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सम  : वि० [सं०] [स्त्री० समा० भाव० साम्य० समता] १. जो आदि से अंत तक प्रायः एक सा चला गया हो। जिसमें कहीं बहुत उतार-चढ़ाव या हेर-फेर न हो। २. जिसका तल बराबर हो, ऊबड़-खाबड़ न हो। चौरस। ३. एक बराबर। तुल्य। समान। (इक्वल) यौ० के आरंभ में, जैसे—समकोण, समसीमांत, ४. (संख्या) जिससे दो से भाग देने पर शेष कुछ न बचे। जूस। (ईवेन) ५. सब। समस्त। ६. (किसी के) समान या बराबर की तरह। के समान। जैसे—पुत्र सम मानना। पुं० १. संगीत में वह विचार जहाँ लय के विचार से गति की समाप्ति होती है और जहाँ गाने बजानों वालों का सिर हिलता या हाथ आप से आप आघात सा करता है। २. सहित्य मे, एक अलंकार जिसमें स्थित के ठीक अनुरूप किसी कार्य का अथवा रूप या नाम क् अनुरूप कार्यों, गुणों आदि का वर्णन होता है। (इक्वल) ३. ज्योतिष में वह राशि जो सम संख्या पर पड़े। दूसरी, चौथ, छठी आदि राशियाँ। वृष, कर्कट, कन्या, वृष्चिक, मकर, और मीन यौ छः राशियाँ। ४. गणित में वह सीधी रेखा जो उस अंक के ऊपर दी जाती है जिसका वर्गमूल निकालना होता है। पुं०=शम (शमन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] जहर। विष। पुं० [फा० कसम] कसम, शपथ, सौगंध।
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सम-अजिर  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में वह स्थान जहाँ जनसाधारण के मनोविनोद के लिए कुश्तियां नाटक और तरह-तरह खेल होते थे।
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सम-कोणक  : वि०=सम-कोण।
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सम-क्रमिक  : वि० [सं०] [भाव० समक्रमिता] (कार्य या घटनाएँ) जो एक ही समय में भिन्न स्थानों पर घटित हुई हों। (सिंक्रोनस)।
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सम-क्रामक  : वि० [सं०] समक्रमण करने या करने वाला। (सिंक्रोंनाई-ज़र)
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सम-चर  : वि० [सं०] १. सदा समान व्यवहार करने वाला। २. सब के साथ एक सा आचरण करने वाला।
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सम-चित्त  : वि० [सं०] जिसके चित्त की अवस्था सदा समान रहती हो। जिसका चित्त कभी दुखी या क्षुब्ध न होता हो। समचेतना।
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सम-जातिक  : वि० [सं०] पारस्परिक विचार से एक ही जाति, प्रकार या वर्ग के। एक से। सह-जातिक। (होमोजीनियस)
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सम-जातीय  : वि० [सं०] १. एक ही जाति के। सजातीय। २. दे० ‘सम-जातिक’।
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सम-तट  : पुं० [सं०] १. समुद्र के किनारे पर के प्रदेश। २. बंगाल के पूर्व एक प्राचीन देश
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सम-तल  : वि० [सं०] (पदार्थ) जिसका तल सम हो ऊबड़-खाबड़ न हो। जिसका सतह बराबर हो। जैसे—समतल भूमि।
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सम-तोल  : वि० [सं० सम+हिं० तोल (तौल)] भार, महत्व आदि के विचार से, एक बराबर समान।
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सम-तोलन  : पुं० [सं०] १. भार, महत्व आदि के विचार से सबको समान रखना। २. दोने पक्षो या पलड़ो का समान रखना। घटने-बढ़ने न देना। (बैलेंसिंग)
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सम-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] हर्रे, नागरमोथा, और गुड़ इन तीनो के समान भागों का समूह। (वैद्यक)
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सम-त्रिभुज  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा त्रिभुज जिसके तीनों त्रिभुज बराबर या समान हो।
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सम-थल  : वि०=समतल (भूमि)।
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सम-दर्शन  : पुं० [सं०] सब को एक समान समझना और सब कार्यों या बातों में एक सा भाव रखना। वि०=समदर्शी
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सम-दृष्टि  : स्त्री० [सं०] ऐसी दृष्टि जो सब अवस्थाओं में और सब पदार्थों को देखने के समय समान रहे। समदर्शी की दृष्टि।
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सम-द्विभाजन  : पुं० [सं०] [भू० क० समद्विभाजित] किसी चीज को दो समान भागों में बाँटना या विभक्त करना। (बाईसेक्सन)
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सम-ध्वनि  : पुं० [सं०] ऐसे शब्द जो उच्चारण या ध्वनि के विचार से तो एक हों पर जिनके अर्थ भिन्न-भिन्न हों। (होमोनिम) जैसे—हिंदी मेल (मिलाप) और अँगरेजी मेल (डाक) समध्वनिक हैं। वि० शब्द जो भिन्नार्थक होने पर भी उच्चारण के विचार से समान ध्वनि वाले हों। (होमोनिमस)
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सम-पद  : पुं० [सं०] १. धनुष चलाने वालों का खड़े होने का एक ढंग जिसमें वे अपने दोनो पैर बराबर रखते हैं। २. संयोग का एक फ्रकार का आसन या रतिबंध।
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सम-पाद  : वि० [सं०] कविता या छंद) जिसके सब चरण बराबर या समान हों। पुं० १. उक्त प्रकार का एक छंद या वृत्त। २. दे० ‘समपद’।
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सम-बाहु  : वि०=समभुज।
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सम-भुज  : वि० [सं०] (क्षेत्र) जिसकी सब भुजाएँ बराबर या समान हों। समबाहु। (इक्विलेटरल)
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सम-रज्जु  : [सं० ब० स०] बाज गणित मे वह रेखा जिससे दूरी या गहराई जानी जाती है।
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सम-रत  : पुं० [सं० ब० स०] कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का रतिबंध या आसन।
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सम-रस  : वि० [सं०] [भाव० समरसता] १. (पदार्थ) जिसमें एक ही प्रकार का रस या स्वाद हो। २. (व्यक्ति) जो सदा एक ही प्रकार की मानसिक स्थिति में रहता हो। जो न तो कभी क्रोध करता हो। और न अशाधारण रूप से प्रसन्न होता हो। सदा एक सा रहने वाला। ३. (परस्पर ऐसे पदार्थ या व्यक्ति) जो एक ही प्रकार या विचार के हों। जिनके गुण, प्रकृति आदि में कोई अंतर न हो।
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सम-लिंगी-रति  : स्त्री० [सं०] यौन विज्ञान तथा लोक में, कामवासना की वह तृप्ति जो पुरुष किसी अन्य पुरुष मुख्यतः बालक के साथ अथवा स्त्री किसी दूसरी स्त्री के साथ संभोग करती है।
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सम-वृत्त  : पुं० [सं० त० त०] ऐसा छंद जिसके चारों चरण समान हो।
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सम-व्यूह  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारत में ऐसी सेना जिसमें २२५ सवार, ६७५ सिपाही तथा इतने ही घोड़े और रथ होते थे।
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सम-शंकु  : पुं० [सं० ब० स०] ठीक मघ्याह्र का समय।
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सम-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में ऐसी सन्धि जिसमें सन्धि करानेवाले राजा या राष्ट्र आपात्काल में अपनी पूरी शक्ति के साथ सहायता करने को तैयार हों (कौ०)।
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सम-समुन्नत  : वि० [सं०] [भाव० सम-समुन्नति] १. जो थोड़ी-थोड़ी दूरी पर एक के बाद एक करके पहलेवाले धरातल से बराबर कुछ और ऊँचा होता जाता हो। २. जो कुछ रह-रहकर सीढ़ियों की तरह बराबर अधिक ऊंचा होता जाता हो। सीढ़ीनुमा। (टेरेस-लाइफ)।
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सम-सर (सरि)  : वि० [सं० सम+हि० सर (सदृश)] तुल्य। बराबर। समान। उदाहरण—मोंहि समसारि पापी।—कबीर। स्त्री० बराबरी। समता। उदाहरण—उपमा समसरि है न।—नागरीदास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सम-सामयिक  : वि० [सं०] समकालीन (दे०)।
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सम-स्थली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] गंगा या यमुना के बीच का देश। अंतर्वेद।
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समकक्ष  : वि० [सं० ब० स०] १. कद के व्चार से एक ही ऊँचाई वाले। २. अधिकार, पद, विद्या, संपत्ति, आदि के विचार से तुल्य। ३. सब बातों में किसी की बराबरी करने वाला। जोड़ या बराबरी का
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समकक्ष सरकार  : स्त्री० [सं०+फा०] वह नई सरकार जो किसी देश की पुरानी सरकार को अयोग्य या अवैध समझकर उसे नष्ट करने और उसका स्थान स्वयं ग्रहण करने के लिए बनाई या गठित की जाती है। (पैरेलल गवर्नमेंट)
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समकना  : अय=चमकना (चौंकना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समकर्णा  : पुं० [सं० ब० स०] १. ज्यामिति में किसी चतुर्भुज के सामने आने वाले कोणों के ऊपर की रोखाएँ। २. शिव। ३. गौतमबुद्ध।
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समकालिक  : वि० [सं०] १. (वे दो या कई काम या बातें) जो एक ही समय में या एक साथ घटित हों। युगपत। (साइमल्टेनियस) २. दे० ‘समकालीन’।
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समकालीन  : वि० [सं०] १. जो उसी काल में जीवित अथवा वर्तनाम रहा हो, जिसमें कुछ और विशिष्ट लोग भी रह रहें हैं। एक ही समय में रहने वाले। जैसे—महाराणाप्रताप अकबर के समकालीन थे। २. उत्पत्ति, स्थिति आदि के विचार से एक ही समय में हुए हों। (कन्टेम्पोरेरी)
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समकोण  : वि० [सं० ब० स०] (त्रिभुज या चतुर्भुज) जिसके आमने सामने के दोनो कण समान हों।
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समक्रमण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समक्रमित, कर्ता समक्रामक] एक से अधिक कार्यों या घटनाओं का एक ही समय में, पर भिन्न-भिन्न सथानों में घटित होना। समकालन। (सिंक्रोनाइज़ेशन)
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समक्वाथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक मे वह क्वाथ या काढ़ा जिसका पानी आदि भाग जलाकर आँठवा भाग रह जाय।
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समक्ष  : अव्य० [सं०] १. आँखों के सामने। २. सामने। जैसे—अब वह कभी आपके समक्ष न आएगा।
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समक्षता  : स्त्री० [सं० समक्ष+तल्—टाप] १. समक्ष होने की अवस्था या भाव। २. गोचर या दृश्य होने की अवस्था या भाव।
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समंग  : वि० [सं० ब० स०] सभी अंगो से युक्त पूर्ण।
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समंगा  : स्त्री० [सं० ब० स०—टाप] १. मंजीठ। २. लजालू लज्जा-वंती। ३. वराह क्रांता। गेंठी। ४. बला या बाला नामक ओषधि।
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समंगिनी  : स्त्री० [सं० समंग+इनि-ङीष्] बौद्धों की एक देवी।
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समंगी (गिन्)  : स्त्री० [सं० समंगिन्-दीर्घ, नलोप] [स्त्री० समंगिनी] १. जिसके सभी अंग पूर्ण हों। २. सभी आवश्यक साधनो से युक्त। ३. जिसके सभी अंग समान हों।
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समग्र  : वि० [सं०] [भाव० समग्रता] आदि से अंत तक जितना हो वह सब, समस्त। समूचा। सारा।
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समग्री  : स्त्री०=सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचतुर्भुज  : वि० [सं० ब० स०] (ज्यामिती में, क्षेत्र) जिसके चारों भुज या बाहु तो एक से लंबे हो, पर जो समकोणिक न हों। (रहॉम्बस) पुं० उक्त प्रकार की आकृति या क्षेत्र। (रहॉम्बस)
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समंचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समचेता (तस्)  : वि० [सं०]=समचित।
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समज  : पुं० [सं०] १. वन। जंगल। २. पशुओं का झुंड। स्त्री०=समझ।
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समंजन  : पुं० [सं०] [वि० समंजनीय, भू० कृ० समंजित] १. एक चीज दूसरी चीज के साथ जोड़ना, बैठाना या मिलाना। २. यंत्रों के पुरजों आदि को ठीक तरह से यथास्थान बैठाना। ३. जमा-खर्च आदि का हिसाब यथा स्थान ले जाकर ठीक और पूरा करना। लेखा-जोखा बराबर करना। (ऐडजस्टमेंट) ४. मेल-मिलाना। ५. लेप करना या लगाना। ६. मालिश करना। मलना।
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समंजस  : वि० [सं० ब० स०-अच्] [भीव० सामंजस्य] १. उचित। ठीक। वाजिब। २. आस-पास की बातों वस्तुओं आदि के साथ ठीक जान पड़ने या मेल-खाने वाला। ३.किसी काम या बात का अभ्यस्त।
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समंजित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका समंजन हुआ हो। २. जो ठीक करके परिस्थितियों के अनुकूल या उपयुक्त किया अथवा बनाया गया हो। (ऐडजेस्टेड)
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समज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. कीर्ति। यश। २. ख्याति। प्रसिद्ध।
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समज्या  : स्त्री० [सं०] १. प्रचान भारत में वह उत्सव जिसमें छोटे बड़े स्त्री पुरुष सभी मिलकर तरह-तरह के खेल तमासे करते और देखते थे। बाद में साधारण बोलचाल इसी को सामंज्यस्य कहने लगे थे। २. बहुत से लोगो का समाज या समूह। सभा। जैसे—विद्वानों की समज्या में उनका यथेष्ट आदर हुआ था।
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समझ  : स्त्री० [सं० संबुद्धि, प्रा० समुज्झ] वह मानसिक शक्ति जिसमें प्राणियों को देखकर मन में तर्क-विर्तक करके सब चीजों और बातों के अर्थ, आशय, भलाई, बुराई आदि का परिज्ञान होता है। अक्ल। बुद्धि। इन्टलेक्ट) पद—समझ=ध्यान या विचार के अनुसार। श्याल से। जैसे।—हमारी समझ में तो यह बात ठीक नही जान पड़ती।
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समझदार  : वि० [हिं० समझ+फा० (प्रत्य०)] १. वह जो कुछ सामने हो उसे ध्यान में रखकर उसके आशय, प्रकार, स्वरूप आदि से अवगत होना। ठीक औक पूरा ज्ञान प्रापात करना। जैसे—पहले यह तो समझ लो कि बात क्या है ? २. किसी बात का स्वरूप आदि देखकर उसके संबंध की दूसरी आवश्यक बातों का अनुमान या कल्पना करना। (डीम) क्रि० प्र०—जाना।—पड़ना।—रखना—लेना। पद—समझ बूझकर=अच्छी तरह ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करके। सारी स्थिति अच्छी तरह जान कर। जैसे—समझकर मैंने ही तुम्हे वहाँ जाने से मना किया था। मुहा—(अपने आपको) कुछ समझना=अपने मन में यह अभिमान पूर्ण भाव रखना कि हममें भी कुछ विशिष्ट योग्यता है। ३. किसी के व्यवहार के बदले में उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना। जैसे—कोई कहीं समझता है, कोई कहीं। मुहा०—(किसी से) समझना या समझलेना= (क) निपटारा या समझौता करना। जैसे—दोनो को आपस में समज लेने दो। (ख) अनिष्ट, अपकार, अपमान आदि का उचित और उपयुक्त बदला लेना। जैसे—अच्छा हम भी तुमसे समझ लेगें।
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समझाना  : सं० [हिं० समझना का स०] १. शब्द संकेत आदि के अर्थ किसी को भली-भाँति परिचित कराना। २. कोई बात अच्छी तरह किसी के मन में बैठाना। जैसे—न जाने इसे इसकी माँ ने क्या समझाकर यहाँ भेजा था।
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समझावा  : पुं० [हिं० समझना) समझने या समझाने की क्रिया या भाव।
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समझौता  : पुं० [हिं० समझना+औता (प्रत्य०] १. लड़ाई-झगड़े, लेन-देन, वाद-विवाद आदि के संबंध में दो या अधिक पक्षो में होने वाला ऐसा निपटारा या निर्णय जिसके अनुसार आगे निर्विरोध रूप में सब काम होते रहें। (काँम्प्रोमाइज) २. आपस में होने वाला करार या निश्चय।
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समंत  : पुं० [सं०] किनारा। सिरा। वि० १. समस्त। सारा। २. सार्वजनिक।
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समत  : पुं०=संवत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समंत-पंचक  : पुं० [सं०] कुरुक्षेत्र का एक नाम। विशेषः कहा गया है कि परशुराम ने समस्त क्षत्रियों को मार कर उनके लहू से यही पाँच तालाब बनाए थे, और उन्ही के लहू से उन्होने अपने पिता का तर्पण किया था। इसी से इस स्थान का नाम समंत-पंचक पड़ा।
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समंत-भद्र  : पुं० [सं०] गौतम बुद्ध।
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समतत्व  : पुं० [सं०] वेदांत में अद्वैत और द्वैत दोनों से परे और भिन्न तत्त्व।
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समंतदर्शी  : वि० [सं० समस्तदर्शिन] जिसे सब कुछ दिखाई देता हो। सर्वदर्शी। पुं० गौतम बुद्ध।
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समंतर  : पुं० [सं० ब० स०] १. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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समतलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समतलित] किसी पदार्थ (जैसै—जमीन आदि) के ऊबड़-खाबड़ तल को सम या बराबर करने की क्रिया या भाव। चौरसिया। (लैवलिंग)
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समंतलोक  : पुं० [सं० ब० स०] योग में ध्यान करने का एक प्रकार।
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समता  : स्त्री० [सं०] १. सम या समन होने का भाव। बराबरी। तुल्यता। (इक्वैलिटी) २. ऐसी स्थिति जिसमें कोई अंग या पक्ष अवुपातिक दृष्टि से अनपयुक्त, बेढ़ंगा, या भारी जान पड़े। संतुलन।
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समत्थ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सामर्थ्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समत्रिभाजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समत्रिभक्त] किसी चीज को तीन भागों में बराबर बाँटना। (ट्राईसेक्सन)
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समत्व  : पुं० [सं०] सम या समान होने की अवस्था या भाव। समता।
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समंद  : पुं० [फा०] १. बादामी रंगा का ऐसा घोड़ा जिसका अयाल, दुम और पु्टठें काले हों। २. घोड़ा। ३. अच्छा या बढ़िया घोड़ा।
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समद  : वि० [सं०] १. मद से मत्त। मतवाला। मस्त। २. प्रसन्न। पुं०=समुद्र।
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समदन  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई। स्त्री० [सं० हिं० समदना] उपहार, भेंट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समदना  : अ० [सं० समद=प्रसन्न ] १. प्रेमपूर्वक मिलना। भेंटना। २. आनन्द या खुशी मनाना। स० १. उपहार या भेंट देना। २. किसी के साथ विवाह करना। ३. सपुर्द करना। सौंपना। ४. धरना। रखना। स० [संवाद] संवाद या समाचार देना।
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समंदर  : पुं० [फा०] एक कल्पित जंतु जो फारसी कवि के अनुसार अग्निकुंड में उत्पन्न होता है और उससे बाहर निरलने पर तुरंत मर जाता है। पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समदर्शी (शिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० समदर्शिनी] जो सब मनुष्यों स्थानों पदार्थों आदि को समान दृष्टि से देखता हो। सब को एक सा देखने या समझनेवाला।
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समदाना  : स० [हिं० समझना] १. विवाह के बाद बहू को विदा करना या कराना। २. ठीक या दुरुस्त करना। ३. समदना।
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समदावन  : पुं० [हिं० समदना (विवाह करना)] एक प्रकार के गीत जो दुलहिन के विदायी के समय गाये जाते हैं। (मिथिला)
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समद्वादशास्त्र  : पुं० [सं०] बारह बराबर भुजाओं वाला क्षेत्र।
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समद्विभुज  : पुं० [सं०] ऐसा चतुर्भुज जिसकी प्रत्येक भुजा आमने सामने की भुजाएँ बराबर हों।
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समधाना  : स०=समदाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समधिक  : वि० [सं०] १. जितना होना चाहिए उससे अधिक या बढ़ हुआ। (एक्सीडिंग) २. बहुत। अधिक।
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समधिन  : स्त्री० [हिं० समधी का० स्त्री०]समधी की पत्नी। किसी के पुत्र या पुत्री का सास।
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समधियाना  : पुं० [हिं० समधि+इयाना] १. किसी की दृष्टि से उसके पुत्र या पुत्री की ससुराल। २. पुत्र या पुत्री के ससुरालवाले।
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समधी  : पुं० [सं० संबंधी] [स्त्री० समधिन] संबंध के विचार से किसी पुत्र या पुत्री के ससुर।
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समधीन  : वि० [सं० कर्म० स०] १. (व्यक्ति) जिसने अच्छी तरह अध्ययन किया हो। २. (विषय) जिसका किसा ने अच्छी तरह अध्ययन किया हो।
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समधौस  : पुं० [हिं० समधी] विग्रह की एक रस्म जिसमें समधी परस्पर मिलते हैं। मिलनी।
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समन  : वि० [सं० शमन] [स्त्री० समनि] शमन करने वाला। पुं० दे० शमन। स्त्री० [फा०] चमेली का पौधा और फूल। पुं०=सम्मन।
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समनगा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. बिजली। विद्युत। २. सूर्य की किरण।
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समनचार  : पुं०=समाचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समनंतर  : वि० [सं०] ठीक बगलवाला। बिलकुलसटा हुआ। बराबरी का। अव्य० अनंतर। उपरांत। बाद।
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समनीक  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।
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समनुज्ञा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० समनुज्ञात] १. अनुमति। दे० ‘अनुज्ञा’।
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समन्यु  : पुं० [सं० अव्य० स०] शिव का एक नाम।
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समन्वय  : पुं० [सं०] १. समान रूप से मिलना। इस प्रकार मिलना कि एक इकाई बन जाय। २. एक को दूसरे में विलय करना। ३. परस्पर विरोध न होने की अवस्था या भाव। विरोध का आभाव। ४. कार्य और कारक का निर्वाह या संबंध। ५. वह अवस्था जिसमें कथनों और बातों का पारस्परिक भेद या विरोध दूर करके उनमे एकता या एक रूपता लाई जाती है।
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समन्वित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका समन्वय हुआ हो। २. किसी से साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। ३. जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो।
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समन्वेषक  : वि० सं०] समन्वेषण करने वाला। (एक्सप्लोरेट)
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समन्वेषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समन्वेषित] १. अच्छी तरह किया जाने वाला अन्वेषण। २. आज-कल मुख्य रूप से घूम-घूमकर ऐसे देशो, स्थानों आदि का पता लगाना जिन्हे लोग पहले न जानते रहें हों। या जिनके संबंध में बहुत कम जानतें हों। (एक्सप्लोरेशन)
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समपना  : स० सौंपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समप्पना  : पुं०=समर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समबुद्धि  : वि० [सं०] जिसकी बुद्धि सुख और दुख, हानि और लाभ सब में समान रहती हो।
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समबोल  : पुं०=समध्वनिक।
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समभिहरण  : पुं० सं० प्रा० स०]=समापहरण।
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समभिहार  : पुं० [सं० सम्-अभि√ह्व (हरण करना)+घञ] १. किसी काम या बात के बार बार होने का भाव। २. अधिकता। ज्यादती।
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समभूमिक  : वि० [सं०] समतल।
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सममति  : वि० [सं० ब० स०]=समबुद्धि।
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सममित  : वि० [सं०] [भाव० सम-मिति] जिसके अंगो में अनुपात और सुरूपता के विचार से पारस्परिक समानता औऱ एक रूपता हो। सममित से युक्त। (सिमेटिकल)
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सममिति  : स्त्री० [सं०] [वि० सममित] किसी मूर्त कृति रचनाके आकगार, बनावट, मान आदि के भिन्न अंगों में अनुपात और सुरूपता के विचार से होने वाली आपेक्षिक और पारस्परिक एक रूपता। किसी वसितु का भिन्न-भिन्न अंगो का ठीक और समंजित विन्यास। (सिमेट्री)
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समय  : पुं० [सं०] [वि० सामयिक] १. सवेरे संध्या या दिनरात के विचार से काल का कोई मान। वक्त। २. अवसर। मौका। वक्त। पद—समय विशेष पर= (क)किसी निश्यित समय पर। (ख) आने वाले किसी ऐसे समय पर जबकि कोई बात हो सकती हो। और उसके संबंध में कोई विधान या व्यवस्था की गई हो। (फार दि टाइम बीइंग) समय कुसमय= (क) अच्छे या शुभ दिन और बुरे या संकट के दिन। (ख) उपयुक्त अवसर पर भी और अनपयुक्त अवसर पर भी। मौके—बेमौके। जैसे—आप समय-कुसमय अपना ही राग अलापते रहते। ३. अवाकाश। फुरसत। खाली वक्त। क्रि० प्र० ४. किसी काम या बात का नियत या निश्चित काल। जैसे—अब उसका समय आ गया था अतः उन्हे बचाने के लिए सब प्रयत्न विफल हुए। ६. आपस में होने वाल किसी प्रकार का निश्चय, करार या समझौता। ७. कोई धार्मिक, सामाजिक या प्रथा या परिपाटी। जैसे—कवि समय। (देखें) ८. सिद्धांत। ९. परिणाम। अंतः १॰. प्रतिज्ञा। ११. शपथः १२. आकृति। शकल। १३. ठहराव। समझौता। १४. आज्ञा निर्देश। १५. भाषा। १६. इशारा। संकेत। १७ .व्यवहार। १८. धन-दौलत। संपत्ति। १९. कर्तव्य-पालन। २॰ घोषणा। २१. उपदेश। २२. कष्टों या दुःखों का अंत या समाप्ति। २३. कायदा। नियम। २४. धर्म। २५. संन्यासियों, वैदिकों, व्यापारियों आदि के संघो में प्रचलित नियम। (स्मृति)
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समय-क्रिया  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत में शिल्पियों या व्यपारियों का परस्पर व्यवहार के लिए नियम स्थिर करना। (वृहस्पति)
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समय-निष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० समय० निष्ठता, समय-निष्ठा] १. जो निश्चित समय का ध्यान रखकर ठीक उसी समय काम करता हो। २. अपने ठीक या निश्चित समय पर नियत रूप से होने वाला। (पंकचुअल)
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समय-निष्ठता  : स्त्री० [सं०] समय-निष्ठ होने की अवस्था या भाव। (पंकचुएलिटी)
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समय-बम  : पुं० [सं०+अ० बाम्ब] वह विशेष प्रकार का बम (गोला) जिसमें ऐसी योजना होती है कि कही रखे जाने पर पहले से ही निर्धारित किये हुए समय पर वह आप से ही आप फूटकर अपना घातक कार्य करता है। (टाइम-बॉम्ब)
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समय-संकेत  : पुं० [सं०] वह नियत संकेत जो मुख्यतः यह सूचित करने के लिए होता है कि इस समय घड़ी के अनुसार बिलकुल ठीक समय यह है। (टाइम सिगनल) जैसे—दोपहर बारह बजे या रात आठ बजे का समय संकेत।
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समय-सारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. समयसूचित करने के लिए बनाई हुई सारणी। २. वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न गाड़ियों के विभिन्न स्टेशनों पर पहुँचने तथा छूटने के समय का उल्लेख सारणियों में किया जाता है। (टाइम-टेबुल)
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समय-सूचि  : स्त्री=समय-सारणी।
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समयज्ञ  : वि० [सं०] [भाव० समयज्ञता] ओ समय की प्रवत्ति, स्थिति आदि का ज्ञान रखता हो।समय के अनुसार चलने वाला। पुं० विष्णु।
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समयानंद  : पुं० [सं० ब० स०] तांत्रिकों के एक भैरव।
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समयानुवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० ष० त०] समय देखकर उसी के अनुसार चलने वाला। (अपॉर्च्युनिस्ट)
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समयानुसार  : वि० [सं० समय+अनुसार] जो समय की आवश्यकता देखते हुए उचित या ठीक हो। अव्य० समथ की उपयुक्तता या औचित्य का ध्यान रखते हुए।
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समयानुसारी  : वि० [सं०] प्रस्तुत समय के देखते हुए उसकी प्रथा या रीति के अनुसार काम करने या चलनेवाला।
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समयुगल  : पुं० [सं०] बौद्धकाल में एक प्रकार का पटका (धोती या साड़ी) जो बराबर लंबाई के रंगो वाले वस्त्रों को एक साथ सटाकर पहना या बाँधा जाता था।
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समयोचित  : वि० [सं० चतु० स०] जो प्रस्तुत समय की आवश्यकता देखते हुए उचित अर्थात उपयुक्त और ठीक हो। कलोचित। (एक्सपीडिएन्ट)
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समयोचितता  : स्त्री० [सं०] समायोचित होने की अवस्था, गुम या भाव। कालोचितता। (एक्सपीडिएंसी)
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समर  : पुं० [सं०] युद्ध। संग्राम। लड़ाई पुं० [सं० स्मर] १. कामदेव २. कामवासना। उदा-समरस समर-सकोच बस बिबस न ठिक ठहराइ।—बिहारी। पुं० [फा०] १. वृक्ष का फल। २. कार्य का परिणाम या फल।
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समरकंद  : पुं० [फा०] [वि० समरकंदी] तुर्किस्तान का एक इतिहास प्रसिद्ध नगर जो अमीर तैमूर की राज धानी था और अब उजबक (सोवियत) प्रजातंत्र के अंतर्गत है। उजबक पजातंत्र का एक सूबा है।
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समरत्थ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समरना  : स०=सुमिरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० सँवरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समरभूमि  : स्त्री० [सं०] युद्ध-क्षेत्र। लड़ाई का मैदान।
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समरशायी  : वि० [सं० समरशयिनी] जो युद्ध में मारा गया हो। वीरगति को प्राप्त।
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समरा  : पुं० [अ० मसरः] नतीजा। परिणाम। फल।
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समरांगण  : पुं० [सं० कर्म० स० ष० त०] लड़ाई का मैदान। युद्ध-क्षेत्र।
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समराजिर  : पुं० [सं० कर्म० स०] युद्ध-क्षेत्र।
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समराना  : स० हि० ‘समरना’ का स०।
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समर्चक  : वि० पुं० [सं० सम√अर्च (पूजा करना)+ण्वुल—अक] समर्चन या पूजा करनेवाला।
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समर्चन  : पुं० [सं० सम√अर्च (पूजा करना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह अर्चन या पूजा करने का काम।
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समर्चना  : स्त्री० [सं०]=समर्चन।
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समर्थ  : वि० [सं०] [भाव० समर्धता] कम दाम का। सस्ता।
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समर्थ  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+अच्] [भाव० समर्थता, सामर्थ्य] १. शक्तिशाली। २. जो कोई काम सम्पादित करने की शक्ति या योग्यता रखता हो। आर्थिक, मानसिक या शारीरिक बल से कुछ कर सकने के योग्य। ३. अनुभव, प्रशिक्षण, आदि द्वारा जिसने किसी पद के कर्तव्यों का निर्वाह करने की योग्यता प्राप्त कर ली हो। ४. लंबा। चौड़ा। प्रशस्त। ५. अभिलषित। ६. युक्ति-संगत।
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समर्थक  : वि० [सं० समर्थ+कन्] १. जो समर्थन करता हो। समर्थन करनेवाला। २. पुष्टि या पोषण करनेवाला। वि०=समानार्थक। पुं० चन्दन की लकड़ी।
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समर्थता  : स्त्री० [सं०] समर्थ होने की अवस्था, गुण या भाव। सामर्थ्य। शक्ति। ताकत।
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समर्थन  : पुं० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+ल्युट-अन] किसी के प्रस्ताव, मत, विचार के संबंध मे यह कहना कि इससे हमारी भी सहमति है। अनुमोदन। (सेकैंडिंग)।
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समर्थनीय  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+अनीयर्] जिसका समर्थन किया जा सकता हो या हो सकता हो।
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समर्थित  : भू० कृ० [सं० सम अर्थ (गत्यादि)+क्त] १. जिसका समर्थन किया गया हो। समर्थन किया हुआ। २. जिसका अच्छी तरह विवेचन हुआ हो। विवेचित। ३. स्थिर किया हुआ। निश्चित। ४. जिसकी संभावना हो। संभावित।
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समर्थ्य  : वि० [सं० सम√अर्थ (गत्यादि)+यत्-व्यत्] जिसका समर्थन किया जा सके या किया जाने को हो।
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समर्द्धक  : पुं० [सं० सम√ऋध् (बढ़ना)+ण्वुल्-अक] वरदान देनेवाले, देवता आदि।
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समर्पक  : वि० [सं० सम√अर्प (देना)+णिच्-ण्वुल-अक] [स्त्री० समर्पिका] १. जो समर्पण करता हो। समर्पण करनेवाला। २. कही पहुँचाने के लिए कोई माल देने या भेजनेवाला। परेषक। (कन्साइनर) ३. (काम या बात) जिससे कोई दूसरा काम या बात ठीक तरह से पूरी हो सके या उद्देश्य सिद्ध हो सके। जैसा—समर्पक व्याख्या।
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समर्पण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समर्पित, वि० समर्पणीय, सामर्प्य, कर्ता समर्पक] १. किसी को आदपूर्वक कुछ देना। भेंट या नजर करना। २. धर्म-भाव से या श्रद्धाभक्ति पूर्वक कुछ कहते हुए अर्पित करना। (डेडिकेशन)। ३. अपना अधिकार, स्वामित्व, भार आदि किसी दूसरे के हाथ में देना। सौंपना। ४. युद्ध, विवाद आदि बंद करके अपने आपको शत्रु या विपक्षीकि के हाथ में सौंपना। (सरेन्डर, अंतिम दोनों अर्थो में) ५. वैष्णवों में किसी भक्त को भगवान के विग्रह के सामने उपस्थित करके उसे नियमित रूप से आचारवान् भक्त या वैष्मव बनाना। ६. स्थापित करना। स्थापना। ७. दे० आत्मसमर्पण।
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समर्पण-मूल्य  : पुं० [सं०] आधुनिक अर्थ-शास्त्र में वह धन जो बीमा करनेवाले को अवधि पूरी होने से पहले ही अपना बीमा रद्द कराने या बीमा पत्र लौटा देने पर मिलता है। (सरेन्डर वैल्यू)।
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समर्पणी  : पुं० [सं० समर्पण] वह जो भगवान् का पूरा भक्त और आचारवान् वैष्णव बन गया हो। विशेष० दे० ‘समर्पण’।
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समर्पना  : स० [सं० समर्पण] १. समर्पण करना। २. सौंपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समर्पित  : भू० कृ० [सं० सम√अर्प (देना)+क्त] १. जो समर्पण किया गया हो। समर्पण किया हुआ। २. स्थापित।
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समर्प्य  : वि० [सं० सम√अर्प (देना) णिच्-यत्] जो समर्पण किया जा सके या किया जाने के योग्य हो। समर्पण किये जाने के योग्य।
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समर्याद  : वि० [सं० अव्य० स०] १. मर्यादा-युक्त। २. अच्छे आचरणवाला। सदाचारी। अव्य० निकट। पास। समीप।
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समल  : पुं० [सं० अव्य० स०] मल। विष्ठा। पुरीष। गू।
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समली  : स्त्री० [सं० श्यामली ] चील।
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समवकार  : पुं० [सं०] रूपक का एक भेद जिसमें देवासुरों के संग्राम या संघर्ष से सम्बन्ध रखनेवाले वीरतापूर्ण कार्यों का उल्लेख होता है। इसमें तीन अंक होते हैं।
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समवतार  : पुं० [सं० सम-अव√तृ (पार करना)+घञ्] १. उतरने की जगह। उतार। २. उतरने की क्रिया। अवतरण।
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समवयस्क  : वि० [सं०] [भाव० समवयस्कता] समान वय या अवस्थावाला।
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समवरोध  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समवरूद्ध, कर्ता, समवरोधक] चारों ओर से अच्छी तरह रोकना।
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समवर्गी  : वि० [सं०] १. वे जो किसी एक वर्ग के अंतर्गत हों या गिनाये गये हों। २. दे० ‘संश्रित’।
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समवर्तन  : पुं० [सं०] आवश्यकता, उपयोगिता आदि के विचार से किसी वस्तु का ठीक या यथोचित रूप में होनेवाला विभाजन या संचार। समान वर्तन या व्यवहार। जैसा—शरीर में शर्करा का ठीक तरह से सम वर्तन न होने पर रक्त विषाक्त होने लगता है।
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समवर्ती  : वि० [सं०] १. जो समान रूप से स्थित रहता हो। २. जो पास ही स्थित हो। पुं० यमराज का एक नाम।
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समवलंब  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा चतुर्भुज जिसकी दोनों लंबी रेखाएँ समान हो।
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समवसरण  : पुं० [सं० सम-अव√ सृ (गत्यादि)+ल्युट-अन] वह स्थान जहाँ किसी प्रकार का धार्मिक उपदेश होता हो।
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समवाक  : पुं० [सं०] सम-ध्वनिक (दे०)।
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समवाय  : पुं० [सं०] [भाव० समवायत्व, समवायता] १. समूह। झुंड। २. ढेर। राशि। ३. मेल। संयोग। ४. आपस में होनेवाला अभेद्य घनिष्ठ और नित्य संबंध। ५. न्यायदर्शन में तीन प्रकार के संबंधों में ऐसा संबंध जो सदा एकसा बना रहता हो और जिमसें कभी अंतर न पड़ता हो। नित्य संबंध। जैसा—अंग और अंगी अथवा गुण और गुणी में समवाय संबंध होता है। ६. कोई ऐसा संबंध जो सदा एक सा बना रहता हो। ७. कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार बनी हुई वह व्यापारिक संस्था जिसके हिस्सेदारों को अपनी लगाई पूँजी के अनुपात से नफे या ला का अंश मिलता हो। (कम्पनी)।
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समवायिक  : वि० [सं० समवाय+ठक्-इक] १. समवाय सम्बन्धी। समवाय का।
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समवायी (यिन्)  : वि० [सं०] १. किसी के साथ समवाय संबंध रखनेवाला। २. जो इकट्ठा करके ढेर के रूप में लगाया हो। पुं० १. अंग। अवयव। २. साझेदार। हिस्सेदार।
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समवेग  : पुं० [सं०] कृष्ण के रथ का घोड़ा।
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समवेत  : वि० [सं० सम—अव√इण् (गत्यादि)+क्त] १. एक जगह इकट्ठा किया हुआ। एकत्र। २. जमा किया हुआ। संचित। ३. किसी वर्ग या श्रेणी से मिलाया या लाया हुआ। ४. संबद्ध।
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समवेतन  : पुं० [सं०] १. समवेत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. आजकल बालचरों, अनुयायियों सैनिकों आदि का एक स्थान पर जमा होना। (रैली)।
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समशीतोष्ण कटिबंध  : पुं० [सं० समशीतोष्ण, ब० स० कटिबन्ध कर्म० स०] भूमध्य रेखा और उष्णकटिबंद के मध्य में पड़नेवाला प्रदेश। (टेम्परेट ज़ोन)।
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समशील  : वि० [सं०] शील, स्वभाव प्रकृति आदि के विचार से एक ही तरह के। समान।
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समष्टि  : स्त्री० [सं० सम√अश् (प्याप्त होना)+क्तिन्] १. जितने हों, उन सब का सम्मिलित या सामूहिक रूप। वह रूप या स्थिति जिसमें सभी, अंगो, व्यष्टियों या सदस्यों का अंतर्भाव या समावेश हो। ‘व्याष्टि’ का विपर्याय। २. साधु-संन्यासियों आदि का ऐसा भंडारा या भोज जिसमें सभी स्थानिक साधु-संन्यासी आदि निमंत्रित किये गये हों।
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समष्टि-निगम  : पुं० [सं०] ऐसा निगम जो समष्टि या समुदाय पर आश्रित हो, अथवा बहुतों या सब के सहयोग से काम करता हो,या चलता हो। (एग्रिगेट कारपोरेशन)।
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समष्टिवाद  : पुं० [सं०] आधुनिक साम्यवाद की वह शाखा जिसका सिद्धान्त यह है कि सभी पदार्थों के उत्पादन और वितरण का सारा अधिकार समष्टि रूप से सारे राष्ट्र के हाथ में रहना चाहिए। (कलेक्टिविज़्म)।
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समष्टिवादी  : वि० [सं०] समष्टिवाद सम्बन्धी। समष्टिवाद का। पुं० समष्टिवाद का अनुयायी या समर्थक।
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समष्ठिल  : पुं० [सं० सम√स्था (ठहरना)+इलच्] कोकुआ नाम का कँटीला पौधा। २. गंडीर या गिंडीनी नाम का साग।
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समष्ठिला  : स्त्री० [सं० समष्ठिल+टाप्] १. समष्ठिल। कोकुआ। २. जमीकंद। सूरन। ३. गिंडिनी नामक साग।
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समष्ष  : वि०=समक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समस्त  : वि० [सं०] [भाव० समस्तता] १. आदि से अंत तक जितना हो, वह सब। कुल। पूरा। (होल)। जैसा—समस्त भारत, समस्त संसार। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। संयुक्त। ३. (व्याकरम में पद या शब्द-समूह) जो समास के नियमों के अनुसार मिलकर एक हो गया हो। समास-युक्त (कम्पाउंड)।
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समस्तिका  : स्त्री० [सं० समस्त से] कथन, लेख आदि का संक्षिप्त रूप या सारांश। (एब्सट्रैक्ट)।
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समस्य  : वि० [सं० सम√अस् (होना)+ण्यत्-क्यव वा] १. जो किसी के सात मिलाया जा सके या मिलाया जाने को हो। २. (पद या शब्द) जिन्हें व्याकरण के अनुसार समास के रूप में मिलाया जा सकता हो।
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समस्यमान्  : वि० [सं०] (व्याकरण में वह पद) जो किसी दूसरे पद के साथ मिलकर समस्त पद बनाता हो या बना सकता हो।
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समस्या  : स्त्री० [सं० समस्य-टाप्] १. मिलने की क्रिया या भाव। मिलन। २. मिश्रण। संघटन। ३. उलझनवाली ऐसी विचारणीय बात जिसका निरारण सहज में न हो सकता हो। कठिन या विकट प्रसंग (प्रॉब्लेम)। ४. छंद श्लोक आदि का ऐसा अंतिम चरण या पद जो काव्य रचना के कौशल की परीक्षा करने के लिए इस उद्देश्य से कवियों के सामने रखा जाता है कि वे उसके आधार पर अथवा उसके अनुरूप पूरा छंद या श्लेक प्रस्तुत करें। क्रि० प्र०—देना।—पूर्ति करना।
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समस्या-पूर्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साहित्यिक क्षेत्र में किसी समस्या के आधार पर कोई छंद या श्लोक बनाकर तैयार करना।
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समह  : अव्य० [सं० समस्त] साथ संग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समहर  : पुं०=समर (युद्ध)। उदाहरण—मारु परधर मारका ठहरे समहर ठौड़।—बाँकीदास। वि०=सम-थल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समहित  : पुं० [सं०] वह स्थिति जिसमें अनेक देश या राष्ट्र प्रायः एक से विचार रखते हों, एक ही तरह के स्वार्थों का ध्यान रखते हों और अनेक विषयों में एक ही नीति के अनुसार मिलकर चलते हों (एन्टेन्ट)।
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समाँ  : पुं० [सं० समय] १. समय। वक्त। मुहावरा—समाँ बँधना= (संगीत आदि कार्यो का) इतनी उत्तमता से सम्पन्न होता रहना कि सभी उपस्थित लोग स्तब्ध हो जायँ, और ऐसा जान पड़े कि मानो समय भी उसका आनंद लेने के लिए ठहर या रुक गया है। विशेष—आशय यही है कि लोगों को यह पता नहीं चलने पाता कि इतना अधिक समय कैसे बीत गया। २. ऋतु। ३. जमाना। युग। जैसा—आज-कल ऐसा समाँ आ गया है कि कोई किसी को नहीं सुनता। ४. अवसर। मौका। ५. सुंदर और सुहावना दृश्य। उदाहरण—अजब गंगा के बहने का समां है।—नजीर। बनारसी।
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समा  : स्त्री० [सं०] १. वर्ष। साल। उदाहरण—राका राज जरा सारा मास मास समा समा।—केशव। २. गीष्म ऋतु वि० सं० ‘सम’ का स्त्री०। जैसा—कामिनी समा=कामिनी के समान। पुं० दे० ‘समाँ’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाअत  : स्त्री० [अं०] १. सुनने की क्रिया या भाव। २. ध्यान देने या विचार करने के लिए अवधानपूर्वक सुनने की क्रिया या भाव। जैसा—फरियाद की समाअत, मुकदमे की समाअत।
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समाई  : स्त्री० [हि० समान+आई (प्रत्यय)] १. समाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वह अवकाश जिसमें कोई चीज समाती हो। जैसा—इस घर में पंद्रह आदमियों की समाई नहीं हो सकती। ३. धारण करने की गुंजाइश तथा समर्थता। जैसा—जिसकी जितनी समाई होगी, वह उतना ही खरच करेगा।
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समाउ  : पुं०=समाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाकर्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाकर्षित, समाकृष्ट] विशेष रूप से होनेवाला आकर्षण। खिंचाव।
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समाकलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाकलित] एक ही तरह की बहुत सी इकट्ठी की हुई चीजों का मिलान करके देखना कि उनका क्रम या व्यवस्था ठीक है या नहीं (कोल्लेशन)।
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समाकार  : वि० [सं० कर्म० स०] जो आकार के विचार से आपस में समान हो।
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समाकुल  : वि० [सं० सम-आ√ कुल् (बन्धु आदि)+अच्] बहुत अधिक आकुल या घबराया हुआ।
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समाक्षार  : पुं० [सं०] उन पदार्थों का वर्ग या समूह जो किसी अम्ल या खट्टे पदार्थ के साथ मिलकर लवण और जल बनाते हैं।
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समाख्या  : स्त्री० [सं० सम-आ+ख्या (ख्यात होना)+अङ्] १. यश। कीर्ति। २. आख्या। नाम। संज्ञा।
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समांग  : वि० [सं० सम+अंग] जिसके सब अंग या तत्त्व एक से अथवा एक ही प्रकार के हों। विषमांग का विपर्याय। (होमोजीनियस)।
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समागत  : भू० कृ० [सं०] १. आया हुआ। जैसा—समागत अतिथि। २. जो आकर सामने उपस्थित या घटित हुआ हो। जैसा—समागत परिस्थिति, समागत प्रसंग।
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समागता  : स्त्री० [सं० समागत-टाप्] एक तरह की पहेली जिसका अर्थ पदों का सन्धि-विच्छेद करने पर निकलता है।
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समागति  : स्त्री० [सं० सम-आगम् (जाना)+क्तिन्] १. समागत होने की अवस्था या भाव। आगमन। २. आकर मिलना। योग।
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समागम  : पुं० [सं०] १. पास या सामने आना। पहुँचना। २. बहुत से लोगों का एक स्थान पर एकत्र होना। जैसा—संतों का या साहित्यकारों का समागम। ३. स्त्री-प्रसंग। संभोग। मैथुन।
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समाघात  : पुं० [सं० सम-आ√ हन् (मारना)+घञ्, कुत्व, न=त] १. युद्ध। लड़ाई। २. वध। हत्या।
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समाचरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाचरित] १. अच्छा, ठीक या शुद्ध आचरण। २. कार्य या व्यवहार करना। आचरण। ३. कार्य का सम्पादन।
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समाचरना  : स० [सं० समाचरण] (किसी का) आचरण या व्यवहार करना। अ० १. आचरण या व्यवहार के रुप में होना २. व्याप्त या संचरित होना। उदाहरण—(क) ऐसी बुधि समचरी घर मांहि तिआही।—कबीर। (ख) समाचेर उसको मेरा ही सोदर निस्संकोच अहो।—मैथिलीशरण।
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समाचार  : पुं० [सं०] १. आगे बढ़ना। चलना। २. अच्छा आचरण या व्यवहार। ३. (मध्य और परवर्ती काल में) किसी कार्य या व्यापार की सूचना। उदाहरण—समाचार मिथिलापति लाए।—तुलसी। ४. ऐसी, ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में पहले लोगों को जानकारी न हो। (न्यूज) ५. हाल-चाल। ६. कुशल मंगल।
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समाचार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त० समाचार+पत्र] १. नियमित समय पर प्रकाशित होनेवाला वह पत्र जिसमें अनेक प्रदेशों, राष्ट्रों, आदि से संबंधित समाचार रहते हों। खबर का कागज। अखबार (न्यूज पेपर) २. उक्त प्रकार के सभी पत्रों का वर्ग या समूह।
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समाच्छन्न  : वि० [सं०] ऊपर या चारों ओर से पूरी तरह छाया या ढका हुआ।
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समाच्छादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समाच्छादित] ऊपर या चारों ओर से अच्छी तरह छाया या ढका हुआ।
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समाज  : पुं० [सं०] १. बहुत से लोगों का गिरोह या झुंड। समूह। जैसा—सत्संग समाज। २. एक जगह रहनेवाले अथवा एक ही प्रकार का काम करनेवाले लोगों का वर्ग, दल या समूह। समुदाय। ३. किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्थापित की हुई सभा। जैसा—आर्य समाज, संगीत समाज। ४. किसी प्रदेश या भूखंड में रहनेवाले लोग जिनमें सांस्कृतिक एकता होती है। ५. किसी संप्रदाय के लोगों का समुदाय। जैसा—अग्रवाल समाज (सोसाइटी, उक्त सभी अर्थों में)। ६. प्राचीन भारत का समज्या (देखें) नामक सार्वजनिक उत्सव। ७. आयोजन। तैयारी। उदाहरण—बेगि करहु बन गवन समाजू।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समाज-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह आधुनिक शास्त्र जिमसें मनुष्य को सामाजिक, प्राणी मानकर उनके समाज और संस्कृति की उत्पत्ति, विकास संघटन और समस्याओं आदि का विवेचन होता है। (सोशियालॉजी)
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समाज-शास्त्री  : पुं० [सं०] वह जो समाज-शास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो।
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समाज-सुधार  : पुं० [सं०] मानव समाज अथवा किसी देश में रहनेवाले समाज में फैली हुई कुरीतियाँ, दुर्गु, दोष आदि दूर करके उन्हें सुधारने का प्रयत्न। (सोशल रिफार्म)।
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समाज-सुधारक  : पुं० [सं०] वह जो मानव समाज के दुर्गुणों, दोषों आदि को दूर करने का प्रयत्न करता हो। (सोशल रिफार्मर)।
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समाजत  : स्त्री० [अं०] १. शरमिन्दगी। लज्जा। २. विनय। ३. निवेदन। प्रार्थना।
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समांजन  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार आँखों में लगाने का एक प्रकार का अंजन।
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समाजवाद  : पुं० [सं०] वह आर्थिक तथा राजनीतिक विचार-प्रणाली तथा सत्ता तथा स्वामित्व हाथों में नही रहना चाहिए, बल्कि समष्टिक या सामूहिक रूप से समाज में निहित रहना चाहिए। (सोशलिज्म)। विशेष—समाजवाद प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहकारिता को मुनाफा खोरी के स्थान पर लोकहित तथा समाज सेवा की भावना को प्रधानता देना चाहता है, और धन के वितरण में आज जैसी विषमता है उसे बहुत कुछ कम करना चाहता है।
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समाजवादी  : वि० [सं०] समाजवाद संबधी। समाजवाद का। पुं० वह जो समाजवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (सोशलिस्ट)
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समाजशील  : वि० [सं०] समाज के सदस्यों अर्थात् लोगों से बराबर मिलता-जुलता रहनेवाला (सोशिअल)।
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समाजी  : वि० [सं० समाज] समाज सम्बन्धी। समाज का। पुं० वह जो वेश्याओं, गाने-बजानेवाल मंडलियों आदि के साथ रहकर तबला, सारंगी या ऐसा ही और कोई साज बजाता हो। साजिन्दा। पुं०=आर्य-समाजी।
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समाजीकरण  : पुं० [सं०] किसी काम बात या व्यवहार को ऐसा रूप देना कि उस पर समाज का अधिकार या स्थापत्य हो जाय और सब लोग समान रूप से उसका लाभ उठा सकें (सोशलाइज़ेशन)।
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समाज्ञप्त  : वि० [सं० सम-आ√ज्ञप् (बताना)+क्त] जिसे समाज्ञा दी गई हो या मिली हो।
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समाज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. आज्ञा। आदेश। २. नाम। संज्ञा। ३. कीर्ति। यश।
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समाँण  : पुं० [सं०] १. श्मशान। २. शव (राज०)। वि०=मसान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समांत  : पुं० [सं० ष० त०] १. वर्ष का अन्त। २. पड़ोसी।
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समांतक  : पुं० [सं० समांत+कन्] कामदेव।
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समाता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसी स्त्री जो माता के समान हो। २. सौतेली माँ। विमाता।
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समातृक  : वि० [सं०] [स्त्री० समातृका] जिसके साथ उसकी माता भी हो। अव्य० माता के साथ।
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समातृका  : वि० स्त्री० [सं०] (वेश्या) जो किसी खाला या वृद्धा कुटनी के साथ और उसकी देख-रेख में रहती हो।
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समादर  : पुं० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+अप्] अच्छा और उचित आदर। सम्मान। खातिर।
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समादरणीय  : वि० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+अनीयर्] जिसका समादर करना आवश्यक और उचित हो। समादर का अधिकारी या पात्र।
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समादान  : पुं० [सं० सम-आ√दा (देना)+ल्युट-अन] १. पूरी तरह से ग्रहण या प्राप्त करना। २. उपयुक्त उपहार, भेट आदि ग्रहण करना। ३.बौद्धों का सौगताह्रिक नामक नित्य कर्म। ४. जैनों में ग्रहण किये हुए आचारों, व्रतों आदि की अवज्ञा या उपेक्षा। ५. निश्चय।
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समादिष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. नियोजित। २. निर्दिष्ट।
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समादृत  : वि० [सं० सम-आ√दृ (आदर करना)+क्त] जिसका अच्छी तरह आदर हुआ हो। सम्मानित।
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समादेय  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समादिष्ट] १. अधिकारपूर्वक किसी को कोई काम करने का आदेश या आज्ञा देना। २. इस प्रकार दिया हुआ आदेश या आज्ञा। (कमांड) ३. निषेधाज्ञा। व्यादेश।
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समादेश याचिका  : स्त्री० [सं०] विधिक क्षेत्र में, वह याचिका या प्रार्थनापत्र जो उच्च न्यायालय में इस उद्देश्य से उपस्थित किया जाता है कि कोई राजनीति या विधिक आदेश कार्यान्वित होने से तब तक के लिए रोक दिया जाय जब तक उच्च न्यायालय में उसके औचित्य का निर्णय न हो जाय। परमादेश। (रिट ऑफ मैन्डमस)।
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समादेशक  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी को कोई काम करने का आदेश दे। २. वह प्रधान सैनिक अधिकारी जिसके आदेश से सेना के सब काम होते हैं (कमांडर)।
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समाध  : स्त्री०=समाधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समाधा  : पुं० [सं० सम-आ√धा (रखना)+अङ्] १. निकारण। निपटारा। २. विरोध दूर करा। ३. सिद्धान्त। ४. दे० ‘समाधान’।
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समाधान  : पुं० [सं० सम-आ√धृ (रखना)+ल्युट-अन] [वि० समाधनीय] १. एक ही आधान या स्थल पर रखना। २. मन को सब ओर से हटाकर एकाग्र करना और ब्रह्म में लीन करना। ३. संशय दूर करना। ४. आपत्ति की निवृत्ति करना। ५. समस्या का निराकरण करना। ६. असंगति भ्रांति विरोध आदि दूर करना। ७. नियम। ८. वह युक्ति या योजना जिसके द्वारा समस्या हल की जाती हो। ९. तपस्या। १॰. अनुसंधान। अन्वेषण। ११. किसी के कथन या मत की पुष्टि। समर्थन। १२. ध्यान। १३. नाटक की मुख्य संधि के १२ अंगों में से एक अंग जिसमें बीज ऐसे रूप में फिर से प्रदर्सित किया जाता है कि वह नायक अथवा नायिका का अभिमत प्रतीत होता है।
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समाधानना  : स [सं० समाधान] १. किसी का समाधान करना। संशय दूर करना। २. सान्त्वना देना।
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समाधि  : स्त्री० [सं०] १. ईश्वर के ध्यान में मग्न होना। २. योग साधना का चरम, फल जिसमें मनुष्य सब क्लेशों से मुक्त होकर अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त करता है। यह चार प्रकार की कही गई है। संप्रज्ञात, सवितर्क, सविचार और सानन्द। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ३. वह स्थान जहाँ किसी का मृत शरीर या अस्थियाँ गाड़ी गई हों। ४. प्राणियों की वह अवस्था जिसमें उनकी संज्ञा या चेतना नष्ट हो जाती है और वे कोई शारीरिक क्रिया नहीं करते। ५. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी आकस्मिक कारण से सहायता मिलने पर किसी के कार्य में सुगमता होने का उल्लेख मिलता है। इसे ‘समाहित’ भी कहते हैं। ६. साहित्य में काव्य का एक गुण जिसके द्वारा दो घटनाओं का दैव संयोग से एक ही समय में होना प्रकट होता है और जिसके ही क्रिया का दोनों कर्ताओं के साथ अन्वय होता है। ७. किसी असंभव या असाध्य कार्य के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। ८. किसी कष्टसाध्य काम के लिए मन एकाग्र करना। ९. झगड़े या विवाद का अंत या समाप्ति करना। १॰. चुप्पी। मौन। ११. समर्थन। १२. नियम। १३.ग्रहण या अंगीकृत करना। १४. आरोप। १५. प्रतिज्ञा। १६. बदला चुकाना। प्रतिशोध। १७, निद्रा। नींद। स्त्री०=समाधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (क्व)। उदाहरण—व्याधि भूत जनित उपाधि काहू खल की समाधि कीजै तुलसी को जानि जन फुरकै।—तुलसी।
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समाधि-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ योगियों के मृत शरीर गाड़े जाते हों। २. मुरदे गाड़ने की जगह। कब्रिस्तान।
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समाधि-लेख  : पुं० [सं०] वह लेख जो किसी मृत व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय कराने के लिए उसकी समाधि या कब्र पर लिखा या अंकित किया रहता है (एपिटैफ़)।
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समाधि-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] ‘समाधि-क्षेत्र’।
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समाधित  : भू० कृ० [सं० सम-आ√धा (रखना)+क्त] जिसने समाधि लगाई हो। समाधि की अवस्था को प्राप्त।
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समाधित्व  : पुं० [सं० समाधि-त्व] समाधि का गुण, धर्म या भाव।
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समाधिदशा  : स्त्री० [सं० ष० त०] योग में वह दशा जब योगी समाधि में स्थित होता और तन्मय होकर परमात्मा में लीन हो जाता और चारों ओर ब्रह्म ही ब्रह्म देखता है।
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समाधिस्थ  : वि० [सं० समाधि√स्था (ठहरना)+क] जो समाधि में स्थित हो। जो समाधि लगाये हुए हों।
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समाधी (धिन्)  : वि० [सं० समाधि+इनि] समाधिस्थ। स्त्री०=समाधि।
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समाधेय  : वि० [सं० सम-आ√धा (रखना)+यत्] जिसका समाधान हो सके या होने को हो।
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समान  : वि० [सं०] [भाव० समानता] १. गुण, मूल्य, महत्व आदि से विचार के से किसी के अनुरूप या बराबरी का। बराबर। तुल्य। (ईक्वल) जैसा—दोनों बातें समान हैं। २. आकार, प्रकार रूप आदि के विचार किसी की तरह का। सदृश। (मिसिलर)।—जैसा—ये दोनों गहने समान है। विशेष-सदृश, समान और तुल्य का अंतर जानने के लिए दे० सदृश का विशेष। पद—एक समान=एक ही जैसे। बराबर। समान वर्ण=ऐसे वर्ण जिनका उच्चारण एक ही स्थान से होता हो। जैसा—क,ख,ग,घ,समान वर्ण है। पुं० १. सत्। २. शरीर से नाभि के पास रहनेवाली एक वायु। स्त्री०=समानता।
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समान-कालीन  : वि०=समकालीन।
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समान-गोत्र  : पुं० [सं०] सगोत्र।
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समान-तंत्र  : पुं० [सं०] १. सम-व्यवसायी। हमपेशा। २. बेद की किसी एक शाखा का अध्ययन करने तथा उनके अनुसार यज्ञ आदि करनेवाले व्यक्ति।
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समानक  : वि० [सं०] १. =समान। २. =समानार्थक।
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समानता  : स्त्री० [सं० समान+तल्-टाप्] १. समान होने की अवस्था या भाव। तुल्यता। बराबरी। जैसा—इन दोनों में बहुत कुछ समानता है। २. वह गुण, तत्व या बात जो दो या अधिक वस्तुओं आदि में समान रूप से हो।
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समानत्व  : पुं० [सं० समान+त्व]=समानता।
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समाननाम  : पुं० [सं० समाननामन्] ऐसे व्यक्ति जिनके नाम एक से हों। एक ही नामवाले। नाम-रासी।
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समानयन  : पुं० [सं० सम-आ√नी (ढोना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० समानीत] अच्छी तरह अथवा आदरपूर्वक ले आने की क्रिया।
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समानर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] वे जो एक ही ऋषि के गोत्र या वंश में उत्पन्न हुए हों।
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समानस्थान  : पुं० [सं०] १. मध्यवर्ती स्थान। २. भूगोल में वह स्थान जहाँ दिन-रात बराबर हो।
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समाना  : अ० [सं० समावेशन] १. अंदर आना। भरना। अटना। जैसा—इस घड़े में २॰ सेर पानी समाता है। २. व्याप्त होना। जैसा—दिल में भय समाना। ३. कहीं से चलकर आना। पहुँचना। स० अंदर करना। भरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समानाधिकरण  : पुं० [सं० ब० स०] १. समान आधार। २. व्याकरण में वे दो शब्द या पद जो एक ही कारक की विभक्ति से युक्त हों। जैसा—राजा दशरथ के पुत्र राम कोवनवास मिला, यहाँ राजा दशरथ के पुत्र पद राम का समानाधिकरण है क्योंकि को विभक्ति समान रूप से उक्त दोनों पक्षो में लगती है।
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समानाधिकार  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. जातीय, गुण, धर्म या विशेषता। २. बराबर का अधिकार।
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समानार्थ  : पुं० [सं० ब० स०] वे शब्द आदि जिनका अर्थ एक ही हो। पर्याय (सिनॉनिम्)।
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समानार्थक  : वि० [सं० ब० स०] (किसी शब्द के) समान अर्थ रखनेवाला। (दूसरा शब्द) पर्यायवाची (सिनॉनिमस)।
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समानार्थी  : वि० [सं०]=समार्थनाक।
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समानिका  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, जगण और एक गुरु होता है।
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समानी  : स्त्री०=समानिका।
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समानुपात  : पुं० [सं० सम-अनुपात] [वि० समानुपातिक] किसी वस्तु के भिन्न-भिन्न अंगों में होनेवाला वह तुलनात्मक संबंध जो आकार, प्रकार, विस्तार आदि के विचार से स्थिर होता है और जिससे उन सब अंगों में संगति, सामंजस्य स्वरूपता जाती है। (प्रोपोर्शन)।
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समानुपातिक  : वि० [सं०] समानुपात की दृष्टि से ऐसे लोग जिनकी ग्यारहवीं से चौदहवीं पीढ़ी तक के पूर्वज एक हों। वि० साथ-साथ तर्पण करनेवाले।
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समानोपमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] उपमा अलंकार का एक प्रकार जिसमें उच्चारण की दृष्टि से एक ही शब्द भिन्न प्रकार से खंड करने पर भिन्न अर्थों का द्योतक होता है।
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समापक  : वि० [सं० सम√आप् (प्राप्त होना)+ण्वुल्-अक] समापन पर करनेवाला।
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समापत  : वि०=समाप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समापति  : स्त्री० [सं०] १. बहुतों का एक ही समय में और एक ही स्थान पर उपस्थित होना। मिलना। २. भेंट। मिलन। ३. अवसर। मौका। ४. योग में ध्यान का एक अंग। ५. अन्त। समाप्ति। ६. आजकल दंगा, दुर्घटना, युद्ध आदि के कारण लोगों के प्राणों या शरीर पर आनेवाला संकट (कैज़ुएलटी)।
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समापन  : पुं० [सं०] १. समाप्त करने की क्रिया या भाव। पूरा करना। (डिस्पोज़ल)। २. विचार, विवाद आदि का अन्त करने के लिए कोई विशेष बात कहना। (बाइडिंग अप) ३. मार डालना।
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समापनीय  : वि० [सं० सम√अप् (प्राप्त होना+अनीयर्] १. जिसकी समापन होने को हो अथवा होना उचित हो। समाप्त किये जाने के योग्य। २. मारे जाने के योग्य।
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समापन्न  : भू० कृ० [सं० सम-आ√पद् (गमनादि)+क] १. प्राप्त किया हुआ। २. घटना के रूप में आया हुआ। घटित। ३. पहुँचा हुआ। ४. पूरा किया हुआ। ५. दुःखी। ६. मृत।
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समापवर्तक  : वि० [सं०] समावर्तन करनेवाला। पुं० गणित में, वह राशि जिससे दो या अधिक राशियों को अलग-अलग भाग देने पर कुछ शेष न बचें। (काँमन फैक्टर) जैसा—यदि २४, ३६ या ४८ को १२ से भाग दिया जाय तो शेष कुछ नहीं बचता। अतः १२ उक्त तीनों राशियों का समापवर्तक है।
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समापवर्तन  : पुं० [सं० सम-अपर्वतन] गणित में वह क्रिया जिससे राशियों या संज्ञाओं का अपवर्तन करके उनका समापवर्तक निकाला जाता है (दे० ‘अपवर्तन’ और ‘समापर्वतन’)।
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समापिका क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में वाक्य के अंतर्गत अपने स्थान के विचार से क्रिया के दो भेदों में से एक, वह पूर्ण क्रिया जिसका काल किसी दूसरी अपूर्ण क्रिया के काल के बाद आता है और जिससे किसी कार्य की समाप्ति सूचित होती है। जैसा—वह घर जाकर बैठ रहा। में बैठ रहा समापिका क्रिया है, क्योंकि उससे कार्य की समाप्ति सूचित होती है। (दूसरा भेद पूर्वकालिक क्रिया कहलाता है। उक्त वाक्य में जाकर पूर्वकालिक क्रिया है)।
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समापित  : भू० कृ०=समाप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समापी (पिन्)  : वि० [सं० सम√आप् (प्राप्त करना)+णिनि] [स्त्री० समापिनी] १. समापन करने-वाला। २. समाप्त करनेवाला।
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समाप्त  : भू० कृ० [सं०] १. (कार्य) जिसे पूरा कर दिया गया हो। जैसा—विद्यालय का कार्य समाप्त हो गया है। २. (वस्तु) जिसका भोग, संहार आदि के कारण अस्तित्व नष्ट हो गया हो। जैसा—धन समाप्त होना। ३. (वस्तु) जो बिक चुकी हो फलतः विक्रयार्थ उपलब्ध न हो। जैसा—पापलीन समाप्त हो गई है, नई दो-चार दिन में आ जायगी। ४. (नौकरी या सेवा) जिसका कार्य-काल बीत चुका हो। जैसा—उनकी नौकरी समाप्त हो चुकी है। ५. मृत।
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समाप्त-सैन्य  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में ऐसी सेना जो किसी एक ही ढंग की लड़ाई करना जानती थी।
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समाप्ति  : स्त्री० [सं० सम√आप् (प्राप्त होना)+क्तिन्] १. समाप्त होने की अवस्था या भाव। खतम या पूरा होना। २. अवधि, सीमा आदि का अंत होना (एक्सापयरी, एक्सपाररेशन)। ३. किसी काम, चीज या बात का सदा के लिए स्थायी रूप से अन्त होना। न रह जाना। (एविस्टक्शन)।
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समाप्तिक  : पुं० [सं०] वह जो वेदों का अध्ययन समाप्त कर चुका हो। वि० समाप्त या पूरा करनेवाला।
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समाप्य  : हि० [सं० सम√आप (प्राप्त होना)+ण्यत्] समाप्त किये जाने के योग्य। खतम या पूरा करने या होने के लायक।
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समाम्ना  : पुं० [सं० सम+आ√म्ना+य] [वि० समाम्नायिका] १. शास्त्र। २. समष्टि। समूह।
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समाम्नायिक  : पुं० [सं० समाम्नाय+ठन्—इक] वह जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। शास्त्रवेत्ता। वि० समाम्नाय या शास्त्र संबंधी। शास्त्रीय।
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समायत  : वि० [सं०] [स्त्री० समायता] १. बढ़ा या फैला हुआ। विस्तृत। २. बड़ा। विशाल। स्त्री०=समाअत (सुनवाई)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समायुक्त  : वि० [सं० सम-आ√ युज् (मिलाना)+क्त] १. जोड़ा हुआ। २. तैयार किया हुआ। ३. नियुक्त। ४. संपर्क मे लाया हुआ। ५. दत्तचित्त। ६. आवश्यकता पड़ने पर दिया या किसी के पास पहुँचाया हुआ। (सप्लायड)।
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समायुक्तक  : पुं० [सं०] समायोजक (दे०)।
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समायुत  : भू० कृ० [सं० सम-आ√ यु (मिलाना)+क्त] १. जोड़ा या लगाया हुआ। २. एकत्र किया हुआ। संगृहीत।
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समायोग  : पुं० [सं०] १. संयोग। २. जनसमूह। भीड़। ३. दे० ‘समायोजन’।
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समायोजक  : पुं० [सं०] समायोजन करनेवाला (सप्लायर)।
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समायोजन  : पुं० [सं० सम-आ√युज्)मिलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समायोजित] १. समायोग। २. लोगों की आवश्यकता की चीजें उनके पास पहुँचाने की व्यवस्था। संभरण। (सप्लाई)
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समारना  : १. स०=सँवारना। २. =सँभालना।
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समारब्ध  : भू० कृ० [सं० सम्-आ√रम्भ् (प्रारम्भ करना)+क्त] जिसका समारंभ हुआ हो। आरंभ किया हुआ।
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समारंभ  : पुं० [सं० सम्-आ√रभ् (शीघ्रता करना)+घञ्-मुम्] १. आरंब। शुरुआत। २. कोई काम, क्रिया या व्यापार। ३. समारोह। ४. लेप।
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समारंभण  : पुं० [सं० सम-आ√रभ् (शीघ्रता करना)+ल्युट-अन,मुम्] [भू० कृ० समारंभित] १. कार्य आरम्भ करना। २. गले लगाना। आलिंगन।
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समारम्य  : वि० [सं० सम-आ√रम् (शीघ्रता करना)+यत्] जिसका समारम्भ हो सकता हो या होने को हो।
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समारूढ़  : भू० कृ० [सं० सम-आ√रूह् (होना)+क्त] १. किसी के ऊपर चढ़ा हुआ। आरुढ़। २. बढ़ा हुआ। ३. अंगीकृत। ४. (घाव) जो भर गया हो। (वैद्यक)।
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समारोप (ण)  : पुं० [सं०] [वि० समारोपित] अच्छी तरह आरोप या आरोपण करने की क्रिया या भाव।
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समारोह  : पुं० [सं० सम-आ√रुह् (होना)+घञ्] १. ऊपर जाना विशेषतः चढ़ाई करना। २. कोई ऐसा शुभ आयोजन जिसमें चहल-पहल तथा धूमधाम हो। (फंन्शन)
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समार्थ  : वि०=समार्थक।
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समार्थक  : वि० [सं० ब० स० कप्] समान अर्थवाले (शब्द) समानक। पुं० पर्याय।
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समार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० समार्थ+इनि] बराबरी करने की इच्छा रखनेवाला। २. दे० ‘समार्थक’।
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समालंभन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समालंभित] १. शरीर पर केसर आदि का लेप करना। २. वध। हत्या। ३. गले लगाना। आलिंगन। ३. सहारा होना।
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समालय  : पुं० [सं० सम-आ√लय् (करना)+घञ्] अच्छी तरह बातचीत करना।
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समालिंगन  : पुं० [सं० सम-आ√लिंग (गत्यादि)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समालिगित] प्रगाढ़ आलिगंन।
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समालोकन  : पुं० [सं० सम-आ√लोक (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समालोकित] अच्छी तरह देखना।
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समालोचक  : पुं० [सं० सम+आ√लोच् (देखकर कहना)+ण्वुल-अक] वह जो समालोचना करता हो। समीक्षक।
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समालोचन  : पुं० [सं० सम-आ√लोच् (देखना)+ल्युट-अन] समालोचना।
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समालोचना  : स्त्री० [सं० समालोचन+टाप्] १. अच्छी तरह देखना। २. किसी कृति के गुण-दोषों का किया जानेवाला विवेचन। ३. साहित्य में वह लेख जिसमें किसी कृति के गुण-दोषों के संबंध में किसी ने अपने विचार प्रकट किये हों। (रिव्यू) ४. साहित्यिक कृतियों के गुण-दोष विवेचन करने की कला या विद्या।
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समालोची  : वि० [सं० सम-आ√लोच् (देखना)+णिनि]=समालोचक।
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समालोच्य  : वि० [सं०] जिसकी समालोचना हो सकती हो या होने को हो।
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समाव  : पुं०=समाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समावरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समावृत्त] कोई छोटा लेख या सूचना जो किसी बड़े पत्र के साथ एक ही लिफाफे में रखकर कही भेजी जाय। (एन्क्लोजर)।
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समावर्जन  : पुं० [सं० सम-आ√वृज् (मना करना)+ल्युट-अन] १. अपनी ओर झुकाना या मोड़ना। २. उपयोग के लिए अपने अधिकार में लाना या लेना। ३. वश में करना।
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समावर्जित  : भू० कृ० [सं० सम-आ√वृत्त (रहना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. दे० ‘समावर्तन’।
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समावर्तन  : पुं० [सं०] १. वापस आना। लौटना। २. प्राचीन भारत में, वह समारोह जिसमें गुरुकुल के स्नातकों को विद्याध्ययन कर लेने के उपरांत विदाई दी जाती थी। ३. आजकल विश्वविद्यालयों आदि में होनेवाला वह समारोह जिसमें उच्च परीक्षाओं में उतीर्ण होनेवाले परीक्षार्थियों को उपाधियाँ, पदक, प्रमाण-पत्र आदि दिये जाते हैं। (कान्वोकेशन)।
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समावर्तनीय  : वि० [सं० सम-आ√वृत्त (रहना)+अनीयर] १. वापस होने के योग्य। लौटाने लायक। २. जो समावर्तन संस्कार के योग्य हो गया हो।
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समावर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं०] समावर्तन संस्कार के उपरान्त गुरुकुल से लौटानेवाला स्नातक।
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समावास  : पुं० [सं० सम-आ√वस् (रहना)+घञ्] १. निवास स्थान। २. टिकने या ठहरने का स्थान ३. शिविर। पड़ाव।
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समाविष्ट  : भू० कृ० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. जिसका समावेश हो चुका हो या कर दिया गया हो। २. जो छा, भर या व्याप्त हो चुका हो। ३. बैठा हुआ। आसीन। ४. एकांतचित्त।
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समावृत्त  : वि० [सं० सम-आ√वृ (वरण करना)+क्त] [भाव० समावृत्ति] १. अच्छी तरह ढका, छाया या लपेटा हुआ। २. समावर्तन सस्कार के उपरान्त घर लौटा हुआ। ३. सूचनात्मक टिप्पणी या लेख जो किसी पत्र के साथ एक ही लिफाफे में बन्द करके कहीं भेजा गया हो। (इन्क्लोज्ड) जैसा—इस पत्र के साथ सभा का कार्यविवरण समावृत्त है।
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समावृत्ति  : स्त्री० [सं०] १. समावृत्त होने की अवस्था या भाव। २. समावर्तन।
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समावेश  : पुं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+घञ्] १. एक या एक जगह जाना, पहुँचना साथ रहना या होना। २. किसी चीज या बात का दूसरी चीज में होना। ३.चित्त या मन किसी ओर लगाना। मनोनिवेश।
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समावेशक  : वि० [समावेश+कन्] समावेश करनेवाला।
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समावेशन  : पुं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] १. किसी के अन्दर पैठना। प्रवेश। २. अधिकार या वश में करना। ३. विवाह संस्कार।
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समावेशित  : भू० कृ० सं० [सं० सम-आ√विश् (प्रवेश करना)+णिच्+क्त, समावेश,+एतच्, वा]= समाविष्ट।
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समांशिक  : वि० [सं० समांश+ठन्-इक] १. समान भागोंवाला। २. समान अंग या भाग पाने-वाला।
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समाश्रय  : भुं० [सं०] १. आश्रय। सहारा। २. मदद। सहायता।
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समाश्रित  : पुं० कृ० [सं० सम-आ√श्रि (सेवा करना)+क्त] १. जिसने किसी स्थान पर अच्छी तरह आश्रय लिया हो। २. सहारे पर टिका हुआ। पुं० वह जो भरण-पोषण के लिए किसी पर आश्रित हो।
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समास  : पुं० [सं०] १. योग्य। मेल। २. संग्रह। संचय। ३. संक्षेप। ४. संस्कृत व्याकरण में वह अवस्था जब अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों की एक विभक्ति या अनेक स्वरों का एक स्वर होता है। इसके अप्ययी भाव, तत्पुरुष बहुब्रीहि और द्वन्द्व चार भेद है।
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समासक  : वि० [सं० समास+कन्] विराम-चिन्हों के अन्तर्गत एक प्रकार का चिन्ह जो समस्त पदों के अलग-अलग शब्दों के बीच लगाया जाता है। समास का चिह।
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समासक्ति  : स्त्री० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+क्तिन्] [वि० समासक्त] १. योग। मेल। २. संबंध। ३. अनुराग। ४. समावेश। अंतर्भाव।
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समासंजन  : पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (मिलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समासंजित] १. संयुक्त करना। मिलाना। २. किसी पर जड़ता या रखना। ३. संपर्क। संबंध।
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समासन्न  : भू० कृ० [सं० सम-आ√सद् (गत्यादि)+क्त] १. पहुँचा हुआ प्राप्त। २. निकटवर्ती। पास का।
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समासीन  : वि० [सं० सम√आस् (बैठना)+क्विप्-ख-ईन] अच्छी तरह आसीन या बैठा हुआ।
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समासोक्ति  : स्त्री० [सं० समास+उक्ति] साहित्य में एक अलंकार जिसमें श्लिष्ट संज्ञाओं की सहायता से कोई ऐसा वर्णन किया जाता है जो प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त किसी दूसरे अप्रस्तुत विषय पर भी समान रूप से घटता है। जैसे—बड़ों डील लखि पील को सबन तज्यो बन थान। धनि सरजा तू जगत् में ताकों हरयों गुमान। इसमं सरजा संज्ञा) प्रस्तुत (सिंह या शेर) अप्रस्तुत (शिवाजी) के संबंध में घटना है। यह अप्रस्तुत प्रशंसा के विरुद्ध या उल्टा है। (स्पीच आँफ ब्रैंविटी)।
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समाहना  : अ० [सं० समाहन] सामना करना। सामने आना। उदाहरण—त्रिबली नाभि दिखाई कर सिर कि सकुचि समाहि।—बिहारी।
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समाहरण  : पुं० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+ल्युट-अन] १. चीजें आदि एक स्थान पर एकत्र करना। संग्रह २. ढेर। राशि। ३. कर, चन्दा, प्राप्य धन आदि उगाहना। वसूली। (कलेक्शन)। ४. क्रम, नियम आदि के अनुसार ठीक ढंग से या सजाकर बनाया या रखा जाना। (फार्मेशन)। जैसा—वायुयानों का समाहरण। ५. दे० ‘समाहार’।
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समाहर्ता (र्तृ  : वि० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+तृच्] १. समाहार अर्थात् एकत्र या पुंजीभूत करनेवाला। २. संक्षिप्त रूप देनेवाला। ३. मिलाने या सम्मिलित होनेवाला। पुं० वह राज कर्मचारी जिसके जिम्मे किसी जिले से राजकर या प्राप्य धन आदि उगाहने का काम होता है। (कलेक्टर)।
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समाहार  : पुं० [सं० सम-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. बहुत सी चीज को एक जगह इकट्ठा करना। संग्रह। २. ढेर। राशि। ३. मिलन। मिलाप।
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समाहार-द्वंद्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में ऐसा द्वंद्व समास जिससे उसके पदों के अर्थ के सिवा कुछ और अर्थ भी सूचित होता है। जैसा—सेठ साहूकार, हाथ-पाँव, दाल-रोटी आदि। इनमें से प्रत्येक अपने पदों के अर्थ के सिवा उसी प्रकार वे कुछ और व्यक्तियों या पदार्थों का भी बोध कराता है।
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समाहित  : वि० [सं०] १. एक जगह इकट्ठा किया हुआ,विशेषतः सुन्दर और व्यवस्थित रूप से इकट्ठा किया या सजाकर लगाया हुआ। २. केन्द्रित। ३.शांत। ४.समाप्त। ५. व्यवस्थित। ६. प्रतिपादित। ७. स्वीकृत। ८. सदृश। समान। पुं० १. पुण्यात्मा और साधु-पुरुष। २. साहित्य में वह अवस्था जब कोई भावशांति (देखे) इस प्रकार होती है कि वह किसी दूसरे भाव के सामने दबकर गौण रूप धारण कर लेती है। इसकी गिनती अलंकारों में होती है। ३. ‘समाधि’ नामक अलंकार का दूसरा नाम।
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समाहूत  : भू० कृ० [सं० सम-आ√ ह्वे (बुलाना)+क्त, व=उ-दीर्घ] १. जिसे बुलाया गया हो। आहूत। २. जिसे ललकारा गया हो। ३. एकत्र किया हुआ।
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समाहृत  : भू० कृ० [सं०] जिसका समाहरण या समाहर हुआ हो।
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समाह्वान  : पुं० [सं० सम-आ√ ह्वे (बुलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समाहूत] १. आवाहन। बुलाना। २. जूआ खेलने के लिए बुलाना या ललकारना।
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समित  : भू० कृ० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+क्त] १. मिला हुआ। संयुक्त। २. समानांतर। ३. अंगीकृत। स्वीकृत। ४. पूरा किया हुआ। ५. मापा हुआ। ६. निरंतर लगा हुआ। जैसा—समित प्रवाह। पुं० युद्ध। लड़ाई। समर।
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समिता  : स्त्री० [सं० समित-टाप्] बहुत महीन पीसी हुआ आटा। मैदा।
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समिति  : स्त्री० [सं०] १. सभा। समाज। २. प्राचीन भारत में, राजनीतिक, विषयों पर विचार करनेवाली एक संस्था। ३. आजकल शासन, संस्था समाज मुहल्लेवालों आदि द्वारा चुने या मनोनीत किये गये व्यक्तियों का वह दल जिसके जिम्मे कोई विशेष कार्य-भार सौपा गया हो। जैसा—जलकर समिति, सहकारी समिति।
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समिथ  : पुं० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+थक्] १. अग्नि। २. आहुति। ३. युद्ध। लड़ाई।
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समिद्ध  : भू० कृ० [सं० सम√इन्ध (जलना)+क्त, नलोप] जलता हुआ। प्रज्वलित प्रदीप्त।
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समिद्धन  : पुं० [सं० सम√इन्ध् (जलने की लकड़ी)+ल्युट-अन] १. आग जलाने या सुलगाने की क्रिया। २. जलाने की लकड़ी। ईधन। ३. उत्तेजित या उद्दीप्त करने की क्रिया।
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समिध  : पुं० [सं० सम√इन्ध (जलना)+क्त] अग्नि। स्त्री०=समिधा।
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समिधा  : स्त्री० [सं० समिधि] १. लकड़ी, विशेषतः यज्ञकुंड में जलाने की लकड़ी। २. हवन, यज्ञ आदि की सामग्री।
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समिधि  : स्त्री०=समिधा।
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समिर  : पुं०=समीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समिर्तिजय  : पुं० [सं० समिति√जि (जीतना)+खच्-मु्म्] १. वह जिसने वाद-विवाद प्रतियोगिता, युद्ध आदि में विजय प्राप्त की हो। विजयी। २. यम। ३. विष्णु।
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समी  : वि०=सम (समान) उदाहरण—लिखमी समी रुक्मणी लाड़ी।—प्रिथीराज।
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समीक  : पुं० [सं० सम+ईकक्] युद्ध। समर। लड़ाई।
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समीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समीकृत] १. दो या अधिक राशियों, वस्तुओं आदि को समान या बराबर करने की क्रिया या भाव। २. गणित में वह क्रिया जिससे किसी ज्ञात राशि की सहायता से कोई अज्ञात राशि जानी जाती है। ३. यह सिद्ध कर दिखलाना कि अमुक-अमुक राशियाँ या मान आपस में बराबर है। (ईक्वेशन)।
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समीकार  : वि० [सं० सम-च्वि√ कृ (करना)+घञ्] जो छोटी-बड़ी, ऊँची-नीची या अच्छीबुरी चीजों को समान करता हो। बराबर करनेवाला।
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समीकृत  : भू० कृ० [सं० सम-च्वि√कृ (करना)+क्त] १. जिसका समीकरण किया गया हो। २. समान किया हुआ। बराबर किया हुआ।
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समीकृति  : स्त्री० [सं० सम+च्वि√कृ (करना)+क्तिन्]=समीकरण।
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समीक्रिया  : स्त्री०=समीकरण।
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समीक्ष  : पुं० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+घञ्] की समीकरण। २. समीक्षा।
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समीक्षक  : वि० [सं० समीक्ष+कन्] सम्यक् रूप से देखने या समीक्षा करनेवाला। समा-लोचक।
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समीक्षण  : पुं० [सं० सम√ईश् (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० समीक्षित] १. दर्शन। देखना। २. अनुसन्धान। जाँच-पड़ताल। ३. दे० ‘समीक्षा’।
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समीक्षा  : स्त्री० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+अ-टाप्] १. अच्छी तरह देखने की क्रिया। २. छान-बीन या जाँच-पड़ताल करने के लिए अच्छी तरह और ध्यानपूर्वक देखना। परीक्षण। (एक्ज़ैमिनिग) ३. ग्रन्थों, लेखों आदि के गुण-दोषों का विवेचन। समालोचन (रिव्यू)। ४. मीमांसा दर्शन। ५. सांख्य दर्शन में पुरुष प्रकृति, बुद्धि, अहंकार आदि तत्त्व। ६. बुद्धि। समझ। ७. कोशिश। प्रयत्न।
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समीक्षित  : भू० कृ० [सं० सम√ईक्ष् (देखना)+क्त] जिसकी समीक्षा की गई हो। जो भली-भाँति देखा गया हो।
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समीक्ष्य  : वि० [सं०] जिसकी समीक्षा हो सकती हो या होने को हो।
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समीच  : पुं० [सं० सम√इण् (गत्यादि)+चट्-दीर्घ] समुद्र। सागर।
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समीचीन  : वि० [सं० समीच+ख-ईन] [भाव० समीचीनता] १. यथार्थ। ठीक। २. उचित। वाजिब। ३. न्याय संगत।
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समीति  : स्त्री०=समिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समीप  : वि० [सं०] निकट। पास। ‘दूर’ का विपर्याय।
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समीप  : वि० [सं० सम+छ-ईय] सम संबंधी। सम का।
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समीपता  : स्त्री० [सं० समीप+तल्-टाप्] समीप होने की अवस्था या भाव। निकटता।
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समीपवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं०] जो किसी के समीप या पास में स्थित हो। जैसा—भारत के समीपवर्ती टापुओं में सिंहल प्रधान है।
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समीपस्थ  : वि० [सं०] जो समीप में स्थित हो। पास का। समीपवर्ती।
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समीभाव  : पुं० [सं० सम+च्वि√भू (होना)+घञ्] १. सामान्य अवस्था। साधारण स्थिति। २. आचरण और जीवन संबंधी सब बातों में रखा जानेवाला समता का भाव।
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समीर  : पुं० [सं० सम√ईर् (गमनादि)+क] १. वायु। हवा। २. आधुनिक वायुविज्ञान के अनुसार भली जान पड़नेवाली वह हलकी हवा जिसकी गति प्रति घंटे १३ से १८ मील तक की हो। (मॉडरेट ब्रीज) ३. प्राण-वायु। ४. शमी वृक्ष।
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समीरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समीरित] १. चलना। २. वायु। हवा। ३. पथिक। बटोही। ४. प्रेरणा। ५. मरुआ नामका पौधा। वि० १. चलता हुआ या चलनेवाला। गतिशील। ३. उद्दीपक।
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समीरित  : भू० कृ० [सं० सम√ईर् (प्रेरित करना)+क्त] १. चलाया हुआ। २. भेजा हुआ। ३. प्रेरित। ४. उच्चरित (शब्द)।
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समीहा  : स्त्री० [सं० सम√ईह् (चेष्टा करना)+अच्-टाप्] [भू० कृ० समीहित] १. उद्योग। प्रयत्न। २. इच्छा। कामना। ३. अन्वेषण। तलाश। ४. जाँच-पड़ताल।
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समीहित  : भू० कृ० [सं०] चाहा हुआ। इच्छित।
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समुक्त  : वि० [सं० सम√वच् (कहना)+क्त, वा=व] १. जिससे कुछ कहा गया हो। सम्बोधित। २. जिसकी भर्त्सना की गई हो।
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समुख  : वि० [सं० अव्य० स०] १. बहुत अधिक बोलनेवाला। २. सुवक्ता। वाग्मी।
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समुचित  : वि० [सं० सम√उच्) एक होना)+क्त] १. जो हर तरह से उचित या ठीक हो। वाजिब। २. उपयुक्त। योग्य। ३. जैसा होना चाहिए, अथवा होता आया हो, वैसा।
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समुच्चक  : वि० [सं०] १. ऊपर उठानेवाला। २. आगे की ओर ले जाने या बढ़ानेवाला।
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समुच्चय  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समुच्चित] १. कुछ वस्तुओं का एक में मिलना। (कॉम्बिनेशन)। २. समूह। राशि। ३. कुछ वस्तुओं या बातों का एक साथ एक जगह इकट्ठा होना। संयुक्ति। (क्युमुलेशन)। ४. प्राचीन भारतीय राजनीति में वह स्थिति जिसमें प्रस्तुत उपाय के सिवाय अन्य उपायों से भी कार्य सिद्ध हो सकता हो। ५. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कई भावों के एक साथ उदित होने,कई कार्यो के एक साथ होने या कई कारणों में एक ही कार्य होने का वर्णन होता है। (कनुजंक्शन)। विशेष-इसके दो भेद कहे गये हैं। एक तो वह जिसमें आश्चर्य, हर्ष, विषाद आदि अनेक भावों का एक साथ उल्लेख होता है। दूसरा वह जिसमें एक कार्य के अनेक उपायो से सिद्धि हो सकने का वर्णन होता है।
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समुच्चय बोधक  : पुं० [सं०] व्याकरण में अव्यय का एक भेद जिसका कार्य दो वाक्यों में परस्पर संबंध स्थापित करना होता है। और किन्तु तथा परन्तु बल्कि या वरन् आदि समुच्चय बोधक है।
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समुच्चयक  : वि० [सं०] १. समुच्चय संबंधी। २. समुच्चय के रूप में होनेवाला।
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समुच्चयन  : पुं० [सं०] १. ऊपर उठाने की क्रिया या भाव। २. इकट्ठा करने या ढेर लगाने की क्रिया या भाव।
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समुच्चयार्थक  : वि० [सं०] समुच्चय या सारे वर्ग के अर्थ से संबंध रखने या वैसा अर्थ सूचित करनेवाला। (कलेक्टिव)। जैसा—भीड़ और समाज समुच्चयार्थक संज्ञाएँ है।
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समुच्चयोपमा  : पुं० [सं०] उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेय में उपमान के अनेक गुण या धर्मों का एक साथ आरोप होता है।
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समुच्चित  : भू० कृ० [सं० सम√उत्√चिर् (ढेर लगाना)+क्त] १. जो धीरे-धीरे बढ़कर इकट्ठा और एकाकार हो गया हो। पुंजीभूत। २. संग्रहीत। (क्युमुलेटेड)।
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समुच्छिन्न  : भू० कृ० [सं०] बुरी तरह से उखड़ा, तोडा या फाड़ा हुआ।
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समुच्छेद  : पुं० [सं० सम-उत्√छिद्र) (नष्ट करना)+ल्युट-अन] १. जड़ से उखाड़ना। २. नष्ट करना।
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समुच्छेदन  : पुं० [सं० सम-उत्√ज्वल् (चमकना)+अच्] खूब उज्जवल। चमकता हुआ।
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समुच्य  : वि० [सं० सम√उत्√चि (चयन करनेवाला)+ड] बहुत ऊँचा। वि०=समूचा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुज्झित  : वि० [सं० सम√उज्झ् (त्यागना)+क्त] १. त्यागा हुआ। परित्यक्त। २. मिला हुआ। युक्त।
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समुझ  : स्त्री०=समझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुझना  : अ०=समझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुत्थ  : वि० [सं० सम-उत्√स्था (ठहरना)+क, स=थ, लोप] १. उठा हुआ। २. उत्पन्न। जात।
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समुत्थान  : पुं० [सं० सम-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट-अन] १. ऊपर उठाने की क्रिया। २. उन्नति। ३. उत्पत्ति। ४. आरंभ। ५. रोग का निदान। ६. रोग का शमन या शान्ति।
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समुत्थित  : भू० कृ० [सं० सम-उद्√स्था (ठहरना)+क्त] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. जो प्रकट हुआ हो। ३. उद्भूत। उत्पन्न। ४. घिरा हुआ। (बादल)। ५. प्रस्तुत। ६. जो आरोग्य लाभ कर चुका हो। ७. फूला हुआ। ८. किसी के मुकाबले में उठा हुआ।
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समुत्पन्न  : वि० [सं० सम-उत√पद् (गत्यादि)+क्त=न]=उत्पन्न।
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समुत्सुक  : वि० [सं० सम-उत्√सुच् (शोक करना)+अच्, कर्म० स०] विशेष रूप से उत्सुक। उत्कंठित।
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समुंद  : पुं० १. =समुद्र। २. समंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समुद  : वि० [सं०] मोद या प्रसन्नता से युक्त। अव्य० मोद या प्रसन्नतापूर्वक। पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुदगा  : स्त्री० [सं०] १. नदी जो समुद्र की ओर गमन करती है। २. गंगा नदी।
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समुदय  : पुं० [सं० समुदयः] [भू० कृ० समुदित] १. ऊपर उठना या चढ़ना। २. ग्रह, नक्षत्र आदि का उदित होना। उदय। ३. शुभ लग्न। साइत। ४. ढेर। राशि। झुंड। समुदाय। ५. कोशिश। प्रयत्न। ६. युद्ध। समर। ७. राज-कर। वि० समस्त। सब। सारा।
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समुंदर  : पुं०=समुद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुंदर-पात  : पुं०=समुंदर-सोख।
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समुंदर-फल  : पुं० [सं० समुद्र-फल] एक प्रकार का बहुत बड़ा सदाबहार वृक्ष जो नदियों और समुद्रों के किनारे और तर भूमि में बहुत अधिकता से पाया जाता है।
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समुदंर-फेन  : पुं०=समुद्र फेन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुंदर-फेन  : पुं० [हि] समुद्र की लहरों पर की झाग जो सुखाकर ओषधि के रूप में काम लाई जाती है।
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समुंदर-सोख  : पुं० [हि० समुदर सोखना] एक प्रकार का पौधा जिसके बीज वैद्यक में दवा के काम आते हैं। इसके डंठल बहुत चमकीले और मजबूत होते हैं। समुंदर पात।
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समुदाचार  : पुं० [सं० सम-उद्-आ√चर् (चलना)+घञ्] १. भलमनसाहत का व्यवहार। शिष्टाचार। २. नमस्कार। ३. प्रणाम। ४. अभिप्राय। आशय। मतलब।
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समुदाय  : पुं० [सं० सम-उद्√अय (गत्यादि)+घञ्] [वि० सामुदायिक] १. बहुत से लोगों का समूह। २. झुंड। दल। ३. ढेर। राशि। ४. उदय। ५. उन्नति। ६. सेना का पिछला भाग। ७. किसी वर्ग जाति के लोगों द्वारा बनाई हुई ऐसीसस्था जिसका मुख्य उद्देश्य सामान्य हितों की रक्षा होता है (एसोसियेशन)।
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समुदाव  : पुं०=समुदाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुदित  : भू० कृ० [सं० सम-उद्√इण् (गत्यादि)+क्त] १. जिसका समुदाय हुआ हो। २. उदित। उठा हुआ। ३. उन्नत। जात।
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समुद्गत  : भू० कृ० [सं० सम-उद√गम् (जाना)+क्त] १. जो ऊपर उठा हो। उदित। २. उत्पन्न। जात।
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समुद्गार  : पुं० [सं० कर्म० स०] बहुत अधिक वमन होना। ज्यादा कै होना।
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समुद्धरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समुद्धृत] १. ऊपर उठाना। २. उद्धार। ३. वह अन्न जो वमन करने पर पेट से निकला हो। ४. दूर करना। हटाना।
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समुद्धर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० सम√उद्√हृ (हरण करना)+तृच्] १. ऊपर की ओर उठाने या निकालनेवाला। २. उद्धार करनेवाला। ३. ऋण चुकानेवाला।
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समुद्धार  : पुं०=समुद्घरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समुद्भव  : पुं० [सं०] १. उत्पत्ति। जन्म। २. पुनरुज्जीवन। ३. उपनयन के समय, हवन के लिए जलाई हुई आग।
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समुद्भूति  : स्त्री० [सं० सम-उद्√भू (होना)√क्तिन्] [वि० समुद्भूत]=समुद्भव।
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समुद्यत  : वि० [सं० सम+उद्√यम् (शान्त होना)+क्त] जो पूर्ण रूप से उद्यत हो। अच्छी तरह से तैयार।
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समुद्यम  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. उद्यम। चेष्टा। २. आरंभ। शुरू।
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समुद्र  : वि० [सं०] १. वह विशाल जल-राशि जो इस पृथ्वी तल के प्रायः तीन चौथाई हिस्से में व्याप्त है। सागर। अंबुधि। जलधि। रत्नाकर। २. लाक्षणिक अर्थ में बहुत बड़ा आगार या आश्रय। जैसा—विद्यासागर, शब्द-सागर आदि। ३. एक प्राचीन जाति।
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समुद्र-कंप  : पुं० [सं०] समुद्र के किसी भाग में सहसा उत्पन्न होनेवाला वह कंप जो आस-पास के स्थलों में भू-कंप होने अथवा भूगर्भ में प्राकृतिक विस्फोट होने के कारण उत्पन्न होता है। (सी-क्वेक)।
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समुद्र-कफ  : पुं० [सं०] समुद्र फेन।
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समुद्र-कांची  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी जिसकी मेखला समुद्र है।
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समुद्र-कांता  : स्त्री० [सं०] नदी जिसका पति समुद्र माना जाता है। समुद्र की स्त्री अर्थात् नदी।
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समुद्र-चुलुक  : पुं० [सं०] अगत्स्य मुनि जिन्होंने चुल्लुओं से समुद्र पी डाला था।
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समुद्र-झाग  : पुं०=समुंदर फेन।
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समुद्र-तारा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समुद्री मछली जिसका आकार तारे की तरह का होता है। (स्टार फ़िश)।
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समुद्र-नवनीत  : पुं० [सं०] १. अमृत। २. चन्द्रमा।
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समुद्र-पत्नी  : स्त्री० [सं०] नदी। दरिया।
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समुद्र-फेन  : पुं०=समुद्रर-फेन।
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समुद्र-मंडूकी  : स्त्री० [सं०] सीपी। सीप।
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समुद्र-मंथन  : पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मथा था। इस मंथन के फलस्वरूप उन्हें लक्ष्मी, मणि, रंभा, वारुणी, अमृत, शंख, ऐरावत, हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, कामधेनु, धन, धनवंतरि, विष, और अश्व ये चौदह पदार्थ मिले थे। २. कुछ ढूँढ़ने के लिए अधिक की जानेवाली छान-बीन।
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समुद्र-मालिनी  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी जो समुद्र को अपने चारों ओर माला की भाँति धारण किये हुए है।
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समुद्र-मेखला  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी जो समुद्र को मेखला के समान धारण किये हुए है।
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समुद्र-यात्रा  : स्त्री० [सं०] समुद्र के द्वारा दूसरे देशों की होनेवाली यात्रा (सी वॉयेज)।
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समुद्र-यान  : पुं० [सं०] १. समुद्र के मार्ग से होनेवाली यात्रा। २. समुद्र के तल पर चलनेवाली सवारी। समुद्री जहाज।
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समुद्र-रसना  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्र-लवण  : पुं० [सं०] करकच नाम का मक जो समुद्र के जल से तैयार किया जाता है।
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समुद्र-लहरी  : पुं० [सं०+हि] समुद्र के रंग की तरह का हरा रंग। (सी ग्रीन)। वि० उक्त रंग के रंग का।
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समुद्र-वसना  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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समुद्र-वह्नि  : पुं० [सं०] बड़वानल।
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समुद्र-वासी (सिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० समुद्र-वासिनी] १. जो समुद्र में रहता हो। २. जो समुद्र के किनारे रहता हो।
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समुद्र-वृष्टि-न्याय  : पुं० [सं०] कहावत की तरह प्रयुक्त होनेवाला एक प्रकार का न्याय जिसका प्रयोग यह जानने के लिए होता है कि अमुक काम या बात भी उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे समुद्र के ऊपर वृष्टि होना।
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समुद्र-सार  : पुं० [सं०] मोती।
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समुद्र-स्थली  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्राचीन तीर्थ जो समुद्र के तट पर था।
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समुद्रगुप्त  : पुं० [सं०] मगध के गुप्त राजवंश के एक बहुत प्रसिद्ध और वीर सम्राट जिनका समय सन् ३३५ से ३७५ तक माना जाता है। इनकी राजधानी पाटिलपुत्र में थी।
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समुद्रज  : वि० [सं०] समुद्र से उत्पन्न। समुद्र जात। पुं० मोती, हीरा आदि रत्न जिनकी उत्पत्ति समुद्र से होती या मानी जाती है।
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समुद्रनेमि  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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समुद्रांबरा  : स्त्री [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्राभिसारिणी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह कल्पित देवबाला जो समुद्र देव की सहचरी मानी जाती है।
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समुद्रारु  : पुं० [सं० समुद्र√ऋ (गमनादि)+उण्] १. कुंभीर नामक जल-जंतु। २. तिमिंगल नामक जल जंतु। ३. समुद्र के किसी अंश पर बना हुआ पुल।
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समुद्रावरण  : स्त्री० [सं० ब० स०] पृथ्वी।
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समुद्रिय  : वि० [सं० समुद्र+घ-इय] १. समुद्र संबंधी। समुद्र का। २. समुद्र से उत्पन्न। ३. समुद्र में या उसके तट पर रहने या होने वाला। ४. नौ-सैनिक। (नैवेल)।
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समुद्री  : वि०=समुद्रिय।
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समुद्री-गाय  : स्त्री० [हि०] नीले रंग का एक प्रकार का समुद्री पशु जो प्रायः गौ के आकार का होता है। इसका मांस खाया जाता है और चरबी अच्छे दामों पर बिकती है।
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समुद्री-डाकू  : पुं० [हिं०] वह जो समुद्र में चलनेवाले जहाजों आदि पर डाके डालता हो। जल-दस्यु (पाइरेट)।
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समुद्री-तार  : पुं० [सं० कर्म० स०] समुद्र में पानी के भीतर से जानेवाला तार। (केबिल)।
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समुद्वह  : वि० [सं० सम-उद्√वह् (ढोना)+अच्] १. श्रेष्ठ। उत्तम। बढ़िया। २. ढोने या वहन करनेवाला।
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समुद्वाह  : पुं० [सं० सम-उद्√वह् (ढोना)+घञ्] विवाह।
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समुन्नत  : वि० [सं० सम-उत्√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० समुन्नति] १. जिसकी यथेष्ट उन्नति हुई हो। खूब बढ़ा-चढ़ा। २. बहुत ऊँचा। पुं० वास्तु शास्त्र में एक प्रकार का खंभा आ स्तंभ।
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समुन्नद्ध  : वि० [सं० सम-उत√नह् (बाँधना)+क्त] १. जो अपने आपको पंडित समझता हो। २. अभिमानी। घमंडी। ३. उत्पनन। जात। पुं० प्रभु। मालिक। स्वामी।
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समुन्नयन  : पुं० [सं०] [भाव० समुन्नति] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने की क्रिया। २. प्राप्ति। लाभ।
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समुपकरण  : पुं० [सं० सम-उप√कृ (करना)+ल्युट-अन] १. उपकरण। २. सामग्री।
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समुपवेशन  : पुं० [सं० सम-उप√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह बैठने की क्रिया। २. अभ्यर्थना।
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समुपस्थान  : पुं० [सं० सम-उप√स्था (ठहरना)+ल्युट-अन] सामने आकर उपस्थित होना
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समुपस्थित  : वि० [सं० सम-उप√स्था (ठहरना)+क्त] [भाव० समुपस्थिति] १. सामने आया हुआ। उपस्थित। २. प्रकट।
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समुपस्थिति  : स्त्री० [सं० सम्-उप√स्था (ठहरना)+क्तिन्] समुपस्थान।
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समुपेत  : वि० [सं० सम-उप√इण् (गत्यादि)+क्त] १. पास आना या पहुँचा हुआ। २. एकत्र किया हुआ। ३. ढेर के रूप में लगाया हुआ। ४. बसा हुआ। आबाद।
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समुल्लास  : पुं० [सं० सम-उत्√लस् (क्रीड़ा करना)+घञ्] [भू० कृ० समुल्लसित] १. उल्लास। आनन्द। प्रसन्नता। खुशी। २. ग्रन्थ आदि का परिच्छेद या प्रकरण।
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समुहा  : वि० [सं० सम्मुख] १. सामने का। २. सामने की दिशा में स्थित। अव्य० १. सामने। २. सीधे।
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समुहाना  : अ० [हि० समुहा] सामने आना या होना। स० सामने करना या लाना। उदाहरण—सबही तन समुहानि छिन चलति सबनि पै दीठ।—बिहारी।
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समुहै  : अव्य०=सामुहै (सामने)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समूचा  : वि० [सं० समुच्चय] आदि से अन्त तक जितना हो, वह सब। जिसके खंड या विभाग न किये गये हों। कुल। पूरा। सब।
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समूढ़  : वि० [सं० सम्√वहृ (ढोना)+क्त, ह=दृढ़त=थ=ढ,-व=ड] १. ढेर के रूप में उगाया हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। संगृहीत। ३. पकड़ा हुआ। ४. भोगा हुआ। भुक्त। ५. विवाहित। ६. जो अभी उत्पन्न हुआ हो। सद्यः जात। ७. जो मेल में ठीक बैठता हो। संगत। पुं० १. ढेर। समूह। २. आगार। भंडार।
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समूर  : पुं० [फा० समूरु से] शंबर या साँबर नामक हिरन।
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समूल  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें मूल या जड़ हो। २. जिसका कोई मुख्य कारण या हेतु हो। क्रि० वि० जड़ या मूल से। जैसा—किसी का समूल नाश करना।
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समूह  : पुं० [सं०] १. एक स्थान पर एक ही तरह की संख्या में अत्यधिक वस्तुओं की स्थिति। जैसा—पक्षियों या पशुओं का समूह। ३. बहुत से व्यक्तियों का जमघट। समुदाय।
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समूहतः  : क्रि० वि० [सं०] समूह के रूप में। सामूहिक रूप से। (एन ब्लॉक) जैसा—सुधार-वादियों ने समूहतः त्याग-पत्र दे दिया।
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समूहना  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समूहित] १. कई चीजों को एक में मिलाकर उन्हें समूह का रूप देना। २. राशि। ढेर। ३. दे० ‘संश्लेषण’ (भाषा-विज्ञान)।
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समूहनी  : स्त्री० [सं० समूहन-ङीष्] झाड़ू। बुहारी।
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समूहित  : भू० कृ० [सं०] समूह के रूप में रखा या लाया हुआ।
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समूहीकरण  : पुं० [सं० समूह+करण] वस्तुओं के ढेर या समूह बनाने की क्रिया या भाव।
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समृति  : स्त्री०=स्मृति।
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समृद्ध  : वि० [सं० सम√ऋध् (वृद्धि करना)+क्त] [भाव० समृद्धि] १. जिसके पास बहुत अधिक संपत्ति हो। संपन्न। धनवान्। समृद्धिशाली। २. कृता्र्थ। सफल। ३. सशक्त। ४. अधिक। बहुत। ५. प्रभावशील।
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समृद्धि  : स्त्री० [सं०] १. समृद्ध होने की अवस्था या भाव। २. बहुत अधिक संपन्नता। ऐश्वर्य। अमीरी। ३. कृतकार्यता। सफलता। ४. अधिकता। बहुलता। ५. शक्ति। ६. प्रभावकारक। प्रधानता।
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समृद्धी (द्विन्)  : वि० [सं० समृद्धि+इनि] जो बराबर अपनी समृद्धि करता रहता हो। स्त्री०=समृद्धि।
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समृष्ट  : भू० कृ० [सं०] झाड़-पोंछ की अच्छी तरह साफ किया हुआ।
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समेकन  : पुं० [सं० सम+एकन्] [वि० समेकनीय, भू० कृ० समेकित] १. जो या अधिक वस्तुओं आदि का आपस में मिलकर पूर्णतः एक हो जाना। ३. रसायन-शास्त्र में दो या अधिक पदार्थों का गलकर या और किसी रूप में एक हो जाना (फ्यूजन)।
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समेकनीय  : वि० [सं०] जिसका समेकन हो सके। जो दूसरों में पूर्णतः मिलकर उसके साथ एक हो सके। (फ्यूज़िबुल)
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समेकनीय  : वि० [सं०] जिसका समेकन हो सके। जो दूसरों में पूर्णतः मिलकर उसके साथ एक हो सके (फ्यूज़िबुल)।
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समेकित  : भू० कृ० [सं०] जिसका समेकन किया गया हो या अथवा हुआ हो (फ़्यूज्ड)।
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समेट  : स्त्री० [हि० समेटना] १. समेटने की क्रिया या भाव। २. समेटी हुई वस्तु।
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समेटना  : स० [हि० सिमटना] १. बिखरी हुई चीजों को इकट्ठा करना। २. ग्रहण या धारण करना। जैसा—किसी का सब्र समेटना।
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समेत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। संयुक्त। ३. पास आया हुआ। अव्य० सहित। साथ।
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समेध  : पुं० [सं० सम√एध् (वृद्धि करना)+अच्] पुराणानुसार मेरु के अंतर्गत एक पर्वत।
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समै, समैया  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समो  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समोखना  : स० [?] जोर देकर या ताकीद से कहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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समोच्च रेखा  : स्त्री० दे० ‘रूप-धेय’।
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समोदक  : वि० [सं० ब० स० सम+उदक] जिसमें आधा पानी हो। पुं० १. घोल। २. मठा।
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समोना  : स० [सं० समन्वय] १. कोई चीज अच्छी तरह किसी दूसरी चीज में भरना या मिलाना। समाविष्ट या सम्मिलित करना। जैसा—इतना बड़ा कथानक छोटी सी कहानी में समो दिया है। २. इकट्ठा या संगृहीत करना। ३. प्रस्तुत करना। बनाना। अ० १. निमग्न होना। डूबना। २. मग्न या लीन होना। उदाहरण—यों ही वृच्छ गये तें अब लौं राजस रंग समोये।—नागरीदास।
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समोसा  : पुं० [?] १. मैदे का बना हुआ तथा घी में तला हुआ नमकीन पकवान जिसके अन्दर आलू आदि भरे जाते हैं। २. उक्त प्रकार का बना हुआ कोई पकवान। जैसा—मलाई का समोसा।
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समोह  : पुं० [सं०] समर। युद्ध।
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समौ  : पुं०=समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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समौरिया  : वि० [सं० सम+हि० उमर-इया (प्रत्यय)] किसी की तुलना में समान वय वाला। समवयस्क।
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सम्मढ़  : वि० [सं० सम√मुह् (मुग्ध होना)+क्त] १. मोह में पड़ा हुआ। २. मूढ़। मूर्ख। ३. अनजान। अबोध। ४. टूटा हुआ। ५. ढेर के रूप में लगा हुआ।
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सम्मत  : वि० [सं० सम√मन् (मानना)+क्त] १. जिसकी राय किसी की बात से मिलती हो। २. जो किसी बात पर राजी या सहमत हो। पुं० १. सम्मत्ति। राय। २. अनुमति।
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सम्मति  : स्त्री० [सं०] [वि० सम्मत] १. सलाह। राय। २. अनुज्ञा। अनुमति। ३. किसी विषय में प्रकट किया जानेवाला मत या विचार। राय (ओपीनियन)। ४. किसी विषय में कुछ लोगों का एकमत होना। सहमति। (एग्रीमेन्ट) ५. किसी के प्रस्ताव या विचार को ठीक और उचित मानकर उसके निर्वाह के लिए दी जानेवाली अनुमति। सहमति। (कन्सेन्ट)। ६. प्रतिष्ठा। ७. इच्छा। कामना। ८. आत्म-ज्ञान।
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सम्मद  : वि० [सं० सम√मद् (हर्षित होना)+अप्] आनंदित। प्रसन्न पुं० १. आमोद। प्रसन्नता। २. एक प्रकार की बहुत बड़ी मछली।
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सम्मन  : पुं० [अं० समन] न्यायालय द्वारा प्रेषित वह पत्र जिसमें किसी को न्यायालय में उपस्थित होने का आदेश दिया जाता है।
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सम्मर्द  : पुं० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+घञ्] १. युद्ध। लड़ाई। २. जन-समूह। भीड़। ३. वाद-विवाद। ४. लड़ाई-झगड़ा।
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सम्मर्दन  : पुं० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मर्दित] अच्छी तरह किया जानेवाला मर्दन।
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सम्मर्दी (र्दिन्)  : वि० [सं० सम√मृद् (मर्दन करना)+णिनि] अच्छी तरह मर्दन करनेवाला।
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सम्मातृ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी माता पतिव्रता हो। सती माता वाला।
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सम्माद  : पुं० [सं० सम√मद् (उन्मत्त होना)+घञ्] १. उन्माद। पागलपन। २. नशा।
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सम्मान  : पुं० [सं० सम√मान् (मान करना)+अच्] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला आदरपूर्ण भाव। २. वे सब बातें जिनके द्वारा किसी के प्रति पूज्य भाव प्रकट या प्रदर्शित किया जाता है। वि० मान या प्रतिष्ठा से युक्त। अव्य० मान या प्रतिष्ठापूर्वक।
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सम्मानन  : पुं० [सं० सम√मान् (आदर करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मानित] १. सम्मान या आदर करना। २. बतलाना या सिखलाना।
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सम्मानना  : स० [सं० सम्मान] सम्मान करना। आदर करना। स्त्री० [सं०] सम्मान।
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सम्मानित  : भू० कृ० [सं० सम√मान् (सम्मानित होना)+क्त] १. जिसका सम्मान किया गया हो। २. जिसे सम्मानपूर्वक लोग देखते हों।
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सम्मानी (निन्)  : वि० [सं० सम्√मान् (आदर करना)+णिनि] जिसमें सम्मान का भाव हो।
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सम्मान्य  : वि० [सं० सम√मान (आदर करना)+यत्] जिसका सम्मान किया जाना आवश्यक और उचित हो। आदरणीय।
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सम्मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा मार्ग। सत् मार्ग। २. ऐसा मार्ग जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो।
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सम्मार्जक  : वि० [सं० सम्√मृज् (युद्ध करना)+ण्वुल-अक] सम्मार्जन करनेवाला। पुं० झाड़।
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सम्मार्जन  : पुं० [सं० सम√मृज् (युद्ध करना)+विच्, ल्युट-अन] [भू० कृ० सम्मार्जित] १. झाड़ना-बुहारना। २. साफ करना। ३. स्नानादि (मूर्ति का) ४. स्रुवा के साथ काम आनेवाला कुश या मुट्ठा। ५. झाड़ू।
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सम्मार्जनी  : स्त्री० [सं० सम्मार्जन-ङीष्] झाड़ू। बुहारी। कूँचा।
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सम्मित  : भू० कृ० [सं० सम्√मा (सदृश करना)+क्त] १. मापा हुआ। २. समान। सदृश। ३. जिसके अंगो में आनुपातिक एकरूपता तथा सामंजस्य हो। (सिमेट्रकिल)।
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सम्मिति  : स्त्री० [सं० सम्√मा (ऊंची कामना)+क्तिन्] १. तुल्य या समान करना। २. तुलना करना।
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सम्मिलन  : पुं० [सं० सम√मिल् (मिलना)+ल्युट—अन] १. मेल-मिलाप। २. जो विभिन्न इकाइयों का मिलकर एक होना। जैसा—भारत में गोवा का सम्मिलन। ३. सम्मेलन। (दे०)।
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सम्मिलनी  : स्त्री०=सम्मेलन। उदाहरण—सम्मिलनी का बिगुल बजा।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्मिलित  : भू० कृ० [सं० सम√मिल् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। २. जो मिल-जुल कर किया गया हो। सामूहिक। जैसा—सम्मिलित प्रयास से ही यह संभव हुआ है।
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सम्मिश्र  : वि० [सं० सम√मिश्र् (मिलाना)+अच्] एक में या साथ साथ मिलाया हुआ।
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सम्मिश्रक  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार का सम्मिश्रण करता हो। २. वह व्यक्ति जो ओषधियों, विशेषतः विलायती ओषधियों आदि के मिश्रण प्रस्तुत करता हो। (कम्पाउंडर)
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सम्मिश्रण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० सम्मिश्रित, कर्ता, सम्मिश्रक] १. अच्छी तरह मिलाने की क्रिया। २. मेल। मिलावट। ३. औषध तैयार करने के लिए कई प्रकार की ओषधियाँ एक में मिलाना। (कम्पाउंडिंग)।
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सम्मीलन  : पुं० [सं० सम√मिल् (संकुचित होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० सम्मिलित] १. पुष्पादि का संकुचित होना। मुँदना। २. ढका जाना। ३. चन्द्रमा या सूर्य का पूर्णग्रहण। खग्रास।
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सम्मुख  : अव्य० [सं० ब० स०] १. सामने। समक्ष। आगे। २. बिलकुल सीधे।
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सम्मुखी  : वि० [सं० सम्मुख+इनि] जो सम्मुख या सामने हो। सामने का। पुं० दर्पण। आइना।
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सम्मुखीन  : वि० [सं० सम्मुख+ईन] जो सम्मुख हो। सामने का।
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सम्मूढ़-पीड़िका  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का शुक्र रोग जिसमें लिंग टेढ़ा हो जाता है और उस पर फुंसियाँ निकल आती है।
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सम्मूर्च्छन  : पुं० [सं० सम√मूर्च्छा (मुग्ध होना आदि)+ल्युट—अन] [भू० कृ० सम्मूर्च्छित] १. भली-भाँति व्याप्त होने की क्रिया। अभिव्याप्ति। २. मूर्च्छा। बेहोशी। ३. बढती। वृद्धि। ४. फैलाव। विस्तार।
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सम्मृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम√मृज् (शुद्ध होना)+क्त] १. अच्छी तरह साफ किया हुआ। २. छाना हुआ।
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सम्मेलन  : पुं० [सं०] १. मनुष्यों का किसी विशेष उद्देश्य से अथवा किसी विशेष विषय पर विचार करने के लिए एकत्र होनेवाला। समाज। (कॉन्फ्रेंस) २. जमावड़ा। जमघट। ३. मिलाप। संगम। ४. कोई बहुत बड़ी संस्था। जैसे—हिन्दी साहित्य सम्मेलन।
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सम्मोद  : पुं० [सं० सम√मुद् (हर्षित होना)+घञ्] १. प्रीति। प्रेम। २. मोद। हर्ष।
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सम्मोह  : पुं० [सं० सम√मुह् (मोहित करना)+घञ्] १. मोह। २. प्रेम। ३. भ्रम। धोखा। ४. सन्देह। ५. मूर्च्छा। बेहोशी। ६. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और एक गुरु होता है।
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सम्मोहक  : वि० [सं० सम√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. सम्मोहन करनेवाला। सम्मोहन शक्ति से युक्त। २. मनोहर। सुन्दर। पुं० सन्निपात ज्वर का एक भेद।
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सम्मोहन  : पुं० [सं०] १. इस प्रकार किसी को मुग्ध करना कि इसमें हिलने-डुलने करने-धरने तथा सोचने-विचारने की शक्ति न रह जाय। २. वह गुण, या शक्ति जिसके द्वारा किसी को उक्त प्रकार से मुग्ध किया जाता है। ३. शत्रु को मुग्ध करने का एक प्राचीन अस्त्र। ४. कामदेव का एक बाण। वि० सम्मोहक।
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सम्मोहनी  : स्त्री० [सं० सम्मोहन-ङीप्] १. लोगों को मोह में डालने या मुग्ध करनेवाली एक तरह की माया। २. लाक्षणिक अर्थ में वह शक्ति जो मनुष्य को असमर्थ बनाकर भुलावे में डाल देती है।
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सम्मोहित  : भू० कृ० [सं० सम-मुह् (मुग्ध करना)+णिच्-क्त] १. सम्मोहन के द्वारा जो मुग्ध मोहित या वशीभूत किया गया हो। २. बेहोश किया हुआ।
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सम्म्राज  : पुं०=साम्राज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्यक्  : पुं० [सं०] समुदाय। समूह। वि० १. पूरा। सब। समस्त। २. उचित। उपयुक्त। ३. ठीक। सही। ४. मनोनुकूल। क्रि० वि० १. पूरी तरह से। २. सब प्रकार से। ३. अच्छी तरह। भली-भाँति।
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सम्यक्-चरित्र  : पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार धर्मत्रय में से एक धर्म। बहुत ही धर्म का तथा शुद्धतापूर्वक आचरण करना।
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सम्यक्-ज्ञान  : पुं० [सं०] उचित ज्ञान। पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार धर्मत्रय में से एक। रत्नत्रय, सातों, तत्त्वों, आस्था आदि में पूरी पूरी श्रद्धा होना।
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सम्यक्-संबद्ध  : वि० [सं०] वह जिसे सब बातों का पूरा और ठीक ज्ञान प्राप्त हो गया हो। पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।
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सम्यक्-समाधि  : स्त्री० [सं०] बौद्धों के अनुसार एक प्रकार की समाधि
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सम्याना  : पुं०=शामियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्रथ  : वि०=समर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्राजना  : अ० [सं० सम्राज] अच्छी तरह प्रतिष्ठित, स्थापित या विराजमान होना। उदाहरण-नाम प्रताप शम्भु सम्राजै।—निराला।
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सम्राजी  : स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जो किसी साम्राज्य की स्वामिनी हो। २. सम्राट की पत्नी।
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सम्राट  : पुं० [सं०] साम्राज्य का स्वामी। विशेष—प्राचीन भारत में यह पद उसी बड़े राजा को प्राप्त होता था जो राजसूय यज्ञ कर चुका होता था।
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सम्रिति  : स्त्री०=स्मृति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सम्हलना  : अ०=सँभलना।
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