सभाविन] सभिक।				 | 
			
			
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					सभासंग					 :
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					पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (साथ करना)+घञ्] मिलन। मिलाप मेल।				 | 
			
			
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					सभासचिव					 :
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					पुं०=सदन-सचिव।				 | 
			
			
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					सभासद					 :
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					पुं० [सं०] वह जो किसी संस्था समुदाय आदि का सदस्य हो। (मेम्बर)				 | 
			
			
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