शब्द का अर्थ
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					सेवा					 :
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					स्त्री० [सं०] १. बडे़ पूज्य स्वामी आदि को सुख पहुँचाने के लिए किया जाने वाला काम। परिचर्या। टहल। मुहा०–सेवा मे=बड़े के समने आदरपूर्वक । २. सेवा या नौकर होने की अवस्था या काम। नौकरी। ३. व्यक्ति संस्था आदि से कुछ वेतन लेकर उनका कुछ काम करने की क्रिया या भाव। नौकरी। ४. किसी लोकोपयोगी वस्तु विषय कार्य आदि में रुची होने के कारण उसके हित, वृद्धि, उन्नति आदि के लिए किया जाने वाला काम। जैसे–साहित्य—सेवा आदि। ५. सार्वजनिक अथवा राजकीय कार्यो का कोई विशेष विभाग जिसके लिए कोई विशेष प्रकार का काम हो। जैसे–वैचारिक—सेवा (जुडिशियल सर्विस)। साधविक सेवा। (इक्जिक्यूटिव सर्विस) ६. इस प्रकार में किसी में काम करने वालो का समूह या वर्ग। (सर्विस उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. धार्मिक दृष्टि से देवताओं की मूर्तियों आदि को स्नान कराना, फूल चढ़ना, भोग लगाना आदि। जैसे–ठाकुर जी की सेवा। ८. किसी के पालन—पोषण, रक्षण, संवर्धन आदि के लिए किये जाने वाले उपयुक्त काम। जैसे–गौ की सेवा, पोड़—पौधो की सेवा। ९. उपभोग। जैसे–स्त्री—सेवा। १॰. आश्रम। शरण। जैसे–वे बहुत दिनो तक महाराज की सेवा में पड़े रहे।				 | 
			
			
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					सेवा-काकु					 :
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					स्त्री० [सं०] सेवा कैल में स्वर परिवर्तन या आवाज बदलना। (अर्थात कभी जोर से बोलना, कभी मुलामियत सो, कभी क्रोध से और कभी दुख भाव से।)				 | 
			
			
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					सेवा-काल					 :
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					पुं० [सं०] वह अवधि, जिसमें कोई सेवा में नियुक्त रहा हो। (पीरियड आफ सर्विस)				 | 
			
			
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					सेवा-टहल					 :
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					स्त्री० [सं० सेवा+हिं० टहल] ‘बड़ों’, रोगियों आदि की परिचर्या। खिदमत। सेवा-शुश्रुषा।				 | 
			
			
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					सेवा-पंजी					 :
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					स्त्री० [सं०] वह पंजी या पुस्तिका जिसमें सेवकों विशेषतः राजकीय सेवको के सेवा काल की कुछ मुख्य बातें लिखी जाती है। (सर्विस बुक)				 | 
			
			
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					सेवा-पद्धति					 :
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					स्त्री० [सं०] वैष्णव संप्रदायों में देवताओं आदि की सेवा—पूजा की कोई विशिष्ट प्रणाली।				 | 
			
			
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					सेवा-बंदगी					 :
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					स्त्री० [सं० सेवा+फा० बंदगी] १. साहब—सलामत। २. आराधना। पूजा।				 | 
			
			
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					सेवा-भाव					 :
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					पुं० [सं०] सेवा विशेषतः उपकार करने की भावना। जैसे–वे साहित्य—साधना सेवा-भाव से ही करते है।				 | 
			
			
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					सेवा-वृत्ति					 :
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					स्त्री० [सं०] सेवा या नौकरी करके जीविका उपार्जन करना या जीवन बिताना।				 | 
			
			
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					सेवाजन					 :
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					पुं० [सं०] सेवा करने वाले व्यक्ति।				 | 
			
			
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					सेवांजलि					 :
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					स्त्री० [सं०] कर—संपुट या अंजलि में भरी या रखी वस्तु गुरु, देवता आदि को समर्पण करना।				 | 
			
			
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					सेवाती					 :
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					स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।				 | 
			
			
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					सेवादार					 :
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					पुं० [सं०+फा०] [भाव० सेवादारी] १. वह सिक्ख जो किसी सिख गुरू की सेवा में रहकर परम निष्टा और श्रद्धा—भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करता था। २. आज—कल वह सिक्ख जो गुरुद्वारे में रहकर गुरुग्रंथ साहब की पूजा आदि के काम पर नियुक्त रहता है। द्वारपाल।				 | 
			
			
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					सेवादास					 :
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					पुं० [सं०] [स्त्री० सेवा—दासी] छोटी—छोटी सेवाएँ करने वाला नौकर। टहलुआ।				 | 
			
			
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					सेवाधर्म					 :
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					पुं० [सं०] सेवक का धर्म।				 | 
			
			
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					सेवाधारी					 :
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					पुं० =सेवादार।				 | 
			
			
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					सेवापन					 :
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					पुं० [सं० सेवा+हिं० पन (प्रत्य०)] सेवा करने की क्रिया, ढंग या भाव।				 | 
			
			
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					सेवाय					 :
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					अव्य०=सिवा (अतिरिक्त)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					सेवायत					 :
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					पुं० [हिं० सेवा] वह जो किसी देव मूर्ति की सेवा आदि के काम पर नियुक्त हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					सेवार					 :
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					स्त्री० [सं० शैवाल] १. नदियों, तालों आदि में होने वाली लंबे, कड़े तथा तेज किनारो वाली घास। २. मिट्टी की तहें जो किसी नदी आस पास जमी हों। पुं० पान। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					सेवारा					 :
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					पुं०=सेवड़ा (पकवान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					सेवाल					 :
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					स्त्री०=सेवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					सेवावाद					 :
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					पुं० [सं०] खुशामद। चापलूसी।				 | 
			
			
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					सेवावादी					 :
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					पुं० [सं०] खुशामदी। चापलूस।				 | 
			
			
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